________________
परमात्मा बनने की कला
__ दुष्कृत गरे रुक्मिणी वंदन करने आयी और उद्यान में देशना सुनी। देशना सुनने से उसके रोम-रोम वैराग्य से झनझनाने लगे। हृदय रूपी बावड़ी में वैराग्यभाव का पानी उछलने लगा। उसने समग्र संसार का परित्याग कर चारित्र ग्रहण किया।
बहुत वर्षों के बाद शीलसन्नाह आचार्य हुए। एक बार शीलसन्नाह आचार्य के पास रुक्मिणी साध्वी विहार करके आयी और कहने लगी कि 'मुझे अनशन करना है।' तब आचार्य श्री ने कहा कि अनशन करने से पहले आलोचना करके आत्मा को हल्का बनाना चाहिए, जिससे सद्गति और मोक्ष की प्राप्ति हो।
- उसने आलोचना करनी शुरू की। अनेक प्रकार की हिंसा, असत्य, चोरी आदि की आलोचना कह दी, परंतु राजदरबार में घटित आँख के पाप की आलोचना नहीं की। आचार्य श्री ने अनेक प्रकार से वह पाप याद कराने और आलोचना करवाने का प्रयल किया, परन्तु उसने दूसरे नए किए हुए हिंसादि पापों का स्मरण कर आलोचना ग्रहण की। अंत में आचार्य भगवंत ने साध्वी जी को कहा कि राजदरबार में किसी व्यक्ति पर विकारमय दृष्टि डालकर पाप किया हो तो उसकी भी आलोचना करनी चाहिए।
रुक्मिणी समझ गयी कि आचार्य श्री तो मेरा पाप जानते हैं। अब यदि उनके समक्ष स्वीकार करूँगी, तो उनकी दृष्टि में हलकी गिनी जाऊँगी। परन्तु अब मेरे महत्त्व और अहंत्व का रक्षण किस तरह करूं? मोहनीय कर्म के उदय से स्वयं का महत्त्व और अहंत्व को बनाए रखने के लिए उसने बात को मोड़ दिया और कहा कि मैंने मंत्री के सत्त्व की परीक्षा के लिए दृष्टि डाली थी। इस प्रकार पाप को छिपाया और शुद्ध आलोचना नहीं की, जिससे उसके एक लाख भव हुए।
अब विचार कीजिये कि अनेक प्रकार के पापों की आलोचना करने पर हम यदि एक भी पाप की आलोचना छिपा देंगे, तो रुक्मिणी की तरह हमारी आलोचना शुद्ध नहीं हो पायेगी। हाँ, पाप याद करने पर भी याद न आए, तो अंत में यह कहना कि 'मैंने इससे भी अधिक पाप किये हैं। ओह गुरुवर्य श्री! कुछ तो याद ही नहीं आते हैं। अतः कोई पाप अनजान में रह गया हो तो उसका भी प्रायश्चित करने को तैयार हूँ। उनका मिच्छामि दुक्कडम्।'
'हे तारक गुरुदेव! मैं अज्ञान और मूढ़ मन वाला हूँ। मुझे कितना याद रह सकता है? जो याद नहीं हो, उसका मिच्छामि दुक्कडम्।'
रूक्मिणी साध्वी जी को आचार्य श्री बारबार समझाने का प्रयास करते हैं कि शल्य को भीतर मत रखो। वैसे ही गुरु भगवन्त हमें भी बार-बार कहते हैं कि जो पाप
150
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org