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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदन श्रवण, मनन और एकाग्रध्यान आत्मा में उतारने से जो शुभ भाव जागृत होते हैं, उससे उन अशुभ अनुबंधों का चूरा उड़ जाता है। बाद में आत्मा पर चले आ रहे संसार प्रवाह को सुखाकर ही छुटकारा लेता है ! सूत्र स्वाध्याय के परिणाम इस सूत्र का स्वाध्याय करने वाले पाठकों के जीवन में शुभ कर्मों का अनुबन्ध भरपूर प्रमाण में इकट्ठा होता है। शुभ भावनाओं की वृद्धि होने से पुण्य कर्म परिपुष्ट बनते हैं। अत्यन्त बलवान बने शुभ कर्म जीवात्मा को मोक्ष तक पहुँचाते हैं। शुभ अध्यवसाय के साथ इस सूत्र का स्वाध्याय करने से पुण्य कर्म उत्पन्न होता है। पुण्य कर्मों के पीछे यह अनुबन्ध इतना ज्यादा प्रकृष्ट होता है कि ये पुण्यकर्म निश्चित ही उत्तम फल देते हैं। महाव्याधि में दी गई कोई कल्याणकारी औषधि जैसे अचूक परिणाम दिखाती है, वैसे ही ये शुभकर्मों के अनुबन्ध भी अचूक फल देते हैं। नये तेजस्वी शुभ कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाले बनते हैं, तथा परम सुख का कारण बनते हैं । इसलिये इन कारणों को जानकर, संसारी फल की इच्छा रहित होकर, चित्त के अशुभ भावों को दूर करके जो इस सूत्र का स्वाध्याय किया जाये तो ये सूत्र शुभ भावों के बीज बनते हैं। एकाग्रता धारण करके इस सूत्र का अच्छी तरह पाठ करना, अच्छी तरह श्रवण करना तथा अच्छी तरह से. परिभावन करना चाहिए। इस प्रकार इस पंचसूत्र के द्वारा हृदय में उल्लसित हुए शुभ अध्यवसाय से अशुभानुबन्ध रूपी ज़हर दूर होता है। उससे अशुद्ध कर्म के विपाक की परम्परा चलाने का सामर्थ्य नष्ट हो जाता है। जैसे मंत्र के सामर्थ्य से कंटकबद्ध विष बहुत थोड़े फल देने वाले हो जाते हैं, वैसे ही चार शरण आदि के शुभ भाव रूपी मंत्र से यहाँ बाकी के अशुभ कर्म रूपी विष भी अल्प फलविपाक वाले बन जाते हैं। उसे सहजता से और सम्पूर्ण रूप से दूर कर सकें, ऐसे हो जाते हैं; दूसरा भी वैसा ही उत्कृष्ट स्थितिवाला, फिर से जन्म न ले वैसा हो जाता है। ऐसे होने से पूर्वकाल में जैसा भोगा, वैसा अब भविष्यकाल में अशुभ कर्म के महाकटुविपाक भोगने नहीं रहते । चार शरणादि तीन उपाय और पूर्वोक्त प्रार्थना से उपस्थित हुए शुभ भाव का यह जबरदस्त लाभ समझ आए तो प्रतिदिन इसका त्रिकाल अध्ययन करें। यहाँ इस प्रकार नुकसान के निवारण हेतु यह फल रूप में कहा गया है। अब Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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