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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश सादा-जीवन उच्च विचार को चरित्रार्थ करने वाले थे। एक बार शास्त्री जी अपनी पत्नी के साथ कलकत्ता में साड़ी खरीदने के लिए साड़ी की दुकान पर गये। दुकान का मालिक शास्त्री जी को देखकर तुरन्त आश्चर्य चकित होकर खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री जी स्वयं दुकान पर आये हैं तो महंगी साड़ियाँ निकालकर उनको दिखाने लगा। पाँच, दस हजार की साड़ी देखकर शास्त्री जी ने कहा- 'मुझे इतनी कीमती साड़ी नहीं चाहिए'। दुकान वाले ने कहा- 'आपको पैसे कहाँ देने हैं, आप तो मात्र साड़ी पसंद कीजिए।' शास्त्री जी ने कहा- 'मुझे मुफ्त में साड़ी नहीं लेना है।' दुकान के मालिक ने कहा- 'आप से कोई पैसे कैसे ले सकता है? यह आप ही की दुकान है। आप चाहे जितनी साड़ी लें।' दुकान वाले ने अपनी पहचान बताते हुए शास्त्री जी को दुकान में लगा हुआ उनका फोटो दिखाया, परन्तु शास्त्री जी ने एक न मानी। सामान्य साड़ी पसंद कर उसका मूल्य देकर अपनी पत्नी के साथ चले गये। कहने का तात्पर्य है कि शास्त्री जी को सज्जनता मिली, पर सच्चे देव-गुरु-धर्म नहीं मिले; और हमें धर्म मिला, कर्म ने हमारी आवाज सुन ली। परमात्मा की शरण में लाकर छोड़ दिया। अब हमें क्या करना है? परमात्मा के शरण में जाकर उनके चरण पकड़ लेना है या छोड़ देना है? अब तो मात्र एक ही सहारा है, परमात्मा की शरण स्वीकार कर लेने में ही सार है। अब मैं बहुत थक गया हूँ, मुझे दुर्गति में नहीं जाना है। मुझे एक दिन भी दुःख नहीं भोगना है, शीघ्र संयम लेकर सुन्दर आराधना करनी है। बालक की तरह भगवान् को पकड़कर लिपट जाना है। . कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी म. वीतराग स्त्रोत्र में भगवान् से प्रार्थना करते हुए कहते है कि 'जब तक आप मुझे मोक्ष नहीं ले जाओगे, तब तक मैं आपकी शरण नहीं छोडूंगा और आप भी मुझे मत छोड़ना।' - इतना सब कुछ कहने का तात्पर्य यही है कि कर्म ने हमको सभी सुविधाएँ दी हैं। जैसे माता हलवा बनाकर अपने लाडले बेटे के मुँह में कवल रख भी देती है, पर उस कवल को गले से नीचे तो उसके बेटे को ही उतारना होगा। बस इसी तरह कर्मों ने हमें सामग्री दे दी। अब उन साधनों का हमें सही उपयोग करना है। केवल सच्चा पुरुषार्थ करना है। अचरमावर्तकाल के कारण हमारा पुरुषार्थ भी हमें सही परिणाम नहीं दे पाया था। परन्तु चरमावर्त काल में आने के पश्चात् अब हमें सही सामग्री प्राप्त हुई है। सच्चे देव-गुरु-धर्म मिल गये हैं। अब सही पुरुषार्थ नहीं रहा तो कर्म सत्ता उस सामग्री को वापस छीन लेगी। Jain Education International 57 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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