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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत ग वचन मुझे मान्य हैं। इसके लिए सम्पूर्ण जीवन समर्पित करता हूँ। जीवन देने के लिए तैयार हूँ। परमात्मा के साथ-साथ उनके बताये हुए मार्ग का अनुसरण करने वाले कंचन कामिनी के त्यागी पंचमहाव्रतधारी ही मेरे गुरु हैं। गुरु दुनियाँ में सर्वश्रेष्ठ निधि हैं। उन्हीं पर मुझे दृढ़ श्रद्धा भाव है। उनकी सदैव सेवा, भक्ति, बहुमान करना है । उनके सहयोगी बनना है ताकि भवान्तर में मुझे भी जल्दी से संयम / चारित्र उदय में आएं और मैं भी अपनी आत्मा का कल्याण कर सकूँ। भक्ति- परम तारक तत्त्वों पर अरूचि, असद्भाव कभी नहीं होना चाहिए। परन्तु सामान्य माध्यस्थ भाव भी नहीं होने चाहिए। कलिकाल सर्वज्ञ गुरुदेव ने कहा'माध्यस्थ अपि दोषाय', माध्यस्थता के भाव भी दोष युक्त कहलाते हैं । परमात्मा के दर्शन मन को प्रसन्नता दिलाने वाले हैं। आनन्द विभोर हो जाना चाहिए। कवि धनपाल जी ने तो यहाँ तक लिखा है - जिसे परमात्मा को देखकर अनहद आनन्द की अनुभूति न होती हो तो, या तो वह केवलज्ञानी है या वह असंज्ञी है। असंज्ञी जीव के मन नहीं होता है। जड़ की तरह दर्शन किए और फिर निकल कर आ गए। भीतर प्रेम नहीं उछले तो यह कैसी विडम्बना है। प्रतिमा जी को साक्षात् भगवान् मानना है । उनके दर्शन से मेरा बेड़ा पार हो गया। आज त्रिभुवनपति के दर्शन हुए। दर्शनकरते-करते पागल बन जाना। जब दुनिया पागल कहे, तब होशियार और जब दुनिया होशियार कहे तब हम पागल हैं। परमात्मा हमारे अनन्त उपकारी हैं। अनन्त करुणा का झरना इनके नयनों से सतत् बह रहा है। बस, अपने ही शब्दों से भक्ति करूँ। कविता बनानी नहीं आती हो, परन्तु अपनी टूटी-फूटी भाषा से प्रार्थना करूँगा। कुमारपाल महाराज ने 70 वर्ष की आयु में जैन धर्म प्राप्त किया। फिर संस्कृत सीखी। परमात्मा की स्तुति हेतु वीतराग स्त्रोत्र की रचना की, इस स्त्रोत्र की स्तुति करते-करते स्वयं भाव विभोर हो जाते थे। श्रद्धा-भक्ति बने मजबूत जब कुमारपाल राजा सच्चे श्रावक बन गये, तब कंटकेश्वरी देवी राजा को चलायमान करने आती है। उन पर त्रिशूल फेंकती है, कुष्ठ रोग उत्पन्न करती है और कहती है, 'हे राजन् ! यदि ठीक होना है तो जैन धर्म छोड़ दो।' कुमारपाल राजा भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए थे। पूरा शरीर कुष्ठ रोगी, फिर भी भय नहीं। राजा देवी से कहते हैं- 'तुझे जो चाहिए, वह दे सकता हूँ परन्तु अरिहंत Jain Education International 156 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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