________________
परमात्मा बनने की कला
आरंभ हो जाती है। इन्हें हम पुण्यानुबन्धी कर्म कह सकते हैं। इनके बिना विपाक (फल) के समय आत्मा में तीव्र मिथ्यात्व, कषायावेश का अभाव होने से धर्म - गुण की रूचि भीतर में प्रकट होती है।
सारांश
पाप प्रतिघात के पश्चात् गुण बीजाधान करने की इच्छा हो तो सर्वप्रथम प्राणातिपात-विरमण आदि गुणों का आकर्षण प्रकट करना होगा। जीवन में धर्म- गुण ही ग्रहण करने योग्य (उपादेय) हैं । यही कर्त्तव्य हैं, हितकारी हैं, प्राप्त करने योग्य हैं। हिंसा, असत्य आदि करने योग्य नहीं हैं। ऐसा भीतर में भाव पैदा होगा। इससे धर्म-गुण के प्रति श्रद्धा प्रकट होती है। इस धर्म - गुण की प्राप्ति से ही जीवन धन्य लगता है। यही धर्म - गुण जीवन में सारभूत होता है, यही श्रद्धारूप बीज सम्यक्त्व कहलाता है। इस श्रद्धा में मोक्ष के प्रति रूचि है, तत्त्व का आग्रह है । परिणति ज्ञान है। ये सभी भाव कब आते हैं ? जब पाप का प्रतिघात होता है, जब भवरूचि का पाप मिट जाता है, तब ही मोक्ष की रूचि प्रकट होती है। अतत्त्व, मिथ्यात्व की रूचि का पाप चला जाता है, तब ही तत्त्व रूचि जगती है और संसार-रसिकता का पाप चला जाता है; अर्थात् विषयों को सुख रूप और इन्द्रियों को सुख का साधन रूप में देखना, जब यह प्रतिभास ज्ञान चला जाता है, तब तत्त्व परिणति का गुण आता है। परिणति अर्थात् विषयों का सच्चा स्वरूप समझ में आना| विषय - हलाहल विष के समान है, भवों की वृद्धि करने वाला है, ऐसा हृदय में अंकित हो जाना ही परिणति कहलाती है। इसी प्रकार हिंसा, असत्य इत्यादि पापों के प्रति भी लगे । ऐसे भाव चित्त में उत्पन्न होने के पश्चात् मिथ्यात्व पाप का प्रतिघात होकर सम्यग्दर्शन रूपी गुण बीज की प्राप्ति होती है।
इस पंचसूत्र के पदार्थ को बाह्य रूप में समझना सरल है किन्तु भीतर में उतारना गहरा व गंभीर है। हृदय में इस सूत्र का स्पर्श हो जाए, इसके लिए अति गंभीर विचारों की जरूरत है।
जब पाप प्रतिघात से अशुभानुबन्ध के आश्रव रूक जाते हैं, तथा गुणबीजाधान द्वारा शुभानुबन्ध के आश्रव प्रकट हो जाते हैं, तब हृदय में हिंसादि दृष्कृत्यों के भाव जगाने के पाप साधन के स्थान पर गुणों के भाव उत्पन्न करने के साधन प्रकट होते हैं। इस प्रकार शुभ प्रवृति के अनुकूल बाह्य और आभ्यन्तर साधन प्राप्त होते हैं। बाह्य से मानव देह, आर्यक्षेत्र, पाँच इन्द्रियों की पटुता, स्वस्थ मन, आरोग्य, अरिहन्त देवाधिदेव, निर्ग्रथ गुरू, सर्वज्ञ वचन इत्यादि प्राप्त होते हैं। आभ्यन्तर से शुभभाव, सम्यग्वीर्योल्लास इत्यादि प्रकट
Jain Education International
25
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org