SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला परन्तु, जब तक मोहनीय कर्म का प्रगाढ़ अन्धकार है, तब तक मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म सत्य को नहीं समझने देता है | चारित्र - मोहनीय जीवन 'अच्छे संस्कार नहीं आने देता है | दर्शन - मोहनीय श्रद्धा प्रकट नहीं होने देता है। भगवान के दर्शन से हमारी आँखों में अश्रुधारा प्रवाहित नहीं होने का कारण यही है कि अभी समकित की नींव मजबूत नहीं बनी है। परमात्मा का नाम स्मरण भी यदि मन में हर्षोल्लास पैदा नहीं करता है तो यह भी सम्यक्त्व की कमजोरी का कारण है। परमात्मा हमें अभी तक हमारे प्रतीत नहीं हो रहे हैं, यह भी मोह जाल का खेल है। जीव यहीं पर फंसता जाता है। मोह के गाढ़ आवरण का नाशक यदि शुद्ध धर्म हमारे हृदय में आ जाए तो मोह का अंधकार तुरन्त भाग जाता है। जैसे इलाची पुत्र का मोह रूपी अधंकार मुनि को देखकर तुरन्त चला गया। नगर सेठ का पुत्र एक नटिनी के पीछे पागल बना हुआ है । नटिनी के प्यार के पीछे घर, कुटुम्ब, पैसे आदि सभी का त्यागकर नटिनी को प्राप्त करने नटों की टोली में आ गया। चार शरण एक बार इलाची कुमार रस्सी पर नृत्यकला प्रदर्शित कर रहा था । नृत्य करतेकरते एकदम सामने महल में दृष्टि पड़ी। रूपवान, देवांगना, अप्सरा जैसी एक श्राविका मुनि भगवन्त को मोदक (लड्डू) वोहरा रही थी, किन्तु मुनि भगवन्त एक दृष्टि से आहार ले रहे थे। उनका ध्यान जरा भी विचलित नहीं हुआ। इस दृश्य मात्र से इलाची कुमार के मन में विचार आया कि 'मेरा मन कैसा अपवित्र है, पापी है। मुनि कितने पवित्र हैं! दृष्टि भी नीचे धरती की ओर है।' इसी विचार से रस्सी पर ही मन परिवर्तित हुआ और अपने पापों का प्रायश्चित करते-करते कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। शुद्धधर्म ने ही मोहरूपी अंधकार को दूर किया है। कहने का तात्पर्य यही है कि धर्म की सच्ची शरण स्वीकार करने के लिए दृढ़ श्रद्धावान बनना जरूरी है। परमात्मा की वाणी शत्-प्रतिशत सत्य है। इस पर अंशमात्र भी शंका नहीं होनी चाहिए। संसार के भय से आत्मा की रक्षा करने के लिए आश्रय रूप यह धर्म ही है। गुण्डों से बचने के लिए जैसे पुलिस का आश्रय होता है, ठीक वैसे ही राग-द्वेष और मोह रूपी तूफान से बचने के लिए अरिहंत आदि चारों की शरण को भावपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। अरिहंत आदि की शरण स्वीकार करने के साथ ही यह भी स्वीकार करें कि परमात्मा ने जिन बातों का निषेध किया है, उनका आचरण नहीं करूँगा; आत्मसाक्षी व प्रभु-साक्षी से स्वयं के पापों की निन्दा करूंगा। वैसे दुनिया में सदैव दूसरों की निंदा करना प्रायः सभी को प्रिय लगता है और इसी कारण चिकने रस कर्म का बन्धन Jain Education International 132 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy