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परमात्मा बनने की कला
होते हैं। अन्त में, मोक्ष न मिले, वहाँ तक पुण्य से ऐसे साधन प्राप्त होते रहेंगे। अशुभ अनुबन्ध के प्रतिघात और शुभानुबन्ध के बीज वपन से ही ऐसी स्थिति प्रकट होती है। यही पुण्यानुबन्धी पुण्य का प्रभाव है। इसमें मुख्य रूप से विशुद्ध अध्यवसाय यानि हृदय का शुभ भाव धर्म गुण की तीव्र इच्छा, मोक्ष आदि ये ही 'गुणबीज' हैं।
गुणबीजाधान से हिंसा-विरमण आदि गुणों के प्रति रूचि व आकर्षण प्रकट होना इन गुणों को स्थूल रूप से स्वीकार करने के लिए प्रयत्न आरंभ होना है। 'स्थूल' से तात्पर्य गृहस्थ घर निवास में रहते हुए इनका पालन कर सके, वैसे बड़े-बड़े रूप में हिंसा विरमण, असत्य विरमण आदि। यथा
1. मैं निरपराधी चलने-फिरने वाले जीवों को जान कर मारूंगा नहीं। 2. मैं कन्या, गाय, भूमि आदि विषय सम्बन्धी झूठ बोलूंगा नहीं। 3. परिग्रह रखे प्रमाण से ज्यादा रखूगा नहीं इत्यादि। इन्हें अणुव्रत कहते हैं।
संसार के त्यागी साधु भगवंतों को महाव्रत लेने होते हैं; जिसमें पृथ्वीकाय, अप्काय आदि सूक्ष्म जीवों की भी हिंसा का निषेध होता है। थोड़ा सा असत्य भाषण भी वर्जित होता है। एक पैसे का भी परिग्रह नहीं होता, इत्यादि। ऐसी स्थिति को हृदय में प्रकटाने के लिए यहाँ अणुव्रत स्वीकार करना और इनके पोषण करने वाले विषयों का आदर व बाधक विषयों का त्याग करना है। इन सभी का अभ्यास गृहस्थ को करना चाहिए। क्षमादि का यही अभ्यास इस प्रकार के साधु धर्म में पहुँचने के लिए है। जिससे इन्हें साधु धर्म की भावना वाला अभ्यास यानि परिभावना कहते हैं। ।
सुलोचना चरण रज - डॉ. प्रियदिव्यांजनाश्री
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