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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कर्मों का बंध होता है। प्रणिधान यानि जिसका लक्ष्य हमने बनाया है उसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का विचार ही मन से निकाल देना। मात्र उसी वस्तु को मन में बैठाकर रखना। परमात्मा दर्शन विधि में त्रिदिशा-त्याग विधि आती है, जिसमें तीन दिशाओं का त्याग करके मात्र परमात्मा की दिशा में दृष्टि होनी चाहिए। जिनालय में किसने प्रवेश किया अथवा कौन जा रहा है, उनकी जानकारी बिलकुल नहीं रखनी चाहिए। प्रतिक्रमण करते समय भी इसी विधि का ध्यान रखना है। सूत्र व अर्थ, दोनों में चिन्तन चलना चाहिए। वर्तमान में ऐसे साधु भगवन्त व श्रावकगण मौजूद हैं, जो प्रतिक्रमण के एक-एक सूत्र में एक-एक शब्द का चिन्तन करके अपने पापों का स्मरण करते हुए आँखों से चहुंधारा आँसू बहाते हैं। प्रत्येक सूत्र में गूढ़ रहस्य भरा है। अरिहंत चेईयाणं सूत्र व उसके अर्थ में भी गूढ़ रहस्य व फल छिपा हुआ है। सम्पूर्ण विश्व के लोगों द्वारा परमात्मा को जो वन्दन, पूजन, स्तवना, स्तुति, वस्त्रफूल आदि से सम्मान किया गया हो, उन सभी का फल हमें मिल सकता है। पर कैसे? अनुमोदना से; और इनके अनुमोदनार्थ एक नवकार का कायोत्सर्ग करके फल को प्राप्त कर सकते हैं। कायोत्सर्गमीसप्रयोजन सम्यक्त्व की प्राप्ति, अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। श्रद्धापूर्वक कायोत्सर्ग होना चाहिए। मात्र श्रद्धा ही नहीं, बुद्धिपूर्वक श्रद्धा चाहिए। जल्दी-जल्दी नहीं, धैर्यता पूर्वका धीरज धारण कर के, शब्दों के अर्थ की धारणा से एवं अनुप्रेक्षा पूर्वक सूत्र अर्थ का चिन्तन करना ही कायोत्सर्ग है। इतना ही नहीं, बढ़ती हुई श्रद्धा से, बढ़ती हुई बुद्धि से, धैर्यता से, धारणा से, अनुप्रेक्षा से कायोत्सर्ग करना चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण भाव पूर्वक किया गया कायोत्सर्ग का सुन्दर परिणाम प्राप्त होता है। इनका लाभ मात्र एक नवकार के कायोत्सर्ग से सम्प्राप्त हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है सूत्र का एक भी पद उच्चारण करो तो प्रणिधान पूर्वक करना चाहिए। ऐसी धर्म क्रिया मोक्ष दिलाने में सफलीभूत बनती है। कम करो पर श्रद्धापूर्वक करो, एकाग्र होकर करो। एक बार नवकार का उच्चारण करना है तो भी भाव सहित उच्चारण करो। मन सम्पूर्ण रूप से इसी में स्थिर बन जाए। नवकार महामन्त्र के एक अक्षर मात्र 'न' में 1008 विद्यादेवियाँ विराजमान हैं। मात्र डूबना आना चाहिए, कार्य में सफलता अवश्य मिलती है। 98 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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