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________________ परमात्मा बनने की कला साधु भगवन्त की शरण स्वीकार करके श्रावक को विचार करना है कि प्रतिदिन जितना अनाज पचाने की शक्ति रखते हैं, तो जीवन में जो कुछ जानते हैं अथवा सुनते हैं उन कटु सत्य को भी पचाने की शक्ति रखें। यह गंभीर गुण साधु जीवन से प्राप्त करें। सावद्य पाप व्यापार नहीं करना चाहिए, पर वर्तमान में जो करोड़ों रुपये कमा रहे तो उसे प्राप्त कर अनुमोदन न करें एवं करोड़ रुपये का नुकसान होने पर खेद न करें। धन के पीछे जीवन को व्यर्थ नहीं खोना है। मन वचन काया से पाप करना नहीं, करवाना नहीं, करते हुए का अनुमोदना नहीं करना । जैसे मुनि भगवन्तों ने पाप त्यागा है, वैसे मैं भी करूँ। साधु जीवन में सर्व सावद्य व्यापार का त्याग होता है । सामायिक में श्रावक दो घड़ी के लिए सावद्य व्यापार का त्याग करता है, किन्तु मुनि जीवन पर्यन्त सावद्य व्यापार को त्यागता है। साधु तीन करण व तीन योग से पापों को छोड़ता है। श्रावक दो करण व तीन योग से पाप त्याग करता है। सामायिक में रहता है पर घर, दुकान को मालिकी का त्याग नहीं करता है। अनुमोदना चलती रहती है। बैंक में रुपये का ब्याज आता रहता है। वस्तु की मालिकी का अनुमोदन चलते रहने से पाप का क्रम भी चलता है । सर्वविरति महान् साधना है। चार शरण गर्मी में ठण्डी हवा आती है तो हम अनुमोदना करने लग जाते हैं। अनुमोदना से वायुकाय के जीवों की विराधना होती है। ऐसा हमारे परमात्मा ने बताया है। जिनशासन की बलिहारी है, जिसने हमें छोटे-बड़े पापों से बचने का उपाय बताया है। संघ की अभिवृद्धि के विषय में शिष्य ने गुरु से पूछा- 'भगवन्त ! सम्पूर्ण संघ अभिवृद्धि को कैसे प्राप्त करे ?' आचार्य श्री ने कोई योजना बनाकर नहीं बताई, बल्कि मात्र दो शब्दों में उत्तर दिया- 'पंचाचार का पालन करे'। आगे बढ़ने के लिए पांच आचारों का पालन करना चाहिए। स्वार्थ-परायणता को छोड़कर परोपकार परायण बनें । तीर्थंकर स्वयं परम उपकार की भावना भाते हैं। अत: हमें भी दूसरों से अपेक्षा की भावना रखे बिना परोपकार करना • चाहिए | जिनशासन में ऐसे भाग्यशाली भाई भी अनेक हैं जो किसी से अपेक्षा रखे बिना, वापस लेने की भावना बिना सेवा, भक्ति करते हैं। जब धार्मिक आयोजनों में उपधान तप, वर्षीतप सामूहिक रूप से कराया जाता है, वहाँ सर्वप्रथम कार्य करवाने पहुँच जाते हैं। तन-मन से तपस्वियों की सेवा - भक्ति करके अन्त में बिना कुछ ग्रहण किये घर चले जाते . हैं, और कहते हैं कि हम परमात्मा दर्शन पूजन करने के पश्चात् ही भोजन ग्रहण करते हैं। कुछ महानुभाव इस प्रकार भी संघ की भक्ति करते हैं। Jain Education International 125 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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