________________
परमात्मा बनने की कला
चार शरण
कर्मवन में दुःख और क्लेश के फल उत्पन्न होते हैं। सर्वज्ञ कथित शुद्ध धर्म को प्राप्त नहीं करने के कारण आत्मा में यह वन फला-फूला है। अनादि अनन्तकाल से संसारी जीवों को दुःखरूपी कड़वे फल चखाते रहते हैं। यह दुःख आत्मा का सहज स्वभाव नहीं है। ये तो कर्म के उदय से आते हैं। कर्म हिंसादि पापों से जन्म लेते हैं । सर्वज्ञ के द्वारा कहा हुआ शुद्ध और सिद्ध अहिंसादि धर्म इस कर्मवन को जलाकर भस्मीभूत करता है। फिर दुःख का नामोनिशान नहीं रहता है। बाद में स्फटिक के समान निर्मल आत्मा में अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख की शाश्वत् ज्योति जगमगाती है । अहो ! कैसा सुन्दर धर्म; मैं इसको सा लूँगा तो मेरे कर्म तो नष्ट हो ही जायेंगे। क्योंकि इससे ही कर्म नष्ट होते हैं।
सिद्धभाव का साधक
धर्म सिद्धता का, मुक्ति का साधक है, संपादक है। धर्म के बिना सिद्धि नहीं होती, इस प्रकार धर्म होगा, तभी सिद्धि की ओर अवश्य प्रयाण होगा। जैसे-जैसे धर्म सधेगा, वैसे-वैसे जीव वीतराग दशा, शुद्ध ज्ञान दृष्टि इत्यादि के निकट जा रहा होगा। ऐसे धर्म की मैं जावज्जीव शरण स्वीकारता हूँ।
यहाँ चारों शरणों के कार्य एक समान हैं, इसलिए एक के बदले चारों शरण स्वीकार करने में परस्पर के कार्यों का विरोध नहीं आने वाला । अरिहंत प्रभु वीतराग हैं, वीतरागता के उपदेशक हैं। सिद्ध प्रभु भी वीतराग हैं, साधु एक मात्र वीतरागता के साधक हैं, धर्म वीतरागता का उपायभूत है। इस प्रकार चारों वीतराग बनने में उपयोगी हैं। इसलिए चारों शरण में अन्यान्य विरोध नहीं है।
चौथे शरण में धर्म को स्वीकार कर हमें विचार करना है कि अनादिकालीन संसार रूपी भवसागर से तिराने वाला यह धर्म है । किन्तु आज मानव की मन:स्थिति बड़ी उलझन से भर गई है। भारत देश में ही अनेक धर्म हैं । उनमें भी जैन धर्म के अनेक विभाजन हैं। वर्तमान में सम्पूर्ण ज्ञानी, केवलज्ञानी परमात्मा की उपस्थिति नहीं है। ऐसे में सच्चा व मध्यस्थ व्यक्ति तो असमंजस स्थिति में पड़ जाता है । किन्तु हम सभी को बचपन से केवलज्ञानी भगवन्तों के द्वारा कहा गया शुद्ध और सात्विक धर्म प्राप्त हुआ है। जिस किसी को इस शुद्ध धर्म की प्राप्ति नहीं हुई, वे अनेक धर्मों की परीक्षा करते रहते हैं और अन्त में इसी धर्म को श्रेष्ठ बतलाते हैं।
सही मार्ग का चयन
हमें जन्म के साथ ही जिनशासन सम्प्राप्त हो गया। जैन धर्म में भी अनेक पंथ, सम्प्रदायों का विभाजन है। इनमें भी श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी आदि
Jain Education International
130
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org