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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश पर ढूँढा गया, पर द्रौपदी कहीं दिखाई नहीं दी। पाण्डव श्रीकृष्ण की सहायता लेकर सभी जगह द्रौपदी को खोजने लगे। तभी नारद जी को आते हुए देखा और पूछा कि आपने द्रौपदी को कहीं देखा है क्या? नारद जी ने कहा- घातकी खण्ड में द्रौपदी के समान ही एक स्त्री तो मैंने देखी थी, पर वह द्रौपदी है या नहीं, मुझे पता नहीं। श्रीकृष्ण जी समझ गये थे। काम नारद जी का ही है। पाण्डवों को कहा, चलो हमें घातकी खण्ड जाना पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने देवताओं की आराधना की। उनकी सहायता से दो लाख योजन का पुल बनाया गया। पुल के सहारे सभी घातकी खण्ड पहुँचे। वहाँ पहुँचकर सभी पद्मोत्तर राजा के राज्य के बाहर आकर ठहर गये। पाण्डवों ने मिलकर श्रीकृष्ण से कहा- आप यहीं आराम फरमाइये, पद्मोत्तर राजा को हम पाँचों भाई जीतकर द्रौपदी को लेकर आते हैं। श्रीकृष्ण ने कहाराजा महाबलवान है। तुम जीत नहीं सकोगे? पाण्डव - कोई समस्या नहीं। अगर समस्या है, तो उसका समाधान भी है। जीतेंगे या मरेंगे। इस प्रकार संकल्प सहित पाँचों पाण्डव निकल गए, पर पद्मोत्तर राजा की सेना पाण्डवों की सेना से कई गुणा बड़ी था। पाण्डव लाख प्रयत्न करने पर भी जीत नहीं पाये। आखिर पुनः लौट आए। श्रीकृष्ण ने कहा - मुझे पता ही था। तुम मुँह उतार कर वापस आओगे। पूछा- कैसे ? श्रीकृष्ण ने कहा - तुम कहकर ही इस प्रकार गये थे, जीतेंगे या मरेंगे। तुम्हारा संकल्प ही अधूरा था। हम जीत कर ही रहेंगे, ऐसा दृढ़ संकल्प होना चाहिए। संकल्प जितना प्रबल होगा, सिद्धि उतनी ही निकट होगी। 2. प्रवृत्ति - जबरदस्त प्रणिधान (संकल्प) ग्रहण करने के पश्चात् कार्य में प्रवृत्ति होनी चाहिए। संकल्प स्वीकार कर लेने के बाद बैठे रहना सच्चा संकल्प नहीं कहलाता है। जितनी ज्यादा से ज्यादा शक्ति हो, उस शक्ति के अनुसार कार्य प्रारंभ करें। 3. विजजय - अच्छे कार्य में अवश्य ही विघ्न उत्पन्न होते हैं। कार्य में आने वाले विघ्नो को धैर्यता, बहादुरी व सोच समझ कर उसे दूर करना चाहिए। कष्टों के आगे झुकना नहीं बल्कि अडिग होकर खड़े रहना चाहिए। ताकि विघ्न दुम दबाकर भाग जाए। 4. सिद्धि-विनों को दूर करने से ही सिद्धि की प्राप्ति सामने नजर आने लगती है। कार सिद्ध हो जाना यानि सिद्धि मिल जाना होता है। इसके पश्चात् क्या करन चाहिए? अन्तिम एक चरण और है। वह पाँचवा चरण विनियोग का कहलाता है। 5. विनियोग- प्राप्त हुए फल को अन्य जीवों को प्रदान करना। अन्य जीवों में उस ज्ञान आदि का बोध देना, बाँटना वही विनियोग कहलाता है। Jain Education International 74 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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