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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
कितने गच्छ-पंथ हैं। कान जी स्वामी से निश्चय नय का धर्म निकला, दादा भगवान, रजनीश ओशो आदि कितने ही पंथ निकले हैं। जहाँ बातें बड़ी, पर आचरण में शून्यता होती हो, वहाँ विशेष सावधानी रखनी चाहिए। 'दुःखमा' नामक पंचम् आरे को विषैले सर्प की उपमा दी गई है, जो मानव को दंश मारता रहता है। यह पंचम आरा भयंकर होने से उपाध्याय जी महाराज ने कहा- 'कलिकाले जिनबिम्ब जिनागम्, भवियण कुंआधारा।' इस कलिकाल में परमात्मा की प्रतिमा और शास्त्र, ये ही एकमात्र आधारभूत हैं; संसार से तिरने के साधन हैं। धर्म की शरण स्वीकार करने वालों के लिए इसे समझना जरूरी है। जिनेश्वर परमात्मा के द्वारा प्ररूपित धर्म के अतिरिक्त अन्य कहीं भी नहीं जाना अर्थात् दूसरी जगह भटकना नहीं। जीवन पर्यन्त यही मेरा धर्म है, ऐसी दृढ़ता से उसे स्वीकार करना है। तीर्थंकर परमात्मा ने जगत् के जीवों के लिए हित की भावना से जिस धर्म को बताया है, उसी धर्म को मैं स्वीकार करता हूँ। भीतर में विशेष हर्षोल्लास की वृद्धि हो, इस कारण धर्म की विशेषता बताई गई है। यह सामान्य कोटि का धर्म नहीं हैं, बल्कि सम्यग् दृष्टि के देवताओं द्वारा पूजनीय है। ___धर्म को पूजने के लिए धर्मी को पूजना पड़ता है। धर्म आत्मा का गुण है। इसलिए वह आत्मा में रहता है और जब वह धर्म को जीवन में स्वीकार कर धर्म करता है, तब देवताओं द्वारा वह धर्मी व्यक्ति पूजित बन जाता है। उस धर्मी पुरूष की देवता भी प्रशंसा करते हैं, इन्द्र महाराज भी इन्द्रसभा में बैठने से पहले विरतिधर को प्रणाम करते हैं।
परमात्मा विरति धर्म का वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि सम्यग्दृष्टि देवता भी देवलोक में ऐसा संकल्प करते हैं कि यहाँ से मनुष्य गति जाने के बाद आठ वर्ष की उम्र में चारित्र ग्रहण करूँगा और कर्मों को क्षय करूंगा। इसीप्रकार विरति धर्म को हमें भी स्वीकार करना चाहिए, जिसे प्राप्त किये बिना मोक्ष नहीं है। 'चारित्र बिन नहीं मुक्ति रे।' संसार का अंत विरति धर्म से ही आता है। कहते हैं, महाभोग महाऋद्धि के स्वामी चक्रवर्ती भी 64000 महारानियों एवं छः खण्ड का आधिपत्य का त्याग कर चारित्र धर्म, सर्वविरति धर्म को स्वीकार करने के लिए चले जाते हैं। यह मार्ग महापुरूषों द्वारा निर्मित है। तीर्थकर 'भगवन्त को भी चारित्र धर्म स्वीकार करने के पश्चात् ही केवलज्ञान प्रकट होता है, गणधरदेव, बलदेव, राजा, महाराजा भी चारित्र धर्म स्वीकार करते हैं। परमात्मा ऋषभदेव के शासन में अनेक राजा हुए। उन सभी ने राज्य-सत्ता छोड़कर दीक्षा ग्रहण की। कर्मक्षय कर मोक्ष पधार गये। कुछ अनुत्तर विमान के देव बने।
देव, सम्राट आदि के द्वारा सेवित ऐसे धर्म की शरण हमें स्वीकार करना है।
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