Book Title: Nirayavalikasutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - .in"VM941 जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री- घासीलालजी-महाराजविरचितया 'सुन्दरबोधिव्याख्यया' टीकया समलंकृतम् हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहितम् । ॥ श्री निरयावलिकासूत्रम्॥ “ NIRIYAVALIKASUTRAM“ नियोजकःसंस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशकः अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार-समिति-प्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट (सौराष्ट्र) द्वितोयावृत्तिः प्रति १००० वीर संवत २४८६ विक्रमसंवत् २०१६ ईस्वीसन् १९६० - मूल्यम् रू. ११%D00 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાપ્તિસ્થાન : શ્રી અ ભા હવે સ્થાનકવાસી * જે ન શા સ્ત્રો દ્વાર સમિતિ ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ Published by : - Sree Akhil Bharat S. S.' Jain Shastroddhar. Samici, Garedia Kuva Road, RAJKOT. (Saurashtra) w Ry India. બીજી આવૃત્તિ : પ્રત ૧૦૦૦ વીર સંવત : ૨૪૮૬ વિક્રમ સંવત : ૨૦૧૬ ઇવી - સન : ૧૯૬૦ મુદ્રક : અને મુદ્રણસ્થાન : જ્યતિલાલ દેવચંદ મહેતા જય ભારત પ્રેસ, ગ ૨ ડી આ કુવા રે ! શાક મારકેટ પાસે, રાજકોટ. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. १-२ ३ ४-५ ११-१६ १७-२२ २३-२४ २५-२७ २८-३० ३१-३४ ३८ निरयावलिका सूत्रकी विषयानुक्रमणिका । क्रमाङ्क विषय १ मङ्गलाचरण २ शास्त्रका आरम्भ ३ गुणशीलक चैत्यका वर्णन ४ आर्यसुधर्मस्वामीका वर्णन और पञ्चाभिगमपूर्वक समागम ५ जम्बूस्वामीका वर्णन ६ जम्बूस्वामीका प्रश्न ७ शास्त्रका परिचय ८ जम्बूस्वामीका प्रश्न ९ कणिकराजाका वर्णन १. पद्मावतीका वर्णन ११ काली देवीका वर्णन १२ कालकुमारका वर्णन १३ सम्यक्त्वकी प्रशंसा १४ देवताओं द्वारा श्रेणिक की परीक्षा १५ देवताओं के द्वारा की गई श्रेणिक की स्तुति १६ दो देवोंने श्रेणिकको अर्पित हारादिकका वर्णन ' १७ कूणिकरानका वर्णन __.१८ चेल्लना देवीका वर्णन १९ चेल्लना और कूणिकके प्रश्नोत्तरका वर्णन २० श्रेणिकराजका प्राणत्याग . २१ रथमुशल संग्रामका वर्णन २२ कालीदेवीके विचार का वर्णन २३ कालीराशीका भगवान् को वन्दनके लिये जाना २४ भगवानसे धर्मकथाका श्रवण २५ काली राशीका भगवान से प्रश्न २६ कालकुमारके वृत्तान्तका वर्णन २७ कालीदेवीके पुत्रशोकका वर्णन २८ गौतमस्वामीका भगवानसे कालकुमारके विषयमें प्रश्न २९ चेल्लना राणीके दोब्द (दोहला)का वर्णन ३९-४२ ४३-४४ ४५-४६ ४७-४८ ४९-५० ५१-५२ ५३-५४ ५६-६१ ६२-७२ ७३-७७ ७७-७८ ७८-८० - ८१-८२ ८३-८४ ८४-८७ ८८-९४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमाङ्क विषय ३० दोहदकी पूर्ति करने के विषयमें श्रेणिकराजका वर्णन ९५-१०४ ३१ दोहद पूर्ति के पीछे गर्भधारण विषयमें चेल्लनादेवीका वर्णन १०५-१०७ ३२ कूणिकराज के जन्मका और कुमारको निर्जनस्थलमें छोडनेका चेल्लनादेवीकी आज्ञा और श्रेणिकराजाका उपालम्भका वर्णन १०७-११२ ३३ कणिकके त्यागादि और नामकरणका वर्णन ११२-११५ ३४ श्रेणिकका बन्धन और कूणिकके राज्याभिषेकका वर्णन ११६-११८ ३५ श्रेणिकराज के वात्सल्यता परिचयका वर्णन ११९-१२० ३६ श्रेणिकरानके मरणादिका वर्णन १२०-१२८ ३७ कूणिकराज, श्रेणिकराजके मारण के कारणहोने का वर्णन १२९-१३५ ३८ वैहल्यकुमारकी गन्धहस्तीसे क्रीडा १३६-१४४ ३९ चेटकराज और कूणिकराजका दूत द्वारा संवाद १४५-१५६ ४० कूणिककी कालादि कुमारों से मंत्रणा १५७-१६२ ४१ कौटुम्बिक पुरुषोंसे कूणिक राजकी आज्ञा १६२-१६४ ४२ कणिक और चेटकके युद्धोद्योगका वर्णन १६५-१७२ ४३ मुकालकुमारका वर्णन १७६-१७८ ४४ पद्मकुमारका वर्णन १७८-१८२ ४५ पद्मअनगारका वर्णन १८२-१८५ ४६ भद्रकुमारादि आठ कुमारोंका वर्णन और भद्रादि देवोंकी स्थिति १८६-१९१ '४७ चन्द्रदेवके पूर्वभवका वर्णन १९२-१९४ ४८ चन्द्रदेवका वर्णन १९५-१९८ ४१ अङ्गति गाथापतिका वर्णन १९९-२३२ ५० सोमिल ब्राह्मणका वर्णन २३३-२५६ ५१ बहुपुत्रिका देवीका वर्णन २५७-३१४ ५२ पूर्णभद्रदेवका वर्णन ३१४-३१९ ५३ मणिभद्रदेवका वर्णन ३२०-३२२ ५४ श्रीदेवीका वर्णन ३२३-३३९ ५५ निषधकुमारका वर्णन ३४०-३६८ ५६ मायानि आदिका वर्णन ३६९-३७० ५७ शास्त्रमशस्ति ३७१-३७४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी संसारके सभी जीव परम अमृत समान सुखकी गवेपणा करते हैं, सुखके प्रयत्न में लगे रहते हैं, सुखके कारणको ढूँढते हैं, सुखके वातावरणको पसंद करते हैं, सुखकी याचना और सुख ही की मिन्नत मानते हैं, तो भी वे परम सुखके बदले परम दुःख ही प्राप्त करते हैं। सभी प्रयत्न सभी कारण और सभी वातावरण ये दुःखरूप जाल में परिणत होकर आत्मरूप भोले भाले मृगोंको फसा - कर दु:खित करते हैं । जिससे आत्मा अपना भान भूलकर अज्ञानरूपी अन्धकार में गोता खाता है भटकता है, फिर इन्द्रिय रूपी चोर चारों तरफ से आकर दुर्बल आत्माको घेर लेते हैं और अनेक प्रकारकी विडम्बना करते हुए आत्माको हैरान करते हैं । जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतको चूर २ कर डालता है वैसे ही वे आत्मा के शम-दम आदि गुणोंको नाश करके आत्माको जड जैसा बनाते हुए दीन हीन बनाकर छोडते हैं । 1 जब आत्मा निर्बल हो जाता है तब मोहरूपी सुभट आत्मराज्य में प्रवेश करता है, और वहाँ विघ्नपरंपराको उपस्थित कर आत्माका सर्वस्व लूटकर उसको भवरूप रूपमें डालता है । वहाँ आत्माको संयोग वियोगरूप आधिव्याधि रूप दुष्ट जलजंतु हरएक तरह से कंप्ट पहुँचाते हैं, सर्प जैसे मेढकको गिल जाता है वैसे ही जन्म जरा मृत्यु आत्माको गिलता रहता है । फिर किस प्रकार सुख की आशा की जाय ? ऐसी अवस्था में तो सुखका स्वप्न भी नहीं मिल संकता, 'हा कष्टम् ' तो भी ससारी जीव सुखकी आशा करते हैं । फिर अविरति रूपी राक्षसी आकर आत्माको घेर लेती है और विष समान विषय भोगों में फसाकर उसे निःसार बना देती है, आत्माके निज स्वरूपको पल्टाकर विभावदशा उत्पन्न करती है जिससे आत्मा परस्वरूपको अपना स्वरूप समझकर भवभ्रमण रूप परंपराकी और भी वृद्धि करता हुआ कष्ट पर कष्ट भोगता है, सुख कैसे प्राप्त हो इसकी तलाशमें घूमता है, इतनेमें कषाय रूप राक्षस विविध प्रकारसे वास पैदा करता है, तो भी आत्मा दुःखके निदान - Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप उस कषायको ही सुखका निदान समझकर उसमें आसक्त होता है, सुखके जितने जितने भी कारण हैं- अहिंसा संयम तप आदि; उनको दुःख रूप समझकर उन्हें छोड़ बैठता है, धर्म अधर्म आत्मा अनात्मा विवेकसे वंचित रहना है, उन्मार्गगामी बनता है, सुमार्गको परित्याग करता है, फिर उसी दुःख परंपराकी जालमें फसता है । इतने में प्रमाद रूपी पिशाच आकर झूमता है और आत्माकी ऐसी छिन्न भिन्न दशा करता है कि आत्मा जड स्वरूप बनकर जड वस्तुओंमें ही आनन्द मानना है । इधर अशुभयोग रूप भूत आत्मामे प्रवेश करता है; तब फिर क्या ? कल्पना से भी बाहर परिस्थिति बन जाती है । अशुभ योगों की अशुभ प्रवृत्तिया अशुभ कार्योंकी और आत्माको घसीटती हैं । फिर आत्मा परतंत्र बनकर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोंको मन्द तीव्र आदि रसमें प्रवृत्त हो वांधता है और एकलौ अडतालीस प्रकृतियों की फासमें फमकर नाना प्रकार का दुष्कृत्य करके नरक निगोद आदि अनन्त दुःखरूपी खड्डे में गिर जाता है। इस प्रकार अनन्त काल तक आत्माके लिये मनुष्यभव पाना तो दूर रहा, किन्तु निगोदकी अपेक्षा शूक्ष्म एकेन्द्रियसे चादर एकेन्द्रियका भी भव यह नहीं पा सकता | इस तरह चतुरगतीमें भटकता भव भ्रमण करता २ आत्मा कदाचित् मनुष्य भवमें आ भी गया तो मिथ्यात्व अविरति कषाय प्रमाद और अशुभ योगों की प्रवृत्तियां उसको घेर लेती हैं, जिससे वह फिर भवाटवी में पड जाता है और उसी विकल दशाको प्राप्त कर जन्म मरण आदि पाता रहता है । इस प्रकारकी अवस्था सकल संसारी जीवों की भगवानने अपने केवलज्ञानरूपी प्रकाशसे अवलोकन करके परम करुणा करते हुए शारीरिक मानसिक दुःखोंको मिटानेवाली जन्म मरण आदिको उच्छेद करनेवाली जिनवाणीको द्वादश अंग द्वारा प्रवचन रूपसे प्रकाशित की है । वह वाणी १ चरणकरणानुयोग २ धर्मकथानुयोग ३ गणितानुयोग और ४ द्रव्यानुयोग रूपमें विभक्त है ! Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयालिका आदि पाँच उपाङ्ग भगवानकी धर्मकथानुयोग वाणीमें अन्तर्हित हैं। इन पांचों उपाङ्गोंमें (१) निरयावलिका अन्तकृतका (अन्तगडसूत्र) उपाङ्ग है, और (२) कल्पावतंसिका अनुत्तरोपपातिकका, (३) पुष्पिता प्रश्नव्याकरण सूत्रका, (४) पुष्पचूलिका विपाकसूत्रका, एवं वृष्णिदशा दृष्टिवादाङ्गका उपाङ्ग है। इनमें निरयावलिका उपागमें काल आदि दस कुमारोंका वर्णन काल आदि दस अध्ययनोंमें किया गया है । जो संक्षिप्तमें इस प्रकार है महाराज श्रेणिककी अनेक रानिया थी। उनमें नन्दा, चेल्लना, काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, पितृसेनकृष्णा, और महासेनकृष्णा, ये उनकी मुख्य रानिया थीं। इनमें नन्दाके पुत्र अभयकुमार थे, चेल्लनाके पुत्र कणिक, वैहल्य और वैहायस थे। काली आदि दसों रानियोंके पुत्र क्रमशः काल, सुकाल, महाकाल, कृष्ण, सुकृष्ण, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्ण, पितृसेनकृष्ण और महासेनकृष्ण थे। इन कुमारोंमें अभयकुमार प्रवजित हो गये। चेल्लनाके पुत्र कणिकने काल आदि दस कुमारोंको अपनी ओर मिलाकर महाराज श्रेणिकको कैद कर लिया और उन्हें अनेक प्रकारकी तकलीफें देने लगा। एक दिन कूणिक अपनी माताके चरण वन्दनके लिये आया। माताने उसे देखकर अपना मुंह फिरा लिया। यह देख कणिक हाथ जोड इस प्रकार बोला-हे माता ! मैं अपने पराक्रमसे राज्यका सम्राट बना, यह देखकर भी तुझे आनन्द नहीं होता, तुम्हारे मुखपर हर्षका कोई चिह्न नहीं दिखायी देता, तुम उदासीन हो, क्या यह तुम्हारे लिये उचित है ? भला तुम्ही सोचो, कौन ऐसी मा होगी जो अपने पुत्रकी उन्नति पर प्रसन्न न होगी। यह सुनकर महारानी चेल्लनाने कहा-वेटा! तुम्हारी इस उन्नतिसे मुझे किस प्रकार आनन्द हो ? क्यों कि तुमने अपने पिता महाराज श्रेणिकको कैद कर लिया है, जो तुम्हारे देव गुरुके समान हैं, जिन्होंने तुम्हारे उपर अनेक उपकार किये हैं। उन्हीं के साथ तुम्हारा यह व्यवहार समुचित है ! जरा तुम्ही सोचो! कणिकने कहा-मा! जो श्रेणिक राजा मुझे मार डालना चाहते थे, वे मेरे परम उपकारी हैं, यह कैसे ! स्पष्ट बताओ। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - रानीने कहा-वेटा ! जब तुम मेरे गर्भमें आये, उस समय मुझे दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं राजा श्रेणिकके उदरवलिका मांस तल भूनकर मदिराके साथ खाऊँ। इसके लिये मैं उदास रहने लगी और दिनानुदिन क्षीण होने लगी। जब यह समाचार तुम्हारे पिताको मिला तो उन्होंने इसका कारण शपथ पूर्वक पूछा, तो मैने अपना दोहद बतलाया। बादमें तुम्हारे पिताने मेरा दोहद पूरा किया। दोहद पूरा हो जाने के बाद मैंने सोचा-यह बालकने गर्भावस्थामें ही पिताका मांस खाया, उत्पन्न होनेपर न जाने क्या करेगा? इस लिये जिस किसी प्रकार इस गर्भको गिरा देना ही श्रेयस्कर है। पर अनेक प्रकारको ओषधीसे भी गर्भ न गिरा। फिर नौ महीनेके बाद उस गर्भसे तुम पैदा हुए, मैने तुम्हें अनिष्ट समझ कर उकरडी पर फिकवा दिया। यह बात तुम्हारे पिताको मालुम हुई, वह तुम्हें खोज कर ले आये और मुझे उन्होंने इम कार्यके लिये बडी भर्त्सना की। तेरी उगलीको उकरडी पर मुर्गने काट खाया जिससे वह सूज गयी उसमें पोप भर आया, तुझे असत्य वेदना होने लगी, तू चिल्लाने लगा, उस समय तेरे पिता तुम्हारे पास बैठे रहते थे, दिन रात तुम्हारी परिचर्या करते रहेते थे, तुम जब व्रणकी वेदनासे रो पडते थे, उस समय तुम्हारी उङ्गलीको अपने मुंहमे डाल पीप चूसकर थूक देते थे, उससे तुझे शान्ति मिलती थी और तूं धीरे २ अच्छा हो गया। वेटा ! तुं ही सोच, ऐसे परम उपकारी पिताके साथ तेरा यह वर्ताव उचित है ? अपनी मां के मुखसे यह सुन कूणिक बहुत दुःखी हुआ। परम उपकारी पिताका बन्धन तोडूं इस भावनासे उसी समय हाथमें कुल्हाडी लेकर जिस पिंजरेमें महाराजा श्रेणिक कैद थे, उस पिंजरेको तोडने के लिये चल पडा। लेकिन राजा श्रेणिकने कणिकको हाथमें कुठार लेकर आते हुए देख मनमें सोचा-न जाने यह कूणिक मुझे किस कुमौतसे मारेगा ? इस भयसे उन्होंने अपनी अंगूठी में जडा हुआ तालपुष्ट विष चूस कर अपना अन्त कर लिया। पिताकी मृत्युसे कुणिक अत्यधिक दुखी हुआ, उसे राजगृहकी प्रत्येक वस्तु पिताकी स्मृति दिलाकर दु:खित करने लगी, पिताके प्रति किये हुए अन्याय उसकी आत्माको कष्ट देने लगे। वह राजगृहमें नहीं रह सका, राजगृह छोडकर चम्पानगरीको उसने राजधानी बनायी। वहा अपने भाई बन्धुओंके साथ रहने लगा और राज्यको ग्यारह भागोंमें बाटकर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक २ भाग, काल आदि दस कुमारोंको दिया, और ग्यारहवा भाग खुद लेकर राज्य करने लगा। राजा श्रेणिकने सेचनक गन्ध हाथी और रानी नन्दाने अठारह लडीबाला हार कुणिकके छोटे भाई वैहल्यको दिया था। वह हाथी पर बैठ गङ्गा नदीमें अपने अन्तःपुर परिवार के साथ क्रीडा करते थे। उनकी क्रीडा देखकर लोग कहने लगे-वास्तविक राज्योपभोग तो वैहल्ल्य कुमार ही करते हैं। कुणिक तो नाम मात्रके राजा हैं, क्यो कि उनके पास सेचनक गन्ध हाथी नहीं है। धीरे २ वैहल्यकी जलक्रीडाका समाचार कूणिक राजाकी रानी पद्मावतीको मालुम हुआ, वह वैहल्यले सेचनक हाथी और अठारह लडीवाला हार ले लेनेके लिये कूणिकको बार बार प्रेरित करने लगी। कुणिकने अन्तमें रानीकी बात मानकर अपने भाईसे हाथी और हार मागा। उन्होंने भी राज्यका हिस्सा मागा , परन्तु कूणिक इस पर तैयार न हो सके। यह देख वैहल्य कुमार मौका पाकर हाथी हार आदि अपनी सभी मामग्री लेकर अपने अन्तःपुर परिवारके साथ वैशाली नगरीमें अपने नाना चेटकके पास पहुंचे। कणिकने अपने दूतके द्वारा चेटकको संदेशा दिया-कि आप हाथी और हारके साथ वैहल्यको भेजदें । इसपर चेटकने उत्तर में संदेशा भेजा-यदि तुम राज्यका भाग वैहत्यको दो तो इसे हम हाथी और हारके साथ भेज सकते है, परन्तु कुणिकको यह शर्त मंजूर नहीं हुई, फल स्वरूप दोनोमें युद्ध हुआ। इधर कणिककी तरफ काल आदि दस कुमार थे उधर चेटककी और नौ लच्छी नौ मल्लकि ये अठारह गणराजा थे। इनमें प्रत्येकके पास तीन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन २ करोड पैदल सैनिक थे। प्रथम दिनकी लडाईमें कालकुमार अपने तीन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन करोड पैदल सैनिकके साथ चेटक राजासे लडनेके लिये आया और चेटकके एक अमोघ वाणसे सैन्य सहित मारा गया। दूसरे दिन सुकालकुमार, तीसरे दिन महाकाल, चौथे दिन कृष्णकुमार, पाचवें दिन सुकृष्ण, छठे दिन महाकृष्ण, सातवं दिन वीरकृष्ण, आठवें दिन रामकृष्ण, नवमें दिन पितृसेनकृष्ण, और दश दिन महासेनकृष्ण अपने २ सन्य सहित चेटकके Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ लडने आये और चेटकके द्वारा ससैन्य मारे गये । और अपने पाप कर्म के प्रभाव से निरय (नरक) गामी हुए । इसी वस्तुको भगवानने गौतम स्वामीको उनके पूछने पर निरयावलिका नामसे फरमाया है । कल्पातंसिका नामक द्वितीय वर्गमें दस अध्ययन हैं, इन दसौं अध्ययनोंका नाम क्रमसे - पद्म ( १ ) महापद्म ( २ ) भद्र ( ३ ) सुभद्र ( ४ ) पद्मभद्र (५) पद्मसेन ( ६ ) पद्मगुल्म (७) नलिनीगुल्म (८) आनन्द (९) और नन्दन (१०) है । प्रथम अध्ययन में पद्मकुमारका वर्णन इस प्रकार है ! पद्मकुमार भगवान महावीर स्वामीके पास मत्रजित हो पाच वर्षों तक श्रमण्य पर्याय पाली, अन्तमें मासिकी संलेखनासे साठ भक्तोंको छेदित कर काल प्राप्त हुए, और सौधर्म कल्पमें देवता होकर उत्पन्न हुए । वहाँसे च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और सिद्ध होकर सब दुखोंका अन्त करेंगे । इसी प्रकार महापद्म से लेकर नन्दन पर्यन्त नौ कुमारों का वर्णन जानना चाहिये । ये सभी भगवानके समीप प्रत्रजित हुए और संलेखनासे अपने शरीरको त्याग कर देवलोक में देव होकर उत्पन्न हुए । वहाँसे च्यव कर महाविदेह वर्ष में जन्म लेंगे और सिद्ध होकर सब दुखोंका अन्त करेंगे । ये पद्म आदि दस कुमारोंके पुत्र और महाराज श्रेणि कके पौत्र (पाते थे । पुष्पिता नामक तृतीय वर्ग में चन्द्र ( १ ) सूर ( २ ) शुक्र (३) बहुपुत्रिका (४) पूर्ण (५) मानभद्र (६) दत्त (७) शिव (८) वलेपक (९) अनाहत (१०) इन दसों देवोंका दस अध्ययनों में वर्णन है । ये सब भगवान महावीर प्रभुके दर्शन करनेके लिये देवलोक से अपने २ परिवार के साथ आये और अपनी वैक्रियिक शक्तिसे नाट्य विधि दिखाकर अन्तर्हित हो गये । गौतम स्वामीने उनकी विशाल ऋद्धिके बारेमें भगवानसे पूछा-हे भदन्त ! इन्हें यह ऋद्धि कहाँ से प्राप्त हुई ? भगवान ने गौतम स्वामीको चन्द्र आदि देवके पूर्वभवका वर्णन सुनाया और उन्होंने कहा- गौतम ! ये सब देवलोक से च्यव कर महाविदेह वर्ष में उत्पन्न होकर सिद्ध होंगे । पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्ग में भी दस देवियोंके नामसे दस Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ . अध्ययन हैं। उन दसों देवियों का नाम-श्री (१) ही (२) धी (३) कीर्ति (४) बुद्धि (५) लक्ष्मी (६) इलादेवी (७) सुरादेवी (८) रसदेवी (९) और गन्धदेवी (१०) है। ये दसों देविया भगवानके दर्शनके लिये आयीं और नाट्यविधि दिखाकर अपने २ स्थान पर चली गयीं। गौतमस्वामीने इन देवियोंकी ऋद्धि प्राप्तिके वारेमें पूछा। भगवानने इन सोका पूर्व भवका वर्णन किया, और कहा-हे गौतम ! ये सभी देवलोकसे च्यच कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेंगी और सिद्ध होकर सभी दुखोंका अन्त करेंगी! इसका पाचवा वर्गका नाम वृष्णिदशा वर्ग है। इसमें बारह अध्ययन हैं । ये बारहों अध्ययन बारह कुमारीका नामसे हैं। उन कुमारोंका नाम-निषध (१) मायनी (२) वह (३) वह (४) पगता (५) ज्योति (६) दशरथ (७) दृढरथ (८) महाधन्वा (९) सप्तधन्वा (१०) दशधन्वा ११ और शतधन्वा १२ है । इनमें निषधकुमारका वर्णन इस प्रकार है-निषध कुमार राजा बलदेव और रानी रेवतीका पुत्र थे । इनका विवाह पचास राजकन्याओंके साथ हुआ और वह अपने उपरी महलमें सुख पूर्वक रहने लगे। एक समय द्वारकाके नन्दन' वन उद्यानमें भगवान अहंत अरिष्टनेमि पधारे। भगवानके दर्शनके लिये कृष्ण वासुदेव आदि नन्दन वन उद्यानमें गये। निषधकुमारको भी भगवानके पधारनेका समाचार ज्ञात हुआ। वह भी भगवानके दर्शनके लिये। धर्म कथा सुनकर आवक धर्म स्वीकार कर अपने घर लौट गये। भगवानका अन्तेवासी वरदत्त अनगार निषधकुमारकी सौम्यता देख मुग्ध हो गये। और निषधकुमारको यह सौम्यता और ऋद्धि आदि कसे प्राप्त हुई ? इस बारे में भगवानसे पूछा । भगवानने निषधकुमारके पूर्वभवका वर्णन किया । वरदत्तने पूछा-हे भदन्त । यह निषधकुमार आपके समीप प्रव्रजित होगा? भगवानने कहा-हा, वरदत्त ! यह निषधकुमार मेरे समीप प्रवजित होगा। इसके बाद भगवान जनपदमें विचरने लगे। एक समय तिषधकुमार पोषधशालामें दर्भके आसन पर बैठे हुए थे । उनके मनमें यह भावना पैदा हुई -यदि भगवान यहाँ आवे तो मै उनका दर्शन करूँ और उनकी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासना करूं। भगवानने निषधकुमारके मनकी बात जान लो और अठारह हजार श्रमणौके साथ नन्दन वन उद्यानमें पधारे । निषधकुमारने भगवान का दर्शन किया, और बादमें माता पितासे पूछकर अनगार हो गये और बयालीस भक्तोंको अनशनसे छेदित कर काल प्राप्त हुए । उनके काल प्राप्त होनेके बाद वरदत्त अनगारने भगवानसे पूछा-हे भदन्त ! आपका अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध अनगार इस शरीर को छोडकर कहा गये? भगवानने कहा-हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध नामक अनगार सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुआ। वहा उसकी स्थिति तेतीस सागरोपम है। वह वहा से च्यव कर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगरमें विशुद्ध मातृ पितृ वंशवाले राजकुलमें उत्पन्न होगा, बाल्यावस्था बीत जानेपर स्थविरोंके समीप प्रबजित होगा और सिद्ध होकर सभी दुखांका अन्त करेगा। इसी प्रकार मायनी आदि ग्यारह राजकुमारोंकाभी वर्णन जानना चाहिये। ये सभी भगवान अरिष्टनेमिके समीप प्रत्रजित हुए और अपने नश्वर शरीरको छोड सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुए और च्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे और सभी दुखांका अन्त करेंगे। यह पाचों उपाङ्गका संक्षिप्त वर्णन है। इस निरयावलिका आदि पाचों उपाङ्गो पर जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराजने सुन्दरबोधिनी नामकी टीका की है। इस टोका की विशेषता संस्कृत प्राकृतज्ञ विद्वान सूल और संस्कृत टीका को देखकर समझ लेंगे। और सकल साधारण भव्यजन हिन्दी और गुजराती भाषाके अनुवादसे इसकी विशेषता समझेंगे। इस पर हम अधिक लिखना उचित नहीं समझते, क्यों कि 'हाथ कगनको आरसी क्या ? 'वस; इसी न्यायसे हम अपना वक्तव्य समाप्त करते हैं। इत्यलम् । राजकोट, । १५ मई १९४८ मुनि कन्हैयालाल. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘાસુરબ્બીશ્રીઓ - - [, , Eસ * * . * * * * *, , * * છે : - - - , ? જે ' (સ્વશેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીઆ ભાણવડ. કોઠારી હરગોવિદભાઈ જેચંદ છે - રાજકેટ. *" કે , (સ્વ.) શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ શેઠ શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અચ્ચદાવાદ. અમદાવાદ, ** * કદ , (સ્વ) શેઠ ધારશીભાઈ જીવણભાઈ સેલાપુર. છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ છે 11 (સ્વ. શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ (સ્વ.) શેઠશ્રી શામજી વેલજીવીરાણ રોજકેટ, * - - - - - ' , - - અમદાવાદ, - - - - T. '' : * * * * * \ , , , [, શ્રી વિનોદકુમાર વીરાણું રાજકેટ. (દીલા દીધા પહેલા શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા) | એ છે ? જેસિંગભાઈ પંચાલાલભાઈ અમદાવાદ, (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ : અમદાવાદ, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે . અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર, સથાનકવાસી . જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગરેડીયા કુવા રેડ - ગ્રીન લોજ પાસે, રા જ ક ટ દાનવીરોની નામાવલી શરૂઆત તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા. ૧૫ ૫-૬૦ સુધીમાં દાખલ થયેલ મેમ્બરોનાં મુબારક નામ. લાઈફ મેમ્બરેનું ગામવાર કકાવારી લિસ્ટ. - (રૂ. ૨૫૦ થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી. ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ-૧૧ ઓછામાં ઓછી રૂ. ૫૦૦૦ની રકમ આપનાર) નામ له નંબર ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાંતીલાલ મગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૦૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાળીદાસભાઈ વારીયા હા શેઠ લાલચંદભાઈ, જેચ દભાઈ, નગીનભાઈ વૃજલાલભાઈ તથા વલલભદાસભાઈ ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કોઠારી જેચંદ અજરામર હા. હરગોવિંદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકોટ પરપ૧ ૪ શેઠ ધાથીભાઈ જીવનભાઈ વારસી ૫ ૦૧ ૫ સ્વ. પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે હા શ્રી ભોગીલાલ છગનલાલભાઈ ભાવસાર અમદાવાદ પરપ૧ ૬ . દિનેશભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ કાંતિલાલ મણીલાલ જેશીંગભાઈ અમદાવાદ ૫૦૦૦ ૭ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ હ. શેઠ ચીમનલાલભાઈ શાંતીલાલભાઈ તથા પ્રમુખભાઈ અમદાવાદ ૬૦૦૧ ૮ શ્રી શામજી વેલજી વિરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણું * સ્મારક ટ્રસ્ટ હ. શેઠ શામજી વેલજી વિરાણી રાજકોટ ૫.૦૦ ૯ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ હા માતુશ્રી કડવીબાઈ વ રાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૦ શેઠ પાચાલાલ પીતાંબરદાસ અમદાવાદ ૫૨૫૧ ૧૧ શાહ રગજીભાઈ મોહનલાલ અમદાવાદ ૫૦૦૧ નોટ – ઘાટકે પરવાળા શેઠ માણેકલાલ એ. મહેતા તરફથી અમદાવાદમાં પાલડી બસ સ્ટેન્ડ પાસે લેટ નં. ૫૦ વાળી ૬૯૮ ચો. વાર જમીન સમિતિને ભેટ મળેલ છે. અને જેનું ૨ સ્ટર તા. ૨-૩-૬૦ ના રેજ થઈ ગયેલ છે. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = મુરબ્બીશ્રીઓ-કરછે” ( ઓછમાં ઓછી રૂ. ૧૮૦૦ની રકમ આપનાર ) ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વર્ધમાન ઠારી હા. કહાનદાસભાઈ { તથા વેણીલાલ કેડારી જેતપુર ૩૬૦૫ ૨ દેશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ રાજકેટ ૩૬૦૪ ૩ મહેતા ગુલાબચ દ પાનાચંદ રાજકેટ ૩૨૮ -in ૪ મહેતા માણેકલાલ અમુલખરાય ઘાટકોપર ૩રપ૦ ૫ સ ઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચંદ જામનગર ૩૧૦૧ ૬ નામદાર ઠાકોર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર મોરબી ૨૦૦૦ ૧૭ શેઠ લહેગ્યુદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચંદ લહેરાદ સિદ્ધપુર ૨૦૦૧ ૮ શાહ છગનલાલ હેમચા વસા હા. મેહનલાલભાઈ તથા મોતીલાલભાઈ. મુંબઈ ૨૦૦૦ ૯ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હ. શેઠ ચન્દ્રકાંત વીકમચ દ મોરબી ૧૯૬૩ ૧૦ મહેતા સોમચદ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્નિ અ.સૌ. મણીગરી મગનલાલ રતલામ -૧૫૦૦ ૧૧ મહેતા પિપટલાલ માવજીભાઈ જામજોધપુર ૧૫૦૨ ૧૨ દેશી કપુરચંદ અમરશી હા. દલપતરામભાઈ જામજોધપુર ૧૦૦૨ ૧૩ બગડીયા જગજીવનદાસ રતનશી દામનગર ૧૦૦૨. ૧૪ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ પિરિબંદર ૧૦૦૧ ૧૫ શ્રીમાન ચંદ્રસિંહજી સાહેબ મહેતા (રેલ્વે મેનેજર) કલકતા * ૧૦૦૧ ૧૬ મહેતા સેમચંદ નેણસીભાઈ (કરાચીવાળા) મોરબી ૧૦૦૧ ૧૭ શાહ હરિલાલ અનેપચંદ ખ ભાત ૧૦૦૧. ૧૮ મેરી કેશવલાલ હરીચંદ્ર અમદાવાદ ૧૦૦૧. ૧૯ કોઠારી છબીલદાસ હરખચંદ મુંબઈ ૧૦૦૦ ૨૦ કેઠાવી રંગીલદાસ હરખચંદ ભાવનગર ૧૦૦૦ – Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટે સહાયક મેઅરે-૬૩ જા - પપપ ن م م (ઓછામાં ઓછી, રૂા ૫૦૦ની રકમ આપનાર) ૧ શ્રી સ્થા. જૈનમ દ હા. શેડ નું ઝાભાઈ વેલશીભાઈ વઢવાણ શહેર ૭૫૦ ૨ શેઠ નરોતમદાસ ઓઘડભાઈ શીવ ૭૦૦ ૩ શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા ગોરધનદૌસભાઈ ૪ બાટવીયા ગીરધર પરમાણંદ હા અમીચ દભાઈ ખાખીજાળીયા પર૭ ૫ મોરબીવાળા આ ઘવી દેવચ દ નેણશીભાઈ તથા તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સો મણબાઈ તરફથી હા મુળ દ દેવચ દ સ ઘવી મલાડ પ૧૧ ૬ વેગ મણીલાલ પિપટલાલ અમદાવાદ ૧૦૨ ૭ ગોસલીયા હરીલાલ લાલચ દ તથા ચ પાબેન ગોસલીયા ૫૦૨ ૮ શાહ મચ દ માણેકચદ તથા એ સૌ સમરતબેન ૫૦૨ ૯ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ ૫૦૧ ૧૦ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ ૫૦૧ ૧૧ શાહ શાતિલાલ માણેકલાલ ૧૨ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાંચીવાળા) લીંમડી ૫૦૧ ૧૩ કામદાર તારાચદ પિપટલાલ ધેરાજીવાળા રાજકેટ ૫૦૧ ૧૪ હેતા મેહનલાલ કપુરચદ ૧૫ શેઠ ગોવિંદજીભાઈ પોપટભાઈ ૫૦૦ ૧૬ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી , ૫૦ ૧૭ સ્ત્ર પિતાશ્રી ન દાજીના સ્મરણાર્થે હા. વેણીદ શાતીલાલ ; ? | (જાબુવાળા) મેઘનગર પર ૧૮ શ્રી સ્થા. જૈનસ ઘ હા. શેઠ ઠાકરશી કરશનજી , . . થાનગઢ ૫૦૦ ૧૯ શેઠ તારાદ. પુખરાજજી - , ઔર ગાબા ૫૦ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ . . . . ઔર ગુણબાઈ પર ૨૧ મહેતા મુળચંદ રાઘવજી હા મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઇ પ્રાફ ૭૫ ૨૨ શેઠ હરખચ દ પુરૂતમ હા ઈન્દુકુમાર ચોરવાડ ૫ ૦ ૨૩ , કેશરીમલજી વતીમલજી ગુગલીયા મલાડ પ૦૦ ૨૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. બાટવીયા અમીચ દ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીયા ૫૦૧ ૨૫ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ હા. ફૂલથ દભાઈ ગુલાબચ દભાઈ, નાગરદાસભાઈ જમનાદાસભાઈ મુબઈ ૫૦૧ p. ૫૦૦ કે - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રદ શેઠ મણીલાલ મેહનલાલ ડગલી હા. મુળજીભાઈ મણીલાલભાઈ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૭. સ્વ. કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હશેઠ બલિચંદ સાકરચંદ ,, ૫૦૧ ૨૮ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) મુંબઈ ૫૦ ૨૯ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ - શીવ ૫૦૧ ૩૦ વેરા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ શીવ ૫૦૧ ૩૧ શેઠ ગુલાબચદ ભુદરભાઈ તથા કસ્તુરબેન હા. ભાઈ અનોપચર ખારોડ ૫૦૧ ૩૨ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૩ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૪ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ રાજકોટ ૫૦૧ ૩૫ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા અ. સૌ. નકુવરબેન જામનગર ૧૦૩ ૩૬ શેઠ દેવચંદ અમરશી (બેન ધીરજકુવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૭ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ (બેન ધીરજકુંવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૮ વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ વીરમગામ ૫૦૧ ૩૯ મહેતા શાતિલાલ મણીલાલ હા કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ ૨૫૬ ૪૦ શ્રીયુત લાલચંદજી તથા અ. સૌ. ધીસાબેન ૫૦૧ ૪૧ શેઠ મેહનલાલ મુકુટચંદ બાલયા ૫૦૧ ૪૨ સ્વ. શેઠ ઉકાભાઈ ત્રીભોવનદાસના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ લક્ષ્મીબાઈ ગીરધર તરફથી હા મરઘાબેન તથા મગુબેન અમદાવાદ ૫૦૧ ૪૩ પારેખ યંતીલાલ મનસુખલાલ રાજકોટવાળા હા. વિનુભાઈ , ૫૦૧ ૪૪ શ્રીયુત શેઠ લાલચંદજી મીશ્રીલાલજી ૫૦૧ ૪૫ શ્રી તથા જૈન સંઘ વાંકાનેર ૫૦૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ બોટાદ ૫૦૧ ૪૭ શેઠ ગુદડલેજી શેષમલજી જેવા પળગાવ ૫૦૧ ૪૮ સ્વ તુરખીયા લહેરચદ માણેકચંદના કમરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ જીવતીબાઈ તરફથી ભાઈ જયંતીલાલ તથા પૂમચંદભાઈ ડભાસ ૫૦૧ ૪૯ શાહ અચળદાસ શુકનરાજજી હા, શેઠ શુકનરાજજી અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૦ ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ ધ ધુકા ૧૦૧ ૫૧ અ સૌ. હીરાબેન માણેકલાલ મહેતા ઘાટકોપર ૫૦૧ પર મહેતા શાંતીલાલ મગનલાલ તથા અ. સૌ. પદ્માવતી શાંતિલાલ મહેતા અમદાવાદ ૫૦૦ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અમદાવાદ : ૫૧૧ ૫૩, શેઠ હીરાચંદજી વનેચંદજી કટારીયા . . . . : : - હુંબલી ૫૧ ૫૪. શેઠ છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કોરીવાળા. * - મુંબઈ પ૧ પપ પારેખ રતિલાલ નાનચંદ મેરખીવાળા તરફથી તેમનાં .. પિતાશ્રી નાનચંદ ગોવિંદજીના સમરણાર્થે તથા તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. વસંત બહેનના અઠાઈ તપ નિમિતે હા. ભુપતલાલ રતિલાલ ૫૬ સ્વ. શાહ ત્રીભોવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ શીવકુવરબાઈ તરફથી હા. રતીલાલ ત્રીવનદાસ શાહ અમદાવાદ ૫૧૧ ૫૭ શ્રીમાન નાથાલાલ માણેકચંદ પારેખ મુંબઈ (માટુંગા) ૫૦૧ ૫૮ શ્રી લીંમડી સંપ્રદાયના ગચ્છાધીપતી પૂ આચાર્ય મહારાજશ્રી લાધાજી સ્વામીના સ્મરણાર્થે હા શેઠ જેશીંગભાઈ પિચાલાલ (મહારાજશ્રી છોટાલાલજી સદાન દીના ઉપદેશથી) અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૯ સ્વ શ્રી વિનયમૂર્તિ શ્રી લખમીચંદજી મહારાજના સ્મરણાર્થે હા શેઠ જેશીંગભાઈ પિાચાલાલ (મહાજશ્રી છોટાલાલજી સદાન દીના ઉપદેશથી) અમદાવાદ ૦૧ ૬. બા. બ્ર. પ્રભાવતી બેન કેશવલાલ ઉજેનવાળા તરફથી તેમની દીક્ષા પ્રસ ગે ! વીરમગામ પ૫૧ ૬૧ શ્રીયુત હરજીવનદાસ રાયચ દ હા છબીલદાસ હરજીવન અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૨ શેઠ પોપટલાલ હ સરાજ તથા દિવાળીબેનના સ્મરણાર્થે - હા. શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ અમદાવાદ ૫૦૨ ૬૩ અ સૌ. લીલાવતી બેન ઈશ્વરલાલ ૫૦૨, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૪૯ લાઇફ મેમ્બરા અમદાવાદ તથા પ ૧ શેઠે ગીરધરલાલ કરમચંદ ૨ શેઠ છેટાલાલ વખતચંદ હા. ફકીરચંદ ભાઈ ૩ શાહ કાંતિલાલ ત્રીસેયનદાસ ૫ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૮ સ્વ. અમૃતલાલ વમાનના સ્મરણાર્થે હા. કાનજીભાઇ અમૃતલાલ દેશાઇ ૨૫૧ ૯ શાહ નેટવરલાલ ચંદુલાલ ૨૫૧ ૧૦ શાહે નરસિંહદાસ ત્રીભોવનદાસ ૫૧ ૩૦૧ ૪ શાહ પોપટલાલ માહનલાલ ૫ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચ દ ૬ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ ૭ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ ૧૧ બીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ ગેાપાણી ૧૨ શ્રી શાહપુર દરિયાપુરી આડકેાટી સ્થા, જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટ કર્તા શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુષાત્તમદાસ ૧૩ શ્રી છીપાપેાળ દરીયાપુરી આઠકાટી સ્થા. જૈન સંઘ હા શેઠ ચંદુલાલ અચરતલાલ ૧૪ શાહુ ચીનુભાઈ ખાલાભાઈ C/o. શાહ માલાભાઈ મહાસુખલાલ ૧૫ શાહ ભાઇલાલ ઉજમશી ૧૬ શ્રી સુખલાલ ડી શેઠે હાડૅ સરસ્વતીબેન શેઠ ૧૭ શ્રી સોરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ કાંતિલાલ જીવણલાલ ૧૮ મેદી નાથાલાલઁ મહાદેવદાસ ૧૯ શાહ માહનલાલ ત્રીકમલાલ ૨૦ શ્રી છકેાટી સ્થા. જૈન સ'ઘ હા શેઠ પાચાલાલ પિતામ્બરદાસ ૨૧ દેશાઇ અમૃતલાલ વધુ માનતા સ્મરણાર્થે હા. ભાષાલ અમૃતલાલ ૨૨ શાહ નવનીતરાય અમુલખરાય ૨૩ શાહ મણીલાલ આશારામ ૨૪ શેઠ ચીનુભાઇ સાકરચંદ ૨૫ શાહ વજીવનદાસ ઉમેદ્નચંદ્ન ૨૬ શાહ રજનીકાંત કસ્તુરચંદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૫૧ ૨૫. ૨૫૧ ૨૫૧ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૨ ૨૫૧” ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૭ સઘવી જીવણલાલ છગલૈલા 'n : : : ૨૫૧ ૨૮ શાહ શાતિલાલ મેહનલાલ ધ્રાંગધ્રાવાળા ર૯ અ સૌ બેન તનબાઈ નિદેશા હશેઠ ધુલાઇ ચ પાલાલજી ૨૫૧ ૩૦ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા ૨૫૧ ૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય . *** , ' ' * હા ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ " " " ', - ૫૧ ૩૨ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી પુનમિયા સાદડીવાળા ૩૩ સ્વ પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂ ચાચાજી હજારમલજી * બરડીયાના સ્મરણાર્થે હા મુળચ દ જવાહરલાલજી બરડીયા ૩૪ સ્વ ભાવસાર બબાભાઈ (મ ગળદાસ) પાનાચરના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્નિ પુરીબેન , ૨૫૧ ૩૫ સ્વ પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ માતુશ્રી મુળીબાઈને સ્મરણાર્થે હા કક્કલભાઈ ઠારી ૩૦૧ ૩૬ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ ૨૫૧ , ૩૭ શાહ કેશવલાલ નાનચ દ જાખડાવાળા હા પાર્વતી બેન ૩૮ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચ દ રાજસીતાપુરવાળા ૨૫૧ ૩૯ શ્રી સાબરમતી સ્થા જૈન સંઘ હ શેઠ મણીલાલભાઈ , ૨૫૦ ૪૦ ભાવસાર છોટાલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૪૧ ભાવસાર સકરાભાઈ છગનલાલ ૨૫૧, ૪૨ અ સૌ બેન જીવીબેન રતિલાલ હ ભાવસાર રતિલાલ હરગોવિંદદાસ ૨૫૧ ૪૩ ભાવનાર ભેગીલાલ જમનાદાસ પાટણવાળા ૨૫૧ ૪૪ સ ઘવી બાલુભાઈ કમળશી તથા તેમના ધર્મપનિઓ એ સૌ. ચ પાબેન તથા વસ તબેન તરફથી ૨૫૧ ૪૫ અ સ વિદ્યાબેન વનેચદ દેશાઈ વર્ષીતપ તથા અઠાઈ પ્રસંગે હા ભુપેન્દ્રકુમાર વનેચદ દેશાઈ ૪૧૭ ૪૬ શાહ નટવરલાલ ગોકળદાસ : ૨૫૧ ૪૭ શાહ શામળભાઈ અમરશીભાઈ ૪૮ એ સૌ કકુન (ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલના ધર્મપત્નિ) ૩૦૯ ૪૯ અ સૌ સવિતાબેન (જયંતીલાલ ભેગીલાલના ધર્મપત્નિ) ૨૫૧ ૫૦ અ સૌ શાંતાબેન (દીનુભાઈ ભોગીલાલના ધર્મપત્નિ) - -- ૨.૫૬ , ૫૧- અ સૌ મુન દાબેન (રમણભાઈ ભેગીલાલના ધર્મપત્નિ , - - રપ૧ ૫૧ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પર શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના સ્મરણાર્થે હા. વાગમર્યજીરૂગનાથજી , ૩૦૧ ૫૩ શેઠ મણીલાલ બેઘાભાઈ ૨૫૧ ૫૪ પટવા સુમેરમલજી અનેપચંદજી જોધપુરવાળા ૩૦૧ પપ સ્વ માણેકલાલ વનમાળીદાસ શેઠના સ્મરણાર્થે હા. રમણલાલ માણેકલાલ ૨૫૧ પ૬ સ્વ. શાહ ધનરાજજી ખેમરાજજીનાં સ્મરણાર્થે લ ધનરાજજી ૩૦૧ ૫૭ શ્રી સારંગપુર દ. આ. કે સ્થા જૈન સંઘ હા. શાહ રમણલાલ ભગુભાઈ ૨૫૧ ૫૮ દેશી હરજીવનદાસ જીવરાજ તથા લક્ષ્મીબાઈ લહેરચદના સ્મરણાર્થે હા. દેશી મનહરલાલ કરશનદાસ મુળીવાળા ૨૫. ૫૯ શાહ પુનમચંદ ફતેહચંદ ૨૫૧ ૬૦ શ્રીયુત ચતુરભાઈ નંદલાલ ૨૫૧ ૬૧ શ્રીયુત અમૃતલાલ ઈશ્વરલાલ મહેતા ૨૫, ૬૨ શાહ જાદવજી મેહનલાલ તથા શાહ ચીમનલાલ અમુલખભાઈ ૨૫૧ ૬૩ અ.સૌ. બેન લાભુબેન મગનલાલ હા. શાહ અમૃતલાલ ધનજીભાઈ વઢવાણ શહેરવાળા ૬૪ અ સૌ. બેન કાંતાબેન ગોરધનદાસ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૬૫ દેશી કુલચંદ સુખલાલભાઈ બોટાદવાળાના સ્મરણાર્થે ર.. હા. દેશી છબીલદાસ કુલચ દભાઈ ૨૫૧ ૬૬ લાલાજી રામકુંવરજી જૈન ૨૫૧ ૬૭ શેઠ છોટાલાલ ગુમાનચંદ પાલનપુરવાળા ૨૫૧. ૬૮ શાહ ધીરજલાલ મોતીલાલ ૨૫૧ ૬૯ સઘવી સૂર્ય પ્રાંત ચુનીલાલના મરણાર્થે હા સંઘવી જીવણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧ ૭૦ ભાવસાર મેહનલાલ અમુલખરાય ૨૫૧ ૭૧ મહેતા મૂળચદ મગનલાલ ૨૫૧ ૭૨ વૈદ્ય નરસિંહદાસ સાકરચંદનાં ધર્મપત્નિ રેવાબાઈના સ્મરણાર્થે હા. હરીલાલ નરસિંહદાસ ૨૫૧ ૭૩ શાહ કુલચંદ મુલચંદભાઈ હા હસમુખભાઈ ફુલચંદભાઈ ૭૪ શેઠ મિશ્રી લાલજી જવાહરલાલજી બરડીયા ૨૫૧ ૭૫ શાહ લલ્લુભાઈ મગનભાઈ ચૂડાવાળા હા. જશવ તલાલ લલુભાઈ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ ૭૬ કુમારી પુષ્પાએન હીરાલાલ (ચાંદ મુનિના ઉપદેશથી) ७७ શાહ મણીલાલ ઠાકરશી હા. કમળાબેન મણીલાલ લખતરવાળા (ચાંદ મુનિના ઉપદેશથી) ૭૮ સીસ નલીનીબેન જયંતીલાલ ૭૯ સ્વ. ઉમેદરામ ત્રીભુવનદાસના ધર્મપત્નિ કાશીમા'ના સ્મરણાર્થે હા. શાતિલાલ ઉમેદરામ (ચાંદ મુનિના ઉપદેશથી) સ્વ. ભાવસાર મેાહનલાલ છગનલાલના ધર્મપત્નિ દિવાળીબાઇના સ્મરણાર્થે` હા. રતીલાલ માણેકલાલ (ચાંદ મુનિના ઉપદેશથી) ૮૧ મહેતા દેવીચ દિજી ખૂમચંદજી ધેાકા ગઢસીયાણાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. મહેતા ચુનીલાલ હરમાનચંદ ૮૨ ઘાસીલાલજી મેાહનલાલજી કાઠારી C/૦. લક્ષ્મી પુસ્તક ભંડાર સ્વ. શેઠ નાથાલાલ રતનાભાઇ મારફતીયાના સ્મરણાર્થે પુનાબેન તરફથી હા. કરશનભાઇ (ચાંદ મુનિના ઉપદેશથી) ૮૩ શાહ મણીલાલ છગનલાલ ૮૦ ૮૪ ૮૫ ભાવસાર જયંતીલાલ ભોગીલાલ ૮૬ ભાવસાર દિનુભાઇ ભાગીલાલ ભાવસાર રમણલાલ ભાગીલાલ ८७ ૮૮ ભાવસાર કનુભાઈ સકરચ દ ૮૯ શેઠ ભેરૂમલજી સાહેબ જોધપુરવાળા ૦ સ્વ. એનાણી વમાન રામજીભાઈ કુંદણીવાળાના સ્મરણાર્થે હા શાતિલાલ વમાન ૯૧ સ્વ. શાહ કચરાભાઈ લહેરાભાઈના સ્મરણાર્ચ હા શાંતિલાલ કચરાભાઈ ૯૨ એક સ્વધર્મી ખંધુ હા. શાહ રીખલદાસજી જયંતિલાલજી અસૌ. સરસ્વતીબેન મણીલાલ ચતુરભાઇ શાહ ૯૩ ( સદાન દી છેટાલાલ મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) ચીમનલાલ મણીલાલ શાહ (દરિયાપુરી સપ્રદાયના પૂ તપસ્વી મહારાશ્રી માણેકચ દ્રજી મહારાજના શિષ્ય મુનિશ્રી મગનલાલજી મહારાજશ્રીના સ્મરણાર્થે) ૯૫ જેકુંવર વ્રજલાલ પારેખ ૯૬ ૯૪ પુનમચંદજી જવાહરલાલજી ખરડીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ .૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૬ ૨૫૧ ૨૫૧ ૯૭ અ.સૌ. લીલાવતી ધીરજલાલ મહેતા ' - - - - cio. 3 ધીરજલાલ ત્રીકમલાલ મહેતા -૯૮ શેઠ રાજમલજી-ઘાસીમલજી કોઠારી કેશીથડવાળા તરફથી સ્થા. જૈન સંઘને ભેટ ૯૯ શેઠ ચુનીલાલ ભગવાનજી C. રતીલાલ ચુનીલાલ ૧૦૦ ભાગ્યવતી અરવીંદકુમાર C/o. અરવીંદકુમાર સારાભાઈ ભાવસાર ૧૦૧ અ. સી. ચંચળબેન મનસુખલાલ હા. મનસુખલાલ જેઠાલાલ રૂપેરા ૧૦૨ સ્વ. આસીબાઈ તથા શેઠ વસ્તીમલજી ભેમાજીનાં સ્મરણાર્થે હા શેઠ મીશ્રીમલજી દેવીચંદજી ઓસવાલ કેરુવાળા ૧૦૩ સ્વ. શેઠ કીશનમલજી માંડેતના સ્મરણાર્થે હા શીરેમલજી કીશનમલ સેજવાલા ૧૦૪ સ્વ. શેઠ વકતાવરમલજીના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ ઘસાલાલજી મુકનરાજજી શીયારીયા (જોધપુરવાળા) ૧૦૫ શાહ મહાસુખલાલ ભાઈલાલ (સદાનંદી પડિત મુનિશ્રી છેટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ૧૦૬ અ. સૌ. કાંતાબેન કાળીદાસ C/o કુમાર બુક બાઈડીંગ વર્કસ ૧૦૭ સ્વ. શેઠ હીંમતલાલ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમના સુપુત્ર મેસર્સ દ્વારકાદાસ એન્ડ બ્રધર્સ તરફથી ૧૦૮ અ. સૌ કાંતાબેનના સ્મરણાર્થે હા, ભાવસાર નાગરદાસ હરજીવનદાસ ૧૦૯ શ્રી ઉમેદચંદ ઠાકરશી C/o. M/s. યુ. ટી. ગોપાણી એન્ડ સન્સ ૧૧૦ પૂ, માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હા. ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ ૧૧૧ શાહ શાતિલાલ મેહનલાલ ૧૧૨ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર હા. પ્રભુદાસભાઈ મહેતા ૧૧૩ શાહ ભુલાલ કાળીદાસ ૧૧૪ સ્વ, પિતાશ્રી મોતીલાલજીના સ્મરણાર્થે હા. મહેતા રણજીતલાલજી મોતીલાલ ઉદેપુરવાળા ૧૧૫ શેઠ પરસોતમદાસ અમરસીના ધર્મપત્નિ રવ. કુસુમબેનના સ્મરણાર્થે તથા અ. સૌ. સવિતાબેનના માસખમણ નિમિત્તે હા. સેમચંદ પરસેતમદાસ (પિટ સુદાનવાળા) ૨૫૧. ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨, - - ૨૫૧ ૧૧૬ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મચંદજી, ડુંગરવાલ રાજાજી' રાજાજીકાકેરડા વાળા (મુનિશ્રી માંગીલાલજીના ઉપદેશથી) અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ ૨ ટી સ્થા જૈન સંઘ હા. શાહ ગાંડાલાલ ભીખાલાલ અજમેર ૧ શેઠ ભુલાલ મોહનલાલ ડુંગરવાલ ૨૫૧. ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ અલવર ૧ શ્રીમતી ચ પદેવી Cછે. બુદ્ધામલજી રતનમલજી સચેતી ૨ ચાંદમલજી મહાવીરપ્રસાદ પાલાવત ૩ શ્રીયુત રૂપકુમાર સુમતિકુમાર જૈન આસનસેલ ૧ બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સમરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ મણીબાઈ તરફથી હા રસિકલાલ, અનિલકાંત, વિનોદરાય ૨૫૧ આટકેટ ૧ હેતા ચુનીલાલ નારણદાસ ૩૦૧ ૨૫૧ આણંદ ૧ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી હા. મનસુખલાલાઈ આકેલા ૧ શેઠ કંચનલાલભાઈ રાઘવજી અજમેરા C/૦. મેસર્સ અજમેરા બ્રધર્સ એન્ડ કુ. (પૂ સદાનંદ મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ઈગતપુરી , ૧ શેઠ પન્નાલાલ લખીચંદ જૈન ૨૫૧ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૦ ૨૫. س ૨૫૧ سه ઇન્દર : ૧ અ. સૌ. બેન દયાબેન મોહનલાલ દેસાઈ જેતપુરવાળા “ (અ.સૌ. બેન વિદ્યાબેનના વષી તપ નિમિતે) હા. અરવિંદકુમાર તથા જીતેન્દ્રકુમાર ૨ શ્રીયુત ભાઈલાલ છગનલાલ તુરખીયા ૩ સ્વ. ગૌરીશંકર કાળીદાસ દેશાઈ જેતપુરવાળાના મરણાર્થે . હા. ભુપતલાલ ગૌરીશંકર દેરાઈ ઉદેપુર ૧ શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડ ૨ શ્રીમતી સેહીનીબાઈ C/o. મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડ ૩ અ. સૌ. બેન ચદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલ નાહરનાં ધર્મપત્નિ હા. શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલ હીંગડ ૪ શેઠ છગનલાલજી બાગ્રેચા ૫ શેઠ મગનલાલજી બાગ્રેચા ૬ સ્વ. શેઠ કાળલાલજી લોઢાના સ્મરણાર્થે હા શેઠ દેલતસિંહજી લોઢા ૭ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી સાખેલાના સ્મરણાર્થે હા. પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા ૮ શેઠ ભીમરાજજી થાવરચંદજી બાફણા ૯ શ્રીયુત સાહેબેલાલજી મહેતા ૧૦ શેઠ પનાલાલજી ગણેશલાલજી હીંગડ ૧૧ શેઠ દીપચંદજી પન્નાલાલજી લોઢા ઉપલેટા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧. ૨૫૧ ૨૫૧, ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ - ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ . ૨ સ્વ. બેન સંતોકબેન કચરા હા. ઓતમચંદભાઇ, છોટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા. શેઠ પ્રતાપભાઈ ૪ દેશી વીઠ્ઠલજી હરખચંદ : ૫ સંઘાણું મુળશંકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમના પુત્રો જયંતીલાલ તથા રમણીકલાલ - - - , ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ ઉમરગાવ રેડ -૧ શાહ મેહનલાલ પિપટલાલ પાનેલીવાળા ૨૫૧ એડન કેમ્પ ૨૫૧ ૧ મહેતા પ્રેમચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે હા. રાયચંદભાઈ, પિપટલાલભાઈ તથા રસીકલાલભાઈ ૨ શાહ જગજીવનદાસ પુરૂષેત્તમદાસ ૩ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી ૨૫૧, ૨૫૧ કલકત્તા ૧ શ્રી કલકતા જેન છે. સ્થા. (ગુજરાતી) સંઘ હા. શાહ જયસુખલાલ પ્રભુલાલ ૨૫૧ કલેલ ૨૫૧. ૨૫૧. ૨૫૧ ૧ શેઠ મેહનલાલ જેઠાભાઈના સમરણાર્થે હા. શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ ૨ ડે. મચાચંદ મગનલાલ શેઠ હા. ડે, રતનચંદ મયાચંદ ૩ સ્વ. નાથાલાલ ઉમેદચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ જ શેઠ મણીલાલ તલકચંદને સ્મરણાર્થે હા મારફતીયા ચ દુલાલ મણીલાલ ૫ સ્વ શ્રીયુત વાડીલાલ પરશોતમદાસના સ્મરણાર્થે હા. ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ - ૬ શાહ નાગરદાસ કેશવલાલ ૧૭ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ આત્મારામભાઈ મેહનલાલભાઈ ૨૫. ૨૫૧ ૨૫૧ ર૫૧. ૧ શ્રી સ્થા. દરિયાપુરી જૈન સંઘ હા ભાવસાર દામોદરદાસભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ , ૨ પાર્વતીબેન Cછે. જેસીંગભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫ કાઠેર ૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હા. શેઠ જેશીંગભાઈ પિચાલાલ (માધવસિંહજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૧ કેવા સગઢ શ્રી ક. સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ દેવચંદ અમુલખ ૨પ૧ કલ્યાણું ૧ સંઘવી ઠાકરશીભાઈ સંઘના સમરણાર્થે હા. શાહ હીંમતલાલ હરખચંદ ૨૫૧ ૩૦૦ કાનપુર ૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદ કુંદણું–આટકેટ - ૧ દેશી રતીલાલ ટેકશી ૨૫૧ કલકી ૧ પટેલ ગોવિંદલાલ ભગવાનજી ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી (તેમના સ્વ. સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે) ૨૫૧ ૩૦૨. કપાલા ૧ સ્વ શેઠ નાનચંદ મોતીચંદ ધ્રાફાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. તેમના સુપુત્ર જમનાદાસ નાનચંદ શેઠ ૨ શ્રીમતી હીરાબેન, રતીલાલ નાનચંદ શેઠ ધ્રાફાવાળા ૨૫૧ ૨૫૧ કુશળગઢ ૨૫૧ ૧ શેઠ ચંપાલાલજી દેવીચંદજી ખાખીજાળીયા ૧ બાટવીયા ગુલાબચંદ લીલાધર ૨૫૧ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખારાડા ૧ સ્વ. પિતાશ્રી હરજીવનદાસ લાલચંદ શાહ તથા સ્વ. અ. સૌ બેન જમકુબાઈ તથા લીલાબાઈના " સ્મરણાર્થે હા. નરસિંહદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૨ સ્વ. શેઠ ઓઘડલાલ લક્ષ્મીચંદના સ્મરણાર્થે હા ભાઈચંદ ઓઘડભાઈ ૨૫૧ ખીચન ૧ શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ ૩૫૨, ખુરદારેડ , ૩૦૦ ૧ શેઠ ગીરધારીલાલજી સીતારામજી ખેંડપવાળા ૨ શેઠ નરસિંહદાસ શાતીલાલજી ભેરલાવાળા (મુનિશ્રી ચાદમલજીના ઉપદેશથી) ૨૫૧ પ્રભાત ૨૫૧ ૨૫૧, ૨૫૧ ૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ૨ શેઠ ત્રિભોવનદાસ મંગળદાસ ૩ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. પટેલ કાંતીલાલ અંબાલાલ ૪ શાહ ચ દુલાલ હરીલાલ ૫ શાહ સાકરચંદ મેહનલાલ ૬ શાહ સકરાભાઈ દેવચંદ ૨૫૧, ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧. ગાંધીધામ ૧ શાહ મેરારજી નાગજી એન્ડ કુ. ગુંદાલા ૧ શાહ માલશી ઘેલાભાઈ ગુલાબપુરા ૧ શ્રી સથા. જૈન વર્ધમાન સંઘ હા. માંગીલાલજી ઉકારમલજી નેપવાળા ૨૫૧ - ' ' ૨૫૧ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧) ૪ - - ૧ ગેડલ" ૨૫1. ૩૦૧ ૩૦૧ ૧ સ્વ. બાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસને ધર્મપત્નિ કમળભાઈ તરફથી હા. માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીયા લીલાધર દામોદર તરફથી તેમનાં ધર્મપનિ અ. સૌ. - લીલાવતી સાકરચંદ કે ઠારીના બીજા વર્ષીતપની ખુશાલીમાં ૩ કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા. હરીલાલ જેઠાલાલ કામદાર ૪ સ્વ. કઠારી કૃપાશંકર માણેકચદના સ્મરણાર્થે : હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ પ્રભાકુંવરબેન ૫ કોઠારી ગુલાબચંદ રાયચંદ ગુનવાળા ૬ જસાણું રૂગનાથભાઈ નાનજી હા ચુનીલાલભાઈ છ માસ્તર હકમીચંદ દીપચંદ શેઠ - ' ગોધરા ૧ શાહ ત્રીભવનદાસ છગનલાલ ૨ સ્વ. પ્રેમચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧. ૩૦૧ ૩૦૧ ઘટકણ ૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ ઘેલવડ (થાણા) ૧ મહેતા ગુલાબચંદજી ગંભીરમલજી ૩૦૦ ઘડનદી ૨૫ ૧ શેઠ ચંદ્રભાણ શેભાચંદ ગાદીયા ચુડા - ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. રતીલાલ મગનલાલ ગાંધી ચેટીલા ” શાહ વનેચંદ જેઠાલાલ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘને ભેટ " ૩૦૧ Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ ગેડ - 15 ૨૫1. ૩૦૧ ૩૦૧. ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧. ૧ સ્વ. બાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્નિ કમળબાઈ તરફથી હા. માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીયા લીલાધર દામોદર તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. લીલાવતી સાકરચંદ કોઠારીના બીજા વર્ષીતપની ખુશાલીમાં ૩ કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા. હરીલાલ જુઠાલાલ કામદાર ૪ સ્વ. કઠારી કૃપાશંકર માણેક્સદના સમરણાર્થે * હા. તેમના ધર્મપત્નિ પ્રભાકુંવરબેન ૫ કોઠારી ગુલાબચંદ રાયચંદ રંગુનવાળા ૬ જસાણી રૂગનાથભાઈ નાનજી હા ચુનીલાલભાઈ છ માસ્તર હકમીચંદ દીપચંદ શેઠ . ગોધરા ૧ શાહ ત્રીવનદાસ છગનલાલ ૨ સ્વ. પ્રેમચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ઘટકણું ૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ - - - ઘેલવડ (થાણા) ૧ મહેતા ગુલાબચંદજી ગંભીરમલજી ઘોડનદી : ૧ શેઠ ચંદ્રભાણ ભાચંદ ગાદીયા , ચુડા . ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા રતીલાલ મગનલાલ ગાંધી ચેટીલા : ૧" શાહ વનેચંદ જેઠાલાલ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘને ભેટ ** ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫ ૨૫. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮; ૩૦૧. ચારભુજાડ ૧ શેઠ માગીલાલજી હીરાચંદજી બાબેલ જમશેદપુર ૧ દેશી ઝવેરચંદ વલભજી ૨૫૧ જલેસર (બાલાસર) ૧ સંઘવી નાનચંદ પિપટભાઈ થાનગઢવાળા ૨૫૧ જયપુર ૧ શ્રીમાન હિંમતસિંહજી સાહેબ ગલુડિયા, એડિસનલ કમીશ્નર અજમેર ડીવીઝનવાળાનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. માણેકકુંવરબેન તરફથી હા ખુશાલસિંહજી ગલુડિયા ૨ શ્રીમાન શેઠ શીમલજી નવલખાંના ધર્મપતિ અ.સૌ. પ્રેમલતાદેવી ૩૫૧ ૨૫૧ જાવરા ૧ રવ. ભંડારી સ્વરૂપચંદજી શાહના ધર્મપત્નિ મોતીબેનના સ્મરણાર્થે હા. શ્રીયુત લાલચંદજી રાજમલજી કીશનગઢવાળા (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) “. જામખંભાળીયા - ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ વસનજી નારણજી ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા. મહેતા રણછોડદાસ પરમાણંદ ૩ સઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ જામનગર ૧ શાહ ઇટાલાલ કેશવજી ૨ વારા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ ૩ ડે સાહેબ પી. પી. શેઠ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨પ૦ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧. ૨૫૧ -૪ શાહ રંગીલદાસ પિપટલાલ પ વકીલ મણીલાલ ખેગારભાઈ પુનાતર જુનાદેવ ૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ ૨૫૧ જુનાગઢ ૧ શાહ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા. હરિલાલભાઈ (હાટીનામાળીયાવાળા) ૨૫૧ જામજોધપુર 3८७ ર૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. મહેતા પિપટલાલ માવજીભાઈ ૨ શાહ ત્રીભવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા ૩ દેશી માણેકચદ ભવાન ૪ પટેલ લાલજી જુઠાભાઈ ૫ શેઠ બાવનજી જેઠાભાઈ ૬ શેઠ વ્રજલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ જેતપુર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ છે ૧ કઠારી ડોલરકુમાર વેણીલાલ ૨ અ સૌ બેન સુરજકુંવર વેણીલાલ કે ઠારી ૩ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા. નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૪ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ જેતલસર ૧ શાહ લક્ષમીચંદ કપૂરચંદ ૨ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ - જનકબેન તરફથી હા શાંતીલાલભાઈ ગોડલવાળા ૨૫૧ ૨૫૧ જોધપુર ૨૫૦ ૧ શેઠ નવરતનમલજી ધનવતસિંહજી ૨ શેઠ હસ્તીમલજી મનરૂપમલજી સામસુખ ૨૫૧ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 શેઠ પુખરાજજી પદ્મમરાજજી ભંડારી ૪ શેઠ વસ્તીમલજી આનંદમલજી સામસુખા જોરાવરનગર ૧ શ્રી સ્થા. જૈન મધ હા. શેઠ ચંપકલાલ ધનજીભાઈ ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ ૨૦ ઝરીયા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા. શેઠ કનૈયાલાલ ખી. મેટ્ટી ડોંડાયચા 不 , ૧ શાહ ઠાકરશીભાઇ કરસનજી - ૨ શેઠ જેઠલાલ ત્રીભાવનદાસ 3 ! # ૧ સ્વ. ચુનીલાલજી દુગડના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ ઢાઠ્ઠાઇના તરફથી હા. શેઠે રામગ્રદજી દુગઢ ૧ શેઠ માણેકલાલભાઇ ખેગારજી મા ૨૫૧ ૧ શ્રી ઢસાગામ સ્થા. જૈન સઘ હા. એક સદ્મહસ્ય તરફથી ૨ શ્રી સ્થા. જૈન મંઘ હા. મડિયા નરભેરામ જેઠાલાલ (હસા જ કશન) ૨૫૦ તાસગાંવ થાનગઢ શાહ ધારશીભાઇ પાશવીરભાઇ હા સુખલાલભાઇ હું સામેન અરવી દે હા ભાઈ વીચદ માણેકચ’દ દહાણુરાડ ૧ શહ હરજીવનદાસ એઘડ ખંધાર (કરાચીવાળા) S દાહાદ ૨૫૧ ૨૫૧ こ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૩૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ; * ; ૩, ૪ ૨૫૧ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧ '' દિલ્હી ૩૫૧ ૧ લાલજી પૂર્ણચંદજી જૈન (સેન્ટ્રલ બેંવાળા) . ૨ શ્રીયુત કિશનચંદજી મહેતાબચંદજી ચેરડીયા હા શ્રીમતી નગીનાદેવી તથા શ્રીયુત મહેતાબચંદ જૈન ૨૫૧ ૩ અ. સૌ સજજનબેન ઈદરમલજી પારેખ ૨૫૧ ૪ લાલાજી મીઠનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૩૦૧ ૫ લાલાજી ગુલશનરાયજી જેન એન્ડ સન્સ ૬ સવ. લહમીચ દજીના સ્મરણાર્થે નગીનાદેવી સુજંતીના તરફથી હા. સંઘવી હેમતકુમારજી જૈન ૨૫૧ છ બેન વિજયાકુમારી જૈન C/o. મહેતાબચંદ જૈન (સરલ સ્વભાવી ફૂલમતીજી મહાસતીજીની પ્રેરણાથી) ૨૫૧ ૮ શ્રીમાન લાલાજી રતનચંદજી જૈન C[. આઈ સી. હોઝીયરી ૩૦૧ ૨૫1 ધ્રા ૨૫૧ ૨૫. ૧ શેઠ મણીલાલ જેચંદભાઈ ધાર ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી ધ્રાંગધ્રા ૧ ભાવ દીક્ષિત અ. સૌ. રૂપાળીબેન હીંમતલાલ સંઘવીને તપાથે સ ઘવી ચીમનલાલ પરસોતમદાસ સંઘવી તરફથી ૨ સંઘવી નરસિંહદાસ વખતચંદ ૩ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સઘ હા શેઠ મગળજી જીવરાજ ૪ ઠકકર નારણદાસ હરગોવિંદદાસ ૫ કઠારી કપુરચંદ મંગળજી •', રાજી ૩૦૫ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૨ અ. સૌ. બચીબેન બાબુભાઈ ૩૫૧ * ૨૧. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ ધી નવસૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ પ્રા. લીમીટેડ ૨૫૧ ૪ સ્વ. રાયચંદ પાનાચંદના સમરણાર્થે હા. ચીમનલાલ રાયચંદ શાહ ૩૦૧ ૫ ગાધી પિપટલાલ જેચ દભાઈ ૬ દેશાઈ છગનલાલ ડાહ્યાભાઈ લાઠવાળાના ધર્મપત્નિ દિવાળીબેન તરફથી હા. કુમાર હસુમતી ૨૫૧ , ૭ શેઠ દલપતરામ વસનજી મહેતા ૨૫૧ ૮ એક સગ્રહસ્થ હા. મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૨૫૧ ૯ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઈના તથા ચિ. હંસાના સ્મરણાર્થે હ. પટેલ દલીચંદ ભગવાનજી ૩૦૧ ૧૦ મહેતા હેમચંદ કાળીદાસ જામખંભાળીયાવાળા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧, ૨૫૧ ધ ધુકા ૧ શેઠ પિપટલાલ ધારશીભાઈ ૨ સ્વ. ગુલાબચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા. વેરા પિપટલાલ નાનચંદ ૩ શ્રી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણું ધુલિયા ૧ શ્રી અમોલ જેન જ્ઞાનાલય હા. કનૈયાલાલજી છાજેડ નડીયાદ ૧ શાહ મેહનલાલ ભુરાભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ નારાયણ ગામ , ૧ મોતીલાલજી હીરાચંદ ચેરડીયા રીવાળા ૨૫૧ ન દુરબાર શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ પ્રેમચદ ભગવાનલાલ ૧ ૨૫૦ નાગાર ૧ શ્રીપાલભાઈ એન્ડ કુ. હા. સાગરમલજી હુંકડ ડેરવાળા તરફથી ૨૫૧ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ ૪ પાલનપુર ૧ બેન લક્ષ્મીબાઈ હા. મહેતા હરિલાલ પિતાંબરદાસ ૨ શ્રી લેકાગચ્છ સ્થા. જૈન પુસ્તકાલય હા. કેશવલાલ છ. શાહ ૨૫૧ પાસણી ૧ શ્રી રથા. જૈન સંઘ હા. શાહ છોટાલાલ પૂંજાભાઈ ૨૫. પાલેજ ૧ સ્વ. મનસુખલાલ મેહનલાલ સંઘવીના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ ૩૦૧ પ્રાંતીજ સ્થા જેન સંઘ હા. શ્રીયુત અંબાલાલ મહાસુખરામ ૧ ૨૫૦ પીપળગાંવ ૧ શેઠ ગુદડમલજી શેષમલજી જેવર Co. શેઠ બાલચંદ મિશ્રીલાલ ૫૦૧ પૂના ૧ શેઠ ઉત્તમંચદજી કેવળચંદજી ધેકા ૨૫૧ ફેલના { ૩૦૧ ૧ મહેતા પુખરાજજી હસ્તીમલજી સાદડીવાળા ૨ મહેતા કુંદનમલજી અમરચંદજી સાદડીવાળા ૨૫૧ બગસરા ૧ શેઠ પિપટલાલ રાઘવજી રાઈડીવાળા 1. હા નાનચંદ પ્રેમચંદ શાહ ૨૫૧ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ : બરવાળા-ઘેલાશા ૧ સ્વ. મેહનલાલ નરસિંહદાસના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ સુરજબેન મોરારજી * : - રપ૧ બદનાવર, ૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હા, મિથીલાલ જેન વકીલ રપ૧ બાલોતરા ૧ શાહ જેઠમલજી હસ્તીમલજી ભગવાનદાસજી ભણી - - - ૨૫૧ બીદડા , ' ' ' ' ૧ શાહ કાનજી શામજીભાઈ ૨૫૧. બિકાનેર ૨૫૪ ૧ શેઠ ભરૂદાનજી શેઠીયા બેરાજા ૧ શેઠ ગાગજી કેશવજી. જ્ઞાનભંડાર માટે બેલારી ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંધ હ. શેઠ હજારમલજી હસ્તીમલજી રાંકા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રી બેર સ્થા જૈન સંઘ હ. મહેતા નવલદે હાકેમચંદ - બેંગલોર - ૧ બાટવીયા વનેચદ અમચંદ, મહાવીર ટેક્ષટાઈલ સ્ટેર તરફથી ભાઈ ચન્દ્રકાન્તના લગ્નની ખુશાલીમાં. ! ૨, શેઠ કિશનલાલજી કુલચંદજી સાહેબ ૨૫૨ ૨૫૧. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ બોટાદ ૧ સ્વ. વસાણી હરગોવિંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે . હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ છબલબેન , ' '. . ૨૫૧ બેલી ૧ શાહ પ્રવીણચંદ્ર નરસિંહદાસ સાણંદવાળા ૨૫૧ ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ ૨૫૧ - બારા ૧ સ્વરૂપચન્દજી જવાહરમલજી બોરડીયા, મનેબાઈ સુગનલાલજીના સ્મરણાર્થે (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૨ બેન રાધીબાઈ (પૂ. આચાર્ય ધર્મદાસજી મહારાજના સ પ્રદાયના મંત્રિ કીશનલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય શોભાગમલજી મહારાજના શિષ્ય સ્વ. કેવળચંદજી મહારાજના સ્મરણાર્થે) (ચાંદમુનિને ઉપદેશથી) ભાણવડ ૧ શેઠ જેચંદભાઈ માણેકચંદભાઈ ૩૫ર ૨ સંધવી માણેકચંદ માધવજી ૨૫૧ ૩ શેઠ લાલજી માણેકચંદ લાલપુરવાળા ૨૫૬ ૪ શેઠ રામજી જીણાભાઈ ૫ શેઠ પદમશી ભીમજી ફેફરીયા ૨૫૧ ૬ ફેફરીયા ગાડાલાલ કાનજીભાઈ હ. આ સ. શાંતાબેન વસનજી ૨૫૧ ૭ સ્વ. મહેતા પૂનમચંદ ભવાનના સ્મરણાર્થે હા તેમનાં ધર્મપત્નિ દિવાળીબેન લીલાધર (ગુંદાવાળા) ૨૫૧ ભાવનગર ૧ સ્વ કુંવરજી બાવાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ લહેરચંદ કુંવરજી ૩૦૧ ૨ કેઠારી ઉદયલાલજી સાહેબ - ', ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૨, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક ભીલોડા ૧ શ્રી શાંતિ જૈન પુસ્તકાલય હા. ચાંદમલજી માનેમલજી સંઘવી : ૨૫૧ ૨? શેઠ ભીમરાજજી મીશ્રીલાલજી ' ' , ": < * : ભીમ ૧ ચંપકલાલજી જૈન પુસ્તકાલય હા. શેઠ ગામલજી માંગીલાલજી ૨૫૧ ૩૦૧ ભુસાવલ ૧ શેઠ રાજમલજી નંદલાલજી, ચેરીટેબલસ્ટ - ૨૫૧ જાય ૧ જ્ઞાન મદિરના સેક્રેટરી શાહ કુંવરજી જીવરાજ ' ' ૨૫૧ મદ્રાસ ૨૫૧. ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી મહેતા ૨૫૧, ૨ મહેતા મણીલાલ ભાઈચંદ ૩ મહેતા સુરજમલ ભાઈચંદ ૨૫૧ ૪ બાપાલાલ ભાઈચંદ મહેતા ૨૫૧ મનેર , ૧ શાહ શેરમલજી દેવીચંદજી જાવ તગઢવાળા હા. પૂનમચંદજી શેરમલજી બોલ્યા માનકુવા ૧ સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાલાલના મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ કુવરબાઈ હરખચંદ (માનકુવા થા જૈન સંઘ માટે) - માંડવી .' . ' ૧- શ્રી સ્થા. છેકેટી જૈન સંઘ હા મહેતા ચુનીલાલ વેલજી - 2 2 - ૨૭૭ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ માંડવા ૧ શ્રી માંડવા સ્થા. જૈન સંઘ હા. અ. સૌ. કંચનગૌરી રતીલાલ ગેસલીયા (ગઢડાવાળા) ૨૫૧ માલેગાંવ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. ફતેલાલ, માલ જેન મુંબઈ તથા પરાઓ ૧૧ સ્વ. પિતાશ્રી કુંદનમલજી મોતીલાલજી મુંથાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ મોતીલાલજી જુબરમલજી (અહમદનગરવાળા) ૨૫૧ ૨ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન સંઘ હા. કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧ ૩ અ.સૌ. કમળાબેન કામદાર હા. કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧ ૪. . માતુશ્રી કડવીબાઈને સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં પત્ર હકમીચંદ તારાચંદ દેશી (અધેરી) ૨૫૧ ૫ શાહ હરજીવન કેશવજી ૨૫૧ ૬ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ.સૌ. કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૨૫૧ -૭ સંઘવી હિંમતલાલ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૮ વેરા પાનાચંદ સંઘજીના સ્મરણાર્થે હા. ત્રબકલાલ પાનાચંદ એન્ડ બ્રધર્સ ૨૫૧ ૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૧૦ સ્વ જટાશકર દેવજીભાઈ દેશના સ્મરણાર્થે હા. રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશંકર દેશી ૩૦૧ ૧૧ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ હા. નરસીંહદાસ વલભજી ૨૫૧ ૧૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ ૧૩ શાહ ત્રીભોવનદાસ માનસિંગભાઈ દેઢિીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. શાહ હરખચંદ ત્રિવનદાસ ૧૪ ખેતાણી મણીલાલ કેશવજી (વડીયાવાળા) ઘાટકે પર ૨૫૧ ૧૫ સ્વ. પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગોડલવાળાના સ્મરણાર્થે હા. વૃજલાલ શામળજી બાવીસી ૩૦૧ ૧૬ શાહ મનહરલાલ પ્રાણજીવનદાસ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ ૨૫૧ ૧૭ સ્વ. આશારામ ગીરધરલાલના સ્મરણાર્થે હા. શાંતિલાલ આશારામવતી જશવંતલાલ શાંતિલાલ ૨૫૧ ૧૮ ગાંધી કાંતીલાલ માણેકચંદ ૨૫૧ ૧૯ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કુ. (કાંદીવલી) ૨૫૧ ૨૦ અ સૌ લાબેને હા રવજીભાઈ શામજી ૨૫૧ ૨૧ સ્વ. માતુશ્રી માણેકબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ વલભદાસ નાનજી ૩૦૧ ૨૨ એક સદગૃહસ્થ હ. શેઠ સુંદરલાલ માણેકલાલ ૨૩ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઈ ૨૫૦ ૨૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા ૨૫૧ ૨૫ સ્વ. માતુશ્રી ગોમતીબાઈને મરણાર્થે હા. શાહ પિોપટલાલ પાનાચંદ ૨૫૧ ૨૬ કોટેચા જય તીલાલ રણછોડદાસ સૌભાગ્યચંદ જુનાગઢવાળા ૨૫૧ ૨૭ વેરા ઠાકરશી જશરાજ ૨૫૧ ૨૮ કઠારી સુખલાલજી પુનમચંદજી (ખારોડ) ૨૫૧ ૨૯ અ. સૌ. બેન કુંદનગૌરી મનહરલાલ સંઘવી ૨૫૧ ૩૦ કે ઠારી રમણીકલાલ કસ્તુરચંદભાઈ ૨૫૧ ૩૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા. દલીચંદ અમૃતલાલ દેસાઈ ૨૫૧ ૩૨ સ્વ. ત્રીભોવનદાસ વ્રજપાળ વીંછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. હરગોવિંદદાસ ત્રિભોવનદાસ અજમેરા ૨૫૧ ૩૩ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચંદ ૨૫૧ ૩૪ શેઠ સરદારમલજી દેવીચંદજી કાવડીયા (સાદડીવાળા) ૨૫૧ ૩૫ શેઠ નેમચદ સ્વરૂપચ દ ખ ભાતવાળા હા. ભાઈ જેઠાલાલ નેમચન્દ ૨૫૧ ૩૬ શાહ કરશીભાઈ હીરજીભાઈ ૩૦૧ ૩૭ શ્રીમતી મણીબાઈ વ્રજલાલ પારેખ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા. વૃજલાલ દુર્લભજી ૨૫૧ ૩૮ દડિયા અમૃતલાલ મોતીચદ (ઘાટકોપર) ૨૫૧ ૩૯ દેશી ચત્રભુજ સુંદરજી ૨૫૧ ૪૦ દેશી જુગલકિશોર ચત્રભુજ ૨૫૧ ૪૧ દેશી પ્રવિણચંદ ચત્રભુજ ૪૨ શેઠ મનુભાઈ માણેકચંદ હા. ઝાટકીયા નરભેરામ મોરારજી ૨૫૧ ૪૩ શાહ કાતીલાલ મગનલાલ ' ' . *, * ૨૫૧ ૨૫૧ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ શેઠ મણીલાલ ગુલાબચંદ - ઘાટકેપર - ૨૫૧ ૪૫ શેઠ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ , , , , ૨૫૧ ૪૬ શાહ શીવજી માણેકભાઈ ૨૫૧ ૪૭ મેસર્સ સવાણી ટ્રાન્સપોર્ટ કે હા. શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૪૮ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી (વેરાવળવાળા) ૨૫૧ ૪૯ મહેતા રતિલાલ ભાઈચ દ ૨૫૧ ૫૦ શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા ૨૫૧, ૫૧ બેન કેશરબાઈ ચંદુલાલ જેસીંગભાઈ શાહ ૨૫૧ પર પારેખ ચીમનલાલ લાલચંદ સાયલાવાળાનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. ચંચળબાઈના સ્મરણાર્થે હા સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૧ ૫૩ ધી મરીના મેઈન હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા. શાહ મણીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ ૧૪ મહેતા મોટર સ્ટાર્સ હા. અનેપચંદ ડી. મહેતા ૨૫૧ પપ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાશંકર મોરબીવાળા તરફથી તેમનાં માતુશ્રી મણીબેનના સ્મરણાર્થે ૩૦૧ ૫૬ શ્રીયુત જશવંતલાલ ચુનીલાલ વેરા ૨૫૦ પ૭ શાહ કુંવરજી હંસરાજ ૨૫૧ ૫૮ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રીકમજી ૨૫૧ ૫૯ મેદી અભેચંદ સુરચંદ રાજકોટવાળા હા. સાલાલ અભેચંદ ૨૫૧ ૬૦ શાહ જેઠાલાલ ડામરશી ધ્રાગધ્રાવાળા હા. શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૬૧ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચંદ જસાણીના સ્મરણાર્થે હા. લક્ષ્મીચંદભાઈ તથા કેશવલાલભાઈ ૩૦૧. ૬૨ સ્વ. પિતાશ્રી શાહ અંબાલાલ પુરૂષોત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા. શાહ બાપલાલ અંબાલાલ ૨૫૧ ૬૩ સ્વ. કસ્તુરચદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ ઝવેરબેન મગનલાલ વતી જયંતિલાલ કસ્તુરચંદ મશ્કારીયા (ચુડાવાળા) ૨૫૧ ૬૪ શેઠ ડુંગરશી હસરાજ વીસરીયા ૨૫૧ ૬૫ શાહ રતનશી મેણશીની કુ. ૨૫૧ ૬૬ શેઠ શીવલાલ ગુલાબચંદ મેવાવાળા ૨૫૧ ૬૭ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ ૨૫૧ ૬૮. સ્વ. પિતાશ્રી વિરચંદ જેસીંગ શેઠ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે ' 'હા. કેશવલાલ વીરચંદ ૨૫. ૬૯ - ચંદુલાલ કાનજી મહેતા ૨૫૧ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૬ * ૨૫. » ૩૦ ૫ ૩૦૧ બ ' + ; - * ૧૭૦૮ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન સંઘ *, હા. કેશરમલજી અનેપચંદજી ગુગલીયા (મલાઈ) રપ ૭૧ સ્વ. પિતાશ્રી પતુભાઈ મનાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ કાનજી પતુભાઈ ૨૫t ૭૨ અ. સૌ. પાનબાઈ હા. શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ - ૨૫૧ ૭૩ સ્વ. નાગશીભાઈ સેજપાલના સ્મરણાર્થે હા. રામજી નાગશી , ૩૦૧ ૭૪ સ્વ. ગોડા વણારશી ત્રીજોવનદાસ સરસવાળાના સ્મરણાર્થે હા જગજીવન વણારશી ગડા ૭૫ સ્વ કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના ૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસંગે હા. જયંતિલાલ કાનજી ) ૨૫૧ ૭૬ શાહ પ્રેમજી માલશી ગંગર ૨૫૧ ૭૭ શાહ વેલશી જેશીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ સ્વ નાનબાઈના સ્મરણાર્થે ૭૮ સ્વ. પિતાશ્રી રાયશી વેલશીના સ્મરણાર્થે હા શાહ દામજી રાયશીભાઈ ૭૯ સ્વ પિતાશ્રી ભીમજી કેરશી તથા માતુશ્રી પાલાબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ ઉમરશી ભીમશી ૩૦૧ ૮૦ શાહ વરજાંગભાઈ શીવજીભાઈ ૨૫૧ ૮૧ શાહ ખીમજી મુળજી પૂજા ૨૫૧ ૮૨ સવ. માતુશ્રી જકલબાઈના સમરણાર્થે હા. દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ , રપ૧ ૮૩ અ.સૌ. સમતાબેન શાંતિલાલ Co. શાતીલાલ ઉજમશી શાહ ,૨૫૧ ૮૪ રવ. કેશવલાલ વછરાજ કોઠારીના સમરણાર્થે સૂરજબેન તરફથી હા, તનસુખલાલભાઈ ૮૫ સ્વ. પિતાશ્રી હંસરાજ હીરાના સમરણાર્થે હા દેવશી હ સરાજ ક બીદડાવાળા ૮૬ ઘેલાણી પ્રભુલાલ ત્રીકમજી (બોરીવલી) ૫૨ ૮૭ શેઠ ચંબકલાલ કસ્તુરચંદ લીંમડી અજરામર શાસ્ત્ર ભંડારને ભેટ (માટુંગા) ૨૫૧ ૮૮ અ. સી. બેન રંજનગૌરી Co શાહ ચદુલાલ ૯મીચંદ » ર૫૧ ૮૯ શાહ નટવરલાલ દીપચદ તરફથી તેમનાં ધર્મપનિ અ. સૌ, સુશીલાબેનના વતની ખુશાલીમાં ૯૦ દેશી ભીખાલાલ વૃજલાલ પાળીયાદવાળા ૯૧ શાહ નેપાળજી માનસંગ છે ૨૫૧ ૨૫૧ = ૨૫ ૨૧૧ • ૨૫૧ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે ૨૫૦ કપ૧ » ૨૫૧ ૯૨ દેશી કુલચંદ માણેકચંદ 19છે કે ૯૩ શેઠ ચ પકલાલ ચુનીલાલ દાદભાવાળા , ડE : - + 91 31 ૪ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હા. સંઘવી ચીમનલાલ અમરચંદ, (દાદર) ૨૫૧ ૫ શાંતિલાલ ડુંગરશી અદાણી - - - ૯૬ શાહ કરશન લધુભાઈ * : ૩૦૧ 9 કિશનલાલ સી. મહેતા શીવ ૨૫૧. ૯૮ માતુશ્રી જીવીબાઈના સમરણાર્થે - હા. શામજી શીવજી કચ્છ ગુંદાળાવાળા - ગોરેગાંવ ૨૫. ૯૯ સ્વ. શાહ રાયશી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ નેણબાઈ વતી હા. જેઠાલાલ રાયશી ૧૦૦ શુશીલાબેનન શકરાભાઈ C. નવીનચંદ્ર વસંતલાલ શાહ વિલેપાલે ૨૫૧ ૧૦૧ બેન ચંદનબેન અમૃતલાલ વારિયા ૧૦૨ સ્વ. કાળીદાસ જેઠાલાલ શાહના સ્મરણાર્થે હા. સુમનલાલ કાળીદાસ (કાનપુરવાળા) ૩૦૧ ૧૦૩ શાહ ત્રીવન ગોપાલજી તથા અ.સૌ. બેન કસુંબા ત્રીભવન (થાનગઢવાળા) - શીવ ૨૫૧ મુળી, ૧ શેઠ ઉજમશી વિરપાળ હા. શેઠ કેશવલાલ ઉજમશી મોરબી - - ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૫૧ ૧ દેશી માણેકચંદ સુંદરજી મોબાસા ૧ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી. મહેતા ૨ શાહ દેવરાજ પિથરાજ ૨૫૧ ૨૫૦ યાદગીરી 4 . શેઠ બાદરમલજી સુરજમલજી બેકર્સ ૨૫૦ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨ રતલામ સ દ ારા, 1 - - ૧ અનેક ભકતજને તરફથી હા. શ્રીમાને કેશરીમલજી નું 2 - 4 * . (શ્રી કેવળચંદ મુનિશ્રીના ઉપદેશથી.' ' ૨૧. , , ૨૫૧. રાણપુર , , , , ૧ શ્રીમતિ માતુશ્રી સમરતબાઈના સ્મરણાર્થે હા 3. નરેતમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા ૨ સ્વ. પિતાશ્રી લહેરાભાઈ ખીમજીના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ કાલીદાસ લહેરાભાઈ વસાણી રાણાવાસ ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમચંદજી હા. બાબુ રખબચંદજી ૩૦૧ ૩૦ રાયચુર ૧ સ્વ. માતુશ્રી મોંઘીબાઈને સમરણાર્થે હા. શાહ શીવલાલ ગુલાબચંદ વઢવાણવાળા ૨ શેઠ કળુરામજી ચાંદમલજી સંચેતી મુથા ' ૨૫૧ ૨૫ રાજકેટ ૧ વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ચીતલીયા ૩ બાબુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ ઉદેપુરવાળા ૪ શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ (એજીનીઅર સાહેબ) પ શેઠ શાંતિલાલ પ્રેમચંદ તેમના ધર્મપનિના વર્ષ તપ પ્રસંગે ૬ શેઠ પ્રજારામ વીઠ્ઠલજી ૬ ઉદાણી ન્યાલચ દ હાકેમચંદ વકીલ ૮ બેન સથુંબાળા નૌતમલાલ જસાણી (વર્ષીતપની ખુશાલી) : ૯ મોદી સૌભાગ્યચંદ મોતીચંદ ૧૦ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. સમરતબેનના વર્ષીતપ નિમિતે ૪૦૦ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧, ૨૫૬ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૬ ૨૫૧ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧ દેશી મોતીચંદ ધારશીભાઇ (રીટાયર્ડએકઝીક્યુટીવ એજીનીયર) ૨૫૧ ૧૨ કામદાર ચંદુલાલ જીવરાજ (ધ્રાગધ્રાવાળા) ૨૫૦ ૧૩ હેમાણ ઘેલાભાઈ સવચંદ ૨૫૧ ૧૪ દફતરી પ્રભુલાલ ન્યાલચંદ , , ૧૫ સ્વ. મહેતા દેવચંદ પુરૂતમના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ | હેમકુંવરબાઈ તરફથી હા. જયંતિલાલ દેવચંદ મહેતા. !' ૨૫૧ -૧૬ પારેખ શીવલાલ ઝઝાભાઈ મેમ્બાસાવાળા હા અ.સૌ. કંચનબેન રયર ૨૫૧ રાપર ૧ પૂજ્ય વાલજીભાઈ ન્યાલચંદભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ લખતર ૧ શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સમરણાર્થે હા શાંતિલાલ રાયચંદ શાહ ૨૫૧ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ ૩ શાહ તલકશી હીરાચંદના સ્મરણાર્થે હા, ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી ૨૫૧ ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાંતિલાલ જાદવજી ર૫૧ ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ સમરતબહેન તરફથી હા. જયંતીલાલ ઠાકરશી લાલપુર ૨૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ નેમચંદ સવજી મોદી હા. ભાઈ મગનલાલ ૨ શેઠ મુલચંદ પિપટલાલ હા. મણીલાલભાઈ તથા જેશીંગલાલભાઈ લાખેણી ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧. ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા. મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ (સીવીલ એંજીનીયર સાહેબ) લાકડીયા ૧ શ્રી લાકડીયા સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ રતનશી કરમણ ૨૫૧ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪ લીમડી (સૌરાષ્ટ્ર) ૨૫૧ ૧ શાહ ચકુભાઈ ગુલાબચંદ ૨૫૧ લીંમડી (પંચમહાલ) ૧ શાહ કુંવરજી ગુલાબચંદ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાબચંદ ૩ શેઠ વીરચંદ પનાલાલજી કર્ણાવટ ૨૫૧ ૨૫૧ લેનાવલા ૨૫૧ ૧ શેઠ ધનરાજજી મુલચ દરજી સુથા ૨૫૧ લુધિયાના ૧ બાબુ રાજેન્દ્રકુમાર જૈન દિહીવાળા ૨૫૧. વઢવાણ શહેર ૧ શેઠ દિલીપકુમાર સવાઈલાલ Co. શાહ સવાઈલાલ ત્રમ્બકલાલ ૨૫૧ ૨ કામદાર મગનલાલ ગોકળદાસ હા. રતીલાલ મગનલાલ ૨૫૧ ૩ સંઘવી મુળચંદ બેચરભાઈ હ. જીવણલાલ ગફલદાસ ૨૫૧ જ શેઠ કાંતીલાલ નાગરદાસ ૫ વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૨૫૧ ૬ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ, ૨૫૧ ૭ શાહ દેવશીભાઈ દેવકરણ ૨૫૧ ૮ વોરા ડોસાભાઈ લાલચંદ સ્થા જેન સંઘ હા. વોરા નાનચંદ શીવલાલ ૯ વોરા ધનજીભાઈ લાલચદ સ્થા. જૈન સંઘ હા. વેરા પાનાચંદ ગબરદાસ ૨૫૧ ૧૦ દેશી વીરચદ સુરચંદ હો દેશી નાનચંદ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૧ સ્વ વેરા મણીલાલ મગનલાલ તથા વેરા ચત્રભુજ મણીલાલ ૧૨ શાહ વાડીલાલ દેવજીભાઈ ૨૫૧ ૧૩ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલના ધર્મપત્નિ - અ. સૌ. કમળાબેન ગુનવાળા " ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫ * , ૨૫૧ ૧૪ શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ 1,09, - ૨૫૧ વડેદરા 33; ; ; ; , ' છે ? ૧ કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ પ્રોફેસર " ' ' }* ર૬. ૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ - " - -- ' ' રપ૧ ૩ સ્વ. પિતાશ્રી ફકીરચંદ પુંજાભાઈના સ્મરણાર્થે . . હા શાહ રમણલાલ ફકીરચંદ ર૫૧ વડીયા શેઢ ભવાનભાઈ કાળાભાઈ પંચમીયા વલસાડ , ૧ શાહ ખીમચંદ મુળજીભાઈ , , વણી ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્નિ સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા. મનહરલાલ નાનાલાલ મહેતા ૨૫૧ વટામણ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧. શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. પટેલ ડાહ્યાભાઈ હલુભાઈ વડગાંવ ૧ શેઠ માણેકચંદજી રાજમલજી બાફણા વાંકાનેર ૧ ખંઢેરીયા કાંતીલાલ ત્રંબકલાલ ૨ દફતરી ચુનિલાલ પિપટભાઈ મેરબીવાળા હા. પ્રાણલાલ ચુનીલાલ દફતરી વીંછીયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ. હા. અજમેશ રાયચંદ વ્રજપાળ . ૨૫૧ ૨૫૧ . ૨૫૧ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિરમગામ , ' ' ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧, ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ માસ્તર વીઠલભાઈ મેદી ૨ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ ૩ શાહ મણીલાલ જીવણલાલ શાહપુરવાળા ૪ શાહ અમુલખ નાગરદાસનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. બેન લીલાવતીના વર્ષીતપ નિમિતે હા. શાહ કાંતિલાલ નાગરદાસ ૫ વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ ચુનીલાલ નાનચંદ ૬ સ્વ. શેઠ મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ બારાઘોડાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરથી હા. ખીમચંદભાઈ ૭ સ્વ. શેઠ હરિલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. અનુભાઈ ૮ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ - ૯ વ. શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદ કટ્વાગઢવાળાના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ ચીમનલાલભાઈ ૧૦ પારેખ મણીલાલ ટેકરશી લાતીવાળા (મોટી બેનના સ્મરણાર્થે) ૧૧ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના પુત્ર વાડીલાલભાઈના ધર્મપત્નિ અ. સ. નારંગીબેનના વર્ષીતપ નિમિતે હા શાતિલાલ નારણદાસ ૧૨ સ્વ છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ કમળાબેન તરફથી હા. મ જુલાકુમારી ૧૩ શ્રી સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હા રભાબેન વાડીલાલ ૧૪ સ્વ. ત્રિવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ ચંચળબેનના સ્મરણાર્થે હા. ડે. હિંમતલાલ સુખલાલ ૧૫ શાહ મુળચંદ કાનજીભાઈ હા શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ ૧૬ શેઠ મેહનલાલ પિતામ્બરદાસ હા. ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલ ૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વર્ષીતપ નિમિતે હા નથુભાઈ નાનચદ શાહ ૧૮ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ ૧૯ સ્વ. મણીયાર પરસોતમદાસ સુદરજીના સ્મરણાર્થે હા. સાકરચદ પરસોતમદાસ શાહ વેરાવળ ૧ શાહ કેશવલાલ જેચંદભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ શાહ ખીમચંદ શાભાગ્ય ૐ સ્વ. શેઠ મદનજી જેચંદભાઇના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ લાડકુંવરખાઈ તરફથી હા, ધીરજલાલ મનજી ૪ શ્રી સ્થા. જૈન સઘ હા. શાહ શેાભેચઢ કરશનજી પ શાહ હરિકશનદાસ ફુલચંદ કાનપુરવાળા સતાણ ૧ ૧ સા ૧ શ્રી સરા સ્થા. જૈન સંધ હા. દોશી પાનાચંદ્ર સામચંદ ૨ ૩૭ સ્વ. કાઠારી મદનલાલજી કુંદનમલના સ્મરણાથે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ રાજકુવરમાઈ સાણંદ શાહુ હીરાચંદ છગનલાલ હા શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ અ. સૌ. ચ'પાબેન હા. દોશી જીવરાજ લાલચદ પટેલ મહાસુખલાલ ડાશાભાઈ શાહે સાકરચદ કાનજીભાઈ ૩ ૪ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સઘવી લીંમડીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. વાડીલાલ માહનલાલ કાઠારી પારેખ નેમચંદ મેાતીચંદ્ર મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. પારેખ ભીખાલાલ નેમચ ઢ ७ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા. જયંતીલાલ નારણદાસ શાહ કસ્તુરચંદ હરજીવનદાસ સાણધ્રુવાળા હા. ડા. માણેકલાલ કસ્તુરચંદ શાહ ૯ શેઠ મેાહનલાલ માણેકચદ ગાધી ચુડાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ મચ્છામેન લલ્લુભાઇના સ્મરણાર્થે સાલમની ૧ દેશી ચુનીલાલ 'ફુલચ દે ' ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૦૧ ૩૦૧. ૨૫૦ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૯ સાદડી * ૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પુનમીયા j'y સાસવડ’ f; ૧ ચૈનમલજી સુથાના ધર્મપત્નિ અ. સૌ. રણુભાઈ સુથા તરફથી હા. અમરચંદજી સુથા સુરત ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ રતિલાલ લલ્લુભાઈ ૨. શ્રીયુત કલ્યાણુંદ માણેકચ'દ હડાલાવાળા 3 શ્રી હરીપુરા છકેટી સ્થા. જૈન સંઘ હા. માઝુલાલ છેટાલાલ શાહ સુરેન્દ્રનગર ૧. શેઠ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ ૨ ભાવસાર સુનીલાલ પ્રેમચંદ 3 ૪ પ્ ૧ ૧ ૨ # $ + $ 5 સ્વ. કેશવલાલ મુળજીભાઈનાં ધર્મપત્નિ અમરતબાઇના સ્મરણાર્થે હા. ભાઇલાલ કેશવલાલ શાહ શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ શાહ વાડીલાલ હરખચંદ સુવઇ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનંદી જૈન મુનિશ્રી છેટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઇ સ્થા. જૈન સંઘ જ્ઞાનભડારને ભેટ સજેલી શાહ લુણાજી ગુલાબચ‘દભાઈ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા શાહુ પ્રેમચંદ દલીચંદ હારીજ ૧ શાહ અમુલખ મુળજીભાઇ હા પ્રકાશચંદ્ર અમુલખભાઇ ૨ સ્વ. એન ચંદ્રકાંતાના સ્મરણાર્થે હા. શાહુ અમુલખ મુળજીભાઇ હાટીના માળીયા ૧ શેઠ ગેાપાલજી મીઠાભાઈ ૨ શ્રીમતી શાનદગૌરી ભગવાનદાસના સ્મરણાર્થે ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૦ હા તેમનાં નાનામેન અ. સૌ, જુલાબેન ભગવાનદાસ ગાંધી ૨૫૧ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તા. ૧૫-૫-૬૦ સુધીના મેમ્બરાની સંખ્યા -૧૧ આઇ મુરબ્બીશ્રી ૨૦ મુરબ્બીશ્રી ૬૩ સહાયક મેમબરે ૫૪૯ લાઈફ મેમ્બર - ૬૪ બીજા કલાસના જુના મેમ્બરે - ૭૦૭ સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ રાજકોટ તા૧૬-૫-૬૦, મંત્રી, * તા. ૧૬-પ-૬થી તા. ૩૧-૫-૬૦ સુધીમાં નીચે મુજબ નવા મેમ્બરે નોંધાયા છે. રૂ ૫૦૦ કે ઠારી પિપટલાલ ચત્રભુજભાઈ સુરેન્દ્રનગર રૂા-૩૫૧ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર. અમદાવાદ રૂા. ૩૫૧ શેઠ ભુરાલાલ કાળીદાસ. અમદાવાદ રૂ. ૩૫૧ શેઠ મીયાચંદજી જુહારમલજી કટારીયા. રાવટી રૂ. ૩૦૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ. સુરેન્દ્રનગર રૂા. ૨૫૧ ડે. ધનજીભાઈ પુરૂષોતમદાસ અમદાવાદ રૂ. ૨૫૧ શાહ કાતીલાલ હીરાચંદ. સાણંદ રૂ. ૨૫૧ શેઠ ગેરીલાલજી સુગનલાલજી ઉદેપુરવાળા અમદાવાદ, મેબર ફી.. - ઓછામાં ઓછા રૂા. ૫૦૦૦ આપી આદ્ય મુરબ્બીપદ આપ દિપાવી શકે છે. ઓછામાં ઓછા રૂા. ૩૦૦૦ આપી એક શાસ્ત્ર આપના નામથી છપાવી શકે છે ઓછામાં ઓછા રૂ. ૧૦૦૦] આપી મુરબ્બીપદ મેળવી શકો છો. ઓછામાં ઓછા રૂ. ૫૦૦) આપી સહાયક મેમ્બર બની શકે છે. અને ઓછામાં ઓછા રૂ. ૩૫૧) આપી લાઈફ મેમ્બર તરીકે દરેક ભાઈ–બેન દાખલ થઈ શકે છે. ઉપરના દરેક મેમ્બરોને ૩૨ સૂત્રો તથા તેના તમામ ભાગો મળી લગભગ ૭૦ ગ્રંથે જેની કિંમત લગભગ ૮૦૦ ઉપર થાય છે તે ભેટ તરીકે મળી શકે છે. અને દરેક શાસ્ત્રમાં તેમનું નામ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવે છે. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તા. ૧-૬-૬ ૦ સુધીમાં પ્રસિદ્ધ થયેલાં સૂત્ર શાસ્ત્રોને ન លី ៨ ៨ ૫ થી ૯ શાસ્ત્રનું નામ કિંમત ઉપાસકદશાંગ (બીજી આવૃત્તિ) ખલાસ ૮-૮-૦ દશકાલિક ૧ લો ભાગ ૧૦-૦-૦ દશવૈકાલિક ૨ જે ભાગ (છપાય છે ૭-૮-૦ આચાગ ૧ લે ભાગ ૧૨-૦-૦ આચારાંગ ૧૦-૦–૦ આચારાંગ ૩ જે , ૧૦–૦-૦ આવશ્યક ૭-૮-૦ નિરયાવલિકા ૧૧-૦-૦ નંદી સૂત્ર ૧૨-૦-૦ કલ્પ સૂત્ર ૧ લે ભાગ ૨૫-૦-૦ કલ્પ સૂત્ર ૨ જે ભાગ ૨૦-૦-૦ અન્તકૃત ૮-૮-૦ ૧૫–૦-૦ અનુતરા પપાતિક ૭-૮–૦ દશાશ્રુત ૧૧-૦-૦ ઔપપાતિક ૧૨-૦–૦ ઉતરાધ્યાપન સૂત્ર ૧ લો ભાગ ૧૫-૦-૦ ૨ જે ભાગ ૧૫-૦-૦ » ૩ જે ભાગ (છપાય છે) » ૪ થે , (2) ભગવતી સૂત્ર ૧ લો ભાગ (છપાય છે) વિપાક ૧૮ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી અખિલ ભારત વેતામ્બર સ્થાનક્વાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, રાજકોટ: પચવર્ષિય રોજના અને તેનો હેતુ : ભવિષ્યના તમારા વારસદારને ખાતર ફકત પાંચ વર્ષ માટે સહાયક બને સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ધર્મનાં બે અવલંબન છે પહેલું શ્રમણવર્ગ અને બીજું આગમ બત્રીશી. જ્યાં જ્યાં શ્રમણવર્ગની ગેરહાજરી હોય ત્યાં ત્યાં ધર્મ ટકાવવાનું અત્યારે પણ એકજ સાધન છે અને તે જૈન સિદ્ધાંતે પરદેશમાં વસ્તાં તેમજ ગામડામાં રહેતા ભાઈઓને તેમજ બહેનને વીરવાણીનો લાભ ક્યારે મળી શકે કે જ્યારે તેઓ જે ભાષા જાણતા હોય તે ભાષામાં સૂત્રો લખાયેલ હેય. ભગવાન મહાવીરે ફરમાવેલ વાણની ગુંથણ ગણધરોએ કરી. તે પ્રાકૃત ભાષામાં રચેલાં શાસ્ત્રો અત્યારની પ્રજા વાંચી ન શકે એટલે લાભ તે કયાથી લઈ શકે? આ બધી મુશ્કેલીઓના નિવારણ માટે પૂ. આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ મૂળ શાસ્ત્રોનું પ્રાકૃત, સંસ્કૃત, હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાંતર કરી એકજ પેઈજ ઉપર એકજ પુસ્તકમાં સાથે ચારે ભાષામાં વીર પ્રભુના વચનને ખજાને હરકોઈ વ્યકિત સહેલાઈથી વાચીને તેને અમૂલ્ય લાભ ઉઠાવી શકે તેવી રીતે તૈયાર કરી રહ્યા છે. આ સમિતિ દ્વારા પૂજ્યશ્રીના બનાવેલાં લગભગ અઢાર શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થઈ ચૂક્યાં છે હાલમાં ભગવતી સૂત્ર છપાય છે જેના લગભગ ૧૨ ભાગ થશે. અને એક જ શાસ્ત્રને ખર્ચ લગભગ સવા લાખ રૂા. થશે. બત્રીસ સૂત્રો અને તેના ભાગે મળીને લગભગ ૭૦ સી-તેર બુકે પ્રસિદ્ધ થવાની ધારણું છે. રૂ. ૨૫૧ ભરનાર લાઈફ મેમ્બરને આ આખે સેટ જેની કિંમત લગભગ રૂ. ૭૦૦ થી રૂ. ૮૦૦ થાય છે તે ભેટ તરીકે આપવામાં આવે છે. પરંતુ આવી રીતે જબરોજ તે પડતો રહે તે કયાં સુધી ચલાવી શકાય? અત્યાર સુધી Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ ૧૯૬૦માં અવની જ્ગ્યા ૧૫ની થયેલ છે. હાલમાં મેમ્બર થવા માટે વગર પ્રયત્ને મળનાર કાર્યવાહક કમિટી વાટાઘાટે ચાલે છે. હાલમાં કામ ૩૫૧} રાખવામાં આવી છે. નામ થના ય છે. જુલાઇ રહે 2' પ૦૧] મેમ્બર છી કબ્જા માટે ૩ ૨૫ને બદલે મેમ્બર કી રૂા વ ાભાગે ઠરાવ કરીને અત્યારે શાઓ ભેટ તરીકે પચવર્ષીય ચૈાજના ઘડી કાઢી છે આપવામાં જે પેટ પામવી પડે છે ગઇ ન તેના તુ તે પુરી કન્ધ્યા છે. ફા. ૨૫] થી વધુ ગમે તેટલી રકમ પાચ વર્ષ સુધી તને કાઇપણ વ્યકિત (મેમ્બર હા યા ન હેા તે) ભેટ આપે તેમ સમિતિએ - રી કરી છે. મિનિના પ્રમુખ શેઠ શાતિલાલભાઇએ રૂ।. ૧૦૦૦ એક હાર પન્ડ હું સુધી પાપવાનું જાહેર કર્યુ” છે == અત્યાર સુધીમાં ! ૪૦૭૮] ની રકમ સિમિતને પહેલા વર્ષની ભેટ તે મળી પણ ગઇ છે. આવી રીતે મદદ આપનારને શાસ્ત્રો ભેટ મળવાનાં નથી તે વાત સમજી શકાય તેમ છે. લગ્ન પ્ર, પુત્ર જન્મ પ્રમÌ, દિક્ષા પ્રસગે વર્ષિતપ પ્રસ ગે તેમજ રીત :ભ પ્રમાએ ના ખર્ચામા ચેડા કાપ મુકીને પણ આ યેજના અપનાવી ને અન્ય વિનંતિ કરીએ છીએ ન અથાગ પશ્મિ વેકીન સમાજના કલ્યા! માટે જે સંત આવુ અણુમેલુ કથકી છે અને જૈન વ્યવસ્થિત રીતે પ્રસિદ્ધ કરીને ઘેર ઘેર આગમા ચાના જે કાન કાર્યી ી છે. તેના હાથ મજબુત કરવા ગાજના સાધુ, રવી છેઃવડા એ શ્કની પવિત્ર કર્ણ છે, - અન્ન વિનતિ. હું છું ==> મૈવટે, માનદ્ મંત્રી, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ પંચવર્ષીય એજનાની સંવત ૨૦૧૬ની પહેલાં વર્ષની ભેટ. (તા. ૩૧-૫-૬૦ સુધીમાં દાતાઓ તરફ્ટી મળેલી રકમ) શ્રી શેઠ શાંતિલાલ મંગળદાસ અમદાવાદ ૧૦૦૦ છે , બાબુલાલ નારણદાસ ધોરાજી ૨૫૧ આ છે ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ અમદાવાદ ૨૫૧ છે કે ઈશ્વરલાલ પુરૂતમદાસ અમદાવાદ ૨૫૧ છે , હરિલાલ અનેપચંદ ખંભાત ૨૫૦ » રંગજીભાઈ મોહનલાલ અમદાવાદ ૨૫૦ » મુલચંદજી જવાહરલાલજી બરડીયા અમદાવાદ ૧૦૧ ગુલાબચંદ લીલાધર બાટવીયા ખાખીજાળીયા ૧૦૧ » મહેતા પોપટલાલ માવજીભાઈ જામજોધપુર ૧૦૧ છે 5 શાહ પ્રેમચંદ સાકરચંદ અમદાવાદ ૧૦૦ આ છે હાથીભાઈ ચત્રભુજ જામનગરવાળા અમદાવાદ ૭૫ » મહેતા ભાનુલાલ રૂગનાથ ધ્રાફા : » શાહ હરજીનદાસ કેશવજી મુંબઈ ૭૫ , , ઝુંઝાભાઈ વેલશીભાઈ સુરેન્દ્રનગર ૭૫ છે શાહ હીરાચ દ છગનલાલ હ. ચીમનલાલ હીરાચંદ સાણંદ , ,, મેતીલાલજી હીરાચંદજી નારાયણગામ , વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ વડેદરા ૫૧ , શેઠ ત્રીજોવનદાસ મગનદાસ ખ ભાત ૫૧ છે બાટવીયા અમીચ દ ગીરધરલાલ બેંગલોર » , સુમનલાલ કાળીદાસભાઈ કાનપુર ૫૧ » જ હરકીશનદાસ ફૂલચંદભાઈ કાનપુર છે , બાગાલજી રૂગનાથમલજી ભણસારી હા. શેઠનનમલજી અમદાવાદ પ૧ » ગીરધરલાલ મણીલાલ તરફથી (સ્વ. અ. સૌ. છબલબાઈના સ્મરણાર્થે) ખારાડા * એક સંગ્રહસ્થ હા. શાહ રીબભદાસ જયંતિલાલ અમદાવાદ આ છે બગડીયા જગજીવનદાસ રતનશી દામનગર - ૫૧ , વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ વીરમગામ ૫૧ , સ્થા. જૈન સંઘ હ. મહેતા ચંદુલાલ ખેતશીભાઈ વણી ૫૧ » શેઠ દેશી છવરાજ લાલચંદ સાણંદ ૫૧. ૫૧ ૫૧ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : નરસિંહદાસ વખતચંદે રસ ઘવી * - - - - ધ્રાંગધ્રા - પ. - ડો કસ્તુરચંદ બાલાભાઈ શાહ હા રજનીકાંત કસ્તુરચંદ શાહ અમદાવાદ ૫૧ , શેઠ કસ્તુરચદ હરજીવનદાસ હા. ડે. માણેકલાલ કસ્તુરચદ સાણંદ ૫૧ બીમચદ મણીલાલ ખારાઘોડા ૩૧ કેશવલાલ ઓતમચંદ શાહ ખારાઘોડા ૩૧ ભાઈલાલ ઉજમશી શાહ અમદાવાદ ૩૧ , , રતીલાલ પિપટલાલ મહેતાના પૂ. માતુશ્રી બેન ચંચળબેનના તરફથી ભેટ વણી ૩૧ અમૃતલાલ ઓઘડભાઈ ખારાઘોડા ૩૧ મહેતા રણજીતલાલ મેતીલાલ (ઉદેપુરવાળા) અમદાવાદ ૨૫ , , કેશવલાલભાઈ વિરમગામ ૨૫ પ્રવિણાબેન લક્ષમણભાઈ અમદાવાદ ૨૫ પારેખ ભીખાલાલ નેમચંદ સાણંદ ૨૫ » » સમિતિ સર્વ દાતાઓનો આભાર માને છે. રાજકેટ તા. ૧-૬-૧૯૬૦ સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ મંત્રી Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर पूज्यश्री - घासीलालजीमहाराजविरचितया 'सुन्दरबोधि' - न्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥ श्री - निरयावलिकासूत्रम् ॥ ॥ अथ मङ्गलाचरणम् ॥ ( मालिनी -- छन्दः ) सुरमनुजमुनीन्द्रेर्वन्द्यमानाऽङ्किपद्म, विदितसकलतत्त्वं वोधिदं तीर्थंनाथम् । कृतभवजलनौका रूपधर्मोपदेशं, विमलनयनदं तं वर्धमानं प्रणम्य ॥ १ ॥ श्री निरावलिकासूत्र की सुन्दरबोधिनी टीकाका हिन्दी भाषानुवाद 'मङ्गलाचरण 46 जिनके चरणकमल, देव, मनुष्य और मुनिवरोंसे वंदित हैं । जो सर्व तत्वोंके ज्ञाता और योधिको देने वाला हैं। तथा संसारसागर से पार होनेके लिये नौकास्वरूप श्रुतचारित्र धर्मके उपदेशक हैं । एवं ज्ञानरूपी नेत्रके दाता हैं, और चतुर्विधसंघरूपी तीर्थ के स्वामी हैं । ऐसे त्रिलोक में प्रसिद्ध (चौवीसवें तीर्थंकर) श्री वर्धमानस्वामीको नमस्कार करके ॥ १ ॥ " શ્રી નિાવલિકા સૂત્રની સુંદરએધિની નામે ટીકાના ગુજરાતી અનુવાદ, "भंगसागराशु." જેના ચરણ કમળ દેવ મનુષ્ય તથા મુનિવરીથી થતિ છે, જે સર્વ તત્વના જાણનારા તથા મેાધિસ્વરૂપને આપવા વાળા છે, જે સંસારસાગર તરી જવા માટે, હાડી રૂપી શ્રુતચારિત્ર ધર્મના ઉપદેશક છે, જે જ્ઞાનરૂપી ચક્ષુના દેનાર છે તથા ચાર પ્રકારના સંઘરૂપી તીના પ્રભુ છે, એવા ત્રણ લેાકમાં વિખ્યાત (ચાવીસમા તીર્થંકર) શ્રી વમાન સ્વામીને નમસ્કાર કરીને, (૧) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका मंत्र - मकलनिगमदक्षं ज्ञानचक्षुःसमेतं, फलितसकललब्धि पूर्वधारं मुनीन्द्रम् । जिनवचनरहस्यद्योतकं दीनबन्धु, करण-चरणधारं गौतमं चाऽपि नत्वा ॥ २ ॥ (पृथ्वी छन्दः) . . . . -- सगुप्तिसमिति समां विरतिमादधानं सदा, . - 'क्षमावदखिलक्षम कलितमञ्जुचारित्रकम् । सटोरमुखवस्त्रिकाविलसिताऽऽननेन्दु गुरु, प्रणम्य मववारिधिप्लवमपूर्ववोधप्रदम् ॥ ३ ॥ (अनुष्टुप् छन्दः) जैनी सरस्वतीं नत्वा लोकालोकमकाशिनीम् । । ::.. - निरयावलिकावृत्ति, कुर्वे सन्दरबोधिनीम् ॥ ४ ॥ तथा सब शास्त्रांके तत्व समझाने में दक्ष (चतुर), ज्ञानदृष्टि से तत्वातत्व का निर्णय करने वाले, सम्पूर्ण लब्धिवाले, चौदहपूर्वधारक, स्याद्वादरूप जिन - वचनके रहस्यको बताने वाले, षटूकायके रक्षक, और चरण-करणके धारी, मुनियोंमें प्रधान ऐसे श्री गौतमस्वामीको शीश झुकाकर ।। २ ।। । तथा समितिगुप्तिधारक, समदर्शी, विरतिमार्गमें चलने वाले, पृथिवीके समान सब परीषहोपसर्गोको सहन करने वाले, निरतिचार चारित्रवाले, सम्यक् वोव के देने वाले, वायकाय आदि जीवोंकी रक्षाके लिए डोरा सहित मुखवत्रिकासे जिनका मुखचन्द्र देदीप्यमान है, और जो संसारसागरमें तैरने के लिए नौकाके समान है, ऐसे परमकृपालु गुरुदेवको वन्दना करके ॥ ३॥ તથા સર્વ શાસ્ત્રોનું તત્વ સમજાવવામાં ચતુર, જ્ઞાનદૃષ્ટિથી તવાતત્ત્વને નિર્ણય કરવાવાળા, સ પૂર્ણ લીવાળા, ચોદ પૂર્વ ધારક, સ્યાદવાદ રૂપી જિન-વચનનાં રહસ્યને બતાવનાર, છકાયની રક્ષા કરનાર તથા ચરણ કરાના ધારક, મુનિઓમાં પ્રધાન એવા શ્રી ગોતમ સ્વામીને મસ્તક નમાવીને, (૨) તથ સમિતિ ગુપ્તિના ધારણ કરનારા સમદશ, વિરતિમાર્ગમાં વિચરનારા, પૃથ્વીની પેઠે તમામ પરીષહ તથા ઉપસર્ગોને સહન કરવાવાળ, નિરતિચાર ચારિત્રવાળા, સભ્ય ઉપદેશ આપવાવાળા, વાયુકાય આદિ ની શાને માટે દેરા સહિત મુખવઝિક થી જેનુ મુખારવિન્દ શોભી રહ્યું છે તથા જે શસાસાગર તરવા માટે એક નાવ સમાન છે એવા પરમ કૃપાળું ગુરુદેવને વંદન કરીને, (૩) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ शाखपारम्भः ___मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था । रिद्धस्थिमियसमिद्धे ॥ १ ॥ '. छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरम् आसीत् ।' ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् ॥ १ ॥ टीका-'तेणं कालेणं' इत्यादि-तस्मिन् काले अवसर्पिण्याचतुर्थारकरूपे तस्मिन् समये कालविशेषरूपे हीयमानलक्षणे राजगृहं नाम नगरम् आसीत् । तद्-(गजगृह)-वर्णनमित्थमाह-'रिदस्थिमियसमिद्धे' इत्युपलक्षणम्, तेन ‘पमुइयजणजाणवए, उत्ताणनयणपेक्खणिजे, पासाईए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे,' इत्येतेषामपि सङ्ग्रहः । छाया-ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् । प्रमुदितजनजानपदम्, उत्ताननयनमेक्षणीयम् , मासादीयम् , दर्शनीयम् , अभिरूपम्, मतिरूपम् । "ऋद्ध' इत्यादि-ऋद्ध नभःस्पर्शिवहुलप्रासादयुक्तं 'बहुजनसङ्खलं च स्तिमित स्वपरचक्रभयरहितं, समृद्धं = हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्यादिपरिपूर्णमिति ऋद्धस्तिमितसमृद्धम्, अत्र त्रिपदकर्मधारयः । 'प्रमुदिते-ति प्रमुदितजनजानपदयुक्तम् । तत्रस्यास्तत्राऽऽगता देशान्तरीयाश्च जना हिरण्य-सुवर्ण-धनधान्य तथा लोकालोकके स्वरूपको प्रकाशित करने वाली-जिनवाणीको नमस्कार करके मैं घासीलाल मुनि निरयावलिकासूत्र की 'मुन्दरबोधिनी' नामक टीका की रचना करता हूँ ॥ ४॥ 'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल उस समय में अर्थात्अवसर्पिणीके चौथे आरेके, उसी हीयमान रूप समयमें राजगृह नामका प्रसिद्ध नगर था। जिममें नभःस्पर्शी ऊँचे-ऊँचे सुन्दर महल थे। जहाँ स्व-पर चक्रका कोई भय नहीं था। और वह धन, धान्यादि ऋद्धियोंसे समृद्ध परिपूर्ण था। जो वहाँ के निवासियोंको तथा देश તથા લોકાલોકના સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળી જિન-વાણીને નમસ્કાર કરી હું ઘાસીલાલ મુનિ નિયાવલિકા સત્રની સુંદરધિની” નામની ટીકાની श्यना ४३ ७. (४) तेणं कालेणं त्याहित मनेते समयमा अर्थात् भवसपिए (ज)ना याथा આરાના હાયમાન (ઉતરતા) સમયમાં રાજગૃહ નામે એક પ્રખ્યાત નગર હતું કે જેમાં ગગનચુ બી ઊંચા ઊંચા સુદર મહાલયે હતા જ્યાં સ્વ પર રાક્રને ભય ન રહે તે તથા તે નગર ધન ધાન્યાદિ દ્ધિઓથી પરિપૂર્ણ સમૃદ્ધિવાળું હતું, જે ત્યાંના રહેવાલીઓને તથા દેશ પરદેશથી આવવાવાળાને સેનું ચાંદી રન વગેરેના વેપાર Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रे वस्त्रादीनां समर्घलभ्यतया- विविधवाणीज्येन स्वस्वाभीष्टानां पूर्णतया यथानीतिलाभेन च प्रमुदिता भवन्ति । 'उत्ताने-ति उत्ताननयनप्रेक्षणीयम् सौन्दर्यातिशयादुन्मीलितनिमेपपातवर्जिताक्षिभिर्दर्शनीयम् 'प्रासादीयम् द्रष्टृणां चित्तप्रसादजनकत्वात्प्रमोदजनकम् , दर्शनीयम् = दृष्टिमुखदत्वेन पुनः पुनदर्शनयोग्यम् । अभिरूपम् मनोज्ञाकृतिकम्, प्रतिरूपम् अपूर्वचमत्कारकशिल्पकला-कलितत्वेनाद्वितीयरूपम् ॥ १ ॥ मूलम्-तत्थ उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए गुणसिलए (नाम) चेइए (होत्था) वण्णओ । असोगवरपायवे पुढवीसिलापट्टए (होत्था) ॥ २॥ छाया-तत्र उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलकं (नाम) चैत्यम् (आसीत) वर्णकः । अशोकवरपादपः पृथिवीशिलापट्टकः (आसीत् ) ॥ २ ॥ - - - टीका-'तत्थ' इत्यादि-तत्र-राजगृहे, उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलक (नाम) चैत्यं-व्यन्तरायतनमासीत्, कीदृशं चैत्यमिति जिज्ञासायां शास्त्रान्तरे तवर्णनमेवमाहदेशान्तरसे आनेवालोंको स्वर्ण चांदी रत्नादिके व्यापारसे लाभान्वित करनेके कारण आनन्द जनक था। जिसका अतिशय सौन्दर्य टकस्की लगाकर अनिमेष दृष्टिसे देखनेके योग्य होनेसे वह 'प्रेक्षणीय' था। जो दर्शकोंका मन प्रफुल्लित कर देनेके कारण 'प्रासादीय' प्रमोदजनक था । नेत्रोंको देखनेमें बारम्बार सुख देनेवाला होनेके कारण 'दर्शनीय' था । सुन्दर आकृतिका होने के कारण 'अभिरूप' था। अपूर्व-अपूर्व चमत्कार उप्तन्न करने वाली शिल्पकलाओं से युक्त होने केकारण प्रतिरूप अर्थात् अनुपम था ॥१॥ 'तत्व' इत्यादि । उस राजगृहके ईशान कोणमें गुणशिलक नामका રાજગાથા લાભકારક હોવાથી આન દેજનક હતુ, જન અતિશય સો દર્ય અનિમેષ દાથી જોવા લાયક હોવાથી તે “પ્રેક્ષણય” હતુ, જે જોનારના મનને પ્રકુઢિલત કરવાનાં કારણે “પ્રાસાદીય પ્રદજનક હતુ, આથી જોવામાં વારંવાર સુખ આપનાર હેવાથી દર્શનીય હતું, સુદર આકૃતિવાળુ હેવાથી “અભિરૂપ હતું નવીન નવીન આશ્ચર્ય ઉપજાવે એવી શિલ્પકલાઓવાળું હોવાથી ‘પ્રતિરૂપ' અર્થાત્ અનુપમ હતું ૧ 'तुत्य' त्याहि त भूलना शानामा गुण्यशिल नामनु यन्तयन, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, अ. १ गुणशिलक चैत्यवर्णनम् 'चिराईए, पुत्रपुरिसपन्नत्ते, सच्छत्ते, सज्झए, सघंटे, सुपडागे, कयविदीए, लाइयोल्लोइयमहिए' इति । छाया - चिरादिकम् पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तम्, सच्छत्रम्, सध्वजम्, संघण्टकम्, सपताकम् कृतवितर्दिकम् लिप्सोपलिप्तमहितम्, इति । 'चिरादिकम् ' इति - चिरः = बहुकालिक: आदिः = निवेशो यस्य तत् तथा, 'पूर्वपुरुषेति पूर्वपुरुषैः = प्राचीनपुंभिः प्रज्ञप्तम् - उपादेयतया प्रतिबोधितम्, सच्छत्रम्, सध्वजम् सघण्टम्, सपताकम् एतत्सर्वे स्पष्टम् कृतत्रितर्दिकम् = रचितवेदिकम्, 'लाइयेत्यादि लाइयं= गोमयमृत्तिकादिना भूम्युपलेपनम् च उल्लोइयं = भित्तिसमुदायस्य सेंटिकादिभिः संमृष्टीकरणं च लाइयोल्लोइये, ताभ्यां महितं = युक्तं प्रशस्तम् परिष्कृतमिति यावत् एवम्भूतं चैत्यमासीत् । तत्र व्यन्तरायतनभूमौ अशोकवरपादपः = अशोकाख्यो महावृक्षोऽस्ति, तस्याऽधस्त ' पृथिवी शिलापट्टकः ' पट्टक इव पट्टक:, आसनरूपेण परिणता पृथिवीशिलेम्यर्थः, अभवत् = आसीत्, तस्य शास्त्रान्तरे वर्णन मित्थमाह "विक्खायाममुपमाणे, आइणग-रूप-चूर-नवणीय- तूळफासे, पासाईए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे " इति । छाया - विष्कम्भायामसुप्रमाणः, अजिनक रूत-चूर-नवनीत- तूळस्पर्शः, प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः, प्रतिरूपः, इति । 'विष्कम्भे'-ति-विस्तारदेध्याभ्यां समुचितप्रमाणोपेतः 'अजिनके ' ति- अजिनमे वाऽजिनकं = मृगचर्म, रूतं = कार्पासः, बूरः = स्निग्ध वनस्पतिविशेषः, नवनीतं = दुग्धविकारविशेषः, तूल= अर्क - शाल्मलीवृक्षजातम्, तद्वत्स्पर्शः कोमल• व्यन्तरायतन था । उसका वर्णन अन्यत्र ( दूसरे शास्त्रोंमें) इस प्रकार हैपूर्व पुरुषों के कथनानुसार वह प्राचीन कालसे है । उसमें छत्र, ध्वजा, घण्टा, पताका आदि लगे हुए थे और वेदिकाऍ बनी हुई थी । उसकी भूमि गोमय और मिट्टी से लिपी हुई थी । भीतें खडी चूना आदि से धवलित थी । * वहाँ उसी स्थान पर एक बडा अशोक वृक्ष था । उसके नीचे मृगकपास र (वनस्पति), मक्खन और आंकडे (अर्क) की रूई (तूल) " હતુ જેનુ વર્ણન અન્યત્ર ( બીજા શાસ્ત્રોમા) આવી રીતે છે. અગાઉના લેાકેાના કહેવા પ્રમાણે તે જુના વખતથી છે તેમા છત્ર, પંજા, ઘટા, પતાકા આદિ લાગેલા હતાં દિએ બનેલી હતી. તેની ભૂમિ છાણું અને સાટીથી લીંપેલી હતી અને ભીંતે ખડી-ચુના વગેરેથી ધવલિત હતી. 1 ત્યા એ જગ્યા ઉપર એક માઢુ અંગ્રેાક વૃક્ષ હતુ તેની નીચે મૃગશ્યમ', કપાસ, ખૈર ( વનસ્પતિ) માખણ અને આકડાના રૂ જેવું સુંવાળુ અને ઉચિત Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - निरपालिका मर्गः, रम्पर्यः, 'मामादाय' इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्वोक्तरीत्यागन्तम्या। परम्भूतः पृणिवीपिटापट्रक आमीत् ।। २ ।। मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समपणं समणस्स भगवओ महावीरस्त अंतेवासी अजसुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने नहा केसी जाव पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुवा पुचि चरमाणे (गामाणुगाम दुइजमाणे) जेणेव रायगिहे जार अहापडिरुवं ओग्गहं ओगिणिहत्ता संजमेण जाव विहरइ । परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ । परिसा पडिगया ॥३॥ छाया-नम्मिन काले नम्मिन् समये श्रमणप्य भगवतो महावीरस्यालेगमी भार्यमुधर्मा नामाऽनगारी जातिसम्पनी यथा केशी, यावत् पत्रभिरनगारमने: माई संपरिएनः पूर्वानृा चरन् (ग्रामानुग्राम द्रवन् ) यव राजगुर नगरं यापर यथामतिरूपमवग्रहमपगृह्य संयमेन यावद् विहरति । परिपदिना । धर्मः यिनः । परिपत प्रतिगता ॥३॥ टीका-नणं पाटणं' इत्यादि-तम्मिन् काले तस्मिन समये श्रमणम्य भागो महागीरम्प अन्तवामीभिप्या, आर्यमुधर्मा (म्बामी) नामाऽनगारः शिवानीपतयः । भय नर्गनमाह-जातिमम्पन्नःविशुद्धमागयुक्तः, 'ययाइसी नि-गिनामा श्रमणो गणधगं यथाऽऽमीदिन्यर्थः, अत्र यावच्छकदैन मानिमिानि गंगृान्ने-नयाहि-'कुलगंपन्ने, बलगंपन्न. विणयसंपन्ने, माधव समान पनवाला, उचित प्रमाण मे लम्या चौटा आमन के आकारमा पनामा प्रश्वाशिलापटगा, जो दगंनीय अभिम्प प्रतिरूप धा ॥२॥ तणं कारण त्यादि । उस काल उम समय में श्रमण भगवान महावीर म्यामी, अन्तवामी (शिष्य) श्री आर्यसुधर्मास्वामी बिगते थे। उनका गर्णन केसी ब्रमण के समान इस प्रकार है मानाका हा विशुद्ध सोने से जातिसंपन्न थे। पटक पक्ष निर्मल :... .:; ny writ ing वाशिम का 1 पार ३५.भी. पान . नगर्नु १ भी - ११९१ : 7. Kyari५५ १८ २०११ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ आर्य सुधर्मवर्णनम् संपले, ओयंसी, तेयंसी, वयंसी, जसंसी, जियको हमाणमायालोहे, जीवियासा-" मरणभविष्यमुके, पहाणे, गुणप्पहाणे, करणचरणप्पहाणे, निग्गहप्पहाणे, धोरमचेरवासी, उच्छूढसरीरे चोदसपुच्ची, चउनाणो गए' इति । अस्य च्छाया" कुलसंम्पन्नः, बलसम्पन्नः, विनयसम्पन्नः, लाघवसम्पन्नः, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्त्री, यशस्वी, जितक्रोधमानमायांलोभः, जीविताशामरणभयविमुक्तः, तपः प्रधानः, गुणप्रधानः, करणचरणमधानः, निग्रहप्रधानः, घोरब्रह्मचर्यवासी, उच्छू'दशरीरः, चतुर्दशपूर्वी, चतुर्ज्ञानोपगतः " । इति, # 'कुले 'ति - कुलं - पैतृकः पक्षस्तत्सम्पन्नः, उत्तमपैतृकपक्षयुक्तः, 'बले ति - बलेन = संहननसमुत्थेन पराक्रमेण युक्तः, वज्र - ऋषभ - नाराच संहननधारीत्यर्थः, 'विनये' ति - विनयति = नाशयति अष्टप्रकारकं कर्म यः स विनयः = अभ्युत्थानादिसुरुसेवाळक्षणस्तरसम्पन्नः । ' लाघवे ' ति लाघवं द्रव्यतः स्वल्पोपधित्वम्, भारती गौरवत्र्यनिवारणं, तत्सम्पन्नः । ' ओजस्वी 'ति - ओजः सकलेन्द्रियाणां पाटवं तपःप्रभृतिमभावात् समुत्थतेजो वा तद्वान्, 'तेजस्वी 'ति - तेजः = अन्तबहिर्देदीप्यमानत्वम् तेजोलेश्यादि वा तद्वान, 'वचस्त्री' ति वच:-आदेयं वचनं सकलमणिगणशितसंपादकं निरवद्यवचनं, तद्वान्, 'यशस्त्री ' ति यशः =तपुः(शुद्ध) होनेसे कुलसंपन्न थे । बलसंपत्र अर्थात् संहनन से उस पराक्रम से युक्त थे । वज्रऋषभनाराचसंहननके धारी थे । जो आठ कर्मो का नाश करे उसको विनय कहते हैं, वह अभ्युत्थानादि गुरुसेवा स्वरूप है, उससे युक्त थे । लाघवसंपन्न थे अर्थात् द्रव्यसे अल्प उपधि वाले थे और भावसे गौरव - ( गारव) - त्रय रहित थे । इन्द्रि योंके सौन्दर्य और तप आदि के प्रभावसे ओजस्वी - प्रतिभाशाली थे । अन्तर 'आत्मप्रभाव' और बहार ' शरीर प्रभाव ' से देदीप्यमान होने के कारण तेजस्वी थे । सब प्राणियोंके हितकारक और निर-वद्य ( निर्दोष ) वचन युक्त होनेसे आदेय ( ग्राह्य) वचन वाले थे 1. કુળસ પન્ન હતા, ખલસંપન્ન હતા, અર્થાત્ સંહનનથી ઉત્પન્ન થયેલા પરાક્રમવાળા હતા, જે આઠ કર્મોના નાશ કરે તેને વિનય કહે છે, તે અભ્યુત્થાનાદિ ગુરુસેલ્સના લક્ષણ યુત વિનયસ'પન્ન હતા લાઘવસ પન્ન હતા. અર્થાત્ દ્રવ્યથી થેાડી ઉપાધિવાળા હતા" અને ભાવથી ત્રણ ગૌરવથી રહિત હતા. ઇન્દ્રિયેનાં સૌદયથી તથા તપ વગેરેના પ્રભાવથી પ્રતિભાશાળી હતા. 'તર આત્મપ્રભાવ અને મહાર શરીરપ્રભાવથી દેદીપ્યમાન હેવાના કારણે તેજસ્વી હતા. સર્વે પ્રાણીઓના કલ્યાણુકારક તથા નિર્દોષ વચન યુક્ત હેાવાથી આદેય ( ગ્રાહ્ય) વચનવાળા હતા. તપ તથા સચમની ભારાધના કરવાથી Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावमिका सूत्र - संयमाराधनख्यातिस्तद्वान्, 'जिते 'त्यादि-उदयावलिकामविष्टक्रोधादीनां वि. जयो-विफलीकरणं, तद्वान्, 'जीविते 'त्यादि-जीवितंन्माणधारणं तस्यावा, मरण मृत्युस्तस्मादयंत्रासः, ताभ्यां विषमुक्तावर्जितः, 'तपःप्रधान' इतितपतिदहति ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्माणि इति तपः चतुर्य-पा-टमभक्तादिलक्षणं तत्मधानः शेषमुनिजनापेक्षया विविधप्रकारक-तपोयुक्तः पारणादौ नानाविधाभिग्रहयुक्तः। 'गुणप्रधान ' इति-गुणः = ज्ञानादिरत्नत्रयं क्षान्त्यादि नत्मधानः, उक्तञ्च " परोपकारकरतिनिरीहता, विनीतता सत्यमनुत्यचित्तता । विधा विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्वतां भवन्ति ॥१॥" इति । तप और संयमके आराधनसे प्रसिद्धि प्राप्ति होने के कारण यशस्वी थे। उदयावलिकामें आनेवाले क्रोध आदिको निष्फल करने के कारण कषायोंके विजेता थे । जीनेकी आशा और मृत्युके भयसे रहित थे। अन्य मुनियोंकी अपेक्षा चतुर्थ भक्त आदि तप अधिक करनेसे, और पारणा आदिमें अनेक प्रकारके कठिन अभिग्रह करनेसे, 'तपामधान' थे, सम्यग् ज्ञान आदि रत्नत्रय, और क्षान्ति आदि दसविध यतिधर्मसे युक्त होनेके कारण 'गुणप्रधान' थे । कहा भी है:- "परीपकारैकरतिनिरीहता, विनीतता सत्यमनुत्थचितता । विद्या विनोदोऽनुदिने न दीनता, गुणा इमे सत्ववतां भवन्ति ।" इति ॥ अर्थात्-परोपकारमें आनन्द मानना, निःस्पृहता रखना, विनय, सत्य, प्रशान्त भाव, विद्या विनोद, मध्यस्थ भाव और दीनताका त्याग, ये गुण महापुरुषों में होते हैं । પ્રસિદ્ધિ પ્રાપ્ત હોવાને કારણે યશસ્વી હતા, ઉદયાવલિકા એટલે કર્મફળની પરંપરામાં આવવા વાળા ક્રોધાદિને જીતવાથી કષાયેના વિજેતા હતા. જીવવાની આશા તથા મૃત્યુના ભય રહિત હતા બીજા મુનિઓની અપેક્ષાએ ચતુર્થ ભકત (ઉપવાસ) આદિ તપ બહુ કરવાથી તથા પારણુ આદિમા અનેક જાતના કઠિન અભિગ્રહ કરવાથી “તપપ્રધાન હતા. - સભ્ય જ્ઞાન આદિ રત્નત્રય તથા શાન્તિ (ક્ષમા) આદિ દશવિધ યતિધર્મથી યુક્ત હેવાથી “ગુણપ્રધાન હતા કહ્યું પણ છે કે "परोपकारैकरतिनिरीहता, विनीतता सत्यमनुत्थचित्तता । विधा विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्ववतां भवन्ति ॥" इति ॥ અર્થ-પપકારમાં આનંદ માનવ, નિરુપૃહતા રાખવી, વિનય, સત્ય પ્રશાંત Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ सुधर्मणः पश्चाभिगम पूर्वक समागमनम् ९ _ 'करणे'ति-करणसप्ततिः, चरणमप्ततिः, तत्प्रधानः, 'निग्रहप्रधान' इति इन्द्रियनोइन्द्रियनिरोधकरणेन, स्वात्मनोऽपूर्ववीर्यपरिस्फोटनं, तत्प्रधानः, 'घोरब्रह्मे'-त्यादि-ब्रह्म-कामपरिषेवणत्यागस्तत्र चरणं ब्रह्मचर्य, घोरं च तद् ब्रह्मचर्य घोरब्रह्मचर्यम् अल्पसत्त्वेन दुरनुष्ठय, तत्र वस्तु शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी। 'उच्छूटशरीर' इति-उच्छूढमुज्झितमित्र संस्कारपरित्यागाच्छरीरं येन स उच्छूढशरीरः, सर्वथा शरीरसंस्कारवर्जितः । 'चतुर्दशपूर्वी चतुदशपूर्वधारीः चतुर्शानोपगतः केवलबर्जितमत्यादिचतुर्ज्ञानवान्, एतादृशके शिश्रमणगणधरसदृशः पञ्चमगणघरः श्रीसुधर्मस्वामी पञ्चभिरनगारशतैः पञ्चशतसंख्यकमुनिभिः साई-सह संपरितः = पञ्चशतयुनिपरिवारयुक्तः, 'पूर्वानुपूर्व्या' - तीर्थ करोक्तपरम्परया चरन-विहरन्, ('ग्रामानुग्रामम्' एकस्मात् ग्रामात् ग्रामान्तरं द्रवन् गच्छन् यान- वाहनादि विना पदविहारेण ग्रामान्तरमपरित्यजन् , अनेनाऽमतिबद्धविहारिता मूचिता) जेणेच ' इति-यस्मिन्नेव क्षेत्रविभागे राजगृहनामकं नगरमस्ति गुणशिलकं नाम चैत्यं च तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति, उपागत्य तथा करण चरणके धारी थे, इन्द्रिय नोइन्द्रिय (मन) के दमन करने से आत्माका अपूर्व वीर्य स्फोरन करनेके कारण 'निग्रहप्रधान' थे । अल्पसत्ववालों से दुश्चरणीय ब्रह्मचर्यकें धारक होनेसे 'घोरब्रह्मचारी थे। शृङ्गारके लिए सर्वथा शरीरसंस्काररहित होनेके कारण 'उच्छृढशरीर' (शरीरममत्वरहित)थे। तथा चतुर्दश पूर्व और चार ज्ञानके धारी थे । इस प्रकार केशी श्रमण गणधर के समान गुणके धारण करनेवाले चार ज्ञान और चौदह पूर्वके धारी पंचम गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी पाँच सौ मुनियों के परिवार सहित तीर्थकरीकी मर्यादाका पालन करते हुए और प्रामानुग्राम विचरते हुए, जहाँ राजगृह ભાવ, વિદ્યા વિનોદ, મધ્યસ્થભાવ અને દીનતાનો ત્યાગ એ ગુણ મહાપુરૂષમાં હોય છે તથા તેઓ કરણ ચરણના ધારણ કરવાવાળા હતા, ઈન્દ્રિયોને તથા ઈન્દ્રિય (મન) ને દમન કરવાથી આત્માના અપૂર્વ વીર્ય પ્રગટ કરવાના કારણે “નિગ્રહપ્રધાન હતા અપસવવાળાથી મુશ્કેલીએ પળાય એવા બ્રહ્મચર્યને ધારણ કરવાથી “ઘેર બ્રહ્મચારી હતા શ્રુગાર માટે શરીરને સર્વથા સંસ્કારરહિત રાખતા હોવાથી ઉછૂઢશરીર (શરીરમમત્વ રહિત) હતા. “ તથા ચતુર્દશપૂર્વ અને ચાર જ્ઞાનના ધારી હતા એ પ્રમાણે કેશી શ્રમણ ગણધરની સમાન ગુણને ધારણ કરવાવાળા ચાર જ્ઞાન અને ચૌદ પૂર્વના ધારી પાંચગણધર સુધર્મા સ્વામી પાસે મુનિઓના પરિવાર સાથે તીર્થ કરેની મર્યાદાનું પાલન કરતા થકા અને પ્રામાનુગ્રામ વિચરતા ચકા જ્યા રાજગૃહ નગર છે, જ્યા ગુણશિલક Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ - . :. निरयावलिकास्त्रे मार्थितं च-अभिलषितं च विजानन्ति यास्तथा, ताभिःनुध्यमानाभिः, युक्तेति शेषः । तथा 'महत्तरे'ति-अतिशयेन महान महत्तरः स एव महत्तरका अन्तः पुररक्षकः, तेपां वृन्दम् नानादेशोत्पन्नचेटकसमूहस्सेन 'परिक्षिप्ता' परि सर्वतः लिप्ता=मध्ये स्थापिता, तथा सती अन्तःपुरात निर्गच्छतिबहिनिःसरति निर्गत्य यत्रैव यस्मिन्नेव स्थाने वाह्या वहिर्भवा उपस्थानशाला-उपवेशनमण्डपः यत्रैव-3 यस्मिन्नेव स्थले धार्मिकयानप्रवरा स्थादियानोत्तमः, तत्रैव-तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति-समुपैति, उपागप्यधार्मिकयानमवरसमीपमागत्य धार्मिक-धर्माय नियुक्तं यानपवरं दूरोहति आरोहति, दूरुश उक्तयानपवरमारुह्य 'निनके' तिनिजा एव निजका स्वकीयाः परिवाराम् दास्यादयः, तैः संपरिता-परिवेष्टिता, चम्पा नगरी मध्यमध्येन-चम्पानगर्या मध्यभागेन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्रचैत्यं तत्रैव उपागच्छति-समायांति, उपागत्य 'छत्ताईए' छत्रादिकान् 'यावत्'-शब्देन तीर्थकरातिशेषान् पश्यति, दृष्ट्वा धार्मिकं यानप्रवरं स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानभवराद्-धार्मिकरयात् प्रत्यवरोहति अधस्तादवतरति, भस्यवरुह्य अवतीर्य वहीभिः कुब्जाभि-पूर्वोक्तदासीभिर्युक्ता याक्त् महत्तरकन्दपरिक्षिप्ता पश्चाभिगमपुरस्सरं यत्रैवम्यस्मिन्नेव पूर्णभद्रोधाने भगवान महावीर 'चिन्तित '-हृदयके भावको अनुमानसे समझना । . 'मार्थित '-अभिलषितको अनुमानसे जानना । . ऐसी दासियोंके साथ अन्तःपुररक्षक पुरुषवृन्दसे तथा अनेक देशमें उत्पन्न होनेवाले दाससमूहसे घिरी हुई अन्तःपुरसे बारह निकलकर भवनके सभा-मण्डपमें जिस स्थलपर धार्मिक रथ था वहा आई और रथमें बैठी। बाद अपने सब परिवार के साथ चम्पा नगरीके बीचरास्तेसे होकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ पहुँची। और तीर्थकरके छत्र आदि अतिशयोंको देखकर अपने रथको स्थापित किया और यतित 'त्याना भावने मनुभानथा समन्नर. 'प्रयत'-अभिलषित ( रेना जाय त) मनुभानया nj એવી દાસીઓની સાથે અંતપુરરક્ષક પુરૂષવૃદથી તથા અનેક દેશના ઉત્પન્ન થનારા દાસસમૂહથી ઘેરાયેલી અંત:પુરથી બહાર નીકળીને ભવનના સભામંડપમાં જે ઠેકાણે ધાર્મિક રથ હતું ત્યા જઈ રથમાં બેઠી પછી પિતાના સઘળા પરિવારની સાથે ચ પા નગરીના મધ્ય રસ્તામાં થઈને જ્યા પૂર્ણભદ્ર ચત્ય હતું ત્યાં પહોંચી, તથા તીર્થકરેના છત્રાદિ અતિશયેને જોઈને પિતાના રથને ઉભે રાખી નીચે ઉતારી અને પછી પિતાના Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, अ.१ धर्मकथाश्रवणम् । स्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वो वन्दते, चपुनः स्थितैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा-सेवमाना नमस्यन्ती अभिमुखी-सम्मुखं स्थिता विनयेन = नम्रभावेन प्राञ्जलिपुटा = ललाटतटसविनयविन्यस्तकरकमला पर्युपास्ते-सेवते ॥१७॥ __मूलम्-तए णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए तीसे य महतिमहालयाए धम्मकहा भाणियव्वा जाव समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ ॥१८॥ ___ छाया-ततः खलु श्रमणो भगवान् यावत् काल्यै देव्यै तस्यां च महातिमहालयायां परिषदि धर्मकथा भणितव्या यावत् श्रमणोपासको वा श्रमगोपासिका वा विहरन् आज्ञाया आराधको भवति ॥ १८ ॥ टीका-'तएणं समणे' इत्यादि-ततः तदनन्तरं श्रमणो भगवान महावीरः यावत्-सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्पाप्तुकामः, काल्यै देव्यै तस्यांपूर्वोक्तायां महाति-महालयायां अतिविशालायां परिषदि धर्मकथा भणितव्याकथयितव्या, धर्मकथास्वरूपं विस्तरत उपासकदशाङ्गसूत्रस्यागारधर्मसंजीविन्यारूयायां व्याख्यायां विलोकनीयं विशेषजिज्ञासुभिरिति । रथसे नीचे उतरी। फिर अपने सब परिवारके साथ पांच अभिगम पूर्वक जहाँ भगवान विराजते हैं वहाँ पहुँचकर विधिपूर्वक वन्दनानमस्कार किया, और सपरिवार भगवानके सम्मुख नतमस्तक हो विनयके साथ अञ्जलिपटको ललाटपर रखती हई खडी होकर सेवा करने लगी ॥ १७ ॥ . 'तएणं समणे' इत्यादि । बाद मोक्षगामी श्रमणे भगवान् महावीर स्वामीने काली महारानीको लक्ष्य करके विशाल परिषदमें धर्मकथा कही। धर्मकथाका विशेष वर्णन जाननेके जिज्ञासुओंको हमारी बनाई સઘળા પરિવાર સાથે પાંચ અભિગમ–પૂર્વક જ્યાં ભગવાન બિરાજતા હતા ત્યાં પહોંચીને વિધિપૂર્વક -વંદના-નમસ્કાર કર્યા તથા સપરિવાર-ભગવાનની સન્મુખ માથુ નમાવીને વિનયપૂર્વક આ જલિ પુટને (જેડેલા હાથને) લલાટ પર રાખી ઊભી રહીને સેવા ४२ मी . (१७) ' : 'तएणं समणे' त्यामा मोक्षगामी श्रम भगवान महावीर स्वामी ચીલી મહારાણીને લક્ષ્ય કરી વિશાલ પરિષદમાં ધર્મકથા કહી. ધર્મકથાનુ વિશેષ વર્ણન - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ . . . . , निरयावलिकासूत्रे -, 'जाव' शब्देन-'एयस्स अगारधम्मस्स अणगारधम्मस्स सिक्खाए उहिए' इत्येपां सङ्ग्रहः । एतच्छाया च-एतस्य अगारधर्मस्य अनगारधर्मस्य शिक्षायाम् उत्थित ' इति । एतस्यागारधर्मस्यानगारधर्मस्य शिक्षायामुत्थितः उद्यतः श्रमणोपासकः = श्रावकः श्रमणोपासिका-श्राविका वा द्वावपि विहरन्तौ आज्ञाया: भगवदाज्ञायाः आराधको भवतः ॥ १८.।। अथ कालीवक्तव्यमाह-'तए णं सा' इत्यादि । मूलम्-तए णं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हटु-जाव-हियया समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव एवं वयासी-एवं खलु भंते ! मम पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रहमुसलसंगामं ओयाए, से णं भंते किं जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जाव काले णं कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा ? । कालीति समणे भगवं महावीरे कालिं देवि एवं वयासी-एवं खल्लु काली! तव पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव कूणिएणं रन्ना सद्धि रहमुसलं संगाम संगामेमाणे हयमहियपवरवीरघाइयनिवयियचिंधज्झयपडागे निरालोयाओ दिसाओ करेमाणे चेडगस्स रन्नो सपक्खं सपडिदिसि रहेणं पडिरहं हव्वमागए ॥१९॥ छाया--ततः खलु सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टा यावत्-हृदया श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिःहुई उपासकदशाङ्ग सूत्रकी अगारधर्म-संजीवनी नामक टीकामें देखना चाहिये। 'जाव' शब्दसे अगार अनगार धर्मकी शिक्षामें तत्पर श्रावक 'और श्राविका को भगवानकी आज्ञाके आराधक जानना ॥ १८ ॥ enegal भाटे जासुगामे सभा मनावती उपासकदशासूत्रनी अगारधर्मसंजीवनी નામની ટીકામાં જોઈ લેવું જોઈએ . 'जाव' शv४थी सगार मनार मी शिक्षामा ५२ श्रा१४. विधान ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક સમજવા. તે ૧૮ છે Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरगोधिनी टीका अ. १ काली रायः प्रश्नः - - - - - - - - कृत्वो यावदेवमवादीत्-एवं खलु भदन्त ! मम पुत्रः कालः कुमारः त्रिमित दन्तिसहस्रैः यावत्-स्थमुशलसग्रामम् अवयातः, स खलु भदन्त ! किं जेष्यति? नो जेष्यति ? यावत् कालं खलु कुमारमहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? कालि ! इति श्रमणो भगवान महावीरः काली देवीमेवमवादी-एवं खलु कालि ! तव पुत्र: कालः कुमारः विभिर्दन्तिसहस्रर्यावत् कूणिकेन राज्ञा साद्धं रथमुशलं सग्राम समामयन् हतमथितप्रवरवीरघातितनिपतितचिकध्वजपताकः निरालोका दिशः कुर्वन् चेटकस्य राज्ञः सपक्षं समतिदिक् रथेन प्रतिरथं हव्यमागतः ॥ १९ ॥ टीका-ततः धर्मकथाश्रवणानन्तरं, काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके समीपे धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुत्वाकर्णविषयीकृत्य निशम्य% हृदयेनाऽवधार्य हृष्ट-यावत्-हृदया-इष्टतुष्टचित्तानन्दिता हर्षवशविसर्पहृदया सती श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वा त्रिवारं यावत्-वन्दित्वा नमस्थित्वा एवंवक्ष्यमाणम् अवादीत् अवोचत्-हे भदन्त ! खलु-निश्चयेन एवम् अनेन प्रकारेण मम पुत्रः कालकुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रः इस्तिसहस्रः, 'जाच 'शब्देनविभिस्त्रिभी रथाश्वसहस्रमनुष्याणां तिसृभिः कोटिभियुक्तो रथमुशलं सङ्ग्रामम् अवयातासमुपागतः, हे. भदन्त ! साकालः कुमारः खलु निश्चयेन किं जेष्यति ? वा नो जेष्यति ? यावच्छन्देन-जीविष्यति ? नो जीविष्यसि ? पराजेष्यते ? नो पराजेष्यते ? अहं कालं कुमारं खलु-निश्चयेन जीवन्तं अब काली रानीके प्रश्नका वर्णन करते हैं-'तएणं सा' इत्यादि। श्रमण भगवान महावीरके समीप श्रुतचारित्रलक्षण धर्म सुनकर आर उसे हृदयमें धारणकर प्रफुल्लित हो तीन बार वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार भगवानसे पूछने लगी हे भगवान् ! मेरा पुत्र कालकुमार तीन २ हजार हाथी-घोडेरथ और तान करोड पैदल सेनाके साथ रथमुशल संग्राम में गया है वह विजयी होगा या नहीं ?, वह जीवित रहेगा या नहीं ?, वह पराभवको पायेगा या जीतेगा ?, मैं उसे जिन्दा देखेगी या नहीं?, . वे ही शीना प्रश्न पर्यन रे छ-' तएणं सा' या શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસેથી મૃતચારિત્રલક્ષણ ધર્મ સાભળીને તથા તેને હાથમાં ધારણ કરી પ્રખલિત થઇ ત્રણ વાર વંદન-નમસ્કાર કરી આવી રંતિ ભગવાનને यूछा :મr હે ભગવન ! મારો પુત્ર કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી-ઘોડા-થ; તથા * ત્રણ કરોડની પાયદળ સેનાની સાથે રથમૂશલ સંગ્રામમાં ગયે છે તે વિજયી થશે કે Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. निरयावलिकास्त्रे द्रक्ष्यामि ? । इति कालीदेवीमनं श्रुत्वा श्रमणो भगवान् महावीरः एवं वक्ष्यमाणं प्रतिवचनम् अवादीत अवोचत्, हे कालि ! एवं खलु तत्र पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रः यावच्छन्देन युद्धसामग्रीयुक्तः, कूणिकेन राज्ञा साद स्थमुशलं संग्राम सङग्रामयन्स ग्रामं कुर्वन् 'हतमथिते'-ति-सैन्यगतहतत्वारोपात् हतः, मानगतमथितत्वारोपात् मथितः, प्रवराश्वते वीराः प्रवरवीरा मुभटाः धातिताः विनाशिता यस्य स प्रवरवीरघातितः आपत्वान्न निष्टान्तस्य पूर्वप्रयोगः, चिह्नस्य सैन्यलक्षणस्य वजाः = गडचिरयुक्ताः केतवः, पताकाश्च चिहथ्वजपताकाः, निपातिताःचिनध्वजपताका यस्य स निपातितचिह्नध्वजपताका, इतो मथितः प्रवरवीरघातितश्चासौ निपातितचिह्नवजपताका हतमथितप्रवरवीरपातितनिपातितचिह्नवजपताका, तादृशः - सन् निरालोकाः हतप्रभाः दिशः 'कुर्वन्-सर्वदिशः प्रभारहिताः कुर्वन् -चेटकस्य राज्ञः सपक्ष-समानी पक्षौ वामदक्षिणापाचौं यस्य (बागमनस्य) तत् सपक्षं यथास्यात्तथा आगत इत्यनेनान्वयः, क्रियाविशेषणम् , अत: सामान्ये नपुंसकम्, एवं सप्रतिदिक्-समानाः प्रतिदिशो यस्य तत् सप्रतिदिक् समानप्रतिदिक्त्वेन परस्पराभिमुखं यथास्यात्तथा, इदमपि क्रियाविशेषणम्, रथेन प्रतिरथं प्रतिगतः संमुखः स्थो यस्य तत् प्रतिरथंप्रथाभिमुखं यथास्यात्तथा हव्य-शीघ्रम् आगतः आयातः, चेटकराजस्य सर्वथा सम्मुखं समागत इत्यर्थः ॥ १९ ॥ , ।' ऐसे काली महारानीके प्रश्नोंको सुनकर भगवान बोले, - हे काली महारानी ! तेरा पुत्र कालकुमार तीन २ हजार हाथीघोडे-पथ और युद्धकी समस्त सामग्री सहित कूणिक राजाके साथ रथमुशल संग्राममें युद्ध करता हुआ वह अपनी सेना और सारी रणसामग्रीके नष्ट होजाने पर, बडे २ वीरा के मारे जाने और घायल होने पर तथा ध्वजा पताका आदि चिन्होंके धराशायी होजानेसे अकेला નહિ?, તે જીવતે રહેશે કે નહિ?, તે હારી જશે કે જીતશે?, હું તેને જીવતે દેખીશ કે નહિ ?, , આવા કાલી મહારાણીના પ્રશ્નો સાભળીને ભગવાન બોલ્યા- હે કાલી મહારાણી ! તારો પુત્ર કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી-ઘડા–રથ તથા યુદ્ધની તમામ સામગ્રી સાથે કુણિક રાજની સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં યુદ્ધ કરતે થકે સેના તથા રણસામગ્રી તમામ નાશ પામ્યા પછી, મેટા મેટા વીરાના મરણથી અને ઘાયલ થવાથી તથા ધ્વજ પતાકા આદિ ચિન્હો જમીનદોસ્ત થઈ જવાથી એકલેજ પિતાના પરાક્રમથી . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कालकुमारवत्तान्त वर्णनम् मूलम्-तए णं से चेडए राया कालं कुमारं एजमाणं पासइ, कालं एजमाणं पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणं परामुसइ, परामुसित्ता उसुं परामुसइ, परामुसित्ता वइसाहं ठाणं ठाइ, ठाइत्ता आययकण्णाययं उसुं करेइ करित्ता कालं कुमारं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवेइ । तं कालगए णं काली ! काले कुमारे नो चेव णं तुमं कालं कुमार जीवमाणं पासिहिसि ॥ २० ॥ छाया-ततः खलु स चेटको राजा कालं कुमारम् एजमानं पश्यति । कालमेजमानं दृष्ट्रा आशुरुतः यावत् मिसमिसन् धनुः परामृशति, परामृश्य इषु परामृशति, परामृश्य वैशाखं स्थानं तिष्ठति, स्थित्वा आयतकर्णायतमिषु करोति, कृत्वा कालं कुमारमेकाहत्यं कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोपयति । तत कालगतः खलु कालि ! कालः कुमारः नो चैव खलु त्वं काल कुमार जीवन्तं द्रक्ष्यसि ॥ २० ॥ टीका-'तएणं से चेडए' इत्यादि-तता कूणिकस्य रणे चेटकसम्मुखगमनानन्तरं सा=पूर्वोक्तः प्रसिद्धो वा चेटको राजा एजमानम् आयान्तं कालं कुमारं पश्यति, एजमानं कालं कुमारं दृष्ट्वा अवलोक्य आशुरुतः शीघ्रकोपाविष्टः, जाव शब्देन 'रुटे, कुविए, चंडिक्किए,' एतेषां सङ्ग्रहः । एतच्छाया-रुष्टा, कुपितः, चाण्डिक्यितः, इति ॥ रुष्टः रोषयुक्तः, कुपितः-अन्तःस्थितक्रोधेन प्रस्फुरदधरः, चाण्डिक्यितः चाण्डिक्यं रौद्ररूपत्वं संजातमस्येति चाण्डिक्यितः= ही अपने पराक्रमसे सभी दिशाओंको निस्तेज करता हुआ रथपर बैठकर चेटक राजाके रथके सामने महावेगसे आया ॥ १९ ॥ 'तएणं से चेडए ' इत्यादि । तदनन्तर चेटक राजा कालकुमारको अपने सम्मुख आया हुआ देखकर तत्क्षण क्रुद्ध हो उठे, रूष्ट हुए और आन्तरिक कोपके कारण उनके होठ फडफडाने लगे, उन्होंने બધી દિશાઓને નિસ્તેજ કરતે થકા રથમાં બેસીને ચટક રાજાના રથની સામે મહાवेगथी माव्य (16) 'तएणं से चेडए.' त्या त्या२ मा २८४२० मारने पातानी સન્મુખ આવેલ જોઈને તત્કાળ ક્રોધિત થઈ ગયા, રૂટ થયા તથા આંતરિક કોય ને લીધે તેના હોઠ ફડફડવા લાગ્યા, તેમણે રોદ્ર ( ભયાનક) રૂપ ધારણ કર્યું એવું કોઇની ૧૧ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ निरयावलिका मंत्र प्रकटितरौद्ररूपः, मिसमिसन-देदीप्यमानः क्रोधज्वालया ज्वलन् इत्युपलक्षणम्, . तेन 'तिवलियं भिउडि निडाले साढ' इत्येपामपि ग्रहणम् । त्रिवलिकाभृकुटि नेत्रविकारविशेष ललाटे संहृत्य-विधाय धनुः शरासन परामशति-सज्जीकरोति, इपुं-चाणं परामृशति-धनुषि संयोजयति, उपसगवलात्तत्तदर्थों धातूनामनेकार्थत्वाद्वा, परामृश्य धनुः शरं च परस्परं संयोज्य वैशाखं स्थानं योधस्थानविशेष तिष्ठति-आश्रयति, स्थित्वा-योधस्थानमाश्रित्य इपुं-वाणं आयतकर्णायतम् आकर्णान्तं करोति कर्पयति कृत्वा आकर्णान्तं वाणमाकृष्य कालं कुमारमेकाहत्यम्-एकैवाऽऽहत्या आहननं प्रहारो यत्र (जीवितव्यपरोपणे) तदेकाहत्य 'क्रियाविशेषणं' तत्, एवं कूटाहत्यं कूटे इव तथाविधपापाणसम्पुटादौ कालविलम्बाभावसाधाद् आहत्या हननं यत्र तत् कूटाहत्यं, कूटस्येव पापाणेमयमहामारणयन्त्रस्येवाहत्याऽऽहननं वा यत्र तत् कूटाहत्यम्, इदमपि क्रियाविशेषणम्, तद् यथास्यात्तथा जीविताद् व्यपरोपति-व्यपगमयति इन्तीति यावदिति, हे कालि ! तत्-तस्मात् कारणात् खलु-निश्चयेन कालगतः कालवशं प्राप्तः कालः कुमारः । नैव खलु त्वं कालं कुमारं जीवन्तं द्रक्ष्यसि-अबलोकायष्यसि ॥ २० ॥ : . मूलम्-तएणं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमहं सोचा निसम्म महया पुत्तसोएणं अप्फुन्ना समाणी परसुनियत्ताविव चंपगलया धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंरौद्ररूप धारण किया एवं क्रोधकी ज्वालासे जलने लगे। ललाटपर आवेशसे तीन सल चढाते हुए धनुषको सज्ज किया और उसपर वाण चढाकर युद्ध स्थलमें खडे होगये और बाणको कान तक खींचा, अन्तमें चेटकने-कूट, अर्थात् बहुत बडा पत्थरका बनाया हुआ ‘महाशस्त्रविशेष' जिसके एक वारके प्रहारसे ही प्राण निकल जाय, उसी . प्रकार पाणके प्रबल प्रहारसे कालकुमारके प्राण लेलिये, इस लिए हे काली! तू कालकुमारको जीवित नहीं देखेगी ॥ २० ॥ જવાલાથી બળવા લાગ્યા આવેશથી કપાળ ઉપર ત્રણ રેખા ચડાવીને ધનુષ સજજ કરી તેના ઉપર બાણ ચડાવીને શ્રદ્ધની જગે એ ઊભા રહ્યા અને બાણને કાન સુધી ખે ઍ_આખરે ચેટકે “કૂટ” અર્થાત બહુ મોટા પત્થરનું. બનાવેલ “મડા શસ્ત્રવિશેષ” જેના એક વારના પ્રહારથીજ પ્રાણ નીકળી જાય, તેવા બાણને પ્રબલ પ્રહાર કરી કાલકુમારને પ્રાણ લઈ લીધે. આથી હે કાલી! તુ કાલકુમારને જીવિત દેખી નહિ (૨૦) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कालीदेव्याः पुत्रशोकवर्णनम् गेहि संनिवडिया । तएणं सा काली देवी मुहत्तंतरेणं आसत्था समाणी उठाए उट्रेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते !, अवितहमेयं भंते !, असंदिद्धमेयं भंते !, सच्चेणं एसमटे से जहेव तुब्भे वदह,--त्तिकटु समणं भगवं महावारं वंदइ नमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ २१ ॥ छाया-ततः खलु सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके एतमथ श्रुत्वा निशम्य महता पुत्रशोकेन आक्रान्ता सती परशुनिकृनेव चम्पकलता 'धस' इति धरणीतले सर्वाङ्गः संनिपतिता। ततः खलु सा काली देवी मुहूर्तान्तरेण आस्वस्था सती उत्यया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एवमेतद् भदन्त ! तथ्यमेतद् भदन्त ! अवितथमेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त !, सत्यः खलु एषोऽर्थः तद् यथैतद् यूयं वदय, इति कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा तमेव धार्मिकं यानप्रवरं दूरोहति, दूरुह्य यस्या दिशः प्रादुर्भुता तामेव दिशं प्रतिगता ॥ २१ ॥ टीका-'तएणं सा' इत्यादि-ततः-पुत्रवृत्तान्तश्रवणानन्तरं सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके समीपे एतम् = कालं कुमार जीवितं न द्रक्ष्यसीति अर्थ-वृत्तान्तं श्रुत्वा-आकर्ण्य निशम्य हृदयेनावधार्य महता-विशालेन पुत्रशोकेन कालकुमारनामकनिजसुतमरणजन्यदुःखेन अप्फुण्णा' इति-आक्रान्ता व्याप्ता सती परशुनिकृत्तेव-कुठारच्छिन्ना चम्पकलता इत्र 'धस' इति धरणीतले सर्वाङ्गः समूछे संनिपतिताः। ततः-तत्पश्चात् सा काली देवी 'तएणं सा' इत्यादि-भगवानके समीप अपने पुत्रका ऐसा वृत्तान्त सुनकर और उसे निश्चयस्वरूप समझकर काली महारानी पुत्रमरणके दुःखसे दुःखित होकर कुठारसे कटी हुई चम्पकलताके 'तएणं सा' त्या सरावाननी पासेयी पाताना पुरन से वृत्तात સાંભળીને તથા તે નકકી સમજીને કાલી મહારાણું પુત્રમરણના દુખથી દુખિત થઈને જેમ કુહાડીથી કપાયેલી ચપકલતા પડી જાય તેમ મૂછિત થઈને જમીન પર ધડાક Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ निरयावसिकात्रे मुहर्तान्तरेण अन्तर्मुहूर्तानन्तरम् आस्वस्था-लब्धचैतन्या सती उस्थया कथमपि दास्यादिना उत्थानक्रियया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं वक्ष्यमाणम् अवादीत-हे भदन्त ! एतत्भवदापितम्, एवम्-एवमेवाऽस्ति, तथ्यम् यथार्थम्, हे भदन्त ! अवितयम्= यथार्थस्वरूपनिरूपकम्, हे भदन्त ! असंदिग्धम् संशयविपरीनानध्यवसायवर्जितम् हे भदन्त ! एपः भवदुक्तः अर्थ:-भावः खलु-निश्चयेन सत्यः सम्यग्निर्णायकः, तद् यथा येन प्रकारेण यूयमेतद्वदथ, इति कृत्वा इति भगवत्समीपे निवेद्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा तमेव-पूर्वोक्तमेव धार्मिकं यानप्रवरं दुरोहति, दुरुह्य यस्या दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता ॥ १ ॥ कालीराव्या गमनानन्तरं गौतमः पृच्छति-'भंतेत्ति' इत्यादि । । मूलम्-भंतेत्ति भगवं गोयमे जाव वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कालेणं भंते ! कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रहमुसलं संगाम संगामेमाणे चेडएणं रन्ना एगाहच्चं कूडाहचं जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहि उववन्ने ? । गोयमाइ समणे भगवं महावीरे गोयमं एवं वयासी-एवं खल्ल गोयमा ! काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे समान मृञ्छित हो धडामसे भूमिपर गिर पड़ी। कुछ समय पश्चात् सचेष्ट होकर दासी आदिके द्वारा खडी हुई । याद भगवानको वन्दन नमस्कार करके बोली-हे भदन्त ! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है, यथार्थ है, मन्देह रहित है, सत्य है ओर सर्वथा सत्य है। ऐसा कहकर भगवान् को वन्दन-नमस्कार करके पूर्वोक्त धार्मिक रथमें बैठकर अपने स्थानपर गयी ॥ २१ ॥ પડી ગઈ. થોડા વખત પછી ચેતના આવી તથા દાસીઓની મદદથી ઊભી થઈ. પછી ભગવાનને વદન નમસ્કાર કરીને બોલી–હે ભદત જેમ આપ કહે છે તેમજ છે. યથાર્થ છે. શિકારહિત છે. સત્ય છે તથા સર્વથા સાચું જ છે. એમ કહી ભગવાનને વંદન નમઃકાર કરી અગાઉ વર્ણવેલા ધાર્મિક રથમાં બેસીને પિતાના સ્થાને ગઈ. (૨૧). Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ गौतमस्वामिनः प्रश्नः कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमाभे नरगे दससागरोवमठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उत्रवन्ने ॥ २२ ॥ ___छाया-भदन्त ! इति भगवान् गौतमः यावद् वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादी-कालः खलु भदन्त ! कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रविद् रथमुशलं संग्रामं संग्रामयन् चेटकेन राज्ञा एकाहत्यं कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा क गतः १ क उपपन्नः ? । गौतम ! इति श्रमणो भगवान महावीरः गौतममेवमवादी-एवं खलु गौतम ! कालः कुमारस्त्रिभिर्दन्तिसहस्र्यावद् जोषिताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा चतुया पङ्कमभायां पृथिव्यां हेमाभे नरके दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयि केषु नैरयिकतया उपपन्नः ॥ २२ ॥ • टीका-हे भदन्त ! इति संबोध्य-भगवान् गौतमः यावत् मोक्षगतिप्राप्तं श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, बन्दित्वा नमस्यित्या एवमवादीत-हे भदन्त ! कालः कुमारः खलुनिश्चयेन त्रिभिदन्तिसहस्रः यावद् स्थमशलं सग्रामं सग्रामयन चेटकेन राज्ञा वज्ररूपेण एकेलेव बाणेन जीविताद व्यपरोपितो मृतः सन् कालमासे कालावसरे काल कृत्वा क गतः ? छ उपपश्नः? हे गौतम ! इति संवोध्य श्रमणो भगवान् महावीरो भगवन्तं गौतमम्एवम् बक्ष्यमाणम् अवादीत-हे गौतम ! खलु-निश्चयेन एवम्-उक्तकर्मकारक: कालकुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रयुक्तो यावत् जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे रानीके चले जानेके बाद श्री गौतम स्वामी भगवानसे पूछते है-'भंतेत्ति' इत्यादि। हे भदन्त ! कालकुमार तीन २ हजार हाथी घोडे रथ और अपने सम्पूर्ण सैन्य वर्गके साथ रथनुशल संग्राम में लडाई करता हुआ चेटक राजाके वज्रस्वरूप एक ही बाणसे मारा गया। वह मृत्युके समय कालप्राप्त होकर कहा गया और कहाँ उत्पन्न हुआ ?। भगवान कहते हैं-हे गौतम ! वह क्रूर कर्म करनेवाला कालराना गया पछी श्री. गोतम स्वामी भगवान ने पूछे छ:- 'भंतेति' इत्याहि. હે ભદત ! કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી-ઘેડા–રથ તથા પિતાના સપૂS ન્ય વર્ગ સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં લડાઈ કરતે થકે ચેટક રાજાના વજસ્વરૂપ એકજ ભાણુથી માર્યો ગયો. તે મૃત્યુને અવસરે કોલ કરીને કયાં ગયે અને કયા ઉત્પન્ન થયે?. ભગવાન કહે છે–હે ગૌતમ ! દૂર કર્મ કરનાર તે કલકુમાર પિતાની Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावनिकाले सालं कन्वा चया पसभायां पृथिव्यां हेमा नामके नरके नरकवासे दनमागोपमत्यितिकयु नेरयिकेषु नरयिकतया नारकित्वेन उपपन्नः समुत्पन्नारा गौतमम्बामी पुनः पृति-कालेणं भंते' इत्यादि। मृतम्-कालेणं भते! कुमारे केरिसाएहि आरंभेहि केरिस. एहि समारंभेहि केरिसपाहि आरंभसमारंभेहि केरिसएहि भोगेहि कम्सिएहि संभोगेहि केरिसएहिं भोगसंभोगेहिं केरिसएण वा अनुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाप पुढवीए जाब नेरइयत्ताए उववन्ने ? । एवं खल्लु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समपणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, रिद्धथिमियसमिद्ध । तत्थणं रायगिहे नयरे सेणिए नाम राया होत्या, महया० । तस्स सेणियस्स रन्नो नंदा नामं देवी होत्था, सोमाला जाब वितरनि । तस्सणं सेणियस्स रन्नो पुने नंदाप देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था, सोमाले जाव सुरुबे साम-दान-भेददंड-कुमले जहा चित्तो जाव रन्नधुराप चिनप यात्रि होत्था ॥ २३ ॥ कामः खन्ट भटन्न ! कुमारः कोरगारमः, पारशः ममामारीभारम्भमगाम, करीमोग:. गारी: गंमोगः, फीरीः भोरममार्गःगीन मा UPTETHTTPer फाटमा पाले कमा नयाँ १yममा दियां गारन नमिना उपपारः ? पगल गौतम ? नम्मिन कार गरिमन मग वानर नगर नगरसभन ऋम्मिमियममलम् । तर मन्ट मामा भनि नाम बनाउन माग गन्दु अगिया राम ना की अन गामात यावद नि ! गार बन्द पिकाय जमा अपनी नामनिममा गरम मरकर पदममा नामक चिनो रोमानामनरामदगमागरीपम स्थितियाला .. . ... .१५५ .. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कालकुमारविषये गौतमप्रश्नः राज्ञः पुत्रो नन्दाया देव्या आत्मनः अभयो नाम कुमारोऽभूत् सुकुमारः यावद मुरूपः साम-दान-भेद-दण्डकुशलः, यथा चित्तो यावद् राज्यधुरायाश्चिन्तकोऽभूत् ॥ २३ ॥ टीका-कालकुमारः खलु हे भदन्त ! कीदृशैः आरम्भैः प्राणातिपातादि सावधानुष्ठानः, समारम्भैः खङ्गादिना प्राण्युपमर्दनरूपव्यापारैः, आरम्भसमारम्भैः आरभ्यन्ते-विनाश्यन्ते जोवा यहिंसादिव्यापारैरित्यारम्भास्तेणं समारम्भाः सम्पादनानि तैः, कीदृशैः भोगैः शब्दादिविषयैः ?, कीदृशैः सम्भोगैः= तीव्राभिलाषजनकविषयैः ?, कीदृशैः भोगसम्भोगैः महारम्भपरिग्रहरूपविषयाभिलाषैः ?, कीदृशेन वा अशुभकर्मपाग्भारेग-अशुभकर्मसमूहेन कालमासे काला वसरे कालं कृत्वा चतुर्थी पृथिव्यां यावत् नैरयिकतया उपपन्नः ? । हे गौतम ! ‘एवं खलु' इत्यादि निगढसिद्धम् ॥ २३ ॥ पुनः श्री गौतम स्वामी पूछते हैं:-'कालेणं भंते ' इत्यादि। हे भदन्त ! वह कालकुमार हिंमा झूठ आदि सावद्य अनुष्ठानरूप आरम्भसे तलवार आदि शस्त्रोद्वारा प्राणियांका उपमर्दनरूप समारम्भसे, जिससे प्राणियोंका संहार होता है ऐसे आचरण करनेसे, किस तरहके शन्दादि विषय भोगोंसे तथा किस तरहके तीव्र अभिलाषाजनक विषयाँके संभोगोंसे और किस तरहके भहारम्भ और महापरिग्रहरूप विषयोंके अभिलाषारूप भोगापभोगोंसे और कौनसे अशुभ कमौके पुञ्जसे वह काल करके चौथे नरकमें गधा ?। भगवान कहते हैं-हे गौतम ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था जो फ्राद्ध अदिसे समृद्ध था। उसमें श्रेणिक राजा राज्य करते थे। उनकी रानीका पुन: गौतम स्वामी पूछ छ:-'कालेणं भंते' त्याल હે ભદત! તે કાલકુમાર હિંસા, જૂઠ, આદિ સાવ અનુષ્ઠાનરૂપ આર ભથી, તલવાર આદિ શસ્ત્રોથી પ્રાણિઓને નાશ કરવારૂપ, સમારંભથી, જેનાથી પ્રાણિઓને સહાર થાય એવા આર ભનું આચરણ કરવાથી, કેવી જાતના શબ્દાદિ વિષયભેગથી, કેવી જાતના તીવ્ર આભલાષા વડે ઉત્પન્ન થતા વિષયેના સભેગથી, તથા કેવી જાતના મહાર ભ અને મહાપરિગ્રહરૂપ વિષયેની અભિલાષારૂપ ભેગોપગોથી તથા કેવા અશુભ કર્મોના પુથી તે કોલ કરીને મૃત્યુ પામીન) ચેથા નરકમાં ગ? ભગવાન કહે છે–હે ગૌતમ! તે કાલ તે સમયે રાજગૃહ નામની નગરી હતી જે અદ્ધિ આદિથી સમદ્ધ હતી. તેમાં એક રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તેની રાણુનું નામ ના Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --..-HALA - - । , निरयावलिकासूत्रे , मूलम्-तस्स णं सेणियस्स रन्नो चेल्लणा नाम देवी होत्था, सोमाला जाव विहरइ । तएणं सा चेल्लणा देवी अन्नया कयाई तसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सोहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, जहा पभावई, जाव सुमिणपाढगा पडिविसजिता, जाव चेल्लणा से वयणं पडिच्छित्ता जेणेव सए भवणे तेणेव अणुपविटा ॥ २४ ॥ छाया-तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञश्चेल्लना नाम देवी आसीत् सुकुमारा यावद् विहरति । ततः खलु सा चेल्लना देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् वाशके वासगृहे यावत् सिंह स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा यथा प्रभावती, यावत् स्पप्नपाठकाः प्रतिविसर्जिताः यावत् चेल्लना तस्य वचनं प्रतीष्य यत्रेय स्वकं भवनं तत्रैवानुप्रविष्टा ॥ २४ ॥ टीका-'तस्स गं' 'इत्यादि । 'तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञः' इत्यारभ्य 'तत्रैवानुमविष्टा' इत्यन्तम्य व्याख्यानं सुगमम् ।। २४ ।। नाम नन्दा था, जो अत्यन्त सुकुमार थो, यावत् अपने पूर्वजन्म उपार्जित पुण्यले प्राह मनुष्य-सम्बन्धी सुखोंका अनुभव करती हुई विचरती थी। उनके अभयकुमार नामक पुत्र था, जो सुकुमार सुरूप तथा सभी लक्षणोंसे युक्त था । साम, दाम, दण्ड, भेद आदि नीतिमें निपुण था। चित्तप्रधानके समान राजकार्य दक्षतासे करता था ।। २३ ॥ 'तस्स गं' इत्यादि। उस श्रेणिक राजाकी दूसरी रानी चेलना थी, जो सुकमारता (कोमलता) आदि नारीगुणोंसे सभी तरह युक्त थी। उसने स्वममें एक समय सिंह देखा उसी समय जाग उठी और प्रभावतोके समान હતું જે બહુ સુકુમાર હતી પિતાના પૂર્વજન્મમાં કરેલા પુણ્યથી પ્રાપ્ત થયેલા મનુષ્ય સબધી સુખને અનુભવ કરતી વિચરતી હતી તેને અભયકુમાર નામે પુત્ર હતા જે સુકુમાર રૂપવાન તથા બધા લક્ષણોથી યુકત હતે સામ, દામ, દંડ, ભેદ આદિ નીતિમાં નિપુણ હતે ચિત્ત પ્રધાનની પેઠે રાજકાર્યને દક્ષતાપૂર્વક કરતે હતેા. ૨૩ 'तस्स ण त्याle a legs 21नी भी राणी येसना सती ने भार મળતા) આદિ સ્ત્રીને લગતા ગુણોથી સર્વ પ્રકારે યુક્ત હતી તે સ્વપ્નામાં એક વખત સિંહને જે અને જાગી ઉઠી પ્રભાવતીની પેઠે રાજને સ્વપ્ન કહ્યું જેથી રાજાએ - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनीटीका अ. १ चेल्लनाराज्ञाः दोहदवर्णनम् ।। मूलम्-तए णं तीसे चेल्लगाए देवीए अन्नया कयाई तिण्हं माताणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जम्मजीवियफले जाओ ण णियस्स रन्नो उदरवलीमंसेहि सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च जाव पसन्नं च आसाएमाणीओ जाव परिभाएमाणीओ दोहलं पविणेति ॥ २५ ॥ छाया-ततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अन्यदा कदाचित त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भून:-धन्याः खलु ताः अम्बाः यावत् (तासां) जन्म-जीवित-फलं याः खलु निजस्य राज्ञः उदरवलिमांस: शूलैश्च तलितेश्च अर्जितैश्च सुरां च यावत् प्रसन्नां च आम्बादयन्त्यो यावत् परिभाजयन्त्यो दोहदं प्रविणयन्ति ॥ २५ ॥ ____टीका-'नएणं तीसे' इत्यादि । ततः तदनन्तरं खलु-निश्चयेन अन्यदा 'कदाचित् चेल्लनाया देव्याः त्रिषु- मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयम्=वक्ष्यमाणः, एतद्रूपाएतदाकारकः दोहदः प्रादुर्भूतः समुत्पन्नः-ताः अम्बा: जनन्यः धन्याः प्रशंसनीयाः यावत् जन्मजीवितफल = तासां जन्मनो जीवितस्य च फलं= आनन्दरूपम् याः निजस्य राज्ञः स्वामिनः खलु शूलैःपक्वैः तलितैः स्नेहादिना राजाको जाकर स्वम कहा, राजाने स्वमपाठक बुलाये । उन्होंने स्थानका फल कहा और राजाने उन्हें प्रीतिदान देकर विसर्जित (विदा) किये। स्वप्नफल सुननेके पश्चात् रानी अपने महलमें गयी ॥ २४ ।। 'तएणं तीसे' इत्यादि। बाद रानी चेलनाको, गर्भके तीन महिने पूरे होनेपर ऐसा दोहद-(दोहला) उत्पन्न हुआ कि-धन्य हैं वे माताएँ, यावत् उन्हीका जन्म और जीवित सफल है जो अपने पतिके उदरयलि (कलेजा)के વખપાઠકેને બોલાવ્યા, તેઓએ સ્વપ્નફલ કહ્યું. રાજાએ તેમને પ્રોતિદાન આપીને વિસર્જિત (વિદાય) કર્યા. સ્વપ્નફલ સાંભળ્યા પછી રાણી પિતાના મહેલમાં ગઈ ૨૪ ___ 'तएणं तीसे' त्याहि पछी राणी येसनाने त्र महिना पुरा थता मेवे। દેહલે (તીવ્ર ઇચ્છા) થ કે ધન્ય તે માતાઓને અને તેમને જન્મ તથા જીવતર સફલ છે કે જે પિતાના પતિના ઉદરવલિ (કલેજા)ના માંસને શૂળ ઉપર સેકીને તથા તેલમાં ૧૨ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ९० निरयात्रलिका सुत्रे पक्वैः भर्जितैः=केवलवह्निपक्वैः उदरवलिमांसैः दोहदं प्रविनयन्तीत्यनेन सम्बन्धः, सुरांमंदिरां च यावत् परिभाजयन्त्यः = अन्योन्यं ददत्यो दोहदं प्रविणयन्ति= पूरयन्ति, अहमपि स्वपतेः श्रेणिकस्य राज्ञः पक्त्रतलित भर्जितोदरवलिमांसहद प्रपूरयेयं तदा धन्या किंतु तादृककरणेऽसमर्थाऽस्मि इत्यादि ॥ २५ ॥ मूलम्--तएणं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमणवयणा पंडुइयमुही ओमंथियनयणवयणकमला जहो. चियं पुप्फवत्थगंधमलालंकारं अपरिभुंजमाणी करतलमलियव्व कमलमाला ओहयमणसंकप्पा जाव झियाइ ॥ २६ ॥ छाया- -- ततः खलु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहढे अविनीयमाने शुका बुभुक्षिता निर्मासा अवरुग्णा, अवरुग्णशरीरा निस्तेजाः दीनविमनावदना पाण्डुकिमुवी अवमन्धितनयनवदनकमला यथोचितं पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारम् अपरिमुञ्जन्ती करतलमलितेव कमलमाला उपहतमनःसङ्कल्पा यावद् ध्यायति । २६ | टीका- ' तणं सा' इत्यादि - तनः तदनु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने = अपूर्यमाणे सति शुष्का = शुल्कमाया रुधिरपरिशोपणात्, माँसको शूलपर पकाकर और तेलमें तलकर एवं अग्निमें सेककर मदिराके साथ आस्वादन करती हुई यावत् परस्पर - आपस में देती हुई अपने दोहद (दोहले ) को पूरा करती हैं । यदि मैं भी अपने पति श्रेणिक राजाके पकाये हुवे तले हुवे सेके हुवे उदरवलि (कलेजा ) के मांस से दोहदको पूरा करू तो मैं धन्य वनूँ परन्तु ऐसा करने में असमर्थ हूं ॥ २५ ॥ तणं सा' इत्यादि - 6 उसके बाद वह चेलना रानी दोहद नहीं पूरा होनेसे रक्तके તળીને કે અગ્નિમાં સેકીને દારૂની સાથે તેના સ્વાદ લેતી અને અરસપરસ દેતા પેાતાના એ દાદને પરિપૂર્ણ કરે છે. તે હુ પણ મારા પતિ શ્રેણિક રાજાના પકાયેલાં તળેલા અને સેકેલા કલેજાનાં માસથી મારા દોહદ પૂરા કરૂ તે! ધન્ય મનુ પણ તેમ કરવામાં હું અસમર્થ છુ. ૨૫ 'तपणं सा' इत्यादि ત્યાર પછી તે ચેલના રાણી પેાતાને દેહદ (ઇચ્છા) પુરા ન થવાથી લેહી સૂકાઇ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेलनाराज्ञाः दोहदवर्णनम् बुभुक्षिता = आहाराऽकरणेन बुभुक्षितेव, निर्मांसा = मांसरहिता - मांसवृद्ध्यभावात्, अवरुग्णा= रोगवती मनोवृत्तिभङ्गात् अवरुग्णशरीरा - भग्नगात्रा, निस्तेजा:= शरीरशुतिरहिता, दीनविमनोवदना = दीनस्येव वि= विगतम् = उत्साहरहितं मनः, कान्ति रहितं वदन च यस्याः सा तथा - अकिञ्चनवदुत्साहहीनमनोनिष्प्रभमुखतीति भावः । पाण्डुकितमुखी = पाण्डुवर्णयुक्त मुखवती. अवमथितनयनवदनकमला =अत्रः कृतनेत्रमुखकमला, यथोचितं = यथायोग्य पुष्पवन गन्धमालालङ्कारम् - अपरिभुञ्जन्ती=असेवमाना, करतलमलिता = हस्ततलमर्दिता कमलमाले कान्तिहीना, उपहतमनःसंकल्पा = कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकला यावद् ध्यायति = आर्तध्यानं करोति ॥ २६ ९१ मूलम् तपणं तीसे वेल्लणाए देवीए अंगपडियारियाओ लणं देवं सुकं भुक्खं जांव झियायमाणी पासंति, पासिता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करतलसूख जानेके कारण सूख गयी । अरुचिसे आहार आदि नहीं करने के कारण भूखी रहने लगी । शरीरमें मांस नहीं रहने के कारण क्षीणकाय हो गयी, मनको चोट पहुँचनेसे रोगी के समान हो गयी, शरीरकी कांति हट जानेसे तेजरहित हो गयी, उसका मन दीनके 'समान उत्साहरहित और मुख निस्तेज हो गया, अतएव रानीका चेहरा फीका पड गया । इस कारण नेत्र और मुखकमलको नीचे किये हुए यथायोग्य पुष्प वस्त्रादिकको भी नहीं धारण करती थी, वह हाथसे मली हुई - कुचली हुई कमलकी मालाके समान कान्तिहीन दुःखित मनवाली कर्तव्याकर्तव्य के विवेक से रहित होकर यावत् आर्त-ध्यान करती थी ।। २६ ।। જવાથી શુષ્ક થઇ ગઇ. અરૂચિથી આહાર આદિ ન કરવાથી ભૂખી રહેવા માડી શરીરમાં માંસ ન રહેવાથી શરીરે દુબળી થઇ ગઇ સનમાં ઘા લાગવાથી રાગીસમાન થઈ ગઈ. શરીરની કાતિ ઓછી' થતાં તે રહિત થઈ ગઈ તેનું મન દીન સમાન ઉત્સાહરહિત તથા માઢું નિસ્તેજ થઇ ગયુ. આમ રાણીના ચહેરે પ્રીકા પડી ગયે. આથી નેત્ર તથા સુખ નીચે ઝુકાવીને બેઠી થતી ચથાયેાગ્ય પુષ્પ-વસ્ત્રાદિ અલ કાર્રત ધારણુ કરતી નહેાતી. તે હાથના મનથી કરમાયેલી કમલની માળા જેવી કાતિ વગરની દુઃખિત મન વાળી કત બ્ય અક બ્ય વિવેકથી રહિત બની જઇને સઘળા વખત આ ધ્યાનમાં વીતાવતી હતી. ૨૬ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिकास परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कह सेणियं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी! चेल्लूणा देवी न जाणामो केणइ कारणेणं सुका भुक्खा जाव झियायइ ॥ २७ ॥ छाया-तनः खलु तस्याश्रेल्लनाया देव्या अगमतिचारिकाश्चेल्लनां देवीं शुष्का बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्ती पश्यन्ति, दृष्ट्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य, करतलपरिगृहीतं शिरावर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा श्रेणिकं राजानमेवमवादिषुः-एवं खलु स्वामिन ! चेल्लना देवी न जानाम: केनापि कारणेन शुष्का शुभुक्षिता यावद् ध्यायति ॥ २७ ॥ टीका-'तएणं तीसे' इत्यादि-'शियायइ ' इत्यन्तस्य व्याख्या निगदसिद्धा ॥ २७ ॥ ___मूलम्--तएणं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयम सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, चेल्लणं देवि सुक्कं भुक्खं जाव झियायमाणि पासित्ता एवं वयासी-किन्नं तुमं देवाणुप्पिये ! सुक्का भुक्खा जाव झियायसि ? तए णं सा चेल्लणा देवी सेणियस्त रनो एयमटुं णो आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीया संचिटूइ ।। 'तएणं तीसे' इत्यादि. उसके याद चेलना रानोकी सेवा करनेवाली दासियोने अपनी रानीकी ऐसी अवस्था देखकर श्रेणिक राजाके पास गयी, और हाथ जोडकर श्रेणिक राजासे, कहने लगी-हे स्वामिन् ! चेलना महारानी न जाने किस कारण सूख गयी है और दःखित होकर आतध्यान करती है। ।। २७ ।। 'तएणं तीसे' त्या ત્યાર પછી ચેલના રાણીની સેવા કરવાવાળી દાસીઓ પોતાની રાણીની એવી અવસ્થા અને શ્રેણિક રાજાની પાસે જઈ હાથ જોડી શ્રેણિક રાજાને કહેવા લાગી સ્વામિન્ ! ખબર નથી કે ચેતના રાણી શુ કારણથી સુકાઈ ગઈ છે તથા દુખિત થઈને અતધ્યાન કરે છે. ૨૭ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेल्लनाराज्ञाः दोहदवर्णनम् ९३ तएण से सेणिए राया चेल्लणं देवं दोचंपि तचंपि एवं वयासी - किं णं अहं देवाणुप्पिए ! एयमस्स नो अरिहे सवणयाए जं णं तुमं एयम रहस्सीकरेसि ? | तणं सा चेला देवी सेणिएणं रन्ना दोच्चं पित पि एवं वृत्ता समाणी सेणियं रायं एवं वयासी - णत्थि णं सामी ! से केइ अट्ठे जस्स णं तुब्भे अणरिहा सवणयाए, नो चेव णं इमस्स अटुस्स सवणयाए, एवं खलु सामी ! ममं तस्स ओरालस्स जाव महांसुमिणस्स तिन्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउब्भूए- 'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं णियस्स रन्नो उदरवलिमंसेहिं सोलह य जाव दोहलं विणेंति' तरणं अहं सामी । तंसि दोहलंसि अविणिजमार्णसि सुक्का भुक्खा जाव झियायामि ॥२८॥ छाया - ततः खल्लुस श्रेणिका राजा तासामङ्गप्रतिचारिकाणामन्ति के एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य तथैव संभ्रान्तः सन् यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपाग- च्छति, उपागत्य चेल्लनां देवीं शुष्वां वुभुक्षितां यावद् ध्यायन्तीं दृष्ट्वा एकमवादीत् किं खलु त्वं देवानुप्रिये ! शुष्का बुभुक्षिता यावद ध्यायसि ? | ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकस्य राज्ञः एतमर्थं नो आद्रियते नो परिजानाति तूष्णीका संतिष्ठते । ततः खलु स श्रेणिको राजा चेल्लनां देवों द्वितीयमपि तृतीयमपि ( वारं) एवमवादीत् किं खलु अहं देवानुप्रिये ! एतदर्थस्य तो अहः श्रवणाय यत्खलु स्वं एतमर्थ रहस्थीकरोषि ? | } · ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राज्ञा द्वितीयमपि तृतीयमपि ( वारं) एवमुक्ता सती श्रेणिकं राजानमेवमवादीत् - नास्ति खलु स्वामिन् ! स कोऽप्यर्थः यस्य खलु यूयमनर्हाः श्रवणाय, नो चैव खलु अस्यार्थस्य श्रवणाय एवं खलु स्वामिन | मम तस्य उदारस्य यावत् महास्वप्नस्य ( फलस्वरूप - गर्भस्य) त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भूतः -'धन्याः खल्ल Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावाल ९४ निरयावलिकामत्रे ता अम्बाः याः खलु निजस्य राज्ञ उदरबलिमांसैः शृलकैश्च यावद् दोहदं विनयन्ति,' ('यद्यहमप्येवं करोमि तदा धन्या भवामि' इति । ततः खलु अहं हे म्वामिन् ! तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायामि ॥२८॥ टीका, 'तएणं से' इत्यादि । संभ्रान्तः सन् आश्चर्यचकितः सन् । नो आद्रियते न सम्मानयति, नो परिजानाति-न सम्यङ् नृपवचनं हृदये निदधाति । तूष्णीमागमालम्वितमौनभावा । द्वितीयमपि द्वतीयवारं तृतीय-' मपितृतीयवारम् । शेषं मुगमम् ॥ २८ ॥ ___ 'तरणं से' इत्यादि. महाराज श्रेणिक दासियोंके मुखसे इस वृत्तान्तको सुनकर घबराते हुए शीघ्र चेलना रानी के पास आये, और चेलना रानीकी दुरवस्थाको देखकर बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम्हारी इस तरहकी दुःखजनक अवस्था कैसे हो गयी ? और क्यों आतध्यान कर रही हो?, यह सुनकर नानी कुछ नहीं बोली। पश्चात. राजाने दो सीन चार . पुनः पूछा-हे देवातुप्रिये । क्या तुम्हारी इस यातको सुनने लायक मैं नहीं हुँ जो मुझसे तुम अपनी बात छिपाती हो ? इस प्रकार राजाद्वारा दो तीन बार पूछे जाने पर रानी बोली-है स्वामिन् ! ऐसी कोई बात नहीं है जो आपसे- छुपाई जाय और आप उसे सुननेके योग्य नहीं हों, आप उसे सर्वथा सुन सकते हैं, वह बात इस प्रकार है-उस उदार स्वभके फल स्वरूप गर्भके तीसरे मासके अन्तमें मुझे इस प्रकार दोहद (दोहला) उत्पन्न हुआ है कि वे माताए । 'तएणं से ' या મહારાજ છે પક, દાસીઓને મેઢેથી આ વાતને સાભળી, ગભરાતા, જલદી એલના રાઈની પાસે આવ્યા, તથા ચેલના રાણીની ખરાળ અવસ્થાને જોઈને બેલ - હે દેવાનુપ્રિયે! તારી આ પ્રકારના દુ ખજનક અવસ્થા કેવી રીતે થઈ ગઈ? શા માટે આધ્યાન કરે છે? આ સાંભળીને રાણી કાઈ ન બેલી પછી રાજાએ બે ત્રણ વાર ફરીને પૂછ્યું–હે દેવાનુપ્રિયે! શું તમારી આ વાત સાંભળવા લાયક હું નથી કે જેથી મારાથી તું પિતાની વાત છૂપી રાખે છે? આ પ્રકારે બે ત્રણ વાર રાજાએ પૂછવાથી રાણી બેલી-હે સ્વામી ! એવી કઈ વાત નથી જે આપથી છાની રખાય તથા આપ તે સાભળવા ચોગ્ય ન હૈ આપ તે સર્વથા સાભળી શકે છે એ વાત આમ છે–ને ઉદાર સ્વપ્નના ફલ સ્વરૂપ ગર્ભના ત્રીજા મહિનાના અંતમાં મને એવા પ્રકારને દેહદ (ઇરછા) ઉત્પન્ન છે કે તે માતાને ધન્ય છે કે જે પિતાને પતિના Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ दोहदपूर्तिविषये श्रेणिकराज्ञः विचारः ९५ मूलम्त एणं से सेणिए राया चेल्लणं देवि एवंवयासी माणं तुम देवाणुप्पिए ! ओहय० जाव झियायह, अहं गं तहा जइस्सामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्तइति कट्ठ चेल्लणं देविं ताहि इट्टाहि कंताहिं पियाहि मणुन्नाहि मणामाहि औरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं मियमधुरसस्सिरीयाहि वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता चेल्लगाए देवीए अंतियाओ पडिनिक्वमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबटाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयई, निसीइत्ता तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहुर्हि आएहिं उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य परिणामेमाणेर तस्स दोहलस्त आयं वा उवायं वा ठिइं वा विदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ ॥ २९ ॥ ____ छाया-ततः खलु स श्रणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-मा खलु त्वं देवानुपिये ! अवहत० यावद् ध्याय, अहं खलु तथा यतिष्ये, यथा । खलु तव, दोहदम्य सम्पत्तिर्भविष्यतीति कृत्वा चेल्लनां देवों ताभिरिष्टाभिः कान्ताभिः प्रियाभिमनोज्ञाभिर्मनोऽमाभिरुदाराभिः कल्याणामिः शिवाभिर्धन्या• धन्य हैं जो अपने पतिके उदरवलिका मांस पकाकरके तलकरके और । अग्निमें सेक भूनकर मदिराके साथ एक दूसरी सखीको देती हुईआस्वादन करती हुई अपना दोहद पूरा करती हैं। मुझे भी ऐसा ही दोहद उत्पन्न हुआ है-लेकिन हे स्वामिन् ! वह दोहद पूरा नहीं होनेसे आज मेरी यह दशा हुई है और मैं आर्तध्यान करती हं ॥२८॥ ઉદર-વલિના માસને પકાવી તળીને અગ્નિમા સેકી મૂંછ મદિરાની સાથે એક બીજી સખીને આપતી આસ્વાદ લેતી પિતાનો દેહદ પૂરી કરે છે મને પણ એજ દેહદ ઉત્પન્ન થયે છે પણ હે સ્વામિન! તે પુરે નહિ થવાથી આજ મારી આવી દશા થઈ છે અને આર્તધ્યાન કરૂ છું (૨૮) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयापलिकास्त्रे भिर्मागल्याभिर्मितमधुरसश्रीकाभिल्गुभिः समाश्वासयति, समाधास्य चेल्लनाया ' 'देव्या अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव वाह्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखी निपीदति, निश्द्य तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरायैरुपायैश्च औत्पत्तिकीभित्र वैनयिकीभिश्च कार्मिकी (कर्मना) मिश्च पारिणामिकीभिश्च परिणामयन २ तस्य दोहदस्य आयं वा उपायं वा स्थिति वा अविन्दन अपहतमनः संकल्पी यावद् ध्यायति ॥ २९ ॥ टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततः तदनन्तरं स श्रेणिको राजा चेल्लनामवादीत्-हे देवानुपिये ! त्वं आतध्यानं मा कुरु, अहं तथा यतिष्ये यथा तब दोहदम्य सम्पत्तिः सम्पन्नता भविष्यतीति कृत्वा इति कयित्वा चेल्लनां देवीं ताभिः प्रक्ष्यमाणाभिः इष्टाभिः अभिलपणीयाभिः, कान्ताभिः वान्छितार्थपूरणीभिः, प्रियाभिःप्रेमोत्पादिकाभिः, मनोज्ञाभिः शोभनाभिः मनोऽमाभिः पुनःपुनःमनोऽनुम्मरणीयाभिः, उदाराभिः अत्यदुताभिः, कल्याणीभिः वाञ्छितार्थप्राप्तिकारिकाभिः, शिवाभिः उपद्रवरहिताभिः, धन्यामि गर्भवाञ्छासम्पादिकामिः, माङ्गल्याभिः कर्णप्रियाभिः, मितमधुरसश्रीकाभिःप्रमितमत्तकोकिलशब्दचन्मनोहरस्वरशोभाभिः, वल्गुभिः वाणीमिःसमाश्वासयति 'तए णं से' इत्यादि । चेलना रानीकी ऐसी बात सुनकर राजा बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम आर्तध्यानको छोडो में ऐसा ही प्रयत्न करूँगा जिससे तुम्हारा दोहद पूरा हो। ऐसा कहकर राजाने मनको आहाद करनेवाली, वाञ्छित अर्थको देनेवाली प्रेममयी मनोज्ञ, बारम्बार मनको अच्छी लगनेवाली, अद्भुत, मनोवांछित फलको देनेवाली, सुखदायी, गर्भ- - वाल्छाको पूर्ण करनेवाली, कानोंको प्रियं लगनेवाली, मत्त कोकिलाके स्चरके समान मनोहर वाणी द्वारा रानीको सन्तुष्ट किया । रानीको 'तएण से' त्या ચેલના નાણીની આવી વાત સાંભળી રાજા બેલ્યા–“હે દેવાનુપ્રિયે ! તુ આતધ્યાન છેડી દે હુ એજ પ્રયત્ન કરીશ કે જેથી તારો દેહદ પૂરો થાય એમ કહી રાજાએ મનને આનંદ કરાવનારી, વાછિત અર્થ (ઈરછા પ્રમાણે) દેવાવાળી, પ્રેમમયી, મનોજ્ઞ, વારંવાર મનને સારી લાગનારી, અદ્ભુત. મને વાછિત ફળને દેવાવાળી, સુખદાયી, ગર્ભવાંછાને પૂર્ણ કરવાવાળી, કાનને પ્રિય લાગવાવાલી, મત્ત બનેલ કૈયલના સ્વર જેવી મને હંર વાણી દ્વારા રાણીને સંતુષ્ટ કરી. રાણીને આ પ્રકારે Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेल्लनाराज्ञाः दोहदवर्णनम् ९७ सन्तोपयति । समाश्वास्य- चेल्लनादेवीसमीपात: प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्र बाह्या उपस्थानशाला: आस्थानमण्डपः, यत्र. सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे श्रेष्ठसिंहासने, पौरस्त्याभिमुखः पूर्वाभिमुखः सन् निषीदति-उपविशति तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्त सम्पादनार्थ बहुभिः अनेक आयैः-साधनैः उपाय प्रयोगः तथा औत्पत्तिकीभिः शास्त्राभ्यासनिरपेक्षाऽदृष्टाऽश्रुताऽननुपूतविषयग्राहिकाभिः च पुनः वैनयिकीभिः गुरुरत्नाधिकादिशुश्रूप्रासंजाताभिः, कार्मिकीभिकर्मजाभिः-अनिशं क्रियाकरणेन. जायमानाभिः, पारिणामिकीभिः वयआदिपरिणाम जुन्याभिः, परिणामः दीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचजन्य आत्मनो धर्मविशेषः, स प्रयोजनमस्याः सा पारिणामिकी, अबयवगतबहुत्वविवक्षायां ताभिः, चतुर्विधाभिः बुद्धिभिः परिणामयन् २=दोहदसम्पादनरूपविचारं कुर्वन् तस्य दोहँदस्य आय साधनम् वा उपाय प्रयोगं वा रिथति-व्यवस्था वा अविन्दन अलभमानो: भूपः-अपहतमनःसंकल्पो यावद् ध्यायति आर्तध्यानं करोति ॥ २९॥ इस प्रकार आश्वासन देकर राजा सभामण्डपमें आये, और पूर्व : दिशाकी ओर मुँहकर अपने सिंहासनपर बैठे तथा उस दोहदको पूरा करनेकी चिन्ता करने लगे, परन्तु . .. .. (१) शास्त्रोंके अभ्यास विना ही अनदेखे अनसुने और अनुभवमें भी न आये हुए विषयोंको यथार्थ रूपसे ग्रहण करनेवाली ओत्पत्तिकी बुद्धि, (२) विनयसे उत्पन्न होनेवाली वैनयिकी बुद्धि, (३) हमेशा कार्य करनेसे उत्पन्न होनेवाली कार्मिकी बुद्धि, (४) वयकेपरि णामसे उत्पन्न होनेवाली पौरिणामिकी वृद्धि, . इन चारों प्रकारकी बुद्धि द्वारा तथा अनेक साधन (सामग्री) एवम् अनेक प्रयोग द्वारा भी. राजा उस दोहदको पूरा करने में समर्थ नहीं हो सकें अतएव आतध्यान करने लगे ॥ २९ ॥ આશ્વાસન ઈને રાજા સભામડામાં આવ્યા. તથા પૂર્વ દિશા તરફ મો રાખી પિતાના સિંહાસન પર બેઠા તથા તે દેહદ (ઈરછા) પુરો કરવાની ચિંતા કરવા લાગ્યા પરંતુ (૧) શાસ્ત્રના અભ્યાસ વિનાજ ન જોયેલા ન સાંભળેલી તથા અનુભવમાં પણ ન આવેલા વિષયને યથાર્થરૂપે જાણવાવાળી “ઓત્પત્તિકી બુદ્ધિ, (૨) વિનયથી Gurन थनारी वैनयि मुद्धि, (3) अमेशा य ४२वाश- उत्पन्न यनारी मिडी' બુદ્ધિ, (૪) ઉમરના પરિણામે ઉત્પન્ન થનારી “પરિણામિકી બુદ્ધિ આ ચારે પ્રકારની બુદ્ધિ દ્વારા તથા અનેક સાધન સામગ્રી એટલે અનેક પ્રયોગ દ્વારા પણ રાજા તે દોહદને પૂરે કરવામાં સમર્થ ન થયા તેથી આર્તધ્યાન કરવા લાગ્યા. (સ) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रे मूलम्-इमं च अभए कुमारे हाए जाव सरीरे, सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्राणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेणियं रायं ओहय० जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-अन्नया ताओ! तुन्भे ममं पासित्ता हट्ट जाव हियया भवह किन्नं ताओ! अज तुन्भे ओहय० जाव झियायह? तं जइणं अहं ताओ! एयस्स अहस्स अरिहे सवणयाए तो णं तुन्भे मम एयमहं जहाभूयमवितहं असंदिद्धं परिकहेह, जाणं अहं तस्स अट्टस्स अंतगमणं करोमि ! तएणं से सेणिए राया अभयं कुमारं एवं वयासी-त्थि गं पुत्ता! से केइ अट्रे जस्स णं तुम अणरिहे सवणाए एवं खल्लु पुत्ता ! तव चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव उयरवलिमंसेहि सोल्लेहि य जाव दोहलं विणेति । ' तएणं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहसि अविणिज्जमाणसि सुका जाव झियायइ । तएणं अहं पुत्ता! तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहुहि आएहिं य जाव. ठिई वा अविदमाणे, . ओहय० जाव झियामि! तएणं से अभए कुमारे.सेणियं रायं एवं वयासी-माणं ताओ! तुम्भे ओहय० जाव झियायह, अहं णं तह जइहामि, जहाणं मम चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स दोहलस्त संपत्ती भविस्सइ-त्ति कट्ट सेणियं रायं-ताहिं इट्टाहि जाव वग्गूर्हि समासासेड, समासासित्ता जेणेव सए गिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभिंतरए रहस्सिए ठाणिजे पुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेल्लनाराजाः दोहदवर्णनम् तुब्भे देवाणुप्पिया ! सूणाओ अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं प गिण्हह । तएणं ते ठाणिज्जा पुरिसा अभयेणं कुमारेणं एवंदुत्ता समाणा हट्ट० करतल० जाव पडिसुणेत्ता अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति पंडिनिक्खमित्ता जेणेव सूणा तेणेष उवा' गच्छंति, उवागच्छित्ता, अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च गिण्हंति गिण्डित्ता, जेणेव अभए कुमारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल तं अल्लं मंसं रुहिरं वस्थिपुडगं च उवणेति ॥३०॥ ... छाया-उतम खल अभयः कुमारः स्नातः यावत्-शरीरः स्वकात्. गृहात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यन्त्रेव वाहा उपस्थानशाला यत्रेव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, श्रेणिकं राजानम् भवहत. यावद् ध्यायन्तं पश्यति, द्रष्ट्वा एवमवादीन-अन्यदा सलु तात ! यूयं मां द्रष्ट्वा हृष्ट०, यावद्हृदयाः भवथ, किं खलु तात ! मध यंम् अवहत. यावद् ध्यायथ, तद् यदि खल्वा सात ! एतस्यार्थस्याहः श्रवणतायै तदा खल.यूयं मम एतमर्थं यथाभूतमवितथमसंदिग्ध परिकथयत, यस्मा खक्वा तस्यार्थस्यान्तगमनं करोमि । 'इमं च णं' इत्यादि । ' इधर अभयकुमार स्नानकर यावत् सभी प्रकारके आभूषणोंसे सुसज्जित हो अपने महलसे निकलकर उसी सभा-मण्डपमें आए जहाँ श्रेणिक राजा बैठे थे । श्रेणिक राजाको आर्तध्यान करते हुए , देखकर बोले हे तात ! और दिन जब मैं आता था तो आप मुझे देखकर प्रसन्न होते थे, किन्तु आज क्या कारण है जो मेरी ओर देखते भी नहीं और आर्तध्यानमें बैठे हैं। अगर इस बातको सुननेके . 'इमं च णं' त्यादि । આ બાજુ અભયકુમાર સ્નાન કરી તમામ પ્રકારનાં આભૂષણથી સજજ થઈ મહેલમાંથી નીકળી તેજ સભામંડપમાં આવ્યા કે જયાં શ્રેણિક રાજા બેઠા હતા. શ્રેણિક રાજાને આર્તધ્યાન કરતા જોઈ કહ્યું- હે તાત! હું જ્યારે બીજા દિવસે આવતે ત્યારે આપ મને જોઈ ખુશી થતા હતા પણ આજ શું કારણ છે કે મારી સામુ ય નેતા નથી તથા આર્તધ્યાનમાં બેઠા છે. હું આ વાતને સાંભળવા યોગ્ય છું એમ સમ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिकामृत्रे ततः खलु स श्रेणिको राजा अभयकुमारमेवमवादी-नास्ति ग्वलु पुत्र ! स कोऽप्यर्थः यस्य खलु वमनईः श्रवणताय ।। एवं खलु पुत्र ! तब क्षुल्लमातुश्चेल्लनाया देव्यास्तस्योदारस्य . यावत् . महास्वप्नस्य त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णषु यावत् उदरवलिमांसः शूलकैश्च. यावत् दोहदं बिनयन्ति । ततः खलु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का यावद् ध्यायति । ततः खल्वहं पुत्र ! तस्य दोहदस्य. सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरायैरुपायैश्च यावद स्थिति वा अविन्दन् अपहत० यावद् ध्यायामि । ... ततः खलु सः अभयः कुमारः श्रेणिकं राजानमेवमवादी-मा ग्वल तात ! यूयम् अवहत. यावद् ध्यायत, अहं खलु तथा यतिष्ये यथा ग्वल योग्य मुझे समझते हैं तो जैसी हो वैसी यथार्थरूपसे निःसंकोच होकर मुझे कहिये, जिससे मैं उसके निराकरणका प्रयत्न करूँ । . अभयकुमारकी ऐसी विनययुक्त वाणी सुनकर राजा बोले-है पुत्र ! ऐसी कोई बात नहीं है जो तुझसे छिपाई जाय-तेरी- छोटी माता चेलना रानीको महास्वमके तीसरे महिनेके अन्त में दोहद (दोहला) उत्पन्न हुआ है कि आपके उदरवलिके मांसको शूला (पका ) कर और तल-भूनकर मदिराके साथ आस्वादन वालें ।' इस दोहद (दोहला) के पूर्ण न होने के कारण वह महानुःखित और 'कृशकाय होकर आर्तध्यान कर रही है। हे पुत्र ! इस दोहन (दोहला) को पूर्ण करनेके लिए अनेक उपाय सोचे परन्तु कोई उपाय पूरा नहीं दिखायी देता एतदर्थ आर्तध्यान करता हुआ बैठा हूँ। अपने • पिताके मुखसे ऐसे वचन सुनकर, अभयकुमार बोले-हे तात! आप નિરાકરણ કરવા પ્રયત્ન કરૂ દ યથાર્થ રૂપે નિસંકેચ થઇ મને કહો જેથી હું તેનું * અભયકુમારની એવી વિનયુકત વાણી સાભંળી રાજા બલિયા- પુત્ર એવી કઈ વાત નથી કે જે તાગથી છાની રખાય–તારી નાની માતા ચેલના રાણીને, મહાસ્વપ્નના ત્રીજા માસને અંતે દેહદ (ઇરછા) ઉત્પન્ન થયે છે કે તમારા ઉદરબલિમાસને પકાવી તળી ભેજી સેકી) મદિરાની સાથે આસ્વાદ કરૂ ? આ દેહદ પર ન થવાને કારણે તે મહાકુ ખિત તથા કૃશકાય થઈ આર્તધ્યાન કરી રહી છે, હે પુત્ર! તે દેહદને પૂર્ણ કરવા માટે અનેક ઉપાય વિચારી જયા પણ કેઈ ઉપાય પૂરો થાય તેમ દેખાતું નથી. એ માટે આર્તધ્યાન કરતે બેઠે છું પિોતાના પિતાના મુખેથી. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेलनाराज्ञाः दोहदवर्णनम् .. १०१ मम क्षुल्लमातुल्लनाया देव्यास्तस्य दोहदस्य सपत्तिर्भविष्यतीति कृत्वा श्रेणिकं राजानं ताभिरिष्टाभिर्यावद् वल्गुभिः समाश्वासयति, समाश्वास्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य आभ्यन्तरान् राहस्यिकान् स्थानीयान् पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः ! मृनात आर्द्र मांसं रुधिरं वस्तिपुटकं च गृहीत । こ ततः खलु ते स्थानीयाः पुरुषा अभयेन कुमारेण एवमुक्ताः सन्तः हृष्टाः करतल० यावद् प्रतिश्रुत्य अभयस्य कुमारस्यान्तिकात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्कम्य यत्रैव शूना, तत्रैवोपागच्छन्ति, आर्द्र मांसं रुधिरं बस्तिपुटकं च गृहन्ति, गृहीत्वा यंत्र अभयः कुमारस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल० तमार्द्र मांसं रुधिरं वस्तिपुटकं च उपनयन्ति ॥ ३० ॥ टीका - 'इमं च णं' इत्यादि - यथाभूतमवितथमसंदिग्ध मित्येतानि पदानि पूर्वमेव व्याख्यातानि । राहस्थिकान- गुप्तविचारकान् स्थानीयान् = गौरक्शालिनः स्वभृत्यान्, सुनातः=अमारिघोषितातिरिक्तवधस्थानात् आर्द्र मासं रुधिरं वस्तिपुटकं शोणितयुक्तमुदरान्तर्वर्तिभागं ( ' कलेजा' इति भाषायाम् ) गृह्णीत = आऩयतेत्यर्थः । ' शेषं' स्पष्टम् ॥ ३० ॥ ₹ 1 आर्तध्यानको छोडें मैं शीघ्र ऐसा उपाय करूँगा जिससे मेरी माताका दोहद (दोहला ) पूर्ण होजाय । इस तरह विनययुक्त मधुर वचनांसे अपने पिताका मन संतुष्ट करके अभयकुमार अपने महल आये । महल ऑकर उनने अपने गुप्त पुरुषों को बुलाये और कहा कि - हे देवालुप्रियो ! तुम लोग अमारि - घोषणाकी सीमा के बाहर के वयस्थान से बस्तिपुट के साथ गीला मांस लाओ। इसके बाद उन राजपुरुषोंने उनकी "आज्ञाका 'यथावत् पालन किया ॥ ३० ॥ એવા વચન સાભળી અભયકુમાર બાલ્યા−હે તાત । આપ આતધ્યાન છેડા, હુ જલદી એવા ઉપાય કરીશ કે જેથી મારી માતાના દોષદ પૂર્ણ થઈ જશે प्रमा- विनय वाणा मधुर वयनेोथी - योताना पितानु, भन सतुष्ट यभाडी અભયકુમાર પોતાને મહેલ ગયા ત્યા આવીને તેણે અંગત ગુપ્ત પુરૂષને મેલાવીને કહ્યુ કે હું દેવપ્રિયા ' તમે લોકા અમારિ ઘોષણા કરેલી સીમા ( રાજ્યની અમુક સીમાની અદર હિંસા ન કરવી એવી ઘેષણા-જાહેરાતવાળી જગ્યા ) થી उसोभानाभाथी' 'मस्तीपुर साथै बीड (तालु) भास सह मावो. મહા तेभनी आज्ञानु उद्या प्रमाणे यासन यु (30) त्या पोछी ते शन्नपुंषा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका मूलम् एणं से अभए कुमारे तं अलं मंसं रुहिरं कप्प-. णीकप्पियं करेइ, करिता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सेणियं रायं रहसिगंयं सयणिज्जंसि उत्ताणयं - निवज्जावेइ, निवज्जावित्ता, सेणियस्स उदरवलीसु तं अलं मंसं रुहिरं विरds, विरवित्ता, वत्थिपुडएणं वेढेइ, वेढित्ता सवंती - करणेणं करे, करिता चेल्लणं देविं उप्पिपासाए अवलोयणatri cards, ठवावित्ता पेलणाए देवीए अहे सपक्खं सपडिदिसिं सेणियं रायं सयणिज्जंसि उत्ताणगं निवज्जावेइ, सेणियस्स रन्नो उदखलिमसाई कप्पणीकप्पियाई करेइ, करिता से य भायणंसि पक्खिवति । १०२ तणं से सेणिए राया अलियमुच्छियं करेइ करिता मुहुतंतरेणं अन्नमन्नेणं सद्धिं संलवमाणे विइ ! तणं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो उदरवलिमंसाई गिण्हेs, गिण्हित्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लगाए देवीए उवणेइ । तणं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रन्नो तेहिं उदरवलि मंसेहिं सोल्लेहिं जाव दोहलं विणेइ । तणं सा चेल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं संमाणियदोहला विच्छिन्नदोहला तं गब्भं सुहं सुहेणं परिवहइ ॥ ३१ ॥ / छाया - ततः खलु सः अभयः कुमारस्तमाई मासं रुधिरं कल्पनी कल्पितं करोति, कृत्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रेणिकं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेलनाराजाः दोहदवर्णनम् राजानं रहसितं शयनीये उत्तानकं निषादयति, निषाद्य श्रेणिकस्योदरवलिषु तदाई मांसं रुधिरं विरावयति, विराव्य, बस्तिपुटकेन वेष्टयति, वेष्टयित्वा खवन्तीकरणेन करोति, कृत्वा चेल्लनां देवीमुपरिप्रासादे अवलोकनवरगतां स्थापयति, स्थापयित्वा वेल्लनाया देव्या अधः सपक्षं सप्रतिदिक् श्रेणिकं राजानं शयनीये उत्तानकं निषादयति, श्रेणिकस्य राझ उदरवलिमांसानि कल्पनीक ल्पितानि करोति, कृत्वा तच्च भाजने प्रक्षिपति । ततः खलु स श्रेणिको राजा अलीकम् करोति, कृत्वा मुहूर्तान्तरेण अन्योऽन्येन सार्दै संलपन् तिष्ठति । ततः स्खलु सः अभयकुमारः श्रेणिकस्य रोशः उदरवमिमांसानि गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपोगच्छति, उपागस्य चेल्लनाया देव्या उपनयति । ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रणिकस्य राजस्तै दरबलिमांसैः शूलैर्यावद दोहदं विनयति । १०३ ततः खलु सा चेल्लना देवी सम्पूर्णदोहद्रा एवं संमानितदोहदा - writer तं गर्भ सुखं सुखेन परिवहति ॥ ३१ ॥ टीका- 'तरणं से' इत्यादि - ततः = तदनन्तरं सः = अभयः कुमारः तद्= उपनीतम् - आईम् मांसं रुधिरं कल्पनीकल्पितं - कल्पनी= कर्त्तरिका 'कतरणी ' इति भाषायाम्, तया कल्पितं = कर्तितं करोति, कल्पशब्दोऽत्र छेदनार्थकः, उक्त -- 'सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च कल्प- शब्दं विदुर्बुधाः ॥ १ ॥' 'तपणं से' इत्यादि - उसके बाद अभयकुमारने एकान्त स्थानमें राजाको सीधा सुलाकर उनके पेटपर उस मांस-लोथडेको रक्खा, फिर उसे बस्तिर्म से बांधा, वह ऐसा प्रतीत होता था जैसे उससे रक्त झरता हो । तत्पश्चात् रानीको ऊपर - महलमें बुलवाई और उस दृश्यको देख सके एसे योग्य सुविधाजनक स्थानपर बैठाई बाद राजाको जिसे रानी ठीक तरहसे देख सके ऐसे तथा कुछ अन्धकारवाले स्थानपर सुलाया, 'तरणं से' त्याहि पछी मलयङ्कुमारे मेअंत स्थानमा रामने सीधा (सीता) સુવડાવી તેના પેટ ઉપર તે માંસના લેાથ ને રાખ્યા પછી તેને ખસ્તીચથી ખાધ્યા તે એવું લાગતુ હતુ કે જાણે તેમાંથી àાહી ઝરતુ હોય ત્યાર પછી રાણીને ઉપર-મહેલમાં એલાવી તથા તે આ દેખાવ જોઈ શકે એવા ચૈાગ્ય સુવિધાજનક સ્થાને બેસાડી, પછી રાજાને જેમ રાણી ખરાખર જોઇ શકે તેવા અને ચેાડા અધકારવાળા સ્થાને સુવાડયા પછી Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ . . . निरयावलिकासूत्रे - . कृत्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रेणिकं राजानं रहसिगतम् एकान्तेस्थितं शयनीये शुय्यायाम् उत्तानकं-उत्तानं निपादयति= शाययति, निपाय शाययित्वा श्रेणिकस्योदरवलिषु-उदरभागेषु तद्-उपनीतम् आई मासं रुधिरं च विरावयति-धातूनामनेकार्थत्वादुपसर्गवलाद्वा स्थापयती: त्यर्थः, विराव्य-स्थापयित्वा बस्तिपुटकेन वेष्टयति, वेष्टयित्वा, सवन्तीकरणेन करोति स्यन्दमानीकरोति, कृत्वा उपरि प्रासादे चेल्लनां देवीम्, अवलोकनवरगनाम् सम्यनिरीक्षणपरां. स्थापयति, यथा सा सम्यम् - द्रष्टुं शक्नुयात्तथा प्रासादोपयुषवेशयति, स्थापयित्वा, चेल्लनाया देव्या अधा नीचैः सपक्ष-समानवामदक्षिण पाश्च सप्रतिदिक-समानप्रतिदिग्भागं सर्वथा चेल्लनासंमुख यथा म्यात्तथा श्रेणिकं राजानं शयनीये उत्तानकं निपादयति-किञ्चिदन्धकारातमदेशे शाययति । श्रेणिकस्य राज्ञ उदरवलिमांसानि, कल्पनीकल्पितानि-शस्त्रकर्तिताः नीव करोति. कृत्वा नच-मांसं रुधिरं च भाजने प्रक्षिपति-निदधाति ।। ततः खलु स श्रेणिको राजा अलीकमच्छा-कपटमूच्छी करोति; कृत्वा मुहर्तान्तरेण अन्योऽन्येन-परस्परेण सार्द्ध संलपन वार्तालापं कुर्वन् तिष्ठति ।' तन्ः खलु स अभयकुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः उदरवलिमांसानि गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति उपागत्यं च चेल्लनाया देव्याः उपनयति समीपे स्थापयति । . . : :: ततः खलु सा चेल्लना' देवी श्रेणिकस्य राज्ञस्तैरुदरवलिमांसः शूलै = पक्वैः, यावद् दोहदं विनयति पूरयति । । . ' .. ततः खलु सा चेल्लना देवी, सम्पूर्णदोहदा सम्पूर्णमनोरथा एवं सम्मानितदोहदा आत्तदोहदा, विच्छिन्नदोहदा इष्टवस्तुप्राप्त्याऽन्यवस्त्वभिलापरहिता • तं गर्भ सुख मुखेन परिवहतिधारयति ।। ३१ ।। फिर राजाके पेटपर बँधे हुए उस मांसको कतरनी (कैंची) से काटकाटकर बर्तन में रख दिया, कुछ देर तक राजा झूठी मृ में पडे रहे, और बाद आपसमें घात-चीत करने लगे। हस प्रकार अभयकुमारने रानीका दोहद पूरा किया। रानी अपने दोहदके पूर्ण होनेपर मुखपूर्वक गर्भको धारण करने लगी॥३१॥ રાજાના પેટ ઉપર બધેલું તે માસ કાતરથી કાપીકાપીને વાસણમાં રાખી દીધું. થોડા વખત સુધી રાજ ખોટી મચ્છમાં પડયા રહ્યા અને પછી આપસમાં વાત કરવા લાગ્યા. આવી રીતે અભયકુમારે રાણીને દેહદ (ઇરછા) પુરે કર્યો. રાણું પોતાને દેહદ પુરે થવાથી ગર્ભને ધાણુ કરતી સુખ પૂર્વક રહેવા લાગી (૩૧). Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका, अ. १ चेल्लनादेव्याः विचारः १०५ ___ मूलम्-तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे जाव समुपजित्था, जइ ताव इमेणं दारएणं गभगएणं चेव पिउणो उदरवलिमसाणि खाइयाणि तं सेयं खलु मम एयं गभं साडित्तए वा गालि त्तए वा विद्धंसित्तए वा, एवं संपेहेइ संपेहित्ता तं गन्भं बहुहि गब्भसाडणेहि य गन्भपाडणेहि य गभगालणेहि य गम्भविद्धंसणेहि य इच्छइ साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा विद्धंसित्तए वा, नो चेव णं से गन्भे सडइ वा पडइ वा गलइ वा विद्धंसइ वा ॥ ३२ ॥ . छाया-ततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्र कालसमये अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत-यदि तावत् अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि तत् श्रेयः खलु मम एतं गर्भ शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा । एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य तं गर्भ बहुभिर्गर्भशातनैश्च गर्भपातनैश्च गर्भगालनैश्च गर्भविध्वंसनैश्च इच्छति शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा, नो चैव खलु स गर्भः शीर्यते वा पतति वा गलति वा विध्वंसते वा ॥ ३२ ॥ - टीका-'तएणं तीसे' इत्यादि-ततः तदनन्तरम् शायितुम् औषधैविशीर्णयितुं, पातयितुं गर्भाशयाब्दहिष्कर्तुम् , गालयितुं रुधिरादिरूपं कर्तुम् , 'तएणं तीसे' इत्यादि एक समय रानी रातको सोचने लगी कि इस बालकने गर्भमें आते ही अपने पिताके कलेजेका मांस खाया, इस लिये मुझे उचित है कि इस गर्भको सडानेके लिए, गिरानेके लिए और विध्वंस करनेके लिए कुछ उपाय करूं। ऐसा विचारकर रानीने औषधि आदिके 'तएणं तीसे' त्या એક સમય રાણી રાતમાં વિચાર કરવા લાગી કે આ બાળકે ગર્ભમાં આવતાં જ પિતાના બાપના કલેજાનું માસ ખાધું આથી મારે માટે ગ્ય છે કે આ ગર્ભને સડાવવા માટે પાડી નાખવા માટે–ગાળવા માટે અને નાશ કરવા માટે કોઈ ઉપાય ૧૪ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका विश्वंसयितुं सर्वथा नाशयितुम् , एवम्-उक्तमकारेण संप्रेक्षते-विचारयति, अन्यत् सर्व मुबोधम् ॥ ३२ ॥ मूलम्-तए णं सा चेल्लणा देवी तं गन्भं जाहे नो संचाएइ वहहिं गम्भसाडणेहि य जाव गन्भविद्धंसणेहि य साडित्तए वा जाव विद्धंसित्तए वा, ताहे संता तंता परितंता निम्विन्ना समाणा अकामिया अवसवसा अट्टवसदृदुहट्टा तं ग भं परिवहइ। तए णं सा चेल्लणा देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सोमालं सुरूवं दारयं पयाया ॥ ३३ ॥ छाया-ततः खल्ल सा चेल्लना देवी तं गर्भ यदा नो नोति बहुभिर्गर्भशातनैश्च यावद् गर्भत्रिध्वंसनैश्च शातयितुं वा यावद् विध्वंसयितुं या तदा शान्ता तान्ता परितान्ता निर्विण्णा सती अकामिका अपस्ववशा आतवशातदुःखार्ता तं गर्भ परिवहति । - ततः खलु सा चेल्लना देवी नवस मासेम बहुप्रतिपूर्णेषु यावत् मुकमारं सुरूपं दारकं प्रजाता ।। ३३ ।।। टीका-'तएणं सा' इत्यादि-ततः गर्भविध्वंसनप्रयासवैफल्यानन्तरं सा । चेल्लना देवी यदा तं गर्भ नाशयितुं नो शक्नोति तदा श्रान्ताग्लानि प्राप्ता, तान्ता-खेदं प्राप्ता, परितान्ता-विशेषतः खिमा, निविण्णा अतिशयितखेदापमा अकामिका-स्वकार्यसम्पादनाऽसमर्थतया वान्छारहिता, अत एव अपस्ववशापराधीना आर्तवशातदुःखार्ता आर्तवशम् आर्तध्यानवश्यताम् ऋता=गता (प्राप्ता) द्वारा वैसा ही उपाय किया, परन्तु वह गर्भ न सड सका, न गिर मका न गल सका और न उसका किसी प्रकार नाश हो सका ॥३२॥ 'तएणं सा' इत्यादि-बादमें रानी अपने प्रयासके विफल होने के ग्लानिको प्राप्त हुई, खेदको प्राप्त हुई, अपने इच्छित कार्यके विफल होनेसे असमर्थ हुई और आर्तध्यान वश दुःखी हाकर गर्भका કરૂં એવા વિચાર કરી રાણીએ વધી આદિથી એવાજ ઉપાય કર્યા પરંતુ તે ગર્ભ ન સડ, ન પચે, ન ગળે કે ન કોઈ પ્રકારે તેને નાશ થઈ શકે. (૩૨) 'तएणं सा'त्या. पछी राणी पाताना प्रयासमा नि०५ पाथी मसाल કવા લાગી ખેદ યુકત થઈ અને ધારેલું કાર્ય આર્મ. વિફલ થવાથી પતે અસમર્થ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकजन्मवर्णनम् १०७ इति आर्तवार्तामा चासौं दुःखेनार्ता - सा तथा आर्तध्यान विवशीभूता दुःखिता सती तं गर्भे परिवहति । ततः रूलु सा चेल्लना देवी नवसु मासेषु बहुमतिपूर्णेषु यावत् सुकुमारं सुरूपं दारकं पुत्रं प्रजाता=प्रजनितवती ॥ ३३ ॥ मूलम् - तरणं तीसे चेल्लणाए देवीए इमे एयारूवे जाव समुपपज्जित्था - जइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं वेव पिउणो उदरवलिमसाई खाइयाई, तं न नज्जइ णं एसदारए संवमाणे अम्हं कुलस्स अंतकरे भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं एवं दारगं उक्कुरुडियाए, उज्झावित्तए एवं संपेहेइ, संपेहित्ता दास - सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिए ! एवं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि । तए णं सा दासचेडी चेल्लणाए देवीए एवं वृत्ता समाणी करयल० जाव कट्टु चेल्लणाए देवीए एयमहं विणएणं पडिसुणेइ, पडिणित्ता तं दारगं करतलपुडेणं गिन्हइ गिव्हित्ता, जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झाइ । तयं णं तेणं दारएणं एगंते उक्कु - रुडियाए उज्झितेणं समाणेणं सा अंसोगवणिया उज्जोविया यावि होत्था । dj से सेणिए या इमीसे कहाए लट्ठे समाणे जेणेव असोगणिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता, तं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झियं पासेइ, पासित्ता आसुरुते जाव मिसि - मिसेमाणे तं दारगं करतलपुडेणं गिण्हs गिण्हित्ता, जेणेव पालन करने लगी, और फिर नौ मास बीतने पर सुकुमार एवं सुन्दर पुत्रको जन्म दिया ||३३|| ધર્મ અને આત ધ્યાનવશ દુ.ખી થઈને ગર્ભનું પાલન કરવા લાગી. તથા નવ માસ વીત્યા પછી સુકુમાર અને સુંદર પુત્રને જન્મ મધ્યે. (૩૩) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ निरयावलिको सत्रे चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेल्लणं देवि उच्चा वयाहिं आओसणाहि, आओसइ आओसित्ता उच्चावयाहिं निभच्छणाहिं निभच्छेड निभच्छित्ता एवं उद्धसणाहिं उद्धंसेइ, उद्धसित्ता एवं वयासी-किस्स णं तुमं मम पुत्तं एगते उक्कुरुडियाए उज्झावेसि ? तिकटु चेल्लणं देविं उच्चावयसवहसावियं करेइ करित्ता, एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए ! एयं दारगं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवड्देहि ।। तएणं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी लजिया विलिया विड्डा करयलपरिग्गहियं० सेणियस्स रन्नो विणएणं एयमह पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, तं दारयं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी सगोवेमाणी संवड्डइ ॥ ३४ ॥ ___ छाया-ततः खलु तस्याचेल्लनाया देव्या अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत-यदि नावद अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरबलिमांसानि खादितानि तन्न ज्ञायते खलु एप दारकः संवर्द्धमानः अस्माकं कुलम्यान्त कगे भविप्यनि तच्छ्रेयः खलु अम्माकम् एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितुम् , एवं सप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य दामचेटी शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं देवानुप्रिये ! एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ । ततः ग्वलु सा दासचेटी चेल्लनया देव्या एवमुक्ता सती करतल. यावत् कृत्वा चेल्लनाया देव्या एनमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य त दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागन्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झति । नतः खलु तेन दारकेण एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितेन सता माऽशोकवनिका उद्योतिता चाप्यभवत् । -. . ततः खलु स श्रेणिको राजा अम्याः कथाया-लब्धार्थः सन् यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितं , पश्यति दृष्ट्वा आशुरक्तः यावद् मिसिमिसीकुर्वन् तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति," Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका अ.१ देव्याः कुमारं निर्जनस्थले त्यक्तुं चेटिं पतिआज्ञा १०९ गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनां देवीमुचावचाभिराक्रोशनाभिराक्रोशति, आक्रुश्य उच्चावचाभिनिर्भर्त्सनाभिनिर्भसंयति निर्भय, एवमुद्धर्षणाभिरुद्रर्षयति, उद्धर्ण्य एवमवादी-किमर्थ खलु त्वं मम पुत्रमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झयसि ? इति कृत्वा चेल्लनां देवीमुच्चावचशपथशापितां करोति, कृत्वा एवमवादीत्-त्वं खलु देवानुपिये ! एनं दारकमनुपूर्वेण संरक्षन्ती संगोपयन्ती संवर्द्धय । __ ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राज्ञा एवमुक्ता सती लज्जिता प्रीडिता विड्डा करतलपरिगृहीतं० श्रेणिकस्य राज्ञो विनयेन एतमर्थ प्रतिश्रृणोति, प्रतिश्रुत्य त दारकमनुपूर्वण संगोपयन्ती संवर्धयति ॥ ३४॥ टीका-'तएणं तीसे' इत्यादि-ततः तत्पश्चात् पुत्रजन्मानन्तरं तस्याः: चेल्लनाया देव्या अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणलक्षणः यावत् पदेन “अज्झथिए, चिंतिए, पत्थिए, कप्पिए, मणोगए मंकप्पे" एतेषां संग्रहः। एतेपां व्याख्या प्रागुक्ता, समुदपद्यत जातः-यदि तावत् अनेन दारकेण-पुत्रेण गर्भगतेनैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि, मया तन ज्ञायते खलु एष दारकः । संवर्द्धमानः वृद्धि प्राप्तः सन् प्रौढावस्थायाम् अस्माक कुलस्य वंशस्य अन्तकर:नाशको भविष्यात तत्-तस्मात्कारणात् खलु-निश्चयेन एकान्ते-निर्जने स्थले एनं दारकम् उत्कुरुटिकायां कचवरपुञ्जस्थाने 'उकरडी' इति भाषायाम् उज्झितुं त्यक्तुमस्माकं श्रेया कल्याणकारकम् ।। एवम् अनेन प्रकारेण संपेक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य दासचेटी शब्दयति आइयति शब्दयित्वा एवम् वक्ष्यमाणम् अवादीत्-हे देवानुप्रिये ! त्वं खलु गच्छ एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ-प्रक्षिप । __ 'तएणं तीसे' इत्यादि-बाद रानीके मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि इस बालकने गर्भमें 'आते ही पिताकी उदरवलिका मांस खाया । यदि यह बडा होकर समर्थ बनेगा तो न जाने हमारे वंशका किस प्रकार नाश करेगा? इस लिये उचित हैं कि इसे एकान्त स्थान, जहाँ कोई न देख सके ऐसी उकरडीपर फिकवा हूँ। . 'तएणं तोसत्या . पछी..रावाना मनमा मेवा विया२ स्पन्न थयो8આ બાળક ગર્ભમાં આવતા જ બાપની ઉદરવલીનું માસ ખાધુ જે માટે થતા સમ मन त न , सभास शनी या रे ना २२. ' मन लयित . माने हात स्थान या श मेवा ४२७1 64२३वी देवा. .. .. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावळिका सूत्रे ततः = वेल्लनया देव्यैवमुक्ता सती सा दासचेटी 'तथास्तु' इतिकृत्वा करतलपरिगृहीतमञ्जलिपुटं मस्तके कृत्वा निधाय चेल्लनाया देव्या एनम्= अर्थम् = निदेशम् प्रतिशृणोति = स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य तं दारकं करतलपुटेन गृहाति, steer as aanaनका = अशोकवाटिका तथैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झति-पक्षिपति । ११० ततः खलु तेन दारकेण एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितेन सता साशोकवनिका उद्योतिता = प्रकाशिता चाऽप्यभवत् । ततः=दारकप्रक्षेपणानन्तरं स श्रेणिको राजा अस्याः कथायाः = दारकप्रक्षेपणवृत्तान्तस्य लब्धार्थः = ज्ञातसमाचारः सन् यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितं पश्यति दृष्ट्वा चआशुरक्तः आशु=शीघ्रं रक्तः = कोपेनाऽरुणनयनः यावत् मिसिमिसन = क्रोधवा ऐसा अपने मनमें विश्वारकर दासीको घुलवाया और उससे कहा- हे देवानुप्रिये ! इसको छिपाकर लेजा और एकान्त उकरडी पर डाल आ । इस तरह चेलना रानीकी आज्ञा पाकर दासीने उस बालकको हाथोंसे उठाया और अशोकवाटिकामें जाकर एकान्त स्थानमें उकरडीपर डाल दिया । वह बालक वडा तेजस्वी था इस कारण उससे अशोकवाटिका प्रकाशयुक्त हो गयी । पश्चात् राजा श्रेणिकको किसी तरह विदित हुआ कि रानी वेलनाने जन्मते पालक (नवजात शिशु) को कहीं फिकवा दिया है, तय राजा ढूंढते हुए अचानक अशोकवाटिकामें आये और उकरडीपर पढे हुए वालकको देखा । उसे देखकर राजा उसी समय वढे क्रुद्ध એવે પાતાના મનમા વિચાર કરી દાસીને ખેાલાવી, અને તેને કહ્યું--હે દેવાનુપ્રિયે ! આને સ તાડીને લઇ ન્ત અને એકાત ઉકરડે નાખી દે. ભાવી રીતે ચેલના રાણીની આજ્ઞા થતા દાસીએ તે બાળકને હાથ વડે ઉપાડીને અશેકવાટિકામા જઈને એકાંત સ્થાનમા ઉકરડે ફેંકી દીધા. તે બાળક બહુ તેજસ્વી હતા આ કારણે તેનાથી અશેકવાટિકા પ્રકાશયુક્ત ખની ગઇ. પછી રાજા શ્રેણિકના જાણુવામાં કઇ રીતે આવ્યું કે રાણી ચેલનાએ જન્મતા (નવજાત શિશ્યુ) આળકને કયાંક ફેકાવી દીધા છે. ત્યારે રાજા પોતે તપાસ કરવા માટે ગયાક્રમથી તપાસ કરતાં અÀકવાટિકામા આવ્યા અને ઉકરડા ઉપર પડેલા ખાળીને દીઠા. તેને જોઈને તેજ વખતે રાજા બહુ ગુસ્સે થયા અને ક્રોધમાં મળતા ચા Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनीटीका अ. १ श्रेणिकस्य उपालम्भः लया ज्वलन् सन् तं दारकं करतलपुटेन गृहाति गृहीत्वा यत्रैव चेलना देवी तत्रोपागच्छति उपागस्य चेल्लनां देवीम् उच्चावचामि: नानाप्रकाराभिः आक्रोशनाभिः=मानसिककोपैः आक्रोशति-तिरस्कारपूर्वकं क्रुध्यनि, आक्रुश्य पकुप्य उच्चावचाभिः नानाविधाभिः भर्त्सनाभिः दुर्वचनापमानः निर्भर्त्सयति परुषवचनैरपमानयति, निर्भय एवम् अनेन प्रकारेण उद्धर्षणाभिः-तर्जन्यादिदर्शनपूर्वकतिरस्कारैः, उद्धर्षयति-तिरस्करोति, उद्धर्ण्य एवम् अनुपदवक्ष्यमाणम् अवादीत्-हे देवि ! त्वं किमर्थं खलु मम पुत्रमेकान्ते उत्कुरुटिकायां दासचेटया समुज्झयसि ?, इति कृत्वा-उक्तरीत्या आक्रोशनादिकं विधाय चेल्लनां देवीम् उच्चावचशपथशापितां = नानाप्रकारकदेवगुरुधर्मादिशपथैः शापितां = प्रतिज्ञापितां करोति, कृत्वा, एवम् अमुना प्रकारेण अवादी-हे देवानुप्रिये ! , त्वम् एनं दारक अनुपूर्वेण क्रमेण संरक्षन्ती आपद्धयः, संगोपयन्तीवस्त्राच्छादनगर्भगृहप्रवेशनादिभिः क्षेमं प्रापयन्ती सवर्द्धय स्तन्यपानादिना वृद्धि मापय । ततः हुए और क्रोधसे जलते हुए वे उस बालकको हाथमें लेकर चलना रानीके पास पहुंचे, और अनेक प्रकारके आक्रोश शब्दोंसे रानीका तिरस्कार किया, अनेक प्रकारके कठोर शब्दोंसे भर्तीना की, तर्जनी आदि अंगुली दिखाकर बहुत अपमान किया और बोले-हे रानी ! किस लिये तूने मेरे इस पालकको दासी द्वारा उकरडीपर फिकवा दिया। इस तरह चेल्लना रानीको उलाहना देकर देव, गुरु, धर्म आदिकी शपथ देकर इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम इस वालककी आपत्तिसे रक्षा करी और वस्त्रसे ढांककर प्रसूतिगृहमें ले जाओ. जिस प्रकार यह सुखी रहे वैसा प्रयत्न करो और स्तनपान आदि कराकर इसका अच्छी तरह पालन-पोषण करो। તેઓ તે બાળકને હાથમાં ઉપાડી લઈને ચેલના રાની પાસે પહોંચ્યા અને અનેક પ્રકારના આકાશ શબ્દોથી રાણીને તિરસ્કાર કર્યો અનેક પ્રકારના કઠોર શબ્દોથી બનાદર કરી તર્જની આગળી દેખાડી બહુ અપમાન કર્યું અને કહ્યું–હે રાણ' શા માટે તે મારા આ બાળકને દાસી દ્વારા ઉકરડીએ ફેંકાવી દીધે આવી રીતે ચલના રાણીને ઠપકે આપી દેવ, ગુરૂ, ધર્મ આદિના સેગ દ આપી–આ પ્રમાણે બેલ્યા–હે દેવાનુપ્રિયે! તમે આ બાળકની આંપત્તિથી રક્ષા કરો અને વસ્ત્રથી ઢાકી પ્રસૂતિગૃહમાં લઈ જાઓ જેવી રીતે આ સુખી રહે તેવા પ્રયત્ન કરો તથા સ્તનમાન આદિ કરાવી તેને સારી રીતે પાલન-પોષણ કરો * Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ निरयावलिकासत्रे श्रेणिकराजनिदेशानन्तरं 'खलु' वाक्यालङ्कारार्थः, सा श्रेणिकराजमहिपी 'चेल्लना' देवी श्रेणिकेन राजा एवम् पूर्वोक्तप्रकार प्रतिपालननिदेशम् उक्तानिवेदिता सती 'लज्जिता, स्वतः, वीडिता परतः, विट्ठा-उभयनो लज्जिता, देशी शब्दः, एते समानार्थकाः, यद्वा-'व्यलीके' ति छाया व्यलीका पतिप्रतिकृलाचरणेन सापराधा करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा श्रेणिकस्य राज्ञो-राजसम्बन्धिनम् एतम्दारकंपरिपालननिदेशरूपम्अर्थम्=पुत्ररक्षणनिदेशं प्रतिश्रृणोति-म्वीकरोति, स्वीकृत्य तं दारकं अनुपूर्वेण= यथावत् संरक्षन्ती संगोपयन्ती संवर्द्धयति-पालनपोषणादिना वृद्धि नयति ॥३४ ।। मूलम्-तए णं तस्स दारगस्स एगते उक्कुरुडियाए उज्झिञ्जमाणस्त अग्गं गुलियाए कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च अभिनिस्सवइ । तए णं से दारए वेयणाभिभूए समाणे महया महया सदेणं आरसइ । तएणं सेणिए. राया तस्स दारगस्स आरसितसदं सोचा निसम्म जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता त दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता तं अग्गं गुलियं आसयंसि पक्खिवइ, पक्खिवित्ता पूयं च सोणियं च इस प्रकार राजाके कहनेपर रानी, अपने इस अकर्तव्यपर स्वतः लज्जित हुई, 'राजा मेरे इस अकर्तव्य कर्मसे अपने मनमें क्या समजे होंगे?' ऐसा विचार कर राजासे लज्जित हुई, इस प्रकार रानी चेलना दोनों ही ओरसे बडी ही लज्जित हुई । पतिके प्रतिकूल आचरणसे रानीको अतिशय खेद और पश्चाताप हुआ। बाद वह हाथ जोडकर सविनय पुत्रपालनरूप राजाकी आज्ञाको स्वीकार कर बालकका भलीभाँति पालन करने लगी ॥ ३४ ॥ આ પ્રકારે રાજના કહેવાથી ઘણી પિતાને આ દુષ્કૃત્યથી સ્વત: લજિજત થઈ, “જા મારા આ દુષ્કૃત્યથી પિતાનાં મનમાં શું સમજ્યા હશે એમ વિચારીને રાજથી લજા પામી, આ પ્રમાણે બન્ને પ્રકારે બહુ લજિત થઈ પતિના વિરૂદ્ધ આચરણથી રાષ્ટ્રને અતિશય ખેદ અને પશ્ચાત્તાપ થયે બાદ હાથ જોડીને સવિનય પુત્રપાલનરૂપરાજાની આજ્ઞાને સ્વીકાર કરી બાળકનું સારી રીતે પાલન કરવા લાગી. (૩૪). Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकद्वयत्यागादि वर्णनम् आसएणं आमुसइ । तए णं से दारए निव्वुए निव्वेयणे तुसिणीए संचिटुइ । जाहे वि य णं से दारए वेयणाए अभिभूए समाणे महया महया सदेणं आरसइ ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, तं दारगं करतलपडेणं गिण्हइ, तं चेव जाव निव्वेयणे तुसिणीए संचिटुइ । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो तइए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति, जाव संपत्ते बारसाहे दिवसे अयमेयारूवं गुणनिप्फन्नं नामधिज करेंति, जम्हाणं अम्हं इमस्स दारगस्स एगंते उक्कुरुडियाए पज्झिज्जमाणस्स अंगुलिया कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया, तं होउ णं अम्हं इमस्त दारगस्स नामधेनं 'कूणिए'। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज्ज करेंति 'कूणिय'त्ति ॥ ३५ ॥ ___ छाया-ततः खलु तस्य दारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ्यमानस्याऽग्राङ्गलिका कुक्कुटपिच्छकेन दूना चाऽप्यभूत्, अभीक्ष्णमभीक्ष्णं पूर्य च शोणितं चाभिनिस्स्रवति । ततः खलु स दारको वेदनाभिभूतः सन् महता महता शब्देन आग्सति । ततः खलु श्रेणिको राजा तस्य दारकस्याऽऽरसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य यत्रैव स दारकस्त्रयोपागच्छति, उपागत्य, तं दारक करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा तामग्रालिकामास्ये प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य, पूर्य च शोणितं चास्येन आमृशति । ततः खलु स दारको निवृतो निवेदनस्तूष्णीकः संतिष्ठते । यदपि च खलु स दारको वेदनयाऽभिभूतः सन् महता-महता शब्देन आरसति तदाऽपि च खलु श्रेणिको राजा यत्रत्र सदारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य त दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, तदेव यावत् निर्वेदनस्तूश्णीकः संतिष्ठते। ततः खलु तस्य दारकस्याम्बापितरौ तृतीये दिवसे चन्द्रभूर्यदर्शनं कारयतः यावत् संपाप्ते द्वादशाहे दिवसे इममेतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः यस्मात् खलु अस्माकमस्य दारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्जयमानस्या - लिका कुक्कुटपिच्छकेन दुमिता (कूगिता) तद् भवतु खलु अस्माकमस्य दारक ૧૫ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ 'निरयावलिकामत्रे स्य नामधेय 'कूणिकः' । ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नामधेयं कुरुतः 'कृणिकः' इति ॥ ३५ ॥ टीका-'तएणं तस्स' इत्यादि-ततः गृहममानयनानन्तरं तस्य दारकस्य एकान्ने-उत्कुटिकायाम् उज्यमानस्य अग्रालिका कुक्कुटपिच्छकेन=पिच्छ एव पिच्छका चन्चुः, कुक्कुटम्य पिच्छकः कुक्कुटपिच्छकः, तेन-कुक्कुटचन्चुना, दूना-परितापिता ददति यावदिति च अभूत् । तेनाङ्गुलितोऽभीक्ष्णमभीक्ष्णं-पुनः पुनः पूर्य-पितदुर्गन्धशोणितम्-'पीप'-इति भाषायाम्-शोणितं रक्तं च अभिनिस्रवति । ततः = तम्मात् = पूयगोणिताभिस्त्रावात् स द्वारको वेदनाभिभूतः तीबदुःखपीडिनः सन् महता-महता-उच्चैरुचैः शब्देन-चीत्कारेण आरसति-विलपति । ततः खलु श्रेणिको राजा तस्य दारकम्य आरसितशब्दम् = आर्तनादं श्रुत्वा निशम्य = हृदयेनावधार्य यत्रैव स दारकस्तत्रैवो पागच्छति, उपागत्य तं दागकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा ताम्-कुक्कुटदष्टामग्राद्गुलिकाम् अद्गल्या अग्रभागम् आस्ये =स्वमुखे प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य-पूर्य शोणितं च आम्येन-मुखेन आमृशतिचापयति । ततः तस्माचीपणाद खलु स दारको निवृतः शान्तः निवेदना वेदनारहितः तूणीका समौनः संतिप्ठते-आस्ते। एवं यदा यदा स आतंम्बरेण रौति तदा तदा श्रेणिक एवमेव करोति ।। ' 'तपणं तम्म' इत्यादि एकान्त उकरडीपर डाले हुए उस बालककी अंगुलीके अग्रभागको कुक्कुट (मुर्ग)ने काट ग्वाया जिमसे उसकी अंगुली पक गयी और उनसे बारबार रक्त और पीप बहने लगा, इमसे उमको वही वेदना होती थी और आर्तस्वरस मदन करता था । उसका आनेनाद सुनकर गजा उसके पास आता था और बालकको उठाकर उमकी अंगुली अपने मुहमें लेकर झरते हह शोणित और पीपको चूम २ कर थूकता था, जिसमें उस बालकको वेदना कम होती थी 'तरण नम्म' न्यादि એકાત ઉડી ઉપ• નાખી દીધેલ તે છેકગની આગળીના આગલા ભાગને કુકડે કડી ગો જેથી તેની આગળી પાકી ગઈ તથા તેમાથી વાર વાર લેહ અને પરૂ વહેવા લાગ્યું આથી તેને બહુ વેદના થતી હતી અને તેથી તે આર્તવસ્થી રૂદન કર્તા હતા તેને અનાદ સાભળી રાજ તેની પાસે આવતા અને બાળકને ઉપાડીને તેની આગળી પાત ના મેમા લઈને ઝરતા લેહી અને પરૂને ચુસી-ચુસીને ચૂકી નાખતે હતા જેથી તે બાળકને વદના ઓછી થતી હતી. અને તે શત (રડને બધ) થઈ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकनामकरणवर्णनम् - ततः अङ्गुलीपीडाशमनानन्तरं तस्य दारकस्य मातापितरौ तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं कारयतः कारितवन्तौ यावत् सम्भाप्ते द्वादशे दिवसे एतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुता-यस्मात् खलु उत्कुरुटिकायां पतितस्यास्य दारकस्याङ्गलिका कुक्कुटपिच्छ केन दृमिता=पीडिताऽतः कूणिता-संकुचिता जाता तब-तस्मान्का रणाद भवतु अस्य दारकस्य नाम 'कूणिक' इनि, तदनु मातापितरौं तस्य दारकस्य नाम कुरुतः 'कणिक' इति ॥ ३० ॥ - मूलम्-तएणं तस्स कूणियस्स अणुपदेणं ठिइवडियं च जहा मेहस्य जाव उप्पिं पासायवरगए विहरइ, अटुओदाओ॥३६॥ - छाया-ततः खलु तस्य कणि कस्यानुपूर्वेण स्थितिपतितं च यथा मेघस्य यावत् उपरि प्रासादवरगतो विहरति । अष्ट दायाः ॥ ३६ ॥ और वह चुप होजाता था । जब कभी भी यह बालक वेदनासे छटपटाने लगता था तभी राजा श्रेणिक आकर उनकी वेदना उसी प्रकारसे शान्त करता था। बाद माता पिताने तीसरे दिन उम बालकको चन्द्र सूर्यका दर्शन कराया। यावत् बारहवें दिन बडे उत्सवके साथ उस बालकका नाम रखते हुए बोले कि-उकरडीपर डाले हुए हमारे इस बालककी अंगुली सुगेके काट खानेसे कूणित-संकुचित होगई इम कार से इस बालकका गुण-निष्पन्न नाम 'कणिक' रक्खा जाय, ऐसा सोचकर माता-पिताने उसका नाम 'णिक' रक्खा । ॥ ३५ ॥ 'तएणं तस्स' इत्यादि नामकरणके बाद कणिकका कुलपरम्परागत उत्सव-विवाहादि જતો હતો. જ્યારે જયારે તે બાળક વેદનાથી તડફડવા લાગે ત્યારે ત્યારે રાજા શ્રેણિક આવીને તેની વેદના તેજ રીતે શાંત કરતા હતા બાદ માતા પિતાએ ત્રીજે દિવસે તે બાળકને ચંદ્ર સૂર્યના દર્શન કરાવ્યા પછી બારમે દિવસ મોટા ઉત્સવથી તે બાળકનું નામ પાડતા બોલ્યા કે–ઉકરડી ઉપર નાખી દીધેલા અમારા આ બાલકની આગળી કુકડાના કરડી ખાવાથી કૃણિક (કુચિત) થઈ ગઈ તેથી આ બાળકને ગુણનિપન્ન (ગુણ દર્શાવતુ) નામ “કૃણિક રાખવું જોઈએ. मा पियारी माता पिता तेनु नाम लिप रायु (34) 'तएणं तस्स' त्या. નામકરણ પછી કૃણિકનાં કુલપરંપરાનુસાર ઉત્સવ-વિવાહ આદિ કાર્ય મેધ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११६ निरयावलिकास्त्रे टीका-'तपणं तम्म' इत्यादि । तता नामकरणानन्तरं तस्य कणिकस्य अनुपूर्वेण अनुक्रमेण स्थितिपतितं-कुलक्रमागतम् उत्सवादिकम् यथा मेघस्य मेघकुमारस्येव करोति यावत् अष्टाष्ट दाया:= श्वशुरेण जामात्रे दीयमानाः पदार्थाः 'दहेज' इति भापायाम् ॥ ३६ ।। मूलम्-तएणं तस्स कूणियस्स कुमारस्त अन्नया पुवरत्ता० जाव समुप्पजित्था-एवं खल्लु अहं सेणियस्स रनो वाघाएणं नो संचाएमि सयमेव रज्जसरि करेमाणे पालेमाणे विहरित्तए, तं सेयं मम खलु सेणियं रायं निलयबंधणं करेत्ता अप्पाणं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावित्तए चिकटु एवं संपेहिता सेणियस्स रन्नो अंतराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे२ विहरइ। तएणं से कुणिए कुमारे सेणियस्स रन्नो अंतरं वा जाव मम्मं वा अलभमाणे अन्नया कयाइ कालादीए दस कुमारे नियघरे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासो-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्हे सेणियस्स रन्नो वाघाएणं नो संचाएमो सयमेव रजसिर करेमाणा पालेमाणा विहरित्तए, तं सेयं देवाणुप्पिया! अम्हं सेणियं रायं नियलवंधणं करेत्ता रज्जं च रडं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्रागारं च जयवणं च एकारसभाए विरिचित्ता सयमेव रजसिरिं करेमाणाणं जाव विहरित्तए । कार्य मेघ कुमारके समान हुए । श्वसुरकी ओरसे आठ-आठ दहेज वस्तुऐ आयी और श्रेष्ठ प्रासादपर पूर्वपुण्योपार्जित मनुष्यसम्बन्धी पाची इन्द्रियोंके सुखका अनुभव करने लगे || ३६ ॥ કુમા- સમાન થયા ધનના તરફથી આઠ-આઠ દહેજ વસ્તુ આવી અને ઉત્તમ મહેલમા પપુપાતિ મનુષ્યસબધી પચે ઈ દ્રિના સુખનો અનુભવ કરવા લાગ્યા (૩૬) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ श्रेणिकवन्धनकूणिकराज्याभिषेकश्च ११७ तएणं ते कालादीया दस कुमारा कणियस्स कुमारस्स एयम विणएणं पडिसुणेति । तएणं से कणिए कुमारे अन्नया कयाइं सेणियस्स रन्नो अंतरं जाणाइ, जाणित्ता सेणियं रायं नियलबंधणं करेइ, करित्ता अप्पाणं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावेइ।तएणं से कणिए कुमारे राया जाए महया०॥३७॥ छाया--ततः खलु तस्य कणिकस्य कुमारस्य अन्यदा पूर्वरात्रा० यावत्समुदपद्यत-एवं खलु अहं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन न शक्नोमि स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् विहतु, तच्छ्रेयो मम खलु श्रेणिकं राजानं निगडवन्धनं कृत्वा आत्मानं महता-महता राज्याभिषेकेणाभिषेचयितुम् , इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रक्ष्य श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि च छिद्राणि च विरहान् च प्रतिजाग्रद् विहरति । ततः खलु स कणिकः श्रेणिफस्य राज्ञोऽन्तरं वा यावत् मर्म वा अलभमानः अन्यदा कदाचिन कालादिकान् दशकुमारान् निजगृहे शब्दपति, शब्दयित्वा एवमवादी-एवं खलु देवानुप्रियाः ! वयं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन नो शक्नुमः स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन्तः पालयन्तो विहर्तुम् , तच्छ्रेयो देवानुमियाः ! अस्माकं श्रेणिकं राजानं निगडबन्धनं कृत्वा राज्यं च राष्ट्र च बलं च वाहनं च कोशं च कोष्ठागारं च जनपदं च एकादशभागान् विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वाणानां पालयतां यावद् विहत्तुंम् । ततः खलु ते कालादिका दशकुमाराः कुणिकस्य कुमारस्यैतमर्थ विनयेन मतिशृण्वन्ति । ततः खलु स कूणिकः कुमारः अन्यदा कदाचित् कूणिकस्य राज्ञोऽन्तरं जानाति, ज्ञात्वा श्रेणिक राजानं निगडवन्धनं करोति, कृत्वा आत्मानं महता महता राज्याभिषेकेणाभिषेचयति । ततः खलु स कूणिकः कुमारो राजा जातो महा० ॥ ३७ ॥ टीका-'ततः खलु तस्ये' त्यादि-अन्यदा तस्य कूणिक-कुमारस्य 'तएणं तस्स' इत्यादिवाद एक समय कणिककुमार रात्रिके पिछले पहरमें विचार 'तएणं तस्स ' त्या પછી એક સમય કૂણિક કુમાર રાત્રિના પાછલા પહેરમાં વિચાર કરવા લાગ્યા Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामले पूर्वरात्रापररात्रावसरे यावत् विचारो जातः-एवं खलु श्रेणिकभूपस्य व्याघातेन= प्रतिवन्येन राज्यश्रियं कुर्वन पालयन म्वयमेव स्वतन्त्रः विहर्तु-विचरितुं अहं नो शक्नोमि तत्-तस्मात् कारणात् 'श्रेणिकराजम्य निगडबन्धन कन्वा विशालराज्याभिषेकेणात्मानमभिषेचयितुं मम श्रेयः' इति कृत्वा इति संकल्पं विधाय एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि= अवकाशान् छिद्राणि-दृपणानि विरहान कान्तानि च प्रतिनाग्रन-अन्वेषयन्, विहरति । तदनु श्रेणिकभूपम्य मर्म-गुप्तत्रुटि गज्य-गायनं राज्यलक्ष्मी वा राष्ट्र देशं बलं सैन्यं वाहनं या स्थादिकम् कोशंम्भाण्डागारं, कोष्ठागारंधान्यगृहं, जनपदं स्वदेशम्, अन्यत्सर्व मुगमम् ॥ ३७ ॥ ____ मूलम्-तए णं से कूणिए राया अन्नया कयाई पहाए करने लगे कि-श्रेणिक राजाका गज्यशालनरूप प्रतिवन्ध होनेके कारण में लग्यपूर्वक गज्यलक्ष्मीका उपभोग नहीं कर सकता है इस लिए मुझे उचित है कि इस श्रेणिक राजाको कीसी तरह बन्धनमें डाल हूँ और स्वयं राजा बनकर राज्यलक्ष्मीका उपभोग कम। ऐसा विचार कर राजाका छिद्र देखने लगे । श्रेणिक राजाका काइ छिद्र, दृषण और मर्म हाथ नहीं आनेपर एक समय काल आदि दस कुमारीको अपने घर में बुलाकर सलाह करने लगे-बोले कि हम लोग राजाक कारण ही राज्यश्रीका उपभोग नहीं कर सकते इस लिए किसी तरह राजाको बन्धन में डालकर हम लोग राज्य-राष्ट्र, सेना, वाहन, कोडा, कोष्टागार और स्वदेश इनके ग्यारह भाग करके स्वयं राज्यश्रीका उपभोग करें। इस बातको सभी कुमारोंने स्वीकार कर लिया। કે એ લુક ગાન રાજા શાસનરૂપ પ્રતિબંધ હોવાને કારણે સુખ–પૂર્વક રાજ્યલક્ષમીને ઉપગ હ કરી શકતું નથી માટે મને ઉચિત છે કે આ શ્રેણિક રાજાને કઈ પણ રીતે બંધનમાં નાખી દઉ અને હું પિતે રાજા બનીને રાજ્યલક્ષ્મીને ઉપભોગ કરૂ, એમ વિચાર કરી રાજાના છિદ્ર જેવા મડે શ્રેણિક રાજાનું કેઈ છિદ્ર હૃષણ અને મર્મ હાથ ન આવવાથી એક સમય કાલ આદિ દશ કુમારને પિતાના ઘરમાં બોલાવી સલાહ કરવા લાગે કહ્યું કે-આપણે રાજાના કારણથી જ રાજ્યશ્રીને ઉપ ગ કરી શક્તા નથી આથી કઈ પણ રીતે રાજને બંધનમાં નાખી આપણે રાજ્ય, રાષ્ટ્ર, સેના, વાહન, ખાને, કે ઠાર તથા દેશ એના અગીયાર ભાગ કરીને આપશે. પિતજ રાજ્યશ્રીને ઉપગ કરીએ. આ વાતને બધા કુમારોએ સ્વીકાર કરી લીધે. । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनीन्दरबो टीका अ. १ श्रेणिकवात्सल्यपरिचय वर्णनम् जाव सवालंकार-विभूसिए चेल्लणाए देवीए पायवंदए हव्वमागच्छइ। तएणं से कुणिए राया चेल्लणं देवि ओहय० जाव झियायमाणिं पासइ, पासित्ता, चेल्लणाए देवीए पायग्गहणं करेइ, करिता चेल्लणं देवि एवं वयासी-किं णं अम्मो ! तुम्हं न तुट्टी वा न ऊसए वा न हरिसे वा नाणंदे वा, जं णं अहं सयमेव रजसिरिं जाव विहरामि ? ॥३८॥ छाया-ततः खलु स कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् स्नातः यावत् सर्वालङ्कारविभूपितश्चेलनाया देव्याः पादवन्दको हव्यमागच्छति ।। ततः खलु स कणिको राजा चेल्लनां देवीम अपहत० यावद ध्यायन्ती पश्यति, दृष्ट्वा चेल्लनाया देव्याः पादग्रहणं करोति, कृत्वा, चेल्लनां देवीमेवमवादीत्- िखलु अम्ब ! तब न तुष्टिा नोत्सवो वा न हो वा नानन्दो वा ? यत्खलु अहं स्वयमेव राज्यश्रियं यावद् विहरामि ।। ३८ ॥ टोका-'तएणं मे' इत्यादि-तनाराज्यप्राप्त्यनन्तरं स कणिको राजा अन्यदा कदाचित् कस्मिंश्चित्समये स्नानः यावत् सर्वालङ्कारविभूपितः चेल्लनाया देव्याः निजमातुः पादवन्दकाचरणौ वन्दितुं सहर्ष ससम्भ्रम हव्यं शीघ्रम् आगच्छति । ___ ततः आगमनानन्तरं खलु = निश्चयेन स कूणिको राजा निजमातरं बाद एक समय मौका पाकर कूणिकने राजा श्रेणिकको बन्धनमें डाल दिया और राज्याभिषेक कराकर अपने आप राजा बन गये ॥३७॥ 'तएणं से' इत्यादि इसके अनन्तर एक दिन वह राजा कूणिक सभी प्रकार के वस्त्र और अलङ्कारोसे सज्जित होकर अपनी माता चेल्लना देवीके चरण वन्दनके लिये हर्ष एवं उत्सुकताके साथ जल्दी २ आये, और પછી એક સમય તક જોઈન કૂણિક રાજા શ્રેણિકને બધનમાં નાખી દીધા અને રાજ્યાભિષેક કરાવી પિતે રાજા બની બેઠે (૩૭) तएणं से 'त्यादि * ત્યાર પછી એક દિવસ તે રાજા કૃણિક તમામ પ્રકારના વસ્ત્ર અને અલ કારોથી સજજત થઈ પિતાની માતા ચેલના દેવીના ચરણ–વદન માટે હવે અને Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० निरयावलिका सूत्रे चेल्लनां देवीम् अपहनमनःसंकल्पा यावत् ध्यायन्तीम् आर्तध्यानं कुर्वन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा चेल्लनाया देव्याः पादग्रहणं करोतिन्चरणौ वन्दते, कृत्वा चरणवन्दनं विधाय चेलनां देवीमेवमवादी-हे अम्ब ! किं खलु-किमर्थ तब न तुष्टिः न सन्तोपः वा अथवा नोत्सवः =न चित्तोल्लासः, वा न हर्पः = न प्रमोदः, नानन्दा-न मुखम्, यदहं खलु स्वयमेव महता राज्याभिषेकेण विशालराज्यश्रियं कुर्वन्=पालयन् विहरामिविचरामि ॥ ३८ ॥ मूलम्-तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं रायं एवं वयासीकहाणं पुत्ता ! ममं तुट्टी वा उस्सए वा हरिसे वा आणंदे वा भविस्सइ ? जं णं तुमं सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अच्चंतनेहाणुरागरतं नियलवंधणं करिता अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिर्सिचावेसि । तएणं से कुणिए राया चेल्लणं देवि एवं वयासी-घाएउकामेणं अम्मो ! मम सेणिए राया, एवं मारेउ, बंधिउं, निच्छभिउकामए णं अम्मो ! ममं सेणिय राया, तं कहणणं अम्मो मम सेणिए राया अञ्चतनेहाणुरागरत्ते ? । तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं कुमारं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तुमंसि ममं गन्भे आभूए समाणे तिण्हं मासाणं उन्होंने अपनी माताको दीन हीन अवस्थामें आर्तध्यान करती हुई देखा । वह आर्तध्यान करती हुई चेल्लना देवोको चरणवन्दन करके बोले-हे जननि ! मैं अपने तेज-प्रतापसे महाराज्याभिषेकके साथ इस विशाल राज्यश्रीका उपभोग करता है तो क्या इसे देखकर तुम्हे मन्तोष नहीं हो रहा है, तुम्हारे चित्तमें न उल्लास है, न प्रमोद है और न सुख ही, इसका क्या कारण है ? ॥ ३८॥ ઉત્સુકતાની સાથે જલદી-જલદી આવ્યું. અને તેણે પોતાની માતાને દીન હીન અવસ્થામાં આર્તધ્યાન કરતી જોઈ તે આર્તધ્યાન કતી ચેલના દેવીના ચરણ વદન કરીને બે હે જનની ! પિતાના તેજ-પ્રતાપથી મહારાજ્યાભિષેકપૂર્વક આ વિશાલ રાયશ્રીનો ઉપગ કરી રહ્યો છું, તે શું આ જોઈને તેને સંતોષ થતું નથી? તારા મનમાં નથી ઉલાસ, નથી પ્રભેદ કે નથી સુખ આનુ શું કારણ છે? (૩૮) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ भेणिकराजमरणादिवर्णनम् ૨૨૪ बहुपडिपुन्नाणं ममं अयमेयारूवे दोहले पाउ भूएं-धन्नाओ णं ताओं अम्मयाओ जाव अंगपडिचारियाओ निरवसेसं भाणियव्वं जाव जाहे वि य णं तुमं वेयणाए अभिभूए महया जाव तुसिणीए संचिट्ठसि एवं खलु तव पुत्ता ! सेणिए राया अचंतनेहाणुरागते । तरणं से कूणिए राया चेल्लणाए देवीए अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म चल्लणं देविं एवं वयासी दुहु णं अम्मो ! मए कयं, सेणियं रायं पिये देवयं गुरुजणगं अचंतनेहाणुरागरतं निलयबंधणं करतेणं, तं गच्छामि णं सेणियस्स रन्नो यमेव नियाणि छिंदामि तिकट्टु परसुहत्थगए जेणेव चारगसाला तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तणं सेणिए राया कणियं कुमारं परसुहत्थगयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एसणं कूणिए कुमारे अपत्थियपत्थिए जाव सिरिहिरिपरिवजिए परसुहत्थगए इह हव्वमागच्छइ । तं न नज्जइ णं ममं केणइ कुमारेणं मारिस्सइ त्तिकहु भीए जाब संजाय भए तालपुडगं विसं आसगंसि पक्खिवइ । तण से सेणिए गया तालपुडगविसे आसरांसि पक्खित्ते समाणे मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि निप्पाणे निच्चि जीववि प्पजढे ओइन्ने । तरणं से कूणिए कुमारे जेणेव चारगसाला तेणेव उवागयं, सेणियं रायं निप्पाणं निञ्चिदं जीवविप्पजढं ओनं पास, पासित्ता, महया पिइसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुनियते विव चंपगवरपायवे वसत्ति धरणियलंसि सव्वंगेहिं संनिवडिए । तपणं से कूणिए कुमारे मुहुत्तंतरेण आसत्थे समाणे रोयमाणे, कंदमाणे, सोयमाणे, विलवमाणे, एवं वयासी अहो ૧૬ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ . . . . निरयावलिकामो णं मए अधन्नेणं अपुन्नेणं अकयपुन्नेणं दुट्ट कयं सेणियं रायं पियं देवयं अञ्चतनेहाणुरागरत्तं नियलवंधणं करतेणं, मम मूलागं चेव णं सेणिए राया कालगए-त्तिकटु ईसर-तलवर जाव संधिवाल सद्धिं संपरिखुडे रोयमाणे२ इडि सक्कारसमुदएणं सेणियस्स रन्नो नीहरणं करेइ, करित्ता बहूई लोइयाइं मयकिच्चाई करेइ । तएणं से कूणिए कुमारे एएणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूइ समाणे अन्नया कयाइ अंतेउरपरिढालसंपरिखुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए रायगिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छद । तत्थवि णं विउलभोगसमिइसमन्नागए कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्था । तए णं से सेणिए राया अन्नया कयाइ कालादीए दसकुमारे सद्दावेइ, सदावित्ता, रजं च जाव जणवयं च एकारसभाए विरिंचइ, विरिचित्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरइ ॥ ३९ ॥ छाया-ततः खलु सा चेल्लना देवी कूणिक राजानमेवमवादीत्-कथं खलु पुत्र ! मम तुष्टि; उत्मवो वा हो वा आनन्दो वा भविष्यनि यतवलु त्वं श्रेणिकं राजानं प्रिय दैवतं गुरुजनकमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कृत्वा आन्मानं महता२ राज्याभिषेकेण अभिषेचयसि ।। 'तएणं सा' इत्यादि कृणिकके ऐसे बचन सुनकर रानी चेल्लनाने राजा कृणिकको इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-हे पुत्र ! तुम्हारे इस गज्याभिषेकसे मुझे मन्तोप अथवा चित्तमें उल्लास प्रमोद एवं सुख किस प्रकार 'तएणं सा'ane કૃઝિકના એવાં વચન સાભળીને ગળી ચેલનાએ રાજા કુણિકને આવી રીતે કહેવું શરૂ કર્યું હે પુત્ર ! તા- આ રાભિષેકથી મને સ તેલ અથવા મનમાં ઉ૯લાસ, પ્રદ એટલે સુખ કેવી રીતે થાય? કેમકે તુ.. અત્યંત સ્નેહ તથા અનુરાગયુત,દેવ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरिपोधनीटीका अ. १ श्रेणिकराजमरणादिवर्णनम् . . “ततः खलु स कूणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-घातयितुकाम खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा, एवं मारयितुं, वन्धयितुं, निःक्षोभयितुकाम: खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा, तत्कथं खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा; ऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः । . 'ततः खलु सा चेल्लना देवी कूणिक कुमारमेवमवादी-एवं खलु पुत्र ! त्वयि मम गर्भे आभूते सति त्रिषु मासेषु, बहुमतिपूर्णेषु ममायमेतद्रूपो, दोहदः प्रादुर्भूतः-धन्याः खलु ता अम्बाः यावत् अङ्गप्रतिचारिकाः, निरवशेष हो ? जब कि तुम अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे युक्त, देव गुरुजन सदृश अपने पिता, प्रिय राजा श्रेणिकको बन्धनमें डालकर विशाल राज्य सुखका उपभोग करते हो। यह सुनकर राजा कूणिकने चेल्लना देवीसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-हे माता ! यह राजा श्रेणिक जो मेरी घात चाहनेवाला है एवं मेरा मरण और बन्धन चाहनेवाला है तथा मेरे मनको दुःख देनेवाला है वह मुझपर अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे अनुरक्त कैसे हो सकता है ? कूणिकके इस प्रकार कहनेपर चेल्लना देवीने उससे कहा-हे पुत्र ! सुन-जब तू मेरे गर्भमें आया उसके तीन महीने पूर्ण होते मुझे इस प्रकारका दोहद (दोहला) उत्पन्न हुआ कि वे माताएँ धन्य हैं जो अपने पतिके उदरवलिमांसको-तल-- भूनकर मदिराके साथ खाती हुई यावत् अपने दोहद (दोहला)को અને ગુરુજન સમાન પિનાના પ્રિય રાજા શ્રેણિકને બંધનમાં નાખી આ વિશાલ રાજ્ય સુખને ઉપભેગ કરે છે આ સાંભળી રાજા કૃણિકે ચેલના દેવીને આ પ્રમાણે કહેવા માંડ્યું છે માતા ! આ રાજા શ્રેણિક જે મારે ઘાત ચાહે છે અને મારું મરણ તથા બ ધન ચાહવાવાળે છે તથા મારા મનને દુખ દેનારે છે તે મારા ઉપર અત્યંત સ્નેહ તથા અનુરાગથી અનુરક્ત કેમ હોઈ શકે ? કૂણિકના આ પ્રકારે કહેવાથી ચેલના દેવીએ તેને કહ્યું – હે પુત્ર! સાંભળ-જ્યારે તું મારા ગર્ભમાં આવ્યું ત્યારથી ત્રણ મહિના પૂરા થતાં મને એવી જાતને દેહદ (તીવ્ર ઈચ્છા) ઉત્પન્ન થયે કે – તે માતાને ધન્ય છે કે જે પોતાના પતિના ઉદરવલિ માંસને તળી લૂંછને મદિરાની સાથે ખાતા પિતાને દેહદ સંપૂર્ણ રીતે પૂરી કરે છે. હું પણ જે રાજ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~निरयाबलिकासमे १२४ भणितव्यं यावत् यदापि च खलु त्वं वेदनयाऽभिभूतो महता यावत् तूष्णीकः संतिष्ठसे, एवं स्वऌ तत्र पुत्र ! श्रेणिको राजाऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः । · पूर्ण करती हैं। मैं भी यदि राजा श्रेणिकके उदरबलिका मांस खाउँ तो पहा अच्छा हो ।" इस प्रकार दोहद होनेपर मैं दिन-रात आर्तध्यान करने लगी और दोहदके पूरे न होनेके कारण सूखकर पीली पढ गई । जब तुम्हारे पिताको यह खबर दासियों द्वारा ज्ञात हुई तो उन्होंने मुझसे मेरे दोहदका वृत्तान्त सुनकर अभयकुमार द्वारा उसकी पूर्ति की । दोहद ( दोहला ) पूर्ण होनेके बाद मैंने विचार किया कि इस बालकने गर्भमें आते ही अपने पिताका मांस स्वाया तो जन्म लेकर न जाने क्या करेगा ? इस लिए इस गर्भको किसी भी उपाय से नष्ट कर डालूं, परन्तु वह गर्भ नष्ट न हो सका और तू पैदा हुआ, तेरा जन्म होनेपर मैने तुझे दासीके द्वारा एकान्त स्थान उकरडीपर फिकवा दिया। पश्चात् ग्रह वृत्तान्त तेरे पिता राजा श्रेणिकको मालूम हुआ, उन्होंने तेरी खोज की और खोजकर तुझे मेरे पास ले आये । उन्होंने तेरा परित्याग करने के कारण मेरी कडी भर्त्सना की और मुझे शपथ देकर कहा कि तुम इस पच्छेका अच्छी तरह पालन पोषण करो । उकरडीपर पडे हुए तेरी अंगुली के अग्र भागको मुर्गेने काट लिया जिससे तुझे ही वेदना होती थी, तू " શ્રેણિકનું ઉદરલિનુ માસ ખાઉ તે બહુ સરૂ થાય. આ પ્રકારના ઔર ચવાથી હું દિન-રાત આ ધ્યાન કરવા લાગી અને દાદ પૂરા ન થવાથી- સુકાઈને પીળી પડી ગઈ ત્યારે તારા પિતાને આ ખબર દાસીએ દ્વારા જાણુવામાં આવી ત્યારે તેમણે મારા મોઢેથી મારા દોહદનું વૃત્તાત સાભળીને તે અભયકુમાર દ્વારા પરિપૂર્ણ કર્યા દાદ પુરા થયા પછી મેં વિચાર કર્યો કે આ બાળકે ગર્ભ મા આવતજ પાતાના પિતાનું માંસ ખાધુ તે જન્મ લઈને તે ખબર નહિ કે તે શુ કરશે? માટે આ ગર્ભને કાઇ પણ ઉપાયથી નાશ કરી નાખું. પણ ત ગર્ભના નાશ ન થઇ શકયા અને તુ પદા થયેા, તારા જન્મ થયા પછી મેં તને દાી મારફત એકાત-યાન ઉકરડે કેકાવી દીધા પછી 쳇 હકીકતની તારા પિતા રાજા શ્રેણિકને ખબર પડી તેમણે તારી તપાસ કરી અને તને ચૈાધીને રાખ્ત મારી પાસે લાવ્યા. તેમણે મારા પરિત્યાગ કરવા માટે મને મહુ " ઠા આપ્યા અને મને સેગ આપીને કહ્યું કે આ ખાળકનુ સારી રીતે પાલન પેષણ કરે. ’ તુ ઉકરડે પડ્યા હતા ત્યારે તારી આગળીના આગલા ભાગને કુકડા મડચે Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ श्रेणिकराजमरणादिवर्णनम् , -- ततः खलु स कूणिको राजा चेल्लनाया देव्या अन्तिके' एतमय श्रुत्वा निशम्य चेल्लनां देवीमेवमवादीद-दुष्ठु खलु अम्ब ! मया कृतं श्रेणिक राजानं प्रियं दैवतं गुरुजनकमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडवन्धनं कुर्वता, तद् गच्छामि खलु श्रेणिकस्य राज्ञः स्वयमेव निगडानि छिनधि, इति, कृत्वा परशुहस्तगतो यत्रेव चारकशाला तत्रैव प्रधारयति गमनाय । दिन-रात कष्टसे चिल्लाता रहता था, उस समय तेरे पिता तेरी कटी हुई अंगुलीको अपने मुहमें लेकर पीप और शोणितको चूसकर थूक देते थे, तप तुझे शांति होती थी और तू चूप होजाता था। जब कभी भी तुझे पीडा होती थी तब तेरे पिता इसी तरह किया करते थे, और तू शांति पानेके कारण धुप होजाता था । हे पुत्र ! इस कारण मैं कहती हूँ कि तेरे पिता राजा श्रेणिक तुझपर अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे युक्त है। . वह कूणिक राजा चेल्लना रानीके मुंहसे इस प्रकार वृत्तान्त मुनकर कहने लगे-हे माता ! मैंने सभी प्रकारके हित करनेवाले इष्ट-, देवता स्वरूप परमोपकारक अत्यन्त स्नेह-अनुरागसे युक्त अपने पिता राजा श्रेणिकको पन्धनमें डाला यह उचित नहीं किया सो मैं स्वयं जाकर उनके पन्धनको काटता हूं, ऐसा कहकर कुठार हाथमें लेकर जहाँ कारागार था वहां जाने के लिए चला। હતું જેથી તને બહુ વેદના થતી હતી અને તું તે કષ્ટથી દિવસ રાત બહુ રડયાજ કરતા હતા તે સમયે તારા પિતા તારી કપાયેલી આગળીને પોતાના મેમા લઈ પરૂ અને લેાહી જે નીકળતું હતું તે ચૂસીને ચૂકી દેતા હતા. ત્યારે તને શાતિ થતી હતી અને તું છાને રહી જાતું હતું. જ્યારે વળી પાછી પીડા થતી ત્યારે તારા પિતા એવીજ રીતે કરતા ' હતા. અને તું શાતિ મળવાથી છાને રહી જાતે હતા હે પુત્ર! આ કારણથી હું કહું ? છું કે તારા પિતા રાજા શ્રેણિક તારા પર બહુ સ્નેહ અને અનુરાગ રાખતા હતા. એ ' તે કૃણિક રાજા ચેલના રાણીના મેઢેથી આ પ્રમાણે હકીકત સાભળી કહેવા લાગ્યા- હે માતા ! સર્વ પ્રકારે હિત કરવાવાળા, ઈષ્ટદેવ સ્વરૂપ પરમ ઉપકારક, બહુજ સ્નેહભાવ રાખવાવાળા મારા પિતા રાજા શ્રેણિકને બે ઘનમાં નાખ્યા તે વાજબી ન કર્યું તેથી હું પિતે જઈને તેમનાં બધન કાપી નાખું છું. એમ કહી કુહાડી હાથમાં લછે જ્યા કેદખાનુ હતુ ત્યા ગયા. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ... ... ... . . : निरयावलिकास्त्रे - ततः खलु श्रेणिको राजा कूर्णिकं कुमारं परहस्तगतमेजमानं पश्यति, दृष्ट्वा एवमत्रादी-एप खलु कूणिकः कुमारः अप्रार्थितप्रार्थितो यावत् श्रीही. परिवर्जितः परशुहम्तगत इह हव्यमागच्छति, तन्न ज्ञायते खलु मां केनापि कुमारेण (कुत्सितमारेण) मारयिष्यतीति, कृत्वा भीतो यावत् संजातभयस्तालपुटकं पिपमास्ये प्रक्षिपति । ततः खलु स श्रेणिको राजा तालपुटकविणे - आस्ये मक्षिप्ते सतिमुहर्त्तान्तरेण परिणम्यमाने निष्पाणो निश्चेष्टो जीवविप्रत्यक्तोऽवतीर्णः । ततः खलु स कूणिकः कुमारो यत्रैव चारकशाला तत्रैवोपागतः, उपागत्य श्रेणिकं राजानं निष्माणं निश्चेष्टं जीवविप्रत्यक्तमवतीर्णं पश्यति दृष्टा महता पितृशोकेन आक्रान्तः सन् परशुनिकृत्त इव चम्पकवरपादपः 'धस' इति धरणीतले सर्वाङ्गः संनिपतितः । . उसके बाद राजा श्रेणिकने, हाथमें कुठार लिए हुए कणिककुमारको आते हुए देखकर उनके मुंहसे सहसा ये शब्द निकल पडे कि-यह कृणिककुमार अनुचितको चाहनेवाला कर्तव्यहीन यावत् लज्जावर्जित हाथमें कुटार लिए हुए जल्दीसे आ रहा है, न जाने किम प्रकार यह मुझे बुरी तरह मारेगा, इस यातसे डरकर राजा श्रेणिकने अपनी अगूठीमें रहे हुए तालपुट विषको अपने मुख में रख लिया । मुंहमें रखने के बाद वह विपक्षणमात्रमें मारे शरीरमें फैल गया और राजा प्राण एवं चेष्ठासे रहित हो मृत्युको प्राप्त हो गया। इसके बाद कणिककुमार कारागारमें आया और आकर प्राण एवं चेष्टासे रहित-मरेहए-राजा श्रेणिकको देखा । देखकर पिताके - ત્યાર પછી રાજાએ શુકે હાથમાં કુહાડી લઈને કુણિક કુમારને આવતા જોઈને તેના થી તુરત આવા શબ્દ નીકળી પડયા કે- આ કૂણિક કુમાર અનુચિંત ચાહવાવાળા કર્તવ્યહીન નિર્લજજ થઈને કુહાડી લઈ જલ્દી અહીં આવે છે. ખબર નથી પડતી કે તે મને કેવી રીતે ખરાબ રીતે મારી નાખશે. આ વાતથી ડરી જઈને રાજા શ્રેશિંક પિતાની અંગુઠીમાં રહેલ તાલપુટ ઝેર પિતાના મેમા મૂકહ્યું. એમાં મૂક્યા પછી તે ઝેર એક પળ માત્રામાં આખા શરીરમાં ફેલાઈ ગયું અને રાજા પ્રાણુથી અને હલન-ચલનથી રહિત થઈ મૃત્યુ પામ્યા ત્યાર પછી કૃણિક કુમાર કેદખાનામાં આવ્યા અને આવીને રાજા શ્રેણિકને પ્રાણ અને હલન-ચલનથી હત–મરેલા જોયા, જેઈને પિતાના મરણજન્ય સહન Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ श्रेणिकराजमरणादिवर्णनम् ... ." - । ततः खलु स कणिकः कुमारो मुहूर्तान्तरेण आस्वस्थः सन् रुदन क्रन्दन् शोचंन् विलपन् एवमवादीत्-अहो ! खलु मया अंधन्येन अपुण्येन अकृतपुण्येन दुष्टु कृतं श्रेणिकं राजानं मियं दैवतमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडवन्धनं कुर्वता, मम मूलकं चैव खलु श्रेणिको राजा कालगतः, इति कृत्वा ईश्वर-तलवर-यावत-सन्धिपालैः साई संपरितो रुदन् ४ (क्रन्दन् शोचन विलपन ) महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन श्रेणिकस्य राज्ञो नीहरणं करोति, कृत्वा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति । ततः खलु स कणिकः कुमार एतेन महता मनोमानसिकेन दाखेनाभिभूतः सन् अन्यदा कदाचित अन्तःपुरपरिवारसंपरितः सभाण्डामत्रोपमरणजन्य असहनीय कष्टसे आक्रान्त हो तीक्ष्ण कुठारसे कटे हुए कोमल चम्पक वृक्षकी तरह भूमिपर धडामसे गिर पडा । इसके अनन्तर वह कूणिककुमार कुछ समय बाद मूर्छारहित हुआ, मूर्छाके हट जानेपर वह रोता हुआ करुण शब्दसे आर्तनाद ओर विलाप करता हुआ इस प्रकार बोला-मैं अभागा हूँ, पापी है, पुण्यहीन हूँ, जो कि मैंने बुरा कार्य किया, देवगुरुजनके समान परम उपकारी और स्नेह-ममतासे अनुरक्त अपने पिता श्रेणिक राजाको पन्धनमें डाला और मेरे ही कारण इनकी मृत्यु हुई । ऐसा कहकर अपने कुटुम्बके साथ रुदन करता हुआ बडे समारोहके साथ राजा. की अन्तिम लौकिक क्रिया की । उसके बाद वह कूणिक राजगृहमें अपने पिताकी उपभोग सामग्रियोंको देख-देखकर अत्यन्त दुःखी ન થાય એવા દુખથી રૂદન કરતા થકા તાણધાર વાળા કુહાડીથી કાપેલા કોમળ ચંપક વૃક્ષની પિઠે જમીન ઉપર ધડાંગ પડી પડયા - ત્યાર પછી તે કૃણિક કુમાર ઘેડા સમય પછી મૂછહિત થયા મૂછ હટી ગયા પછી તે રૂદન કરતા કરૂણ શબ્દથી આર્તનાદ કરતા શાક અને વિલાપ કરતા કરતા આ પ્રમાણે બેલ્યા-હુ અમાગી છુ. પાપી છુ, પુથહીન છું, જેથી મેં ખરાબ કાર્ય કર્યું દેવ ગુરૂજન સમાન પરમ ઉપકારી અને સ્નેહ મમતાથી લાગણી રાખનાર પિતાનાં પિતા શ્રેણિક રાજાને બધનમાં (કેદખાનામા) નાખ્યા અને મારાજ કારણથી એનુ મૃત્યુ થયું એમ કહીને પિતાના કુટુંબીઓની સાથે રૂદન કરતા થકા બહુ સમારેહપૂર્વક રાજા શ્રેણિકના અતિમ લૌકિક ક્રિયા કરી. ત્યાર પછી તે કૃણિક જગૃહમા પિતાના પિતાની ઉપગ સામગ્રીઓ ને Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ... १२८ निरयावसिकायो करणमादाय राजगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य रच चम्पानगरी तत्रैवो. पागच्छति । तत्रापि खलु विपुलभोगसमितिसमन्वागतः कालेन अल्पसोको जातश्चाप्यभूत् । __नतः ग्वलु स कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् कालादिकान् दश कुमारान् शब्दयति, शब्दयित्वा राज्यं च यावज्जनपदं च एकादशभागान् विभजति, विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन विहरति ।। ३९ ॥ टीका-'तएणं सा' इत्यादि । प्रियं सर्वथा हितकारकम् । दैवतम् इष्टदेवतास्वरूपम् । गुरुजनकम्-गुरुजनवर परमोपकारकम् । अत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं-विलक्षणप्रेमरागरञ्जितम् । प्रधारयतिनिश्चिनोति गमनाय, गन्तुमुद्यत इत्यर्थः । अवतीर्णः मनुष्यायुः समाप्तवान् । विपुलभोगसमितिसमन्वागत! विपुलभोगानां समितिः प्रवृत्तिः, तत्र समन्वागतासमनुमाप्तः विपुलभोगान् भुजानः कालेन-कियता कालेन विगतशोकोऽप्यभवत् । शेष सुगमम् । होता था । कहीं वह पिताका सिंहासन देखता था तो कहीं उनकी शय्या, कहीं उनके आभूषण, तो कहीं उनके वस्त्र, ये सब देखते उसे पिताकी स्मृति अनवरत आती रहती थी, और उन्हें अपने किये हुए पाप कर्मोंका भी स्मरण होजाता था जिससे असीम कष्टको प्राप्त होता था। इस कारण वह वहाँ नहीं रह सका और एक समय अपने अन्तःपुर परिवार सहित अपनी समस्त सामग्री लेकर राजगृहसे बाहर निकला और चलकर जहा चम्पा नगरी थी वहाँ गया, और चम्पा नगरीको अपनी राजधानी बनाकर निवास करने लगा। कुछ समय व्यतीत होजानेपर वह पिताके शोकको भूल गया। જેઈને બહુજ દુઃખી થતા હતા કયાક તે પિતાનું સિંહાસન જતા હતા તે કયાંક તેમની શા; કયાંક તેમનાં આભૂષણ તે કયાંક તેમનાં વસ્ત્રો આ સૌ જોઈ તેઓને પિતાનું સ્મરણ વારંવાર થયા કરતું હતું અને તેમણે પિતે કરેલાં પાપ કર્મોનું પણ મરણ થઈ આવતું હતું જેથી પાર વગરનું કષ્ટ પ્રાપ્ત થતું હતું. આ કારણથી તે ત્યાં રહી શકયા નહિ અને એક સમય પિતાનાં અંતઃપુર કુટુંબ-સહિત પિતાની તમામ સામગ્રી લઈને રાજગૃહથી બહાર નીકળ્યા. અને ચાલીને જ્યાં ચંપાનગરી હતી ત્યાં ગયા. અને પછી ચંપાનગરીને પિતાની રાજતી બનાવીને ત્યાં રહેવા લાગ્યા. જે સમય વ્યતીત થઈ ગયા પછી તે પિતાના શાકને ભૂલી ગયા. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरचोधिनी टीका अ. १ कणिकस्य श्रेणिक घातकत्वे.कारणम् १२५ अत्र प्रसङ्गमाप्त कणिकस्य श्रेणिकघातकत्वे कारणं दयते- .. श्रेणिको भूपः प्राग वीतरागवचनबहिर्वर्तितया सम्यक्त्वाभावाद् देवगुरुधर्मान निर्णतुं नाशकत् । चेल्लनापाणिपीडनानन्तरं तदीयप्रेरणयाऽनाथिमुनिसदुपदेशेन सम्यक्त्वमलभत । .. पुरा श्रेणिको राजा कदाचित् विमलपवनं सेवितुं शीतलमन्दसुगन्धमन्धवाहमनाथं मत्तकोकिल कलरवजितं बनमगमत् । तत्रैकस्तापसाश्रम आसीत्। . उसके बाद वह कूणिककुमार अपने भाई काल आदि दस कुमारोंको धुलाकर राज्यके ग्यारह भाग करके उन लोगोंको बाट दिया व अपने राज्यका पालन स्वयं करने लगा। कूणिक श्रेणिककी मृत्युमें क्यों कारणभूत यना? यह कथानक प्रासङ्गिक है एतदर्थ इसे नीचे दिखलाते हैं राजा श्रेणिक पहले वीतरागधर्मी नहीं होनेसे उसमें सम्यक्त्व नहीं था, अतएव वह देव गुरु और धर्मका निर्णय करनेमें असमर्थ था । परन्तु जब उसका विवाह चेल्लनाके साथ हुआ तब उसकी प्रेरणा व अनाथि मुनिके सदुपदेश द्वारा उसे सम्यक्त्वका लाभ . हुआ और वह बीतरागके धर्मको मानने लगा । पहले वह श्रेणिक राजा एक समय शुद्ध वायु सेवन करने के लिए वनमें गया। वह वन शीतल, मन्द, सुगंध वायुसे युक्त एवं मत्त कोकिलके कलरवसे कूजित था । वहा एक तापसका आश्रम था । उस आश्रममें एक ત્યાર પછી તે કુણિક કુમાર પોતાના ભાઈ કાલ આદિ દશ કુરેન બેલાવીને રાજયના અગીયાર ભાગ કરી તે લેકેને વહેંચી દીધુ તથા પિતાના રાજ્યનું . પાલન પિત કરવા લાગ્યા કુણિક શા માટે શ્રેણિકના મૃત્યુમાં કારણભૂત બન્યા? આ કથાનક પ્રાસંગિક છે માટે તે નીચે બતાવીએ છીએ – રાજા શ્રેણિક પહેલા વીતરાગધમ ન હોવાથી તેનામાં સમ્યકત્વ નહતું. આથી તે દેવ ગુરૂ તથા ધર્મને નિર્ણય કરવામાં અસમર્થ હતા પરંતુ જ્યારે તેને 'વિવાહ ચેતનાની સાથે થયે ત્યારે તેની પ્રેરણાથી અને અનાથિ મુનીના સદુપદેશથી તેને સમ્યક્ત્વને લાલ થયે અને તે વીતરાગના ધર્મને માનવા લાગ્યા. પહેલાં તે શ્રેણિક રાજા એક સમય શુદ્ધ વાયુ સેવન કરવા માટે વનમાં ગયા તે વન શીતલ, મંદ, સુંગધ વાયુથી યુક્ત અને મત્ત થયેલી કેયલના કલરવથી કુજિત હતું ત્યાં એક તપસ્વીને આશ્રમ હતો તે આશ્રમમાં એક તાપસ મહિને મહિને ઉપવાસ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासत्रे तस्मिन्नाश्रमे कश्चित्तापसो मासं मासं तपसा क्षपयन् पारणां कुर्वाण आमोत् । राजा तं तपस्विनं विलोक्य समतुष्यत्, तापसं च स्वभवने पारणां कर्तु प्रार्थयत् । तापसेनोक्तम्-पारणायां पञ्च दिनानि माम्पतमवशिष्यन्ते पञ्चदिवमानन्तरं पारणायै तव राजधानीमागमिष्यामि, हे राजन ! ममायं नियमो यत्-'पारणादिने एकस्मिन्नेव गृहे भिक्षामाचगमि, योकत्र भैक्ष्यं न लभे तदा मासं क्षपयामि' इति तापसनियमं श्रुत्वा श्रेणिको राजा निजराजधानीमागमत् । ततः पञ्चमु दिवसेषु व्यतीतेषु पारणाऽहे तापसः श्रेणिकराज-द्वारमागतः । तस्मिन् दिने राज्ञो महत्या शिरोवेदनया राजभवनं व्याकुलमामोतापस मास-मासके उपवाससे पारणा करता था। राजा उस तापमको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और उससे प्रार्थना की-हे महात्मन् ! आप मेरे यहाँ पारणा करनेके लिये पधारें । राजाकी ऐसो प्रार्थना सुनकर तापम योला हे राजन् ! अभी मेरे पारणेमें पांच दिन घटते (अवशिष्ट) हैं उनके पूर्ण होजानेपर में तुम्हारे यहाँ पारणेके लिये आउँगा परन्तु मेरा एक नियम है उसको ध्यानमें रखना-पारणेके दिन केवल एकही घर भिक्षाके लिए जाता हूँ । यदि वहां भिक्षा नहीं मिली तो फिर मासक्षपण (खमण) के बाद ही पारणा करता हूँ। गजा उस तापसके इस नियमको सुनकर अपनी राजधानीको लौट गया । उसके पांच दिन बीत जानेके पश्चात् वह तापस पारणेके दिन, : राजा श्रेणिकके हारपर आया। उस दिन राजाके सिरमें असह्य वेदना थी जिससे मचा गजभवन व्याकुल था, इसलिये उस કરી પાણી કરતા હતા - તે તાપસન જઈને અત્ય ત ખુશી થયા અને તેઓને પ્રાર્થના કરી-હે મહાત્મન આપ મારે ત્યાં પારણા કરવાને પધારો ” રાજાની એવી પ્રાર્થના ભાભળી તાપસ બે – હે રાજન ! હજી મારે પારણા કરવાને પાચ દિવસ અવશિષ્ટ (બાકી) છે. તે પૂરા થઈ ગયા પછી હું તારે ત્યા 1 માટે આવીશ પરંતુ મારા એક નિયમ છે તે ધ્યાનમાં રાખજે-હું પારણાને દિવસે માત્ર એકજ ઘેર ભિક્ષા માટે જાઉં છું. જે ત્યાં ભિક્ષા ન મળે તો વળી પાછા ફરીને માસ ખમણ પછીજ પારણા કરૂ છું. રાજ તે નાપસને આ નિયમ સાભળીને પિત ની રાજધાનીએ પાછે ગયે. તેને પાચ દિવસ વીતી ગયા પછી તે તાપરા પારણને દિવસ જ શ્રેણિકના ( હરે આવ્યા. તે દિવસ રાજાના માથામાં અસહ્ય વેદના થતી હતી જેથી આખું રાજભવન Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका अ. १ कूणिकस्य श्रेणिक घातकत्वे कारणम् १३१ दिति तापसं सत्कतु कोऽपि नाशकत् । तापसस्तादृशं राजभवनं निरीक्ष्य ततः परावृत्तो द्वितीयं मासं क्षपयितुं प्रारभत । शिरोवेदनायां शान्तायां राजा तापसमुपागच्छत् तापसश्च स्वनियमं राजानं श्रावितवान् । भूपः पुनः पारणार्थं तापसं प्रार्थितवान् । पारणादिने श्रेणिकराजधानीमसौ तापस आगतः । तस्मिन् दिने राजभवनं वह्निप्रदीप्तमासीदिति तापसागमनं राज्ञा विस्मृतम् अतस्तापसः परावृतत् । ततस्तृतीयं मासं स क्षपयितुं मारभत । वह्नौ शान्ते राजा तापसतापसका किसीने सत्कार नही किया । तापस इस प्रकार राजमहलको व्याकुल देखकर लौट गया और पुनः एक मासका उपवास करने लगा । जब राजाने शिरवेदनासे छुटकारा पाया तब वह पुनः उसी तापसके पास गया, और उसे पारणेके लिए अपने यहां आनेकी सविनय प्रार्थना की । तापसने राजाकी प्रार्थनाको सुनकर फिर अपने उस नियमको दोहराया और बाद में राजाके यहां पारणाके लिये आना स्वीकार कर लिया । पारणाके दिन वह तापस फिर राजा के यहां आया, परन्तु संयोग से उस दिन राजभवन में आग लग गयी, और राजा 'आज तापसका पारणा दिन है' यह भूल गया । तापस राजभवनको आग की लपटोंसे जलता हुआ देखकर लौट गया और फिर तीसरे महीने का उपवास करने लगा । आगके शान्त होजाने पर राजाको स्मरण हुआ कि मैंने तापसको पारणा के लिये आज बुलाया था परन्तु राजभवन में आग लग जाने से मैं उसे भूल गया, बेचारा વ્યાકુળ હતુ આથી તે તાપસના કાઇએ સત્કાર ન કર્યાં તાપસ આ પ્રમાણે રાજમહેલને અસ્થિર (વ્યસ્ત) જોઇ પાછા ફર્યાં અને ફરી તે એક માસના ઉપવાસ કરવા લાગ્યા જયારે રાજાને માથાના દુઃખાવા મટી ગયા ત્યારે તે ફરીને તેજ તાપસની પાસે ગયા અને તેને પારણા માટે પાતાને ત્યા આવવાની સવિનય પ્રાર્થના કરી. તાપસે રાજાની પ્રાર્થનાને સાભળી ફરીને પેાતાના તે નિયમ બીજી વાર કહ્યો અને પછી રાજાને ત્યા પારણાં માટે આવવાને સ્વીકાર કર્યાં સ પારણાને દિવસ તે તાપસ પાછે રાજાને ત્યાં આવ્યે પરંતુ સચેગવશાત્ તે દિવસ રાજભવનમાં આગ લાગી ગઈ તથા રાજા ‘આજે તાપસના પારણાંને દિવસ છે' એ ભૂલી ગયા. તાપસે રાજભવનને આગની જવાળાએથી ખળતું જોયું અને જોઇને પાછે. ફરી ગયા. અને પાછા ત્રીજા મહિનાના ઉપવાસ કરવા લાગ્યા. આગ શાંત થઇ ગયા પછી રાજાને યાદ આવ્યુ ૪-મે તાપસને પારણા માટે આજે ખેલાવ્યા હતા. પરંતુ રાજભવનમાં આામ લાગી જવાથી હું તે ભૂલી ગયા બિચારા તપસ્વી Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र मुपगम्य समां पुनः पारणां च प्रार्थयामास । तापसेनापराधं क्षमित्या पारणार्य राजभवनागमनं स्वीकृतम् । पारणादिने तापसो राजद्वारमागतः । तस्मिन् दिने शत्रुः श्रेणिकराजधानीमाक्राम्यत् । राजा योद्धमुद्यतः सैन्यं साग्रहीतुं प्रवृत्तस्तापमं सत्कतु न क्षमोऽभूत् । तापसो राजद्वारमागत्य पुनः पराहचश्चतुर्थ मासं तपसा क्षपयितुंप्रारभत । ततो युद्धे निवृत्ते राजा तापममुपगम्याऽपराधक्षमां पारणां च प्रार्यनपस्वी इस मास भी मेरे ही कारण भूखा रहा । यह सोचकर राजाको अत्यन्त कष्ट हुआ और वह उस तापमके पास गया तथा अपने अपराधकी क्षमा याचना की, और फिर अपने यहां पारणाके लिये मानेकी प्रार्थना की । तापसने अपराधको क्षमा कर दिया, और राजभवन में पारणाके लिए आना स्वीकार कर लिया। पारणाके दिन फिर वह तापस राजाके दरवाजेपर आया, परन्तु उसी दिन दुर्भाग्यसे शत्रुने उमकी राजधानोपर चढाइ कर दी थी। राजा सेनाको व्यवस्थित रूपसे एफत्रित करनेमें लगा हुआ था, हम लिये वह तीसरी बार भी सत्कार नहीं कर सका । तापस राजाके दरवाजेसे उम दीन श्री विना पारणाके लौटा और चौथे मासका उपवास प्रारम्भ कर दिया। उसके बाद लडाईसे अवकाश मिलने पर राजा तापसके पास आया और अपनी विपदा सुनाकर क्षमायाचना की तथा पारणा આ મહિના પણ મારાજ કારણથી ભૂખ્યા રહ્યા આ વિચારથી રાજાને બહુ કષ્ટ હ્યું અને તે તાપસ પાસે ગયા અને પિતાના અપરાધ માટે ક્ષમાની યાચના કરી, અને કરીના પિતાને ત્યા પારણા માટે આવવાની પ્રાર્થના કરી. તાપસે અપરાધને માટે ક્ષમા આપી દીધી અને રાજભવનમાં પારણા માટે આવવાને સ્વીકાર કરી લીધું પાશાને દિલ્મ પાછો તે તાપસ રાજાના દરવાજા પર આવ્યા પણ તે દિવસે દુર્ભાગ્યવશાત અને તેની રાજધાની ઉપર ચડાઈ કરી હોવાથી રાજા સન્યને વ્યવસ્થિત કરી એકઠું કરવામાં રોકાયેલ હતો આથી તે ત્રીજી વખત પણ સત્કાર કરી શકો નધિ તાપસ રાજાને ઘેથી તે દિવસ પણ પાર કર્યા વગર પાછો ફર્યો અને ચેથા માસના ઉપવાસ શરૂ કર્યા ત્યાર પછી લડાઈથી ફુરસદ મળ્યા પછી રાજ તાપસની પાસે આવ્યું અને પિતાની વિપત સંભળાવી ક્ષમા માગી અને પારણા કરવા માટે ફરીને પ્રાર્થના કરી Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरपोधिनी टीका अ. १ कणिकस्य श्रेणिक घातकत्वे कारणम् यामास । तापमः क्षमा पारणां च स्वीकृत्य चतुर्थमासानन्तरं राजद्वारमागतः सर्वान् पुत्रजन्मोत्सवनिमग्नानवलोक्य पारणामकृत्वा पुनः परावृत्तः । उत्सवानन्तरं भूपः स्वभृत्यान् पृष्टवान्-भो ! किं तापसः पारणार्थमांगतवान ? | भृत्यैः कथितम्-पारणामकृत्येव गतवानसौ स्वाश्रमे। तत्र गत्वा वीतरागवचनामृतपानाभावात् तापमः क्रोधाग्निा प्रज्वलितः शुद्धधर्मश्रद्धारहितोऽसौ श्रेणिकं द्विषन् आरौद्रध्यानपूर्वकं मनस्येचं चिन्तयति-तिलतुषमात्रमपि यदि मे तपः करनेके लिए पुनः प्रार्थना की। तापसने राजाको क्षमा कर दिया और पारणाके लिये उनके यहाँ आना स्वीकार कर लिया। चौथे मासका समाप्त होनेपर पारणोके लिये राजाके दरवाजेपर आया। संयोगसे उसी दिन राजाके घर लडका पैदा हुआ। अपने अन्ता. पुरपरिजनके सहित राजा उसी समारोहमें संलग्न था इमलिये राजाको तापसके आनेका ध्यान बिलकुल नहीं रहा । तापस पारणाके लिये भिक्षा न पाकर लौट गया । उत्सव धोतनेपर राजाने अपने परिचारकोंसे पूछा-क्या तापस पारणाके लिए आया था? उन्होने कहादेव ! एक तापम पारणाके लिए आया था किन्तु वह पारणा किया बिना ही अपने आश्रमको लौट गया। तापस अपने आश्रममें आकर वीतरागके वचनरूपी अमृतपानके विना क्रोधाग्निसे जलता हुआ शुद्ध धर्मकी श्रद्धासे रहित होनेके कारण, श्रेणिक राजामे वेष करता हुआ आर्त-रौद्र-ध्यानपूर्वक इस प्रकार अपने मन में विचारने लगा-'यदि तिलतुषके बराबर તાપસે રાજાને ક્ષમા કરી દીધી તથા પારણા માટે તેને ત્યાં આવવાનો સ્વીકાર ક્ય ચોથે માસ સમાપ્ત થતાં તે પારણા માટે રાજાને દ્વારે આ સોગથી તેજ દિવસે રાજાને ઘેર ઠાકર જન પિતાના અ ત પુરના પરિજનો સાથે રાજા તે પ્રસંગમાં લાગેલા હતા આથી રાજાને તાપસ આવવાનું બિલકુલ ધ્યાન મા ન રહ્યું તાપસને પારણા માટે ભિક્ષા ન મળવાથી પાછા ગયા ઉત્સવ વીતી ગયા પછી રાજાએ પિતાના પરિચારકે (કરા) ને પૂછયું- “તાપ પારણા માટે આવ્યા હતા?” તેઓએ શુ–“હે દેવ! એક તાપસ પારણા માટે આવ્યે હતો પણ તે પારણા કર્યા વિના જ પિતાને આશ્રમે પાછે ગયે તાપસ પિતાના આશ્રમામાં આવી વીતરાગના વચનરૂપી અમૃતપાન વગરને ક્રોધરૂપી અગ્નિથી ખાતે બળને શુદ્ધ ધર્મ ની શ્રદ્ધાથી રહિત હેવાને કારણે શ્રેણિક રાજાના ઠેષ કરના આતરો-ધ્યાનપૂર્વક આ પ્રકારે પિતાના મનમાં વિચારવા લાગ્યા. જે તિલતુષ (તલનાં Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ निरयावलिका सूत्रे फलं तदाऽहं जन्मान्तरेऽस्य राज्ञो दुःखदो भवेयम्' इति विचार्य परभवदुःखदायकनिदानं कृतवान् । ततो राजा तापसनिकटमागतः। तत्र तापस उवाच-हे राजन् ! भूयो भूयो मां निमन्त्र्य त्वं विस्मरसि, 'अथ सर्वथा यावज्जीवं चतुर्विधाऽऽहारं परित्यज्य परभवे तत्र दुःखदो भवेयम्' एतादृशं प्रतिज्ञातवानस्मि । राजा भृशं प्रार्थयामास परञ्च तापसो न शान्तकोपोऽभवत् । राजा विवशतया तापसाश्रमान्नित्य स्वभवनमुपागतो राज्यकार्ये लग्नः । असौ तापसः कालावसरे कालं कृत्वा तस्यैव राजश्वेल्लनादेवीगर्भतः पुत्रत्वेनोदपद्यत । प्रादुर्भूय 'कूणिककुमार' इति विख्यातः । निदानप्रभावात् श्रेणिकराजस्य घातकोऽभूत् । भी मेरी तपश्चर्याका फल हो तो मै चाहता हूँ कि-इस राजा श्रेणिकको अगले जन्ममें दुःखदायी होऊँ' ऐसा विचारकर जन्मांतरमें दुःख देनेवाला निदान (नियाणा) किया । उसके बाद राजा तापसके पाम आया । तापसने राजासे कहाहे राजन् ! तू मुझे वार२ न्यौना देकर भूल जाता है, आज मैने ऐसी प्रतिज्ञा करली है कि-'यावज्जीव चारों प्रकारके आहारको त्याग कर परभवमें तुम्हारे लिये दुःखदायी बनूं'।। राजाने तापससे बहुत प्रार्थना की परन्तु उमका कोप शान्त नहीं हुआ । राजा हारकर तापसके आश्रमसे अपनी राजधानीमें भाया और राजकाजमें संलग्न हो गया। वह तापस कालान्तरसे मरकर उसकी रानी चेल्लनाके गर्भमें आया और उसका पुत्र होकर पैदा हुआ और 'कूणेककुमार' के नामसे प्रप्तिद्ध हुआ। निदान (नियाणा) के प्रभावसे वह श्रेणिकका घातक हुआ। ફતર) ની બરાબર પણ મારી તપશ્ચર્યાનું ફળ હોય તે હું ઈચ્છું છું કે આ રાજ શ્રેણિકને જન્માતરમાં દુઃખદાયી થાઉ” આમ વિચાર કરી જન્માંતરમાં દેખ દેવાવાળો થવા નિદાન (નિયષ્ય ) કર્યું ત્યાર પછી રાજ તાપસની પાસે આવ્યા તાપસે રાજાને કહ્યું–હે રાજન! તું મને વારે વારે નિમંત્રણ દઈને ભૂલી જાય છે આજ મે એવી પ્રતિજ્ઞા કરી છે કે- જ્યાં સુધી જીવું ત્યાં સુધી ચારે પ્રકારના આહારનો ત્યાગ કરી પરભવમાં તમને દુઃખદાયી થાઉ. રાજાએ તાપસને બહુ પ્રાર્થના કરી પણ તેને કેપ શાંત થયે નહિ. રાજા હારી જઈને તાપસના આશ્રમેથી પિતાની રાજધાનીમાં આવીને રાજકાર્યમા કામે લાગી ગયે તે તાપસ કાલા મરી ગયા પછી તેની રાણી ચેલનાના ગર્ભમાં આવ્યું, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकस्य श्रेणिकघातकस्वे कारणम् १३५ इदं च कुगुरुसेवाफलम् अतः कुगुरुं विहाय सुगुरुः सेवनीयः । कुगुरुसेवनेन न मोक्षमार्गज्ञानं न वा भवभ्रमणनिवृत्तिः । कुगुरोः सम्यक सेवने. ऽपि नाऽऽत्मकल्याणम् । उक्तश्चनाऽऽनं मुषिक्तोऽपि ददाति निम्बकः, पुष्टा रसैर्वन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव मुसेवितः श्रियं, धर्म शिवं वा कुगुरुन संश्रितः ॥ १ ॥ इति कणिकस्य श्रेणिकघातकत्वे कारणविवरणम् ॥ सू० ३९ ॥ यह कुगुरुसेवाका फल है, इस लिये कुगुरुको छोडकर सदगुरुकी सेवा करनी चाहिए। कुगुरुकी सेवासे न मोक्षमार्गका ज्ञान होता है न भवभ्रमण हो मिटता है। कुगुरुकी अच्छी तरह सेवा करे तो भी आत्मकल्याण नहीं हो सकता। कहा भी है:"नाऽऽनं सुषिक्तोऽपि ददाति निम्वकः, पुष्टा रसैबन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव मुसेवितः श्रियं, धर्म शिवं वा कुगुरुन संश्रितः ॥ १ ॥ । अर्थात्-नीमका चाहे कीतना भी सींचा तोभी उसमें आमका फल नहीं आमकता। अच्छीसे अच्छी वस्तु खिलानेपर भी बन्ध्या गौ ध नहीं दे सकती। दरिद्र राजाकी चाहे कितनी भी सेवा की તથા તેને પુત્ર થઇને જમ્યા અને “કૃણિક કુમાર” ના નામથી પ્રસિદ્ધ થયે. નિદાન (નિયાણું) ના પ્રભાવથી તે શ્રેણિકનો ઘાતક થયે આ કુગુરૂસેવાનુ ફલ છે આથી કુગુરૂને છોડીને સદગુરૂની સેવા કરવી જોઈએ. કુગુરૂની સેવાથી નથી મોક્ષમાર્ગનું જ્ઞાન થતુ કે નથી ભવભ્રમણ પણ મટતું. કુગુરૂની સારી રીતે સેવા કરીયે તે પણ આત્મકલ્યા ણ થઈ શકતું નથી કહ્યું પણ છે કે – नाऽऽनं मुषिक्तोऽपि ददाति निम्बकः, पुष्टा रसैर्वन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं, ___ धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥१॥ અર્થાત-લીંબડાને ગમે તેટલું પાણી પીએ તે પણ તેમાં આખાનું ફલ ન આવી શકે. સારામાં સારી વસ્તુ ખવરાવવાથી પણ વધ્યા ગાય દૂધ ન આપી શકે. દરિદ્ર રાજાની ગમે તેટલી પણ સેવા કરવામાં આવે તે પણ તે ધન ન આપી શકે Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका मूलम् -- तत्थ णं चंपाए नयरोंए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चणाए देवीए अत्तए कणियस्त रन्नो सहोयरे कणीयसे भाया वेहले नामं कुमारे होत्था सोमाले जाव सुरूवे । तपणं तस्स वेहलरस कुमारस्स सेणिएणं रन्ना जीवंतपणं चेव सेयणए गंधहत्थी अहारसय हारे पुत्रदिने । तणं से वेहल्ले कुमारे सेणऐणं गंधहत्थिणा अंते उरपरिबालसंपरिवुडे चंपं नगरिं सज्झमज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता अभिक्खणं २ गंगं महानई मज्जणयं ओयरइ । तणं सेयणए गंधहत्था देवीओ सोंडाए गिues, गिहि ता अप्पेगइयाओ पुढे ठवेइ, अम्पेगइयाओ खंधे ठवेइ, एवं अप्पेगइयाओ कुंभे ठवेइ, अम्पेगइयाओ सीसे ठवेइ, अप्पे गइयाओ दंतमुसले ठवेइ, अप्पेगइयाओ सोंडाए हाय उ वेहासं उहि अप्पेगइयाओ सोंडागयाओ अंदोलावेड़, अप्पेगइयाओ दंतंतरेसु नीणेइ, अप्पेगइयाओ सीभरेणं पहाणेइ, अप्पेगइयाओ अणेगेहिं कीलावणेहि कीलावेड़ | Ma १.३६ तणं चंपा नयरीए सिंघाडगतिगच उकघश्चर महापहप हेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परुवेइ - एवं खलु जाय किन्तु वह धन नहीं देसकता, वैसेही कुत्सित गुरुकी सेवामें न श्रुतचारित्रलक्षण धर्मकी प्राप्ति होती है और न मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है। 6 कृणिक श्रेणिकका घातक क्यों हुआ ?' उसका विवरण उपरोक्त लिखे अनुसार है || सू० ३९ ॥ એવીજ રી કુત્સિત ( અયાગ્ન ) ગુરૂની પ્રાપ્તિ થાતી કે નથી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી. 'थि, मध्धात हे थया ? तनु विवर સેાથી નથી તે શ્રુતચાારત્રલક્ષણ ધર્મની २४ प्रभा छे. (सू०३८) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ वहल्ल्यस्य गंधहस्ती क्रीडा देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे एयणएणं गंधहत्थिणा अंतेउर० तं चेव जाव अणेगेहि कीलावणएहि कीलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रजसिरिफलं पचणुभवमाणे विहरइ, नो कूणिए राया । तएणं तीसे पउमावईए देवीए इसीसे कहाए लढाए समाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जान अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, त एस णं वेहल्ले कुमारे रजसिरिफलं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ, नो कूणिए राया, तं किं अन्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ ण अहं सेयणगे गंधहत्थी नत्थि ? त सेयं खलु ममं कणियं रायं एयमद्रं विनवित्तए' त्ति कह एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव कणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उशगच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सासी! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहस्थिणा जाव अणगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं किण्णं सामी ! अम्हं रज्जेणं वा जाव जणवएण वा जइणं अम्हं सेयणए गंधहत्थी नथि ? । तएणं से कणिए राया पउमावईए देवीए एयमद्वं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिइ । तएणं सा पउमावई देवी अभिकलणं२ कुणियं रायं एवम विन्नवेइ । तएणं से कृणिए राया पउमावईए देवीए अभिक्खणं२ एयमटुं विनविजमाणे अन्नया कयाइ वेहलं कुमारं सदावेइ सदावित्ता सेयणगं गंधहत्यि अटारसर्वकं च हारं जायइ । १८ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३८ निरयावलिकाम तएणं से वेहल्ले कुमारे कूणियं रायं एवं वयासी-एवं खल्ल सामी! सेणिएणं रन्ना जीवंतेणं चेव सेयणए गंधहत्थी अटारसवंके य हारे दिन्ने, तं जइ णं सामी ! तुम्भे ममं रज्जस्स य रटुस्स य जणवयस्स य अद्धं दलह तो णं अहं तुम्भं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं दलयामि । तएणं से कूणिए राया वेहलस कुमारस्स एवम नो आढाइ, नो परिजाणइ, अभिक्खणं२ सेयणगं गंधहत्थि अढार सवंकं च हारं जायइ । तएणं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स कणिएणं रन्ना अभिखणं२ सेयणगं गंधहत्थिं अटारसवंकं च हारं (जाएमाणस्त समाणस्त अयमेयारूबे अज्झथिए ४ समुप्पज्जित्था) एवं खलु अश्विविउकामे णं गिहिउकामे णं उद्दाले उकामे णं ममं कृणिए राया सेयणगं गंधहत्थि अट्रारसवंकं च हारं तं जाव समं कणियं राया [नो जाणइ] ताव [सेयं मे] सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंक छ हारं गहाए अंतेउरपरियालसंपरिवुडस्स सभंडमत्तोवगरणमायाए चंपाओ नयरीओ पडिनिक्वमित्ता वेसालीए लयरीए अज्जगं चडयरायं उवसंजिताणं विहरित्तए । एवं संपेहेर, संपेहित्ता कृणियस्स रन्नो अंतराणि जाव पडिजागरमाणे२ विहरइ । ____तरणं से वेहल्ले कुमारे अन्नया कयाई कृणियस्स रन्नो अंतरं जाणइ जाणित्ता, सेयणगं गंधहत्यि अटारसवंकं न हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए पाओ नयरीओ पदिनिक्वमह पडिनिक्वमित्ता जेणेव वेसाली नयरी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका श्र. १ बैहल्ल्यस्य गन्धास्ती क्रीडा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वेसालीए नयरीए अजगं वेडयं रायं उवसंपजित्ता णं विहरइ ॥ ४० ॥ छाया-तत्र खलु चम्पायां नगयाँ श्रेणिकस्य राज्ञः पुनवेल्लनाया देव्या आत्मजः श्रेणिकस्य रामः सहोदरः कनीयान् भ्राता वैहल्ल्यो नाम कुमार आसीत् मकुमारयावत्सुरुपः । ततः खलु तस्य चेहल्ल्यस्य कुमारस्य श्रेणिकेन राजा जीवता चैत्र सेचनको गन्धदस्ती अष्टारशवक्रो हारश्च पूर्वदत्तः । ततः ग्बल स वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना अन्तःपुरपरिवारसंपरिकृतश्चम्पाया नगर्यां मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य अभीक्ष्णं२ गङ्गां महानदी मज्जनकम् अवतरति । ततः दल सेचनको गन्धहस्ती देवी: शुण्डया गृहाति, प्रहीत्वा अप्येकिकाः कृष्टे स्थापयति, अप्यकिकाः स्कन्धे स्थापयति, भप्येकिकाः कुम्भे स्थापयति 'तस्थगं चंपाए' इत्यादि उस चम्पानगरीमें श्रेणिक राजाका पुत्र, रानी चेतनाका आत्मज, राजा इणिकका सहोदर छोटा भाई घेहल्य नामका कुमार था, जो कि सुकुमार धावत् सुरूप था । उस वैहल्ल्य कुमारको राजा श्रेणिरूने अपनी जीवितावस्थामें ही सेवनक नामका गन्ध हाथी और अहारह लडीयाला हार दिया। एक दिन वह चैहल्ल्थ कुमार सेवनफ गंध हाथीपर बहकर भपने अन्तःपुर परियारके साथ चम्पानगरीके मध्यसे निकला, निकलकर गंगानदीमें बारबार स्नान करने के लिए भगतरित सुआ। तत्पश्चात् वह सेचनक हाथी पेरल्यमी रानीयोंको अपनी सुंडसे पकडकर 'सत्याणं चंपार' त्याह તે ચંપાનગરીમા શહિક રાજાને પુત્ર, રાણી રેલવનાને આત્મજ (દીકર) રાજા કૃષિકને સહોદર નાનેઈ વૈશ્ય નામ કુમાર હતા કે જે સુકુમાર અને રૂપ હતું તે વહુથ કુમારને રાજા શ્રેણિકે પોતાની જીવિત અવસ્થામાં સેચનક નામને ગંધહાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર દીધા હતે એક દિવસ તે વૈહલ્યકુમાર સેચનક ગંઘહાથી ઉપર ચડીને પિતાના અતઃપુર પરિવાર સાથે ચ પાનગરીના મધ્યભાગમાં થઈને નીકળે, નીકળીને વાર વાર ગંગાનદીમાં સ્નાન કરવા માટે ઉતર્યા ત્યાર પછી તે સેચનક હાથી વૈદ્યની રાણીઓને પિતાની સૂ૦માં પકડીને તેમાથી કોઈ–એકને પિતાની પીઠ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४. निरयावलिका सूत्रे अप्येकिकाः शीर्षे स्थापयनि, अप्येकिकाः दन्तमुझले स्थापयति, अप्येकिकाः शुण्डया गृहीत्वा उर्ध्व वैहायममुद्हते, अप्ये किकाः शुण्डागता आन्दोलयति, अप्येकिकाः दन्तान्तरेषु नयति, अप्येकिकाः शीकरण स्नपयति, अप्येकिका अनेकैः क्रीडनकः क्रीडयति । ___ ततः खलु चम्पायां नगर्या शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-महापथ-पथेषु बहुजनोऽन्योऽन्यस्य एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-एवं खलु देवानुमियाः । घेहल्ल्यः कुमारः सेचन केन गन्धहस्तिनाऽन्तपुर० तदेव यावद् अनेकैः फ्रीडनकैः क्रोहयति तदेप खलु बेहल्ल्यः कुमागे राज्यश्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति नो कूणिको राजा । ततः खलु तस्याः पद्मावत्या देव्या अस्याः कथायाः लब्धार्थायाः सत्या अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत-'एवं खलु वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन उनमेंले किसी एकको पीठपर रखता है तो किसीको अपने कंधेपर; किसीको कुम्भस्थलपर रखता है तो किसीको अपने सिरपर, एवं किसीको अपने दन्ताशूलपर रखता है, और किसीको संउसे पकडकर उपर आकाशमें लेजाता है। इसी तरह किसी एकको मंटमें दपाकर झुलाता है, किसी एकको भपने दन्ताशुलके वीचमें अधरसे रखलेता है । तथा किसी एकको अपनी सूंउसे निकलते हुए फुहारोंसे स्नान कगता है ! एवं किसी एकको अनेक प्रकारकी क्रीडाभोंसे सन्तुष्ट करता है। यह वृत्तान्त नगर भरमें फैल गया, तथा बहुतसे मनुष्य गलियों, सचको भादि स्थान-स्थानपर आपसमें इस प्रकार वार्तालाप करने लगे-हे देवानुप्रियो ! बैहल्यकुमार सेघनफ गंधहस्तीके द्वारा ઉપર રાખે તે ઈને કાંધ ઉપર, કેઇને કુભસ્થળ ઉપર રાખે તે કાઈન પાતાના માથા ઉપર અને એ પ્રમાણે કોઈને પિતાના દતળ ઉપર રાખે તો કોઈને સૂઇથી પકડીને ઉપર આકારામાં લઈ જાય આવી રીતે કે ઇ-એકને સૂઢમાં દબાવીને હીંચકા ખવરાવે. કાઈને પોતાના દતશૂળની વચમાં અધરથી રાખી લે તથા તથા કોઈ–કને પોતાની સૂઢમાથી નીકળતા પુવાળ વડે સ્નાન કરાવે, તેમજ કાઈને અનેક પ્રકારની કીડાઓથી सतुष्ट ४२ छे. આ હકિકત આખા ગામમાં ફેલાઈ ગઈ તથા ઘણુ મનુષ્ય ગલિઓ સડકે આદિ અનેક ઠેકાણે કે પિત પિતામાં આવી રીતે વાર્તાલાપ કરવા લાગ્યા-“હે દેવાનુપ્રયે! Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चैहल्ल्यस्य गंधहस्ती क्रीडा १४१ गन्धास्तिना यावद् अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति तदेष खलु वेहल्ल्यः कुमारो राज्यश्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति नो कूणिको राजा, तत्किमस्माकं राज्येन वा यावज्जनपदेन वा यदि खलु अस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति, तच्छ्यः खल्ल मम कूणिकं राजानमेतमर्थ विज्ञपयितुम् ।। इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य यत्रैव कणिको राजा तत्रैवोपागछति, उपागत्य करतल० यावदेवमवादी-एवं खलु स्वामिन् ! वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना यावद् अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति, तत्कि खलु -स्वामिन ! अम्माकं राज्येन वा यावत् जनपटेन वा, यदि खलु अस्माकं सेचनको गन्धरम्ती नास्ति। अन्तःपुर परिवारसे साथ अनेक प्रकारकी क्रीडा करता है । वास्तविक राज्यश्रीका उपभोग तो वैहल्यकमार ही करता है, न कि राजा कूणिक। उसके बाद जब यह वृत्तान्त रानी पद्मावतीको मिला तो उसके मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि-'वैहल्यकुमार सेचनक हाथीके द्वारा अनेक प्रकारकी क्रीडा करता है इसलिए वही राज्यलक्ष्मी फलका उपभोग करता हुआ रहता है, न कि कूणिक राजा, इस लिये हमें इस राज्यसे और जनपदसे क्या लाभ ? यदि हमारे पास सेचनक हाथी नहीं है इसलिए यही अच्छा है कि कूणिक राजासे कहूँ कि वे बेहत्यसे वह सेचनक हाथी लेलें । ऐसा विचारकर जहाँ कूणिक राजा था वहा गयी, और जाकर हाथ जोरकर इस प्रकार पोली-हे स्वामिन् ! वैहल्यकुमार सेचनक गन्धहस्तीके ारा भनेक प्रकारकी क्रीडा करता है, हे स्वामिन् ! यदि હા માર સેચનક ગધ હાથી દ્વારા અત પુર પરિવાર સહિત અનેક પ્રકારની કાડા કરે છે. ખરી રીતે રાજ્યશ્રીને ઉપગ તે વૈહલ્ય કુમારજ કરે છે–નહિ કે રાજા કૃણિક ત્યાર પછી જ્યારે આ હકીકત રાણી પદ્માવતીના જાણવામાં આવી ત્યારે તેના મનમા એ વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે-હલ્યકુમાર સેચનક હાથી દ્વારા અનેક પ્રકારની કિડા કરે છે માટે તેજ રાજ્યલક્ષ્મીના ફલનો ઉપભેગ કરતે રહે છે નહિ કે કૃણિક રાજા, માટે અમને આ રાજ્યથી કે જનપદથી શું લાભ જે અમારી પાસે સેચનક હાથી ન હોય તે, તેથી કૃષિક રાજાને કહુ કે હલ્ય પાસેથી તે સેચનક હાથી લઇ લે એજ સારું છે. એમ વિચાર કરી જ્યા કૂણિક રાજા હતા ત્યા ગઈ અને જાને હાથ ને આ પ્રકારે બેલી–હે સ્વામી! વિહલ્યય કુમાર સેચનક ગધ હાથી Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे ततः खलु स कूणिको राजा पद्मावत्या देव्या एतमर्थे नो आद्रियते, नो परिजानाति, तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु सा पद्मावती देवी अभीक्ष्णं२ कूणिकं राजानमेतमर्थ विज्ञपयति । १४२ ततः खलु स कूणिको राजा पद्मावत्या देव्या अभीक्ष्णं२ एतमर्थ विज्ञाप्यमानः अन्यदा कदाचित् बैहल्ल्यं कुमारः शब्दयति शब्दयित्वा सेचनकं हस्तिनम् अष्टादशवक्रं हारं याचते । ततः खलु स चैहल्ल्यः कुमारः कुणिकं राजानमेवमत्रादीन् - एवं खलु स्वामिन् ! श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैत्र सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवकव हमारे पास सेचनक गन्ध हाथी नहीं है तो इस राज्य और जनपदसे क्या लाभ ? | यह सुनकर राजा कूणिकने पद्मावती देवीके इस विचारका आदर नहीं किया और न उस बातकी ओर ध्यान दिया, केवल चुपचाप रह गया । परन्तु उस राजा कूणिकने रानी पद्मावतीके द्वारा वारवार विज्ञापित होने के कारण एक समय कुमार वैद्यको अपने यहाँ बुलाया, बुलाकर उससे सेचनक गन्ध हाथी और अट्ठारह लडीवाला हार सांगा । कृणिकका ऐमा अभिप्राय जानकर नेहल्ल्यकुमारने इस प्रकार कहना आरम्भ किया - हे स्वामिन् ! राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्था में ही मुझे सेचनक गन्ध हाथी और अट्ठारह लडीवाला हार દ્વાન અનેક પ્રકારની કીડા કરે છે. હું સ્વામી। જે આપણી પાસે સેચનઢ ગધ હાથી ન હોય તેા આ રાજ્ય અને જનપદથી શુ લાભ ? આ સાભળી રાન્ત કૃણિકે પદ્માવતી દેવીના આ વિચારને આદર કર્યાં નહિ કે ન તે વાત તરફ ધ્યાન દીધુ . માત્ર ચુપચુપ રહ્યા ત્યાર પછી તે રાળ કૃણિકે રાણી પદ્માવતીના મારફત વારંવાર વિજ્ઞાપન કરવામા આવતુ તેથી એક વખત વહ૫ કુમારને પેાતાને ત્યાં મેલવ્યે અને તેની પસેથી સચનક ગંધ હાથી તથા અઢાર સરવાળા હાર માગ્યા. કૃણિકને એવા અભિપ્રાય જ્ઞણીને વૈદય કુમારે આ પ્રકાર કહેવા માંડયું – ચિન્ ! કેલ્સિક રાજએ પાતાની વિત અવસ્થામાં જ મને સેચનક ગંધ હાથી Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ वैहल्ल्यस्य गन्धहस्ती क्रीडा हारो दत्तः, तद् यदि खलु स्वामिन् ! यूयं मह्यं राज्यस्य च यावत् जनपदस्य च अद्धे दत्त तदा खल्वहं युष्यभ्यं सेचनकं गन्धहस्तिनस् अष्टादशवर्क च हारं ददामि । ततः खलु स कुणिको राजा वैहल्ल्यस्य कुमारस्य एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति, अभीक्ष्णं २ सेचनकं गन्धहस्तिनस् अष्टादशव च हारं याचते । ततः खल्लु तस्य वैपल्ल्यम्य कुमारस्य कूणिकेन राज्ञा अभीक्ष्णं २ सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवकं च हारं [ याच्यमानस्य सतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः ४ समुदपद्यन ] एवं ग्वल आक्षेप्तुकामः खलु, ग्रहीतुकामः खलु, आच्छेतुकामः खलु मां कूणिको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारम् तद् यावन्मां कुणिको राजा [नो जानाति ] तावत् [श्रेयो मम ] सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं गृहीत्वान्तःपुरपरिवारसंपरिकृतस्य सभादिया है, सो यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो मुझे भी राज्य और जनपदका आधा भाग दीजिथे, फिर मैं भी आपके लिये इन दोनों को देदूंगा । परन्तु राजा कूणिकने वैहल्ल्यकुमारकी इस बातको पसन्द नहीं किया, ल कभी इसको अच्छी तरह सोचाही, परन्तु बार-बार अपनी मागको दोहराता रहा । * तदन्तर कूणिक राजा छारा वार २ हाथी और हार मागनेपर वैहल्य अपने मनमें सोचता है कि कूणिक राजा मेरे पर मिथ्यादोष लगा कर मेरा सेचनक गंधहाथी और हार मुमले छीन लेना चाहता है, इसलिये उचित है कि जबतक कूणिक मुझसे हाथी और हार તથા અઢાર સરવાળો હાર દીધા છે. જે તે આપ લેવા ચાહે છે તે મને પણ નીય તથા જન પદને અરધે ભાગ આપો પછી હુ પણ આપને આ બને આપીશ પરંતુ રાજા કુક્ષિકે વૈવલ્ય કુમારની આ વાત પસદ કરી નહિ. ન તે કદી એ વાતને ઠીક રીતે વિચાર કરી જે માત્ર વાર વાર પિતાની માગણજ કર્યા કરી. - ત્યાર પછી કુણિક રાજા તરફથી વારવાર હાથી તથા હારની માગણી થતાં - હલ્ય પિતાના મનમાં વિચાર કરે છે કે આ કૂણિક રાજા મારા ઉપર બેટે દોષ ગાડીને મારે સેચનક ગજ હાથી અને હાર મારી પાસેથી પડાવી લેવા માગે છે. માટે એજ વાજબી છે કે જ્યા સુધી કૂદિ મારી પાસેથી તે હાથી અને હાર ન પઠાવી લીએ તે પહેલાજ ચેચનાક ગધ હાથી તથા અઢાર સરવાળા હાર તથા અ ત પુર Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४४ निरयावलिकासूत्रे ण्डामत्रोपकरणमादाय चम्पाया नगर्याः प्रतिनिष्क्रम्य वैशाल्यां नगर्यामार्यक चेटकगजमुपसम्पय विर्तुम् । एवं संप्रेक्ष्य कूणिकम्य राज्ञोऽन्तराणि यावत् प्रनिजाग्रत् २ विहरति । ततः खलु स वैहल्यः कुमारः अन्यदा कदाचित् कूणिकम्य राज्ञोऽन्तरं जानाति, ज्ञात्वा सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीत्वा अन्तःपुरपरिवाग्सपरिवृतः राभाण्डामत्रोपकरणमादाय चम्पातो नगरीन: प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव वैशाली नगरी नत्रैवोपागन्छति, उपागत्य वैशाल्यां नगयां मार्यक चेटकमुपसंपद्य विहरति ॥ ४० ॥ टीका-'तत्थणं चंकार' इत्यादि-महोदर एकमातकः । कनीयान् लघुभ्राता । अन्तःपुरपरिवारसंपरित: अन्तःपुरं-रानी, परिवारःखद्गरत्नादिकोशी वामदाम्याठि सेवकवर्गथ, नैः परितः युक्तः वैष्ठायसं-विधाय एव वैहायन्नम् गगनम्, गीकरः एवनमलित मळकणः 'फुहाग' इति भाणयाम्, शृङ्गाटक त्रिक-चतुक-चन्वर-महापथ-पथेषु-शनाटक-जलफलं 'सिंगाडा' इति भापायाम्, नत् त्रिकोणस्थानं, त्रिक-त्रिपथम्, चतुष्कम् चतुष्पयम्, महापथो राजमार्गः, पन्या सामान्यमार्गः, तेषु ! एप-कणिको राजा माम् आक्षेप्तुकामः राज्य मागरयाऽदित्यया मयि मृपादोपमारीपयितुकामः । सेचनक गन्धहस्तिनं ग्रहीतुकाम: बलादादातुकामः । अष्टादशवक्रं हारं च 'उपाले उकामे' आच्छेतुकामः-मम हस्तादाक्रष्टकामः अस्ति । शेपं मुगमम् ॥ १० ॥ न छोने उसके पहले ही मेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार नया अन्तःपुर परिवार के साथ सभी गृलापकरण लेकर चम्पानगरीसे निकलकर अपने नाना चेटक राजाके पारन वैशालीनगरीमें जाकर रहै । ऐसा विचार करनेके पश्चात वह वैहल्यकुमार राजा कुणिककी अनुपस्थितिकी ताकमें रहता है। उसके बाद वह बैहल्ल्यकुमार एक समय कणिक राजाको अनुपस्थितिका मौका पाकर अपने अंत:पुर परिवार के साथ सेचनक પરિવાર સહિત ઘી તમામ વસ્તુઓ લઇને ચંપનગરીથી નીકળીને મારા નાના ચેટક રાજી એ વૈશાલી નગરીમાં જઈને , એ વિચૂર કરીને પછી તે વેલ્ય કુમાર રાજા કૃકિની અનુપસ્થિતિ-ગેર હાજરીની રાહ જોતા રદા કરે છે. ત્યાર પછી તે વડથ કુમાર એક સમય કૃથિક રાજની ગેરહાજરી જોઈ પિતાન, અંતઃપુર પરિવારની સાથે સેચન હાથી, અઢાર સર વાળે હાર અને તમામ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरिबोधनीटीका अ. १ चेटककूणिकयोः दूतद्वारासंवादवर्णनम् १४५ ___ मूलम्-तएणं से कूणिए राया इमोसे कहाए लद्ध ट्रे समाणे -एवं खलु वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्थि अटारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जाव अजयं चेडयं रायं उवसंपजित्ता णं विहरइ, तं सेयं खल मम सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवकं च हारं आणेउं दूयं पेसित्तए, एवं संपेहेइ, संपेहिता दूयं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! वेसालि नयार, तत्थ णं तुमं ममं अज्जं चेडगं रायं करतल० वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खल्लु सामी ! कूणिए राया विन्नवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे कणियस्स रन्नो असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्थिं अटारसवंक च हारं गहाय इह हव्वमागए, तए णं तुन्भे सामी! कणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं कणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं च पेसेह । ____तए णं से दूए कणिएणं० करतल० जाव पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जहा चित्तो जाव वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! कणिए राया विन्नवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे तहेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं कुमारं च पेसेह । ___तए णं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए ममं नत्तुए तहेव णं वेहल्ले वि कुमारे सेणिहाथी, अठारह लडीवाला हार ओर सभी प्रकारकी गृहसामग्री लेकर चम्पानगरीसे निकल वैशालीनगरीमें आये चेटकके पास पहुंचकर रहने लगा ।। ४०॥ પ્રકારની ગૃહ સામગ્રી લઈને ચ પાનગરથી નીકળી વૈશાલી નગરીમાં આર્ય અટકની પાસે પહાર રહેવા લાગ્યો. (૪૦) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ - निरयावलिकासूत्रे यस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए सम ननुए, सेणिएणं रन्ना जीवंतेणं चेव वेहल्लस्स कुमारस्स सेयणगे गंधहत्थी अटारसर्वके हारे पुवदिन्ने, तं जइ णं कूणिए राया वेहल्लस्स रजस्स य रटुस्स य जणवयस्स य अद्धं दलयइ तो णं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणामि, वेहल्लं च कुमारं पेसेमि । तं दूयं सकारेइ संमाणेइ पडिविसजेइ । तएणं से दूए चेडएण रन्ना पडिविसज्जिए समाणे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्धंट आसरहं दूरुहइ, दूरहित्ता वेसालिं नगरि मज्झं-मज्झेणं निन्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुहेहिं वसहिपायरासेहिं जाव वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! चेडए राया आणवेइ-जह चेव णं कणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए तं चेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं न देइ सामी! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थि अटारसवंक च हारं, वेहल्लं नो पेसेइ ॥ ४१ ॥ छाया-ततः खलु स कणिको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् 'एवं खलु चैहल्ल्यः कुमारो मम असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशचक्रं च हारं गृहीत्वा अन्तःपुरपरिवारसंपरितो यावद् आयकं चेटकं राजानमुप 'तएणं से कूणिए' इत्यादि उसके बाद जय यह समाचार राजा कूणिकको ज्ञात हुआ तो उसने विचार किया कि वैहल्यकुमार मुझसे पिना कुछ कहेसुने अपने अन्नापुर परिवारके सहित, सेननक गंधहस्ती अठारह लहीवाला हार और सभी प्रकारकी गृहसामग्रियों को लेकर राजा 'तएणं से कूणिए ' त्यादि ત્યાર પછી જ્યારે આ સમાચારની રાજ કણિકને ખબર પડી ત્યારે તેણે વિચાર કર્યો કે હુલ્ય કુમાર અને કઈ પણ કહ્યા-સાભળ્યા વગર જ પિતાના આ ત પુર પરિવાર સહિત સેચનક બંધ હાથી, અઢાર સરને હાર અને તમામ પ્રકારની Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेटककूणिकयोः दूतद्वारा संवाद १४७ संपध खलु विहरति, तच्छ्रेयः खलु मम सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्र च हारम् आनेतु दूतं प्रेषयितुम्, एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छ खलु त्वं देवाणुप्रिय ! वैशाली नगरी, तत्र खलु त्वं मम आर्य चेटकं राजानं करतल० वर्दयित्वा एवं वद-'एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञापयति-एष खलु वैहल्ल्यः कुमारः कूणिकरय राज्ञः असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीत्वा इह हव्य मागतः, ततः खलु यूयं स्वामिन् ! कुणिकं राजानमनुगृहन्तः सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्र च हारं कूणिकस्य राज्ञः प्रत्यर्पयत, बैहल्ल्यं कुमारं च प्रेषयत । ततः खलु स दूतः कुणिकेन० करतल. यावत् प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यथा चित्तो यावद् बर्द्धयित्वा एवमवादीतआर्य चेटकके पास जाकर रहने लगा है, इस कारण मुझे उचित है कि दूत भेजकर सेचनक गंध हाथी और अठारह लडीवाला हार मंगालू. ऐमा विचारकर दूतको बुलाता है और वुलाकर इस प्रकार कहता है: हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें मेरे नाना चेटकके पास तुम जओ ऊनके पास जाकर हाथ जोड जय-विजय शब्दके साथ राजाको बधाकर इस प्रकारसे कहो-हे स्वामित् राजो कुणिक इस प्रकार विज्ञसि करते हैं कि मुझसे बिना कुछ कहे ही बहल्य कुमार सेचनक गन्ध हाथी और अठारह लडीवाला हार लेकर आपके यहाँ जल्दीसे चला आया है, सो आप वैहल्ल्यकुकारको सेचनक हाथी और अठारह लडीवाले हारके सहित कृपा करके हमारे पास भेजदें । इसके बाद वह दूत राजा कूणिकके द्वारा कहे हुए वचनोंको स्वीकारकर अपने ગૃહસામગ્રી લઈને રાજા આર્ય ચેટકની પાસે જઈને રહ્યો છે આ કારણથી મારે માટે ગ્ય છે કે દૂત મોકલીને સેચનક ગધ હાથી અને અઢાર સરને હાર મગાવી લઉ. એ વિચાર કરી દૂતને બોલાવી આમ તેને કહે છે- હે દેવાનુપ્રિય ! વિશાલી નગરીમા મારા નાના ચેટકની પાસે તું જા. તેની પાસે જઈ હાથ જોડીને જય-વિજ્ય શબ્દથી રાજાને વધાવીને આ પ્રકારે કહે જે–હે હવામિન્ ! રાજા કુણિક આ પ્રકારે વિજ્ઞાપ્ત કરે છે કે મને કાઈ કહ્યા વગરજ કુમાર વૈહય સેચનક ગધ હાથી અને એકર સરવાળે હાર લઈને આપની પાસે જલ્દીથી ચા આવલે છે માટે આપ હલ્ય કુમારને સેચનક ગ ધ હાથી અને અઢાર સરના હાર સહિત કૃપા કરીને મારી પાસે મોકલી આપે ત્યાર પછી તે ડૂત રાજા કુણિક દ્વારા કહેલાં વચનને Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे १४८ एवं खलु स्वामिन ! कणिको राजा विज्ञापयति- एष खलु वैहल्ल्य: कुमारस्तथैव भणितव्यं यावद् वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत । ततः ग्वलु स चेटको राजा तं दूतमेवमवादीत् यत्रैव खलु देवानुमिय 1 कृणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेल्लनायाः देव्या आत्मजः, मम नप्तकः, तथैत्र खलु वैहल्ल्योऽपि कुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेल्लनाया देव्याः आत्मजो, मम नप्तकः, श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैव वैहल्ल्याय कुमाराय सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवको हारः पूर्वविदत्तः, तद् यदि खलु कूणिको राजा बैहल्ल्याय राज्यस्य च राष्ट्रस्य च जनपदस्य चार्द्ध ददाति तदा खलु घर आया और चार घंटावाले रथमें बैठ रवाना हुवा । वह वैशाली पहुँचकर आर्य चेटकको हाथ जोड जय विजयके साथ बधाकर परदेशी राजा चित्त प्रधानके समान इस प्रकार कहता है: हे स्वामिन् ! राजा कूणिक इस प्रकार विज्ञप्ति करते हैं किमेरा छोटा भाई हल्ल्यकुमार मुझसे बिना कुछ कहे ही सेचनक iver और अहारह लडीवाला हार लेकर आपके पास चला आया है इसलिये आप इसे हाथी और हारके साथ मेरे पास भेजदें । यह सुनकर चेटक राजाने उस दूतको इस प्रकार उत्तर दिया हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार राजा कृणिक, श्रेणिक राजाका पुत्र, चेलना रानीका आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी श्रेणिक राजाका पुत्र, रानी चेल्लनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है । સ્વીકાર કરી પેાતાને ઘેર આવ્યું અને ચાર ઘટાવાળા થમા બેસી રવાના થયા તે વાલી પહેચી ને આ ચેટકને હાથ નેડી જય-વિજય પૂર્વક વધાવીને પરદેશી રાન્તના પ્રધાન ચિત્તની પેઠે આ પ્રકારે કહે છે. હે સ્વામિન્! રાજા ષિક આ પ્રકારે વિજ્ઞપ્તિ કરે છે કે-મારે નાનેા ભાઈ બેહુલ કુમાર અને કઇ પણુ કહ્યા વગર જ સેચનક ગધ હાથી અને અઢાર સરવાળે હાર લઇ આપની પાસે ચાલ્યા આવ્યે છે માટે આપ તેને હાથી અને હાર સાથે મારી પાસે મેકલી આપે આ સાભળી ચેટક રાજાએ તે દૂતને આ પ્રકારે ઉત્તર દીધે-હે તેવા પ્રય જે પ્રકારે ગન્ત કૃણિક શ્રેણિક ગન્તને પુત્ર ચેલના રાણીને આત્મજ તથા માર નૈહિત્ર ઇં તેજ પ્રકારે કુમાર બૈડલ પણ શ્રેણિક ગળના પુત્ર રાણી ચેલ્લનાને ટીડ અને મારા ાહિત્ર છે Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेटककूणिकयोः दूतद्वारा संवादः १४९ सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं कूणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयामि, वैहल्ल्यं च कुमारं प्रैपयामि । तं दूतं सत्करोति सम्मानयति प्रतिविसर्जयति । ततः खलु स दूतः चेटकेन राज्ञा प्रतिविसर्जितः सन् यत्रैव चतुर्घण्टः अश्वस्थस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चतुर्घण्टमश्वरथं दूरोहति, दूरुह्य वैशाली नगरी मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य शुभवसतिमातराशैर्यावद् वर्धयित्वा एवमवादीत-एवं खलु स्वामिन् ! चेटको राजा आज्ञापयति-यथैव खलु कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेल्लनाया देव्या आत्मजः मम नप्तकः, तदेव भणितव्यं यावद् वैहल्ल्यं च कुमारं प्रेषयामि । तन्न ददाति खलु स्वामिन् ! श्रेणिक राजाने अपनी जीवितावस्थामें ही कुमार वैहल्यको सेचनक गंधहाथी और अढारह लडीवाला हार दिया था। तो भी यदि राजा कूणिक हाथी और हार लेना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह भी चैहल्यकुमारको राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग देदे। ऐसा होनेपर मैं हाथी और हारके साथ कुमार वैहल्ल्यको भेज सकता हैं। इस प्रकार कहनेके बाद राजा चेटकने उस दूतका आदर सत्कारकर उसे विसर्जित (विदा) किया। चेटक राजासे विसर्जित वह दूत जहॉपर चार घण्टावाला रथ था वहा आया, आकर उस रथपर चढा और वैशाली नगरीके मध्यसे निकला । निकलकर अच्छी २ वस्तियों में विश्राम तथा प्रातःकालिक भोजन करता हुवा सुख-शांतिपूर्वक चम्पानगरीमें पहुँचा । पहुँचकर राजा कूणिकके पास जा हाथ जोड जय-विजय शब्दके साथ राजाको बधाकर इस प्रकार बोला: શ્રેણુક રાજાએ પિતાની જીવિત અવસ્થામાં જ કુમાર વિડત્યને સેચનક ગધ હાથી તથા અઢાર સરને હાર દીધું હતું છતા પણ જે રાજા કૃણિક હાથી તથા હાર લેવા ચાહતા હોય તે તેણે પણ હલ્ય કુમારને રાજ્ય રાષ્ટ્ર અને જનપદમાં અરધે ભાગ દેવે જોઈએ. અને એમ થાય તે હું હાથી તથા હારની સાથે કુમાર વૈદ્યને મોકલી શકું છું આ પ્રકારે કહ્યા પછી રાજા ચેટકે તે દૂતને આદાર સત્કાર કરી તેને વિદાય આપી ચેટક રાજા પાસેથી વિદાય લઈ તે દૂત જ્યાં ચાર ઘટવાળ રથ હતું ત્યા આવે આવીને તે રથ ઉપર ચડીને વૈશાલી નગરીની મધ્યમાં થઈને નીકળે સારી સારી વસ્તીમાં વિશ્રામ તથા સવારનું ભજન કરતા થકે સુખ શાંતિપૂર્વક ચંપાનગરીમાં પહેર્યો પછી રાજા કૃણિક પાસે જઈ પહોંચી હાથ જોડી જય વિજય શબ્દની સાથે રાજા કુણિકને વધાવીને આ પ્રકારે કહ્યું – Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० निरयावलिकासूत्रे चेटको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्र च ठारं वैहल्ल्यं च नो प्रेपयति ॥ ४१ ॥ टीका-'तएणं से कूणिए' इत्यादि-शुभैः प्रशस्तैः, वसतिप्रातराशैः मार्ग विश्रामस्थानः पूर्वावर्तिलघुभोजनश्च मार्गे सुखपूर्वक निवमनं यामद्वयमध्ये भोजनं चेत्येतदयं पथिकाय परमहितकारकम्, अन्यत् सर्व सुगमम् ।।४।। मूलम्-तएणं से कूणिए राया दुच्चं पि दूयं सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुसं देवाणुप्पिया ! वेसालि नयरिं, तत्थ णं तुम मम अजगं चेडगं रायं जाव एवं वदाहि-एवं खलु सामी! कूणिए राया विन्नवेइ-जाणि काणि रयणाणि हे स्वामिन् ! चेटक राजा इस प्रकार सूचित करते हैं कि जिस प्रकार राजा कूणिक, श्रेणिक राजाका पुत्र, चेल्लनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्य भी श्रेणिकका पुत्र, चेल्लनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है। सेचनक गंधहाथी एवं अठारह लडोबाला हार राजा श्रेणिकने कुमार वेहल्यको अपनी जीवितावम्धामें ही दिया था, तो भी यदि कूणिक हाथी और हार चाहता है तो उसे चाहिये कि अपने राज्य, राष्ट ओर जनपदका आधा भाग वैहल्यको देदे । यदि वह इस प्रकार करे तो मैं भी हाथी ओर हार के साथ वैहल्यमारको भेज दगा । इस लिये हे हे स्वामिन ! गजा चेटकने न तो हाथी और हार ही दिया न कुमार वैहल्य का ही मेजा ॥ ४१ ॥ હે સ્વામિન્! ચટક રાજા અને સૂચના કરે છે કે-“જે પ્રકારે રાજા કુણિક શ્રેણિક રાજાના પુત્ર ચલનાને માજ તથા મારો દેહિત્ર છે તેવી જ રીતે કુમાર વૈહય પણ છે જેના પુત્ર, ચેતનાને આત્મ જ તથા મારો દેહિત્ર છે સેચનક ગધવાથી અને અઢાર સરવાળે હાર રાજા શ્રેણિકે કુમાર હિલ્યને પિતાની જીવિત અવસ્થામજ દીધા હતા તેમ છતા જે કૃણિક હાથી અને હાર ચાહતા હોય તે પિતાના રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદનો અરધે ભાગ વહદયને તે આપ જોઈએ. જે તે આ પ્રકારે કરે તે હું પણ હાથી અને હાર સાથે વૈહલ્ય કુમારને મોકલી ." स्वाभी! रात येत नया हाथी माध्यो, ४ नथी २ हाथा, | તેમ નથી વેફ્ટવ કુમારને મોકલ્યા (૪૧) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका अ. १ चेटककूणिकयोः दूतद्वारा संवादः १५१ समुप्पाजंति सव्वाणि ताणि रायकुलगामीणि, सेणियस्स रन्नो रज्जसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पन्ना, तं जहा-सेयणए गंधहत्थी, अटारसवंके हारे, तण्णं तुब्भे सामी! रायकुलपरंपरागयं ठिइयं अलोवेमाणा सेयणगं गन्धहत्थिं अट्टारसवंकं हारं कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणह, वेहलं कुमारं पेसेह । तए णं से दूए कणियस्स रन्नो तहेव जाव वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विन्नवेइ जाणि काणित्ति जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह । तएणं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जहा पढम जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं दूयं सकारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ । तए णं से दूए जाव कणियस्स रन्नो वद्धावित्ता एवं वयासी-चेडए राया आणवेइ -जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जाव वेहल्लं कुमारं पेसेमि, तं न देइ णं सामी! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थिं अटारसवंकं च हारं, वेहल्लं कुमार नो पेसेइ ।। तएणं से कणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे तच्च दूयं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! वेसालीए नयरीए चेडगस्स रन्नो वामेणं पाएणं पायपीढं अकमाहि, अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणावेहि, पणावित्ता आसुरत्ते Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ निरयावलिका सूत्रे जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहट्ट चेडगं रायं एवं वदाहि-हं भो चेडगराया ! अपत्थियपत्थया! दुरंत जाव-परिवजिया! एस णं कूणिए राया आणवेइ-पच्चप्पिणाहि णं कृणियस्स रन्नो सेयणगं गंधहत्थिं अहारसवंकं च हारं वेहल्लं च कुमार पेसेहि, अहवा जुद्धसज्जा चिट्टाहि, एस णं कूणिए राया सबले सवाहणे सखंधावारे णं जुद्धसज्जे इह हव्वमागच्छइ ॥ ४२ ॥ छाया-ततः खलु स कुणिको राजा द्वितीयमपि दूतं शब्दयित्वा एकमवादीत्-गच्छ खलु त्वं देवानुमिय ! वैशालों नगरी, तत्र खलु त्वं मम आर्यक चेटकं राजानं यावद् एवं बद-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयतियानि कानि रत्नानि समुत्पधन्ते सर्वाणि तानि राजकुलगामीनि, श्रेणिकस्य राज्ञी राज्यश्रियं कुर्वतः पालयतो द्वे रत्ने समुत्पन्ने, तद्यथा-सेचनको गन्धहस्ती, अष्टादशवक्रो हारः, तत्खलु यूयं स्वामिन् ! राजकुलपरम्परागतां स्थिति 'तएणं से कूणिए' इत्यादि इसके बाद कूणिक राजाने दुमरी बार फिर दूतको बुलाया और कहा-हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें जाओ, वहाँ जाकर मेरे नाना राजा चेटकको हाथ जोड कर जय विजय शब्दके साथ उन्हें बधाकर इस प्रकार कहीं कि-हे स्वामिन् ! राजा कणिक की यह विज्ञापना है कि जो कुछ भी रत्न पैदा होता है उसपर राजकुलका हो अधिकार है। श्रेणिक राजाके राज्यकालमें दो रत्न उत्पन्न हुए, 'तएणं से कूणिए ' त्या આ પછી કૂણિક રાજાએ બીજી વાર પાછો તને બોલાવ્યે અને કહ્યુંહે દેવાનુપ્રિય ' વૈશાલી નગરીમાં જઈને મારા નાના રાજા ચેટકને હાથ જોડીને જય વિજય શબ્દ સાથે વધાવી આ પ્રકારે કહેજે કે હે સ્વામિન્ ! રાજા કૃણિકની એવી વિજ્ઞાપના છે કે જે કઈ પણ રન પેદા થાય છે તેના ઉપર રાજકુલનેજ અધિકાર છે શ્રેણિક રાજાના રાજ્ય કોલમ બે રન ઉત્પન્ન થયા છે–એક સેચનક ગધહાથી Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेटककूणिकयोः दूनद्वारासंवाद १५३ मलोपयन्तः सेचनकं गन्धहस्तिनम्, अष्टादशचक्रं च हारं कूणिकाय राज्ञे प्रत्ययत, बैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत । ततः खलु स दूतः कुणिकस्य राज्ञस्तस्तथैव यावद् वर्धयित्वा एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञापयति-यानिकानीति यावत् वैहल्यं कुमारं प्रेषयत । ततः खलु स चेटको राजा तं दूनमेवमवादीत्-यथा चैव खलु देवानुप्रिय ! कुणिको राजा श्रेणिकम्य राज्ञः पुत्रः चेल्लनाया देव्या आत्मजः, एक सेचनक गन्धहाथी, दूसरा अठारह लडोवाला हार । हे स्वामिन् ! राजकुलकी परम्परागत स्थितिका नाश जिससे न हो इसलिसे आप हाथी और हार मुझे अर्पित करदें और वैहल्ल्य कुमारको भेजदें। उसके बाद वह दूत कूणिक राजाकी इस विज्ञप्तिको स्वीकार कर अपने घर आया, और वहासे वैशालीनगरीमें जाकर राजा चेटकके सम्मुख उपस्थित हुआ। तथा उन्हे हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ बधाकर, राजा कूणिककी विज्ञापना को इस प्रकार सुनायी-हे स्वामिन् ! राजा कूणिककी यह विज्ञापना है कि-जो कुछ भी रत्न उत्पन्न होता है उमपर राजकुलका अधिकार होता है । ये दोनों रत्न श्रेणिक राजाके राज्यकालमें उत्पन्न हुए हैं, इसलिये हे स्वामिन् ! जिससे राजकुलकी परम्परागत स्थिति विनष्ट न हो यह ध्यानमें लेकर हाथी और हारको देदें तथा वैहल्ल्यकुमारको भी कणिक राजाके पास भेजदें । અને બીજુ અઢારસના હાર, હે સ્વાામન! રાજકુલની પર પરાગત સ્થિતિને નાશ જેથી ન થાય તે માટે આપ હાથી અને હાર મન અર્પિત કરો અને વૈહલ્ય કુમારને મોકલી દે ત્યાર પછી તે દૂત કૃણિક રાજાની આ વિજ્ઞપ્તિને સ્વીકાર કરી પિતાને ઘેર આવ્યું અને ત્યાથી વૈશાલી નગરીમાં જઈ રાજા ચેટકની સ મુખ ઉપસ્થિત થયે. અને તેમને હાથ જોડી જય વિજય શબ્દથી વધાવી રાજા કૃણિકની વિજ્ઞાપનાને આ પ્રકારે સભળાવી-હે સ્વામિન! રાજા કૃણિકની એમ વિજ્ઞાપના છે કે જે કંઈ પણ રન ઉત્પન્ન થાય તે તેના ઉપર રાજકુલને અધિકાર હોય છે આ બે રને એક રાજાના રાજ્ય કાલમાં ઉત્પન્ન થયાં છે. માટે છે સ્વામિન્ ! જેથી રાજકુલની પરંપરાગત સ્થિતિ વિનષ્ટ ન થાય તે ધ્યાનમાં લઈ હાથી તથા હારને અર્પણ કરે અને હલ્પ કુમારને પણ કૃણિક રાજાની પાસે મોકલી આપે. २० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - निरयावलिकाम गमा प्रयमं याद बहरपयं व कुमारं प्रपयामि । तं दूतं सत्करोति सम्मानपनि भनिमिर्जानि । नतः मनु म दतो यारन् कृणिकम्य गडो० वर्धयित्वा एवमवादीनपेटको गना आमापयनि-यथा चैत्र बल देवानुपिय ! कुणिको राजा श्रेणि यः पुनः चलनाया देन्या आत्मजः यावद् वैद्दत्यं कुमारं पयामि, जाति जन च्यामिन ! चेटको गजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादनन . बदललयं कुमारं नो अपयनि । दन माग गजा पूणिर की ऐसी विज्ञप्ति सुनकर राजा चेटपने नाले म प्रकार फष्टना प्रारम्भ किया-हे देवानुपिय ! जिस गर गजा कृणिर श्रेणिक गजाका पुत्र है, चेल्लना देवीका आत्मज है और मंग दौरित उनी प्रकार कुमार बहरल्य भी श्रेणिक राजा पन-देना देवीका आत्मज और मेरा दौहिन है, राजा श्रेणिने अपनी जोविनावधामें ही सेचनक गन्धहाथी और अठारण बीमाया दार कुमार वैल्यको प्रेमसे दिया है अतः उनपर राज. एका अधिकार नही है नो भी यदि राजा फणिक हाथी और र लेना चाहता है तो उसे चाहिये कि गाय गप्ट और जनपद का यामा माग कुमार चैत्यको बंद । मा करने पर मैं हाथी और पाक मारलाको भेज दगा । सा कहकर राजा घेटकने उस नागा सादर मन्तार किया और उसे विमजित कर दिया । वर दारशालानगरीरे चलकर गाजा कणिकर पास आया ओर हाय ८ . . . . 11111 २०६५it - 12 तने भी 12 ::. :- 1. 4 दाने enc ry P.en y४ .: " . .. .. ... . .. .. र पे य पन्न . . . . . : ...... .? . . ..... '. .in . . .. . . . . य... म . अधि. nil. ly.it न पy anty . ...... ... ... ५६ की Eno fit fast Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेटककूणिकयोः दूतद्वारासंवादः - ततः खलु स कुणिको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः यावन्मिसिमिसी-कुर्वन् तृतीयं दृतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छ खल त्वं देवानुप्रिय ! वैशाल्यां नगा चेटकस्य राज्ञो वामेन पादेन पादपीठमाक्राम, आक्रम्य कुन्ताग्रेण लेखं प्रणायय, प्रणाय्य जोड जय विजय शब्द के साथ उन्हें पधाकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया-हे स्वामिन् । राजा चेटकने इस प्रकार उत्तर दिया कि-जिस प्रकार राजा कूणिक राजा श्रेणिकके पुत्र चेल्लना देवीके आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार चैहल्ल्य भी है। राजाश्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही सेचनक गंधहाथी ओर अठारह लडीवाला हार बैहल्ल्य कुमारको प्रेमले दिया है अतः इसपर राजकुलका अधिकार नहीं है, फिर भी यदि वह कुमार वैहल्ल्यके लिये अपने राज्य राष्ट और जनपदका आधा भाग देदे तो में हाथी और हार उसको देदूंगा तथा वैहरूल्य कुमारको भी भेज दूंगा। इसलिये हे स्वामिन् । राजा चेटकने न तो सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार हो दिया और न कुमार वैहल्ल्यको भेजा। उस दूतके मुख से इल प्रकारका वचन सुनकर राजा कणिक सहसा क्रोधसे जलने लगा और उसने तीसरी बार दूतको धुलाकर રાજા કૃણિકની પાસે આવ્યું અને હાથ જોડી જય વિજ્ય શબ્દથી તેને વધાવી આમ वा ताश्य: હે સ્વમિન! રાજા ચેટકે એવા પ્રકારને જવાબ દીધું કે જે પ્રકારે રાજા કુરિક રાજા શ્રેણિકને પુત્ર ચેલના દેવીને આત્મજ તથા મારે દેડિત્રે છે તે જ પ્રકારે વેહલ્ય પણ છે રાજા શ્રેણકે પિતાની હૈયાતીમાજ સેચનક ગધહાથી અને અડાર સરને હાર વહુહ્ય કુમારને પ્રેમથી આપેલ હોવાથી તેના ઉપર રાજકુલને અધિકાર નથી તેમ છતાં પણ જે કુમાર હિલ્ય માટે પોતાના રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદને અરધે ભાગ તે આપે તે હું સેચનક ગધહાથી તથા અઢાર સરને હાર તેને આપી દઈશ તથા પૈડય કુમારને પણ મોકલી દઈશ માટે છે સ્વામિન્ ! રાજા ચેટકે નથી દીધા સેચનક ગધડાથી કે નથી દીધા અઢાર સરને હાર અને નથી કયા કુમાર वायने. તે દૂતના મેથી એવા વચન સાંભળીને રાજ કૃગિક તરત bધથી આગની જેમ ગરમ થઈ ગયો અને તેણે ત્રીજી વાર ડૂતને બેલાવીને કહ્યું હે દેવાનુપ્રિય! Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ निरयावलिकासूत्रे आशुरक्तो यावत् मिसिमिसीकुर्वन् त्रिवलिका भुकुटि ललाटे संहृत्य चेटकं राजानमेवं बद-ई भो चेटकराजाः ! अप्रार्थितपार्यकाः ! दुरन्त-यावत्परिवर्जिताः ! एप खलु कुणिको राजा आज्ञापयति-प्रत्यर्पयत खलु कणिकस्य राज्ञः सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्र च हारं वेहल्लयं च कुमारं प्रेषयत, अथवा युद्धसज्जाः तिष्ठत । एप खलु कूणिको राजा सवलः सवाहनः सस्कन्धावारः खलु युद्धसज्ज इह हव्यमाच्छति ॥ ४२ ॥ ____टीका-'तएणं से कृणिए' इत्यादि-सवल: सेनायुक्तः, सवाहनः स्थादियानसहितः, सस्कन्धावारः-सशिविरः, 'छाउनी' इति भापायाम् । शेषं सुगमम् ॥ ४२ ॥ मूलम्-तएणं से दूए करयल० तहेव जाव जेणेव चेडए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता एवं वयासी एस णं सामी! ममं विणयपडिवत्ती, फिर कहा-हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें जाओ, वहाँ जाकर राजा चेटकके पादपीठको अपने बायें पैरसे ठोकर मारकर भालेकी नोंकसे इस पत्रको देना। पत्र देकर शीत्र ही क्रोधित होजाना, एवं क्रोधसे धगधगाते हुए त्रिवलो और भ्रकुटिको अपने ललाटपर खींचकर चेटक राजासे इस प्रकार कहो-रे मृत्युको चाहनेवाले-निर्लज्ज ! बुरे परिणामवाले मृर्ख राजा चेटक ! वह कणिक राजा तुझे आज्ञा देता है कि-सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार मुझे अर्पित करदे और कुमार वैहल्ल्यको मेरे पास भेजदे, नही तो संग्रामके लिए तैयार होजा, राजा कणिक सेना, वाहन और. शिविर के साथ युद्ध के लिए तत्पर होकर शीघ्र आ रहा है ॥ ४२ ॥ વિશાલી નગરી જા અને ત્યાં જઈ રાજા ચેટકના પાદપીઠને તારા ડાબા પગેથી ઠોકર મારીને ભાલાની અણીથી આ પત્ર દેજે પત્ર દઈને તુરત ક્રોધિત થઈ જજે અને ક્રોધથી આગની પેઠે ગરમ થઈ ત્રિવલી તથા ભ્રમરને કપાલ ઉપર ખેચી રાજા ચેટકને આમ કહેજે-રે મૃત્યુને ચાહનારા–નિલ જજ ખરાબ પરિણામવાળા મૂખે રાજા ચેટક ! તને કૃણિક રાજા આજ્ઞા દે છે કે–સેચનક ગધહાથી અને અઢાર સરવાળે હાર મને આપી દે અને કુમાર વૈહલ્યને મારી પાસે મોકલી દે અગર જો તેમ નહિ તે સ ગ્રામ માટે તૈયાર થઈ જા રાજા કૃણિક સેના, વાહન તથા શિબિરની સાથે યુદ્ધ માટે તત્પર થઈ તુરત આવી રહ્યા છે. (૪૨) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकस्य कालादिकैः सहमन्त्रणा १५७ इयाणि कणियस्स रन्नो आणत्तो चेडगस्स रन्नो वामेणं पाएणं पायपीठं अक्कमइ, अक्कमित्ता, आसुरुत्ते कुंतग्गेण लेहं पणावेइ तं चैव सबलखंधावारे णं इह हव्वमागच्छइ । तएणं से चेडए राया तस्स दूयस्स अंतिइ एयमहं सोच्चा निसम्म आसुरुते जाव साहहु एवं वयासी-न अपिणामिणं कणियस्स रन्नो सेयणगं अट्ठारसवंकं हारं, वेहलं च कुमारं नो पेसेमि, एस णं जुद्धसजे चिट्ठामि । तं द्वयं असक्कारियं असंमाणियं अवहारेणं निच्छुहावे । तएण से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म आसुरुते कालादीए दस कुमारे सहावेइ, सदावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गन्धहत्थि अहारसवंकं हारं अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपातो पडिनिक्खमड़, पडिनिक्खमित्ता वेसालि अजगं चेडगरायं उवसंपजित्ताणं विहरइ । तए णं मए सेयणगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसवंकस्स हारस्स अट्ठाए दूया पेसिया, ते य चेडएण रण्णा इमेणं कारणेणं पडिसेहिया अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूर असक्कारिए, तं अवदारेणं निच्छुहावेइ तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं चेडree रन्नो जुत्तं गिहित्तए । तए णं कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमहं विणणं पडिसुर्णेति । तणं से कणिए राया कालादीए दस कुमारे एवं वयासी - गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सपसु ससु रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं पहाया जाव पायच्छित्ता हत्थिखंधवरगया पत्तेयं-पत्तेयं तिहिं दंतिसहस्सेहिं, एवं तिहिं रहसहस्सेहिं, तिहिं आससह Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रे आशुरक्तो यावत् मिसिमिमीकुर्वन् त्रिवलिको भृकुटि ललाटे संहृत्य चेटकं राजानमेवं वद- भो चेटकराजाः! अप्रार्थितपार्थकाः ! दुरन्त-यावत्परिवजिताः ! एप खलु कुणिको राजा आज्ञापयति-प्रत्यर्पयत ग्वलु कणिकस्य राज्ञः सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रच हारं वेहल्लयं च कुमारं प्रेषयत, अथवा युद्धसज्जाः तिष्ठत । एप खलु कूणिको राजा सबलः सवाहनः सस्कन्धावारः खलु युद्धमन इह हव्यमाच्छति ॥ ४२ ॥ टीका-'तएणं से कृणिए' इत्यादि-सवला सेनायुक्तः, सवाहनः= स्थादियानसहितः, सस्कन्धावारः-सशिविरः, 'छाउनी' इति भाषायाम् । शेषं मुगमम् ॥ ४२ ॥ मूलम्-तएणं से दूए करयल० तहेव जाव जेणेव चेडए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता एवं वयासी एस णं सामी! ममं विणयपडिवत्ती, फिर कहा-हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें जाओ, वहाँ जाकर राजा चेटकके पादपीठको अपने बार्य परसे ठोकर मारकर भालेकी नौकसे इम पत्रको देना। पत्र देकर शीघ्र ही क्रोधित होजाना, एवं क्रोधसे धगधगाते हुए त्रिवलो और भ्रकुटिको अपने ललाटपर खींचकर चेटक राजासे इस प्रकार कहो-रे मृत्युको चाहनेवाले-निर्लज्ज ! बुरे परिणामवाले मुर्ख राजा चेटक ! वह कणिक राजा तुझे आज्ञा देता है कि-सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार मुझे अर्पित करदे और कुमार वैहल्ल्यको मेरे पास भेजदे, नही तो संग्रामके लिए तैयार होजा, राजा ऋणिक सेना, वाहन और. शिविर के साथ युद्ध के लिए तत्पर होकर शीघ आ रहा है ॥ ४२ ॥ વિશાલી નગરી જા અને ત્યાં જઈ રાજા ચેટકના પાદપીઠને તાગ ડાબા પગેથી ઠોકર મારીને ભાલાની અણીથી આ પત્ર દેજે પત્ર દઈને તુરત ક્રોધિત થઈ જજે અને ક્રોધથી આગની પિઠે ગરમ થઈ ત્રિવલી તથા ભ્રમરને કપાલ ઉપર બે થી રાજા ચેટકને આમ કહેજ-રે મૃત્યુને ચાહનારા–નિલ જજ ! ખરાબ પરિણામવાળા મૂર્ખ રાજ ચેક! તને કૃણિક રાજા આજ્ઞા દે છે કે–સેચનક ગધડાથી અને અઢાર સરવાળો હાર મને આપી દે અને કુમાર હિલ્યને મારી પાસે મોકલી દે અગર જો તેમ નહિ તે સ ગ્રામ માટે તૈયાર થઈ જા રાજ કૃણિક સેના, વાહન તથા શિબિરની સાથે યુદ્ધ માટે તત્પર થઈ તુરત આવી રહ્યા છે. (૪૨). Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकस्य कालादिकैः सहमन्त्रणा १५७ इयाणि कणियस्स रन्नो आणत्तो चेडगस्स रन्नो वामेणं पाएणं पायपीठं अक्कमइ, अकमित्ता, आसुरुत्ते कुंतग्गेण लेहं पणावेइ तं चेव सबलखंधावारे णं इह हव्वमागच्छइ । तएणं से चेडए राया तस्स दूयस्स अंतिइ एयमहं सोचा निसम्म आसुरुत्ते जाव साटु एवं वयासी-न अप्पिणामि णं कृणियस्स रन्नो सेयणगं अट्ठारसवंकं हारं, वेहल्लं च कुमार नो पेसेमि, एस णं जुद्धसजे चिट्ठामि । तं दूयं असक्कारियं असंमाणियं अवदारेणं निच्छहावेइ । तएणं से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयम सोचा णिसम्म आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सदावेइ, सदा वित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसर्वकं हारं अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपातो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वेसालिं अजगं चेडगरायं उवसंपजित्ताणं विहरइ । तए णं मए सेयणगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसवंकस्स हारस्स अट्ठाए दूया पेसिया, ते य चेडएण रण्णा इमेणं कारणेणं पडिसेहिया अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूए असकारिए, तं अवदारेणं निच्छुहावेइ तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं चेडगस्स रन्नो जुत्तं गिण्हित्तए । तए णं कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमढे विणएणं पडिसुणेति । तएणं से कणिए राया कालादीए दस कुमारे एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सएसु सएसु रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं ण्हाया जाव पायच्छित्ता हत्थिखंधवरगया पत्तेयं-पत्तेयं तिहिं दंतिसहस्सेहि, एवं तिहि रहसहस्सेहि, तिहिं आससह Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ निरयावमिकास्त्रे स्सेहि, तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडा सब्विड्डीए 'जावं रवेणं सएहितो २ नयरेहितो पडिनिक्खमह, पडिनिक्खमित्ता ममं अंतियं पाउब्भवह । तए णं ते कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमं सोचा सएसु सएसु रज्जेसु पत्तेयं२ पहायाजाव तिहि मणुस्सकोडीहि सद्धिं संपरिबुडा सव्विड्डीए जाव रवेणं सएहितो२ नयरेहितो पडिनिखमंति, पडिनिश्वमित्ता जेणेव अंगा जणवए जेणेव चंपा नयरी जेणेव कणिए राया तेणेव उवागया करयल० जाव वद्धाति । तएणं से कणिए राया कोडंबियपुरिसे सहावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हय गय-रह-चाउरंगिणिं सेणं संनाहेह, ममं एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, जाव पचप्पिणंति । तए णं से कणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छद जाव पडिनिगच्छित्ता जेणेव वाहिरिया उवहाणसाला जाव नरवई दुरुढे । तए णं से कृणिए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रवेणं चंपं नयरिं भझं-मझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेत्र कालादीया दस कुमारा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कालाइएहि दसहिं कुलारेहि सहिं एगओ मेलायति । । तए णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं तेत्तीसाए आलसहस्सेहि, तेत्तीसाए रहसहस्सेहि, तेत्तीसाए मणु स्सकोडीहिं सद्धि संपरिखुडे सविडीए जाव रवेणं सुभेहि वसहिपायरासेहिं नाइविप्पगिटेहिं अंतरावासहि वसमाणे२ अंग Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका, अ. १ कूणिकस्य कालादिकैः सहमन्त्रणा १५९ • जणवयस्स मज्झं-मज्झेणं जेणेव विदेहे जणवए जेणेव वेसाली नयरी तेणेव पहारित्थ गमणाए ॥ ४३ ॥ छाया-ततः खलु स दूतः करतल० तथैव यावद् यत्रैव चेटको राजा " तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतल० यावद् वर्धयति, वर्धयित्वा एवमवादीएषा खलु स्वामिन् ! मम विनयप्रतिपत्तिः, इदानी फणिकस्य राज्ञः आज्ञप्तिः चेटकस्य राज्ञो चामेन पादेन पादपीठमाक्रामति, आक्रम्य आशुरक्तः कुन्ताग्रेण लेखं प्रणाययति तदेव सबलस्कन्धावारः खलु इह. हव्यमागच्छति । ___ 'तएणं से दूए' इत्यादि-राजा कूणिकके ऐसा कहनेपर उस दूतने राजाकी आज्ञाको हाथ जोडकर स्वीकार की और पहिलेके ही समान राजा घेटकके पास आया, आकर हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ बधाकर इस प्रकार कहा कि--हे स्वामिन् ! यह मेरा विनय है, और अब जो राजा कूणिककी आज्ञा है वह कहता हूँ, ऐसा कहकर अपने बाये पैरसे राजा चेटकके सिंहासनके पादपीठको ठोकर लगाता है और कोपले आरक्त हो भालेकी नोंकसे पत्र देकर कणिकका सन्देश सुनाता है। . रे मृत्युको चाहनेवाले-निर्लज्ज ! बुरे परिणामवाले मूर्ख राजा चेटक ! वह कणिक राजा तुझे आज्ञा देता है कि सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार मुझे अर्पित करे, व कुमार वैहल्यको मेरे पास भेजदे, नहीं तो संग्रामके लिए तैयार होजा, राजा कुणिक सेना वाहन और शिबिरके साथ युद्ध के लिए तत्पर होकर शीघ्र आरहा है। 'तएणं से दूए' त्या રાજા ણિકના કહેવા પછી તે દૂત રાજાની આજ્ઞાને હાથ જોડી સ્વીકાર કરી અને પહેલાની પહેજ રાજા ચેટકની પાસે આવ્યે આવીને હાથ જોડી જય વિજ્ય શબ્દથી વધાવી આ પ્રકારે કહ્યું કે-હે સ્વામિન્ આ મારી તમ્ફનો વિનય છે અને હવે જે રાજા કૃણિકની આજ્ઞા છે તે કહુ છુ. એમ કહીને પિતાના ડાબા પગથી રાજા ચેટકના સિંહાસનની પાસે રહેલા પાપીઠને ઠેકર મારી દે છે તથા કેપથી લાલચોળ થઈ જઈ ભાલાની અણીથી પત્ર આપીને કૂણિક સ દેશ સ ભળાવે છે–રે મૃત્યુને ચાહનારા નિર્લજજ, ખરાબ પરિણામવાળા મૂખે રાજા ચેટક ! તને કૂણિક રાજા આજ્ઞા દે છે કે–સેચનક ગધહાથી અને અઢર સરવાળો હાર મને આપીદે અને કુમાર વૈડલ્યને મારી પાસે મોકલી દે અગર જો તેમ નહિ તે સગ્રામ માટે તૈયાર થઈ જા રાજા કૃણિક સેના, વાહન તથા શિબિરની સાથે યુદ્ધ માટે તત્પર થઈ તુરત આવી રહ્યા છે. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिकास्त्रे ततः खलु स चेटको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमय श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः यावत् संहृत्य एवमवादीत्-नार्पयामि ग्वलु कणिकस्य राज्ञः सेचनकमष्टादशवक्रं हारं वैढल्यं च कुमारं नो पेपयामि, एप खलु युद्धसज्जस्तिठामि । तं दृतमसत्कारितमसम्मानितमपद्वारेण निष्कासयति ।। ततः खलु स कूणिको राजा तम्य दूतस्यान्तिके एतमथै श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः कालादीन दशकुमारान शब्दयित्वा एवमत्रादीत्-एवं ग्वलु देवानुप्रियाः ! वैहल्यः कुमारो मम अमंविदितः ग्बल सेचनकं गन्धहस्तिनम् वह चेटक राजा उस दूतके मुँहसे इस प्रकारका सन्देश सुनकर कोपसे आरक्त हो उठा और आखे नडेरकर इम प्रकार कहने लगा-रे दन ! में कूणिकको न तो सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार ही दे सकता हूँ, और न कुमार वैहल्ल्यको ही भेज सकता हूँ, तृ जा और कह दे जो कूणिकको करना हो सो करे, युद्ध के लिए मै तैयार है। एमा कहकर वह उम दुतको अपमानित ( काला मुंहकर गधेपर बैठा) कर नगरके पिछले बारसे निकाल देता है। दूत चहासे चलकर वापम अपने राजा कुणिकके पास आया और उनको सारा वृत्तान्न सुनाया। कूणिक, दूनके मुख मे गजा चेटकका संवाद सुन कोपारक्त हो काल आदि दस कुमारोंको धुलवाना है और उन्हें धुलवाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! वैहल्ल्य कुमार मुझसे बिना कुछ તે ચેટક રાજ તે દૂતના મેથી ના પ્રકારના સંદેશા સાંભળીને કેપથી લાલચોળ થઈ ગયે તથા આખે કાઢી આ પ્રકારે કહેવા લાગ્યો-રે દૂત! હું કુણિકને ન તે સેચનક ગધહાથી કે અઢ- અર પાળા હાર દઈ શકીશ કે ન તે કુમાર હલક્ષ્યને પણ મોકલી શકીશ. માટે તુ છે અને કહી દે કણિકને જે કર્યું હોય તે કરે યુદ્ધ માટે હું તૈયાર છું એમ કહીને તે દૂતન અપમાનિત કરી (મેહુ કાળું કરી ગધડા પર બેસાડી) નગરના પાછલા અવાજથી અઢી મૂકે છે. દૂત ત્યાથી ચાલીને પાછો પોતાના રાજા કુણકની પાસે આવે અને તેને સર્વ હકીક્ત સભળાવી. કૃણિક દૂતના મેટથી રાજા ચેટકના સંવાદ સાંભળી કેપથી રકત થઈ કાલ આદિ દશ કુમારને બોલાવે છે તથા તમને બોલાવીને આ પ્રકારે કહે છે-હે દેવાનુપ્રિયે! વહય કુમાર મને કાંઈ પણ કહ્યા વગજ મેચનક ગધહાથી અને અઢાર Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकस्य कालादिकैः सह मन्त्रणा १६३ अष्टादशवक्र हारम् अन्तपुरं सभाण्डं च गृहीत्वा चम्पातो निष्कामति, निष्क्रम्य वैशालीम् आर्यकं चेटकराजम् उपसंपद्य विहरति । ततः खलु मया सेचनकस्य गन्धहस्तिनः अष्टादशवक्रस्य हारस्य अर्थाय दूनाः प्रेषिताः, ते च चेटकेन राज्ञा अनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः, अथोत्तरं च खलु मम तृतीयो दूतः असकारितः, तम् अपद्वारेण निष्कासयति, तच्छेयः खलु देवानुपियाः ! अस्माकं चेटकस्य राज्ञः युक्तं ग्रहीतुम् ।। ततः खलु कालादिकाः दश कुमाराः कणिकस्य राज्ञः एतमर्थ विनयेन प्रतिशृण्वन्ति । ततः खलु स कूणिको राजा कालादीन दश कुमारान् एवमवादीकहे ही सेचनक गंधहाथी, अठारह लडीवाला हार, एवं अपने अन्तःपुर परिवारके सहित सभी प्रकारकी गृहसामग्रियाँ लेकर चम्पानगरीसे निकल गया और निकलकर वैशालीनगरीमें राजा चेटकके पास जाकर रहेने लगा है। इस समाचारको पाकर मैने हाथी और हारके लिए अपने दो दूतो को दो बार भेजे लेकिन राजा चेटकने हमारी बातको स्वीकार नहीं किया, फिर मैने तीसरे दतको भेजाः परन्तु राजा चेटकने उसका अपमान कर उसे अपद्वारसे निकाल दिया। इसलिये हे-देवानुप्रियों ! हम लोगोंको चाहिये कि हम राजा चेटकका निग्रह करें। यह सुनकर वे काल आदि दस कुमारोंने राजा कूणिककी इस वातको स्वीकार किया। उसके बाद वह कुणिक राजा काल आदि दस कुमारोंको इस સરને હાર અને પિતાના અતઃપુર પરિવાર સહિત તમામ જાતની ગૃહસામગ્રી લઈને ચપાનગરથી નીકળી ગયે અને જઈને વૈશાલી નગરીમાં રાજા ચેટકની પાસે રહેવા લાગ્યું. આ સમાચાર જાણીને હાથી તથા હાર માટે મે મારા બે તેને બે વાર મોકલ્યા પણ રાજા ચેટકે મારી વાતને સ્વીકાર કર્યા નથી પછી મે ત્રીજા દૂતને મોકલાવ્યો પણ રાજા ચેટકે તેનું અપમાન કરી તેને પાછલે દરવાજેથી કાઢી મૂકે. માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણા માટે આવશ્યક છે કે રાજ ચેટકનો નિગ્રહ કર આ સાંભળી તે કાલ આદિ દશ કુમારએ રાજા કુણિકની આ વાતને સ્વીકાર કરો. ત્યાર પછી તે કથક રાજા કાલ આદિ દશ કુમારને આ પ્રમાણે કહે છે ૨૧ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ निरयावळिका सूत्रे प्रत्येकं प्रत्येकं स्नाता गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः । स्वकेषु राज्ये यावत् प्रायश्चित्ताः इस्तिस्कन्धवरगताः प्रत्येकं प्रत्येक त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः, एवं त्रिभी रथसहस्रः, त्रिभिरश्वसह तिसृभिर्मनुष्यकोटिभिः सार्द्धं संपरिवृताः सर्व यावद् - रवेण स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्क्रामत, प्रतिनिष्क्रम्य ममान्तिकं प्रादुर्भवत । , ततः खलु ते कालादिका दशकुमाराः कुणिकस्य रान एतमर्थ श्रश्वा स्वकेषु स्वकेषु प्रत्येक प्रत्येक स्नाता यावत् तिसृभिर्मनुष्य कोटिभिः सार्द्धं संपरिवृताः सर्वद्धय यावद् रवेर्ण स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव अड्डा जनपदाः, यत्रैव चम्पानगरी, यत्रैव कूणिको राजा तत्रैवोपागताः करतल० यावद् वर्धयन्ति 1 प्रकार कहता है - हे देवानुप्रियों ! तुम लोग अपने२ राज्यमें जाओ । वहाँ जाकर स्नान और मांगलिक कृत्यकर हाथीपर चढ, तुममेंसे हरेक कुमार तीनर हजारे हाथी, तीन२ हजार रथ, तीन२ हजार घोडे, एवं तीन करोड सैनिकोंके सहित सभी प्रकारकी सामग्रियोंसे युक्त हो सज-धजकर बाजे-गाजे सहित अपने२ नगरौसे निकलो और मेरे पास आओ । यह सुनकर वे काल आदि दस कुमार अपने २ राज्यमें गये वहां जाकर कूणिकके निर्देशानुसार सभी प्रकार की सामग्रीयोंसे युक्त हो अपने २ नगरसे निकले । और अंग देश चम्पानगरीमें राजा कूणिकके पास आए और हाथ जोड जय विजयके साथ राजाको वधाये । હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેાકા પેાત–પેાતાના રાજ્યમાં જાઓ ત્યા જઈને સ્નાન તથા માંગલિક કમ કરી હાથી ઉપર ચડી તમારામાંના દરેક કુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી, ત્રણ-ત્રણ હજાર રથ, ત્રણ-ત્રણ હજાર ઘેાડા અને ત્રણ ત્રણુ કરેડ સૈનિક સાથે તમામ પ્રકારની સામગ્રી લઇ તૈયાર થઇ વાજતે ગાજતે પાતપેાતાના નગરેામાથી નીકળી મારી પાસે આવા આ સાંભળી તે કાલ આદિ દશ કુમારા પાતપાતાના રાજ્યમા ગયા. ત્યા જઇને કૃણિકના કહ્યા પ્રમાણે તમામ પ્રકારની તૈયારી કરી એત્ર સર્વ પ્રકારની સામગ્રી લઈને પાનપેાતાના નગરમાથી નીકળ્યા અને અગ દેશના ચ ા નગરીમાં રાજા કૃણિકની પાસે આવ્યાં. 'ત્યાં આવીને હાથ જોડી જય વિજ્ય શબ્દોથી રાજાને વધાવ્યા. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कौटुम्बिकपुरुषान् प्रति कूणिकस्य आशा १६३ ततः खलु स कणिको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शन्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-क्षिपमेव भो देवानुप्रियाः ! आभिषेक्यं इस्तिरत्नं प्रतिकल्पयत, हय-गज-रथ-चतुरङ्गिणी सेनां संनयत ममैतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स कणिको राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति यावत् प्रतिनिर्गत्य यत्रैव बाबा उपस्थानशाला यावत् नरपतिदरूढः। ततः खलु स कूणिको राजा त्रिभिर्दन्तिसहस्त्रैः यावत् रवेण चम्पां नगरी मध्यं-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव कालादिका दश कुमारास्तत्रैव उपागच्छिति, उपागत्य कालादिकैर्दशभिः कुमारैः सार्द्धमेकतो मिलति । काल आदि दस कुमारोंके आनेके बाद वह कणिक राजा अपने कौटुम्यिक पुरुषोंको बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहना है-हे देवानुप्रियों ! शीघ्रातिशीघ्र आभिषेक्य (पट्ट) हाथीको सजाओ तथा घोडे, हाथी, रथ और चतुरङ्गिणी सेनाको संनद्ध करो । मेरी आज्ञानुसार तैयारी कर मुझे सूचित करो । राजा कूणिककी इस आज्ञाको सुनकर उन्होंने राजाके कथनानुसार सभी कार्य करके राजाको सूचित किया । उसके बाद वह कूणिक राजा जहा स्नानगृह था वहाँ आया, और स्नानादि कृत्योंसे निवृत्त हो, वहांसे निकलकर जहाँ बाहरी सभामण्डप था वहाँ पहुँचा। और वहाँ आकर वह राजा सभी प्रकारसे सुसज्जित हो अपने आभिषेक्य हाथी पर चढा । उसके बाद वह कूणिक राजा तीन २ हजार हाथी घोडे रथ કાલ આદિ દશ કુમારે આવ્યા પછી કુણિક રાજા પિતાના કૌટુમ્બિક પુરૂષને બેલાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા...હે દેવાનુપ્રિયે! એકદમ જલદીથી આભિષેકય (૫) હાથીને સજા તથા ઘોડા હાથી રથ અને ચતુરગિણી સેનાને તૈયાર કરે. મારી આજ્ઞા પ્રમાણે તેયારી કરી મને ખબર આપ રાજા કૃણિકની આ આજ્ઞાને સાભળી તેઓએ રાજાના કહેવા પ્રમાણે બધાં કાર્ય કરી રાજાને ખબર આપી. ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા જ્યાં સ્નાનગૃહ હતુ ત્યાં આવ્યા અને સ્નાન આદિ કૃત્યથી નિવૃત્ત થઈ ત્યાથી નીકળી જ્યાં બહારને સભામંડપ હતું ત્યાં પહોચ્યા અને ત્યાં આવીને તે રાજા તમામ પ્રકારે સુસજિત થઈને પિતાના આભિષેકય હાથી ઉપર બેઠા. ત્યાર પછી તે કુણિક રાજા ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘડા રથ તથા ત્રણ કરે Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ निरयावलिकासूत्र ततः खलु स कूणिको राजा त्रयस्त्रिंशताः दन्तिसहस्त्रैः, यत्र स्त्रिंशताऽश्वसहस्त्रैः, त्रयस्त्रिंशता रथसहस्त्रैः, त्रयस्त्रिंशता मनुष्यकोटिभिः साई संपरिसृतः सर्वदों यावद् रवेण शुभैर्वसनिप्रातराशेः नातिविप्रकृष्टंरन्तरावासैः बसन् २ अङ्गजनपढम्य मध्यमध्येन यत्रैव विदेहो जनपदः यत्रैत्र वैशाली नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ ४३ ॥ टीका-'तएणं से दूए' इत्यादि-अपद्वारेण लघुद्वारेण, गुप्तद्वारेण वा गृहपश्चादागेनेत्यर्थः । दुरुढ आम्दः, युक्तम्-उचितं योग्यमिति यावत्, शेष सुगमम् ।। ४३ ॥ मूलम्-तएणं से चेडए राया इमीसे कहाए लद्धडे समाणे नवमलाइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अटारस वि गणरायाणो सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खल्लु देवाणुप्पिया! वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रन्नो असंविदित्ते णं सेयणगं गन्धहत्थि और तीन करोड सैनिकोंके सहित मभी रणसामग्रीयोंके साथ चम्पानगरीके मध्यसे होकर निकला, निकलकर जहा काल आदि दस कुमार थे वहीं आया, और काल आदि दस कुमारोंसे मिला । उसके बाद वह कूणिक राजा तेतीस , हजार घोडे, तेतीस हजार रथ ओर तेतीस करोड सैनिकोंसे घिरा हुआ सभी तरहकी सामग्री युक्त बाजे-गाजेके साथ शुभ स्थानोमें ग्वान-पान करता हुआ थोडी २ दूर पर डेरा डालकर विश्राम करता हुआ अङ्ग देशके बीचो-बीचसे जहाँ विदेह देश था, जहां वैशाली नगरी थी वहीं पर जानेका निश्चय किया ॥ ४३ ॥ સનિકે સહિત તમામ યુદ્ધની સામગ્રીઓ સાથે ચંપા નગરીના મધ્યભાગમાં થઈને નીકળ્યા અને ત્યાંથી નીકળી જ્યાં કાલ આદિ દશ કુમારે હતા ત્યાં આવ્યા અને કાલ આદિ દશ કુમારોને મળ્યા , ત્યાર પછી તે કૃણિક શા તેત્રીસ હજાર હાથી, તેત્રીસ હજાર ઘેડા તેત્રીસ હજાર રથ તથા તેત્રીસ કરોડ સોનકેથી ઘેરાયેલા અને તમામ જાતની યુદ્ધ સામગ્રી યુક્ત થઈ વાજતે ગાજતે શુભ સ્થાનમાં ખાન-પાન કરતા થડે છેડે દૂર પર મુકામ કરતા કરતા વિશ્રામ લેતા થકા અગ દેશની વચ્ચે-વચ્ચે થઈને જ્યાં વિદેહે દેશ હતાં જયા વિશાલી નગરી હતી ત્યાં જવાનો નિશ્ચય કર્યો (૪૩) • Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकचेटकयोयुद्धोद्योगः १६५ अठारसवंकं च हारं गहाय इहं हव्वमागए, तएं णं कणिएणं सेयणगस्स अट्ठारसवंकस्स य अठाए तओ दूया पेसिया, ते . य मए इमेणं कारणेणं पडिसेहिया । . तए णं से कृणिए ममं एयम अपडिसुणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तं किं नु देवाणुप्पिया ! सेयणगं अहारसर्वकं च कणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणामो ? वेहल्लं कुमारं पेसेमो ? उदाहु जुज्झित्था ? तए णं नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाो चेडगं रायं एवं वयासी-न एयं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा जन्नं सेयणगं अट्ठारसवंकं कणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणिज्जइ, वेहल्ले य कुमारे सरणागए पेसिजइ, तं जइ णं कणिए राया चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिखुडे जुझसज्जे इहं हबमागच्छइ । तो णं अम्हे कणिएणं रण्णा सद्धिं जुज्झामो । तए णं से चेडए राया ते नवमल्लइ-नवलेच्छइ कासीकोसलगा अठारस वि गणरायाओ एवं वयासी-जइणं देवाणुप्पिया ! तुब्भे कूणिएणं रन्ना सद्धि जुज्झइ, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! । सएसु२ रज्जेसु बहाया जहा कालादीया जाव जएणं विजऐणं वद्धाति । तए णं से चेडए राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-आभिसेकं जहा कूणिए जाव दुरूढे । तएणं से चेडए राया तिहिं दंतिसहस्सेहि जहा कूणिए जाव वेसालिं नयरि मज्झं-मज्झेणं निगच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव ते नवमलई-नवलेच्छई-कासी-कोसलगा अट्रोरस वि गणरायाणो तेणेव उवागच्छइ। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ - निरयावलिका सूत्रे तएणं से चेडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्सेहि, लत्ता वन्नाए आससहस्सेहि, सत्तावन्नाए मणुस्सकोडीएहि सद्धि संपरिवुडे सब्बिड्डीए जाव वेणं सुभेहि वसहिपायरासेहिं नाति. विप्पगिहहिं अंतरेहि वसमाणे२ विदेहं जणवयं मज्झं-मज्झेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसणं .. करेइ, कूणियं रायं पडिवालेमाणे जुन्झसज्जे चिटइ। तएणं से कूणिए राया सव्विड्डीए जाव रखेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेडयस्स रन्नो जोय गंतरियं खंधावारनिवेसं करेइ । तए णं से दोन्नि वि रायाणो रणभूमि सज्जावेंति, सज्जावित्ता रणभूमि जयंति ॥ ४४ ॥ छाया-ततः खलु स चेटको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशी-कौशलकान् अष्टादशापि गगराजान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-एवं खलु देवानुप्रियाः ! वैहल्यः कुमारः कूणिकस्य राज्ञः असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीत्वा इह हव्य 'तएणं से चेडए' इत्यादि- . उसके बाद उस चेटक राजाने कूणिककी चढाईके समाचार सुनकर काशी और कोशल देशके नौ मल्लकी-नौ लेच्छकी इन अठारहों गणराजाओंको बुलाकर उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया हे देवानुप्रियों ! वैहल्यकुमार राजा कणिकसे डरकर सेचनक गन्धहाथी ओर अठारह लडीवाला हार लेकर मेरे पास चला 'तएणं से चेडए' त्या ત્યાર પછી તે ચેટક રાજાએ કૃણિકની ચડાઈના સમાચાર સાભળી તેણે કાશી તથા કોશલ દેશના નવ મલકી અને નવ લેચ્છકી એમ અઢાર ગણરાજાઓને બોલાવી તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. હે દેવાનુપ્રિયે! હુલ્ય કુમાર રાજા કુણિકથી ડરીને સેચનક ગધવાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર લઇને મારી પાસે ચાન્ચે આવ્યા છે એના સમાચાર મળતાં Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकचेटकयोयुद्धोद्योगः मागतः, ततः खलु कणिकेन सेचकस्य अष्टादशवक्रस्य चार्थाय त्रयो दुता; प्रेषिताः, ते च मयाऽनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः । ततः खलु स कुणिको मम एतमर्थमपतिशृण्वन् चातुरङ्गिण्या सेनयासाढे संपरिवृतः युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति तत् किं नु देवानुप्रियाः ! सेचनकमष्टादशवक्रं च कूणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयामः, वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयामः, उताहो ! युध्यामहे ?। ततः खलु नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशी-कोशलका अष्टादशापि गणराजाश्चेटकं राजानमेवमवादिषुः-नैतत् स्वामिन् ! युक्तं वा, प्राप्तं वा राजसदृशं वा यत्खलु सेचनकमष्टादशवक्रं कूणिकाय राज्ञे प्रत्ययंते, वैहल्ल्यश्च कुमारः शरणागतः प्रेष्यते, तद् यदि खलु कूणिको राजा चातुरङ्गिण्या सेनया सार्द्ध आया । इसका समाचार पाकर कणिकने मेरे पास तीन दूत भेजे, परन्तु मैंने उन दूतोंको कारण बताकर मना कर दिया। उसके बाद कूणिकने मेरी बातको न मानकर चतुरङ्गिणी सेनाके साथ लडाईके लिये तैयार होकर यहा आ रहा है । नो क्या हे देवानुप्रियो ! सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार राजा कणिककों देदें और वैहल्ल्यकुमारको उसके पास भेजदें अथवा उससे लडें ? उसके बाद वे अठारहों गणराजाओंने हाथ जोडकर इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! न यह युक्त है, न ऐसा कहनेकी आवश्यकता है, न यह राजकुलको उचित ही है, जो आप सेचनक . गन्धहाथी और अठारह लडोवाला हार राजा कूणिकको अर्पित करें और शरणमें आए हुए कुमार वैहल्ल्यको लौटादें । हे स्वामिन् ! यदि કૃણિકે મારી પાસે ત્રણ દૂત મોકલ્યા પણ મે ને દૂતને કારણ બનાવી ના પાડી દીધી ત્યાર પછી કૂણિકે મારી વાત ને નહિ માનીને ચતુરગિણું સેના સાથે લડાઈ માટે તૈયાર થઈને અહીં આવી રહ્યો છે તે શુ હે દેવાનુપ્રિયે ! સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરને હાર રાજા કૃણિકને આપી દેવો અને વિશ્વ કુમારને તેની પાસે મોકલી દે કે તેની સાથે લડાઈ કરવી? - ત્યાર પછી તે અઢારે ગણ રાજાઓએ હાથ જોડીને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે સ્વામિન્ ! નથી તે આ વાજબી કે નથી આવી રીતે કરવાની આવશ્યક્તા વળી આ પ્રમાણે કરવુ રાજકુલને ઉચિત પણ નથી કે આપ સેચનક ગધ હાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર રાજા કુણિને અર્પણ કરી દીઓ અને શરણે આવેલા કુમાર વૈવલ્યને પછે મેકલી દીએ. હે સ્વામિન ! જે રાજા કિ ચતુરંગિણી સેના લઈને Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ निरयावलिकासूत्रे संपरितो युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति तदा खलु वयं कूणिकेन राजा सार्द्ध युध्यामहे । ___ ततः खलु स चेटको राजा तान् नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशीकोशलकान अष्टादशापि गणराजान् एवमत्रादीत् यदि खलु देवानुप्रियाः ! यूयं कुणिकेन राज्ञा साद्ध युध्यध्वं, तदन्छत खलु देयानुप्रियाः ! स्वकेघु स्वकेपु राज्येषु, स्नाता यथा कालादिका यावद् जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति । __ ततः खलु स चेटको राजा कौटुम्बिकापुरुषान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-आभिषेक्यं यथा कूणिको यावद् दूरूढः । राजा कूणिक चतुरङ्गिणी सेनाके साथ लडाइके लिये तैयार हो आ रहा है तो हम लोग भी लहनेके लिए तैयार है । उन राजाओंकी ऐसी बातें सुनकर गजा चेटकने उन अठारहों राजाओंसे इस प्रकार कहा-यदि हे देवानुप्रियों! तुम लोग कूणिकसे लडना चाहते हो तो अपने २ राज्यमें जाओ और वहाँ जाकर स्नान आदि क्रिया करके लडनेके लिए काल आदि कुमारोंके समान तुम भी सेना आदिसे सज्ज हो यहा आओ। राजा चेटककी आज्ञा पाकर वे गणराजा अपने २ राज्यमें जाकर वहाँसे सभी प्रकारकी सैन्य सामग्रियोंसे युक्त हो राजा चेटककी सहायताके लिये वैशाली नगरोमें आते हैं और राजा चेटकको जय विजयके साथ वधाते हैं। उसके बाद वह चेटक राजा अपने कौडम्बिक पुरुषोंको वुलवाता है और उनसे अपना आभिषेक्य हाथीको सजित करके लानेकी લડાઈ માટે તૈયારી કરીને આવે છે તે અમે લેકે પણ લડવા માટે તૈયાર છીએ તે રાજાઓની એ પ્રમાણે વાતે સાભળી રાજા ચેટકે તે અઢારે રાજાઓને આ પ્રકારે કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિ ! જે તમે લોકે કૃણિક સાથે લડવા ચાહતા હે તે પિતપેતાના રાજ્યમાં જાઓ અને ત્યાં જઈ સ્તાન આદિ વગેરે ક્રિયા કરી લડવા માટે કાલ આદિ કુમારની સમાન તમે પણ સેના આદિથી સજજ થઈ અહીં આવો રાજ ચેટકની આજ્ઞા સાંભળી તે ગણરાજાએ પિતપોતાના રાજ્યમાં જઈ અને ત્યાથી સવ પ્રકારની કોન્ય સામગ્રીથી યુકત થઈ રાજા ચેટકને સહાયતા કરવા માટે વૈશાલી નગરીમાં આવે છે અને રાજા ચેટકન જય વિજયના શબ્દ સાથે વધ વે છે ત્યાર પછી તે ચેટક રાજા પિતાના કોમ્બિક પુરૂષને બોલાવે છે અને તેમને પિતાને આભિષેકય (પટ્ટ) હાથી સજજ કરી લાવવા આજ્ઞા આપે છે કૃણિકની પેઠ તે પણ પિતાના પદ હાથી પર બેસે છે. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकचेटकयोयुद्धद्योगः १६९ ततः खलु स चेटको राजा त्रिभिर्दन्तिसहयथा कूणिको यावद् वैशाली नगरों मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव ते नवमल्लकी-नवलेच्छकीकाशी-कौशलका अष्टादशापि गणराजास्तत्रैवोपागच्छति । ततः खलु स चेटको राजा सप्तपञ्चाशता दन्तिसहस्रः, सप्तपञ्चाशता अश्वसहस्रैः, सप्तपश्चाशता रथसहस्रः, सप्तपञ्चाशता मनुस्यकोटिभिः, सार्दै संपरिवृतः सर्वद्धर्या यावद् रवेण शुभैर्वसतिप्रातराशेर्नातिविप्रकृष्टैरन्तरैर्वसन २ विदेहं जनपदं मध्य-मध्येन यत्रैव देशप्रान्तस्तत्रैवोपागच्छति, उषागत्य स्कन्धावारनिवेशनं करोति, कृत्वा कूणिकं राजानं प्रतिपालयन् युद्धसज्जस्तिष्ठति । ____ ततः खलु स कूणिको राजा सर्वद्धर्या यावद् रवेण यत्रैव देशमान्तस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेटकस्य राज्ञो योजनान्तरितं स्कन्धावारनिवेशं करोति । आज्ञा देता है। कूणिकके समान वह भी अपने पट्टहाथीपर चढता है। वहासे वह चेटक राजा तीन २ हजार हाथी, घोडे, रथ और तीन करोड सैनिकोंके साथ कूणिकके समान ही अपनी वैशालीनगरीके यीचो-बीच होकर जहाँ वे अठारहों गणराजा थे वहा आया । और वहाँ चेटक राजा सत्तावन हजार हाथी, ससावन हजार घोडे, सत्तावन हजार रथ, और सत्तावन कोटि सैनिकोंसे परिवेष्टित हो सभी प्रकारके साज-बाज और बाजे-गाजेके साथ अच्छे स्थानोंमें प्रात:कालिक भोजन करते हुए थोडी २ दूरपर डेरा डालकर विश्राम करते हुए विदेह देशके बीचो-बीचसे होते हुए जहाँ देशका प्रान्तसीमाभाग था वहाँ आया । वहाँ आकर अपने शिविर तैयार करवाया और लडाईके लिये राजा कूणिककी प्रतीक्षा करने लगा। ત્યાંથી તે ચેટક રાજા ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ અને ત્રણ કરોડ સૈનિકે સાથે કૃણિકની પિઠેજ પિતાની વૈશાલી નગરીની વચમાં થઈને જ્યાં તે અઢાર ગણરાજાઓ હતા ત્યાં આવ્યો અને ત્યા તે ચેટક રાજ સત્તાવન હજાર હાથી સત્તાવન હજાર ઘેડા સત્તાવન હજાર રય તથા સત્તાવન કરેડ સેનિકેથી ઘેરાઈને તમામ પ્રકારના સાજ બાજ અને વાજા ગાજા ની સાથે સાથે સારાં સ્થાનમાં પ્રાતઃ કાલિક ભજન કરતા થકા, થેડે થોડે દૂર મુકામ કરતા થકા, વિશ્રામ લેતા થકા, વિદેડ દેશની વચ્ચે-વચ થઈને જ્યા દેશની સરહદ હતી ત્યાં આવ્યા ત્યાં આવીને પિતાની છાવણ તૈયાર કરાવી અને લડાઈ માટે રાજા કૃણિકની રાહ જોવા લાગ્યા. ૨૨ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७.' निरयावलिकास्त्रे ततः खलु नौ द्वावपि राजानौ रणभूमि सज्जयतः, सज्जयित्वा रणभूमि यातः ॥ ४३ ॥ टीका-'तएणं से चेडए, इत्यादि-नवमल्लकिनः काशीदेशस्थगणराजाः, नवलेच्छकिनः कोशलदेशस्थगणराजाः, नान् । युक्तम् योग्यमिति, प्राप्तम्= अधिकारोचितं, गजमदृशम् राजवंशीयानुरूपं यत्स्यन्निश्चयेन । प्रतिपालयन्प्रतीक्षमाणः । शेषं मुगमम् ॥ ४४ ॥ मूलम्-तएणं से कूणिए तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोंडीहि गरुलवूहं रइए, रइत्ता गरुलवूहेणं संगामं उवायाए। तएणं से चेडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्सेहि जाव सत्तावन्नाए मणुस्सकोडोहिं सगडवूहं रएइ, रइत्ता सगडचूहेणं रहमुसलं संगामं उवायाए । तएणं ते दोण्ह वि राईणं अणीया सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणा मंगतिएहिं फलएहिं निकट्टाहिं असीहि, अंसगएहिं तोणेहि, सजीवेहिं धर्हि, समुक्खित्तेहिं संरेहि, समुल्लालिताहिं डावाहि, ओसारियाहिं उरुघंटाहि, छिप्पतूरेणं वजमाणेणं, महया उक्किटुसीहनायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा सविडीए जाव रवेणं हयगया हयगएहिं, गयगया गयगएहिं, रहगया रहगएहि, ___उसके बाद वह कृणिक राजा भी उसी तरह वहा आया जहाँ देशका अंतिम भाग था। और महाराजा चेटकके शिविरसे एक योजन दूर अपना शिविर बनवाया । उसके बाद उन दोनों राजाओंने रणभूमिको सज्जित की और लडाईके लिए यहाँ आये। ।। ४४ ॥ ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા પણ તેજ રીતે ત્યાં આવ્યા કે જ્યાં દેશના પ્રદેશને અંતિમ છેડે હતું, અને મહારાજા ચેટકની છાવણીથી એક જન છેટે પિતાની છાવણી નખાવી - ત્યાર પછી તે બેઉ રાજાઓએ રણભૂમિ સજિત કરી અને યુદ્ધ કરવા ત્યા माव्या (४४) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिक चेटकयोयुद्धवर्णनम् १७१ पायत्तिया पायत्तिएहिं, अन्नमन्नेहिं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था। तएणं ते दोण्ह वि रायाणं अणीया णियगसामीसासणाणुरत्ता महंतं जणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवदृकप्पं नच्चंतकबंधवारभीमं रुहिरकदमं करेमाणा अन्नमन्नेणं सद्धिं झुझंति । तएणं से काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहिं गरुलवूहेणं एकारसमेणं खंधेणं कूणियरहमुसलं संगामं संगामेमाणे हयमहियजहा भगवया कालीए देवीए परिकहियं जाव जीवियाओ ववरोविए। ____तं एयं खल्ल गोयमा ! काले कुमारे एरिसएहिं आरंभेहिं जाव एरिसएणं असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमामे नरए नेरइयत्ता उववन्ने । काले भंते! कुमारे चउत्थीए पुढवीए अणंतरं उवट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? । गोयमा । महाविदेहे वासे जाइं कुलाइं भवंति अड्डाइं जहा दृढप्पइन्नो जाव सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ। तं एवं खल्ल जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्त अयमढे पन्नत्ते तिबेमि ॥ ४५ ॥ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥१॥ छाया-ततः खलु स कूणिकत्रयस्त्रिंशता दन्तिसहस्रैर्यावन्मनुष्यकोटिभिगरुडव्यूह रचयति, रचवित्वा गरुडव्यूहेन रथमुशलं सङ्ग्राममुपायातः । ततः खलु स चेटको राजा सप्तपश्चाशता दन्तिसहस्रर्यावत् सप्तपञ्चासता मनुष्यकोटिभिः शकटव्यूह रचयति, रचयत्विा शकटव्यूहेन रथमुशलं संग्रामसपायातः । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ निरयावलिकास्त्रे ततः खलु ते द्वयोरपि राजोरनीके सनद्ध-यावद्-गृहीतायुधपहरणे मङ्गतिकैः फलकैः' निष्कासितैरमिमिः' अंशगतैस्तुणैः, मजीवधनुर्मिः, समुत्क्षिप्तैः गरैः, समुल्लालिताभिः डावाभिः, अवसारिनाभिः उरुघण्टाभिः, क्षिमतरेण वाद्यमानेन महता उत्कृष्टसिहनादवोलकलकलरवेणं समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणे सर्व या यावद् रवेण हयगता हयगतैः, गजगता गजगतः, स्थगता स्थगतैः, पदातिकाः पदातिकैः, अन्योन्यैः सार्द्ध संप्रलग्नाश्चाऽप्यभूवन् । ततः खल ते द्वयोरपि राज्ञोरनी के निजकस्वामिशासनानुरक्ते महान्तं जनक्षयं जनवधं जनप्रमर्द जनसंवर्तकल्पं नृत्यत्ववन्धवारभीमं मधिरकर्दम कुर्वाणे अन्योऽन्येन साई युध्येते । ततः खलु म कालः कुमारस्त्रिभिर्दन्तिमहम्रर्यावन्मनुष्यकोटिभिर्गरुडव्यूहेन एकादशेन स्कन्धेन क्रूणिकरथमुशलं संग्राम मंग्रामयन हनमथितयथा भगवता काल्यै देव्यै परिकथितं यावजीविताद् व्यपरोपितः। - तदेतत् ग्वलु गौतम ! कालः कुमार ईदृशैरारम्मै विद् ईशन अ. शुभकृतकर्मप्रारभारेण कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थी, पङ्कप्रभाया पृथिव्यां हे. मामे नरके नैरयिकतयोपपन्नः ।। ____कालः खलु भदन्त ! कुमारश्चतुर्थ्याः पृथिव्या अनन्तरमुद्वयं कुत्र गमिप्यति ? कुत्रोत्पत्स्यने ? गौतम ! महाविटेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति आढयानि यथा दृढपतिज्ञो यावत् सेत्स्यति भोत्स्यते यावद् अन्तं करिष्यति । तदेवं ग्खलु जम्बू:'! श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्नेन निरयावलिकानां प्रथमाध्ययनम्यायमर्थ : प्रज्ञप्त: । इति ब्रवीमि ॥ ४५ ॥ ॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥१॥ 'तएणं से ऋणिए ' इत्यादि उसके याद वह कूणिक नेतीस २ हजार हाथी, घोडे, और रथ तथा तेतीस करोड (उस समयकी एक संख्या) सैनिकोंका गरूडव्यूह बनाया और गरुडव्यूहके साथ रणभूमिमें रथमुशल संग्राम करनेके लिए आया । 'तएणं कूणिए' त्या ત્યાર પછી તે કૃણિકે તેત્રીસ હજાર હાથી, ઘેડા અને રથ તથા તેત્રીસ કરોડ (તે સમયની એક સંખ્યા) સનિકને ગરૂડધૂહ બનાવ્યું અને ગરૂડબૃહ સાથે રણભૂમિમા રથમુશલ સગ્રામ કરવા માટે આવ્યા Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेटककूणिकयोः युद्धवर्णनम् १७ टीका-'तएणं से कूणिए' इत्यादि-ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोः अनीके सैन्ये सम्बद्ध० सुसज्जित० यावत्-गृहीतायुधप्रहरणे धृतशस्त्रास्त्रे मङ्गतिका हस्तपाशिफलकविशेषैः 'ढाल' इति भाषाप्रसिद्धः, अंशगतैः स्कन्धस्थितैः तूणैःशरधानीभिः ‘भाता' इति भाषायाम् सजीवैः ज्यासहितः समत्यञ्चैः धनुभिः चापैः, समुत्क्षिप्तः प्रक्षिप्तैः शरैः वाणैः, ममुल्लालिताभिः = आम्फालिताभिः डावाभिः वामभुजाभिः, अवसारिताभिः दूरीकृताभिः उरुघण्टाभिः = विशाल चेटक राजा भी सतावन २ हजार हाथी, घोडे, रथ एवं सतावन करोड ( उस कालकी एक संख्या ) सैनिकोंका शकटव्यूह बनाया और उसके साथ ग्थमुशल संग्राममें आया ।। उसके बाद दोनों राजओंकी सना अस्त्र शस्त्रसे मज्जित हो अपने २ हाथोमें थामी हुई ढालोसे. रवींची हुई तलबारोंसे, कधोंपर रखे हुए तृणीरोंसे, चढे हुए धनुषोंसे, छोडे हुए चाणोंसे, अच्छी तरह फटकारते हुए डाबी भुजाओंसे, दूरपर टांगी हुइ विशाल घण्टाओंसे, अत्यन्त शीघ्रतासे बजाये जाते हुए मेरी आदि बाजौसे, भयंकर सिंह नादके सदृश कोलाहलसे, समुद्रकी वेलाकी आवाजके ममान आवाज करती हुई, तथा सभी युद्ध सामग्रियोंसे युक्त श्री, वहां भीषण हुङ्कार करते हुए घुडसवार घुडसवारोंसे, हाधीवाले हाथीवालोंसे, रथ गथिकोंसे पैदल पैदलसे, इस प्रकार एक दमरेके माथ युद्ध करनेके लिये संनद्ध हो गये। ચેટક રાજા પણ સત્તાવન સત્તાવન હજાર હાથી, ઘોડા, રથ અને સત્તાવન કરોડ (તે સમયની એક સંખ્યા) સૈનિકને શકટયૂડ બનાવી તેની સાથે શ્રમુશલ સગ્રામમાં આવ્યા - ત્યાર પછી ભલે રાજાઓની સેના અસ્ત્ર શસ્ત્રથી જિજન થઈ પિન પિતાના હાથમાં પકડેલી ઢાલોથી, બેચેલી તલવારોથી, કાલ ઉપર રાખેલા તૃણથી, ચડાવેલા ધનુષ્યથી, છેડેલા બાણોથી, સારી રીતે ફટકારતા ડાબી ભુજાઓથી, છેટે ટાગેલી વિશાળ ઘટાઓથી, અત્યંત શીઘ્રતાથી બજાવાના ભેરી આદિ વાજા ઓથી, સિંહનાદ જેવા કલાહલથી સમુદ્રની છોળેના જેવા અવાજ કરતી, તથા તમામ યુદ્ધસામગ્રીથી યુક્ત હતી ત્યા ભીષણ હુંકાર કરતા ઘડેસ્વારે ઘોડેસ્વારેની સાથે, હાથીવાળાઓ હાથીવાળાઓ ની સાથે, પાયદળ લશ્કર પાયદળની સાથે, આ પ્રકારે એક બીજી એથે યુદ્ધ કરવા માટે તૈયાર થઈ ગયા Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ निरयावलिकामुत्रे घण्टाभिः क्षिप्रतूरेण-अतिशीघेण वाद्यमानेन तृर्येण महता-विशालेन उत्कृष्टसिंहनाद-बोल-कलकल-रवेण उत्कृष्ट भयङ्करः सिंहनाद: सिंहगर्जनवत् वोलः कोलाहलः कलकला=व्याकुलः श्रोतुमहाभयजनको यो रवः शब्दस्तेन समुद्ररवभूतमिव वेलाकुलजलनिधिप्रचण्ड भृतसदृशं शब्दं कुर्वाणे सर्वऋद्धया-सकलयुद्धसामग्र्या युक्त आस्तां, तत्र यावत् रवेण चीत्कारादिभयानकशब्देन हयगता: अश्वारूदाः हयगतैः अश्वारूढः सह, गजगता: गजारूढाः गजगतैः गजारूढे मह स्थगता:स्थारूढाः स्थगतैः स्थास्टैः सह, पदातिका: पादचारिणः पदातिकैः पादचारिभिः सह, अन्योऽन्यः परस्पर साई-सह संभलग्ना योद्ध सम्मिलिता चकारः शस्त्रादिजनितपहारादिसमुच्चायकः' अपि-निश्चये अभूबन जाताः । ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके निजकस्वामिशासनानुरक्ते स्वस्वामिनिदेशपरायणे महान्तं विशालं जनक्षयं जननाशं जनवधं जनताडनं मुशलादिना, जनप्रमदै गदादिना भटानां चूर्णीकरम् जनसंवर्तकल्प-प्रजासंढारसदृशं नृत्य उसके बाद उन दोनों राजाओंके योद्धा अपने २ स्वामीकी आज्ञामें अनुरक्त हो अत्यधिक मनुष्योका क्षय, मनुष्योंका वध, मनुष्योंका मर्दन, एवं मनुष्योंका संहार करते हुए तथा नाचते हुए घडोंके समूहले भयंकर और शोणितसे भूमिको कीचडमयी बनाते हुए एक दुसरेके साथ लडने लगे। -. उसके बाद वह काल कुमार तीन २ हजार हाथी, घोडे और स्थ, तथा तीन करोड मनुष्योंके साथ गरुडव्यूहके अपने ग्यारहवं स्कन्ध अर्थात भागके द्वारा रथमुशल संग्राम करता हुआ सैनिकोंका संहार हो जानेके बाद जिस प्रकार भगवानने काली देवीको कहा है उसी प्रकार वह मारा गया । ત્યાર પછી તે બન્ને રાજાઓના યોદ્ધાઓ પિતપોતાના સ્વામીની આજ્ઞાને અનુસરતા થઈને ઘણુ મનુબેને નાશ, મનુષ્યને વધ, મનુના મર્દન અર્થાત્ મનુષ્યને સંહાર કરતા કરતા તથા નાચતા થકા ધડાના સમૂહંથી ભય કર અને લેહીથી રણભૂમિને કીચડવાળી બનાવતા એકબીજા સાથે લડવા લાગ્યા. ત્યાર પછી તે કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘેડા અને રથ તથા ત્રણ કરોડ મનુષ્યોની સાથે ગરૂડબૃહને પિતાના અગીયારમા સ્ક ધ અર્થાત્ ભાગ દ્વારા રથ મુશલ સંગ્રમ કરતા કરતા સૈનિકોને સંહાર થઈ ગયા પછી; જેવી રીતે ભગવાને કાલી દેવીને કહ્યું, તે પ્રકારે તે માર્યા ગયા. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कणिकचेटकयोः युद्धवर्णनम् १७५ स्कवन्धवारभीम-नटच्छिरोरहितशरीरसमूहभयानक रुधिरकर्दमं शोणितपकं कुर्वाणे अन्योऽन्येन परस्परेण सार्दै-सह युध्येते संग्राम कुर्वाते स्म । अशुभकृतकर्मप्राग्भारेण माणिसंहाररूपपापसम्पादितनरकयोग्यकर्मपुञ्जेन, शेषं सुगमम् 'इनि ब्रवीमि' इतिपूर्ववत् ॥ ४५ ॥ ॥ इति निरयावलिकासूत्रे प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ हे गौतम ! वह काल कुमार इस प्रकारके आरम्भोंसे तथा इस प्रकारके अशुभ कर्मोंके संचयसे कालमासमें काल करके चौथी पङ्कप्रभा नामक पृथ्वी ( नरक ) में हेमाभ नामक नरकावासमें नैरयिक होकर उत्पन्न हुआ । हे भदन्त ! काल कुमार चौथी पृथ्वी ( नरक ) से निकलकर कहा जायगा? और कहा उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! काल कुमार महाविदेहक्षेत्र में जाकर आढय (ऋद्धि-सम्पत्तिसे भरपूर ) कुलमें उत्पन्न होगा। और दृढप्रतिज्ञके समान ही सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा और मब दुःखौंका अन्त करेगा। हे जम्बू ! इस प्रकार सिद्धगति स्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने निरयावलिकाके प्रथम अध्ययनका यह भाव प्ररूपित किया है, अर्थात् भगवानके मुखसे जैसा मैंने सुना वैसा ही तुम्हें कहता हूँ ॥ ४५ ॥ ॥ श्री निरयावलिका सूत्रका प्रथम अध्ययन समाप्त ॥१॥ • હે ગૌતમ ! તે કાલકુમાર આવા પ્રકારના આરોથી તથા આવા પ્રકારના અશુભ કયેના સચયથી કાલને વખતે કોલ કરીને ચોથી પંકપ્રભા નામની પૃથ્વી (નરક) માં હેમાભ નામે નરકવાસમા નરયિક થઈ ઉત્પન્ન થયા. હે ભદન્ત ! કાલકુમાર ચેથી પૃથ્વી (નરક) માથી નીકળી કયા જશે ? અને કયા ઉત્પન્ન થશે? હે ગૌતમ ! કાલકુમાર મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જઈ આઢય (દ્ધિઅપત્તિથી ભરપૂર) કુળમાં ઉત્પન્ન થશે, અને દઢપ્રતિજ્ઞની પેઠેજ સિદ્ધ થશે, બુદ્ધ થશે, મુકત થશે અને તમામ દુખોને અંત કરશે | હે જબ્બ ! આ પ્રકારે સિદ્ધગતિ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકાના પ્રથમ અધ્યયનને આ ભાવ પ્રરૂપિત કર્યો છે અર્થાત ભાગવાનના મુખેથી જેમ મેં સાંભળ્યું તેમ મેં તમને કહ્યુ છે (૪૫) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્રનું પ્રથમ અધ્યયન સમાસ (૧) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... निरयावलिकासूत्रे अथ द्वितीयमध्ययनम् । मूलम्-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम पन्नतें, दोच्चस्स णं भंते अज्झयणस्ल निरयावलियाणं समजेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते ? एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था । पुन्नभद्दे चेइए। कोणिए राया। पउमाई देवी । तत्थ गं चंपाए नयरीए सेणियस्य रन्नो भज्जा कोणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था, - सुकुमाला । तीसे णं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे होत्था, सुकुमाले । तएणं से सुकाले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो निरवसेसं तं चेव जाव माहविदेहे वासे अंतं काहिइ ॥१॥ ॥वीयं अज्झयणं समत्तं ॥२॥ एवं सेसा वि अट्र अझयणा नेयवा पढमसरिसा, णवरं मायाओ सरिसणामाओ ॥१०॥ निक्खेवो सम्वेसि जाणियचो तहा ॥ निरयावलियाओ समत्ताओ। ॥ पढमो वग्गो समत्तो ॥१॥ . छाया-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन निरयावलिकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रजप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य निरयावलिकानां श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रजप्तः ? एवं खलु जम्बू: तस्मिन काले तस्मिन समये चम्पा नाम नगरी अभूत् । पूर्णभद्रश्चेत्यः । कूणिको राजा । पद्मावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगयों श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकम्य राज्ञः क्षुल्लमाता मुकाली नाम देव्यभूत, मुकुमारा । तस्याः Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा मुन्दरबोधिनी टोका अ. २ मुकाल कुमारवर्णनम् १७७ खलु सुकाल्या देव्याः पुत्रः सुकालो नाम कुमारोऽभूत, सुकुमारः । ततः खलु स मुकालः कुमारः अन्यदा कदाचित् त्रिभिदंन्तिसहस्रैर्यथा कालः कुमारः, निरवशेषं तदेव यावन्महाविदेहे वर्षेऽन्तं करिष्यति ॥ १ ॥ ॥ द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ २ ॥ निरयावलिका सूत्रका द्वितीय अध्ययन 'जइणं भंते' इत्यादि हे भदन्त ! सिद्धि स्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने निरयावलिकाके प्रथम अध्ययनका पूर्वोक्त अर्थ कहा है । तो हे भगवन् ! फिर द्वितीय अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल उस समय में चम्पा नामकी नगरी थी । उस नगरोमें पूर्णभद्र नामका चैत्य था। और उस नगरीका राजा कूणिक था। उसकी रानी पद्मावती थी। उस चम्पानगरीमें श्रेणिक राजाकी पत्नी राजा कूणिककी छोटी माता सुकाली नामको रानी थी, जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस सुकाली देवीका पुत्र सुकाल नामक कुमार था जो अत्यन्त सुकुमार था। उसके बाद वह मुकाल कुमार किसी एक समयमें तोन २ हजार हाथी, घोडे, रथ तथा तीन करोड पैदल सैनिकोंके साथ राजा कूणिकके रथमुशल संग्राममें लडनेके लिये गया और वह काल कुमारके समान ही अपनी सभी सेनाके नष्ट નિરયાવલિકા સૂવનું દ્વિતીય અધ્યયન 'जइणं भंते 'त्या. હે ભદન્ત! સિદ્ધિ સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકાના પ્રથમ અધ્યયનને પૂવકત અર્થ બતાવ્યું છે તો હે ભગવન! પછી દ્વતીય અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે? હે જખૂ? તે કાલ તે સમયે ચ પ નામની નગરી હતી, તે નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામનો ચિત્ય હતું અને તે નગરને રાજા કુણિક હતું તેની રાણી પદ્માવતી હતી. તે ચપા નગરીમાં શ્રેણિક રાજાની પત્ની રાજા કુણિકની નાની માતા અકાલી નામની રાણ હતી જે અત્યંત સુકુમાર હતી તે સુકાલા દેવીને પુત્ર સુકાલ નામને કુમાર હતો જે અત્યંત સુકુમાર હતું ત્યાર પછી તે સુકાલ કુમાર કે એક સમયમાં ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ પાયદળ સૈનિકો સાથે રાજા કુણુકના રથમુશલ સંગ્રામમાં લડવા માટે ગયે. અને તે કાલકુમારની સમાન જ પિતાની તમામ २३ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ निरयावलिकामों पचं पाण्यप्यष्टाध्ययनानि नातव्यानि प्रथमसदृशानि । नवरं मातरः महशनाम्न्यः ॥ १० ॥ निक्षेपः म पां मणितव्यम्तथा ॥ निरयावलिकाः ममाप्ताः । ॥ प्रथमो वर्गः समाप्तः ॥१॥ टीका-'जहणं भंते' इत्यादि । महगनाम्न्यः पुत्रमहशनाम्न्यः । शेष निगमिद्धम् ।। ।। दनि निरयावलिकामत्र टीकायां प्रथमो वर्गः समाप्तः ॥ १ ॥ ॥ अथ कल्पावतंसिका नाम द्वितीयो वर्गः ॥ मलम्-जहणं भंते ! समणणं भगवया जाव संपनेणं उर्वगाणं पढमस्स वग्गस्त निरयावलियाणं अयमट्टे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्त कप्पडिसियाण समणेणं जाव संपत्तेणं कड़ अज्झयणा पन्नता ? | हो जानके बाद माग गया। मरकर काल कुमारके समान हो नरको गया और वहाँसे निकलकर महाविदह क्षेत्र में जन्म लेकर काल कुमारके मनान सिद्ध होगा यावत् सब दान्त्रीका अन्त करेगा। । द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ। इसी प्रकार-प्रथम अध्ययन के सदृश शेप आठ अध्ययनोंको भी जानना चाहिये । विशेष इतना ही है कि माताओंका नाम कुमारों के नाम के समान है ॥ १० ॥ सभीका निलेप अर्यात उपमंहार पहिले अध्ययनके समान ही समझना चाहिये। इति । निग्यावलिका समाप्त हुई। निरयावलिकानामक प्रथम वर्ग समाप्त ॥१॥ સેના નષ્ટ થઈ ગયા બાદ માર્યો ગયે મરીન કાલકુમારની પેઠે જ નરકમાં ગયે અને ત્યાંથી નીકળી ભાવિડ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ કાલકુમારની જેમ સિદ્ધ થશે અને તમામ ૬.અને અત કરશે દ્વિતીય અધ્યયન સમાપ્ત થયું. આ પ્રકારે–પ્રથમ અધ્યયનના જેમ બાકીનાં આઠ અધ્યયનેને પણ જાણવા જોઈએ વિશેષ એટલું જ છે કે માતાઓના નામ કુમારોના નામના જેવાજ છે બધાને નિક્ષેપ અર્થત ઉપસ હાર પહેલા અધ્યયનના સમાનજ સમજી લેવા જોઈએ ઈતિ નિગ્માવલિકા સમાપ્ત થઈ નિરયાવલિકા નામક પ્રથમ વર્ગ સમાપ્ત. (૧) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनीटीका अ. १ वर्ग २ पद्मकुमारवर्णनम् १७९ एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-पउमे १ महापउमे २ भद्दे ३ सुभद्दे ४ पउमभद्दे ५ पउमसेणे ६ पउमगुम्मे ७ नलिणिगुम्मे ८ आणंदे ९ नंदणे १०। जइणं भंते ! समणेणं जाव सपत्तेणं कप्पवडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स कप्पवडिसियाणं भगवया जाव संपत्तेणं के अहे पन्नते ? ! एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था ! पुन्नभद्दे चेइए। कूणिए राया । पउमावई देवी। तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्त रन्नो भजा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था, सुकुमाल । तीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नामं कुमारे होत्था, सुकुमाल । तस्स णं कालस्स पउमावई नामं देवी होत्था, सोमाल० जाव विहरइ ।। तए णं सा पउमावई देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अन्भितरओ सचित्तकम्मे जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा । एवं जम्मणं जहा महाबलस्स, जाव नामधिज्जं, जम्हाणं अम्हं इमे दारए कालस्स कुमारस्त पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए तं होउ णं अम्हं इसस्स दारगस्स नामधिज्जं पउमे सेसं जहा महब्बलस्स अट्टओ दाओ जाव उम्पिंपासायवरगए विहरइ ॥१॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका छाया - यदि खलु भदन्त । श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाatri प्रथमस्य वर्गस्य निरयावलिकानामयमर्थः मज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु मदन्त । ate netradaनां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कति अध्ययनानि प्रप्तानि १ एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतसिकानां देश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- पद्मः १ महापद्मः २ भद्रः ३ सुभद्रः ४ पद्मभद्रः ५ पद्मसेनः ६ पद्मगुरूपः ७ नलिनीगुल्मः ८ आनन्दः ९ नन्दनः १० | यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कल्पात्रतसिकानां दश headfast नामक द्वितीय वर्ग । ૮૦ ' जणं ते ' इत्यादि हे भदन्त ! यदि मोक्षप्राप्त भ्रमण भगवान् महावीरने निरयावलिका नामक उपाङ्गके प्रथम वर्गमें पूर्वोक्त अभिप्रायका वर्णन किया है तो इसके बाद भगवानने द्वितीय वर्ग - करुपावर्तसिकामें कितने अध्ययनोंका वर्णन किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने कल्पावर्तसिका में दस अध्ययनका निरूपण किया है उनके नाम इस प्रकार हैं: ――― (१) पद्म (२) महापद्म (३) भट्ट (४) सुभद्र (५) पद्मभद्र (६) पद्मसेन (७) पद्मगुल्म (८) नलिनीगुल्म (९) आनन्द और (१०) नन्दन | श्री जम्बू स्वामी पूछते हैं: --- हे भगवन् ! भ्रमण भगवान महावीरने कल्पावर्तसिकामें दस કપાવતસિકા નામના દ્વિતીય વ ' जडणं भंते ' त्याहि. હે ભદન્ત ! જો મેાક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણુભગવાન મહાવીરૢ નિરયાવલિકા નામે ઉષાગના પ્રથમ વર્ગમા પૂવાંકત અભિપ્રાયનું વર્ચુન કર્યું છે તે ત્યાર પછી તેમણે બીજા વર્ગ કલ્પવતસિકામા કેટલા અધ્યયનાનુ વર્ણન કર્યું છે ? શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ— હું જમ્મુ! શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે કપાવતસિકામાં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણું કર્યું છે. તેમના નામ આ પ્રમાણે છે:—— (१) यद्म (3) महापद्म (3) भद्र (४) सुभद्र (4) पद्मभद्र (६) यद्मसेन (७) पद्मशुभ (८) नविनीशुम (से) मानह भने (१०) नहन જમ્મૂ સ્વામી પૂછે છે:-~~ હે ભગવન્ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કપાવતસિકામાં દશ યને નું Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका, अ. १ वर्ग २ पद्मकुमार वर्णनम् अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य कल्पावतंसिकानां श्रमणेन भगवता यावत् सम्पाप्लेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू: । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत् । पूर्णभद्रं चैत्यं, कूणिको राजा, पद्मावती देवी। तत्र खलु चम्पायां नगर्या श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञो लघुमाता काली नाम देवी आसीत् । सुकुमारः। तस्याः खलु देव्या: पुत्रः कालो नाम कुमार आसीत् । सुकुमारः। तस्य खलु कालस्य कुमारस्य पद्मावती नाम देवी अभवत् । सुकुमार० यावत् विहरति । ततः खलु सा पद्मावती देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे वामगृहे अभ्यन्तरतः सचित्रकर्मणि यावत् सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा । एवं अध्ययनोंका निरूपण किया है। उसके प्रथम अध्ययनमें किस भावका निरूपण किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! उस काल उस समयमें चम्पा नामकी नगरी थी। वहाँ पूर्णभद्र चैत्य था। उसनगरीमें कूणिक राजा राज्य करता था उसके पद्मावती नामकी रानी थी। उस चम्पानगरीमें राजा श्रेणिककी पत्नी महाराज कृणिककी छोटी माता काली नामकी रानी थी जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस रानीके एक कालकुमार नामका पुत्र था। उस कालकुमारकी पत्नी पद्मावती देवी जो अत्यन्त सुरूपा थी, वह पूर्वोपार्जित पुण्यसे मिले हुए मनुष्य सुखका अनुभव करती रहती थी। उसके बाद एक दिन वह पद्मावती देवी अपने अत्युत्तम वासगृहमें सोयी हुई थी। उसके वामगृहकी दिवाले अत्यन्त मनोનિરૂપણ કર્યું છે તેના પ્રથમ અધ્યયનમાં કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે? સુધમાં સ્વામી કહે છે – હે જખૂ! તે કાલે તે સમયે ચપા નામની નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણભદ્ર ત્ય હતા તે નગરીમાં કૃણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા તેમને પદ્માવતી નામની રાણ હતી, તે ચ પાનગરીમા રાજા શ્રેણિકની પત્ની મહારાજ કૃણિકની નાની માતા કાલી નામની રાણી હતી જે અત્યત સુકુમાર હતી તે રાણીને એક કાલકુમાર નામને પુત્ર હતા, તે કાલકુમારની પત્ની પાવતી દેવી જે બહુ સવરૂપવાન હતી. તે પૂર્વ ઉપાજીત પુચથી મળેલા મનુષ્ય સુખને અનુભવ કરતી રહેતી હતી. ત્યાર પછી એક દિવસ તે પદ્માવતી દેવી પિતાના અતિ ઉત્તમ વાસગૃહમાં સુતી હતી. તે વાસગ્રહની ભીંતે અત્યંત મનોહર ચિત્રોથી ચીતરાયેલી હતી. તે Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ निरयावलिका मृत्र जन्म यथा महावलस्य यावत् नामधेयं, यम्मात् खलु अम्माकमयं दारकः कालस्य कुमारस्य पुत्रः पद्मावत्या देव्या आत्मजः तद् भवतु ग्बल अस्माकम् अस्य वारकस्य नामधेयं पद्मः। शेपं यथा महावलस्य अष्ट दायाः यावत् उपरि प्रासादवरगतो विहरति ।। १ ॥ टीका-'जडणं भंते' इत्यादि-कृणिकरानलघुभ्रातः कालकुमारस्य पद्मावती नाम भार्या अन्यदा कदाचित् अभ्यन्तरतः अभ्यन्तरभागे सचित्रकर्मणिविचित्रचित्रमयुक्ते नग्मिन् तादृशे वामगृहे निजप्रासादे नृप्तजाग्रदवस्थायां तन्द्रायां स्वप्ने सिंह दृष्ट्वा प्रतिबुद्रा-जागरिता । शेपं सुगमम् ॥ १ ॥ - मूलम्-सामी समोसरिए । कणिए निग्गए। परमेवि जहा महब्बले निग्गए तहेव अम्मापिइ-आपुच्छणा जाव पव्वइए अणगारे जाए जाव गुत्तवंभयारी । तएणं से पउमे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई हर चित्रोंसे चित्रित थी। उस घरमें अपनी कोमल शय्यापर सोती हुई उस रानीने स्वममें सिंहको, देखा। स्वप्न देखने के बाद जाग गयी । बाढमें उसे स्वम दर्शन के अनुसार शुभ लक्षणवालो पुत्र हुआ। उसका जन्मस लेकर नामकरण पर्यन्त सभी कृत्य महावल कुमारके मदृश जानना। यह काल कुमारका पुत्र और पद्मावती देवीका अङ्गजात होनेसे उसका नाम पद्म रग्वा गया। इसके यादका सभी वृत्तान्त महावलके सदृश जानना चाहिये। उसे आठ २ दहेज मिला। वह अपने ऊपरी महल में सभी प्रकार के मनुध्यसम्बन्धी सुखांका अनुभव करता हुआ निवाम करता था ॥ १ ॥ ઘરમાં પિતાની કેમલ શય્યામાં સૂતેવા તે રાણીએ સ્વપ્નામા સિંહને જયા સ્વપ્ન દીઠા પછી તે જાગી ગઈ પછી તેને વપ્નદર્શનને અનુસરીને શુભ લક્ષણવાળા પુત્ર થયે તેના જન્મથી માડી નગિકરણ સુધીના કર્મા મહાબલ કુમારના જેવાજ જાણવા ત કાલકુમાર પુત્ર તથા માવતી દેવીની કુખે જન્મેલે હોવાથી તેનું નામ પદ્ધ રાખવામાં આવ્યું ત્યાર પછી સર્વ વૃત્તાન્ત મહાબલની પેઠે જાણ જોઈએ તેને આઠ આઠ દહેજ મળ્યા અને તે પિતાના ઉપલા મહેલમાં તમામ પ્રકારના મનુષસ બધી સુખે ભગવતે તેમાં રહેતું હતું. તે ૧ છે Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ वर्ग २ पद्मअनगारवर्णनम् १८३ अहिज्जइ, अहिजित्ता बहहिं चउत्थछट्टम जाव विहरइ । तएणं से पउमे अणगारे तेणं ओरालेणं जहा मेहो तहेव धम्मजागरिया चिंता एवं जहेव मेहो तहेव समणं भगवं आपुच्छित्ता विउले जाव पाओवगए समाणे तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाइ, बहुपडिपुण्णाइं पंच वासाई सामन्नपरियाए, मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताइं० आणुपुव्वीए कालगए । थेरा ओइन्ना भगवं गोयमो पुच्छइ, सामी कहेइ जाव सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइय० उड़े चंदिम० सौहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, दो सागराइं । से णं अंते पउमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं पुच्छा, गोयमा ! महाविदेहे वासे जहा दढपइन्नो जाव अंतं काहिइ । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपलेणं कप्पडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्त अयम? पन्नत्ते तिबेमि ॥२॥ ॥ पढममज्झयणं समत्तं ॥ छाया-स्वामी समवसृतः । परिपत् निर्गता । कूणिको निर्गतः । पद्मोऽपि यथा महावलो निर्गतस्तथैव अम्बापित्राच्छना यावत् प्रबजितोऽनगारो जातो यावत् गुप्तब्रह्मचारी । 'सामी समोसरिए' इत्यादि भगवान महावीर प्रभु पधारे, परिषद धर्म श्रवण करनेके लिये निकली। कणिक राजा भी धर्मोपदेश सुनने के लिए निकला, कुमार पद्म भी महाबलके समान भगवानके पास गया। वहा भगवानके . 'सामी समोसरिए प्रत्यादि ભગવાન મહાવીર પ્રભુ પધાર્યા પરિષદુ ધર્મ શ્રવણ કરવા માટે નિકળી ફણિક રાજા પણ ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે નિકળ્યા કુમાર પદ્મ પણ મહાબલની પેઠે ભગ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ आदि ग्यारहवान महावीर १८४ निरयावलिकामरे '. ततः खलु स पद्मोऽनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि अधीते । अधीत्य बहुभिः चतुर्थपष्टाष्टम० यावद् विहरति । ततः स पोऽनगारो तेन उदारेण यथा मेघस्तथैवधर्मजागरिका, चिन्ना, एवं यथैव मेघस्तथैव श्रमणं भगवन्तमापृच्छय विपुले यावत् पादपोगतः सन् तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि, बहुमतिपूर्णानि पञ्च वर्षाणि श्रामउपदेशसे उसे वैराग्य हो गया। उमने महायलके समान ही माता पितासे प्रत्रज्याकी अनुमति मागी। तथा अन्तमें उसने प्रव्रज्या लेली और अनगार हो गया यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया। उसके बाद वे पद्म अनगारने श्रमण भगवान महावीरके तथारूप स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया। और बहुत सी चतुर्थ षष्ठ आदि तपस्था को । अनन्तर वे पद्म अनगार उदार-कठिन तपश्चर्या करनेसे तपः कर्मके आराधनके कारण उनका शरीर शुष्क-रूक्ष हो गया। मांस शोणितके सूख जानेके कारण इतने कृश हो गये कि उनके शरीरमें हड़ी और चमडा मात्र रह गया और उनकी सभी नसें दिखाई देने लगी। इसका विशेष वर्णन मेघकुमारके समान जानना । मेघ कुमारके समान ही इनने धर्म जागरणा की और विपुल गिरि पर जाने आदिका विचार किया और मेघकुमारके समान ही विपुल गिरिपर जाने के વાનની પાસે ગયા ત્યાં ભગવાનના ઉપદેશથી તેને વૈરાગ્ય થઈ ગયોતેણે મહાબલની પિઠેજ માતા પિતા પાસે પ્રવજ્યાની રજા માગી તથા છેવટે તેણે પ્રવ્રજયા (દીક્ષા) લીધી અને અનગર (ગૃહત્યાગી) થઈ ગુપ્ત બ્રહ્મચારી થઈ ગયા. - ત્યાર પછી તે પદ્મ અનગારે (ગૃહત્યાગી, શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના તથારૂપ સ્થવિરેની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અગોનું અધ્યયન કર્યું અને બહુ રીતની ચતુર્થ તથા છઠ આદિ (૧-૨ ઉપવાસ) તપસ્યા કરી. પછી તે પદ્મ અનગારે ઉદાર કઠિન તપસ્યા કરવાથી તપ. કર્મનું આરાધન કરવાના કારણે તેમનું શરીર સૂકાઈ ગયું, રૂક્ષ થઈ ગયું. લેહી માંસ સૂકાઈ જવાના કારણે એટલા કૃશ (નબળ) થઈ ગયા કે તેમના શરીરમાં હાડકા તથા ચમમાત્ર રહી ગયા અને તેમની બધી નસે દેખાવા લાગી આનુ વિશેષ વર્ણન મેઘકુમારના જવું જાણવું મેઘકુમારની પિઠેજ તેમણે ધર્મ જાગરણ કરી તથા વિપુલગિરિ ઉપર જવા આદિને વિચાર કર્યો તથા મેઘકુમારની પેઠે જ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका अ. १ वर्ग २ पद्मअनगारवर्णनम् १८५ ण्यपर्यायः । मासिक्या संलेखनया पष्टिं भक्तानि० आनुपूर्व्या कालगतः । स्थविरा अवतीर्णा भगवान् गौतमः पृच्छति; स्वामी कथयति यावत् पष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्वा आलोचित० ऊर्ध्व चन्द्रमः० सौधर्म कल्पे देवत्वेन उपपन्नः । द्वौ सागरौ । स खलु भदन्त ! पद्मो देवस्ततो देवलोकाद आयुः भयेण पृच्छा गौतम ! महाविदेहे वर्षे यथा दृढपनिज्ञो यावदन्तं करिष्यति । लिये भगवानसे पूछा । पूछकर स्वयं पुनः पञ्च महावत ग्रहण किया । गौतम आदि श्रमण निग्रंथोंको खमाकर स्थविरोंके साथ धीरे २ विपुल गिरि पर चढे । और वहाँ सविधि पादपोपगमन संथारा स्वीकारकर कालकी इच्छा नही करते हुए रहने लगे । और वे पद्म अनगारने स्थविरोंके समीप ग्यारह अङ्गोका अध्ययन किया और पूरे पाच वर्षकी दीक्षापर्याय पाली । ___एक मासकी संलेखनासे साठ भक्तका छेदनकर अनुक्रमसे कालको प्राप्त हो गये। उनके कालप्राप्त करनेके बाद स्थविर उन पद्म अनगारके भाण्डोपकरण लेकर भगवानके पास आये उनके आनेके बाद गौतमने भगवानसे पूछा-हे भगवन् ! ये पद्म अगनार काल करके कहा गये? भगवानने कहा-हे गौतम ! पद्म अनगार पूर्वोक्त प्रकारले एक महीनेको सन्थारा कर और आलोचित प्रतिक्रान्त होकर अर्थात आत्मવિપુલ ગિરિપર જવા માટે ભગવાનને પૂછ્યું પૂછીને પિને ફરીને પચ મહાવ્રત ગ્રહણ કર્યા ગૌતમ આદિ શ્રમણ નિષેનો તથા નિર્ચન્થીઓને ખમાવીને સ્થવિરેની સાથે ધીરે ધીરે વિપુવગિરિ પર ચડયા અને ત્યા વિધીસર પાદપિપગમન સ થારો સ્વીકાર કરી મરણની ઈચ્છા વગર રહેવા લાગ્યા તથા તે પદ્ધ અનગાર સ્થવિરોની પાસે અગીયાર અગનું અધ્યયન કર્યું અને પૂરા પાચ વર્ષની દીક્ષા પર્યાય પાળી એક મહિનાની સ લેખનાથી સાઠ ભકતનું છેદન કરી અનુક્રમે કાલને પાસ થયા તેમના કાલ પ્રાપ્ત કર્યા પછી સ્થવિર લેક તે પદ્ધ અનગારના ભાડાકરણ લઈને ભગવાનની પાસે આવ્યા તેના આવ્યા પછી ગૌતમે ભગવાનને પૂછ્યું- હે ભગવન! આ પદ્ધ અનગાર કાલ કરીને કયાં ગયા? ભગવાને કહ્યું- હે ગૌતમ! પદ્ધ અનગર પૂર્વોક્ત પ્રકારે એક મહિનાને સંથારો કરી તથા અચિત પ્રતિકત થઈ અર્થાત્ આત્મશુદ્ધિ કરી કાલને અવસરે કાલ પ્રાપ્ત Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ निरयावलिकाम तदेव खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां प्रथमस्याध्ययनस्य अयमर्थः प्रजप्तः । इति ब्रवीमि ॥ २ ॥ || प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ टीका--'सामी' इत्यादि-स्थविरा अवतीर्णाः विपुलगिरितोऽधस्तादागताः । शेपं मुगमम् ॥ २॥ ॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ।। मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमझे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अहे पण्णत्ते ? एवं खल्लु जंबू ! तेणं कालेणं २ चंपा नामं नयरी होत्था, पुन्नभद्दे चेइए, कूणिए राया, पउमावईदेवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणिशुद्धि करके काल अवसर काल प्राप्त होकर चन्द्रमासे उपर सौधर्म कल्पमें दो सागरकी स्थितिवाले देवपने में उत्पन्न हुए । हे भदन्त ! वह पद्म देव देवसम्बन्धी आयु भव स्थिति के क्षय होजाने के बाद, देवलोकसे चवकर कहा जायगा। हे गौतम वह देवलोक चवकर महाविदेह क्षेत्रमें दृढ प्रतिज्ञके समान समृद्धः कुलमें जन्म लेकर सिद्ध होगा और सब दुःखोका अन्त करेगा। हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकाके प्रथम अध्ययनका यह भाव निरूपण किया है । ॥२॥ । प्रथम अध्ययन समाप्त । થઈ ચંદ્રમાની ઉપર સૌધર્મ કલ્પમા બે સાગરની સ્થિતિવાળા દેવપણે ઉત્પન્ન થયા હે ભદન્ત ! તે પદ્યદેવ દેવ સબધી આયુ, ભવ સ્થિતિનો ક્ષય થઈ ગયા પછી દેવલેકથી ચવીને કયા જશે? ગીતમ! તે દેવકથી રવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં દૃઢપ્રતિજ્ઞાની રીતે સમૃદ્ધ કુળમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખને અત કરશે હે જખ્ખી આ પ્રકારે મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાવતસિકાના પ્રથમ અધ્યયનનું આ ભાવ નિરૂપણ કર્યું છે ૨ प्रथम अध्ययन समास - - Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अ. ३-१० भद्रकुमारादि ८ वर्णनम् १८७ यस्स रन्नो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था । तीसे णं सुकालीए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे। तस्स णं सुकालस्स कुमारस्ल महापउमा नाम देवी होत्था, सुकुमाला । तए णं सा महापउमा देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि एवं तहेव महापउमे नामं दारए, जाव सिज्झिहिइ, नवरं ईसाणे कप्पे उववाओ उकोसदिइओ। तं एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपणत्तेः । एवं सेसा वि अट्र नेयव्वा । मायाओ सरिसनामाओ। कालादीणं दसण्हं पुत्ताणं आणुपुवीए-दोण्हं च पंच चत्तारि, तिण्हं तिण्हं च होति तिन्नेव । दोण्हं च दोणि वासा, सेणियनत्तण परियाओ ॥१॥ उववाओ आणुपुवीए, पढमो सोहम्मे वितिओ ईसाणे, तइओ सणंकुमारे, चउत्थो माहिंदे, पंचमओ बंभलोए, छट्रो लंतए, सत्तमओ महासुक्के, अट्ठमओ सहस्सारे, नवमओ पाणए, दसमओ अच्चुए । सव्वत्थ उक्कोसट्टिई भाणियव्वा, महाविदेहे सिज्झिहिइ १० ॥३॥ छाया-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां प्रथमस्याऽभ्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन समये चम्पा नाम नगरी आसीत, पूर्णभद्रं चैत्यं, कणिको राजा पदमावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगयों श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञो लघुमाता मुकाली नाम देवी आसीत् । तस्याः खलु सुकाल्याः पुत्रः सुकालो नाम कुमारः, तस्य खलु मुकालस्य कुमारस्य महापद्मा नाम देवी आसीद, मुकुमारा । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलकामुत्रे ततः खलु सा महापद्मा देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् ताशे एवं तथैव महापद्म नाम दारकः यावत् सेत्स्यति नवरमीशानकल्पे उपपातः उत्कृष्टस्थितिकः । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन । एवं शेषाण्यपि अष्टौ ज्ञातव्यानि, मातरः सदृणनान्यः कालादीनां दशानां पुत्राणामानुपूर्व्या - (व्रतपर्यायः) - १८८ द्वयोश्च पञ्चचत्वारि, त्रयाणां त्रयाणां च भवन्ति त्रीण्येव । द्वयो द्वे वर्षे श्रेणिकनप्तृणां पर्यायः ॥ १ ॥ , उपपात आनु - प्रथमः सौधर्मे, द्वितीय ईशाने, तृतीयः संनत्कुमारे, चतुर्थी माहेन्द्रे, पञ्चमो ब्रह्मलोके, पष्ठो लान्तके, सप्तमो महाशुक्रे, अष्टमः सहस्रारे, नवमः प्राणते, दशमोऽच्युते । सर्वत्र उत्कृष्टा स्थितिर्भणितव्या, महाविदेहे सेत्स्यति १० ॥ ३ ॥ . टीका- 'जगं भंते' इत्यादि । मातृनामसदृशनामान: कालादीनां दशानां पुत्राः श्रेणिकपोत्रा पद्मादयः क्रियन्ति २ वर्षाणि संयमपर्यायं पालयामासुरिति क्रमेण व्रतपर्यायप्रतिपादिका तद्गाथा निगद्यते ' द्वयोथ' -त्यादि । अस्या द्वितीय अध्ययन प्रारम्भ | 'जण मंते ' इत्यादि - जम्बू स्वामि पूछते है 1 हे भदन्त ! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंमिका के प्रथम अध्ययनके भावोंको पूर्वोक्त प्रकारसे निरूपण किया है तो इसके बाद हे भगवन् ! द्वितिय अध्ययनमें भगवान किन भावों का निरूपण किया है ! जणं भंते धत्याहि है 3 सुधर्मा स्वामि कहते हैं हे जम्बू ! उस काल उस समय में चम्पा नामकी नगरी थी। દ્વિતીય ( ખીજું ) અધ્યયન પ્રાર ભ જમ્મૂ સ્વામી પૂછે છે:~ ભદન્ત । મેક્ષપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પાવત સિકાના પ્રથમ અધ્યયનના ભાવાને પૂર્વાંકત પ્રકાર નિરૂપણ કર્યાં છે, તે ત્યાર પછી હે ભગવન ખીજા અધ્યયનમાં તએએ કયા ભાવાનું નિરૂપણ કર્યું છે? શ્રી સુધાં સ્વામી કહે છે:-~ 1 7 હું જમ્મૂ ! તે કાળે તે સમયે ચંપા નામે એક નગરી હતી. તે નગરીમા Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अ. ३-१० चद्रकुमारादि ८ वर्णनम् १८९ अयमभिप्रायः-द्वयोः काल-सुकाल-पुत्रयोः पद्म-महापद्मकुमारयो तपर्यायः पञ्च पञ्च वर्षाणि, त्रयाणां महाकाल-कृष्ण-सुकृष्णपुत्राणां-भद्र-मुभद्र-पद्मभद्रकुमाराणां चत्वारि चत्वारि वर्षाणि व्रतपर्यायः, पुनस्त्रयाणां महाकृष्ण-वीरकृष्णरामकृष्णपुत्राणां पद्मसेन-पद्मगुल्म-नलिनीगुलमकुमाराणां त्रीणि त्रीणि वर्षाणि व्रतपर्यायः, पुनद्वंयोः पितृसेनकृष्ण-महासेनकृष्णपुत्रयोः आनन्द-नन्दनकुमारयोः द्वे द्वे वर्षे । इत्थं श्रेणिकनप्तृणां श्रेणिकपौत्राणां दशानामपि पर्याय: संयमवहाँ पूर्णभद्र चैत्य था । वहाका राजा कणिक था । उसकी रानीका नाम पद्मावती था । उस चम्पानगरी में राजा श्रेणिककी रानी महाराजा कूणिककी छोटी माता सुकाली नामकी रानी थी। उस सुकाली रानीका पुत्र सुकाल कुमार था। उस सुकाल कुमारकी पत्नी का नाम महापद्मा था, वह अत्यन्त सुकुमार थी। उसके बाद वह महापदमा देवी किसी समय एक रातमें शव्यापर, सोयी हुई थी। उसने स्वप्नमें सिंहको देखा ! और नौ महीनेके बाद उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम महापदन रखा गया। इन महापद्म अनगारका उत्पतिसे लेकर सिद्धि तकका वृत्तान्त पद्म अनगारके समान ही जानना चाहिये । अर्थात् देवलोकरले च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होंगे। इतना विशेष है कि ये महापद्म अनगार ईशान देवलोकमें उत्कृष्ट स्थितिबाले देव हुए। . हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर प्रभुने इस प्रकार द्वितीय પૂર્ણભદ્ર ચત્ય હતું, ત્યારે રાજા કૃણિક હતું તેની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતુ તે ચ પાનગરીમા રાજા શ્રેણિકની રાણી–મહાર જા કુણિકની નાની માતા સુકાલી નામે રાણી હતી. તે સુકાલી રાણીનો પુત્ર કુમાર સુકાલ હતું તે સુકાલ કુમારની પત્નીનું નામ મહાપદ્દમા હતુ તે બહુ સુકુમાર હતી ત્યાર પછી તે મહાપદ્મા દેવી કઈ સમયે એક રાત્રિમાં જ્યારે શય્યા પર સુતી ત્યારે તેણે સ્વપ્નામા સિંહને જે અને નવ મહિના પછી તેને એક પુત્ર ઉત્પન્ન થયે જેનું નામ મહાપદ્મ રાખવામા આવ્યુ. આ મહાપદ્મ અનારની ઉત્પત્તિથી માંડીને સિદ્ધિ સુધીનુ વૃત્તાન્ત પમ અનગારના જેવું જ જાણી લેવું જોઈએ અર્થાત્ દેવકથી ચવીને મહાવિદેહક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે એટલું વિશેષ છે કે તે મહાપદ્મ અનગાર ઈશાન દેવલેકમાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા દેવ થયા - હે જમ્મુ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રકારે બીજા અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે જોવું ભગવાન પાસેથી સાભળ્યું છે તેવુંજ મેં તને કહ્યું છે (૨) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० -, निरयावलिकाम्रो पर्यायो ज्ञातव्यः । आनुपूर्याक्रमेण उपपातः देवलोकेषु जन्म पोच्यतेप्रथम पद्मः १ सौधर्म-सौधर्माख्यप्रथमदेवलोके उत्कृष्टद्विसागरोपमस्थितिको देवो जातः । एवं द्वितीया महापद्मः २ ईशाने द्वितीये देवलोके उत्कृष्टेन किंचिदधिकद्विसागरोपमस्थितिकोऽभूत् । तृतीयः भद्रो मुनिः ३ सनत्कुमारे अध्ययनका निरूपण किया है । वह जैसा भगवानसे सुना है वैसा तुम्हें कहा है ॥ २ ॥ हे जम्बू ! इसी प्रकार शेष आठ अध्ययनोंको जानना चाहिये। काल आदि दस कुमारोंके पुत्रोंकी माताओंके नाम उन पुत्रोंके सदृष हैं । इन सबका चारित्रपर्याय अनुक्रमसे इस प्रकार है-काल सुकालके पुत्र पद्म महापद्म अनगारने पाच २ वर्प दीक्षा प्रर्याय पाली । ____ महाकाल, कृष्ण और सुकृष्णके पुत्र भद्र, सुभद्र और पद्म• भद्रने चार २ वर्ष, महाकृष्ण, रामकृष्णका पुत्र पद्मसेन पद्मगुल्म और नलिनीगुल्म अनगागेंने तीन २ वर्ष, पितृसेनकृष्ण महासेनकृष्णके पुत्र आनन्द और नन्दनने दो-दो वर्ष संयम पाला । ये दसों श्रेणिक राजाके पोते थे। अब कौन क्रिस देवलोंकमें गये यह क्रमसे कहते हैं । (१) पद्म-सौधर्म नामक प्रथम देवलोकमें उत्कृष्ट दो सागरोपमकी स्थितिवाले, (२) महापद्म-ईशान नामक दुसरे देवलोंको उत्कृष्ट दो सागरोपम झाझेरी (कुछ अधिक) स्थितिवाले, (३) भद्र-सनत्कुमार હે જ—! આ પ્રકારે બાકીના આઠ અધ્યયનને જાણી લેવા જોઈએ. કાલ આદિ દશ કુમારના પુત્રોની માતાઓના નામ તે પુત્રના જેવા છે તે બધાનાં ચારિત્રપર્યાય અનુક્રમથી આ પ્રકારે છે – કાલ સુકાલના પુત્ર પમ મહાપદ્મ અનગારે પાંચ પાંચ વર્ષ દિક્ષા પર્યાય પાળી મહાકાલ કૃષ્ણ તથા સુકૃષ્ણના પુત્ર ભદ્ર સુભદ્ર અને પદ્મભટે ચાર ચાર વર્ષ, મહાકૃષ્ણ વીકૃષ્ણ, રામકૃષ્ણના પુત્ર પ૬મસેન. પદ્મગુલમ અને નલિની ગુમ અનગારે એ ત્રણ ત્રણ વ, પિતૃસેના , અન મહાસેનકૃષ્ણના પુત્ર આનંદ અને નંદને બે બે વર્ષ સ યમ પાળે આ દશેય શ્રેણિક રાજાના પૌત્ર હતા. હવે કેશુ કયા દેવલોકમા ગયા તે ક્રમથી બતાવીએ છીએ – _ (1) 41-सीव नामे प्रथम देवोभा गया. (२) मापन-शान नामे जीत टेवलमा उत्पन्न यया. (3) स-सनमा२ नामे बीत पक्षोभ उत्पन्न यया (४) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अ. ३-१० भद्रादिदेवानां स्थितिः तृतीये देवलोके उत्कृष्टसप्तसागरोपमस्थितिकः, चतुर्थः सुभद्रो मुनिः ४ माहेन्द्रे चतुर्थे देवलोके उत्कृष्टेन किंचिदधिकसप्तसागरोपमस्थितिकः, पञ्चमः पद्मभद्रो मुनिः ५ ब्रह्मलोके पञ्चमे देवलोके, उत्कृष्टदशसागरोपमस्थितिकः, षष्ठः पद्मसेनो मुनिः ६ लान्तके-तदाख्ये पष्ठे देवलोके, उत्कृष्टचतुर्दशसागरोपमस्थितिकः, सप्तमः पदमगुल्मो मुनिः ७ महाशुक्रे सप्तमे देवलोके, उत्कृष्टसप्तदशसागरोपमस्थितिकः, अष्टमा नलिनीगुल्मो मुनिः ८ सहस्रारेऽष्टमे देवलोके, उत्कृष्टदशसागरोपमस्थितिकः, नवमः आनन्दो मुनिः ९ प्राणते दशमे देवलोके उत्कृष्टविंशतिसागरोपमस्थितिकः, दशमः नन्दनो मुनिः १० द्वादशेऽच्युते देवलोके, नामक तीसरे देवलोकमें उत्कृष्ट सात सागरोपमकी स्थितिवाले, (४) सुभद्र मुनि-माहेन्द्र नामक चतुर्थ देवलोकमें उत्कृष्ट सात सागरोपम झाझेरी स्थितिवाले, (५) पद्मभद्रमुनि-ब्रह्म नामक पञ्चम देवलोकमें उत्कृष्ट दस सागरोपमकी स्थितिवाले, (६) पद्मसेन मुनि-लान्तक नामक छठे देवलोकमें उत्कृष्ट चौदह सागरोपमकी स्थितिवाले, (७) पद्मगुल्म मुनि महाशुक्र नामक सातवें देवलोकमें उत्कृष्ट सतरह १७ सागरोपमकी स्थितिवाले, (८) नलिनीगुल्म मुनि-सहस्रार नामक अष्टम देवलोकमें उत्कृष्ट १९ सागरोपम स्थितिवाले तथा (९) आनन्द मुनि-प्राणत नामक नवमें देवलोकमें उत्कृष्ट २० सागरोपम स्थितिवाले देवपने उत्पन्न हुए (१०) नन्दन मुनि-बारहवें अच्युत नामक देवસુભદ્રમુનિ મહેન્દ્ર નામે ચેથા દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયા. (૫) પદ્વભદ્ર મુનિ-બ્રહ્મ નામે પાચમા દેવલોકમા, (૬) પદ્મસેન મુનિ—લાન્તક નામે છઠ્ઠી દેવલેકમાં (૭) પદ્મગુમ મુનિ–મહાશુક નામે સાતમા દેવલેકની ઉત્કૃષ્ટથી સત્તરમાં સાગરોપમની સ્થિતિવાળા (૮) નલિની ગુમ મુનિ-સહસાર નામના આઠમા દેવલોકમાં જઈ ઉત્કૃષ્ટ ૧૯ સાગરેપ સ્થિતિવાળા દેવપણે ઉત્પન્ન થયા (૯) આનદ મુનિ પ્રાણત નામે નવમા દેવલોકમાં ઉત્કૃષ્ટ ૨૦ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા દેવપણે ઉત્પન્ન થયા (૧૦) નદન મુનિ–બારમાં અશ્રુત નામે દેવલોકમાં ૨૨ સાગરેપમ સ્થિતિવાળા દેવપણાથી ઉત્પન્ન થયા તેમની સ્થિતિ નીચે લખ્યા પ્રકારની છે – પદ્મદેવની ઉત્કૃષ્ટ બે સાગરોપમ સ્થિતિ છે મહાપદ્મની બે સાગરેપમ ઝાઝેરી (કાઈકઅધિક છે ભદ્રની સાતસાગરેપમ, સુભદ્રની સાત સાગરેપમ ઝાઝેરી પદ્મભદ્રની દશ સાગરોપમ પદ્મસેનની ચૌદ સાગરોપમ પદ્મગુલમની સત્તર સાગરોપમ નલિની Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका सूत्रे उत्कृष्टद्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकश्च देवत्वेनोत्पन्नः । सर्वत्र = सर्वेषु देवलोकेषु सर्वेषां देवतयोपपन्नानामुत्कृष्टस्थितिर्भणितत्र्या । सर्वे महाविदेहे सिद्धा भविष्यन्ति । ॥ इति कल्पातंसिका नाम द्वितीयो वर्गः समाप्तः ॥ 1 १९२ अथ पुष्पिताख्यस्तृतीयो वर्गः मूलम् - जड़ णं अंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं दोस्स वग्गस्स कप्पवडिंसियाणं अयमट्टे पन्नते ! | तच्चस्स णं भंते । वग्गस्स उबंगाणं पुल्फियाणं के अहे पण्णत्ते ? | एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं तच्चस्स वग्गस्स पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नता, तंजहा - ३ सुक्के ४ बहुपुत्तिय ५ पुन्न ६ ८ सिवे ९ वलेया, १० अगाढिए . '१ चंदे २ सूरे माणभद्दे य । ७ दत्त चेज वोद्धव्वे ॥ १ ॥ जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं पुष्फियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स पुष्फियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पन्नत्ते ? | एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया । तेणं कालेणं २ सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ चंदे जोइसिंदे लोकमें उत्कृष्ट २२ सागरोपमकी स्थितिवाले देवपने उत्पन्न हुए | ये सब उत्कृष्ट स्थितिवाले देव हैं और महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगे । | कल्पातंसिका नामक द्वितीय वर्ग समाप्त | ગુલ્મની અઢાર સાગરોપમ આનંદની વીસ સાગરોપમ અને નદનદેવની ખાવીસ સાગરોપમ સ્થિતિ એ બધા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા દેવ છે અને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સિધ્ધ થશે કલ્પાવત કિા નામક દ્વિતીય વર્ગ સમાપ્ત Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. १ चन्द्रदेव पूर्वभववर्णनम् जोइसराया चंदवडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदसि सोहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहि जाव विहरइ । इमं च णं केवलकप्पं जंबूद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे - २ पासइ, पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभे आभिओगे देवे सद्दावित्ता जाव सुरिंदाभिगमणजोगं करेत्ता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ । सूसरा घंटा, जाब विउठवणा, नवरं (जाणविमाणं) जोयणसहस्सविस्थिपणं अद्धतेवटिजोयणसमूसियं, महिंदझओ पणुवीसं जोयणमूसिओ, सेसं जहा सूरियाभस्स जाव आगओ नट्टविही तहेव पडिगओ। भंते त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं, पुच्छा, कूडागारसाला, सरीरं अणुपविटा, पवभवो । । ___एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ सावत्थी नाम नयरी होत्था, कोहए चेइए ! तत्थणं सावत्थीए नयरीए अंगई नासं गाहावई होत्या, अड्डे जाव अपरिभूए । तएणं से अंगई गाहावई सावत्थीए नयरीए बहूणं नयरनिगण० जहा आणंदो ॥१॥ छाया-यदि खलु भदन्त ? श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां द्वितीयस्य वर्गस्य कल्पावतंसिकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, तृतीयस्य बलु भदन्तः वर्गस्य उपाङ्गानां पुष्पितानां कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? . एवं खलु जम्बू : ! श्रमणेन यावत् सप्राप्तेन उपाङ्गानां तृतीयम्य वर्गस्य पुष्पितानां दशाव्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चन्द्रः (१) मरः (२) शुक्रः (३) बहुपुत्रिकः (४) पूर्णः (५) मानभद्रश्च (६) दत्तः (७) गिवः (८) गलेपकः (९) अनाहतः (१०) चैव बोद्धव्याः । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् सपा'तेन पुष्पितानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य पुष्पितानां श्रमणेन यावत् संमाप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ૨૫ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ निरयावलिकासूत्रे एवं खलु जम्बू : ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी सम. वसृतः । परिपत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्द्रो ज्योतिष्केन्द्रः ज्योतीराजः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने चतसृभिः सामानि कसाहस्रीभिः यावद् विहरति । इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीप द्वीपं विपुलेन अवधिना आमोगयमानः २ पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं यथा मूर्याभः आभियोग्यान् देवान् शदयित्वा यावत् सुरेन्द्रादिगमनयोग्यं कृत्वा तामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयति । सुम्बरा घण्टा यावत् विकुर्वणा नगरं (यानविमानं) योजनसहस्रविस्तीर्णम् अधत्रिपष्टियोजनसमुच्छ्रितम् , महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशतियोजनमुच्छितः, शेपं यथा मर्याभस्य यावदागतो नाटयविधिस्तथैव प्रतिगतः। भदन्त इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं, पृच्छा, कुटागारगाला, शरीरमनुपविष्टा, पूर्वभवः । ____ एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'श्रावस्तिः ' नाम नगरी आसीत् , कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गतिर्नाम गाथापतिरासीत् आढयो यावदपरिभूतः। ततः खलु सः अङ्गतिस्थापतिः श्रावस्त्यां नगीं बहुनां नगरनिगम० यथा आनन्दः ॥ १ ॥ टीका-' जडणं भंते' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ज्योति केन्द्रः ज्योतिर्देवाधिपतिः, ज्योतीराजः चन्द्रे सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः यावत् विहरति अवतिष्ठते । इमं प्रत्यक्षं खलु केवलकल्पं सम्पूर्ण । अथ पुष्पिता नामक तृतीय वर्ग । ' जडणं भंते' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! मोक्षको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग स्वरूप उपाङ्गमें पूर्वोक्त भावोंका निरूपण અથ પુપિતા નામક તૃતીય વર્ગ 'जडणं भंते 'त्यादि भू स्वामी पूछे छे . હે ભદન્ત ! મેક્ષ ગયેલ એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કપાવત સિકા નામે દ્વિતીય વગ સ્વરૂપ ઉપાગમાં પૂર્વોકત ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે ત્યાર પછી તૃતીય વર્ગ સ્વરૂપ પુપિતા નામના ઉપાગમાં ભગવાને કયા કયા ભાવનિરૂપણ કર્યા ? Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चन्द्रदेवस्यवर्णनम् १९५ जम्बुद्वीपम् = एतन्नामकं द्वीपं = मध्यजम्बुद्वीपं विपुलेन = त्रिशालेन अवधिना = अवधिज्ञानेन आभोगयमानः = अवलोकयन् श्रमणं भगवन्तं महावीरं पश्यति, दृष्ट्वा यथा सूर्याभः अभियोग्यान् = अभि= मनोऽनुकूलं युज्यन्ते = मेष्यकार्ये व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्यास्तान् देवान शब्दयित्वा =आहूय यावत् सुरेन्द्रादि गमनयोग्यं कृत्वा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति । सुस्वरा घण्टा यावत् त्रिकुर्वणा नवरं ( यानविमानं ) किया है उसके बाद तृतीय वर्ग स्वरूप पुष्पिता नामक उपाङ्गमें भगवानने कौनसे भाव निरूपण किये हैं ? श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! मोक्षको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने तृतीय वर्ग स्वरूप पुष्पिता नामक उपाङ्गके दस अध्ययन निरूपण किये हैं। वे इस प्रकार हैं - ( १ ) चन्द्र ( २ ) सूर (३) शुक्र (४) बहुपुत्रिक (५) पूर्ण (६) मानभद्र (७) दत्त (८) शिव ( ९ ) वलेपक और (१०) अनाहत ये दस अध्ययन हैं । जम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिता नामक उपाङ्गमें दस अध्ययनका जो निरूपण किया है उन अध्ययनों में प्रथम अध्ययनके भावको भगवानने किस प्रकार वर्णन किया है । श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू । उस कालु उस समय में राजगृह नामका नगर था ! उसमें गुणशिलक नामका चैत्य था । उस नगरका राजा श्रेणिक था । શ્રી સુધર્માં સ્વામી કહે છે હે જમ્મૂ ! મેક્ષપ્રાસ એવા શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે તૃતીય વ સ્વરૂપ પુષ્પિતા નામે ઉપાંગના દશ અધ્યયન નિરૂપણુ કર્યા છે. તે આ પ્રકારે છે: (૧) न्द्र (२) र (३) शु४ (४) महुपुत्रि (4) पूर्थ (६) मानभद्र (७) छत्त (८) शिव (c) पसे 43 गने (१०) अनाहूत मे हरा अध्ययन छे. भ्यू स्वाभी पूछे छे. હે ભદન્ત ! શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે પુષિતા નામે ઉપગમા દશ ધ્યયનેનું જે નિરૂપણ કર્યુ છે તે અધ્યયનમાં પ્રથમ અધ્યયનના ભાવનું તેમણે કયા પ્રકારે વર્ણન કર્યુ છે ? શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે:~ હૈ જમ્મૂ! તે કાલે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ તેમાં શુશિલક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરના રાજા શ્રેણિક હતા. તે કાલે તે સમયે ભગવાન મહાવીર પ્રભુ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * cm निरयावलिकामुत्रे योजनविस्तीर्ण अर्धत्रिष्टियोजनमुच्छ्रितम्, महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशतियोजनमुच्छ्रितः, शेषं यथा-सूर्यामदेवस्य भगवदन्ति समागममभूत्तत् यावत्उस काल उस समय में भगवान महावीर प्रभु वहां पधारे । जनसमुदायरूप परिषद धर्मकया सुनने के लिए निकली। उस कॉल उस समय में ज्योतिषकों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र, चन्द्रावतंसक विमान के अन्दर सुधर्मा सभामें चन्द्र सिंहासन पर बैठे हुए चार हजार सामानिकों के साथ यावत् विराजे हुए हैं । जम्बू - ज्योतिषियोंके इन्द्र चन्द्रमाने इम जम्बूद्वीप नामक सम्पूर्ण मध्य द्वीपको विशाल अवधिज्ञानसे अवलोकन करते हुए भगवान महावीरको मध्य जम्बू द्वीपमें देखा और उनका दर्शन करने के लिए जानेकी इच्छा की, और उन्होंने सूर्याभ देवके समान ही आभियोग्य (मृत्य) देवोंको बुलाये और उनसे कहा के देवानुप्रियो ! तुम मध्य जम्बूद्वीप में भगवानके समीप जाओ और वहाँ जाकर सवर्तक बात आदिकविकुर्वणा करके कूडा कचडा आदि साफ कर सुगन्ध द्रव्योसे सुगंधित कर यावत् योजन परिमित भूमण्डलको सुरेन्द्र आदि देवोंके जाने आने बैठने आदिके योग्य बनाकर खबर दो। वे आभियोग्य देव उपरोक्त आज्ञानुसार भूमण्डल तैयार कर खबर देते हैं । फिर चन्द्रदेवने पदातिसेनानायक देवको कहा कि जाओ और सुखरा नामकी घण्टा बजार सब देवी देवोंको भगवानके पास वन्दनार्थ चलने के लिये सूचित करो। फिर उस देवने वैसे ही किया । १९६ S ત્યા પધાર્યા જનસમુદારૂપ પશ્ચિંદ્ર ધર્મકથા મ ભળવા નીકળી તે કાળે તે સમયે યે નિષ્કાના ઇન્દ્ર, જ્ગ્યાતિષિએના રાજા ચન્દ્ર, ચદ્રાવત સક વિમાનની અંદર સુધર્મા સભ મા ચન્દ્રનિંહાસન પર બેઠેલા ચાર હજાર સનિકોની-સંથેિ 'બિનજેલા ઇં તે ન્યુતિષના ઈન્દ્ર ચન્દ્રમાએ આ જ ટીપ નામના સંપૂર્ણ મધ્ય જથ્થુ ઢીંધમા જોયા અને તેમના દર્શન કરવા માટે જવાની ઇચ્છા કરી અને ત્યારે તેમણે સૂર્યાભદેવની પડેજ આભિયાગ્ય (નૃત્ય) દેવને ખેલાવીને કહ્યું હું દેવતુપ્રિયે ! તમે જમ્મુઢીયા ભગવાનની પાસે જાએ અને ત્યાઁ ની એ વક ધવન આદિની વિધ્રુણા કરી કચરે પુંજો વગેરે સાફ કરો સુગન્ધ મેથી સુગંધિત કરી યાત્ સાજનના વિસ્તા। મડલને સુરેન્દ્ર આદિ દેવાને આવવા જવા એસા,દિ માટે ચેગ્ય બનાવીને ખખર આપે તે આભિયે,ગ્ય દેવ ઉપાકત આજ્ઞા અનુસી મેલ તૈયાર કરી ખખર દે પછી ચન્દ્રદેવે પાતિસેન પ્રદેવને કહ્યુ કે જાઓ અને सुस्वरा-नागनी घटा जन्नवाने सर्व देवाने लसी पासे पहुना आहे व्यासका सु३- सुअना-१ने पछी के हैक ते अमा ? 1% Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ - सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चन्द्रदेवस्यवर्णनम् चन्द्रोऽप्यागतः, नाटयविधिस्तथैव प्रतिगतः । तदछु भदन्न । इति संवोध्य भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं प्रति 'हे भवन्त ! इति प्राहेत्यादिना गौतमस्य पृच्छा । कुटाकारशाला कूटस्येव-पर्वतशिखरस्येव आकारो यस्याः शालायाः सा कूटाकारशाला, एतदृष्टान्तेन सा दिव्याः देवर्द्धिः शरीरं देवशरीरम् अनुपविष्टा अन्तर्हिता । यथा कस्मिंश्चिदुत्सवे जनसमुदायवासयोग्यां शालां वृष्ट्यादिभयभीतो विशालो जनसमूहोऽनुप्रविशति तथैव वैनियक्रियथा चन्द्रदेवेन विरचितो देवगणो नाटयकार्य दर्शयित्वा स्वकीयं चन्द्रदेवशरीरमेवानुप्रविष्टः । । सूर्याभके वर्णनसे विशेष. केवल इतना ही इसका यानविमान एक हजार योजन विस्तीर्ण था. और साढे तीरमठ योजन ऊँचा था। तथा महेन्द्र ध्वज पच्चीस योजन ऊंचा था, और इसके अतिरिक्त सभी वर्णन सूर्याभके समान समझना चाहियें। जिस प्रकार सूर्याभ देव भगवानके समीप आये, नाट्यविधि की और वापस लौट गये, वैसे ही चन्द्र देवके विषय में जानना चाहिये। उनके चले जाने के बाद गौतम, स्वामी पूछते हैं -..-. . हे भदन्त ! यह चन्द्र देव अपनी देवशक्ति देवाभावसे सभी देवताओके द्वारा नाट्य दिखाकर फिर सबको, अन्तहित कर केवल अकेला ही रह गया यह बडे आश्चर्य की बात है। ___ भगवान ने कहा-हे गौतम ! जैसे किसी उत्सवमें फैला हुवा जनसमूह वृष्टि आदि के भयसे किसी एक विशाल घरमें प्रवेश करता સૂર્યાભના વર્ણનથી વિશેષ કેવળ એટલું જ છે કે, આ વાનાવાન એક હજાર યોજન વિસ્તારવાળું હતું અને સાડા ત્રેસઠ યે જન ઊચુ હતુ. તથા મહેન્દ્ર વિજ પચીસ યોજન ઊંચા હતા અને તે સિવાય બધુ. વર્ણન - સૂનમના જેવું જ સમજવું જોઈએ • જે પ્રકારે સૂર્ય દેવ ભગવાનની પાસે આવ્યા, નાટયવિધિ કરી તથા પાછા ગયા એવી જ રીતેન્દ્રદેવના વિષયમાં જાણવું જોઈએ ? - लेमन यादयामाया पछी गौतम स्वामी प . . ' હે ભદન્ત, આ ચદેવ પિતાની અર્ધશકિતના પ્રભાવથી સર્વે દેવતાઓ દ્વારા 'નાટક દેખાડીને "પછી બધાને અન્તહિન કરી કેળ એલાજ રહી ગદ્ય એ માટે मश्विना : ભગવાને કહ્યું- હે તને જેમ કોઈ ઉત્સવમાં વિખરલે જનસમૂહ વરસાદ આદિના ભયથી કોઈ એક વિશાલ ઘસ્મારવેશ કરે છે તેવી જ રીતે ચંદ્રદેવે Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aad १९८ निरयांवलिकाम्रो हे भदन्त ! पूर्वभवः चन्द्रम्य प्राक्तनं जन्म कीदृशम् आमीत् ?, इति गौतमपृच्छां श्रुत्वा भगवानाह-हे गौतम ! एवं वक्ष्यमाणरीत्या खलु-निश्चयेन तस्मिन काले तस्मिन् समये 'श्रावस्ती' नाम नगर्यभवत्, कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गतिर्नाम गाथापतिरभवत्-आढयो-महान, ऋद्वयादिपूर्गों है उसी प्रकार चन्द्रदेव अपनी बैक्रिय शक्तिसे देवताओंकी रचना कर नाटक दिखा उनको समेट कर अपने ही देवशरीरमें प्रविष्ट कर लिया । फिर गौतम स्वामीने पूछा-हे भदन्त ! चन्द्रदेव पूर्वजन्ममें कौन थे? गौतमका ऐसा प्रश्न सुनकर भगवानने कहा-हे गौतम ! उम काल उस समय में श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उस नगरीमें कोष्टक नामक चैत्य था। उम श्रावस्ती नगरीमें अङ्गति नामक एक गाथापति था। वह गाथापति बहुत बड़ी ऋद्धि आदिसे युक्त था। कीर्तिसे उज्ज्वल था। उसके पास बहुतसे घर, शश्या, आसन, गाडी, घोडे आदि थे। और यह बहुतसा धन तथा बहुन सोना चादी आदिका लेन देन करता था । उसके घरमें खाने बाद बहुतसा अन्न पान आदि रखाने पीने का सामान रहता था जो अनाथ-गरीब मनुष्योंको व पशु पक्षियोंको दिया जाता था। उसके यहा दास दासिया बहुतसी थी और बहुनसे गाय, भैंस, भेंड थो । तथा वह अपरिभूत-प्रभावशाली था, यानी उसका कोई पराभव नहीं कर सकता था। પિતાની ક્રિય શકિતથી દેવતાઓની રચના કરી નાટક દેખાડી તેઓને સંકેલી લઈ પિતાના દેવશરીરમાં પ્રવેશ કરી લીધે ફરી ગૌતમ સ્વામીએ પૂછયું - ભરત! ચન્દ્રદેવ પૂર્વ જન્મમા કોણ હતા ? "ગૌતમને એ પ્રશ્ન સાભળી વાગવાને કહ્યું- હે ગીતમ! તે કાલે તે સમયે શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી તે નગરીમાં કેપ્ટક નામે ચૈન્ય હતુ તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં અંગતિ નામે એક ગાથાપતિ હરે તે ગાથા પતિ બહુ મોટી સમૃદ્ધિવાળે તે કીર્તિથી ઉજ્જવળ હતું તેની પાસે ઘણું ઘર, શબા, આસન ગાડી, ઘેડા આદિ “હતાં અને તે બહુ ધન, તથા બહુ સેના ચાંદી આદિનું લેણ દેણ કરતા હતા. તેના ઘરમાં ખાવા પીવા પછી "ણ ઘણુ અન્ન પાન અને ઘણો ખાવા પીવાને સમાન રહેતા હતા, જે અનાથ-ગરીબ મનુબે તથા પશુ પક્ષીઓને આપી દેવાતા હો તેને ત્યા દાસ, દાસીઓ ઘડ્યા હતા. તથા બાથ છે ઘેટા પણ બહુ હતા વળી તે અપરિભૂત–પ્રશાવશાળી હતે અર્થાત તેનો કઈ પગલાવ કરી શકતે નહોતે Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ अङ्गति गाथापतेवर्णनम् १९९ वा 'जाव' यावत्-'ओ' आढयः, इत्यारभ्य 'अपरिभूए'-अपरिभूतः, इत्येतत्पर्यन्तोक्तसमस्तविशेषणविशिष्ट इत्यर्थस्तेन-'दित्ते, वित्थिन-विउल-भवणसयणा-ऽऽसणजाण-वाहणाइण्णे, बहुधण-बहुजायख्व-रयए, आओग-पओगसंपउने, विच्छड्डियविउलभत्तपाणे, बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूए, बहुजणस्स' इत्येषां समन्त्रयः कर्तव्यः। एतच्छाया च-'दीप्तो विस्तीर्ण-विपुल -भवन-शयना-सन-यान-बाहनाऽऽकी? बहुधन-बहुजातरूप-रजत आयोगप्रयोग संप्रयुक्तो विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानो बहुदासी-दास-गो-महिप-गवेलकप्रभूतो बहुजनस्य' इति । तत्र दीप्तः कीर्त्या उज्ज्वलः, विस्तीर्णानि=विस्तृतानि विपुलानि वहनि, भवनानि-गेहानि, शयनानि-तल्पानि, गादिइति "भाषा" प्रसिद्धानि आसनानि= पीठकादीनि, यानानि गाडीपभृतीनि,वाहनानि-अश्वादीनि, तैराकीर्णः व्याप्तः समुपेतो वा । बहु-विपुलं धनं मणिप्रभृति यस्य स बहुधनः, स चासो,बहु-विपुल जातरूपं सुवर्ण, रजत-रूप्यं यम्य स बहुजातरूपरजतश्च । आ-समन्ताद् योजन=द्विगु __ 'आढय, दीप्त, और अपरिभूत' इन तीन विशेषणोंसे अंगति गाथापतिके लिये दीपकका दृष्टान्त दिया जाता है, वह इस प्रकार है-जैसे दीपक, तेल, बत्ती और शिखा (लौ) से युक्त होकर वायुरहित स्थानमें सुरक्षित रहकर प्रकाशित होता है, वैसे ही अंगति गाथापति भी तेल और बत्तीके समान आढयता अर्थात् ऋद्धिसे, शिखाकी जगह उदारता गंभीरता आदिसे और दीप्तिसे युक्त होकर, वायु रहित स्थानके समान मर्यादाका पालन आदि रूप सदाचारसे तथा पराभवरहितपनसे संयुक्त होकर तेजस्विता धारण करता था। अतः आढयता दीसि और अपरिभूतता, इन तोनोमें रहनेवाला हेतुताऽवच्छेदक धर्म આઢય, દીપ્ત અને અપરિભૂત” એ ત્રણ વિશેષણોથી અગતિ ગાથાપતિને માટે દીપકનું દાત કહે છે, તે આ પ્રમાણે –જેમ દીપક, તેલ, દીવેટ અને શિખા (ઝાળ) થી યુક્ત થઈને વાયુરહિત સ્થાનમાં સુરક્ષિત રહી પ્રકાશિત થાય છે, તેમ અગતિ ગાથપતિ પણ તેલ અને દીવેટની પેઠે આઢયતા અર્થાત્ દ્ધિથી, શિખાની જગ્યાએ ઉદારતા ગંભીરતા આદિથી અને દીપ્તિથી યુકત થઈને વાયુરહિત સ્થાનની સમાન મર્યાદાના પાલન આદિ રૂપ સદાચારથી તથા પરાભવરહિત પણાથી સ યુકત થઈને તેજસ્વિતા ધારણ કરતા હતા. એ રીતે આવ્યતા દીપ્તિ અને અપરિભૂતતા, એ ત્રણેમા રહેલે હેતુસાચછેદક ધર્મ એક છે, તે કારણથી તૃણારણિમણિ ન્યાયે Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्यावलिकाक्षेत्रे णादिलाभार्थ रूप्यादीनामधमर्णादिभ्यो नियोजनमा योगस्तस्य प्र=प्रकर्षेण योज नम् = उपाय चिन्तनं प्रयोगः, यहा - आयोगेन द्विगुणादिलिप्सया प्रयोगः =अधमर्णानां सविधे द्रव्यस्य वितरणमा योगप्रयोगः, स संप्रयुक्तः प्रवर्तितो येन तस्मिन वा संप्रयुक्तः = संलग्न यः स आयोगप्रयोगसप्रयुक्तः = नीत्या द्रव्योपार्जनमवृत्त इत्यर्थः । भक्त च पानं च मक्तपाने, विपुले च ते भक्तपाने विपुलभक्तपाने, वि= विशेषेण छर्दिते= भोजनावशिष्टे भक्तपाने यस्य स विच्छर्दितविपुल भक्तपानः, दीनेभ्यो दीयमानविपुल भक्तपान इत्यर्थः । दास्यथ वासाच गावच महिपाव गवेका: उरभ्राति दासीदामगोमहिपगवेलकाः, बहवच ते दासीदासगोमहि २०० 9 1 वेळा इतिहासगोमहिप वेळकास्ते प्रभूताः = मचुरायम्य स बहुदासीदास गांमपिगवेकप्रभूतः अत्र गवादिपदं स्त्रीगवादीनामप्युपलक्षकं, यहागोपदस्य= स्त्रीपुंगवयोरविशेषेण वाचकत्वादविशेध एव, महिप- गवेलक-शब्दयोश्च ' पुमान स्त्रिया ' इत्येकशेषान्महिण्यादीनामपि ग्रहणम् । बहुजनस्येति जातिविवक्षयैकवचनं संबन्ध सामान्ये च पष्ठी, तेन 'बहुजने ' - रित्यर्थी बोद्धव्यः, अत्र ' अपी' त्यस्ययोजनात् बहुजनैरपीति तत्रम्, अपरिभूतः = तत्परामवरहितः, यद्वा-क्त प्रत्ययार्थस्याऽविवक्षितत्वादपरिभवनीयः - बहुजनैरपि पराभवितुमशक्य इत्यर्थः । एपृकविशेषणेषु " अडे, दित्ते अपरिभू " एभिस्त्रिभिर्विशेपणैरङ्ग तिगाथापती प्रदीपष्टान्तोऽभिमतस्तथाहि - यथा प्रदीपस्तैलवर्तिभ्यां शिखया च संपन्न निर्वाते स्थाने सुरक्षितः प्रकाशमासादयति, एवमयमपि तैलवर्तिस्थानीयया आढ्यताऽपरपर्यायद्धय शिखाम्थानीययांदारतागम्भीरतादिरूपया दीत्या च संपन्नो निर्वातस्थानस्थानीयया सदाचारमर्यादाएक ही है, इस कारण तृणारणिमणि-न्याय से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम में प्रमाणनाक समान प्रत्येक (सिर्फ आढवता, सिर्फ दीप्ति, या सिर्फ अपरिभूतता ) को हेतु नहीं मानना चाहिए । जिस प्रकार आनन्द गाथापति धन धान्य आदिसे युक्त वाणिज्य ग्राममें निवास करता था । उसी प्रकार अङ्गति गाथापति भी श्रावस्ती नगरीमें निवास करता था । પ્રત્યક્ષ, અનુમાન અન આગમ શબ્દમાં પ્રમાણતાની પ પ્રત્યેકને ( માત્ર આયત, માત્ર દીપ્તિ, અથવા માત્ર અભૂિતતા-એ એકને) હેતુ માનવા નહ જે પ્રકારે માનદ ગાથાપતિ ધનધાન્ય આદિથી યુકત વાણિજય ગ્રામમાં નિવાસ કરતા હતા üવીજ રીતે અતિ ગાાતિ પશુ શ્રાવતી નગરીમાં નિવાસ કરતા હતા Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, वर्ग ३ अ. १ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् મ્ पालनादिरूपयाऽपरिभूततया च संपन्नः समुज्ज्वलति - जगत्मसिद्धो भवतीति हेतुतावच्छेदकधर्मस्याऽऽढ्यता - दीप्त्यपरिभूततै तत्रितय समुदायनिष्ठस्यैकधर्मस्य सवान तृणारणिमणि - न्यायेन प्रत्यक्षानुमानाऽगमशब्देषु प्रत्येकं प्रमाजनकत्वमिव प्रत्येकमाढयतादीनां त्रयाणां समुज्ज्वलनहेतुता, किन्तु प्रकाशं प्रति तैलवर्यादिसमुदायवत् समुज्ज्वलनं प्रति आढ्यतादिसमुदायस्यैव हेतु तेति बोध्यम् । ततः खलु सोऽङ्गतिर्गाथापतिः श्रावस्त्यां नगयाँ यथा वाणिज्यग्रामे आनन्दो नाम गाथापतिः परिवसति तथैवायमपीत्यर्थः । तदेव स्पष्टयति- " नगर-निगम-राहू -सर-तळवर-माइंबिय - कोडुंबिय इत्रभ-सेट्ठि-संणावड - संत्थवाहाणं बहुसु कंजेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुटुंबेस्रु यं गुज्जेनु य रहस् य निच्छएस य बवहारे सुय आपुच्छणिजे पापुच्छणिज्जे समस्म वियणं कुटुंबस मेढी पतागं आहारे, आलव चक्खु, मेढीभूए जाव सन्वकज्जवहारए या होत्था एतच्छाया-नगर निगम राजेश्वर तलवर - माण्डविक - कॉन्बिकेभ्यः श्रेष्ठि-सेनापनि सार्थवाहानां 15 षु कार्येषु च कारणेषु च मन्त्रेषु च कुटुम्बेषु च गुह्येषु च रहस्येषु च निश्वर्येषु च व्यवहारेषु च आपृच्छनीय: प्रतिपृच्छनीय: स्वस्यापि च खलु कुटुम्बस्य मेधिः, प्रमाणम्, आधार, आलम्बनं चक्षुः, मेत्रिभूतः यावत् सर्वकार्यवर्द्धक चापि अभवत् । तत्र-नगरम् = 66 “ पुण्यपापक्रिया विज्ञ, दयादानप्रवर्तकः । कलाकलापकुशलैः, सर्ववर्णैः समाकुलम् ॥ भाषाभिर्विविधाभिश्च युक्तं नगरमुच्यते । वह अङ्गति गाथापति राजा ईश्वर यावत् सार्थवाहो के द्वारा बहुत से कार्योंमें, कारणो ( उपायो) में, मन्त्र ( सलाह) में, कुटुम्बो में, पोमें, रहस्योमें, निश्चयो में और व्यवहारोमें एक बार पूछा जाता था । और वह अपने कुटुम्बका भी मेवि, प्रमाण, आधार आलम्बन चक्षु, मेघीभूत यावत् समस्त कार्योंको बढाने वाला था । यहाँ यावत् એ અગતિ ગાથાપતિને, રાજા, ઇશ્વર યાવત્ સા વાહે તરફથી ઘણા કાર્યાંમાં, अरशेो ( उपायो ) 'ग, मन्त्र ( सझाड )भा, हुटुम्णोभा, गुद्योभा, रोमा, निश्च ચેમા અને વ્યવહારમા એક વ॰ પૂછવામાં આવતુ હતુ, વારવાર પશુ પૂછવામા આવતુ હતુ અને તે પેાતાના કુટુબના પણ મેધિ, પ્રમાણુ, આધાર, આલેખન, ચક્ષુ, મેષીભૂત, યાવત્ બધા કાર્યોને આગળ વધારનારે હતા. ૨૬ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०२ . . . . . . .. निरयावलिकामत्रे निगमो व्यापारमधानस्थानम्, इश्वराः रेश्वर्यसम्पन्ना, तलवरा सन्तुष्टभूपालदत्तपट्टवन्धपरिभूपितराजकल्पाः माण्डविकाः = छिन्नभिन्नजनाश्रयविशेषो मण्डवस्तत्राधिकृताः, 'माडम्बिकाः' इति च्छायापक्षे तु ग्रामपञ्चशतीपतय इत्यर्थः, यद्वा-साधनोगद्वयपरिमितप्रान्तरैविच्छिद्य विच्छिद्य स्थितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिका बहुकुटुम्बप्रतिपालकाः, इभ्या: इभो हस्ती तत्पमा द्रव्यमहन्तीति, तथा ते च-जघन्य-मध्यमो-स्कृष्टभेदात् त्रिपकाराः तत्र इस्तिशब्दसे राजा, ईश्वर, तलवर, माण्डविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाहका ग्रहण होता हैं। माण्डलिक नरेशको राजा, और ऐश्वर्य वालोको ईश्वर कहते हैं । राजा मंतुष्ट होकर जिन्हें पट्टवन्ध देता है, वे राजाके समान पट्टवन्धसे विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं। जो वस्ती छिन्न भिन्न हो उसे मण्डव और उसके अधिकारीको माण्डविक कहते हैं। 'माङविय' की छाया यदि 'माडम्बिक' की जाय तो माडम्बिकका अर्थ 'पाँच सौ गावों का स्वामी' होता है। अथवा ढाई ढाई कोसकि दरीपर जो अलग गाव वसे हो, उनके स्वामीको 'माडम्धिक' कहते हैं। जो कुटुम्बका पालन पोषण करते हैं, या जिनके द्वारा बहुतसे कुटुम्बौका पालन होता है, उन्हें 'कौटुम्बिक' कहते हैं। इभका अर्थ है हाथी, और हाथीके बराबर द्रव्य जिसके पास हो उसे 'इभ्य कहते हैं । , जघन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे ___ महा 'जाव' शण्थी रात, श्वर, तसर, भावि४ अथवा मा3 1ि8, કૌટુમ્બિક, ઈભ્ય, શ્રેષ્ઠી સેનાપતિ અને સાર્થવાહ, એટલા શબ્દોનું ગ્રહણ થાય છે માલિક નરેશને રાજ્ય અને એશ્વર્યવાળાઓને ઈશ્વર કહે છે. રાજા સ તુષ્ટ થઈને જેને પટ્ટબ ધ આપે છે તે રાજાઓના જેવા પટ્ટગંધથી વિભૂષિત લેકે તલવર કહેવાય છે જેની વસતી છિન્ન ભિન્ન હોય તેને મડવ અને તેના અધિકારને માવિક 33 छ. 'माउंविय' नी छायाने 'माडम्बिक' ४२११५॥ साये तो 'माडम्बिक' ને “પાસે ગામોની ધણી” એ અર્થ થાય છે અથવા અઢી અઢી ગાઉને गतरे jat नुहा गाभा यां डाय तेना पीने 'माडम्बिक' ४ २ ४४. નુ પાલન-પોષણ કરે છે અથવા જેની દ્વારા ઘણુ કુટુઓનું પાલન થાય છે, તેને કૌટુમ્બિક કહે છે ‘ામ” ને અર્થ “હા” છે, અને હાથીના જેટલું દ્રવ્ય જેની पा दाय, तेन 'इभ्य' '38.छ. .य, मध्यम आने पटना लेटेशन ४९य Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. १ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् परिमितमणि-मुक्ता-प्रवाल-सुवर्ण-रजतादिद्रव्यराशिस्वामिनो जघन्याः, हस्तिपरिमितवज्र-मणि-माणिक्य - राशिस्वामिनो मध्यमाः, हस्तिपरिमितकेवलबजराशिस्वामिन उत्कृष्टाः, श्रेष्ठिनो लक्ष्मीकृपाकटाक्षप्रत्यक्षलक्ष्यमाण-द्रविणलक्षलक्षणविलक्षणहिरण्यपट्टसमलङ्कृतमूर्धानो नगरमधानव्यवहारः, सेनापतयः= चतुरङ्ग सेनानायकाः, सार्थवाहा: गणिम -धरिम-मेय-परिच्छेद्य-रूप-क्रेयविकेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तराणि व्रजतां सार्थ बाहयन्ति योगक्षेमाभ्यां परिपालयन्ति, दीनननोपकाराय मूलधनं दवा तान् समयन्तीति तथा, इभ्य तीन प्रकारके हैं । जो हाथीके बराबर मणि, मुक्ता, प्रवाल (मुंगा) सोना, चादी आदि द्रव्य-गशिके स्वामी हो वे जघन्य इभ्य हैं। जो हाथीके बराबर हीरा और माणिककी राशि के स्वामी हो वे मध्यम इभ्य हैं। जो हाथीके बराबर केवल हीरोंकी राशिके स्वामी हो वे उत्कृष्ट इभ्य हैं। लक्ष्मीकी जिसपर पूरी २ कृपा हो और उस कृपाकोरके कारण जिनके लाखों के खजाने हो, तथा जिनके सिरपर उन्होंको सूचित करने वाले चान्दीका विलक्षण पट्ट शोभायमान हो रहा हो, जो नगरके प्रधान व्यापारी हों, उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं। चतुरङ्ग सेनाके स्वामीको सेनापति कहते हैं। जो गणिम, धरिम, मेय और परिछेद्य रूप खरीदने-वेचनेके योग्य वस्तुओंको लेकर नफाके लिये देशान्तर जाने वालेको साथ ले जाते हैं, योग (नयी वस्तुकी प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तुकी रक्षा) के द्वारा उनका पालन करते हैं, गरीबोंकी भलाई के लिये उन्हें पूँजी देकर व्यापार द्वारा धनवान बनाते हैं उन्हें सार्थवाह ત્રણ પ્રકારના છે હાથીની બરાબર મણિ, મોતી, પરવાળા, સેનુ ચાંદી આદિ દ્રવ્યના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ જઘન્ય ઇભ્ય છે. હાથીની બરાબર હીરા અને માણેકના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ મધ્યમ ઇભ્ય છે. હાથીની બરાબર કેવળ હીરાના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ ઉત્કૃષ્ટ ઈભ્ય છે જેમની ઉપર લક્ષ્મીની પૂરેપૂરી કૃપા હાય અને એ કૃપાને કારણે જેમની પાસે લાખના ખજાના હોય તથા જેમને માથે તેમનું સૂચન કરનારે ચાદીને વિલક્ષણ પટ્ટ શોભાયમાન થઈ રહ્યો હોય, જે નગરના मुख्य व्यापारी हाय, तेने श्रेष्ठी' छ यतु सेनाने स्वामीने 'सेनापति' કહે છે. ગણિમ, ધરિમ. મેય અને પરિચ્છેદ્ય રૂપ ખરીદવા–વેચવાયેગ્ય વસ્તુઓ લઈને નફાને માટે દેશાંતર જનારાને જે સાથે લઈ જાય છે. વેગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને શ્રેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુનું રક્ષણ) ની દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે, ગરીબોના ભલા માટે भने १७ मापान पा२ दास नेपाल मनाये छे. तेभने 'सार्थवाह' हे छे, मे, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ LAS V निरावलिका , तत्र गणिमम् = एक द्वि- त्रिचतुरादिसंख्य । क्रमेण यद्दीयते, यथा-नालिकेरं- पूगीफल-बदलीफलादिकम् धरिमं=तुलात्रेणोत्तोल्य यद्दीयते, यथा- त्रीहिः-यव- लवण - सितादि, मेयं = शराव - लघुभाण्डादिनोत्तोल्य यद्दीपते, यथा-दुग्धघृत- तेल- प्रभृति, परिच्छेद्यं च प्रत्यक्षतो निकपादिपरीक्षया यदीयते, यथामणिमुक्ताप्रवाला - SSभरणादि । ' सार्थवाहाना ' मित्यत्र 'कृत्यानां कर्तरि वे' ति कर्तरि पष्टी, अग्रेतनस्य ' आमच्छनीयः, परिप्रच्छनीय:' इत्यनीयर प्रत्ययस्य योगात्, सार्थवारित्यपि तृतीयान्तेन कर्त्रा व्याख्येयम् । f बहुषु = चुरेषु, अस्य सर्वैरेव सप्तम्यन्तैः सम्बन्धः । कार्येषु कर्तव्येषु प्रयोजनेविति यावत्, कारणेषु = कार्यजातसम्पादकहेतुषु च मन्त्रेषु = कर्तव्यनिश्वयार्थ गुप्तविचारेषु । कुटुम्बेषु =वान्धवेषु, गुह्येषु = लज्जया गोपनीयेषु व्यव करते हैं। एक, दो, तीन, चार आदि संख्या के हिसाब से जिनका लेन देन होता है, 'गणिम' कहते हैं, जैसे-नारियल, सुपारी, केला आदि । तराजू पर तोलकर जिमा लेन देन हो, उसे 'घरिम' कहते हैं; जैसे धान, जौ, नमक, शक्कर आदि । सरावा छोटे २ वर्तन आदिसे नाप कर जिसका लेन देन होता है, उसे मेघ कहते हैं, जैसे- दूध, घी, तैल- आदि । सामने कसोटी आदि पर परीक्षा करके जिमंका लेन देन होता है, उसे परिच्छेद्य कहते हैं । जैसे मणि, मोती, मूँगा, ग्रहना आदि । वह अङ्गति "गाथापति, इन राजा, ईश्वर आदिके द्वारा बहुत से कार्या कार्यको सिद्ध करनेके उपायोंमें, कर्तव्यको निश्चित करनेके गुप्त विचारों में, बान्धवों में, लज्जाके कारण गुप्त रखे जाने वाले विषयों में, WWF 7 - · का में, नये, यार आदि सयाना डिसाने 'नेनी तेथ होश थाय छेतेने गभिडे, छे, જેમકે નાનીએર, સાપારી ઇત્યાદિ, ત્રાજવાથી તેાલીને જેની લેણ-દેણુ કરવામાં આવે छे, तसे परिभ छे, धान्य, नव, भीहु, सार- धत्यादि, पाली पवार्ड देवा भावना वासागुथी भाचीने बेनी, सेलू- हो स्वभावे छे तेने भेय थे, જેમકે, ધ, ઘી, તેલ વગેરે, કસેી આદિથી પરીક્ષા કરીને જેની લેણ-દેણુ કરવામા આવે છે તેને પરિચ્છેદ્ય કહે છે, જેમકે મણિ, મેાતી, પરવાળા, ધરેણુ વગેરે અગતિ ગાથાપતિને, અ રાજા, ઇ?વર આદિ તરફથી ઘણા કાર્યમાં ધર્માંને સિદ્ધ ४२वा भाटेना, उपयोभा, उतव्यने निश्चित श्वाना गुप्त विद्याशभी मांधवेोभा, सन्मुने, शुभा भावता विषयमा, कोअतमा ४२वा भावता शमी, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरखोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ५ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् हारेषु, रहस्येषु-रहसि-एकान्ते भवा रहस्यास्तेषु प्रच्छन्नव्यवहारेष्विति यावत् । निश्चयेषु-पूर्णनिर्णयेषु, व्यवहारेषु व्यवहारपष्टव्येषु, यहा-बान्धवादिसमाचरितलोकविपरीतादि क्रियाप्रायश्चित्तेषु, विषयसप्तम्या 'एतेषु विषये' इत्यर्थः ।। आ ईषत् सकृदिति यावत् , प्रच्छनीयः प्रष्टव्यः, परि=सर्वतोभावेन असकृदिति यावत् प्रच्छनीयः प्रष्टव्यः, स्वस्यापि स्वकीयस्यापि, च-कारो विषयान्तरपरिग्रहार्थ :। खलु निश्चयेन कुटुम्बस्य परिवारजनस्य मेधिः व्रीहि-यव-गोधू मादिकणमर्दनाथ खले निखाय- स्थापितो दादिमयः पशुवन्धनस्तम्भः,, यत्र पङिशोबद्धा बलीवदियो ब्रीह्यादिकणमर्दनाय परितो भ्राम्यन्तिं तत्साहन एकान्तमें होने वाले कार्योमें, पूर्ण निश्चयोमें, व्यवहारके लिये पूछे जाने योग्य कार्योंमें, अथवा बान्धवों द्वारा किये गये लोकाचारसे विरुद्ध कार्योंके प्रायश्चित्तो (दंडो) में, अर्थात् उल्लिखित सब मामलों में एकबार और बार-बार पूछो जाता था-इन सब बातों में राजा आदि समस्त बडे बडे आदमी अगतिकी सम्मति लेते थे। . . इन सब विशेषणोंसे सूत्रकारने यह प्रकट किया है कि अंमति गाथापतिको सभी लोग मानते थे, वह अत्यन्त विश्वासपात्र था, विशालवुद्धिशाली था और सबको उचित सम्मति देता था। ." : धान जो गेहूँ आदिकी दाय करने (लाटा-दाने-निकालने) के लिये, गढा खोदकर एक लकड़ी या बाँसका स्तम्भ गाड़ा जाता है, उसके चारों और एक पंक्तिमे लांक (धान) को कुचलने के लिये बैल घूमते हैं उस स्तम्भको मेधि-मेढी-कहते हैं। बैल आदि उस समय પૂર્ણ નિશ્ચયમાં વ્યવહાર માટે પૂછવા યોગ્ય કાર્યોમા અં બાંધ તરફથી કરત્રામાં આવતા,કાચારથી વિપરીત કાર્યોના પ્રાયશ્ચિત્તો (દોર્ડ મા અર્થાત્ એવા બધાં પ્રકરણોમાં એકવાર તથા વારવાર પૂછવામાં આવતુ હતુ–એ બધી વાતેમા રાજા વગેરે મોટા મોટા માણસે પણ અગતિની સ મતિ લેતા હતા - - - - એ બધા વિશેષણ વડે સૂવકારે એમ પ્રકટ કર્યું છે કે અગનિ ગાથા પતિને બધા લેકે માનતા હતા, તે અત્યંત પ્રિવાસપાત્ર હતા, વિશાળ બુદ્ધિથી યુકત હો અને બધાને વાજબી જ સલાહ-સંમતિ આપતે હવે * ધન્ય, જવ, ઘઉ વગેરેને કણસલામાથી છૂટા કરવાને એક ખાડે છેદી તેમા એક લાકડાને ખભે ખેડવામન આવે છે અને પછી તેની ચારે બાજુએ એક સાથે કણસલાને કચરવા માટે બળદ વગેરે ફર્યા કરે છે એ ખાતાને મેધિ કહ છે બળદ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... ... .निरयावलिका सूत्रे श्यादयमपि मेधिः, अर्थादेतदवलम्बनेनैव सर्वस्यापि कुटुम्बस्यावस्थानमिति । कुटुम्बस्यापीत्यत्रापिशब्दबलान्न केवलं कुटुम्बस्यैव, अपितु सर्वस्यापि जनस्येत्यवधेयम् । प्रमाण-प्रत्यक्षादिप्रमाणबद्रेयोपादेयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपतया संशयराहित्येन पदार्थसार्थपरिच्छेदकः, आधार:=आधारवन् सर्वेषामाश्रयभूतः, आलम्बन उसीपर निर्भर रहते हैं। यदि वह स्तम्भ न हो तो कोई वैल कहीं चला जाय, कोई कहीं-सव व्यवस्था भङ्ग हो जाय । गाथापति अङ्गति अपने कुटुम्बकी मेधि-मेढीके समान थे, अर्थात् कुटुम्ब उन्हीके सहारे था-वेही उसके व्यवस्थापक थे। मृल-पाठमें 'वि' (अपि) शब्द है, उसका तात्पर्य यह है कि वे केवल कुटुम्बके ही आश्रय नहीं थे, अपितु समस्त लोगोंके भो आश्रय थे, जैसा की उपर बताया जा चुका है। आगे जहाँ-जहा 'वि' (अपि-भी) आया है वहा सर्वत्र यही तात्पर्य समझना चाहिए । अङ्गति गाथापति अपने कुटुम्बके भी प्रमाण थे। अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाण सटेह आदिको दूर करके हेय ( त्याग करने योग्य ) पदार्थोसे निवृत्ति और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थोंको जनाते हैं, उसी प्रकार अङ्गति भी अपने कुटुम्थियोंको बताते थे कि-अमुक कार्य करने योग्य है, अमुक कार्य करने योग्य नहीं है, यह पदार्थ ग्राह्य है, यह आग्राह्य है।' વગેરે એ વખતે એ ખભાને આધારેજ કર્યા કરે છે. જો એ ખભે ન હોય તે એક બળદ એક બાજુએ ચાલ્યા જાય અને બીજો બીજી બાજુએ ફરે, એ રાતે વ્યવસ્થા ભાગ થઈ જાય. ગાથાપતિ અગતિ પિતાના કુટુમ્બની મેધ–મધ્યસ્થ સ્તંભ જે હવે, અર્થાત્ કુટુમ્બ એને આધારે હતુ, તેજ કુટુમ્બને વ્યવસ્થાપક હતા भूण पाठमा 'वि' (अपि) २५, तात्पर्य ये ते पण पुसना आधार રૂપ નહોતું, પરંતુ બધા વેકાન પણ આશ્રય ૩પ હને, કે જેમ ઉપર દર્શાવવામાં सास छ मा ५y rivया 'वि' अपि-पह) आयु, त्या त्या गधे । લાય સમજવાનું છે. અંગતિ ગાથાપતિ પોતાના કુટુંબમાં પણ પ્રમાણ રૂપ હરે, અર્થાત્ જેમ પ્રત્યક્ષ અનુમાન આદિ પ્રમાણ, સ દેડ આદિને દૂર કરીને હેય ( ત્યજવા ગ્ય) પદાર્થોથી નિવૃત્તિ અને ૩ દેય (શ્રણ કરવા ગ્ય) પદાર્થોમા પ્રવૃત્તિ કરાવતા તે પદાર્થોને દર્શાવે છે, તેને અગતિ પણ પિતાના કુટુંબિયાને બતાવતું હતું કે, - અમુક કાર્ય કરવું યોગ્ય છે, અમુક કાર્ય કરવું યે.ગ્ય નથી, અમુક પદાર્થ ગ્રાહ્ય છે, -મુક અદાર્થ અગ્રાહા છે, ઇત્યાદિ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ३ अ. १ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् २०७ रज्जुस्तम्भादिवद्विपत्कूपपतज्जनोद्धारकतयाऽवलम्बनम्, आधारो नाम-यमधिष्ठाय जन उन्नतिं गच्छति, स्वरूपाऽवस्थो वा वर्तते सः, यदवलबनेन च विपदो विनिवर्तन्ते तदालम्बनमिति तयोर्भेदः, चक्षुः नेत्रं तद्वत् सर्वेषां सकलार्थप्रदर्शकः, यदुक्तं-मेधिः, प्रमाणम्, आधारः, आलम्बनं, चक्षुरिति । नदेव स्पष्टप्रतिपत्तये औपम्यवाचिभूतशब्दसम्मेलनेन पुनरावर्तयति-मेधीभूत इत्यादि, यावदिति यावच्छब्देन 'पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए' इत्येषां संग्रहो बोध्यस्तत्रप्रमाणभूतः, आधारभूतः, आलम्बनभूतः. चक्षुर्भूतः, इतिच्छाया, पौनरुक्त्यवारणं तु मेधिरर्थान्मेधीभूतो मेधिसदृश इति यावत् । प्रमाणमर्थात प्रमाणभूतः प्रमाण सदृश इति यावत् । आधारोऽर्थादाधारभूत आधारसदृश इति यावत् । आलम्बनसदृश इति यावत् । चक्षुरर्थाचक्षुर्भूतश्चक्षुःसदृश ,इति यावत् इति रीत्या - तथा अङ्गति गाथापनि अपने कुटुम्बके भी आधार (आश्रय) थे, तथा आलम्बन थे, अर्थात् विपत्तिमें पड़नेवाले मनुष्यको रस्सी या स्तम्भके समान सहारे थे। ___ अङ्गति अपने कुटुम्बके चक्षु थे, अर्थात् जैसे चक्षु मार्गको प्रकाशित करना है वैसे ही अङ्गति कुटुम्बियोंके भी समस्त अर्थोके प्रदर्शक (सन्मार्गदर्शक) थे। दूसरी वार मेधिभूत आदि विशेषण स्पष्ट बोधके लिये हैं। 'जाव' शब्दसे प्रमाणभूत, आधारभूत, आलम्वनभूत, चक्षुर्भूत, इनका संग्रह होता हैं । यहाँ स्पष्टनाके लिये 'भूत' शब्द अधिक दिया है, इसका तात्पर्य यह है कि अङ्गति गाथापति मेढी अर्थात् मेढीके सदृश थे, प्रमाण अर्थात् प्रमाणके सदृश थे, आधार अर्थात् आधारके सदृश અંગતિ પિતાના કુટુંબને પણ આધાર (આશ્રય) હતા, તથા આલબન હતું, અર્થાત્ વિપત્તિમાં પડેલા મનુષ્યને દેરડું અથવા થાભલાના જેવા આધાર રૂપ હતો અ ગતિ પિતાના કુટુમ્બના ચક્ષુરૂષ હતું, અર્થાત્ જેમ ચક્ષુ માર્ગને પ્રકાશિત કરે છે તેમ અંગતિ સ્વકુટુંમ્બિઓના પણ બધા અર્થોના પ્રકાશન (સન્માર્ગ श) तो બીજીવાર મેધિભૂત આદિ વિશેષણ સ્પષ્ટ બોધને માટે આપેલા છે “નાવ શબ્દથી પ્રમાણભૂત, આધારભૂત, આલંબનભૂત, ચતુભૂત, એ બધાને સગ્રામ થાય છે. અહીં સ્પષ્ટતાને માટે સૂત” શબ્દ વધારે આવે છે એનું તાત્પર્ય એ છે કે અંગતિ.સેધિ અર્થાત મેધિની સમાન હતે પ્રમાણ અર્થાત પ્રમાણુની સમાન હતા, આધાર Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०८ . . . . . . . "निरयावलिकामले समन्वयाइवतीति नक्ष्मचक्षुपाऽवेक्षणीयम्, च-चकारी किश्चत्यर्थे सर्वकार्यवर्धकः सर्वेषां कार्याणां सम्पाटकोऽपि,(एतादृशोऽङ्गतिगाथापतिः)अभवत्-आसीत् ।।१॥ -- मूलम्-तेणं कालेणं५ पासेणं अरहा पुरिसा दाणीए आदिगरे जहां महावीरो, नवुस्सेहे सोलसेहिं समणसाहस्सीहि, अट्रतीसा जाव कोट्रए समोसढे, परिसा निग्गया ! तए णं से अंगई गाहावई इमीसे कहाए लट्टे समाणे हटे जहा कत्तिओ सेट्री तहा निग्गच्छइ जाव पज्जुवासइ, धम्म सोचा निसम्म० जं नवरं देवाणुप्पिया ! जेट्रपुत्ते कुडुवे . ठावेमि, तए णं अहं- देवाणुप्पियाणं जाव पव्वयामि, जहा गंगदत्तो तहा पव्वइए जाव गुत्तवंभयारी । तए णं से अंगई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइय. माइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ, अहिजित्ता वहि चउत्थ जाव भावेमाणे वहई वासाइं सामन्नपरियागं पाउणइ. पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता विराहियसामन्ने कालमासे कालं किच्चा चंदवडिंसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि देवदूसंतरिए चंदे जोइसिंदत्ताएं उववन्ने । तए णं से चंदे जोइसिंदे जोइसराया अहणोववन्ने समाणे पंच विहाए पज्जत्तीए पजत्तिभावं गच्छा, तंजहा-आहारपजत्तीए सरीरपजत्तीए इंदियपज्जत्तीए. सासोसासंपज्जत्तीए भासा मणपज्जत्तीए । थे, आलम्बनके महश थे, चक्षु अर्थात चक्षुके महा 'थे। अङ्गति समस्त कार्योके मम्पादन करनेवाले भी थे ।। १ ।। અર્થાત્ આધારની સમાન હતું, આલ બન અર્થાત આલ બનની સમાન હમેં અને ચતુ સાત ચક્ષુની સમાન હતે અંગતિ બધા કાર્યો→ બપાદન કરન રે પણ હને (૧) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी, टोका, वर्ग ३ अ. १ अङ्गतिगाथापति वर्णनम चंदस्त णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा! पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं । एवं खल्लु गोयना ! चंदस्स जाव जोइसरन्नो सा दिव्वा देविडी० । चंदेणं भंते ! जोइसिंदे जोइसराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ चइत्ता कहिं गच्छिहिइ २? गोयमा! महाविदेहे वासे सिजिहिइ५ एवं खलु जम्बू ! समणेणं० निक्खेवओ ॥२॥ ॥पढमं अज्झयणं समतं ॥१॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थः खलु अर्हन् पुरुपादानीय आदिकरो यथा महावीरः, नवहस्तोच्छायः पोडशभिः श्रमणेसाहस्रीभिः, अष्टा-- त्रिंशद् यावत् कोष्ठ के समवसृतः, परिपत् निर्गता । ततः, खलु सः अङ्गतिर्नथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टो यथा कार्तिकश्रेष्ठी तथा निर्गच्छति यापत पर्युपास्ते, धर्म श्रुत्वा निशम्य० यत् नवरं देवानुप्रिय ! ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयामि, ततः खलु अहं देवानुमियाणां यावत् प्रव्रजामि यथा गङ्गादत्तस्तथा प्रव्रजितो या पद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स अगतिः अनगारः पार्श्वस्य अर्हतः नथारूपागां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिश्चतुर्थ० यावद भावयन् बहूनि वर्षागि श्रामण्यपयाँयं पालयति पालयित्वा अर्धमासिक्या संले. खनया त्रिशद् भक्तानि अनशनया छित्वा विराधितश्रामण्यः कालमासे कालं कृत्वा चन्द्रावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिते चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रतया उपपन्नः । ततः खलु स चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रो ज्योतिराजः अधुनोपपन्नः सन् पंचविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं गच्छति, तद्यथा-आहारपर्याप्त्या शरीरपर्याप्त्या इन्द्रियपर्याप्त्या श्वासोच्छवासपर्याप्त्या भाषामन:पर्याप्त्या । चन्द्रस्य खलु भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रस्य ज्योतीराजस्य कियत्काल स्थितिः मज्ञप्ता ? गौतम ! पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् । एवं खलु गौतम ! चन्द्रस्य यावत् ज्योतीराजस्य सा दिव्या देवऋद्धिः । चन्द्रः खलु भदन्त ! ज्योति Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रे २१० रिन्द्रो ज्योतीराजस्तस्मादेवलोकादायुःक्षयेण ३ न्युत्वा कुत्र गमिष्यति २१ गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्वति५ । एवं वलु जम्बुः श्रमणेन निक्षेपकः ||२|| || इति प्रथमाध्ययनम् ॥ टीका- 'तेणं काळेणं' इत्यादि । तस्मिन काले तस्मिन् समये पार्श्वः = त्रिविंशः पार्श्वनामा तीर्थङ्करः, अर्हनचतुर्विधघातिकर्मनिवारकः केवलज्ञानकेवलदर्शनसम्पन्नः, पुरुषादानीय: = पुरुपै: = मुमुक्षुभिर्जनैः स्वकल्याणार्थमादीयत इति पुरुषादनीय:, यद्वा- पुरुषाणां मध्ये आढेयवचनत्वात् पुरुपादानीयः, आदिकरः = धर्मस्य आदिकरः, यथा महावीरः = चतुर्विंशस्तीर्थङ्करः, तथैव सर्वगुणसम्पन्नः, किन्तु पार्श्वप्रभुः नवहस्तोच्छ्रायः = नवहस्त परिमितशरीरः पोडशभिः श्रमणसाहस्त्रीभिः, अष्टात्रिंशद्भिः श्रमणीसहस्त्रैव युक्तः यावद ग्रामानुग्रामं विहरन कोष्टके = कोनामधाने समवसृतः = समागतः परिषत् निर्गता, पार्श्वतीर्थङ्करस्य धर्मdari श्रुत्वा स्वस्थानं गता । - A ' तेणं कालेणं ' इत्यादि-उस काल उस समय में पार्श्व प्रभु तेवीसवें तीर्थङ्कर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाति कर्मों के निवारक केवलज्ञान, केवलदर्शनसे युक्त, मुमुक्षुजनोंसे सेव्य अथवा पुरुषों के बीच में उनका वचन आदानीय ग्राह्य था इसलिये पुरुषादानीय, धर्मके आदिकर भगवान महावीरके समान -सभी गुणोंसे युक्त नौ हाथ उँचे शरीरवाले सोलह हजार श्रमण और अडतीस हजार मणियोंसे युक्त एक ग्रामसे दूसरे ग्राम तीर्थङ्कर परम्परासे विचरते हुए कोटक नामक उद्यानमें पधारे । जन समुदायरूप परिषद अपने २ स्थानसे धर्मश्रवण के लिये निकली । पार्श्वनाथ भगवानकी धर्मदेशना सुनकर अपने २ स्थान गयी । 'तेणं कालेणं' छत्याहि ते असे ते समये पार्टी अलु तेवीसभा तीर्थ और જ્ઞાનાવરણીય દશ નાવરણીય, મેહનીય તથા અતરાય એ ચાર ઘાતી કર્મોના નિવારક, કૈવલજ્ઞાન કેવલદર્શનથી યુકત, મુમુક્ષુ જનેાથી સેવ્ય, અથવા પુરૂષની વચમા તેમનું વચન આદાનીયગ્રાહ્ય હતુ. આથી પુરૂષાદાનીય, ધર્માંના આદિ કરવાવાળા ભગવાન હાવીર સમાન સર્વે ગુણેથી યુકત, નવ હાથ ઊંચા શરીરવાળા, સાજુંર શ્રમણ તથા ભાડત્રીસ હજાર શ્રમણિયેથી યુક્ત એક ગામથી ખીજે ગામ તીષ્કર પર પગથી વિચરતા વિચરતા કૈક નામના ઉદ્યાન (બાગ)મા પધાર્યા જૈન સમુદાય રૂપ પરિષદ પેત પેાતાના સ્થાનથી ધમ સાંભળવા માટે નીકળી, પ્રાર્શ્વનાથ ભગવાનની ધ દેશના સાંભળી શ્વેતપેાતાને સ્થાને ગઇ. 337 S Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. १ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् ततः खलु सोऽङ्गतिर्गाथापतिः अस्याः कथायाः = ' पुरुषादानीयः पार्श्वनाथः प्रभुश्च कोष्ठके समवसृतः' इति वार्तायाः - लब्धाथः = ज्ञातनान्तः सन् हृष्टः प्रमुदितः यथा कार्तिकश्रेष्ठी तथा निर्गच्छति यावत् पर्युपास्ते= पार्श्वनाथं प्रभुं सेवते स्म । धर्म = श्रुतचारित्रलक्षण श्रुत्वा = कर्ण पथे कृत्वा, निशम्य = हृदि समवधार्य देवानुप्रिय ! = हे भगवन् ! यत् नवरं = केवल ज्येष्ठपुत्रं रक्षकतया कुटुम्बे स्थापयामि, ततः खलु अहं देवानुप्रियाणामन्तिके यावत् प्रव्रजामि = संयमं गृह्णामि, यथा भगवत्यङ्गोक्तो गङ्गदत्तस्तथा प्रत्रजितो यावच्छब्देन - स हि - 'किंपाकफलोत्रमं मुणियविसयसोक्खं जलबुब्बुयसमाणं कुसग्गविंदुचंचलं जी - त्रियं नाऊणमधुवं चत्ता हिरण्णं विउलघणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं त्रिच्छड्डुइत्ता दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता अगाराओ अणगारियं पत्रइओ जहा तहा अंगईचि गिनायागो परिचय सव्वं पत्रइओ जाओ य पंचसमिओ तिगुत्तो अममो अचिणो गुतिंदिको ' इत्येवं संग्राद्यम् । एतच्छाया च-स किंपाकफलोपमं ज्ञात्वा विषयसौख्यं जलबुद्बुदसमानं कुशाग्रबिन्दुचञ्चलं उसके बाद वह अङ्गति गाथापति भगवान पार्श्वनाथके आनेका वृत्तांत सुनकर हृष्ट होकर कार्तिक सेठके समान निकला । पार्श्वनाथ प्रभुके पास जाकर उसने उनकी सेवा की, और भगवान पार्श्वनाथके द्वारा उपदिष्ट श्रुत चारित्र लक्षण धर्मको सुना, और उसे अपने हृदयमें अवधारित किया। उसके बाद उसने हाथ जोडकर प्रार्थना की - हे भगवन् ! मैं अपने बड़े लडकेको कुटुम्बका भार देकर बाद में आपके पास संयम ग्रहण करना चाहता हूँ । अनन्तर वह भगवती अमें उक्त गंगदन्तके समान ही विषय सुखकों किंपाक फलके सदृश जानकर जीवनको ज़ल बुदबुद तथा कुशके अग्र भाग में स्थित जल ત્યાર પછી તે અગતિ ગાથાપતિ ભગવાન પાર્શ્વનાથના આવવના વૃત્તાન્ત સાભળી દૃષ્ટ ઈ કાર્તિક શેઠની પઠે નીકળ્યે પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે જઇ તેણે તેમની સેવા કરી તથા ભગવાન પાર્શ્વનાથ દ્વારા ઉપષ્ટિ શ્રચારિત્ર લક્ષણ ધર્મો સાભળ્યે, અને તે પોતના હૃદયમાં ધારણ કર્યાં ત્યાર પછી તેણે હાથ જોડીને પ્રાર્થના કરી-હે ભગવન્ ! હું મારા મેટા દીકરાને કુટુંબના ભાર સેપી દઇને આપની પાસે સયમ ગ્રહણ કરવા ઇચ્છા રાખુ છુ, ત્યાર પછી તેં ભગવતીસૂત્રમાં કહેલ ગંગદત્તની પંઢજ વિષય સુખને કપાક ફૂલની જેમ સમજી જીવનને પાણીના પરપોટા તથા કુશના અય ભાગમા રહેલા જલબિંદુ સમાન ચચલ અને અનિત્ય સમજીને તથા Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ निरयावलिकामुत्रे जीवितं च ज्ञात्वाऽध्रुवं त्यक्त्वा हिरण्यं विपुल-धन- कनक - रत्न- मणि- मौक्तिकशह- शिला-मवाल - रक्तरत्नादिकं विमुच्य दानं दायिकानां परिमाज्य अगारतः अनगारितां मत्रजितः यथा तथा अङ्गतिरपि गृहनायकः परित्यज्य सबै पत्रजितो जातच पञ्चसमितः, त्रिगुप्तः, अममः, अकिञ्चनः गुप्तेन्द्रियः, इति । गुप्तब्रह्मचारी वभूत्र, नतः खलु अङ्गतिरनगारः पार्श्वस्यार्हतस्तथारूपाणां स्थवि राणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाद्गानि अवीत्य च बहुभिः चतुथ पष्ठाटम-दमद्वादशमासार्धमामक्षपणैरात्मान भावयन=वामयन् बहूनि वर्षाणि श्रा मण्यपर्यायं = मुनित्रतं पालयति पालयित्वा विराधिनश्रामण्यः =विराधितमृनिव्रतः, बिन्दु के समान चंचल एवं अनित्य समझकर और बहुतसा चांदी धन कनक रत्न मणि मौक्तिक शंख रत्न शिला प्रवाल रक्तरत्न आदिको छोडकर और दान देकर तथा सम्पत्तिके भागियोंको सम्पत्तिका भाग देकर बरसे निकल गङ्गदत्तके समान प्रव्रजित हो गये । प्रवज्या लेनेपर वे अङ्गति अनगार ईर्ष्या आदि पांच समितियोंसे समित मन आदि तीन गुप्तिसे गुप्त और ममत्व रहित एवं अकिञ्चनह्याभ्यन्तरपरिग्रहसे रहित और पाँच इन्द्रियोंको दमन करनेवाले अनगार हो गये, और गुप्त ब्रह्मचारी बने । उसके बाद अङ्गति अनगारने अर्हत् पार्श्व प्रभुके थारूप बहुश्रुत स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गका अध्ययन किया । अध्ययन के बाद बहुत से चतुर्थ पष्ट अष्टम दशम द्वादश मासार्ध मास क्षपण रूप तपसे अपनी आत्माको भाविक करते हुए बहुत वर्षो तक चारित्र धाशु शाही, धन, सोनुं, उन, भणि (अवे-17), भोती, शुभ, शुसा, प्रवास, भुत (माओ) आह छोडी : - અને દાન દઈને તથા સપત્તિના ભાગીદારને સ પત્તિને ભાગ આપી પેાતાના ઘરથી નીકળી ગગદત્તની પેઠે પ્રત્રજિત થઇ ગયા. પ્રવ્રજ્યા લઇને તે અતિ અનગાર ઇર્યાં આદિ પાચ સમિતિએથી સમિત મન આદિ ત્રણ શુપ્તિથી ગુપ્ત તથા મમત્વ રહિત અને અકિંચનખાહ્ય-અભ્યતર પરિગ્રહથી રહિત તથા પાચે ઇન્દ્રિયેનું દમન કરવાવાળા અનગાર થઇ ગયા. તથા ગુપ્ત બ્રહ્મચારી અન્યા ત્યાર પછી અગતિ અનગારે અ`તુ પાર્શ્વં પ્રભુના તથારૂપ-મહુશ્રુત-વિજ્ઞાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અગાનું અધ્યયન કર્યું. અધ્યયન પછી ઘણા ચતુર્થ, પદ્મ, અષ્ટમ, દેશમ, દ્વાદશ, માસા ( નાં માસ ) માસ ક્ષમણ રૂપ અનેક તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા ઘણા વર્ષાં સુધી ચારિત્ર પાલન કર્યું પણ ઉત્તર ગુજની Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. १ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् २१३ विराधना द्विधा-मूलगुणविषया उत्तरगुणविषया च, अत्रोत्तरगुणविपया विराधना पिण्डविशुद्धयादयो विज्ञेयाः, न तु प्रथमा, तत्र कदाचित् द्विचत्वारिंशदोषविशुद्धाहारस्य न ग्रहणं कृतम् , कदाचित् ईर्यासमित्यादिसमाराधनेऽनादरः कृतः, कदाचित् अभिग्रहाश्च गृहीता अपि न सम्यक् पालिताः, विभूषार्थमङ्गापादक्षालनादि च कृतम् , इत्यादिरूपेण व्रतविराधना कृता, सा च न गुरुपालन किया । परन्तु उत्तरगुणकी विराधनाके कारण विराधितचारित्र हो, अर्धमासिकी संलेग्वनासे अनशनद्वारा तीस भक्तोंका छेदन कर काल मासमें काल करके चन्द्रावतंसक विमानमें उपपात सभामें देवदृष्य वस्त्रोंसे आच्छादित देवशय्यामें वह अङ्गति अनगार [१] आहारप्रर्याप्ति [२] शरीर-प्राप्ति [३] इन्द्रिय-पर्याप्ति [४] श्वासान्छास-पर्याप्ति भाषामनः पाँति भावको प्राप्त करके ज्योतियिषों के इन्द्र चन्द्र होकर उत्पन्न हुए। विराधना दो प्रकारकी है-मूलगुणविराघना और उत्तरगुणविराधना । उनमें पांच महाव्रतमें दोष लगाना मुलगुणविराधना है। और पिण्डविशुद्धि आदिमें दोष लगाना जैसे-कभी बयालीस दोष सहित आहार पानीका ग्रहण करना कभी ईर्या आदि समितियोंके आराधनमें प्रमाद करना कभी अभिग्रह लेना किन्तु सम्यक नहीं पालना तथा विभूषाके लिये शरीर चरण आदिका क्षालन करना, आदि २ उत्तरगुण विषयक विराधना देशविराधना है। अङ्गति વિરાધનાને કારણે વિરાધિતચારિત્રવાળા થઈ અર્ધમાસિકી સ લેખનામાં અનશન દ્વારા ત્રીશ ભકતનું છેદન કરી કાલ માસમાં કોલ કરીને ચન્દ્રાવત સક વિમાનમાં ૯પપાત સભામા દેવદૂષ્ય વસ્ત્રોથી આચ્છાદિત (ઢકાયેલી) દેવશય્યામાં તે અગતિ અનગાર (१) भाडा२-५यारित (२) शरी२-५ति [3] धन्द्रिय-पाति (४) श्वासारवासપર્યાપ્તિ–ભાષામન–પર્યાપ્તિ ભાવને પ્રાપ્ત કરીને તિષના ઈન્દ્ર ચંદ્ર બનીને उत्पन्न थया. , * * વિરાધના બે પ્રકારની છે-મૂલગુણવિરાધના અને ઉત્તરગુણવિરાધના તેમા પાચ મહાવ્રતમાં લગાડે એ મૂલગુણવિરાધના છે અને પિડ વિશુદ્ધ આદિમા દોષ લગાડે જેમકે કઈવાર બેતાલીશ ષ સહિત આહાર પાણી લેવા, કેઈવાર ઈર્યા વગેરે સમિતિઓના આરાધનમાં પ્રમાદ કર, કેઈવાર અભિગ્રહ લે પરંતુ સમ્યક્ (સારી રીતે) ન પાળ, તથા વિભૂષા માટે શરીર ચરણ આદિ ધેવા આદિ આદિ ઉત્તરગુણ વિષયક વિરાધના દેશવિરાધના છે. અંગતિ અનગારે મૂલ ગુણની વિરાધના કરી. નહેતી Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४. .. ...-. २१४ - १ .. समीपे समालोचिता, इत्युक्तरूपेणानालोचितातिचारः सन् कृतानशनोऽपि अर्धमासिक्यां संलेखनायामनशनया त्रिंशद् भक्तानि छित्त्वा कालावसरे कालं कृत्वामृत्वा चन्द्रावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवशय्यायां देवष्यान्तरिते देवदृष्यवस्त्राच्छादितेऽयं चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रतयोपपन्न: समुदपद्यत-तस्य ज्योतिर्देवे जन्म जातमित्यर्थः । निक्षेपो-निगमनम् । शेपं मुगमम् ॥ २ ॥ ॥ इति प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ अनगारने मूलगुणकी विराधना नहीं की, किन्तु उत्तरगुणकी विराधनाकर आलोचना नहीं की । इमलिये यह ज्योतिपी देव हुआ। गोतम स्वामी पूछते हैं हे भदन्त !'ज्योतिषियोंके इन्द्र, ज्योतिषियोंके राजा चन्द्र की स्थिति कितने कालकी है ? भगवान कहते हैं हे गौतम ! ज्योतिषों के इन्द्र चन्द्रकी स्थिति एक पल्योपम और एक लाख वर्षकी है । हे गौतम ! ज्योतिषोंके इन्द्र ज्योतिपोंके गजा चन्द्रको यह दिव्य देव ऋद्धि पूर्व भवमें उपार्जित तप संयमके कारण मीली है। हे भदन्त । चन्द्र देव अपना आयुष्यभव तथा अपनी स्थितिके क्षय होजाने के बाद च्यवकर कहा जायगा ? हे गौतम आयु आदि क्षयके बाद यह चन्द्र देव महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होंगे। પણ ઉત્તર ગુણની વિરાધના કરી આલોચના કરી હતી તે માટે તે જ્યોતિષી દેવ થયા. ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે– હે ભદન્ત ! જતિના ઈન્દ્ર તિના રાજા ચન્દ્રની સ્થિતિ કેટલા કાલની છે ભગવાન કહે છે– હે ગૌતમ! ઈન્દ્ર ચદ્રની સ્થિતિ એક પલ્યોપમ અને એક લાખ વર્ષની છે કે ગૌતમજ્યોતિના ઈન્દ્ર જ્યોતિષના રાજા ચન્દ્રને આ દિવ્ય દેવત્ર પૂર્વભવમાં ઉપાર્જિત તપ અને સંયમના કારણથી મળી છે હે ભદન્ત! ચન્દ્ર દેવ પિતાનું આયુષ્ય ભવ તથા પિતાની સ્થિતિના ક્ષય થઈ ગયા પછી રચવીને કયા જશે. હે ગતમ! આયુ આદિ ક્ષય થઈ ગયા પછી આ ચન્દ્ર દેવ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈને સિદ્ધ થશે. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. २ अङ्गतिगाथापतिवर्णनम् २१५ मूलम् जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं पढमस्स अझयणस्स जाव अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स गं भंते! अायणस्स पुफियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अहे पन्नत्ते ? एवं खल्लु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए. चेइए, सेणिये राया, समोसरणं जहा चंदो तहा सूरोऽवि आगओ जाव नहविहिं उवदंसित्ता पडिगओ। पुव्वभवपुच्छा, सावत्थी नगरी, सुपइट्रे नाम गाहावई होत्था, अड़े, जहेव अंगती जाव विहरति, पासो समोसढे, जहा अंगती तहेव . पव्वइए, तहेव विराहियसामन्ने जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतकाहिति, एवं खलु जंबू ! समणेणं निक्खेवओ ॥२॥ ॥बीयं अज्झयणं समत्तं ॥ २॥ . छाया-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् पुष्पितानां प्रथमस्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बु ! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने -पुष्पिताके प्रथम अध्ययनका निरूपण किया है । इति प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ । द्वितीय अध्ययन. . 'जइण भंते' इत्यादि__ हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके प्रथम अ સુધમાં સ્વામી કહે છે – હે જમ્મુ' આ પ્રકારે મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પુષિતાના પ્રથમ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે _ति धितानुं प्रथम मध्ययन समाप्त.... . . . .' द्वितीयमध्ययन.. . 1. : હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પુપિતાના પ્રથમ અધ્યયનમાં પૂર્વોકત Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ कुशल के मु 1 अध्ययनस्य यावत् अयमर्थः प्रज्ञप्तः द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य पुष्पितानां श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कोऽथ प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणमिलकं चैत्यं श्रेणिको राजा, समवसरणं यथा चन्द्रः तथा मुरोऽपि आगतो यावत् नाट्यविधिमुपदर्य प्रतिगतः । पूर्वमवपृच्छा - श्रावस्ती नगरी सुमतिष्ठो नाम गाथापतिरभवत् आचः यथैव अङ्गतिवद् विहरति, पार्श्वः समवसृतः, यथा अङ्गतिस्तथैव ध्ययन में पूर्वोक्त भावोंका निरूपण किया है तो फिर है भदन्त ! पुष्पिताके द्वितीय अध्ययनमें उन्होंने किम भावका निरूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नामकी नगरी थी । उस नगरीमें गुणशिलक नामका चैत्य था । उस नगरी में श्रेणिक नामके राजा थे । वहाँ श्रमण भगवान महावीर पधारे। जिस प्रकार चन्द्रमा आये उसी प्रकार सुय भी आये और यावत नाट्य विधि दिवाकर चले गये । गौतमने भगवान से पूछा हे भवन्त ! सूर्य पूर्व जन्ममें कौन थे ? भगवानने कहा हे गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नामकी नगरी थी । उस नगरीमें सुप्रतिष्ठ नामके गाथापति थे । जो अङ्गतिके समान ही आढ्य यावत् अपरिभूत होकर विचरते थे । उस नगरीमें ભાવાનું નિરૂપણ કર્યું છે પછી હૈ ભદન્ત 1 પુષ્પિતાના ખીજા અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે ? હે જમ્મૂ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગરી હતી તે નગરીમા ગુણુ શિલ નામે ચૈત્ય (બગીચા) હતે તે નગરીમાં શ્રેણિક નામે રાજા હતા ત્યાં શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર પધાર્યાં જેવી રીતે ચન્દ્રમા આવ્યા તેવી રીતે સૂર્ય પણુ આવ્યા અને સઘળી નાટક વિધિ બતાવી ચાલ્યા ગયા. ગૌતમે ભગવાનને પૂછ્યુ – હે ભદન્ત ! સૂર્ય પૂર્વ જન્મમા કાણુ હતા ? ભગવાને કહ્યુ— હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે શ્રાવસ્તી નામે નગરી સુપ્રતિષ્ઠ નામે ગાથાપતિ હતા જે અગતિના જેવાજ આઢય અને વિચરતા હતા તે નગરીમા ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુ પધાર્યા. જેમ હતી તે નગરીમ અભૂિત થઇને અગતિ ગાથાપતિ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथा पतिवर्णनम् २१७ मत्रजितः तथैव त्रिराधितश्रामण्यो यावत् महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् अन्तं करिष्यति, एवं खन्तु जम्बू : ! श्रमणेन निक्षेपकः ॥ २ ॥ ८ टीका- 'जडणं भंते' इत्यादि सुगमम् ॥ २ ॥ ॥ इति द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ मूलम् - जइणं भंते! समणेण भगवया जात्र संपतेणं उक्खेवओ भाणियव्वो, रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ सुक्के महग्गहे सुकवडिस विमाणे सुक्कंसि सीहासांसि चउहिं सामाणिय साहस्सिहिं जहेब चंदो तहेव आगओ, नहविहिं उवदंसित्ता पडिगओ ! भंते ति कूडागारसाला । पुन्वभवपुच्छा । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ वाणारसी नामं नयरी होत्था । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे परिवसइ, अडे जाव अपरिभूए रिउव्वेय - जाव सुपरिनिट्ठिए । भगवान पार्श्व प्रभु पधारे । जैसे अङ्गति गाथापति प्रत्रजित हुए । उसी प्रकार श्रामण्यको विराधित कर काल अवसर काल करके ज्योतिषोंके इन्द्र सूर्य देवपनेमें उत्पन्न हुए । और आयु भव स्थिति क्षय करने के के बाद यह सूर्य देव महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे। और सब दुःग्वोका अन्त करेगे । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने द्वितीय अध्ययनके भावोंको निरूपित किया है । इति द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ । પ્રવ્રુજિત થયા તેવીજ રીતે સુપ્રતિષ્ઠ ગાથાપતિ પણ દીક્ષિત થયા તેજ પ્રકારે સાધુપણાને વિરાધિત કરી કાલ અવસર કાલ કરીને જ્યે વિષેાના ઇન્દ્ર સૂર્યાં દેવપણામાં ઉત્પન્ન થયા તથા આયુ ભસ્થિતિ ક્ષય કરીને પછી આ સૂર્ય દેવ મહા વિદેડ ક્ષેત્રમા જન્મ લઈને સિદ્ધ થશે અને સવે દુ.ખનેા અત લાવશે. હે જમ્મૂ ! આ પ્રકારે શ્રમ” ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના દ્વિતીય અધ્યયનના ભાવાનુ નિરૂપણ કર્યું છે આ પુષ્પિતાનું મીજી અધ્યયન પુરૂ થશું ૨ ૨૮ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे २१८ Go पासे समोसढे । परिसा पज्जुवासइ । तरणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स इमे एयारुवे अज्झथिए० जाव समुप्फजित्था एवं खलु पासे अरहा पुरिसादाणीए पुत्र्वाणुपुच्चि जाव अवसालवणे विहरह, तं गच्छामि णं पासस्स अरहओ अंतिए पाउव्भवामि । इमाई च णं एयारुवाई अट्ठाई हेऊई जहा पण्णत्तीए । सोमिलो निग्गओ खंडियविहुणो जाव एवं बयासी - जत्ता ते भंते ! ? जवणिज्जं च ते ? पुच्छा, सरिसवया, मासा, कुलत्था, एगे भवं, जाव संबुद्धे सावगधम्मं पडिवजित्ता पडिगए । तिए णं पासे अरहा अण्ण्या कयाइ वाणारसीओ नयरीओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वहिया जणवयविहारं विहरs | तएण से सोमिले माहणे अण्णया कयाई असाहुदंसणेण यि अपज्जुवासणयाए य मिच्छेत्तपजवेहिं परिवमाणेहिं २, सम्म चपज्जवेहि परिहायमाणेहिं २, मिच्छतं च पवने । } तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाई पुत्र-रत्तावरतकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था - एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सामिले नामं माहणे अचंतमाहणकुलप्पसूए । तरणं म वयाई चिण्णाई, वेया य अहीया, दारा आहूया, पुत्ता जणिया, इडीओ समाणीयाओ, पसुवधा कया, जन्ना जेट्टा, "दक्खिणा दिन्ना, अतिही पूजिया, अग्गी हूया, जूपा निक्खिता, तं सेयं खलु ममं इयाणि कलं जाव जलंते वाणारसीए नय - Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथापतिवर्णनम् रीए बहिया बहवे अंबारामा रोवावित्तए, एवं माउलिंगा, बिल्ला, कविटा, चिंचा, गुप्फारामा रोवावित्तए । एवं संपेहेइ संपेहिता कलं जाव जलंते वाणारसीए, नयरीए बहिया अंबारामे य जाव पुटफारामे य रोवावेइ । तएणं बहवे अंबारामा य जाव पुप्फारामा य अणुपुब्वेणं सारखिजमाणा संगोविज्जमाणा संवड़ियमाणा आरामा जाया, किण्हा किण्होभासा जाव रम्मा महामेहनिकुरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणसिरीया अईव २ उवसोभेमाणा २ चिट्ठति ॥३॥ । छाया-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन उत्क्षेपको भणितव्यः । राजगृहं नगरम् । गुणशिलक चैत्यम् । श्रेणिको राजा । स्वामी समवस्त । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुक्रो महाग्रह : शुक्रावतंसके विमाने शुक्रे सिहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः, यव चन्द्रस्तथैवागतः, नाटयविधिमुपदश्य प्रनिगतः । भदन्त ! इति कूटाकारशाला । पूर्वभवपृच्छा - . . एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसी नाम नगरी अभवत् । तत्र खलु वाराणास्यां नगयों सोमिलो नाम ब्राह्मणः परिवसत्ति, आढयो' यावत् अपरिभूतः ऋग्वेद० यावत् सुप्रतिष्ठितः । पार्थ: समवसृतः। परिषत् पर्युपास्ते । ततः खलु तम्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य अस्याः कथायाः लब्धार्थस्य सतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिक ४, यावत् समुदपद्यतएवं खलु पार्थः अईन् पुरुपादानीयः पूर्वानुपूा यावत् आम्रगालबने विहरात, तद् गच्छामि खलु पार्श्वस्य अर्हतोऽन्तिके प्रादुर्भवामि, इमान् च खल्लु एतद्रूपान् अर्थान् हेतून् यथा प्रज्ञग्न्याम् । - सोमिलो निर्गतः खण्डि कविहीनो यावत् एवमवादीत-यात्रा ते भदन्त ! ?, यापनीयं च ते ? पृच्छा, सदृशवयसः, मापाः, कुलस्थाः, एको भवान , यावत् सबुद्धः श्रावकधर्म प्रतिपद्य प्रतिगतः । ततः खलु पावः अर्हन् अन्यदा कदाचित् वाराणसीतो नगरीतः आम्रशालवनाच्चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यहिर्जनपदविहारं विहरति । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० निरयावलिकामूत्रे . ततः स सोमिलो ब्राह्मणः अन्यदा कदाचिन् असाधुदर्शनेन च अपर्युपासनतया च मिथ्यात्वपर्य वैः परिवर्धमानैः २, सम्यक्त्वपर्य वैः परिहीयमानः २ मिथ्यात्वंच प्रतिपन्न । ___ततः ग्वलु तस्य मोमिलम्य ब्राह्मणस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्जागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यन-एवं खलु अहं वाराणम्यां नगया मामिलो नाम ब्राह्मणोऽत्यन्तव्राह्मणकुलप्रसनः । ततः खलु मया वतानि चीर्गानि वेदाथाधीताः, दारा आहृताः, पुत्रा जनिताः, ऋद्रयः समानीताः, पशुवधाः कृताः, यज्ञा इटाः, दक्षिणा दत्ता, अतिथयः पूजिताः, अग्नयो हुनाः, गृपा निभिप्ताः, तच्छ्रेयः खलु ममेदानी कल्ये यावत् ज्वलति वाराणस्यां नगया बहिर्वहन आम्रारामान रोपयितुम् , एव मातुलिङ्गान, बिल्वान , कपित्थान, चिश्चाः, पुष्पारामान रोपयितुम् । एवं सप्रेक्षने, संप्रेक्षय कल्ये यावत् चलति वाराणम्या नगर्या बहिः आम्रारामांश्च यावत् पुष्पारामांश्च रोपयति । ततः खलु वत्र आम्रारामाश्च यावत् पुप्पागमाश्च अनुपूर्वेण संरक्ष्यमाणाः, मगोप्यमानाः, संवयं मानाः आरामाः जाताः कृष्णाः कृष्णावभासा यावत् रम्या महामेघनकरम्बिभूताः पत्रिताः पुष्पिताः फलिताः हरितकराराज्यमानश्रीकाः अतीवातीच उपगोममाना उपगाभमानास्तिष्ठन्ति ॥ ३ ॥ टीका-'जडणं भंते' इत्यादि । उत्क्षेपका पारम्भवाक्यं यथा-'जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चम्स अज्झयणस्स पुफियाणं अयमद्वे पनत्ते, तृतीय अध्ययन 'जइणं भंते' इत्यादि-- हे भदन्त ! यावत् सिद्धिगतिस्थानको प्राप्त श्रमण भगवान 'महावीरने पुष्पिताके द्वितीय अध्ययन में पूर्वोक्त अर्थोका निरूपण किया है नो हे भदन्त ! तृतीय अध्ययनमें उन्होंने किन अर्थोंका निरूपण किया है ? અથ ત્રીજું અધ્યયન 'जदणं मंत' यहि ૯ ભદન્ત ! એ પ્રમાણે સિદ્ધિ ગતિ કથાનને પ્રાત એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પુષિતાના દ્વિતીય અવ્યના પૂર્વોકત અર્થોનું નિરૂપણ કર્યું છે તે છે ભદન્ત! ત્રિક અધ્યયનમાં ત ણે કયા અર્થોનું નિરૂપણ કર્યું છે? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् २२१ तच्चस्सणं भंते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं जाव संपत्तणं के अटे पभत्ते ? । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे' इत्यादि । प्रादुर्भवामि= उपस्थितो भवामि, अर्थान् आत्मकल्याणरूपान् हेतून् कारणानि, यद्वा-हेतून अनुमानस्य पञ्चावयववाक्यरूपान् , यथा प्रज्ञप्त्यांव्याख्या प्रज्ञप्त्यां भगवतीमुत्रे तथा विज्ञेयम् । खण्डि कविहीनः शिष्यरहितः, सोमिलो ब्राह्मणः पार्श्व हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था ! गुणशिलक नामका चैत्य था। उस नमरीमें श्रेणिक नामके राजा थे। वहा भगवान महावीर प्रभु पधारे । परिषद धर्म कथा श्रवण करनेको निकली। ___ उस काल उस समयमे शुक्र महाग्रह शुक्रावतंमक विमानसे शुक्रसिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे । वह शुक्र महाग्रह चन्द्र ग्रह समान भगवान के पास आये और नाटयविधि दिग्वाकर वैसे ही चले गये। गौतमको जिज्ञासा हुई कि हे भदन्त ! यह शुक्र महाग्रह इस प्रकार देवताओं के द्वारा नाटयविधि दिखाकर सबको अन्तर्हित करके अकेले रह गये यह बडे आश्चर्यकी बात है । भगवानने कहा-हे गौतम ! कूटाकारशाला-पर्वत शिखरके समान ऊंचे विशाल मकानमें वर्षा आदिके भयसे विग्वराहुवा जन समूह जिस प्रकार अन्तहिन होजाता है उसी प्रकार शुक्रकी वैक्रयिकशक्तिसे उत्पन्न देवगण नाटक दिखाकर उनकी देहमें प्रविष्ट हो गये।। છે જબૂ ત કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ. ગુણશિલક નામે તેમાં ચૈત્ય હતું તે નગરમાં શ્રેણિક નામે રાજા હતા. ત્યા ભગવાન મહાવીર પ્રભુ પધાર્યા પરિષદ ધર્મ કથાનું શ્રવણ કરવા નીકળી તે કાલે તે સમયે શુક્ર મહાગ્રહ શુક્રાવત સક વિમાનમાં શુક સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામનિક દેવેની સાથે બેઠા હતા તે શુક મહ ગ્રડ ચન્દ્રગ્રડની પેઠે ભગવાનની પાસે આવ્યા અને નાટય વિધિ દેખાડીને એમજ ચાલ્યા ગયા ગૌતમને જીજ્ઞાસા થઈ કે હે ભદન્ત ! આ શુક મહગ્રહ આ પ્રકારે દેવતાઓ દ્વારા નાટય વિધિ દેખડી બધાને અન્તહિંત કરી એકલા રહી ગયા આ બહુ આશ્ચચેની વાત છે ભગવાને કહ્યું – હે ગીત ! કુટાકારશાળા-પર્વત શિખરની પેઠે ઊંચા વિશાલ મકાનમાં વરસાદના ભયથી વિખરાઈ ગયેલા જન સમૂડ જેવી રીતે અન્તહિન થઈ જાય છે તેવી જ રીતે શુકની વૈકયિક શકિતથી ઉત્પન્ન થયેલ દેવગણ નાટક દેખાડી તનાજ દેહમાં સમાઈ ગયા Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ Sriver = निरावलिका ' नाथमुपेतः एवं वक्ष्यमाणम् अत्रादीत हे भदन्त । ते तव यात्रा वर्त्तते ?, ते यापनीयं वर्त्ततेः किम् ? इति तथा ' सरिसत्रया मासा कुलत्था एए मक्खेया वा अभक्खेया' इति, तथा 'एगे भवं, दुवे भवं ' इत्यादि च सोमिलो गौतम स्वामीने पूछा- हे भगवन् ! ग्रह शुक्र महाग्रह अपने पूर्व जन्म में कोन थे ? 4 हे गौतम! उस काल उस समय में वाराणसी नामकी नगरी थी । उस नगरी में मोमिल नामका ब्राह्मण रहता था । वह ब्राह्मण आढय यावत् अपरिभ्रत था । वह ऋगवेद आदि वेद तथा उनके अङ्ग उपाङ्गमें परिनिष्ठित था । उम नगरी में भगवान् पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर पधारे । परिषद् धर्मकथा सुननेके लिये भगवान के पास गयी । भगवान के आनेका वृत्तान्त सुनकर उभ वाराणसी नगरीमें रहनेवाले सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकार आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुआ कि मुमुक्षु जनोंके आश्रयणीय अर्हत् पार्श्वनाथ तोर्थङ्कर तीर्थङ्करों की मर्यादाको पालन करते हुए यावत् आम्रशाल बनमें पधारे हैं। इस लिये जाऊँ और भगवान पार्श्वनाथ के समीप उपस्थित होऊँ । और उनसे अनेकार्थक शब्दोंका अर्थ तथा हेतु=कारण अथवा अनुमानके पञ्चावयव वाक्योंको पूछूं। ऐसा विचार कर शिष्यों को साधलिये बिना अकेला ही भगवानके पास आया और इस प्रकार गौतमे मृछ्यु · હે ભગવન્1 આ શુક્રમટ્ઠાગ્રહ તેના પૂર્વજન્મમા કાણુ હતા ? હે ગૌતમ તે કાલે તે સમયે એક વારાણસી નામની નગરી હતી તે નગરીમા સેમિલ નામે બ્રાહ્મણ રહેતે હતે તે માહ્મણ આવ્ય યાવત અપરિભૂત હતા. તે ઋગ્વેદ વગેરે વેદ તથા તેના અગ અને ઉપગમા [નિષ્ઠિત હતા તે નગરીમાં ભગવાન પાત્ર નાથ તીર્થંકર પધાર્યા પરિષદ્ધ ધમકથા સાંભળવા માટે ભગવાન પાસે ગઇ ભગવાનના આવવાના સમાચાર સાભળી તે વારાણસી નગરીમા રહેવાવાળા સેમિલ માહ્મણુના હૃદયમાં આ પ્રકારના આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે મુમુક્ષુજનના આશ્રયણીય અર્હત્ પાČનાથ તીર્થંકર તી કરાની મર્યાદાનું પાલન કરતા અહીં આમ્રશાલ વનમા પધાર્યા છે S આ માટે હું જઇને ભગવાન પરનાથની પાસે ઉપસ્થિત થાઉં અને તેમને અનેક અર્થવાળા શબ્દેના અર્થ તથા હેતુ= કારણુ અથવા અનુમાનના પચાયય વાકય પૃષ્ઠ આવેા વિચાર કરી શિષ્યેાને પેતાની સાથે લીધા વગર-એકલાજ-ભગવાનની પાસે આવ્યે અને આ પ્રકારે ભગવાનને પ્રશ્ન કર્યાં.~~~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् . ३३३ यत्पृष्टवान् नच्छलेनोपहासार्थम् । “यात्रा' इत्यस्य संयममार्गेपु प्रवृत्तिरिति । 'यापनीयम् । इत्यस्य मोक्षमार्गे गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियवश्यत्वलक्षणो धर्म इति । 'सरिसक्या' इत्यस्य सदृशवयसः सर्षपाच भक्ष्या वा अभक्ष्या इति । 'मासा'' इत्यस्य माषा: पञ्चगुञ्जामानविशेपा :, धान्यविशेषाः 'उडद इति प्रसिद्धाः, मासा कालविशेषाश्चेति । 'एगे भवं' इत्यस्य ‘एको भवान' इत्येकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते श्रोत्रादिज्ञानानामवयवानाश्चात्मनोऽनेकत्वोपलन्ध्या एकत्वं दूपयिष्यामीत्यभिप्रायकस्य, 'दुचे भवं' इत्यस्य द्वौ भवन्ताविति द्वित्वभगवानसे प्रश्न किया-है भदन्त ! आपके यात्रा है ? आपके यापनीय है ? 'सरिसवया, मास और कुलत्थ' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? आप एक है"या दो ? इत्यादि प्रश्न किया । .. । यहाँ ' यात्रा' का अर्थ है संयममार्गमें प्रवृत्ति । 'यापनीय' का अर्थ है-मोक्षमार्गमें जानेवालोंके प्रयोजक इन्द्रिय और मनका बश करने रूप धर्म । 'सरिसवयो' का अर्थ है-समान अवस्थावाला और सरसों। ___'मास' का अर्थ है-मास-काल विशेष, माष-उडद, माषप्राचीन रीतिसे पाच गुञ्जावाला मान विशेष । . ‘एको भवान् ' इसका अभिप्राय है-यदि भगवान पार्श्वनाथ आत्माकी एकता मान लेंगे तो मैं श्रोत्र आदिके ज्ञान और अवयवोंसे आत्माकी अनेकता सिद्ध करूँगा। ___ द्वौ भवन्तौ' इससे यदि दो आत्मा मानेंगे तो मैं उसका महन्त । मापने यात्रा छ पश.? मापने यापनीय छ ? 'सरिसक्या भास, અને કુલસ્થ” ભક્ય છે કે અભક્ષ્ય ? આપ એક છે કે બે ઈત્યાદિ પ્રશ્નો કર્યા मही यात्रा' नो अर्थ से यम भाभा प्रवृत्ति 'यापनीय' नो अर्थ छ भोक्षमार्गमा पावाणामान प्रयो४४ धन्द्रिय भने મનને વશ કરવારૂપી ધર્મ. 'सरिसवया' न मछे समान अवस्था भने सरसे.. • 'मास' अर्थ छ भासासाविशेष, भास-६, भास प्राचीन शत પ્રમાણે પાંચ રતી-ચણોઠીવાલા માનવિશેષ . , .:एको भवान् ' गाने मे मत छ लगवान पावनाय मात्भानी એકતા માની લેશે હુ શ્રોત આદિનું જ્ઞાન તથા અવયથી આત્માની અનેકતા સિદ્ધ કરીશ. 'द्वौ भवन्तौ माथानमात्मा ने मानता हु तेनु ५५ न शश. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२४ निरयावलिकामो स्वीकारे एकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वेन सहात्यन्तविरोधाद् द्वित्वं दृषयिष्यामीत्यभिप्रायकस्य च एतत्प्रभृतिप्रश्नस्य तत्तदर्थ भगवानवधार्य निखिलदोपरहिनं स्याद्वादपक्षमाश्रित्योत्तरमदात् । एतद्विषये विशेषजिज्ञासायां भगवतीमत्रस्यअष्टादशशतकदशमोद्देशकादवगन्तव्यम् । 'अत्यन्तब्राह्मणकूलपमृतः अत्यन्तं-निरतिशयितं यद् ब्राह्मणकुलं तत्र प्रमता उत्पन्नः विशुद्धबाह्मणकुलोत्पन्न इति यावत् । दारा स्त्रियः आहुता-परिणयविधिना स्वीकृताः, यज्ञा इष्टाः कृताः, दक्षिणा यज्ञसमाप्तौ कर्मणः साङ्गतासिद्धयर्थ देयं द्रव्यं, दत्ता ब्राह्मणेभ्यो विभी खण्डन करूँगा । क्यों कि जो एक है वह दो कभी हो ही नहीं सकता। इत्यादि मोमिल ब्राह्मणका प्रश्न सुनकर उन प्रश्नोका उत्तर भगवानने सभी दोषोंसे रहित स्थाबाद मतका आश्रयण करके दिया । - इसका विस्तृत वर्णन भगवती मूत्र के अठारहवे शतकके दशवें उद्देशमे देव लेना चाहिये । । इस प्रकार छलपूर्वक प्रश्न करने के बाद वह उचित उत्तर पाकर बोध युक्त हो श्रावक धर्मको स्वीकार कर भगवान पाचप्रभुके समीपसे अपने स्थानपर गया । एक समय भगवान पार्श्वप्रभु अर्हत् वाराणसी नगरीके आम्रगाल वन नामक चैत्यसे निकलकर देठामें विहार करने लगे । उसके बाद वह मोमिल ब्राह्मण एक समय असाधुओंके दर्शनसे तथा सुसाधु ओंकी पर्युपासना नहीं करनेसे एवं मिथ्यात्वपर्यायोंके चढने और सम्यक्त्व पर्यायोंके घटने के कारण मिथ्यात्वी हो गया । કેમકે જે અક છે તે કી પણ બે થઈ જ ન શકે - ઈત્યાદિ મિલ બ્રાહ્મણના પ્રશ્ન સાભળી તેના જવાબો ભગવાને સર્વ દેથી ડિત સ્યાદવાદમતનુ આશ્રમણ કરીને આપ્યા આનું વિસ્તારપૂર્વકનું વર્ણન ભગવતી સૂત્રના અઢારમા શતકના દશમા ઉદેશમાં જોઈ લેવું જોઇએ આ પ્રકારે છલપૂર્વક પ્રશ્ન કર્યા પછી તે ઉચિત ઉત્તર પામી બેધયુક્ત થઈ શ્રાવક ધર્મને સ્વીકારીને ભગવાન પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસેથી પિતાને સ્થાને ગયે. એક વખત ભગવાન પાર્શ્વપ્રભુ અર્વત વારાણસી નગરીના આમ્રશાલ વન નામે ચિત્યમાંથી નીકળીને દેશમાં વિહાર કરવા લાગ્યા ત્યાર પછી તે મિલ બ્રાહ્મણ એક વખત અસાધુઓના દર્શનથી તથા સુસાધુ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथापतिवर्णनम् २२५ तीर्णाः । यूपाः यज्ञस्तम्भाः निक्षिप्ताः भूमौ निखाताः । हरितकराराज्यमानश्रीकाः हरितको नीलवर्णों दूर्वादिवनस्पतिः तेन राराज्यमाना=शोशुभ्यमाना श्रीः-छटा येषां ते हरितकराराज्यमानश्रीकाः अत एव अतीवातीव अत्यन्त भृशम् उपशोभमाना उपशोभमानाः, तिष्ठन्ति सन्ति, शेषं सुगमम् ॥३॥ ___एक समय मध्यरात्रिमें कुटुम्बजागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मणके हृदय में इस प्रकारका आध्यात्मिक यावत् मनमें संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं वाराणसी नगरीका रहेनेवाला अत्यन्त उच्च कुलमें पैदा हुआ ब्राह्मण हूँ। मैंने व्रत ग्रहण किये वेद पढे, विवाह किया, पुत्रवान बना, समृद्धियोंको एकत्रित किया, पशुवध किया, यज्ञ किया, दक्षिणा दी, अतिथिकी पूजा की, अग्निमें हवन किया यूपन्यज्ञीय स्तम्भ रोपा, इन सभी कार्यांको किया । अब मुझे उचित है कि मैं रात बीतने पर प्रातःकालमें वाराणसी नगरीके बाहर बहुतसे आमके बगीचे लगाउँ, एव मातुलिङ्ग-बिजोरा, वेल, कपित्थ, (कविठ ), चिञ्चा-इमली और फूलोंका बगीचा लगाउँ, इस प्रकार विचार करता है। रात बीतने पर सूर्योदय होते ही उसने वाराणसी नगरीके बाहर आमके बगीचेसे लेकर फूलके बगीचा तक लगवाया । और वे बगीचे क्रमसे संरक्षित हो संगोपित हो पूर्णरूपसे बगीचे हो गये। हरे और हरी भरी कांतिवाले, तथा बरसने वाले नीले मेघ. એની પર્ય પાસના ન કરવાથી અને મિથ્યાત્વ પર્યાયના વધવાથી તથા સભ્યત્વ પર્યાયના ઘટવાથી મિથ્યાત્વી થઈ ગયે એક વખત મધ્યરાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતા કરતા તે મિલ બ્રાહ્મણના હૃદયમાં આવા પ્રકારના અધ્યામિક એટલે મનમાં સડ૯૫ ઉત્પન્ન થયા કે-હુ વારાણસી નગરીમાં રહેવાવાહો બહુ ઊચા કુળમાં પ થયેલે બ્રાહ્મણ છુ, મેં વ્રત ગ્રહણ કર્યા છે, વેદ ભણેલે છુ, લગ્ન કરી પુત્રવાન બન્ય, મૃદ્ધિ એકઠી કરી, પશુવધ કર્યા યજ્ઞ કર્યા, દક્ષિણ આપી, અતિથીની પૂજા કરી, અગ્નિમાં હવન કર્યા, ચૂપ =જ્ઞોય કાષ્ઠને ખોયું, આ બધાં કાર્યો કર્યા હવે મારે માટે યોગ્ય છે કે હુ રાત્રિ પુરી થઈ જ્યારે સવાર પડે ત્યારે વારાણસી નગરીની બહાર ખૂબ આબાને વૃક્ષોને બગીચો બનાવું તથા માતલિંગ=બિજેરા, વેલ, કપિત્થ, ચિચ =આમલી તથા કુલની વાડી બનાવુ આ પ્રકારે વિચાર કરે છે રાત્રિ વિતી સૂર્યોદય થતા જ તેણે વારાણસી નગરીની બહાર આંબાના બગીચાથી માડીને ફુલની વાડી સુધી બધુ બનાવ્યું અને તે બગીચા હળવે હળવે સંરક્ષિત અને ૨૯ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ निरयावलिका मूत्रे मूलम्-तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुञ्चरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्त अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले नामं माहणे अचंतमाहणकुलप्पसूए, तए णं मए वयाइं चिण्णाइं जाव जूवा णिकिवत्ता, तए णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा जाव पुप्फारामा य रोवाविया, तं सेयं खलु ममं इयाणि कलं जांव जलंते सुबहुं लोहकडाहकडुच्छ्यं तंबियं तावसभंडं घडावित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तनाइ० आमंतित्ता तं मित्तनाइणियग विउलेणं असण० जाव संमाणित्ता तस्सेव मित्त जाव जेट्रपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता तं मित्तनाइ जाव आपुच्छित्ता सुबहुं लोहकडाहकडुच्छयं तंबियं तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूला वाणपत्था तावसा भवंति-तं जहा होतिया पोतिया कोनिया जन्नई सडूई थालई हुंबउटा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा निमजगा संपक्खालगा दक्षिणकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलुद्धया हत्थितावसा उदंडा दिसापोक्खिणो बकवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रूक्खमूलिया अंबुभक्खिणों वायुभक्खिणो सेवालभक्खिणी मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया आयावणाहिं पंचवृन्दोके समान नीलिमा युक्त, एवं पत्रित, पुष्पित, और फलित होकर वे हरे भरे होने के कारण अत्यन्त शोभायमान दीखने लगे ॥ ३ ॥ સ ગોપિત થઈ પૂર્ણ રૂપમાં બગીચા થઈ ગયા લીલા, લીલીછમ કાન્તિવાળા, પાણીથી ભરેલા મેઘવૃન્દ (વાદળા ) હેય તેવા ઘનીભૂત રંગવાળા, પત્રે તથા પુષ્પોવાળા અને ફળવાળા હોવાથી તથા હરિયાળા હોવાથી બહુ શોભાયમાન દેખાવા લાગ્યા. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथापति वर्णनम् २२७ गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति । तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसिं अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पव्वइत्तए । पवइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि कप्पइ मे जावज्जीवाए छट्टे-छटेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचकवालेणं तवोकम्मेणं उडू बाहाओ पगिज्झिय २ सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तएत्ति कट्ठ एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते सुबहु लोह जाव दिसापोक्खियत्तावसत्ताए पवइए । पवइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता पढमं छट्रक्खमणं उवसंपजिनाणं० विहरइ ॥ ४ ॥ छाया-ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्याऽन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदप्रयत-एवं खल्वहं वाराणस्यां नगया सोमिलो नाम ब्राह्मगः अन्यन्तब्राह्मणकुलप्रमतः, ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि यावद् यूपा निक्षिप्ताः। ततः खलु मया वाराणस्या नगर्या बहिवहव आम्रारामा यावत् पुष्पारामाश्च रोपितास्तच्छ्रेयः खलु ममेदानी कल्ये यावज्ज्वलति सुबह लोहकटाहकटुन्छ ताम्रीयं तापमभाण्ड घटयित्या विघुलनशनं पानं खायं वाचं नित्र ज्ञातिक आमन्त्र्य त मित्र-ज्ञाति -निजका विपुलेन अशन० यावत् सर मान्य तस्यैव मित्र० यावत ज्येष्ठ पुत्रं कुटुम्ने स्थापयित्वा तं मित्रजातियावत् आपृच्छय सुवहुं लौहकटाहकटुच्छुकं ताम्रोयं तापसभाण्डकं गृहीत्वा ये इमे गङ्गाकलाः वानपस्थास्तापसा भवन्ति तद्यथा-होत्रिकाः, कौत्रिकाः, यज्ञयाजिनः, श्राद्धकिनः, स्थालकिनः गृहीतभाण्डाः, हुण्डिकाश्रमणाः, दन्तोदूखलिकाः, उन्मज्जकाः, सम्मज्जकाः, निमज्ज काः, संप्रक्षालकाः, दक्षिणकूलाः, उत्तरकूलाः, शङ्खधमाः, कूलध्माः, मृगलुब्धकाः, हस्तितापमाः, उदण्डाः, दिशामोक्षिणः, वल्कबामसः, विलवामिनः, जलवासिनः, वृक्षमूलकाः, अम्बुभक्षिणः, वायुभक्षिणः, शेवालभक्षिणः, मृलाहाराः, कन्दाहाराः, त्वगाहाराः, पत्राहाराः, पुप्पाहारा:, फलाहाराः, बीजाहाराः, परिशटितकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलाहाराः, जलाभिषेककठिनगात्रभूताः, आताप Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ निरयोवलिकासत्रे नाभिः पञ्चाग्नितापैः अङ्गारगौल्यकं कन्दुशौल्यकमिव आत्मानं कुर्वाणा विहरन्ति । तत्र खलु ये ते दिशामोक्षकास्तापसास्तेपामन्तिके दिशामोक्षकतया मत्रजितम् । प्रब्रजितोऽपि च खलु सन इममेतद्रपमभिग्रहमनिग्रहीष्यामि कल्पते यावज्जीवं पष्ठेनानिक्षिप्तेन दिक्चक्रावालेन तपःकर्मणा ऊ बाहू प्रगृह्य २ म्राभिमुखस्याऽऽतापनभूम्यामातापयतो विहर्तुम् । इति कृत्वा एवं संप्रक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावज्ज्वलति सुबह लोह ० यावत् दिशामोक्षकतापसतया मत्रजितः । प्रत्रजितोऽपि च खलु सन् ममेतद्रुमभिग्रमभिगृह्य प्रथमं पक्षपणमुपसंपद्य खलु विहरति ॥ ४ ॥ टीका- 'तणं तस्स' इत्यादि । लौहकटाहकटुटुकं लोहे लोहनिर्मितम् कटाहो=माजनविशेषः, कटुच्छुको दर्वी = परिवेषणाद्यर्थ मभाजन विशेष:, कटाहकटुछुकयोः समाहारः, कटाहकटुच्छुकं लौ च तत् इति कर्मधारये कृते तथा, गङ्गाकुलाः=गङ्गाकूलस्थाः [: गङ्गातीरवासिन इति यावत् ' मञ्चाः क्रोशन्ति' इत्यतणं तस्स ' इत्यादि 4 उसके बाद किसी दूसरे समय कुटुम्बजागरणा करते हुए ऊस सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकार आध्यात्मिक आत्म सम्बन्धी विचार उत्पन्न हुए कि मैंने व्रत आदि किये यावत् स्तम्भ गाडे और मैं वाराणसी नगरीका अत्यन्त उच्च कुल प्रसृत ब्राह्मण है, मैंने वारा सी नगरीके बाहर बहुतसे आमके बगीचे से लेकर फूल तक के बगीचे लगवाये अब मुझे उचित है कि रात बीतनेके बाद प्रातःकाल होते ही बहुतसी लोहेकी कडाहिया तथा कलह एवं तापसोंके लिये तावे वर्तन बनवाकर विपुल अान पान खाद्य स्वाद्य बनवाकर अपने मित्र ज्ञाति आदियों को आमन्त्रित करूं । ' तरणं तस्स' इत्यादि ત્યાર પછી કાઇ ખીજે વખતે કુટુ'ખ જાગરણ કરતા કરતાં તે સેામિલ બ્રાહ્મણના હૃદચમા આ પ્રકારને આધ્યાત્મિક-આત્મ વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે મે વ્રત આદિ કર્યા, ચનસ્ત ભ ખેડયે અને હું વાસણી નગરીના હુ ઊંચા કુળમા જન્મેલે બ્રાહ્મણુ છુ. મેં વારાણસી નગરીની બહાર ઘણા આનાના બગીચાથી માડીને પુલવાડી સહિત અનાવ્યા છે, હવે મારે માટે ચેગ્ય છે કે રાત વીતી ગયા પછી પ્રાત:કાલ થતાજ ઘણીજ લેઢાની કડાઇએ, કડછીએ આદિ તથા તાપસેાને માટે તાળાના વાસણ બનાવીને ખૂબ ખાવાપીવાના ખાદ્ય-સ્વાદ્ય પદાર્થા બનાવરાવીને મારા મિત્ર અને જ્ઞાતિમ એ આદિને આમંત્રણુ આપુ. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथापतिवर्णनम् २२९. त्रेवात्र, गङ्गाकूलपद्स्य तत्स्थे लक्षणा बोध्या । यद्वा - गङ्गाकूलं वासत्वेनाऽस्याऽस्तीति 'अर्श आदित्वादच्प्रत्यये निष्पन्नोऽयं तेन कूलशब्दस्य नपुसकत्वेऽपि नेह पुस्त्वानुपपत्तिः । होत्रिका:= अग्निहोत्रिकाः, पोत्रिकाः = वस्त्रधारिणो वानप्रस्थाः, कौत्रिकाः = भूमिशायिनो वानप्रस्थाः, यज्ञयाजिनः = याज्ञिकाः, श्राद्धकिनः श्राद्धाः, स्थालकिनः=भोजनपात्रधारिणः, हुण्डिकाश्रमणाः=वानप्रस्थतापसविशेषाः दन्तोदूखलिकाः=दशनैश्चर्वयित्वा भोजनशीलाः, उन्मज्जकाः = उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति- उपरिष्टादेव स्नानं कुर्वन्ति ते तथा, सम्मज्जकाः = उन्मज्जनस्यैवासकृत् अनन्तर वह ब्राह्मण उन बर्तनोंको बनवाकर विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्य तैयार कराकर अपने मित्र ज्ञाति बन्धुओं को आमं त्रित कर और उन्हें जिमाकर तथा उन्हें सम्मानित कर और उन्हीं मित्र - ज्ञाति - स्वजन बन्धुओंके सामने अपने ज्येष्ठपुत्रको कुटुम्बका भार देकर, अपने उन सभी मित्र -ज्ञांति-बन्धुओं से पूछकर मैं बहुतसी लोहेकी काहियों, कलछू और ताम्बेके बने हुए पात्रोंको लेकर जो गंगा तीरवासी वानप्रस्थ तापस है जैसे - होत्रिक = अग्निहोत्री, पोत्रिक=वस्त्रधारी वानप्रस्थ, कौंत्रिक = भूमिशायी वानप्रस्थ, यज्ञयाजी = यज्ञ करनेवाले, श्राद्धकी= श्राद्ध करनेवाले वानप्रस्थ, स्थाकलिनः = पात्र धारण करनेवाले, हुण्डिकाश्रमण = वानप्रस्थ तापस विशेष, दन्तोदूखलिक = दांत से केवल चबाकर खानेवाले, उन्मज्जक = उन्मज्जन मात्र से स्नान करनेवाले, अर्थात् पानी डालकर स्नान करनेवाले, सम्मज्जक चार बार हाथसे પછી તે બ્રાહ્મણે તે પ્રમાણે વાસણ અનાવરાવી ખૂબ ખાનપાન ખાદ્ય—સ્વાદ્ય તૈયાર કરાવી પોતાના મિત્ર અને જ્ઞાતિખ એને આમ ત્રણ આપ્યુ ને જમાડયા તથા તેમનુ સન્માન કરી તે મિત્ર–જ્ઞાતિ-સ્વજન ખએની સામે પેાતાના માટા પુત્રને બેલાવી કુટુબેને ભાર તેના ઉપર નાખી, પેાતાના તે સઘળા મિત્ર જ્ઞાતિ અને પૂછી હું ઘણી લેાઢાની કડાઇએ, કડછીએ તથા તાંબાના બનેવેલા વાસણા લઈને જે गुणा तीरे वसना। वानप्रस्थ तापस छे वा होत्रिक = अग्निहोत्री, पौत्रिक= वस्त्रधारी वानप्रस्थ, कौत्रिक=लूभिशायी वानप्रस्थ, यज्ञयाजी = यज्ञ ४२वावाणा, श्राद्धकी श्राद्ध ४२वावाणा वानप्रस्थ, स्थालकी यात्र धारण ४२वावाजा, हुंडिका = श्रम वान अस्थ तापस विशेष दन्तोदूखलिक = हातवडे ठेवण यावीने भावावाजा, उन्मज्जक== उन्मळून भात्रथी स्नान उरवावाजा अर्थात् पाणी नाणीने स्नान उरवावाणा, संमज्जक= वार वार,डाथेथी पाएलीने उछाणीने नडावावाणा, निमज्जक = पाएशीमा डूगडी भारी नाह Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M. 2 २३० निरयावलको सूत्रे བ་ ་་ करणेन ये स्नान्तिहस्तैः पुनः पुनर्जल गृहीत्वा स्नानं कुर्वन्ति ते तथा, नमजकाः = नानार्थ निमग्ना एवं जले क्षणमात्रं तिष्ठन्ति ते तथा संपवालका:= ये गात्रं मृत्तिकावर्षणपूर्वकं जलेन प्रक्षालयन्ति ते तथा, दक्षिणकलाः =ये गङ्गाया दक्षिणतटवासिनम्ते तथा, उत्तरकुलाः =ये गङ्गाया उत्तरतटवासिनस्ते तथा, शङ्खध्माः=शङ्कं धमात्वा= नादयित्वा ये भुञ्जते ते तथा कुलध्माः = कुले = तटे स्थित्वा कृत्वा येते ते फूलमाः, मृगलुका: मृगं हत्वा तेनैव ये अनेक दिवस भोजनतो यापयन्ति ते तथा, हस्तितापमा: =हस्तिनं मारयित्वा तेनैव चिरकालं भोजनतो यापयन्ति ते तथा, उद्दण्डाः = ऊर्ध्वकृतदण्डा एव ये संचरन्ति ते तथा दिशामोक्षिणः = उदकेन दिशःमोक्ष्य ये फलपुष्पादिकं समुचिन्वन्ति ते तथा, वल्कवाससः = वृक्षत्वस्वखधारिणः, विलवासिनः = भूमिच्छिद्रवासिनः, जलवासिनः=जले निषण्णा एवं ये तिष्ठन्ति तं तथा, वृक्षमूलका= तरुतले ये निवसन्ति ते तथा, अम्बुमक्षिण: = जलाहाराः, वायुभक्षिणः =पनापानीको उछालकर नहानेवाले, निमज्जक पानी में हथकर नहानेवाले, संप्रक्षाळक = मिट्टी से शरीरको मलकर नहानेवाले, दक्षिणकूल= गंगाके दक्षिण तटपर रहनेवाले, उत्तरकुल= गंगा के उत्तर तटपर रहनेवाले, और शङ्खमा=शंत्र बजाकर भोजन करनेवाले, कुलमा=तटपर स्थित होकर आवाज करते हुए भोजन करनेवाले, मृगब्बक मृगको मारकर उसी के मांससे जीवन बीतानेवाले, हम्तितापसन्हायीको मारकर उसके मांमसे जीवन बीतानेवाले, उण्ड ण्डको उँचा उठाकर चलनेवाले, दिशामोक्षी = दिशाको जलसे सींचकर उसपर पुष्प फल आदिको चुनकर रखनेवाले, बकवासस = वृक्ष की छालको धारण करनेवाले, विलवासी = भूमि के नीचे की खोह में रहनेवाले, जलवासी = जल में ही रहनेवाले, वृक्षवावाण, संप्रक्षालक = माटीथी शरीरने योजीने नहावावाणा, दक्षिणकूल =गगा नहीना दृक्षिणु डिनारे रहेवावाणा, उत्तरकूल गंगा नहीने उत्तर दिनारे रहेवावाजा तथा शङ्खध्मा=शण वगाडीने लोशन पुरावावाणा कूलमा=हिना ३५२ મેસી રહીને वीरता लोन उवावाणी, मृगलुब्धक =भृगने भारीने तेना भासथी लवन वीताडवावाणा, हस्तितापसाने भाराने तेना मांसथी छवन वीतारनाश, उदण्ड= हौंडने अथे। उपाडी यासनाग, दिशामोक्षी = हिशायाने पालीथी मार्गन पुराने (पारि छांटीने) तेना पत्र पुष्पइस पीलीने रामनारा वल्कलवासम= वृक्षनी छासने धारयु ४२वावाणी, विलवासी लूमिनी नीथेनी शुचभा रहेनारा, जलवासी समान रहेनाश, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ३ अ. ३ अङ्गतिगाथापतिवर्णनम् २३१ हाराः, शेवालभक्षिणः जलोपरिस्थितहरितवनस्पतिविशेपभोजिनः, मूलाहाराः= मूलकभक्षिणः, कन्दाहारा:=पूरणादिकन्दभक्षिणः,त्वगाहारः निम्बादित्वरभक्षिणः, पत्राहाराः विल्वादिपत्रभक्षिणः, पुप्पाहाराः कुन्दशोभाञ्जनादिपुष्पभक्षिणः, फलाहाराः कदलीफलादिभोजिनः वीजाहारा: कूष्माण्डादिवीजभोजिनः, परिशटितकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलाहारा विनष्टकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलमोजिनः, जलाभिषेककठिनगात्रभूताः स्नात्वा २ जलाभिषेककठोरशरीरा आतापनाभि पश्चाग्नितापैश्च अङ्गारशौल्यं अङ्गारेबह्रौ शूले मांस निपज्य पक्वं, कन्दुशौल्यं-कन्दु = तण्डुलादि भर्जनपात्रमात्रं शूलं च ताभ्यां तत्र वा घृतादिना वह्नौ पक्वं कन्दुशौल्यम् इव-तद्वद् आत्मानं कुर्वाणा विहरन्ति अवतिष्ठन्ति । 'तत्थणं जे' मूलक-वृक्षके मूलमें रहनेवाले, अम्वुभक्षी-जल मात्रका आहार करनेवाले, वायुभक्षी वायु मात्रसे जीवीत रहनेवाले, शेवालभोजी जलमें उत्पन्न शेवाल-सेमारको-खानेवाले, मूलाहार-मूल खानेवाले, कन्दाहार सूरन आदि कन्दका आहार करनेवाले, त्वगाहार-नीम आदिकी त्वचा खानेवाले, पत्राहार बीला आदिके पत्तेका आहार करनेवाले, पुप्पाहार कुन्द सोइजन, गुलाब आदि पुष्पका आहार करनेवाले, फलाहार केला आदि फल खानेवाले, वीजाहार-कुम्हडा आदिका बीज खानेवाले, सडे हुए कन्द मूल त्वचा, पत्ते फूल और फल खानेवाले, जल के अभिषेकले कठिन शरीरवाले, सूर्यको अतापना और पञ्चाग्नितापसे अंगार शोल्य=(अंगारेमें शुलपर रग्वकर पकाये हुए मांस) एवं कन्दुशौल्य (चावल आदि भुंजनेका पात्र कन्दु, उसमें घृत डालकर शूलपर पकाय वृक्षमूलक-वृक्षना भूभा २डेवावा, अम्बुभक्षीvaभावना माडार देनाश, वायुभक्षी वायु भात्रथा वन वनारा, शेवालभोजीसना ५२ना मागमा २७ all वनस्पति (सेवाण) पावावाणा, मलाहारा भूण भावावा, कन्दाहारा-सूण पोरे ४ हुना माडा२ ४२नारा,त्वगाहाराबी 431 माहिना छा भावावाणा,पत्राहारा nिelya मा पत्राना आढ२ ४२वावाणा, फलाहारा: di वगेरे ५० पापावणा, पुष्पाहारा:=Y०५-८, सवा गुदा माहिशुसाना सा२४२वावा, वीजाहारा કેળુ વગેરેના બી ખાવાવાળા, સડી ગયેલા કદમૂળ, છાલ, પાન, ફૂલ તથા ફળ ખાવાવાળા, જલના અભિષેકથી કઠણ શરીરવાળા, સૂર્યની આતાપના અને ૫ ચાગ્નિના તાપથી ઉગારશોલ્ય=દેવતામાં શળ ઉપર રાખીને પકાવેલા માસ અને કંકુશલ્યચાખી વગેરે રાધવાના- પા-કદ તેમા ઘી નાખીને શૈલ પર પકાવેલા માંસની પેઠે Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रे इत्यादि-अनिक्षिप्तेन अविच्छिन्नेन दिक्चक्रचालेन - तन्नामकेन तथाहि-एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुङ्कते, द्वितीये पारणे दक्षिणस्यां दिशि स्थितानि फलादीनि चाहत्यानातीत्येवं दिक्चक्रबालेन दिङ्मण्ड लेन यत्र तपःकर्मणि पारणकरणं भवति तत तपाकर्म 'दिक्चक्रवालं' कथ्यते तेन तपःकर्मणेति ॥ ४ ॥ हुए मांस) के समान अपने शरीरको कष्ट देते हुए विचरते हैं। उनमें जो दिशाप्रोक्षक हैं उनमें प्रव्रजित होनेकी इच्छा रखता हूँ, और प्रवजित होकर भी इस प्रकारका अभिग्रह (प्रतिज्ञा) लूंगा कि यावज्जिब अन्तर रहित पष्ट पष्ट (बेला-बेलारूप) दिकचक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्यके अभिमुख भुजा उठाकर आतापनभूमिमें आनापना लेता रहूंगा। इस प्रकार मनमें सोचकर विचार करता है, और विचार करके सूर्योदय होनेपर बहुतसी लोहेकी कडाहियां यावत् लेकर दिशा-प्रोक्षक तापसके पास आया ओर दिशा-प्रोक्षक तापस हो गया । तापस होकर वह सोमिल पूर्वोक्त अभिग्रह ग्रहण करके पहला पष्ट-क्षपण तप स्वीकार कर विचरने लगा। __ यहां 'दिक्चक्रवाल' शब्द आया है, इसका अभिप्राय हैतपस्वी तपस्याकी पारणाके लिये अपनी तपोभूमिकी चारों दिशाओं में फलको इकट्ठा करके रखे । बादमें तपस्याकी पहली पारणामें पूर्वપિતાના શરીરને કષ્ટ દેતા જે વિચારે છે તેમાં જે દિશાક્ષક છે તેઓની પાસે પ્રવ્રછત બનવાની ઈચ્છા રાખુ છુ તથા પ્રવ્રજીત થઈને પણ આ પ્રકારના અભિગ્રહ (प्रतिज्ञा ) A cril सुधी ७ त्या सुधा मन्तर हित ७४-७४ (Talબેલારૂપ) દિચક્રવાલ તપસ્યા કરતે સૂર્યની સામે હાથ ઊચા રાખીને આતાપન ભૂમિમાં આતાના લતે રહીશ આમ વિચાર કરે છે વિચાર કરીને સુર્યોદય થતા ઘણું લેઢાની કડાઈએ કડછી, તાબાના તાપસ પાત્ર આદિ લઈને દિશ એક્ષક તાપસની પાસે આવ્યું અને દિશા પ્રેક્ષક તાપસ થઈ ગયે તાપસ થઈને પણ તે સોમિલ પૂર્વોકત અભિગ્રહ બરાબર લઈને પહેલા ષષ્ઠલપણું સ્વીકાર કરીને વિચરવા લાગે છે અત્રે “દિફ ચક્રવાલ” શબ્દ આવ્યું છે તેનો અભિપ્રાય એ છે કે તપસ્વી તપસ્યાનાં પારણુ માટે પિતાની તપોભૂમિની ચારે દિશામાં ફલ ભેગાં કરીને રાખે. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् मूलम् - तपणं से सोमिले माहणे रिसी पढमछट्ठक्खमण पारणसि आयावणभूमीए पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता बागलवत्थ नित्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किठिण संकाइयं गिues, गिव्हित्ता पुरत्थिमं दिसिं पुक्खेइ, पुक्खित्ता " पुरत्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुष्काणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि ताणि अणुजायउ'- त्ति कट्टु पुरत्थिमं दिसं पसरइ, पसरिता जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि ण ताई गिors, गिव्हित्ता किढिणसंकाइयं भरेइ, भरिता दब्भे य कुसे य पत्तामोडं च समिहाकट्टाणि य गिण्हइ, गिहित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ, ठवित्ता बेदिं वढाइ वडित्ता उवलेवणसंमजणं करेइ, करिता दब्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गंगं महानई ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमजणं करे, करिता जलकिड्डुं करेइ, करिता जलामिसेयं करेs. करिता आयंते चोक्खे परमसुइभूए देव > " २३३ दिशामें स्थित फलसे पारणा करे । दूसरा पारणा आनेपर दक्षिण दिशामें स्थित फलसे पारणा करे । इसी प्रकार अन्य पारणा आनेपर पश्चिम उत्तर दिशाओंमें स्थित फलका आहार करे । इस प्रकारकी पारणा वाली तपस्याको 'दिक्चक्रवाल' कहते हैं ॥ ४ ॥ પછી તપસ્યાના પહેલા પારણામાં પૂર્વ દિશાએ રાખેલા ફળથી પારણુ કરે બીજું પારણુ કરવાનું આવે ત્યારે દક્ષિણ દિશામા રાખેલા ફળથી પારણુ કરે આવી રીતે ખીજા પારણાં આવે ત્યારે પશ્ચિમ-ઉત્તર દિશામાં રાખેલા ફળના આહાર કરે આ પ્રકારની પારણાવાળી તપસ્યાને “દિક્ ચક્રવાલ ’કહે છે (૪). ३० Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ निरयावलिका सूत्रे पिउकयकज्जे दमकलसहत्थगए गंगाओ महानईओं पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दभेहि य कुसेहि य वालुयाए य वेदि रएइ, रइत्ता सरयं करेइ, करिता अरणिं करेइ, करिता सरएणं अरणिं महेइ, महिला अग्गि पाडेइ, पाडिता अगि संधुक्खेइ, समिहाकटाई पविखवइ, पक्खिवित्ता अग्गि उजालेइ, उज्जालित्ता अग्गिस्त दाहिणे पासे सत्तंगाइं समादहे । तं जहा-" सकत्थं वकलं ठाणं, सिजं भंडं कमंडलु । दंड दारं तहप्पाणं, अह ताई समादहे ।” महुणा य घएण य तंदूलेहि य अग्गि हुणइ, चलं साहेइ, साहित्ता वलिवइस्सदेवं करेइ, करित्ता अतिहिपूर्व करेइ, करित्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेइ ॥५॥ छाया-ततः ग्वल सोमिलो ब्राह्मण ऋषिः प्रथमपटक्षपणपारणे आतापनभूम्यां प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य वल्कलवस्त्रनिवसितः यत्रैव स्वकं उटजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य किढिणसाङ्गायिकं गृह्णाति, गृहीत्वा पौरस्त्यां दियां मोक्षति, प्रोक्ष्य " पौरम्त्याया दिगः सोमो महाराज. प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षत सोमिलबाह्मणपिम्, यानि च तत्र कन्दानि च मृलानि च त्वचञ्च पत्राणि च पुष्पाणि च फलानि च वीजानि च हरितानि च तानि अनुजानातु," इति कुन्या पौरम्त्यां दिशं प्रमरति, प्रसत्य यानि च तत्र कन्दानि च यावत् हरितानि च तानि गृह्णाति किढिणसांकायिकं भरति, भृत्वा दुभांश्च कुशांश्च पत्रामोटं च समित्काष्ठानि च गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव स्वकं उठजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य किढिणसांकायिक स्थापयति, स्थापयित्वा वेदी वर्धयति, वर्धयित्वा उपपनसम्माजनं करोति, कृत्वा दमकलशहस्तगतो यत्रत्र गङ्गां महानदीमत्रगाहते, अवगाह्य जलमज्जनं करोति, कृत्वा जलक्रीडां करोति, कृत्वा जलाभिषेकं करोति, कृत्वा आचान्तः स्वच्छः परमशुचिभूतः देवपितृकृतकार्य:,..दर्भकलगहस्तगतो गद्गातो महानदीतः प्रत्यवतरति, प्रत्यवतीर्य, यत्र स्वर्क. उट्टजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य दर्मेश्च कुशेश्व: वालुकयाच वेदिरचयति, रच Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् २३५ यित्वा - शरकं करोति, कृत्वा अरणिं करोति, कृत्वा शरकेणारणि मथ्नाति मथित्वा अग्निं पातयति, पातयित्वा अग्निं संधुक्षते, संधुक्ष्य समित्काष्ठानि मक्षिपति, प्रक्षिप्य अग्निमुज्ज्वालयति, उज्ज्वाल्य, अग्नेदंक्षिणे पाच सप्ताङ्गानि समादधाति, तद्यथा "सकत्थं १ वल्कलं २ स्थान ३ शय्याभाण्डं ४ कमण्डलुम् ५ ॥, दारुदण्डं ६ तथाऽऽत्मानम् ७ अथ तानि समादधीत ॥१॥" ततो मधुना च घृतेन च तण्डुलैश्चाग्निं जुहोति, चरु साधयति, साधयित्वा बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वाऽतिथिपूजां करोति, कृत्वा ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहारयति ॥ ५ ॥ टीका-' तएणं से सोमिले' इत्यादि । 'वागलवत्थ नियत्थे' इति, वाल्कलवस्त्रनिवासितःबल्कल-क्षत्वक तस्येदं वाल्कलं तच वस्त्रं वाल्कलवस्त्रं, तत् निवसितं-परिहितं येन स तथा परिहितवाल्कलवस्त्र इति तदर्थः। आर्षत्वात्.निवसितेति निष्ठान्तस्य पूर्वप्रयोगाभाव । उटजा-उटः-तृणपर्णादिस्त- - ‘तेएणं सोमिले' इत्यादि । उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि पहला षष्ठ-क्षपण पारणेके दिन आतापन भूमि पर आता है। वहा आकर वह वल्कलवस्त्रधारी तापस जहां उसकी कुटी थी वहां आया । और आकर किढिणसंकायिक (कावड) लेता है । तथा पूर्व दिशाको जलसे प्रोक्षण (सिंचन) करता है और कहता है-'हे पूर्व दिशाके अधिपति सोम देव' मैं सोमिल बाह्मण ऋषि परलोक माधन मार्गमें चलनेके लिये प्रस्थित हूँ, मेरी रक्षा करो, तथा वहाँ जो कुछ कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरित वनस्पति हैं उन्हें लेने की आज्ञा दो' ऐसा कह कर पूर्व दिशामें जाता है। वहाँ जाकर जो कुछ - 'तएणं से सोमिले' या ત્યાર પછી તે મિલ બ્રાહ્મણ ષિ પહેલા વર્ઝક્ષપણના પણ આવતાં આતાપન ભૂમિપર આવે છે ત્યાં આવીને તે વલ્કલવસ્ત્ર ધારણ કરી રહેલ તાપસ જ્યા પિતાની પર્ણકુટી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને પિતાની કાવડ લીધી અને તે લઈને પૂર્વ દિશામાં જલથી સિંચન કરે છે અને કહે છે –“હે પૂર્વ દિશાના અધિપતિ સોમ મહારાજ! પરલેકસાધન માર્ગમાં જવા માટે પ્રસ્થિત મિલ બ્રાહ્મણ પિની રક્ષા કરો અને ત્યાં જે કાઈ કંદ, મૂળ, છાલ, પાંદડા પુષ્પ, ફલ, બી તથા લીલેતારી વસ્તુ આદિ છે તે લેવાની આજ્ઞા આપે” એમ કહીને પૂર્વ દિશામાં જાય છે ત્યાં જઈને Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ निरयावलिकामत्रे स्माज्जात उटजा-तापसानां पर्णशाला, किढिणसांकायिक-किदिणं-वंशमयस्तापसभाजनविशेषः, साङ्कायिकं-भारोद्वहनयन्त्रं किढिगसाङ्कायिक-कावट 'कावड' इति प्रसिद्धम् , प्रस्थाने-परलोकसाधनमार्गप्रयाणे, प्रस्थित-प्रयातम् फलाद्याहरणार्थ प्रवृत्तमिति यावत् , पत्राऽऽमोटं-तरुगाखामोटितपत्रसमूहं, वेदि-अग्निहोत्रपूजादिस्थान वर्धयति-प्रमार्जयति, उपलेपनसम्माजनम् मृत्तिकागोमयादिना भूमिसंस्कार उपलेपनम् सम्मार्जनं तृणादिनिर्मितसम्माजन्या भूमितः पिपीलिकादिकानां लघुकाय-जीवानामपसारणम् , देवपित्कृतकार्यः देवाश्च पितरश्च देवपितरस्तेषां कृतं सम्पादितं कार्य पूजनजलाञ्जलिदानप्रभृतिकृत्यं न स तथा, दर्भकलशहस्तगतः=दर्भाः कुगाः कलशः घटश्च हस्ते गताः प्राप्ताः यस्य स वहाँ कन्द मृल आदि थे उनका ग्रहण करता है और अपना कावड भरता है। बाद इसके दर्भ, कुश पत्रामोट तोडे हुए पत्ते और समित्काष्ठ (हवनके लिये छोटी २ लकडियां)को लेकर जहां अपनी कुटी थी वहां आया और अपनी कावड रक्खीं। कोवड रखकर वेदी को बढाया अर्थात् वेदी बनानेका स्थान निश्चय किया। बाद उपलेपन और पिपीलिका (कीडी मकोडी) आदि लघुकाय जीवोंकी रक्षाके लिये संमार्जन करने लगा। अनन्तर दर्भ और कलशको हाथमें लेकर गङ्गाके तटपर आया और गङ्गामें प्रवेश कर स्नान करने लगा। और जलमज्जन-डुबकी लगाना, जलक्रीडा-तैरना, तथा जलाभिषेक करने लगा। बाद आचमन करके स्वच्छ और अत्यन्त शुद्ध हो देवता और पितरोंका कृत्य करके दर्भ और कलश हाथमें लेकर गङ्गा महानदीसे बाहर निकला, ओर अपनी कुटीमें आया। वहा आकर જે કાઈ કદ મૂલ આદિ હતાં તે ગ્રહણ કરે છે અને પિતાની કાવડ ભરે છે પછી તેનાં દર્ભ, કુશ, પાદડા અને સમિધ (હામના કાઠ) એ બધું લઈ જ્યાં પિતાની પર્ણકુટી હતી ત્યાં આવ્યું ત્યાં આવીને તેણે પિતાની કાવડ રાખી કાવડ રાખીને વેદીને મેટી કરી અર્થાત્ વેદી બનાવવાનું વિસ્તૃત સ્થાન નિશ્ચિત કર્યું પછી ઉપલેપન ( લીંપણ) તથા કીડી આદિ લધુકાય જેની રક્ષાને માટે સંમાર્જન કરવા લાગ્યા. પછી દર્ભ તથા કલશને હાથમાં લઈને ગગને કાઠે આવ્યા અને તેમાં પ્રવેશીને સ્નાન કરવા લાગ્યા, તથા જલમજજન=ડુબકી લગાવવું, અને જલાભિષેક કરવા લાગ્યા પછી આચમન કરીને સ્વચ્છ અને અત્યત શુદ્ધ કરીને, દેવતા તથા પિતૃઓના કર્મ કરીને, દળ તથા કલશ હાથમાં લઈને, ગંગા મહાનદીમાથી બહાર નીકળે અને પિતાની કુટીમાં આવ્યું ત્યાં આવીને દર્ભ અને કુશને એક તરફ રાખે છે તથા તથા Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ.३ सोमिल ब्राह्मणवर्णनम् २३७ तथा कुशकलशहस्त इति, शरकेण-निर्मन्थनकाष्ठेन अरणि घर्षणीयकाष्ठं मथ्नातिघर्षयति, अग्निं संधुक्षते-फूत्करोति । 'समादहे' समादधाति स्थापयति, अत्र लटोऽथ लिङ सौत्रत्वात् , तद्यथा तानि अङ्गानि यथा, चरु हवनाथ दुग्धेन सह तण्डुलादिहविघुताभिघारितं साधयति=सम्पादयति, रन्धयतीति यावत् ॥५॥ दर्भ और कुश एक तरफ रखता है और बालूसे वेदी बनाता है। पादमें शरक-निर्मन्थन काष्ट, जो अग्निके लिए घिसा जाता है; अरणि-निर्मथ्यमान काष्ठ, जिसपर अग्नि उत्पन्न करनेके लिए शरक धिसा जाता है, उन्हें तैयार करता है। अनन्तर शरक के द्वारा अरणि का मन्थन करता है, और मन्थन कर उससे अग्नि निकालता है फिर फूककर उसे सुलगाता है। उसमें समिध काष्ठ डालकर उसे प्रज्वलित कर अग्निके दाहिने पाच (जीमणी बाजू) में सात अङ्गो (वस्तुओ) का स्थापन करता है, वे ये हैं (१) सकत्थ तापसोका एक उपकरण विशेष, (२) वल्कल, (३) स्थान, (४) शय्या भाण्ड, (५) कमण्डल, (६) लकडीका दण्डा तथा (७) आत्मा अर्थात् अपनेको अग्निके दाहिनी तरफ रखे। - इसके अनुसार सब वस्तुओंको यथास्थान रखकर वह मधु घृत और तण्डुलसे हवन करता है। चरु (घीसे चुपडकर हवनके लिये पकाने योग्य चावल) को सिझाता है । बलि-वैश्वदेव (नित्य यज्ञ) करता है । बादमें अतिथिको भोजन कराकर स्वयं भोजन करता है ।।५।। વેદી બનાવે છે પછી શર=નિર્મથન કાષ્ઠ, જે અગ્નિ માટે ઘસવામાં આવે છે, તે तथा अरणिनिर्भयमान 18, 21 S५२ मनि Gaua ४२वा माटे 'शरक' घसाय છે તે તૈયાર કરે છે. અને શરક દ્વારા અરણીનું મન્થન કરે છે મથન કરી તેમાથી અગ્નિ પ્રગટ કરે છે અને ફક મારી તેને સળગાવે છે તેમાં સમાધીનાં કાષ્ઠ નાખીને પ્રજવલિત કરે છે અગ્નિ પ્રજવલિત કરીને અગ્નિની જમણી બાજુમાં સાત અને (वस्तु)स्थापन ४२ छे-रेवा: - (१) सत्य-तापसोनु मे 6५४२१४ विशेष, (२) १६४८, (3) स्थान, (४)शय्यामा, (५) , (6) डीनो तथा (७) मात्मा अर्थात् पाताने अभिननी જમણી બાજુએ રાખે. આ પ્રમાણે બધી વસ્તુઓને યથાસ્થાને રાખી મધ, ઘી તથા ચોખાથી અગ્નિમાં હવન કરે છે વઘીથી ચેપડીને હવનને માટે રાધવાના ચાવલ સીઝાવે છે ચરૂને सिावी वलि वैश्वदेव (नित्य यज्ञ) ४२ छे. पछी मतिथिन माडी पोत सामनरेछ (५) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . .. . . . . . . .निरयावलिकासूत्रे मूलम्-तए णं से सोमिले माहणरिसी दोच्चंसि छटुक्खमणपारणगंसि तं चेव सव्वं भाणियवं जाव आहारं आहारेइ, नवरं इमं नाणनं-दाहिणाए' दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसिं जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव अणुजाणउ ति कह दाहिणं दिसि पसरइ। एवं पञ्चत्थिमे णं वरुणे महाराया जाव पच्चत्थिमं दिसिं पसरइ । उत्तरेणं वेसमणे महाराया जाव उत्तरं दिसिं पसरइ । पुव्वदिसागमेणं चत्तारि विदिसाओ भाणियवाओ जाव आहारं आहारेइ । तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स अण्णया कयाइ पु. व्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणरिसी अचंतमाहगकुलप्पसूए, तएणं मए वयाई चिण्णाइं जाव जूवा निक्खित्ता । तएण मए वाणारसीए जाव पुप्फारामा य जाव रोविआ । तएण 'मए सुबहु लोह० जाव घडावित्ता जाव जेट्रपुनं कुटुंबे ठावित्ता जाव जेट्टपुत्तं आपुच्छित्ता सुवहु लोह० जाव गहाय मुंडे जाव पवइए वि य णं समाणे छठें छट्रेगं जाव विहरामि, तं सेयं खलु मम इयाणि कल्लं पाउ जाव जलंते बहवे तावसे दिहाभट्टे य पुवसंगइए य परियाय संगइए य आपुच्छित्ता आ समसंसियाणि य वहुई सत्तसयाई अणुमाणइत्ता वागलवत्थ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिल ब्राह्मणवर्णनम् नियत्थस्त किढिणसंकाइयगहियसभंडोवगरणस्स कट्टमुद्दाए मुहं बंधिता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए । एवं संपेहेइ, संपेहिता कलं जाव जलते बहवे तावसे य दिट्टाभट्ठेय पुवसंगइए य तं चैव जाव कटुमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधिन्ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हs, जत्थेव णं अहं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निन्नंसि वा पत्रयंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्ज वा पवडज्ज वा, नो खल मे कप्पड़ पच्चुट्टित्तए त्ति कट्टु अयमेयारुवं अभिग्गहं अभिगिन्हइ, अभिगिन्हित्ता उतराए दिसाए उत्तराभिमुंहमहपत्थाणं पत्थिए से सोमिले माहणरिसी पुव्वा वरण्काल समयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए, असोगवरपायस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेदि वडूइ, वडित्ता उवलेवणसंमजणं करेइ, करिता दुब्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महानई जहा सिवो जाव गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहिं य कुसेहिं य वालुयाए य वेदिं रएइ, रेता सरगं करेइ, करिता जाव बलिवइस्सदेवं करेइ, करिता 'कहमुद्दा मुहं बंधइ, तुसिणीए संचि ॥ ६॥ छाया-ततः खलु स सोमिलो ब्राह्मणऋपिद्वितीये पक्षपणपारण के 'तदेव सर्वं भणितव्यं यावद् आहारमाहारयति । नवरमिदं नानात्वम् - दक्षिणस्यां یہ 'तरणं से, सोमिले ' इत्यादि उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण ऋषिने द्वितीय छट्ट (वेला) तरण से सोमिले इत्याह "" નહી ત્યાર પછી તે સાજ્ઞિક્ષ બ્રાહ્મણ ઋષિએ દ્વિતીય ષષ્ઠ ( બેલા) નૢ પાણ આવતાં પૂર્વીકત પ્રકારે બધા કર્મો કર્યા તથા છેલ્લે આહાર કર્યાં. વિશેષ એ છે કે ܕ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० निरयावलिकामों दिगि यमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षतु सोमिलं ब्राह्मणपि, याच तत्र कन्दांच यावद् अनुजानातु, इति कृत्वा दक्षिणां दिशं प्रसरति । एवं पश्चिमे खलु वरुणो महाराजो यावत् पश्चिमां दिशं प्रारति । उत्तरे खलु वैश्रवणो महाराजो यावद् उत्तरां दिशं प्रसरति। पूर्वदिग्गमेन चतम्रो विदिशो भणितव्या यावद् आहारमाहारयति । ततःखलु तस्य सोमिलव्राह्मणापैरन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये अनित्यजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप श्राध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत एवं का पारणा आनेपर पूर्वोक्त प्रकारसे सभी कार्य किये और अन्त में आहार किया । विशेष यह हैं कि यहां यमकी प्रार्थना करता है-दक्षिण दिशामें महाराज यम परलोक साधक मागमें स्थित मुझ मोमिल ब्राह्मण ऋषिकी रक्षा करें, उस दिशामें जो कन्द, मूल, फल फूल आदि हो उन्हें लेनेकी मुझे आज्ञा दें। ऐसा कह कर दक्षिण दिशामें जाता है। इसी प्रकार पश्चिम दिशामें महाराजा वरुण देव परलोक साधक मार्गमें प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण ऋपिकी रक्षा करें, इत्यादि पूर्वोक्त विधिसे पश्चिम दिशा में जाता है। बाद उत्तर दिशामें जानेके लिये उसी प्रकार महाराज वैश्रवण (कुवेर)-की प्रार्थना की और उत्तर दिशामें गया । इसी प्रकार इसने चारों-पूर्व आदि दिशाके समान चारों विदिशाओं (कोणों) में भी पूर्वोक्त विधिका आचरण किया, और आहार किया। उसके बाद एक समय अनित्य जागरणा करते हुए उस सोसिल ब्राह्मण के हृदयमें इस प्रकारका आध्यात्मिक विचार उत्पन्न દક્ષિણ દિશામાં મહારાજ યમ, પરલેક સાધક માર્ગમાં પ્રસ્થિત સેમિલ બ્રાહ્મણની રક્ષા કરી તે દિશામા જે કદ, મૂળ, ફલ, પુલ વગેરે હોય તે લેવાની આજ્ઞા આપો એમ કહીને દક્ષિણ દિશામાં જાય છે એજ પ્રકારે પશ્ચિમ દિશામાં મહારાજ વલ્સ, પોક સાધક માર્ગમાં પ્રતિ મિલ બ્રાહ્મણ પિની રક્ષા કરો. વગેરે પૂર્વોકત વિધિથી પશ્ચિમ દિશામા જાય છે. પછી ઉત્તર દિશામાં જવા માટે એજ પ્રકારે મહારાજ વ શ્રવણ (કુબેર) ની પ્રાર્થના કરી અને ઉત્તર દિશામાં ગયે. આવી રીતે તેણે પૂર્વ આદિ ચારે દિશાઓની પેઠે ચારે દિશાઓ (ખૂણા) માં પણ પૂત વિધિનું આચરણ્ય કર્યું અને પછી આહાર કર્યો. ત્યાર પછી એક વખત અનિત્ય જાગરણ કરતાં કરતાં તે સોમિલ બ્રાહણના હદયમાં એવા પ્રકારને આધ્યાત્મિક વિચાર- ઉત્પન્ન થયે કે હું વારાણસી નગરીને Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी, श्रीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् खलु अहं वाराणस्यां नगर्या सोमिलो नाम ब्राह्मणऋपिरत्यन्तव्राह्मणकूलमनृतः, ततः खलु मया व्रताति चीर्णानि यावन् यूपा निक्षिप्ताः, ततः खलु मया वाराणस्यां यावत् पुष्पारामाथ यावद् रोपिताः, ततः खलु मया सुबहु लोह ० यावद् घटयित्वा यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वा यावद् ज्येष्ठपुत्रमापृच्छ सुबहु लोह ० यावद् गृहीत्वा सुण्डो यावत् प्रत्रजितोऽपि च खलु सन् पष्ठपष्ठेन यावत् विहरामि तच्छेयः खलु ममेदानों कल्ये मार्यावज्ज्वलति बहून् तापसान् दृष्ट-भ्रष्टांच पूर्वसङ्गतिकाश्च पर्यायसगतिकाश्च आपृच्छच आश्रहुआ कि में वाराणसी नगरीका रहनेवाला अत्यन्त उच्च कुल में उत्पन्न सोमिल नामका ब्राह्मण ऋषि हूँ । मैंने बहुतसे व्रत किये, तथा यज्ञ आदि करनेसे लेकर यज्ञस्तम्भ तक गाडा । अनन्तर मैने वाराणसी नगरीके बाहर आमके बगीचेसे लेकर फूल तक के बगीचे लगवाये । बाद मैने बहुतसी लोहेकि कडाहियाँ कलछू और तापसके लिये उपयुक्त बहुत से ताम्बे के पात्र बनवाकर और अपने सभी मित्र - ज्ञाति - स्वजन - बन्धुओंको बुलाकर उन्हें भोजन आदिके द्वारा सम्मानित कर, उन ज्ञाति बन्धुओके समक्ष अपने पुत्रको कुटुम्बकी रक्षा के लिये स्थापित कर यावत् उससे सम्मति लेकर उन लोहे की काहिया आदि लेकर मुण्ड होकर प्रत्रजित हुआ । और अनन्तर रहित पष्ठ- षष्ठ दिक्चक्रवाल तप करता हुआ विचरण कर रहा हूँ अब मुझे उचित है कि सूर्योदय होते ही बहुतसे दृष्टभ्रष्ट दृष्ट=जो कभी देखे हुए यथार्थ भाव है उनसे भ्रष्ट स्खलित हैं. तथा पूर्वसंगतिक - રહેવાવાળે! અત્યંત ઊંચા કુળમા જન્મેલા સેમલ નામના બ્રાહ્મણ ઋષિ છુ મે ઘણા ઘણા વ્રત કર્યા તથા યજ્ઞ વગેરેથી માડી યજ્ઞસ્ત ન ખેડવા સુધી કર્મ કર્યા ત્યાર પછી મે વાણુસી નગરીથી બહાર આંબાના બગીચાથી માડી ફુલવાળા ભાગ સુધી અનાવ્યા પછી મેં ઘણી લઢાની કડાઇ, કડછી તથા તાપસને માટે ઉચ્ચેગી એવા ઘણા તાબાનો પત્ર વગેરે વસ્તુ અનાવરાવી અને મારા પેાતાના સઘળા મિત્રજ્ઞાતિ-સ્વજન-બ એને મેલાવીને તેમને ભાજન વગેરે દ્વરા સમાનિત કર્યાં તે જ્ઞાતિ એની સમક્ષ મારા પાતાના પુત્રને કુટુ ખની રક્ષને માટે સ્થાયિત કરીને તેની સ ાંત લઈને તે લેઢાની કડાઇ વગેરે બધુ લઈ મુર્પિત થઈ પ્રત્રજિત થયે અને અંતરરહિત છò–છઠે દિક્ ક્રવાલ તપ કરતા કરતા વિચરૂ છુ. આ માટે મને એ ચેગ્ય છે કે સૂર્યાંય થતા જ ધણા દૃષ્ટ બ્ર==> કયારેક જોવામાં આવે ૩૧ २४१ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ - निरयावलिकाम मसंश्रिनानि च बहुनि सत्वशतानि अनुमान्य वाल्कलवस्त्रनिवसितस्य किठिणसंकायिकगृहीतसभाण्डोपकरणस्य काष्ठमुद्रया मुखं बवा उत्तरदिगि उत्तराभिमु. खस्य महापस्थान प्रस्थापयितुम् , एवं संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति वहुन तापसांश्च दृष्ट-भ्रष्टांश्च पूर्वमङ्गतिकाश्च तदेव यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बन्धानि, वध्वा इममेत पमभिग्रहमभिगृहाति-यत्रैव खलु अहं जले वा, एवं स्थले वा दुर्गे वा निम्ने वा पर्वते वा विपमे वा गर्तायां वा दया वा पस्खलेयं वा पूर्वकालमें जिनसे संगति-मित्रता हुई थी ऐसे, पर्यायसंगतिक-समान तापम पर्यायवालोंकों पूछकर; आश्रम संश्रित = आश्रममें रहनेवाले अनेक शत प्राणियाँको वचन आदिसे मन्तुष्ट कर वल्कल वस्त्र पहना हुआ कावडमें अपने भाण्डोपकरणको लेकर तथा काष्ठमुद्रासे बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिगामें महाप्रस्थान (मरणके लिये जाना) करूँ। वह सोमिल ब्राह्मण ऋपि इस प्रकार विचार करता है और सूर्योदय होने पर, अपने विचार के अनुसार मभी दृष्टभ्रष्ट आदि तापस पर्यायवालोको पूछकर तथा आश्रमस्थ अनेक शत प्राणियोंको वचन आदिसे सन्तुष्टकर अन्तमें काष्ठ मुद्रासे अपना मुख बाधता है, और इस प्रकारका अभिग्रह (प्रतिज्ञा) लेता है कि-जहाँ कहीं भी-चाहे वह जल हो या स्थल हो वा दुर्ग (विकट स्थान) हो, अथवा नीचा प्रदेश हो वा पर्वत हो, विषम भूमि हो, वा गड्डा हो, वा गुफा हो, इन सबोमेंसे कही भी प्रस्खलित होऊँ या गिर पडूं, યથાર્થ ભાવથી ભ્રષ્ટ-ખલિત છે તે તથા પૂર્વ સગતિક=સમાન તાપસ પર્યાય વર્તિએને પૂછીને, આશ્રમ સશ્રિત=આશ્રમમાં રહેવાવાળા અનેક સેંકડો પ્રાણીઓને વચન આદિથી સ તુષ્ટ કરી વલ્કલ વસ્ત્ર ધારી કાવડમાં પિતાના ભાડાપકરણ લઈ તથા કાષ્ઠ મુદ્રાથી મેઢાને બાધી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તરાભિમુખ થઈને મહાપ્રસ્થાન (મરણને भाटे बु) ४३ . . . તે મિલ બ્રાહ્વાણ ષિ આ વિચાર કરે છે અને સૂર્યોદય થતા પિતાના વિચાર પ્રમાણે બધા દુષ્ટ-ભ્રષ્ટ- આદિ સમાન તાપસ પર્યાયવર્તિઓને પૂછીને તથા આશ્રમમાં રહેનારા અનેક સે કર્યો પ્રોણિઓને સંતુષ્ટ કરી કાષ્ઠમુદ્ર વડે પિતાનું મોઢે બાંધે છે અને એ અભિગ્રહ (પ્રતિજ્ઞા) લે છે કે-જ્યાં જ્યાં પણ તે જલ હોય કે સ્થલ હોય કે દુર્ગા (વિકટ સ્થાન) હોયે, નીચે પ્રદેશ હોય કે પર્વત હોય, વિષમ ભૂમિ હોય કે ખાડા હોય કે ગુફા હાય એ બધામાથી ગમે તે હોય ત્યાં Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् , पतेयं वा नो खलु मे कल्पते प्रत्युत्थातुम् इति कृत्वा इममेतद्रूपमभिग्रहमभिगृह्णाति, उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखमहाप्रस्थानं प्रस्थितः । स सोमिली ब्राह्मण ऋषिः पूर्वापराह्नकालसमये यत्र अशोकवरपादपस्तत्रैवोपागतः । अशोकवर पादपस्याधः किठिणसाङ्कायिकं स्थापयति, स्थापयित्वा वेदं वर्धयति, उपलेपनसम्मार्जनं करोति, कृत्वा दर्भकलशहस्तगतो यचैव गङ्गा महानदी यथा शिवो यावद् गङ्गातो महानदीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तोर्यत्रैव अशोकवरपाद - पस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य दर्भैश्च कुशैश्च वालुकया च वेदीं रचयति, रचयित्वा शरकं करोति, कृत्वा पावद् वलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वा काष्ठमुद्रया मुखं बन्धाति, तूष्णीकः संतिष्ठते ।। ६ ।। टीका- 'तरण से सोमिले' इत्यादि । पूर्वदिशागमेन = कन्दमूलाद्यर्थं पूर्वदिशागमनेन चतस्रो विदिशो भणितव्याः, अयं भाव - चतुर्दिक्षु या क्रिया कृता साक्रिया विदिवपि । दृष्टभ्रष्टान् = सम्यक्त्वम्खलितान् पूर्वसङ्गतिकान= पूर्वस्मिन् तो मुझे वहासे उठना नहीं कलपता' ऐसा विचार करके इस प्रकारका अभिग्रह लेता है । तथा उत्तर दिशा की ओर महाप्रस्थान के लिए प्रस्थित होता है । फिर वह सोनिल ब्राह्मण ऋषि अपराह्न काल (दिनके तिसरे प्रहर) में जहां सुन्दर अशोक वृक्ष था वहां आया । और उस अशोक वृक्ष के नीचे अपना कावड रग्वा । अनन्तर वेदि = बैठने की जगहको साफ किया, साफ करके जहाँ गङ्गा महानदी थी वहां आया । और शिवराजऋषिके समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्यकर वहांसे ऊपर आया और जहां अशोक वृक्ष था वहां आकर दर्भ कुश ओर बालुकासे यज्ञ वेदीकी रचना की । यज्ञ वेद की रचना करके शरक और अरणिसे अग्निको प्रज्वलित कर પ્રસ્ખલિત થ` કે પડી જાઉ તે મારે ત્યાથી ઉઠવુ નહિ કલ્પ' એમ વિચારી એવે અભિગ્રહ લે છે અને ઉત્તર દિશા તરફ મહાપ્રસ્થાન માટે પ્રસ્થિત થાય છે પછી તે સેમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિ અપરાતૢ કાલ (દિવસના ત્રીજાપ્રહર) માં જ્યા સુદૃ અશેક વૃક્ષ હતુ ત્યા આવ્યે અને તે અશેક વૃક્ષની નીચે પેાતાની કાવડ રાખી, અનન્તર વેદિ—એસવ ની જગ્યાને સાફ કરી, તે સાફ કરીને જયા ગગા મહાનદી હતી ત્યા આવ્યા અને શિવાજ ઋષિની પડે તે ગગા મહાનદીમા સ્નાન આદિ કર્મ કરી હાથી ઉપર આવ્યે તથા જ્યા અશેક વૃક્ષ હતુ ત્યા આવીને-દ, કુશ તથા રેતીથી યજ્ઞ વેદીની રચના કરી યજ્ઞ વેદીની રચના કરીને શરક તથા અરણીથી २४३ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकाम काग्रेस के त्राण, पर्यावकान= नवय कालखडा by, dreams, at a 1 नमो व्रतवन्त कालसी गंग क्षेत्रे अनि एन से देवे सोमिल पिया | दुष्पव दो ހ އަ से सीमित नो परिक्षा नाम, ि अणामाणे जामेव दिसं त्रिवि पति से सोमिक जा aharashtra feferrierse हाय हिमंडी थिए । गी मेनोमि feastfee toकालसममि free near the गच्छ, उत्ति अंडे किंडिका disease sages, agar ता जहा बंड, एंग तमसोमातास ॐ अपवि staineers are afs | मर्ण में मोमिले जन aircraftara farariarsi frogs, वना (feat. ना है #1 (जिल 25 ) है है भने ६८ (1) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरखोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ मोमिलब्राह्मणवर्णनम् गिण्हित्ता कट्रमुद्दाए मुहं बंधइ, उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए । तएणं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेई बड़ेइ जाव गंगें महानई पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरिता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेई रएइ जाव कटुमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्टइ। तएणं तस्स सोमिलस्स पुवरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतिय पाउब्भूए तंचेव भणइ जाव पंडिगए। तएणं से सोमिले जाव जलंते वागलवत्थनियत्थे किदिण संकाइयं जाव कटमुद्दाए मुहं बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए। ... __तएणं से सोमिले चउत्थे दिवसे पच्छावरणहकालसमयंसि जेणेव बडपायवे तेणेर उवागए, वडपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेई वड्डेइ, उवलेवणणसंमज्जणं करेइ जान कटमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिटुइ । तइणं तस्स सोमिलस्स पुवरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउभूए तं चेव भणइ जाव पडिगए । तएणं से सोमिले जाव जलंते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्रमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए । ... तएणं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसम यसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उवागच्छेइ, उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वडेइ जाव कटुमुद्दाए मुहं बंधइ जाव तुसिणीए संचिटइ। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ - , . . . निरयालिफासूत्रे तएणं तस्ल सोमिलमाहणस्त पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे जाव एवं वयासी-हंभो सोमिला! पव्वइया । दुप्पव्वइयं ते पढम भणइ, तहेव तुसिणीए संचिट्टइ । देवो दोचंपि तच्चपि वदइ सोमिला ! पव्वइया दुप्पव्वइयं ते। तएणं से सोमिले तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चपि एवं वुले समाणे तं देवं एवं वयासी-कहणणं देवाणुप्पिया! मम दुप्पव्वइयं ? । तएणं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुमं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्तसिक्खावए दुबालसविहे सावगधम्मे पडिबन्ने, तएणं तव अण्णया कयाइ असाहदसणेण पुवरत्ता० कुडुव० जाव पुवचि. तियं देवो उच्चारेइ जाव जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवा. गच्छसि, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिटुइ । तएणं पुवरत्नावरत्तकाले तव अंतियं पाउन्भवामि हं भो सोमिला! पवइया! दुप्पवइयं ते तह चेव देवो नियवयणं भणइ जाव पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उंबरवरपायवे तेणेव उवागए किदिणसंकाइयं ठवेसि, वेइं वड्रेसि, उबलेवणं संमजणं करेसि, करित्ता कटुमुद्दाए मुहं बंधेसि, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्टसि, तं चेवं खलु देवाणुप्पिया! तव पवइयं दुप्पवडयं । तएणं से सोमिले तं देवं एवं वयासी-कहणणं देवानुप्पिया ! मम सुप्पवयं ? तएणं से देवे सोमिलं एवं वयासो जइणं तुमं देवाणुप्पिया। इयाणि पुवपडिवण्णाइं पंच अणु व्वयाइं सत्तसिक्खावयाई सममेव उवसंपजित्ताणं विहरसि, तोणं तुज्झ इदाणिं सुपवइयं भविजा । तइणं से देवे सोमिलं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिल ब्राह्मणवर्णनम् २४५ वेदइ नमसइ, वंदिना नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए जात्र पडिगए । तणं से सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुते समाणे पुवपडिवन्ना पंच अणुवयाइ सयमेव उवसंपजित्ताणं विहर | तणं से सोमिले बहूहिं चउत्थ छट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं सेइ, सिता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सुक्कवडिस विमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि जावतोगाहणाए सुकमहग्गहत्ताए उववन्ने । तणं से सुके महग्गए अहुणोववन्ने समाणे जाव भासा - मणपज्जत्तीए० । एवं खलु गोयमा ! सुक्केणं महग्गहेणं सा दिवा जाव अभिसमन्नागया, एगं पलिओवमं ठिई । सुक्के णं भंते ! महग्गहे तओ देवलगाओ आउक्खणं ३ कहिं गच्छिहिह ? २ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५ । एवं खलु जंबू ! समणेणं निक्खेवओ ॥ ७ ॥ C ॥ तइयं अज्झयणं समत्तं ॥ ३ ॥ छाया - ततः खलु तस्य सोमिल ब्राह्मणऋषेः पूर्वरात्रापररात्रकालसमये एको देवोऽन्तिकं प्रादर्भूतः । ततः खलु स देवः सोमिलं ब्राह्मणमेवमवादीत्हे भो सोमिलब्राह्मण ! शृव॑जित ! दुष्प्रवजितं ते । ततः खलु स सोमिलस्तस्य देवस्य द्वितीयमपि तृतीयमपि एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TREATMEL निरयानलिकामत्रे यावत् तृप्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु स देवः सोमिलेन ब्राह्मणपिणा अनाद्रियमाणः यस्या दिशः प्रादुर्भूतम्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततः 'खंलु स सोमिला कल्ये यावत् ज्वलति वालकलवस्त्रनिवासितः किठिणसाइकायिक गृहीत्वा गृहीत. भाण्डोपकरणः काष्ठमुद्रया मुग्वं वनाति, बवा उत्तगभिमुग्वः संस्थितः । ततः खलु स सोमिलो द्वितीयदिवसे पवादपराह्नकालसमये यत्रैव सप्तपर्णः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सप्तपर्णम्य अधः किढिणसांकायिकं ग्थापयति, स्था 'तएण तम्स' इत्यादि- . उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मणं ऋषिके मामने मध्य गत्रिके ममय एक देवता प्रकट हुआ। उसके बाद वह देव सोमिल ब्राह्मणको इस प्रकार कहा-है प्रत्रजिन सोमिल ब्राह्मण ! तेरी यह दुष्प्रव्रज्या है । इस प्रकार उस देवके द्वारा दो तीन बार कहे जानेपर भी वह मोमिल उम देवताकी बातका आदर नहीं करता है न उनकी नरंफ ध्यान ही दंता है, किंतु मौन होकर रहता है उसके बाद उम मोमिल ब्राह्मणसे अनाहत वह देव जिम दिशासे आया उमी दिगामें चला गया । उसके बाद वल्कलवस्त्रधारी बह सोमिल योदर होनेपर कावडको उठाकर अपना भाण्ड-उपकरण लेकर काष्ठमुद्रासे अपना मुंह बांधकर उत्तर दिशाकी और प्रस्थान करता है। अनन्तर बह मोमिल ब्राह्मण दूसरे दिन अपराह कालके अंतिम प्रहारमें जहां सप्तपर्ण वृक्ष था वहां आया । और सप्तपर्ण वृक्षके तएणं तस्स इत्यादि। ત્યાર પછી તે મિલ બ્રાહ્મણ રાવની સામે મધ્યરાત્રિને વખત એક દેવતા પ્રગટ થયા પછી તે દેવે મિત્ર બ્રહ્મગુને આમ કહ્યું – હે પ્રત્રજીત મિલ બ્રાહ્મણ તારી આ પ્રવ્રજ્યા દુuત્રજ્યા (દેલવાળી) છે એ પ્રકારે તે દેવની દ્વારા બે ત્રણ વાર કહેવામા આવતા છતા પણ તે એમિલ તે દેવતાની વાનના આદર કરતું નથી કે નથી તેના તરફ ધ્યાન પણ દેતે પણ એકદમ મન થઈ જાય છે ત્યાર પછી તે મિલ બ્રાહ્મણથી અનાદર પાલ દેવ જે બાજુથી આવ્યા હતા તે બાજુએ ચાલ્યા ગયે , ત્યાર પછી વડકલવસ્ત્રધારી તે મોમિલ સુર્યોદય થતા કાવડ ઉપાડી પિતાના ભડ ઉપકરણ લઈને કાષ્ઠમુદ્રાથી પિતાનુ મેરું બાંધીને ઉત્તર તરફ પ્રસ્થાન કરે છે. પછી તે મિલ બ્રાહ્મણ બીજે દિવસ અપાઇ કાલના છેલા પહોરમાં (સાંજી જ્યા સંતપર્ણ વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યું. અને સમપર્ણની નીચે પિતાની કાવડ રાખીને ... .. . Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् २४९ पयित्वा वेदिं वर्धयति, वर्धयित्वा यथा अशोकवरपादपे यावत् अग्निं जुहोति, काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, तूष्णीकः संतिष्ठते । ___ ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकालसमये एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूतः । तत खलु स देवोऽन्तरिक्षप्रतिपन्न यथा अशोकवरपादपे यावत् प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलः कल्ये यावत् ज्वलति वालकलवस्त्रनिवसितः कढिणसाङ्गायिकं गृह्णाति, गृहीत्वा काष्ठमुद्रया मुखं वनाति, बद्ध्वा उत्तराभिमुखः संपस्थितः नीचे अपना कावड रखता है, कावड रखकर वेदी बनाता है, और जैसे अशोक वृक्षके नीचे उसने किया वैसे ही सभी कार्य किये । अन्तमें उसने हवन किया और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बांधकर मौन होकर बैठ गया। उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मणके समक्ष मध्यरात्रिके समय एक देव प्रकट हुआ। और आकाशमें खडा होकर अशोक वृक्षके नीचे जिस प्रकार पहले उस सोमिल ब्राह्मणको देवता ने कहा था उसी प्रकार फिर भी कहा, परन्तु उस सोमिल ब्राह्मणको देवताने कहा था उसी प्रकार फिर भी कहा, परन्तु उस सोमिल बाह्मणने उस देवताकी बातपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया । सुनी अनसुनी करके केवल चुप रह गया। वह देवता अन्तर्हित हो गया। उसके बाद वल्कलवस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मग अपना कावड ग्रहण करता है और काष्ठमुद्रासे अपना मुंह बांधता है । अनन्तर वह उत्तर दिशामें उत्तराभिमुख होकर प्रस्थित हुआ । उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण तीमरे दिन चौथे पहरमें जहाँ વેદી બનાવે છે અને જેવી રીતે અશક વૃક્ષની નીચે તેણે કર્યા હતા તેવાજ બધા કર્સે કરી અન્ત તેણે હવન કર્યો અને કાષ્ઠમુદ્રાથી પિતાનું મહુ બધી મીન થઈ રહેવા લાગ્યા પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણની સમક્ષ ધ્યરાત્રિને વખતે એક દેવ પ્રગટ થયેલ અને આકાશમાં ઉભું રહી અશોકવૃક્ષની નીચે જેમ પહેલા તે મિલ બ્રહ્મણને દેવતાએ કહ્યુ હતુ તેવી જ રીતે વળી ફરીને કહ્યું પરંતુ તે મિલ બ્રાહ્મણે તે દેવતાની વાત ઉપર કોઈ પણ ધ્યાન ન આપ્યું સાંભળ્યું ન સાંભળ્યું કરીને બિલકુલ ચુપ થઈ રહ્યો તે દેવતા અતર્ધાન થઈ ગયું. પછી વકિલ વસ્ત્ર ધારી તે સોમિલ બ્રાહ્મણે પોતાની કાવડ લીધી અને કાઠમુદ્રાથી પિતાનુ મે ટુ બાધે છે. ત્યાર પછી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તવિમુખ થઈને ચાલવા માંડયું. ३२ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० - : :-:, निरयावलिकामुत्रे - तत्तः खलु स सोमिलस्तृतीयदिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैवाशोकवरपादपस्तत्रैयोपागच्छति, उपागत्य अशोकरपादपस्यायः किहिणसाइकायिक स्थापयति, वेदि वर्धयति, यावद् गङ्गां महानहीं प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैवाशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वेदि रचयति, यावत् काष्ठमुद्रया मुखं, बध्नाति, बवा तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूतः तदेव भणति यावत् प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलो यावत् ज्वलति बाल्कलवस्त्रनिवरितः किहिणसाङ्कायिक यावत् काष्ठमुद्रया - मुखं वनाति, बद्ध्वा उत्तरम्यां दिशि उत्तराभिमुख समस्थिनः । . . . . . ततः खलु स मोमिलः चतुर्थे दिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैत्र वटपादपस्तत्रैवोपागतः, बटपादपस्याधः किढिणसादायिक स्थापयति, स्थाप: अशोक वृक्ष था वहा आया । वहां आकर कावड रखता है, और बैठनेके लिये वेदी बनाता है ओर पहले के ही तरह सभी कार्य करके काष्ठमुद्रासे मुंह बांधता है, अनन्तर ..मौन होकर बैठ जाता है । उसके बाद मध्य रात्रिमें उस सोमिल ब्राह्मणके समीप एक देव प्रकट हुआ और फिर उसने उसी प्रकार कहा, और, यावत् चला गया। उसके बाद सूर्योदय होनेपर वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मण अपना कावड उठाता है और काष्ठमुद्रासे अपना - मुख बांधता है और उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशामें प्रस्थान करता है। ___उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण चौथे दिवसके चौथे पहरमें जहां चडका वृक्ष था वहां आया। और उस वट वृक्षके नीचे अपना . પછી તે, મિલ બ્રાહ્મણ ત્રીજે દિવસે ચોથા પહોરમાં જ્યાં અશોક વૃક્ષ હેતુ ત્યા આવી કાવડ મૂકીને બેસવા માટે વેદી બનાવે છે. પહેલાની પ્રમાણે બધા કર્મો કરી કાષ્ઠમુદ્રાથી મેદ્ધ બધી પછી મૌન થઈ બેસી જાય છે ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિમાં તે સેમિલ બ્રાહ્મણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયા અને વળી તેણે તેજ પ્રકારે કહ્યું અને પછી ચાલ્યા ગયે ત્યાર પછી સૂર્યોદય થતા વલકુલવસ્ત્ર ધારી તે સોમિલ બ્રાઢાણ પિતાની કાવંડ ઉપાડે છે અને કાષ્ઠમુદ્રાથી પિતાનું મોટું બાંધે છે અને પછી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તરાભિમુખ થઈને ચાલવા માંડે છે ? ત્યાર પછી તે એમિલ બ્રાહ્મણ ચોથે દિવસે ગ્રંથા પહેરમા જ્યા, વડનું વૃક્ષ હતુ ત્યા આવ્યા અને તે વડના ઝાડની નીચે પિતાની કાવંડ રાખી પછી, બેસવાની Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् २६१ यित्वा वेदि वर्धयति, उपलेपनसंमार्जनं करोति यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति तूष्णीकः सतिष्ठते । ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूतः । तदेव भणति यावत् प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलो यावज्ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवमितः किढिणसाङ्कायिक यावत् काष्ठमुद्रया मुखं वन्धाति वद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तवाभिमुवः संपस्थितः ।। .: ततः खलु स सोमिलः पञ्चमदिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैव उदुम्वरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उदुम्बरपादपम्बाधः किढिगसाङ्कायिक स्थापयति, वेदि वर्धयति यावत् काष्ठमुद्रया मुखं वन्धाति यावत् तूष्णीफ़:- संतिष्ठते । ततः खलु तस्य सोमिलब्राह्मणस्य पूर्वगत्रापररात्रकाले एको देवः यावत्- एवमवादीत-हं भो -सोमिल ! प्रव्रनित ? दुष्प्रव्रजितं ते प्रथमं भणति तथैव तूष्णीकः संतिष्ठते, देवो द्वितीयमपि तृतीयमपि बदति सोमिल ! प्रत्रकावड रखा । अनन्तर बैठनेकी वेदीको बनाया और उमको गोबर मिट्टीसे लीपा और साफ किया बाद में मौन होकर बैठ गया, उसके बाद मध्य रात्रि के समय उस सोमिल ब्राह्मणके समीप एक देव प्रगट हुआ। और उसने वैसे ही कहा यावत् अन्तर्हित हो गया । । उसके बाद बह सोमिल पांचवे दिन के चौथे पहर में जहां उदुम्बर (गुलर) का वृक्ष था वहां आता है और उदुम्बर वृक्षके नीचे अपना कावड रखता है और वेदी बनाता है, यावत् काष्ठमुद्रासे मुख बांधता है और मौन होकर रहता है। उसके शद मध्य रात्रिमें उस सोमिल ब्राह्मणके पास एक देव प्रकट हुआ और यावत् इस प्रकार कहा-हे सोमिल प्रबजित ! तुम्हारी यह प्रत्रज्या दुष्प्रव्रज्या है, इस प्रकार पहली वार उस देवताके मुखसे वाणी सुनकर वह વેદી બનાવી તે છાણ માટાથી લાપી અને સાફ કરી પછી મૌન થઈને બેઠે ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિને વખતે તે સેમિલ બ્રાહ્મણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયે અને તેણે એમજ અગાઉ પ્રમાણે કહ્યું અને અતર્ધાન થઈ ગયો ત્યાર પછી તે સોમિલ પાચમા દિવસે ચેથા પહેરે જ્યા ઉદુમ્બર (ઉબરો) નું વૃક્ષ હતુ ત્યા આવે છે અને તે ઉદુમ્બર વૃક્ષની નીચે પિતાની કાવડ સખી વેદી બનાવે છેપહેલાની માફક બધા કૃત્ય કરી પછી કાષ્ઠમુદ્રાથી મોટું બાધી મૌન રહે છે ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિમાં તે સોમિલ બ્રાહ્મણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયે અને આ પ્રકારે કહ્યું –હે સમિલ પ્રવ્રજિત તારી આ પ્રવજ્યા દુષ્પવ્રજ્યા છે આ પ્રકારની પહેલીવારની વાણી તે દેવતાને મુખેથી સાંભળી તે એમિલ માન રહે છે પછી તે દેવ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . . : . -:-. निग्यावलिका पत्र जिन् ? दुष्पनि त । तनः बलु म मामिलानन देवन द्वितीयमपि तृतीयमान्यत्रमृतः मन नं देवयंत्रवादीन-कथं खलु देवानुप्रिय ! मम दुप्पजिनम नतः बन्नु य देवः मामिनं ब्राह्मण यंत्रमगदीन-एवं खलु देवानुप्रिय! व पावसाहतः पुन्यादान यच्चालिकं पत्रानुनतानि मममिक्षात्रतानि द्वादशविध पावश्यम परिपन्ना, नतः बल नवाज्यता कटाचिन अपायुदर्शनेन मात्रा- कुटुम्ब० पाचन चिन्तिनं दंत्र उच्चानि बाचन यत्रैवाऽठोक. ' मामिल मौन रहता है । अनन्नर उम मामिलने उम देवनास कुवाग निवारा कई जानेपर हम प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! मेरी प्रत्रज्या दुष्प्रया क्यों है ? ___मामिलंक हम प्रकार पूछने पर उम देवनाने हम प्रकार कहना प्रारम्भ किया सामिन्टके हम प्रकार पृछनपर इम देवनाने हम प्रकार कहना आरम्म क्रिया हे देवानुप्रिय ! तुम मुमुच जनांस संव्य पाश्र्व अर्हन के ममीप पाच अनुत्रन इस प्रकार शिक्षाबत. हम प्रकार बारह व्रतस्प आवक धर्मको स्वीकार किया। उसके बाद अमावुक दशनस तुमने इस धर्मका परित्याग कर दिया | अनन्तर एक समय मध्य गनिमें कुटुम्य जागरणा करते हुए तुम्हारे मन में विचार पैदा हुआ कि-'गङ्गाके किनाग्में तपस्या करनेवाले विविध प्रकार वानप्रस्थ नापम है, उन नापमोंमें जो दिशामाक्षक नापम है उनके पाम माहेकी कडादिया कन्नछु और नाम्वका तापमपात्र बनवाकर उस १२४०३.ivar 3 .मिदंतववानी यी भणी ४१४:-- मुशिय! Hariyan27 ना - श्रीनवना माय:देशानुपथ! में सुना तपाई नी म जतन lyr: नवी मन या धर्मना वाधार या. ત્યાર પછી અધુના છી એ બ્રા અને પરિયાણ કર્યું. પછી એક જ રાત્રિમાં કુટુંબ જબરછ કરતાં કરતાં તમારા મનમાં એવા વિચાર ઉપન્ન થયા કે, •४ पट्या दुरना बानापसनतामाभा तय न पाये, वाहनी 28 तान ताप Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् २५३ वरपादपस्तत्रैवोपागच्छसि, उपागत्य किढिणसाकायिकं यावत् तूष्णीकः संतिष्ठसे । ततः पूर्वरात्रापररात्रकाले तवान्तिकं प्रादुर्भवामि-हं भो सोमिल ! प्रबजित ? दुष्प्रवजितं ते तथैव देवो निजवचनं भणति यावत् पञ्चमदिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैव उदुम्बरपादपस्तत्रैवोपागतः किढिणसाङ्कायिक स्थापयसि, वेदी वर्धयसि, उपलेपनं संमार्जनं करोपि, कृत्वा काष्ठमुद्रया मुखं बन्नासि, वया तूष्णीकः संतिष्ठसे, तदेवं ग्वल देवानुप्रिय ! तब प्रबजितं दुष्पवजितम् । लेकर जाउँ और दिशाप्रोक्षक तापस चनू । इत्यादि सोमिल ब्राह्मणके द्वारा पूर्व चिंतित विचारोंको देवताने उससे कहा। और फिर उसने कहा कि-'बादमें तुमने दिशाप्रोक्षक तापसके समीप दिक्षा ली और अभिग्रह लिया यावत् जहा अशोक वृक्ष था वहाँ आये और वहाँ कावड रख अपना सभो कृत्य किया बाद मेरे द्वारा प्रतिबोधित होनेपर भी तुमने उसपर ध्यान नहीं दिया और मौन होकर रह गये। इस प्रकार मैने चार दिन तक तुम्हें समझाया पर तुमने ध्यान नहीं दिया । बाद आज पाचवें दिवस चौथे पहरमें यहा उदुम्बर वृक्षके नीचे तुमने अपना कावड रखा, वैठनेकी जगहको साफ किया, अनन्तर उपलेपन और सम्मान किया और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बांधकर तुम मौन होकर बैठे । हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार तुम्हारी यह प्रत्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ! બનાવરાવી તે લઈને જાઉં અને દિશા પ્રેક્ષક તાપસ બનુ વગેરે સમિલ બ્રાહ્મણના મનમાં પૂર્વ ચિતન કરેલા જે વિચારો હતા તે દેવતાએ તેને કહ્યા કરી તેણે કહ્યું કે ત્યાર બાદ તમે દિશા પ્રેક્ષક તાપસની પાસે દીક્ષા લીધી અને અભિગ્રહ લીધે ત્યારથી જ્યાં અથાક દ્રશ્ન હતુ ત્યાં આવ્યા અને ત્યાં કાવડ રાખી તમે તમારા સર્વે કર્મો કર્યા પછી મારા દ્વારા પ્રતિબંધિત કરાયા છતા પણ તમે તે ઉપર ધ્યાન ન આપ્યું અને ન રહ્યા. આ પ્રકારે મે ચાર દિવસ સુધી તમને સમજાવ્યા પણ તમે ધ્યાન ન આપ્યુ. બાદ આજે પાચમા દિવસના ચોથા પહેરમાં અહી ઉદુમ્મર વૃક્ષની નીચે તમે તમારી કાવડ રાખી બેસવાની જગ્યાને સાફ કરી પછી તે લીધી અને સ માર્જન કર્યું અને કાષ્ટ મુદ્રાથી પિતાનું મોત બાધી મૌન થઈ બેઠા છે. હે દેવાનુપ્રિય ' આ પ્રકારની તમારી આ પ્રવજ્યા દુuત્રજ્યા છે. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ - ...... , , , 7-निरयावलिकास्त्रे ततः खलु स सोमिलस्तं देवमें मवादीत्-कथं खलु देवानुप्रिय !-मम मुमत्रजितं ? । ततः खलु स देवः सोमिल मेमवादीत् यदि खलु त्वं देवानुप्रिय ! इदानीं पूर्वप्रतिपन्नानि पश्चानुव्रतानि सप्तशिक्षात्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य ग्वलु विहरसि तर्हि खलु तवेदानी सुपवजितं भवेत् । ततः खलु स देवः मोमिल बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थिता यम्या दिशः प्रादुर्भूतः यावत् प्रतिगतः । ततः खलु सोमिलो ब्राह्मण ऋपिस्तेन देवेन एवमुक्तः सन पूर्वपतिपन्नानि पश्चानुव्रतानि सप्तशिक्षाव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु स सोमिलो बहुभिश्चतुर्थपष्ठाष्टमयावन्मासार्द्धमासक्षपणैर्विचित्रैस्तपउपधानरात्मनं भावयन बहूनि वर्षागि श्रमणोपायकपर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्ध उसके बाद सोमिलने कहा-हे देवानुप्रिय ! अब आप ही बताओ कि में कैसे सुप्रवजित बनू । उसके बाद उस देवने सोमिल ब्राह्मणसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! यदि तुम पहले ग्रहण किया हुआ पाच अणुव्रत और सात शिक्षावतको स्वयमेव रवीकार कर विचरण करो तो यह तुम्हारी पत्रज्या सुप्रवज्या हो जाय । उसके बाद उस देव सोमिल ब्राह्मणको वन्दन और नमस्कार कर जिम दिशासे प्रादुर्भूत हुआ उसी दिशामें अन्तर्हित हो गया। उस देवके अन्तर्हित होजानेपर उसके कथनानुसार वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि प्रथम स्वीकृत पाच अनुव्रत और सात शिक्षाव्रत अपने हीसे स्वीकार कर विचरण करता है। उसके बाद वह सोमिल बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्ठम यावत् मासाध मासक्षपणरूप - ત્યાર બાદ સેમિલે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય! તે હવે આપજ બતાવો કે હું કેવી રાતે સુપ્રત્રજિત બનું? ત્યાર પછી તે દેવતાએ મિત્ર બ્રાહ્મણને આ પ્રકારે કહ્યું છે દેવાનુપ્રિય જે તમે હમણુ અગાઉ ગ્રહણ કરલા પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રતનો પિતાની મેળે સ્વીકાર કરીને વિચરણ કરે તે આ તમારી પ્રવ્રજ્યા સુત્રજયા થઈ જાય ત્યાર પછી તે દેવ મિલ બ્રાહ્મણને વદન અને નમસ્કાર કરે છે પછી જે દિશામાંથી તે પ્રાદુર્ભત થયે હતા તેજ દિશામાં અ તહિંત થઈ ગયે.. તે દેવ અહિત થઈ ગયા પછી તેના કથન અનુસાર તે સોમિલ બ્રાહ્મણ પિએ અગાઉ સ્વીકારેલા પ ચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રત પિતાની જાતે સ્વીકારી વિચરણ કરે છે. પછી તે સે મિલ ઘણું ચતુર્થ ઉષ્ઠ અષ્ટમથી માડી ચાવત્ માસાધ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ३ सोमिलब्राह्मणवर्णनम् २५५ मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोपयति, जोपयित्वा त्रिंशद् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, छित्वा तस्य स्थानस्यानालोचिताऽप्रतिक्रान्तो विराधितसम्यक्त्वः कालमासे कालं कृत्वा शुक्रावतंस के विमाने उपपातसमायां देवशयनीये याव ताऽवगाहनया शुक्र महाग्रहतया उपपन्नः । ततः खलु स शुक्रोमहाग्रहः अधुनोपपन्नः सन् यावद् भाषामनः पर्याप्त्या० । एवं खलु गौतम ! शुक्रेण महाग्रहेण सा दिव्या यावत् अभिमन्यागता । एकं पल्योपमं स्थितिः | शुक्रः खलु मदन्त ! महाग्रहस्ततो देवलोकात् आयुः क्षयेण ३ कुत्र गमिष्यति, २ ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेन्स्यति ५ ! एवं खलु जम्बू : ! श्रमणेन निक्षेपकः ॥ ७ ॥ विचित्र तप उपधानोंसे अपनी आत्माको भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक (श्रावक) पर्यायका पालन करता है । अन्तमें अर्धमासिकी संलेखना द्वारा आत्माको भावित कर तथा तीस भक्त (आहार) को अनशनसे छेदित कर उस पूर्वकृत पापस्थानकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करता हुआ सम्यक्त्वकी विराधना से काल मासमें कालकर शुक्रावतंसक विमान में उपपात सभाके अन्दर देवशयनीय शय्या में जिस प्रमाणकी अवगाहनासे ज्योतिष देवोकी उत्पत्ति होती है, उस प्रमाणवाली अवगाहना अर्थात् जघन्य अ -अङ्गलके असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट-सात हाथ परिमाणवाली अवगाहनासे शुक्र महाग्रहपने उत्पन्न हुआ । उसके बाद वह शुक्र महाग्रह उत्पन्न होकर भाषापर्याप्ति सनःपर्याप्ति आदि पाँचों प्रकारकी पर्याप्ति से पर्याप्तिभावको प्राप्त हुआ । તથા માસક્ષણપરૂપ વિચિત્રતષ ઉપધાનેાથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કસ્તા ઘણુા વર્ષો સુધી શ્રમણેાપાસક (શ્રાવક) પ યનું પાલન કરે છે. આ તમા અધ માસિકી સલેખના દ્વારા આત્માને ભાવિત કરી તથા ત્રીસ ભકત (આહા) નૂં અનશનથી છેદિત કરી તે પૂર્વીકૃત પાપસ્થાનની આલેચના અને પ્રતિક્રમણ નહીં કરતા સભ્યક્ત્વને વિરાધિત કરી કાલમાસમા કાલ કરીને શુકાવ તસક વિમાનમા ઉપપાત સભાની આ દર્ દેવશયનીય શય્યામા જે પ્રમાણુની અવગાહનાથી નૈતિષ દેવાની ઉત્પત્તિ થાય છે તે પ્રમાણુવાલી અવગાહના અર્થાત્ જઘન્ય અંગુલના અસ યાતમાં ભાગ અને ઉત્કૃષ્ટ સાત હાથ પરમાણુવાળી અવગાહનાથી શુક્રમહાગ્રહપણામાં ઉત્પન્ન થયા. પછી તે શુક્રમહાગ્રહ ઉત્પન્ન થઈ ભાષાપ િ મન પર્યાપ્તિ આદિ પાચે પ્રકારની પતિથી પર્યામિ ભાવને પ્રાસ થયા ( Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . .: निरयावलिकामूत्रे टीका-'तएणं तस्स' इत्यादि । असाधुदर्शनेन=साधुदर्शनाभावाट गोधुदर्शनाच विराधितसम्यक्त्वः सोमिलस्तस्य स्थानस्याऽनालोचिताऽप्रतिक्रान्ततया शुक्रावतंसके विमाने देवशयनी ये यावत्याऽवगाहनया-यावत्या यत्परिमिततयाऽवगाहनया ज्योतिर्देवस्योपपातो भवति तावत्या जघन्यतोऽङ्गलासख्येयभागया उत्कृष्टतः सप्तहस्तपरिमाणया अवगाहनया शुक्रमहाग्रहतया समुत्पन्नः । शेषं स्पष्टम् ॥ ७ ॥ ॥ इति पुष्पिताया तृतीयमअध्ययनं समाप्तम् ॥ ॥ हे गौतम ! शुक्र महाग्रहने इस कारण ऐसी दिव्य देव ऋद्धिको प्राप्त की है। शुक्र महाग्रहकी स्थिति एक पल्योपमकी है। गौतम स्वामी पूछते हैं हे भदन्न ! वह शुक्र महाग्रह आयु भव स्थिति क्षय होनेके बाद उस देवलोकसे च्यवकर कहां जायगा? । हे गौतम ! यह शुक्र महाग्रह महाविदेहक्षेत्रमें जन्म लेकर यावत् सिद्ध होगा। सुधर्मा स्वामी कहते हैं इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर प्रभुने पुष्पिताके तृतीय अध्ययन में इस भावका निरूपण किया है ॥ ७ ॥ । पुष्पिताका तृतीय अध्ययन समाप्त हुआ । હે ગૌતમ! શુક્રમડાગ્રહે આ કારણથી પિતાની આવી દેવ અદ્ધિઓ પ્રાપ્ત કરી છે. શુક્રમહાગ્રહની સ્થિતિ એક પાપમની છે ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે– હે ભદન્ત! તે શુક્રમહાગ્રહ આયુભવ સ્થિતિક્ષય થતા તે દેવકથી ચ્યવીને ध्या शे? હે ગત ! આ શુકમહાગ્રહ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે સુધર્મા સ્વામી કહે છે આ પ્રકારે હે જમ્મુ " શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ પુષ્પિતાના ત્રીજા અધ્યયનમાં આ ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. (૭) પુષ્પિતાનું તૃતીય અધ્યયન સમાપ્ત Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवी म् २५७ ॥ अथ बहुपुत्रिकाख्यं चतुर्थमध्ययनम् ॥ मूलम्-जइणं भंते ! उक्खेवओ । एवं खलु जंबू : तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेगिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया। तेगं कालेणं २ बहु पुलिया देवी साहम्मे कप्पे बहपुत्तिए विमाणे सभाए सुहम्माए वहपुत्तियंलि सीहासगंलि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे जाव भुंजमाणी विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी २ पासइ, पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभो जाव णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिसहा सन्निसन्ना । आभियोगा जहा सूरियाभस्स, सूमरा घंटा, आभिओगियं देवं सद्दावेइ जाणविमाणं जोयणसहस्सवित्थिण्णं, जाणविमाणवण्णओ, जाव उत्तरिलेणं निजाणमग्गेणं जोयणसाहस्सिएहिं विग्गहेहिं आगया जहा सूरियाभे। धम्मकहा समत्ता । तएणं सा बहुपुत्तिया देवी दाहिणं भुयं पसारेइ देवकुमाराणां अट्ठसय, देवकुमारियाण य वामाओ भुयाओ अट्रसय', तयाणंतरं च णं बहवे दारगा दारियाओ य डिभए य डिभियाओ य विउवइ, नट्टविहिं जहा सूरियाभो उवदंसित्ता पडिगया भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, कूडागारसाला० । वहपुतियाए णं भंते ! देवीए सा दिवा देविड्डी पुच्छा जाव अभिसमण्णागया ॥ १ ॥ 33 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ... .. . निरयावलिकात्रे छाया-यदि खलु भदन्त ! उन्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् कालें तस्मिन समये राजगृहं नाम नगरं, गुणगिलकं चैत्य, श्रेणिको राजा, स्वामी समवस्तः । परिपत् निर्गना । तस्मिन् काले तस्मिन समये वहुपुत्रिका देवी सौधर्मे कल्पे बहुपुत्रिके विमाने सभायां सुधर्मायां बहुपुत्रिके सिंहासने चनसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः चतप्तभिः महत्तरिका मेः यथा सूर्यामो याबद् चौथा अध्ययन. 'जटणं भंते' इत्यादिजम्युम्बामी पूछते हैं हे भदन्न ! यदि पुष्पिता (पुफिया) के तृतीय अध्ययन में भगवानले पूर्वोक्त भावको वर्णन किया है तो फिर उसके बाद चतुर्थ अध्ययनके भावको उन्होंने किम प्रकार निरूपण किया है। सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! उस काल उम समयमा राजगृह नामक नगर था उस नगर का राजा श्रेणिक था । उस नगर में महावीर स्वामी पधारे ! पपिएद् उनके दर्शन के लिये निकली। उस . काल उत्त समयमें बहुषुत्रिका देवी सौधर्मकल्पक व्हुपुत्रिक विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर बहुपुत्रिक सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवियाँ तथा चार महत्तरिकाओं-तुल्य विभववाली कुमारियोंसे, जिनका याथु मध्ययन. जइणं भते त्या. જખ્ય સવામી પૂછે છે – હે ભદન્ત! જે પુષિત ના તૃતીય અધ્યયનમાં ભગવાન પૂર્વોકત ભાવનું વર્ણન કર્યું છે તે પછી તેના પછી ચેથા અધ્યયનના ભાવને તેમણે કયા પ્રકારે નિરૂપણ સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જગ્યુ તે કાલે તે સમયે રાજગુડ નામે નગર હતુ તે નગરમાં ગુણશિલક ત્ય હં તે નામ હજીર સ્વામી પધાર્યા પરિપદ તેમનાં દર્શન માટે નીકળી: તે કાલ તે સમયે બહુવિકાદેવી ધ કલપના બહપુત્રિક વિમાનમાં સુધર્માસભાના અંદર બહુ પુત્રિક સિંહાસન પર ચાર હજાર સામનક દેવીઓ તથા ચાર મહત્તષ્કિાએ =સમાન વિભવવાળી કુમારિઓથી, જેનુ વચન ઉલઘન ન કરી શકાય એવી પ્રનતમ या ७१ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ मुन्दरवीधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीणवर्णनम् भुञ्जाना विहरति, इमे च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयन्ती २ पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं यथामूर्याभो यावद् नमस्यित्वा सिंहासनवरे पौरस्त्याऽभिमुखी संनिपणा। आभियोगा यथा मर्याभस्य सुस्वरा घण्टा आभियोगिक देवं शब्दयति यानविमानं योजनसहस्रदिस्तीर्ण, यानविमानवणेकः, यावत् उत्तरीयेण निर्याणमार्गेणे योजनसास्त्रिकैः विग्रहैरागता यथा मुर्यामः । धर्मकथा समाप्ता । ततः खलु सा बहुपुत्रिकादेवी वचन उल्लञ्चित नहीं किया जा सकता एसी, प्रधानतम चार दिशा कुमारिकाओंसे परिवृत सूर्याभदेवके समान गीतरादित्रादि नानाविध दिव्य भोगोंको भोगती हुई विचर रही है, और वह इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीपको विशाल अवधिज्ञानसे उपयोगपूर्वक देखती हई राजगृह में समवमृत भगवान महावीर स्वामी को देखती है। और उनको देखकर सूर्याभदेवके समान यावत् नमस्कार करके अपने श्रेष्ठ सिंहासनपर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठी । सूर्याभदेवके समान आभियोगिक (भृत्य) देवको बुलवाकर उमने सुस्वरा घण्टा बजानेकी आज्ञा दी । अनन्तर सुस्वरा घण्टा बजवाकर भगवान महावीर के दर्शन करनेको जाने के लिए सभी देवताओंको सूचित किया । उसका यानविमान हजार योजन विस्तीर्ण था साढे बासठ योजन उँचा था। उममें लगा हुआ महेन्द्रध्वज पञ्चील योजन उचा था। अन्तमें वह बहुपुत्रिका देवी यावत् उत्तर दिशाके मार्गसे सूर्याभ देवके समान हजार योजनका वैक्रयिक शरीर बनाकर उतरी। बाद में भगवानके ચારે દિશા કુમારીઓ સહિત સૂર્યાભદેવ સમાન ગીત વાદિત્ર આદિ નાના વિધ દિવ્ય ભેગેને ભગવતી વિચરણ કરતી હતી અને તે આ સંપૂર્ણ જમ્બુદ્વીપને વિશાલ અવધિજ્ઞાન વડે ઉપગપૂર્વક જોતી જોતી રાજગૃહમાં પધારેલ ભગવાન મહાવીર મામીને જુએ છે, તેમને જોઈને સૂ દેવની પેઠે યાવત્ નમસ્કાર કરીને પિત ના શ્રેષ્ઠ સિંહાસન ઉપર પૂર્વ દિશાની તરફ મોઢું રાખીને બેઠી સૂર્યાભદેવની પઠે જ આભિગિક (ભૂ) દેવને બોલાવીને તેણે સુસ્વરા ઘટા વગાડવાની આજ્ઞા આપી પછી સુવરા ઘટા ગગડીને ભગવાન મહાવીરના દર્શન કરવા જવા માટે સર્વ દેવતાઓને સૂચના આપી તેનું યાન વિમાન હજાર એજનના વિસ્તારવાળુ હતુ. સાડા બાસઠ યેજન ઊચુ હતું, તેમા ચડાવેલે મહેન્દ્રવજ પચીસ જેન ઊ ચે હતે. -ઇવટે તે બહુપુત્રિ દેવી યાવત્ ઉત્તર દિશાનાં માર્ગથી સૂર્યાભદેવની પેઠે હાર એજનનું વિકયિક શરીર બનાવીને ઉતરી પછી શિંગવાનની પાસે આવી અને ધકથા સાંભળી. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ २६ . . . . . . . . - निरयावलिकामत्रे दक्षिणं भुनं प्रसारयति देवकुमाराणामष्टगतम्, देवकुमारिकागां च वामतो भुनतोऽष्टशतम्, तदनन्तरं च खलु बहून् दारकाँश्च दारिकाश्च डिम्भकाँश्च डिम्झिकाश्च विकुरुते, नाट्यविधि यथा मूर्याभः, उपदर्य प्रतिगता । भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, क्रूटागार शाला० । बहुपुत्रिकया खलु भदन्त ! देव्या सा दिया देवर्द्धिः, पृच्छा यावत् भिसमन्वागता ।। १ ।। समीप आई, और धर्मकथा सुनी। उसके बाद वह बहुपुत्रिका देवो अपनी दाहिनी भुजाको फैलाती है। और उससे एक सौ आठ देवकुमारोंको निकालती है । फिर दायों भुजाको फैलाती है, उससे एकसौ आठ देवकुमारियोंको निकालती है । उसके बाद बहुतसे दारक दारिका-बडी उमरवाले बच्चेबच्चियों को तथा डिम्भक डिम्भिका अल्प उमरवाले बच्चेबचियोंको अपनी वैक्रयिक शक्तिसे बनाती है। और सूर्याभदेवके समान नाट्यविधि दिखाकर चली जाती है। उसके जानेके बाद भगवान् गौतमने 'हे भवन्त' हम प्रकार सम्बोधन कर भगवान् महावीरको चन्दन और नमस्कार किया और पूछा की-हे भगवन् ! इस बहुपुत्रिका देव की दिव्य ऋद्धि दिव्य शुति और दिव्य देवानुभाव कहा गया और किसमें समा गया ! भगवानने कहा हे गौतम ! वह देवऋद्धि उसीके शरीरसे निकली और उसीमें विलीन हो गयी । ત્યાર પછી તે બહપુત્રિક દેવી પિતાની જમણી ભુજા" (હાથ) ને ફેલાવે છે અને તેમાંથી એકસો આઠદેવકુમારેને કઢે છે પછી ડાબી ભુજાને ફેલાવે છે તેમાંથી એક આઠ દે કુમારિઓ.ને કાઢે છે પણ ઘણે દારક અને દારિકાઓ (મેંટી ઉમરવાળા કરા છોકરીઓ) તથા ભિક ડિમિકા (નાના બાળકો અને બાલિકાઓ) ને પિતાની કયક શક્તિથી બનાવે છે અને સુભદેવની પેઠે નાટયવિધિ બતાવીને ચાલી જાય છે તેના ગયા પછી ભગવાન ગૌતમે “ભદન્ત” એવું સ બેધન કરી ભગવાન મહાવીરને વદન તથા નાકાર કર્યા અને પૂછયું કે હે ભગવન્! આ બહુપુત્રિકાદેવીની દિવ્ય ત્રિદ્ધિ અને દિય, ધુતિ તથા દિવ્ય દેવાનુભાવ કયા ગયા અને શમા સમાઈ ગયા? नावाने - . - ... Man'त विधि तना शरीरथी न मन त qिelhes.ite Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २६१ टीका-जइणं भने ' इत्यादि-महत्तरिकाभिः प्रधानतमाभिः तुल्यविभत्रादि कुमारिकाणामनतिक्रमणीयवचनाभिः दिशाकुमारिकाभिः, उनरीयेण-उत्तरदिग्भवेन, विग्रहै। शरीरैः, देवकुमाराणाम् देवानां सुराणां कुमाराःबहारकालिकाः पुत्राः तेषाम् । दारकान-बहु कालिकान् वालकान, दारिकाम्बालिकाः, पुत्राः तेषाम् । दारकान् बहु कालिकान् वालकान, दारिकाः बालिकाः, डिम्भान् अल्पकालिकान् वाल कान् , शेपं निगरसिद्धम् ।। ___ एतया 'दिव्या देविडो पुन्छे' त्ति, 'किंणा नद्धा' केन - हेतुनोपार्जिता ? 'किण्णा पत्ता'-केन हेतुना प्राप्ता-वायत्तीकृता ? 'किणा अभिसमनागया' स्वायत्तीकृताऽपि केन हेतुनाऽऽभिमुख्येन सांगन्येन च उपार्जनस्य पश्चाद भोग्यतामुपगतेति ? ॥ १ ॥ गौतम स्वामीने पूछा-- हे भगवन् ! वह विशाल देवऋद्धि उसमें कैसे विलीन हो गयी? भगवानने कहा-- हे गौतम ! जिस प्रकार किसी उत्मव आदिके कारण फैला हुआ जन समूह वर्मा आदि के कारण पर्वत शिग्वरके समान उचा और विशाल घरमें समा जाता है, उसी प्रकार ये देवकुमार और देवकुमारिया आदि देवऋद्धि बहुपुत्रिकाके शरीरमें अन्तर्हिन हो गयीं। गौतमने फिर पूछा-- हे भदन्त ! इस बहुपुत्रिकादेवीको इस प्रकारकी दिव्य देवऋद्धि किस प्रकार मिली ? और किस प्रकार उसको प्राप्त हुई ? और किस पुण्यसे उपभोगमें आई है ? और उन ऋद्वियोंके भोगनेमें कैसे समर्थ हुई ? ॥ १ ॥ जौनमे पूयु - હે ભગવન્! તે વિશાળ દેવઋદ્ધિ તેમા કેવી રીતે વિલીન થઈ ગઈ? *, ત્યારે ભગવાન કહે છે – હે ગૌતમ! જેવી રીતે ઉત્સવ પ્રસંગે એકઠા થયેલે જનસમૂહ વસાદ વગેરેના કારણથી પર્વત શિખરન પિઠે ઊી ચા અને વિશાલ ઘટ માં સમાઈ જાય છે તેજ પ્રકારે આ દેવકુમાર અને દેવકુમારીઓ વગેરે દેવદ્ધિ પુત્રિકાના શરીરમાં અનતિ -थ 5. गौतम ५७यु:43 महन्त मा.वि देवाने माता यि દેવાદ્ધિ કેવી રીતે મલી? અને કેવી રીતે પ્રાપ્ત થઈ અને કેવા પુલથી તેના भी यानी छ ? जात, हिसाने गयामापाशत (1) ८- ८ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६३ .. - निरयावलिकाम्ने एवं पृष्टे सति भगवानाह-एवं खल्लु' इत्यादि । मूलम्-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ वाणारसी नामं नयरी, अंवसालवणे चेइए । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए भद्दे नामं सत्थवाहे होत्था, अड्डे अपरिभूए । तस्त णं भदस्त य सुभदा नासं भारिया सुकुमाल. वंझा अवियाउरी जाणु:कोप्परमाता यावि होत्था। तए थे तीसे सुभदाए सत्यवाहीए अन्नया कयाई पुवरत्ताररत्तकाले कुडुंवजागरियं जागरमाणीए इमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्था-एवं खलु अहं मण सत्थवाहेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाइं मुंजमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ जाव सुलद्धे णं तार्सि अभ्मगाणं मणुयजम्मजीवियफले, जासिं मन्ने नियकुच्छिसंभूयगाइं थणदुद्धलद्रगाइं महुरसमुल्लावगाणि मंजुल (मम्मण) प्पजंपियाणि थणमूलकखदेसभागं अभिसरमाणगाणि पण्हयंति, पुणो य कोमलकमलो चमेहिं हत्थेहिं गिहिऊणं उच्छंगनिवेसियाणि देति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मण (मंजुल) प्पभणिए अहं णं अधण्णा अपुषणा अकयपुण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता ओहय० जाव झियाइ । तेणं, कालेणं २ सुव्वयाओ णं अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमियाओ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्रावणासमियाओ मणुगुत्तीओ वयगुत्तीओं कायगुत्तीओ गुतिदियाओ गुत्तभयारिणीओं Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहु त्रिकादेवीर्णनम् २६३ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुवाणुपुचि चरमाणीओ गामाणुगामं दूइज्जमाणीओ जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिपिहत्ताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमागीओ विहरति । तएणं तासि सुबयाणं अन्नाणं एगे संघाडए वाणारसीनयरोए उच्चनीयमज्झिमाइंकुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भइस्स सत्थवाहस्स गिहं अणुपविटे । ___तएणं सुभदा सत्थवाही तओ अजाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्ट जाब विप्पामेव आसणाओ अब्भुटेइ अब्भुट्टित्ता सत्तट्रपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विउलेण असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता एवं वयासी-एव खलु अहं अजाओ ! भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाइ भुजमाणी विहरामि, लो चेव गं अहं दारगं दारियं वा पयामि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ जाव एत्तो एगमवि न पत्ता, तं तुब्भे अज्जाओ ! बहुणायाओं बहुपढियाओ वहूणि गामागरनगर० जाव सपिणवेसाई आहिंडह, बहणं राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभिईणं गिहाई अणुपविसह, अस्थि से केइ कहिं चि विजापओए वा मंतप्पओए वा वमणं वा विरेयणं वा वत्थिकम्मं वा ओसहे 'वा भेसज्जे वा उबलद्धे, जेणं अहं दारगं वा दारियं वा पयाएंजा ॥ २ ॥ ...10 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : निरयोलिकामुत्रे छाया - एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसी नाम नगरी, आम्रशालवनं चैत्यम् । तत्र खलु वाराणस्यां नगर्यो भद्रो नाम सार्थवाहमवत्, आढोऽपरिभूतः । तस्य खलु भद्रस्य च सुभद्रा नाम मार्या सुकुमारवाणिपादा बन्या अविजनयित्री जानुकूर्परमाता चापि अभवत् । ततः खलु तस्याः सुभद्रायाः सार्थवाहिकायाः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले कुटुम्वनागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्वयी यावत् संकल्पः समुदपद्यत एवं ग्खन्छु अहं भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्धं विपुलान भोग भोगान खाना हरामि, नो चैत्र खलु अहं दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि, तद् धन्याः खलु ताः अम्बिकाः (मान) यावत् गुलब्धं खलु तासाम् अम्बिकानां (मातृणां ) मनुजजन्मजीवितफल. यांनां मन्ये निजकुक्षिसंभूतकाः स्तनदुग्धलुञ्चकाः मधुरसमुल्लापकाः मञ्जुल (मम्मण) मजल्पिताः स्तनमूलकक्ष देशमागम् अभिसरन्तः प्रस्नुवन्ति । पुनच कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिवेसिताः ( सन्तः ) ददति समुछ| कान मृमधुरान् पुनः पुनर्मम्मण (मञ्जुल ) ममणितान्, अहं खलु अधन्या अपुण्या अकृतपुण्या ( अस्मि यदहं ) एततः (एतेषां मध्यात्) एकमपि न प्राप्ता । ( एवं) अपहृतमनः - संकल्पा यावत् ध्यायति । तस्मिन् काले २ मुव्रताः खलु आर्याः ईर्यासमिताः, भाषासमिताः, एपणासमिताः, आदानभाण्डामंत्रनिक्षेपणासमिताः, उच्चारस्रवण श्लेष्ममलसिंघा णपरिष्ठापनासमिताः, मनोगुप्तिकाः, बचोगुप्तिकाः कायगुप्तिकाः, गुपेन्द्रियाः, गुप्तबह्मचारिण्यः, बहुश्रुताः, बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्व चरन्त्यः ग्रामानुग्रामं द्रवन्त्यः यत्र वाराणसी नगरी नत्रत्रोपागताः, उपागत्य यथामतिरूपम् अवग्रहम् अत्र गृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्त्यो विहरन्ति || २६४ ततः खलु तासां सुव्रतानामार्याणाम् एकः सङ्घाटको वाराणसीनगर्या उच्चनीचमध्यमानि कुलानि गृहसमुहानस्य भिक्षाचर्या अन् भद्रम्य सार्थवा हस्य ग्रहमनुप्रविष्टः । ततः खलु सुभद्रा मार्थ ॥हिका ता आर्गः एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा हृष्ट यावत् क्षिममेत्र आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगत्य वन्दते नमस्यति, वन्धित्वा नमस्त्विा विलेन अशनपानखाद्यस्त्राचेन प्रतिलम्भ्य एवमवादीत् एवं खलु अम् आर्गः ! भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान भुञ्जाना विहरामि नो चेत्र खलु अहं दाकं दारिकां वा प्रजनयामि, तद् धन्याः खलु ताः अम्बिकाः ( मातरः ) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी दीका, वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् १२६९ यावत्-एततः एकमपि न प्राप्ता, तद् यूयम् आर्याः ! बहुज्ञायः बहुपठिताः -बहून् ग्रामाऽऽकरनगर० यावत् सन्निवेशान् आहिण्डध्वे बईनां राजेश्वरतल. वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतीनां गृहान् अनुप्रविशथ, अम्ति स कश्चित् क्वचित् .. विद्याप्रयोगो वा मन्त्रप्रयोगो वा वमनं वा विरेचनं वा वस्तिकर्म वा औषध वा भैषज्यं वा उपलब्धं येनाहं दारकं वा दारिका वा प्रजनयामि ॥२॥ टीका-' एवं खलु गोयमा' इत्यादि-हे गौतम ! एवं खलु तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'वाराणसी' नास नगरी 'आम्रशालयनं' चैत्यं चासीत् तत्र वाराणस्यां नगर्या खलु भद्रो नाम सार्थवाहोऽभूत् आढयः अपरिभूतः, एतद्व्याख्या मागेवोक्ता। तस्य खलु भद्रस्य च सुभद्रा नाम भार्या सुकुमार'पाणिपादा० बन्ध्या अविजनयित्री-पुत्रादिकानामप्रसवशीला, अत एव 'जानु-क्रपरमाता-जानुपराणामेव माता-जननी या सा तथा, यद्वा-जानुकूर्पराण्येव मत्वपत्यं मिमते-पृशन्ति तन्याः स्तनौ इति,' अथवा 'जानुपरमात्रेतिच्छाया ऐसे पूछनेपर भगवान कहते हैं- . - 'एव - खलु' इत्यादि-. - ... . हे गौतम ! उम काल उस समयमें वाराणसी नामकी नगरी थी। उस वाराणसी नामकी नगरी में आशालबन नामक उद्यान था। उस नगरीने भद्र नामका सार्थवाह रहना था जो धनधान्यादिसे समृद्ध और दूसरोंले अपरिभूत था । उस भद्र सार्थवाहकी पत्नीका नाम सुभद्रा था, जो सुकुमार हाथ पैर वाली थी। परन्तु वह बन्ध्या थी। अतएव उसने एक भी सन्तानको जन्म नहीं दिया था । केवल जानु और कूपरकी माता थी ।, यहा "जानुकूपरमाना" का यह भी अर्थ होता है जिसके स्तनोंको केवल घुटने और कोहनिया स्पर्श . गो1 स्वाभाय मावा प्रश्नी पूजवाथी मावान यु - , . , , एवं खलु ' त्यादि ક હે ગતમ! તે કાલ તે સમયે વારાણસી નમે નગરી હતી તે વારાણસી નગરીમાં આમ્રશાલવન નામને ઉધાન, (બાગ) હતા તે નગરીમાં ભદ્ર નામને સાર્થવાહ રહેતા હતા કે જે ધનધાન્યાદિથી સમૃદ્ધ અને બીજાઓથી અપરિભૂત (અજીત) હતો તે ભદ્ર સાથે વાહન સ્ત્રીનું નામ સુભદ્રા હતું. જે સુકુમાર હાથપગવાળી હતી પરંતુ ત વાણી હતી એટલે તેણે એક પણ સંતાનને જન્મ આપ્યું નહતો કેવળ જાનુ અને ફુરની માતા હતી. અહી “જાનુકૂપરમાતા” ને એ અર્થ થાય છે કે જેના સ્તનને કેવળ ३४ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ निरयावलिका सूत्रे जानुकूपराण्येव मात्रा परिकरः क्रोडनिवेशनीयः परकीय-पुत्रादिसहायतासमर्थरूपो यस्याः न तु स्त्रपुत्रलक्षण उत्सङ्गनिवेशनीयः परिकरः, इंति जानुपरमात्रा च अपि अभवत् । ततः तदनन्तरं तस्याः पूर्वोक्तायाः खलु सुभद्रायाः सार्थवाहिकायाः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रिपूर्वपरभागसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्याः कुटुम्बाथै जागरणां कुर्वत्याः अयमेतद्रूपा वक्ष्यमाणलक्षणः ' यावत् ' शब्देन आध्यात्मिकः, चिन्तितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-जातः, आध्यात्मिकादिसंकल्पान्तानां पदानां व्याख्या प्रागेव कृता । मुभद्रायाः संकल्पस्वरूपमाह-' एवं खल्वि' त्यादिना-अहं-सुभद्रा सार्थवाहिका भद्रेण-तन्नामकेन सार्थवाहेन स्वपतिना साई-सह विपुलान् बहुन् भोगभोगान् शब्दादीन् विपयान भुञ्जाना विहरामि, किन्तु नो चैव खलु अहं दारकं-पुत्रं दारिकां-कन्यां वा प्रजनयामि-प्रमये, तत्-तस्मात् हेतोः खलु ताः अम्बिकाः मातरो धन्याः धनं प्रशंसारूपमर्हन्तीति धन्याः कृतार्थाः, यावच्छन्डेन-पुण्याः, करती थी, नकि सन्तान । अथवा यहा " जानुकूपरमात्रा' यह भी छाया होती है । इसका अर्थ होता है-जिसके जानु और कूपर अर्थात् गोदी और हाथ दूसरोंके पुत्रोंके लाड प्यारमें ही समर्थ थे, नकि अपने पुत्रोंके लाड प्यारमें । क्योंकि उसको अपनी कोई सन्तान नहीं थी। उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सुभद्रा सार्थवाहीके हृदयमें यह इस प्रकारका आध्यात्मिक, चिन्तत प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि-मैं भद्रसार्थवाहक साथ अनेक प्रकारके शब्दादि विपुल भोगोंको भोगती हुई विचरण कर रही हूँ। पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई । वे माताए ગોઠણ અને કેણુઓ જ પશ કરતી હતી નહિ કે સન્તાન. અથવા અહીં “જાનુપરમાત્રા” એવી પણ છાયા થાય છે–એનો અર્થ એવો થાય છે કે જેના જાનુ અને ફૂપે એટલે ખળે અને હાથ બીજાના પુત્રોને લાડ પ્યારમાંજ સમર્થ હતા; નહિ કે પિતાના પુત્રને લાડ પ્યારમાં. કારણ કે તેને પોતાનું સંતાન નહોતું. ત્યાર પછી એક વખત પાછલી રાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતા તે સુભદ્રા સાથે વાહીના હૃદયમાં આ એક એવા પ્રકારનો આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, પ્રાર્થિત, અને મને ગત સંક૯૫ ઉત્પન્ન થયે કે હુ ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે અનેક પ્રકારના શબ્દ આદિ વિપુલ ભેગેને ભગવતી વિચરૂં છુ પણ આજ સુધી મને એક પણ સતાન થયુ નથી તે Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २६७० कृतपुण्याः, कृतलक्षणाः, इत्येषां सङ्ग्रहो विधेयः, तत्र पुण्याः पवित्राः कृतपुण्याः विहितसुकृताः, कृतलक्षणाः सफलीकृतलक्षणाः, पुनस्तासाम् अम्बिकानां: मातृणां मनुजजन्म, जीवितफलम् जीवनफलम् च सुलब्धं सम्यक्माप्तम् सफलमिति यावत् मन्ये स्वीकुर्वे, यासां मातृणां निजकुक्षिसम्भूताः स्वकीयोदरजाताः शिशवः, अत्र सूत्रे नपुंसकत्वं प्राकृतत्वात् । स्तनदुग्धलुब्धकाः स्तनयोर्दुग्धं तस्मिन् लुब्धा-प्रसक्ताः त एव लुब्धकाः मधुरसमुल्लापकाः मधुरा:- श्रवणरमणीयाः समुल्लापा-सम्यगुच्चैः- शब्दाः येषां ते तथा, मञ्जुल (मम्मण) प्रजल्पिता:मञ्जुलं रुचिरं हृदयस्पृहणीयमिति यावत् , प्रजल्पितं (मा-मा प्रभृति ) शब्दोच्चारणं येषां ते तथा, स्तनमूलकक्षदेशभागम् स्तनयोर्मूलम् स्तनमूलम् तस्मात् कक्षावेव देशौ ‘वाहुमूले उभे कक्षौ' इत्यमरात , वाहुमूलप्रदेशौ तयोर्भागः-पान्तस्तम् अभिसरन्तः सम्मुखाभिसरणं कुर्वाणः प्रस्नुवन्ति-मातस्तन्यं प्रक्षारयन्तीत्यन्त वितण्यर्थः । तथा पुनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां कोमधन्य हैं, पुण्यशील हैं, उन्होंने पुण्योंका अर्जन किया है, उनका स्त्रीत्व सकल है और उन माताओंने अपने मनुष्य जन्म और जीवनका फल अच्छीतरह पाया है, जिन माताओंकी अपने उदरसे उत्पन्न, स्तनके दूधकी लोभो, कानोंको लुभानेवाली वाणीको उच्चारण करनेवाली मा ! मा !! इस हृदयस्पर्शी शब्दको बोलनेवाली, तथा स्तनमूल और कक्षके बीच भागमें अभिसरण करनेवालो सन्तान उन माताओंके स्तनोंको दूधसे परिपूर्ण करती है अर्थात् सन्तानके वात्सल्यसे माताके स्तनोमें दूधभर आता है। फिर वे सन्तान कोमल कमल सदृश हाथोंके द्वारा गोदमें बैठायी जानेपर उच्च स्वरसे उच्चारित कानीको अच्छे लगनेवाले मधुर शब्दोको सुनाकर माताओंको प्रसन्न करती है। માતાને ધન્ય છે–તે પુણ્યશીલ છે–તેમણે પુણ્ય મેળવ્યું છે તેમનું સ્વીપણુ સફળ છે અને તે માતાઓએ, પિતાને મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનુ ફળ સારી રીતે મેળવ્યું છે. કે જે માતાઓએ, પિતાના ઉદરથી ઉત્પન્ન, સ્તનના દૂધને લેભવાળા, કાનને લલચાવનારી વાણી બોલતાં. મા મા એવા હૃદય સ્પર્શી શબ્દ બોલતા તથા સ્તનમૂલ અને કાંખના વચલા ભાગમાં અભિસરણ કરવાવાલા સંતાન તે માતાઓના સ્તન દૂધથી. પરિપૂર્ણ કરે છે. અર્થાત્ સંતાનના સ્નેહથી માતાના સ્તનમાં દૂધ ભરાઈ જાય છે. પછી તે સ તાન કેમળ કમળના જેવા હાથ વડે ખોળામાં બેસાડવામાં આવે ત્યારે ઉચા સ્વરથી બલીને કાનને સારું લાગે એવા મધુર શબ્દને સાંભળીને માતાઓને પ્રસન્ન કરે છે. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ Frm निरयाबालकामत्र' लपङ्कजसदृशाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिवेशिताः उत्सङ्गः क्रोडः (अङ्क) तत्र निवेशिताः स्थापिताः मन्तः समुल्लापकान-सम्यगुच्चैः शब्दान् मुमधुरान पुनः पुनः भूयो भूयः मम्मण ( मजुल) प्रमणितान-मा मा इति श्रवणरमणीयमापितान् ददनि मातृपभृतिश्रवणाय वितरन्ति तादृशान शब्दान कुर्वन्तीति भागः। अहं-मुभद्रा खलु = निश्रयन अधन्या, अपुण्या-अपवित्रा यद्वा एनस्मिन् जन्मनि पुण्यरहिता, अकृतपुण्या असश्चितमुकता पूर्वजन्मन्यपि अस__ म्यादितदानादिसुम कलापेति तात्पर्यम् , अस्मि , यद् एततः एतन्मव्यात् पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानां पुत्राणां मध्यात् एकमपि सन्तानं न प्राप्तान लब्ध वत्ती, इत्येवं प्रकारेण अपहनमनःसंकल्पा-विनष्टमनोऽभिलपितकामना यावत्' __ शब्देन अधोमुबीत्यादीनां · प्रागुक्तानां सग्रहो बाध्यः, ध्यायति आर्तध्यानं . मैं भाग्यहीन हूँ, पुण्यहीन है और मैने पूर्वजन्ममें कभी पुण्यापार्जन नहीं किया इसी लिये इनौसे सन्तान सम्बन्धी एक भी सुखको न पामकी क्योंकी मुझे एक भी संतान नहीं हुई। इस प्रकार सोच-विचार करती हुई वह अत्यन्त दीन तथा मलीन हो नीचा लुग्न करके आनध्यान करने लगी। उस काल उस समय में ईसिमिति, मापासमिति, एपणासमिति तथा आदान, भाण्ड और अमत्रके निक्षेपणाकी ममिति, और उच्चा प्रस्रवण-लेम-सिद्धाग-परिष्ठापना ममिति, इन समितियोसे तथा मनोगुप्ति, वचोगुप्ति और कायगुप्ति, इन तीनो गुप्तियोंले युक्त, इन्द्रियों को दमन करनेवाली, गुसब्रह्मचारिणी, बहुश्रुता बहुत शास्त्रांका जाननेवाली, और बहुत परिका से मुक्त, सुव्रता नामकी आर्याएँ, २.हीन छु- एयहीन -गने में माधुरयन SM નથી કયું તેથી તે તન ન બધી આ સુખેમાંનુ એક પગ સુખ મેળવી શકી નથી કેમકે મને એક પણ અતાન થયું, “થી આ પ્રકારે સેય વિચાર કરતી તે- અન્ય ન દીન તથા ગલીન થઈ નીચે મુખ કરી આર્તધ્યાન કરવા લાગી , ., तसत समये यास भात, ममिति, पाण। समिति, नया माना અને અસત્રની નિક્ષેપ ગાની સમિતિ તથા ઉ ચારણપ્રન્સ પણ, લીન સિઘાણ પરિડાની સમિતિ આ બધી સમિતિએ થી તથા મથુ, વાગુપ્તિ અને કાચગુપ્તિ અ શુ મુંસૂઓથી યુકત ઈનિ દમન કરવાવાળા, શ્રેષ્ઠ બ્રહ્મચારિણી, બહુશ્રુતા= જવાવાળી અને બહુ પથિી યુકત, સુત્રતા નામની અર્ધાઓ, તીર્થ કપ૪પાણી Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरवोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् .. २६९ करोति । सुव्रताःतन्नामिका आर्थिकाः । 'सङ्घाटकः साध्वी समूहः, गृहस मुदानस्य-गृहेपु-अने केषु गेहेषु समुदान-भिक्षाटनं, गृहसमुदानम् अनेकगृहगृहीतं भैक्षं तस्य तथा, शेपं सुगमम् ।। २ ।।। तीर्थडुर परम्परासे विचरण करती हुई ग्रामानुग्राम विहार करती हुई वाराणसी नगरी में आयी । वहाँ आकर कल्पानुसार अवग्रह आज्ञा लेकर उपाश्रयमें उरी और लयम लपके द्वारा अपनी आत्माको भावित करती हुई विचरने लगी। उमके शद उन सुब्रता आर्याओंका एक मंबाडा वाराणसी नगरीके उच्च नीच मध्यम'कुलोमें गृहसनुदानी भिक्षा (अनेक घरोंसे लीजानेवाली भिक्षा ) के लिये फिरना हुआ भद्रासार्थवाहके घर में आया । उसके बाद सुभद्रा सार्थवाही आतो हुई उन आर्याओंको देखा और उनको देखकर उनका हृदय हृष्ट और तुष्ट हो गया, और विनयके लिये शीघ्र ही आसनके उठी । उठकर सात आठ पग सामने गई ।सामने जाकर उनको वन्दन नमस्कार किया । बाद, विपुल अशन पान खाद्य स्वायका प्रतिलाभ कराकर इस प्रकार बोली. हे देवानुप्रिये ! मैं भद्रसार्थवाह के साथ अनेक प्रकार के विपुल भोगोंको भोगती हुई विचरती हूँ । परन्तु आज तक मेरे एक भी मेन्तान नहीं हुई । वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशीला हैं उन्होंने पूर्व વિચરતી એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતી કતી વારાણસી નગરીમાં આવી અડી અંડીને કાબુમાર અવડુત્રએ જ્ઞા લઈને ઉપાશ્રયમાં ઉતરી અને મ યમ તથા તપદ્વારા પાનાના માને ભાવિત કરતી કરતી વિચરવા લાગી ' - ત્યાર પછી તે સુવ્રતા આર્યાઓનો એક સગાડે વારાણસી નગરીના ઉચ નીચ અને મધ્યમ કુલમ ગૃડ સમુદાની ભિક્ષા (અનેક ઘરમાથી લેવાની ભિક્ષા) ને માટે ફરતા ફરતા ભદ્રસાર્થવાહના ઘરમાં આવ્યું ત્યાર પછી સુભદ્રા સાર્થવાહીએ તે આર્યાને આવતી જોઈ અને તેમને જોઈને તે સાથે વાહન હૃદય હષ્ટ અને તુષ્ટ થઈ ગયું અને તેમનું સ્વાગત વિનય કરવા માટે તરત પિતાને આસનેથી ઊઠી ઊઠીને સાત આઠ પગલા સામે ગઈ. અને તેમને વદને નમસ્કાર કર્યા ત્યાર પછી વિપુલ અશન (ખાન) પાન ખાદ્ય સદ્યની પ્રતિલાભ કરવી આ પ્રકારે બોલી " હે દેવાનુપ્રયે! હ ભદ્ર સ થaહના થે, એક પ્રકાગ્ના વિપુલ ભેગ ભગવાને વિચકું છું પરંતુ અશ્વીઉં ને કે પણ સતેને થયું નથી તે माताम्मान -शानभय पान यु छ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७० ..... . . . . . . निरयावलिकासूत्रे जन्ममें पुण्य उपार्जन किया है और उन माताओंने ही अपने मनुष्य जन्म और जीवनका फल अच्छी तरह पाया है. जिन माताओंकी अपने उदरसे उत्पन्न, स्तनके दूधकी लोभी, कानोको लुभानेवाली वाणीको उच्चारण करनेवाली, मा ! मा !! इस हृदयस्पर्शी शब्दको बोलनेवाली, तथा स्तन मूल और कक्षके बीच भागमें अभिसरण करनेवाली सन्तान, उन माताओंके स्तनोंको दूधसे परिपूर्ण करती है फिर वे कोमल कमल सदृश हाथोंके द्वारा गोदीमें बैठाये जानेपर उच्च स्वरोंसे उच्चारित, कानोंको अच्छे लगनेवाले, मधुर शब्दोंको बोलकर माताओंको प्रसन्न करती है। मै भाग्यहीन हूं, पुण्यदीन हूँ, मैंने कभी पुण्याचरण नहीं किया इसी लिये इन सभी सुखोमेसे एक भी सुखको न पा सको । क्यों कि मुझे एक भी संतान नही हुई। हे देवानुप्रियों ! आप लोग बहुन ज्ञानवाली हैं, बहुतसी वातीको जानती हैं और बहुतसे ग्राम नगर यावत् सन्निवेशोमे वि. चरती है बहुतसे राजा, ईश्वर, तलवर आदिसे लेकर सार्थवाहोंके घरोंमें भिक्षार्थ आपका जाना होता है । क्या कहीं कोई विद्याप्रयोग वा मंत्र प्रयोग, वमन अथवा विरेचन, वस्तिकर्म वा औषध અને તે માતાઓએ જ પિતાના મનુષ્યજન્મ અને જીવનનું ફળ સારી રીતે મેળવ્યું છે કે જે માતાઓના પિતાના ઉદરથી ઉત્પન્ન, સ્તનના દૂધ માટે લેભી કાનોને લલચાવનારી વાણી બોલતા, માં–મા એવા હદયપશી શબ્દને બેલવાવાળા તથા રતનમૂલ અને કુખની વચલા ભાગમાં અભિસરણ કરવાવાળા સતાન તે માતાઓના સ્તનોને દૂધથી પરિપૂર્ણ કરે છે. વળી તે કેમલ કમળ જેવા હાથ વડે મેળામાં બેસાડતાં ઉચા સ્વરથી બેલી કાનને સારું લાગે તેવા મધુર શબ્દો બોલીને માતાઓને પ્રસન્ન કરે છે હું ભાગ્યહીન છું, પુણ્યહીન છુ મે કદી પુણ્યનું આચરણ કર્યું નથી. તેથી આવા પ્રકારના સુખમાથી હુ એક પણ સુખને મેળવી શકી નહિ કેમકે મને એક પણ સ તાન થયું નથી હે દેવાનુપ્રિયે ! આપ લેક બહુ જ્ઞાવાળાં છો ઘણીએ વાતને જાણે છેઅને ઘણા ગામ નગર યાવત્ સન્નિવેશમાં વિચરે છે. ઘણુ ઘણા રાજા, ઇશ્વર, તલવર આદિથી માંડીને સાર્થોવાહના ઘરમાં ભિક્ષાર્થ આપને જાવાનુ પણ થાય છે. તે શુ કયાંય કોઈ વિદ્યાપ્રયોગ અથવા માત્રપ્રયાગ, વમન અથવા વિરેચન, બસ્તિકર્મ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दपोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २७१ मूलम्-तएणं ताओ अजाओ सुभदं सत्थवाहिं एवं वयासी -अम्हे णं देहाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयमदं कण्णेहि वि णिसामित्तए, किमंग ! पुण उदिसित्तए वा समायरित्तए वा, अम्हे णं देवाणुप्पिये ! णवरं तव विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेमो। तए णं सुभद्दा सत्थवाही तासिं अजाणं अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट्टतुट्टा ताओ अज्जाओ तिखुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामिणं अजाओ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामिणं रोएमिणं अजाओ ! निग्गथं पावयणं ! एवमेयं, तहमेयं, अवितहमेयं, जाव सावगधम्म पडिवज्जए। अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पढिबंधं करेह । तएणं सा सुभद्दा सत्थवाही तासिं अजाणं अंतिए जाव पडिवजइ, पडिवजित्ता ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ पडिविसजइ । तएणं सुभदा सत्थवाही समणोवासिया जाया जाव विहरइ । तएणं तीसे सुभदाए समणोवासियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमए कुडंबजागरियं जागरमाणीए समाणीए अयमेयारूवे अन्झिथिए जाव संकप्पे समुपजित्था-एवं खल्लु अहं भद्दणं सत्थवाहेण सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुञ्जमाणी जाव विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारिंगं वा पयामि, अथवा भैषज्य आपको मिला है ? जिससे मेरे लडका या लडकी हो सके ॥ २ ॥ કે ઔષધ અથવા ભેષજ્ય તમને મળ્યું છે? જેથી મને પુત્ર કે પુત્રી થઈ શકે? (૨) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... .. - निरयावलिकामत्रे तं सेयं खलु ममं कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंते भद्दस्स आपुच्छिन्ता सुबयाणं अजाणं अंतिए अज्जा भवित्ता अगाराओ जाब पव्वइत्तए, एवं संपेहेइ, संपेहिता, कल्ले जेणेव भद्दे सत्थवाहे तेणेव उवागया, करतल-जाव एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुमहिं सद्धिं वहुई वासाइं विउलाइ भोगभोगाई भुंजमाणी जाब विहरामि, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि; तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहि अभYण्णाया समाणी- सुव्वयाणं अजाणं जाव पवइत्तए । तएणं से भद्दे सत्थवाहे सुभई सत्थवाही एवं वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया ! इदाणिं मुंडा जाब पचयाहि, भुजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं विउलाइ भोगभोगाई, ततो पच्छा मुत्तभोइ सुबयाणं अज्जाणं जाव पचयाहि । तए णं सुभद्दा सत्थवाही भद्दस्स० एयम नो आढाइ नो परिजागई दोचं पि तच्चपि भद्दा सत्थवाही एवं वयाप्ती-इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहिं अभणुन्नाया समाणी जाव पठइत्तए । तए पां से भद्दे सत्थवाहे जाहे नो संचाएइ बहूहिं आधयणाहिय एवं पन्नत्रणाय सन्नवणाहिय विष्णवणाहिय आघवित्तए वा जाव- विषणवित्तए वा ताहे अकामएं चेव सुभदाए निखमणं अणुमगित्था ॥ ३ ॥ छाया-ततः खलु ता आर्यिकाः सुमद्रां सार्थवाहीमेचमवादिपु:-वयं स्खलु देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निम्रन्थ्य ई-समिता यावत् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २७३ at a hea अस्माकम् एतमर्थं कर्णाभ्यामपि निशामयितुं किमङ्ग ! पुनरुपदेष्टुं वा सनाचरितुं वा वयं खलु देवानुप्रिये ! नवरं तव विचित्रं केवलप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयामः । ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा ता आर्यान्विो वन्दते नमस्यति वन्दिस्य नमस्त्विा एवमवादीत्श्रवामि खलु आर्याः ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं, प्रत्येमि खलु, रोचयामि ग्ल आर्या ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् एवमेतत्, तथ्यमेतत्, अवितथमेतत यावत् श्रावक ' तरणं ताओ' इत्यादि उसके बाद वह साध्वी उस सुभद्रा सार्थवाहीसे इस प्रकार बोली हे देवानुप्रिये ! हम लोग ईर्यासमिति आदि समितियों से तथा तीन गुप्तियोंसे युक्त, इन्द्रियको वशमें रखनेवाली गुप्तबह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी है ? हमको इन बानोंका कानोंसे सुनना भी नही कलपता, तो फिर हम लोग इनका उपदेश या आचरण कैसे कर सकती हैं । हे देवानुप्रिये ! विशेष यह है कि हम लोग केवलि प्ररूपित दानशील आदि नाना प्रकारके धर्मका ही उपदेश करती हैं । उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही उन आर्याओंसे धर्म सुनकर उसे हृदयमें धारण कर हृष्ट-तुष्ट हृदयसे उनको तीनबार वन्दन और नमस्कार कर इस प्रकार बोली- हे देवानुप्रिये। मैं निग्रंथ प्रवचनपर श्रद्धा करती हूँ, विश्वास करती हूँ । निर्ग्रन्थ प्रवचनपर मेरी 9 6 'तरणं ताओ' त्याहि ત્યાાર બાદ તે સાધ્વી ( આર્યાં ) તે સુભદ્રા સા`વાહીને આ પ્રકારે ખેલી.હે દેવાનુપ્રિય । અમે લેક ઇર્ષાં સમિતિ આદિ સમિતિએથી તથા ત્ર ગુપ્તિએથી યુક્ત ઇન્દ્રિયાને વશમા રાખવાવાળી, ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી -નિગ્રંથ શ્રમણી છીએ અમાન લેકને આવી બાબત કાનેથી સાભળવી પણુ કપની નથી તે પછી તેના ઉપદેશ અથવા આચરણ કેવી રીતે કરી શકીએ ? હું દેત્રાનુપ્રિયે । વિશેષ એ છે કે અમે લેકે કેવલી પ્રરૂપિત દાન શીલ આદિ નાના પ્રકારના ધનાજ ઉપદેશ કરીએ છીએ ત્યાર અદ તે સુભદ્રારાવાહી તે આર્યાએ પાસેથી ધર્માં સાભળીને તે હૃદયમાં ધારણુ કરી હૃષ્ટ-તુષ્ટ હૃદયથી તેમને ત્રણુ વાર વદન અને નમસ્કાર કરી આ પ્રમાણે એલી હે દેવાનુપ્રિયે ! હું નિથ પ્રવચન પર શ્રદ્ધા કરૂ છુ –વિશ્વાસ કરૂ છુ. ३५ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रे धर्म प्रतिपये । यथामुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिवन्धं कुरु । ततः खलु सा मुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके यावत् प्रतिपद्यते, प्रतिपय ता आर्याः चन्दते नमस्यति प्रतिविसर्जयति । ततः खलु मुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका जाता यावद् विहरति । ततः ग्वलु तस्याः मुभद्रायाः श्रमणोपासिकाया अन्यदा कदाचित पूर्वरात्रापररात्रकाले कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या सत्याः अयमेतद्रपो यावत् समुदपद्यतएवं खलु अहं भद्रेण सार्थवाहेन साई विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना यावद् विहरामि, नोचैव खलु अहं दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि, तत् श्रेयः खलु मम कल्ये प्रादुर्गावत् चलति भद्रमापृच्छय सुव्रतानामार्याणामन्तिके आयाँ रुचि हुई है । आपने जो उपदेश दिया है वह सत्य है,-सर्वथा सत्य है, मैं यावत श्रावक धर्मको स्वीकार करती हैं। उन आर्याऑने कहा-हे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा ही करो धर्मा. चरणमें प्रमाद मत करना । उमके बाद उस सुभद्रा सार्थवाहीने उन आयाआके समीप निग्रन्थ धर्मको स्वीकार किया। अनन्तर उन आर्याओंका वन्दन और नमस्कारके साथ विसर्जन किया । उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका हो गयी, यावत् श्रावकधर्म पालती हुई विचरने लगी। उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सुभद्रा सार्थवाहीके हृदयमें इस प्रकारका आध्यात्मिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ किमें भद्र सार्थवाहके साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई यावत् विचर रही है। पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई । इसलिये मुझे उचित है कि सूर्योदय होनेपर भद्र सार्थवाहको पूछकर सुव्रता નિર્ચ થ પ્રવચન પર મને રૂચી થઈ છે આપ જે ઉપદેશ આપે છે તે સત્ય છે-સર્વથા સત્ય છે હુ યાવતું શ્રવક ધર્મને સ્વીકાર કરૂ છુ તે આર્થીઓએ કહ્યું – હે દેવાનું પ્રયે! તને જે પ્રકારે સુખ થાય તેમજ કર ધર્માચરણમાં પ્રમાદ ન કરે ત્યાર પછી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીએ આયઓની પાસે નિર્થ થ ધર્મને સ્વીકાર કર્યો ને પછી તે આર્યાએને વદન અને નમસ્કાર કરીને વિસર્જન કર્યું (વિદાય આપી). ત્યાર પછી તે સુભદ્રા સાર્થવાહી શ્રમણ ઉપાસિકા થઈ ગઈ તમામ શ્રાવકધર્મનું પાલન કરતી વિચારવા લાગી ત્યાર પછી એક સમયે પાછલી રાત્રિએ કુટુંબ વગરણ કરતી કરતી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીના હૃદયમાં આ પ્રકારનો આધ્યાત્મિકવિચાર આવ્યું કે હું ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે વિપુવ ભેગોને ભગવતી વિચરણ કરૂ છુ પણ આજ પર્યન્ત મને એક પણ સન્તાન થયું નથી આથી મને એ ગ્ય છે કે સૂર્યોદય થતાજ ભદ્ર સાર્થવાહને પૂછીને સુવ્રતા માર્યાઓની પાસે આર્થી થઈ ઘર Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २७५ भूत्वा अगाराद् यावत् प्रत्रजितुम् । एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यत्रैव भद्रः सार्थवाहस्तत्रैवोपागता, करतल-यावत् एवमवादीत्-एवं खलु अहं देवानुपियाः ! युष्माभिः सार्द्ध बहूनि वर्षाणि विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जानो यावद् विहरामि, नो चैव खलु दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि, तद् इच्छामि खलु देवानुप्रियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती सुव्रतानामार्याणामन्तिके यावत् प्रव्रजितुम् । ततः खलु स भद्रः सार्थवाहः सुभद्रां सार्थवाहीम् एवमवादीत-मा खलु त्वं देवानुपिये ! इदानीं मुण्डा यावत् प्रव्रज । भुक्ष्म तावद् देवानुप्रिये ! मया सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् ततः पश्चात् भुक्तभोगिनी सुव्रतानामार्याणामन्ति के यावत् प्रव्रज । ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही भद्रस्य० एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति द्वितीयमपि तृतीयमपि भद्रा सार्थवाही एवमवादीत्-इच्छामि आर्याओंके समीप आर्या हो घर छोडकर प्रव्रजित बनूं । ऐसा विचार कर भद्रसार्थवाहके पास आयी और हाथ जोड कर इस प्रकार बोली हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे साथ बहुत वर्षों तक विपुल भोगों को भोगती हुई विचर रही हूँ, पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई । इसलिये में चाहती हूँ कि तुमसे आज्ञा लेकर सुव्रता आर्याओके समीप दीक्षा लेकर प्रत्रजित हो जाऊँ । उसके बाद वह भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाहीसे इस प्रकार कहने लगाः हे देवानुप्रिये ! तुम अभी दीक्षा मत लो। तुम अभी संसारमें ही रहो । विपुल भोग भोगनेके बाद सुव्रता आर्याओंके समीप दीक्षा लेकर प्रव्रजित होना । भद्र सार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी उस सुभद्रा सार्थवाहीने भद्रके वचनोंका आदर नहीं બધું છોડી દઈને પ્રવ્રજીત બનું એવો વિચાર કરીને ભદ્રમાર્થવાહની પાસે આવા અને હાથ જોડી આ પ્રકારે બોલી–હે દેવાનુપ્રિય!. હું તમારી સાથે ઘણુ વર્ષે સુધી વિપુલ ભોગવિલાસ ભગવતી ફરૂ છુ પણ આજસુધી મને એક પણ સતાન નથી થયુ માટે હું ચાહું છું કે તમારી આજ્ઞા લઈ સુવ્રતા આર્યાઓની પાસે દીક્ષા લઈને પ્રવ્રજીત થઈ જાઉ ત્યાર પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ સુભદ્રા સાર્થવાહીને આ પ્રમાણે इवा ताभ्या: હે દેવાતૃપ્રિયે ! તમે હમણા દીક્ષા ન લે તમે હમણું સ સામે જ રહે. વિપુલભોગ ભેળવી લીધા પછી સુવ્રતા આર્થીઓની પાસે દીક્ષા લઈને પ્રજિત થશે ભદ્ર સાર્થવાહે આ પ્રમાણે કહેવાથી તે સુભદ્રાચાર્યવાહી એ ભદ્રના વચનો મળ્યાં Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ निरयावलिकासूत्रे खलु देवानुप्रियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती यावत् प्रत्रजितुम् । ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो या नो शक्नोति वहीमिराख्यापनाभिव एवं प्रज्ञापनाभिव संज्ञापनाभिव, विज्ञापनाभिच, आख्यापयितुम् वा, यावत् विज्ञापयितुं वा तदा अकामतश्चैव सुभद्राया निष्क्रमणमन्त्रमन्यत ॥ ३ ॥ टीका- 'तरणं ताओ' इत्यादि - रोचयामि = रुचिविपयीकरोमि, प्रतिपद्ये= अङ्गीकरोमि, भोग भोगान् - भोगाः = गब्दादयस्तेषां भोगाः = आसेवनानि तान् । आख्यापनाभिः='गृहवासः श्रेयान' इति तत्परीक्षार्थं सामान्यतः कथनैः, प्रज्ञापनाभिः मा परिव्रज' ' सयमाऽऽचरणं दुष्करम्' इतिविशेषतः कथनैः, ' सज्ञापनाभिः =मयमाऽऽराधनं भुक्तभोगावस्थायां सुकरम्' इति संबोधनामिः, विज्ञापनाभिः संयमग्रहणे तदन्तःकरणद्रढिमपरीक्षार्थं सप्रेमप्रतिपादनैः, अकामतः= संयममार्गे तां सुभद्रां निरोदधुमक्षमः सन्ननिच्छन्नपि सुभद्रायाः निष्क्रमणं= परित्रजनम् अन्त्रमन्यत=स्वीचकार । शेषं सुवोधम् ॥ ३ ॥ , किया, और न उसके वचनों पर विचार ही किया। दूसरी बार तोसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाहीने इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रिय ! तुमसे आज्ञा पाकर प्रव्रज्या लेनेकी इच्छा करती हूँ । उसके बाद वह भद्र सार्थवाह बहुत प्रकारकी 'आख्यापना' = 'घरमें रहना ही श्रेयस्कर है' इस प्रकार उसकी परीक्षाके लिये जो सामान्य कथन, तत्स्वरूप आख्यापनाओंसे एवं 'प्रज्ञापना ''तुम प्रव्रजित मत होओ, संयमका आचरण दुष्कर है ' इस प्रकार विशेष रूपसे कथन स्वरूप प्रज्ञापनाओंसे, और 'मंज्ञापना' - 'भोगोंको भोग लेनेके बाद ही संयमका आराधन सुकर है' इस प्रकारका समझना रूप संज्ञापनाओंसे, 'विज्ञापना' - संयम ग्रहणमें उसके अन्तःकरण की નડુ તેમ તેના વચને ઉપર વિચાર પશુ ન કર્યાં ખીજવા૨ ત્રીજીવાર પણ સુભદ્રાસાથ વાહીએ આ પ્રમાણે કહ્યુ:—હે દેવાનુપ્રિય ! તમારી આજ્ઞા લઇને પ્રવ્રજ્યા લેવાની ઈચ્છા હું કરૂ છુ f ત્યાર પછી તે ભદ્રસા વાહ ઘણા પ્રકારે આશ્રાપના= ધમા રહેવુ એજ શ્રયસ્ક છે” એ પ્રકારે તેની પરીક્ષાને માટે જે સામાન્ય કથન કે તેના જેવી આપ્યા પનાએ થી, તથા પ્રજ્ઞાપન = તમે પ્રજત ન થાએ સયનું આચરણુ મુશ્કેલ છે' આ પ્રકરનું વિશેષરૂપે કન-તેવી કથનરવરૂપ પ્રજ્ઞ બનાએથી તથા સત્તાપના= ભેગા ભે ળવી લીધા પછી જ સયમ આરાવન સુકર (સહજ) છે” એ પ્રકારે સમાવવા રૂપી સાપનાથી, તથા વિજ્ઞાપન = ‘ સ યમગ્રહણ કરતાં તે અતે કરણની દૃઢતાની Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २७७ मूलम्-तएणं से भद्दे सत्थवाहे विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, मित्तनाइ जाव आमंतेइ, पच्छा भोयणवेलाए जाव मित्तनाइ० सकारेइ सम्माणेइ, सुभदं सत्थवाहि पहायं जाव पायच्छित्तं सवालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहेइ। तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तलाइ जाव संबंधिसंपरिबुडा सबिड्डीए जाव रवेणं वाणारसीनयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सुब्बयाणं अजाण उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ, सुभदं सत्थवाहिं सीयाओं पच्चोरहेइ । तएणं भद्दे सत्थवाहे सुभदं सत्थवाहिं पुरओ काउं जेणेव सुव्वया अजा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अजाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सुभद्दा सत्थवाही ममं भारिया इट्टा कंता जाव मा णं वाइया पित्तिया सिभिया सन्निवाइया विविहा रोगातका फुसंतु, एसणं देवाणुप्पिया! संसारभउग्गिा , भीया जम्मगमरणाणं, देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पचयाइ, तं एयं अहं देवाणुप्पियाणं सीसिणीभिक्खं दलयाणि, पडिच्छंतु णं देवणुप्पिया ! सीसिणीभि खं । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबधं । दृढताकी परीक्षाके लिये युक्ति प्रतिपादनरूप विज्ञापनाओंसे समझा. नेमें समर्थ नहीं हो सका तब उसने अनिच्छापूर्वक सुभद्राको दीक्षा लेनेकी आज्ञा दी ॥३॥ પરીક્ષાને માટે યુકિતપ્રતિપદનરૂપ વિજ્ઞાપનાઓથી આખ્યા સમજાવવામાં સમર્થ ન થઈ શક્ય ત્યારે તેણે અનિચ્છાપૂર્વક સુભદ્રાને દીક્ષા લેવાની આજ્ઞા આપી (૩) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलकासूत्रे तणं सा सुभद्दा सत्यवाही तुट्टा सुवयाहि अजाहि एवं वृत्ता समाणी हट्ट० सयमेव आभरणमहालंकारं ओमुयइ, ओमुइन्ता, सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ, करिता जेणेव सुबयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुन्वयाओ अजाओ तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणेणं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - आलित्तेनं भंते! जहा देवानंदा तहा पड़या जाव अजा जाया जाव गुत्त बंभयारिणी ॥ ४ ॥ २७८ छाया-ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो विपुलम् अशनं पान खाद्य स्वाधम् उपस्कारयति मित्रज्ञाति यावदामन्त्रयति । ततः पश्चात् भोजन वेलायां यावत् मित्रज्ञाति सत्करोति सम्मानयति, सुभद्रां सार्थवाहीं स्नातां यावत् कृतप्रायश्चित्तां सर्वालङ्कारविभूषितां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मित्रज्ञाति यावत् सम्बन्धिसंपरिवृता सर्वऋद्रया यात्रत् 'तरणं से भद्दे' इत्यादि - उसके बाद उस भद्र सार्थवाहने विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्यको तैयार करवाया और अपने सभी मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको बुलाया और आदर सत्कार के साथ सभी मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको भोजन कराया। बाद में स्नानको हुई यावत् मसीतिलक आदिसे युक्त, सभी अलङ्कारोंसे विभूषित सुभद्र हजार मनुष्योंके द्वारा वाहित शिविका पर बैठायी गई । उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही मित्र ज्ञाति स्वजनबन्धु और सम्बन्धियोंसे युक्त सभी प्रकार की ऋद्धि यावत् भेरी आदि 'तरण से भद्दे' इत्यादि ત્યાર પછી તે ભદ્રસા વાહે વિપુલ અશનપાન ખાદ્ય સ્વાદ્ય તૈયાર કરાવ્યુ અને પેાતાના બધા મિત્રા જ્ઞાતિ-સ્વજન બન્ધુએાને મેલાવ્યા અને અદર સત્કાર કરીને તે બધાને ભાન કરાવ્યુ પછી સુભદ્રાને નવરાવી યાત્ મસી તિલક (ચાલે ) આદિ કરાવી તમામ અલકા ( ધરેણા ) શણગારી હજાર મનુષ્યેએ ઉપાડેલી પિબકા (પાલખી ઉપર બેસાડવામા આવી ત્યાર પછી તે સુભદ્રાસા વાડી મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન-બન્ધુ તથા સંબન્ધિઓની સાથે તમામ પ્રકારની ઋદ્ધિ, ભેરી આદિ વાળ ના સ્વર સાથે વારાણુશ્રી નગરીની Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २७९ रवेण वाराणसीनगर्या मध्यमध्येन यत्रैव सुव्रतानामार्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां स्थापयति, सुभद्रा सार्थवाही शिविकातः प्रत्यवरोहति । ततः खलु भद्रः सार्थवाहः सुभद्रां सार्थवाही पुरतः कृत्वा यत्रैव सुव्रता आर्याः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सुव्रता आया वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः ! सुभद्रा सार्थवाही मम भार्या इष्टा कान्ता यावत् मा खलु वातिकाः पैत्तिका श्लैष्मिकाः सान्निपातिका विविधा रोगातङ्काः स्पृशन्तु, एषा खलु देवानुप्रियाः ! संसारभयोद्विग्ना, भीता जन्ममरणाभ्यां, देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा भूत्वा यावत् प्रव्रजति ! तद् एतामहं देवानुप्रियभ्यो शिष्याभिक्षां ददामि, प्रतीच्छन्तु खलु देवानुपियाः ! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखं देवानुप्रियाः मा प्रतिवन्धम् । बाजोंके स्वर के साथ वाराणसी नगरीके बीचोबीचसे होती हुई सुव्रता आर्याओंके उपाश्रयमें आई, और हजार पुरुषोंसे वाहित उस शिविकासे उतरी। बादमें वह भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाहीको आगे कर सुव्रता आर्याके पास आया, और वन्दन नमस्कार किया। बाद उसको उसने इस प्रकार कहा : हे देवानुप्रियों ! यह मेरी भार्या सुभद्रा सार्थवाही मेरो अत्यन्त इष्ट और कान्त है। इसको वात पित्त कफ आदि रोग तथा शीतउष्ण आदिके दुःख स्पर्श न कर सके इसके लिए सर्वदा यत्न करता आरहा हूँ, सो यह सार्थवाही संसारके भयसे उद्विग्न हो तथा जन्म मरणसे डरकर आप लोगोंके पास मुण्डित होकर प्रत्रजित हो रही है, इसलिये मैं आप लोगोंको यह शिष्यारूप भिक्षा दे रहा हूँ। हे देवानुप्रियों ! इसको आप लोग स्वीकार करें। વચ્ચે વચ્ચે થઈને સુવ્રતા આઓના ઉપાશ્રયમાં અવી અને હજાર પુરૂએ ઉપાડેલી તે શિબિકામાથી ઉતરી પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ સુભદ્રા સાથે વાહીને આગળ કરીને સુત્રતા આર્યાની પાસે આવ્યું અને વન્દન નમસ્કાર કર્યા પછી તેણે આ પ્રકારે કહ્યું – - હે દેવાનુપ્રિયે! આ મારી સ્ત્રી સુભદ્રા સાર્થવાહી મારી ઘણુંજ ઈષ્ટ અને કાન્ત (પ્રિય) છે તેને વાત પિત્ત કફ વગેરે રોગ ઠંડી ગરમી વગેરેના દુ ખ સ્પર્શ કરી ન શકે તે માટે હું હંમેશા યત્ન કરતો આવું છું તે આ સાર્થવાહી સ સારના ભયથી ચિંતાતુર બનીને તથા જન્મમરણના ડરથી આપ લોકોની પાસે મુડિત થઈ પ્રવ્રજિત થાય છે માટે હું આપ લોકોને આ શિષ્ણારૂપ ભિક્ષા આપુ છું હે દેવાનુપ્રિયા, આને આપ લેકે સ્વીકાર કરે Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० निरयावलिकासूत्रे - ततः खलु सा सुभद्रा सार्थवाही सुव्रताभिरार्याभिरेवमुक्ता सती स्त्रयमेव आमरणमाल्यालङ्कारमवमुञ्चति, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोच करोति, कृत्वा यत्रैव सुव्रता आर्यास्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सूत्रता आस्विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणेन वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा, एवमवादीत्-आदीप्तः खलु भदन ! यथा देवानन्दा तथा प्रव्रजिता यावत् आर्या जाता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी ॥ ४ ॥ भद्र सार्थवाहके इस प्रकार कहने पर उस महासतीने उस सार्थवाहीसे कहा-हे देवानुप्रिये ! जैसी तुम्हारी खुशी हो, शुभ काममें प्रमाद मत करो । सुव्रता महासती द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह सुभद्रा सार्थवाही अपने हाथों से माला और आभूपणोंको उतार दिया, और उसने अपने हायसे पञ्चमुष्टिक लञ्चन किया। बादमें वह सुत्रता आर्या के ममीप आकर तोन चार आदक्षिण-प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन नमस्कार करके बोली हे महासती ! यह संसार जरा-मरण रूप आगसे जल रहा है, अत्यन्त जल रहा है । जिस तरह कोई गृहस्थ घरमें आग लगने पर जलती हुई वस्तुओंसे बहुमूल्य और थोडे वजनवाली वस्तुको निकाल लेता है और उसे सुरक्षित रखता है उसी प्रकार मे अपनी आत्माको जो मेरी इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, संमत-सम्मानित है अनुमत-बडे प्रेमसे सुरक्षित है, बहुमत है अनेक प्रकारसे लालित पालित है, उसको गीत, उष्ण, भूख, तृपा, चोर, सिंह, सर्प, डांस, ભદ્ર સાર્થવાહના આ પ્રકારે કહેવાથી તે મહાસતીએ તે સાર્થવાહને. કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિયે! જેવી તમારી ખુશી કેઈ શુભ કામમા પ્રમાદ ન કુરે સુત્રતા મહાસતીએ આ પ્રમાણે કહેવાથી તે સુભદ્રાચાર્યવાહીએ પિતાના હાથેથી માલા અને ઘરેણાં ઉતારી નાખ્યા અને તેણે પોતાના હાથેથી પ ચ મુષ્ટિક લુચન કર્યું પછી તે સુત્રના આઈની પાસે આવીને ત્રણ વાર આદક્ષિગુ પ્રદક્ષિણાપૂર્વક વદનનમસ્કાર કરીને બોલી – હે મહાસતી ! આ સંબાર જરા–મણુરૂપ અગ્નિ વડે બળી રહ્યો છે–ખૂબ બળે છે જેમ કે ગૃહસ્થ ઘરમાં આગ લાગે ત્યારે બળી જતી વસ્તુઓમાથી બહુ કિમવાળી અને ઓછા વજનવાળી વસ્તુને કઢી લે છે અને તેને સુરક્ષિત રાખે છે તેવી જ રીતે હું મારા આત્મા–કે જે મારે માટે છે-કાન્ત છે પ્રિય છે–સ મત=સમ્માનિત છે, અનુમત બહુ પ્રેમથી સુરક્ષિત છે, બહમત છે, બહુમત અનેક પ્રકારથી લાલિત પાલિત છે, तेन 1. ॥२भी, भूग, तम, या, सिंह, सपा, स, भ२७२, तथा वात, पिra, Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिका देवीवर्णनम् २८१ टोका- 'एग से भदे' इत्यादि एतस्य व्याख्या निगदसिद्धेति बोध्यम् ||४|| मूलम् - तरणं सा सुभदा अज्जा अन्नया कयाइ बहुजणस्स चेडरूवे संमुच्छिया जाव अज्झोववण्णा असंगणं च उव्वहणं फासुयपाणं च अलत्तगं च कंकणाणि य अंजणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेल्गाणि य खजल्लुगाणि य खीरं च पुष्पाणि य गवेसइ, गवेसिता बहुजणस्स दारए वा दारियाए वा कुमारेय कुमारियाए य डिंभए य डिंभियाओ य अप्पेगडयाओ अभंगे, अप्पेगइयाओ उबट्टेइ, एवं अप्पेगइयाओ फासु पाणएणं पहावेइ, अप्पेगइयाणं पाए रयइ, अपेगइयाणं उडे रयइ, अप्पेगइयाणं अच्छीणि अंजेइ, अप्पेगइयाणं उसुए करे, अपेगइयाणं तिलए करेइ, अप्पेगइयाओ दिगिंदलए करे अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ, अपेगइयाई छिलाई " मच्छर तथा वात पित्त कफ आदि रोग परीषह उपसग कोई नुकसान न पहुँचा सकें तथा मेरी आत्मा परलोक में हित रूप, सुखरूप कुशल रूप और परम्परासे कल्याण रूप रहे । इस लिये मै आपके पास मुण्डित होकर प्रवजित होती हूँ | मैं प्रतिलेखना आदि क्रियाको सीखूँगी । आपकी आज्ञासे संगमकी सब क्रियाको पालूँगी । इस प्रकार वह सार्थवाही देवानन्दा के समान प्रव्रजित हुई और आर्या हो गई तथा पॅचसमिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त हो सकल इन्द्रियों का दमन कर वह गुप्तबह्मचारिणी हो गयी ॥ ४ ॥ કફ વગેરે રાગ, પરીષહ, ઉપસર્ગ કાઈ નુકશાન પહેાચાડી ન શકે તથા મારા આત્મા પરલેાકમા દ્વિતરૂપ, સુખરૂપ, કુશલરૂપ તથા પરમ્પરાથી કલ્યાણુરૂપ રહે તે માટે તમારી પાસે મુડિત થઇને પ્રત્રજિત બનુ છુ હુ પ્રતિલેખના આદિ ક્રિયાને શીખીશ આપની આજ્ઞાથી સ યમની શ્રૃંધી ક્રિયાઓનુ પાલન કરીશ આ પ્રકારે તે સાવહી દેવાનન્દાના પેઠે પ્રત્રજિત બની અને આર્યાં યઈ ગઈ તથા પાચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિથી યુક્ત થઇને બધી ઇન્દ્રિએનુ દમન કરીને તે ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી યઇ ગઇ (૪) ૩૬ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे २८२ करेs, अप्पेगड़या बन्नएणं समालभइ अप्पेगइया चुन्नएणं समालभइ, अप्पेगइयाणं खेलणगाई दलयइ, अप्पेगइयाणं खज्जुल्लगार्इं दलयइ, अप्पेगइयाओ खीरभोषणं भुंजावेइ, अप्पेगाणं पुप्फाई ओमुयइ, अप्पेगइयाओ पाएस ठवेड, अप्पेगइयाओ जंघासु करेड़, एवं ऊरुसु, उच्छंगे, कढीए, पिट्टे, उरसि, खंधे, सीसे य करतलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी २ आगायमाणी २ परिगायमाणी २ पुत्तपिवासं च धूयपिवासं च नतुयपिवासं च नत्तिपिवासं च पञ्चशुव्भवमाणी विहरइ | तणं ताओ सुवयाओ अज्जाओ सुभद्दे अजं एवं वयासीअम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जात्र गुत्तवं भयारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पड़ जातककम्मं करितए, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया जाव अज्झोववन्ना अभंगणं जाव नत्तिपिवासं वा पच्चशुभवाणी विहरसि तं णं तुमं देवाशुप्पिया एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि । तएणं सा सुभद्दा अज्जा सुबयाणं अज्जाणं एयमहं नो आढाइ नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ ! - तणं ताओ समणीओ निग्गंथीओ सुभदं अज्जं हीलेंति निंदंति खिसंति गरहंति अभिक्खणं २ एयमहं निवारेंति । तणं तीसे सुभद्दाए अज्जाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमाणीए जाव अभिक्खणं २ एयमहं निवारिज्जमाणीए अय मेयावे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था - जयाणं अहं अगार Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवी वर्णनम् २८३ वासं वसामि तयाणं अहं अप्पवसा, जप्पभिई च णं अहं मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पचता, तप्पभिड़ं चणं अहं परवसा पुचि समणीओ निग्गंधीओ आढेंति परिजार्णेति, इणाणि नो आढाईति नो परिजाणंति, तं सेयं खलु से कलं जाव जलते सुव्वाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडियक्कं उवस्तयं उवसंपज्जित्ता णं विहरितए । एवं संपेहेड, संपेहित्ता कलं जाव जलंते सेवयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडनिमेइ, पडिनिक्खमित्ता पाडियक्कं उवस्तयं उवसंपज्जि - चाणं विहर । तए णं सा सुभद्दा अजा अज्जाहिं अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छित्ता जाव असंगणं जाव नतिपिवासं च पञ्चणुब्भवमाणी विहरड़ । तणं सा सुभद्दा अज्जा पासत्था पासत्यविहारी एवं ओसण्णा• ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी संसत्ता संसविहारी अहाच्छंदा अहाच्छंद विहारी बहूई बासाई सामन्नपरियागं पाउण्ड, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसित्ता तीस भत्ताई अणसणाए छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्कंत. कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरियाए अंगुलस्स असंखेज्जमागमेताए ओगाहणाए वहुपुत्तिय देवित्ताए उववण्णा । तए णं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोववन्नमित्ता समाणी पंचविहाए पत्तीए जाव भासामणपज्जनीए० । एवं खलु Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे २८४ गोयमा ! बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्या देवडी जाव अमि समण्णागया । से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ बहुपुत्तिया देवी २ ? गोयमा वहुपुनिया णं देवी जाहे जाहे सकस्स देविंदस्स देवरणो उवत्थाणियणं करेइ, ताहे २ बहवे दारए य दारियाए य डिंभए य डिंभिडाओ य विउबइ, विउव्वित्ता जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सकस्स देविंदस्स देवरण्णो दिवं देविडिं दिवं देवज्जुई दिव्वं देवाणुभागं उवदंसेइ, से तेणट्टेणं गोयमा । एवं बुच्च बहुपुत्तिया देवी ॥ ५ ॥ - छाया - ततः खलु सा सुभद्रा आर्या अन्यदा कदाचित् बहुजनस्य चेटरूपे संमूच्छिता यावद् अभ्युपपन्ना अभ्यञ्जनं च उद्वर्त्तनं च मासुकपानं च अलक्तकं च कङ्कणानि च अञ्जनं च कर्णकं च चूर्णकं खेलकानि च खज्जल कानि च क्षीरं च पुष्पाणि च गवेपयति, गवेपयित्वा बहुजनस्य दारकान् दारि वा कुमारांश्च कुमारिकाथ डिम्भांश्च डिस्सिकांच अप्येककान् श्रभ्यङ्गयति अध्येक्कान उद्वर्त्तयति, एवम् अप्येककान मायुकपानकेन स्नपयति, अप्येककानां पादौ रञ्जयति, अध्येककानाम् ओष्ठौ रञ्जयति, अप्येककानाम् अक्षिणी अञ्जयति अप्येककानाम् इषुकान् करोति, अध्येक्कानां तिलकान करोति, अध्येककान् दिलिन्दलके करोति, अप्येककानां पक्तीः करोति, अप्येककान् छेद्यान् (छिन्नान् ) करोति, अप्येककान् वर्णकेन समालमते, अध्येककान् चूर्णकेन समालभते, अत्येककेभ्यः खेलकानि ददाति, अप्येककेभ्यः खज्जुलकानि ददाति, अप्येककान क्षीरभोजनं भोजयति, अप्येककानां पुष्पाणि अवमुञ्चति, अप्येककान् पादयोः स्थापयति, अत्येककान् जङ्घयोः करोति, एवं ऊर्कोः, उत्सङ्गे, कटयां, पृष्ठे, उरसि, स्कन्धे, शीर्षे च करतलपुटेन गृहीत्वा हलन्ती २ आगायन्ती २ परिगायन्ती २ पुत्र पिपासां च दुहितृपिपासां च नप्तृकपिपासां च नपूत्रीपि - पासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति । ततः खलु ताः गुत्रता आर्याः सुभद्रामार्यामेवमवादीत्-वयं खलु देवानुमिये ! श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्य इर्यासमिता यावद गुरुर्ब्रह्मचारिण्यो नो खलु Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् अस्माकं कल्पते जातकर्म कर्तुम् , त्वं च खलु देवानुप्रिये ! बहुजनस्य चेटरूपेषु मूच्छिता यावत् अध्युपपन्ना अभ्यजनं च यावत् नपत्रीपिपासां वा प्रत्यनुभवन्ती विहरसि, तत् खलु देवानुप्रिये ! एतस्य स्थानस्य अलोचय यावत् प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यस्व । ततः खलु सा सुभद्रा आयो मत्रतानामार्या. णामेतमथ नो आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणा अपरिजानन्ती विहरति । ततः खलु ताः श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्यः सुभद्रामाया हीलन्ति निन्दन्ति सिन्ति गर्हन्ते अभीक्ष्णम् २ एतमर्थ निवारयन्ति । ततः खलु तस्याः सुभद्राया आर्यायाः श्रमणीभिर्निग्रन्थीभिर्हील्यमानाया यावत् अभीक्ष्णम् २ एतमर्थ निवारयन्त्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत-यदा खल अहम् अगारवासं सामि तदा खलु अहम् आत्मवशा, यतः प्रभृति च खलु अहं मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारतां प्रव्रजिता ततः प्रभृति च खलु अहं परवशा, पूर्व च श्रमण्यो निग्रंन्थ्य आद्रियन्ते, परिजानन्ति, इदानीं नो आद्रियन्ते नो परिजानन्ति, तत् श्रेयः खलु मे कल्ये यावत् ज्वलति सुव्रतानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकम् उपाश्रयम् उपसंपद्य खलु विहत्तम् । एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति सुव्रतानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्काम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या आर्याभिः अनपघट्टिका अनिवारिता स्वच्छन्दमतिः बहुजनस्य चेटरूपेषु मूच्छिता यावत् अभ्यञ्जनं च यावत् नप्त्री पिपासा च प्रत्यनुभवन्ती विहरति । ___ ततः खलु सा सुभद्रा आर्या पावस्था पार्श्वस्थ विहारिणी एवमवसन्ना अवसनविहारिणी कुशीला कुशीलविहारिणी संसक्ता संसक्तविहारिणी यथाच्छन्दा यथाच्छन्दविहारिणी बहूनि वाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मनं जोपयित्वा त्रिंशद् भक्तानि अनगनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताऽप्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे बहुपुत्रिकाविमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूप्यान्तरिता अङ्गलस्य असंख्येयभागमात्रया अवगाहनया बहुपुत्रिकादेवीतया उपपन्ना । ___ततः खलु सा बहुपुत्रिका देवी अधुनोपपन्नमात्रा सती पञ्चविधया पर्याप्त्या यावद् भाषामनःपर्याप्त्या० । एवं खलु गौतम ! बहुपुत्रिकया देव्या दिव्या देवद्धिः यावत् अमिसमन्वागता । अथ सा केनार्थन भदन्त ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी २: गौतम ! बहुपुत्रिका खलु देवी यदा यदा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य उपस्थानं (प्रत्यासत्तिगमनं ) करोति । तदा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ निरयावलिकासूत्रे तदा वहन दारकांश्च दारिकाच डिम्मांश्च डिम्भिकाश्च विकुरुते, विकृत्य यत्रैव शक्री देवेन्द्रो देवराजस्तचैत्र उपागच्छिति, उपागत्य शक्रस्य देवेन्द्रम्य देवराजस्य दिव्यां देवर्द्धि दिव्यं देवज्योतिः दिव्य देवानुभागमुपदर्शयति । तत्तेनाऽर्थेन गौतम ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी ॥५॥ टीका-तएणं सा' इत्यादि-ततः तदनन्तरं खलु इति वाक्यालङ्कारे सा-पूर्वोक्ता प्रसिद्धा वा आर्या-पाची मुभद्रानाम्नी, अन्यदा अन्यम्मिन् समये कदाचित् अनिश्चितकाले बहुजनम्य बहुलोकस्य चेटरूपे-कुमारम्वरूपे समूछिता-संमोहिता यावद् अव्युपपन्ना-बालप्रेमासक्ता संजाता अत एवं अभ्यङ्गनं-तैलादिमर्दनम् , चकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारार्थकः, उद्वर्तनं गात्रमलापनयनाय पिष्टादिमुगन्धिद्रव्यविगेपम् , प्रामुपान-गता असवः उच्छामनिच्छामात्मकाः प्राणा यतस्तत् प्रामुकं, पीयते यत् तत् पानं, प्रामुकं च तत्पानं प्रामुकपानं सकलजीवोपाधिरहितमचित्तजलम् अलक्तकम् हस्तचरणादिरञ्जकं मेहंद्यादिद्रव्यविशेषम् , कङ्कणानिःबलयानि कर भूपणविशेपान, अञ्जनं फलज्जम् , वर्णकः चन्दनादिविशेषम् , चूर्णकं गन्धद्रव्यसम्बन्धिरजः, खेलकानि गालभजिकादीनि ( 'विलौना' इति भापायाम् ) ग्वज्जलकानि-वाद्यद्रव्यविशेषान् 'तएणं सा' इत्यादि उसके बाद यह सुभद्रा आर्या एक समय गृहस्थके बालबच्चोंपर प्रेम करने लगी और प्रेमके आवेशमें उन बच्चों के लिये वह आर्या लगानके लिये तेल, गरीरका मैल दर करने के लिये उबटन, पीनेके लिये प्रामुक जल, उन बच्चोंके हाथ पैर रंगनेके लिए मेंहदी आदि रक्षक द्रव्य, कङ्कण हाथो में पहननेका कडा, अञ्जन काजल, वर्णक चन्दन आदि, चूर्णक-सुगन्धित द्रव्य, खेलक-खेलने के लिये शालभञ्जिका (पुतली) आदि खिलौने, लिये ग्वाजे, पीनेके लिये दूध और 'तएण मा' या ત્યાર પછી તે સુભદ્રા આર્યા એક વખત ગૃડસ્થના બાલબ ઉપર પ્રેમ કરવા લાગી અને પ્રેમના આવેશમાં તે બચાને માટે તે આર્યા, ચાળવા માટે તેલ, શરીરને મેલ દૂર કરવા માટે ઉબટન (પીઠી), પીવા માટે પ્રાસુક પાણી તે બચના હાથ પગ ૨ ગવા માટે મેદી વગેરે ૨જક દ્રવ્ય, ક હાથમાં પહેવા માટે કડા, બગડી, અ જન=કાજળ, વક=ચન્દન આદિ ચૂર્ણ ક=સુગન્ધિત દ્રવ્ય, ખેલકત્રમવા માટે પૂતળીઓ આદિ રમકડા ખાવા માટે ખાવા પીવા માટે દૂધ તથા Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरवोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २८७ (खाजा इति भाषायाम् ) क्षीरं दुग्धं पुष्पाणि-कुसुमानि च गवेपयतिअन्वेषयति, गवेषयित्वा अभ्यङ्गनादिपुष्पान्तवस्तूनि अन्वेष्य बहुजनस्य विपुललोकस्य दारकान् = बहुकालिकावालकान् दारिकाः = वहुकालिकवालिका वा अथवा कुमारान् अधिकतरवर्षकान् बालकान् कुमारिका: बहुतरवार्पिका वालिकाः, डिम्भान्=अल्पकालिकशिशून् डिम्भिकाः अल्पकालिकवालिकाश्च, अप्येककान् काश्चन अभ्यङ्गयति-तैलेन गात्रं मर्दयति, अपीति समुच्चयार्थकः, तेन एकमपि तदतिरिक्तञ्च अनेकमित्यर्थः । एकान् उद्वर्तयतिगात्रमलापनयनाय पिष्टादिसुगन्धिद्रव्यं ले पयति, एवम् अनेन प्रकारेण एककान् प्रासुकपानी येन स्नपयति, एककानां पादौ चरणौ रञ्जयति अलक्तकादिना रक्तवौं करोति, एककानाम् औष्ठौ अधरौ रञ्जयति-रक्तवर्णों विदधाति, एककानाम् अक्षिणी नेत्रे अञ्जयति अञ्जनेन भूपिते करोति, एककानाम् इपुकान% ललाटदेशे वाणाकारान् तिलकविशेपान् करोति, एककानां तिलकान्=केशरकुङ्कुमादिना ललाटे विन्यासविशेषान् करोति, एककान् दिगिन्दलके देशीशब्दोमाला आदिके लिये अचित्त फूल, इन सभी वस्तुओंका अन्वेषण करती थी। बादमें उन गृहस्थोंके लडके लडकियों में से, कुमार कुमारियों में से बच्चे बच्चियों में से, किसी एक को तेलकी मालिश करती थी, किसीकी देहमें उबटन लगातीथी, किसी एकको प्रासुक जलसे स्नान कराती थी, किसी एकके पैरोको रंगती थी, एकके ओठोंको रंगती थी, किसीकी आखोमें अजन लगाती थी, किसीके ललाट पर बाण आदिके आकारका तिलक लगाती थी, किसीके ललाटपर केशर आदिके द्वारा तिलक विशेषका विन्यास करती थी, किसी एक बच्चेको हिण्डोलेमें रखकर झुलाती थी, और कुछ बच्चोंको एक कतार (पंक्ति) में खडा करती थी, માલા (હાર) ને માટે અચિત્ત ફૂલ, આ બધી વસ્તુઓ મેળવવાની શોધ કરતી હતી પછી તે ગૃહસ્થના છેકરા, છોકરીઓમાથી, કુમાર કુમારિકાઓમાથી, બાળક અને બાળાઓમાથી કેઈને તેલ માલીસ કરતી હતી, કેઈને શરીરે ઉબટન (પીઠી ) લગાડતી હતી, કોઈને પ્રાસુક પાણીથી સ્નાન કરાવતી હતી, કેઈના પગ રંગી દેતી હતી, કેઈના હોઠ રગતી હતી, કેઈને આજણ આજતી હતી તે કેઈના કપાળ ઉપર બાણ આદિના આકારનો ચાલે ચેડતી હતી, કેઈના કપાળે કેશર આદિતી જુદા જુદા પ્રકારના તિલક આદિના વિન્યાસ કરતી હતી, કેઈ એક બાળકને હીંચકા નાખતી હતી તથા કેટલાક બાળકની એક હાર કરી ઊભા રાખતી હતી અને તે Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ... . . . “निरयावलिकासूत्रे ऽयं तन-'हिन्दोलंक ' इत्यर्थः करोति, एककांनां पङ्क्तीः श्रेणीः करोति, एककान छिन्नान-छिन्नभिन्नान एकत्रस्थितान पृथक पृथक् करोति, एककान वर्ष केन चन्दनविशेपेण समालभने अनुलेपयति, एककान चूर्णकेन-मुगन्धिद्रव्यविशेषेण समालमने-गुवासयति, एककेभ्यः खेलकानि-शालमञ्जिकादीनि ददाति, एककेभ्यः ग्वज्जुलकानि = खाद्यन्यविशेपान 'खाजा' इनि भाषापमिद्वान् ददाति, एककान श्रीरभोजनं दुग्धपान भोजयति-कास्यति, एककानां पुष्पाणि-कुममानि अवमोचयनि-कण्ठादितोऽयस्ताद्विसर्जयति, एककान पादयोः चरणयोः स्थापयति, एककान जङ्गयोः करोति, एवम् अनेन प्रकारेण ऊः, उन्मंगे-क्रोडे, कटयां श्राण्यां, पृष्ठे-पृष्ठभागे, उरसि-वक्षसि, स्कन्धे अंगे शार्प-गिरमि, करतलपुटन-पाणितलपुटेन गृहीत्वा हलउल्लयन्ती बालपञ्जनाय मधुरालापं 'दुलरावा' इति भापाप्रमिद्धं कुर्वती, आगायन्ती बालरञ्जनाय मन्दं पन्दं गायन्ती, परिगायन्ती बालान, मदती रिलोक्य उच्चम्बरेण तथा पंक्तिमें ग्वडे हुए बच्चोंको अलग २ खडा करती थी, एकके शारीग्में चन्दन लगाती थी, तो एकके शरीर को सुगन्धित चूर्णक (पाउडर) से सुवामित करतो थी, एकको खेलनके लिये विलौना दती थी, तथा किसीको ग्वानके लिये ग्वाजे देती थी, और किसीको दुध पीलाती थी, किसीके कण्ठमें पड़ी हुई अचित्त (कागदके) फलांकी माला उतार लेती थी, किसीको अपने पेगेपर बैठाती थी तो किमीको अपनी जङ्घापर रग्बनी थी और इसी प्रकार किम्लीको अपर, किमीको अपनी गोदी में किसीको अपनी कमर पर, किमीको पीठपर किसीको अपनी छातीपर किमीको कन्धेपर किसीका अपने शिरपर रखती थी, किसीको हाथसे पकडकर हुलगती हुई और बालकोंक मनोरंजनके लिये मन्द म्बरस गाती हुई, चालकोंको હારમાં ઉભેલામાથી કેટલાક બાળકોને જુદા જુદા ઉભા રાખી હતી એકના શરીરને ચદન લગાવતી હતી તે એકને સુગન્ધિત પાઉડરથી સુવાસિત કરતી હતી એકને રમવા માટે રમકડા દેતી ના કાકને ખાવા માટે ખાનં દેતી હતી અને કેઈન દુધ પાતી હતી કે ઇ ડોકમથી અચિત્ત (કાગળના) કેલની માળા ઉતારી લેતી કેઈને પિતાના પગ ઉપર બેસાડતી તે કોઈને પિતાનાળામા ખિતી કોઈને પેટ ઉપર તે કઈને સાથળ ઉપર અને તેને કેડે તે કઈને પીઠ ઉપર, કઈને છાતી ઉપર તે કઈને કાંધ ઉપર કેકને માથા ઉપર રાખતી તે કેઈને હાથેથી પકડીને હલાવતી બાળકને આનદ માટે ધીમા ધીમા સ્વરથી ગાતી અને રાતાં બાળકને જોઈને તાણીને Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २८९ गायन्ती, पुत्रपिपासां-पुत्रलालसां दुहितपिपासां-पुत्रीवाग्छ नप्तृकपिपासां= पौत्रदौहित्रलालसा नपत्रीपिपासां पौत्री दौहित्री स्पृहां च प्रत्यनुभवन्ती-एतत्का. र्येण सन्तोषं मन्यमाना विहरति आस्ते । ततः खलु ताः दीक्षादात्यः सुवृता आयर्याः साध्व्यः सुभद्रामेवं वक्ष्यमाणम् अवादिषुः-हे देवानुपिये ! वय श्रमण्यः ससारविपयविरक्ताः साळ्यः निर्ग्रन्थ्यः ग्रन्थिरहिताः इर्यासमिताः यावत् शब्देन भापासमिताः, इत्यादीनां संग्रहः, गुप्तब्रह्मचारिण्या सुरक्षितब्रह्मचर्याः, नो खलु अस्माकं श्रमणीनां निर्ग्रन्थीनाम् जातकर्म शिशुक्रीडनादिक्रियां कर्तुम् अनुष्ठातुं कल्पते युज्यते, हे देवानुप्रिये ! सुभद्रे ! त्वं बहुजनस्य चेटरूपेपु-कुमारस्वरूपेषु मूच्छिता-संमोहिता यावत् अध्युपपन्ना दत्तचित्ता अभ्यङ्गनं यावच्छब्देन वर्णकादीनां सङ्ग्रहः, नपत्रीपिपासां-पौत्रीदौहित्रीस्पृहां प्रत्यनुभवन्ती रोते हुए देखकर उच्च स्वरसे गाती हुई पुत्रकी लालसा, पुत्रीकी वाञ्छा, पोते और दौहित्रोंकी वाञ्छा, पौत्री और दौहित्रीकी इच्छाका अनुभव करती हुई, अपने उक्त कार्योंसे सन्तुष्ट होती हुई विचरण कर रही थी। उसके ऐसे आचरणको देखकर सुव्रता आर्या सुभद्रा आर्यासे इस प्रकार बोली-हे देवानुप्रिये ! अपन लोग संसारिक विपछोले चिरक्त, ईर्यासमिति आदिले युक्त यावत् गुसब्रह्मचारिणी निग्रन्थ श्रमणी हैं, इसलिये हम लोगोंको बालक्रीडा करना कराना आदि नहीं कलपता है। हे देवालुप्रिये! तुम गृहस्थोंके बच्चोंसे प्रेम करने लग गयी हो बच्चोंको तेल आदि लगाने की क्रिया आदि अकल्पनीय कार्य कर रही हो। तथा पुत्र पुत्री, पौत्र पौत्री और दौहित्र ગાતી, પુત્રની લાલસા, પુત્રીની વારછા, પિત્ર અને દૌહિત્રની વાર છા, તથા પત્રી અને દૌહિત્રીની વારછાના અનુભવ કરીને પિતાના એ કાર્યોથી સ તેપ માની વિચણ કરતી હતી તેને આવા આચરણે જોઈને સુત્રતા આર્યા સુભદ્રા આર્યાને આ પ્રકારે કહેવા લાગી હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણે લેકે સાસરિક વિષયેથી વિરકત ઇસમિતિ આદિથી યુકત યાવત્ ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી નિગ્રંથ શ્રમણી છીએ માટે આપણે બાળકને રમાડવુ આદિ કલ્પવાનું નથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે ગૃહસ્થના બચ્ચાને પ્રેમ કરવા લાગી ગયા છે બચાને તેલ આદિ લગાડવાની ક્રિયાથી માંડીને બધા અકલ્પનીય કાર્યો કરી રહ્યા છે. તથા પુત્ર-પુત્રી પૌત્ર-પૌત્રી અને દેહિત્ર-દોહિત્રીની વાછના અનુ મવ કપ્તા ३७ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० निरयावलिकासत्रे विहरसि, तत्-तस्मात् कारणात् हे देवानुप्रिये ! एतस्य स्थानस्य एतस्कर्तव्यस्य आलोचय=आलोचनां कुरु यावत् प्रायश्चित्त पापापनोदनरूपाम् क्रियां प्रतिपद्यस्व स्वीकुरु । ततः खलु सुभद्रा आर्या मुव्रतानामार्याणामेनम् अव्यवहितोक्तम् अर्थम्=निर्दिष्टविपयम् नो आद्रियते न सत्करोति नो परिजानाति= कर्तव्यत्वेन नो स्वीकरोति. अनाद्रियमाणा-उपेक्षमाणा, अपरिजानन्ती कर्तव्यत्वेन तदुक्तमस्वीकुर्वाणा विहरति । ततः खलु ताः श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्यः सुभद्रामार्य हिलन्ति-जन्मकर्मममौद्धाटनपूर्वकं निर्भत्सयन्ति, निन्दन्ति-कुत्सितशब्दपूर्वकं दोपोद्धाटनेन अनाद्रियन्ते, विसन्ति हस्तमुखादिविकारपूर्वकमवमन्यन्ते, गर्हन्ते गुर्वादिसमक्षं दोपा. दौहित्रीकी वान्छाका अनुभव करती हुई बिचर रही हो, सो हे देवानुप्रिये ! तुम अपने इस कार्यपर विचार करो और इस पापकी विशुद्धिके लिये आलोचना करो और प्रायश्चित्त लो। __उन आर्याओंके द्वारा इस प्रकार अकल्पनीय बातोंका निषेध करनेपर भी उस सुभद्रा आर्याने न उन बातोंका कुछ आदर किया और न उन बातोंपर कुछ ध्यान ही दिया अपितु उसी प्रकारका व्यवहार करती हुई विचरने लगी। उसके बाद वे आर्याय सुभद्रा आर्या की 'तुम उत्तम कुलमें जन्म लेकर और उत्तम संयम अवस्थामें आकर ऐसे तुच्छ कर्म करती हो' इस प्रकारकी ' हीलना' करती हैं, और वे कुत्सित शब्द बोलकर उसका दोष प्रकट करती हई 'निन्दना' करती हैं। हाथ मुख आदिको विकृत करके अपमान करती हई । खिसना करती हैं। गुरू जनांके समीप उसके दोषोंका उद्धाटन करती हुई तिरવિચરે છે માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે તમારા આ કાર્યો માટે વિચાર કરે અને આ પાપની વિશુદ્ધિને માટે આ લેચના કરે અને પ્રાયશ્ચિત્ત લો તે આર્યાના આ પ્રકારે અકલ્પનીય વાતોના નિષેધ કરવા છતા પણ તે સુ? દ્રા આર્યાએ ન તો તે વાતને માની કે ન તેના ઉપર કોઈ ધ્યાન આપ્યું, પણ તેજ પ્રકારના વ્યવહાર કરતી વિચારવા લાગી ત્યાર પછી તે આર્યાઓ કહેતી કે –“તમે ઉત્તમ કૂળમાં જન્મીને ઉત્તમ સંયમ અવસ્થામાં આવી આવા તુચ્છ કર્મ કરે છે આવા પ્રકારની ના કરતી, કુત્સિત શબ્દ (મેગા) બોલીને તેના દોષ જાહેર કરતી કરતી નિન કરવા લાગી. હાથ મી આદિથી ચાળા પાડી અપમાન કરતી વિસના કરવા લાગી, ગુરૂજતેની પાસે તેના દોષ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २९१ ऽऽविष्करणपूर्वकं तिरस्कुर्वन्ति, अभीक्ष्णं २ वारंवारम् एतमर्थ-पुत्रादिलालनादिविषयं निवारयन्ति अवरुन्धन्ति । ततः खलु तस्याः सुभद्राया आर्यायाः श्रमणीभिर्निर्ग्रन्थीभिः हिल्यमानाया यावत् अभीक्ष्णम् २ एतम) निवार्यमाणाया अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणलक्षणः आध्यात्मिक अन्तःकरणगतः संकल्पो यावत् समुदपद्यत । अनपघट्टिका अविद्यमानोऽपघट्टकोयदृच्छया प्रवत्तमानाया हस्तग्रहणादिना स्कार रूप 'गर्हणा' करती हैं और वे बालक बालिकाओं आदिका लालन विषय का बार बार निवारण करती हैं। उसके बाद उन सुव्रता आदि आर्याओंके द्वारा पूर्वोक्त प्रकारसे हीलना निन्दना आदि करनेपर तथा वारम्बार निवारण करने पर उस सुभद्रा आर्याके अन्तःकरणमें इस प्रकारका विचार उत्पन्न हुआ कि 'जब मैं अपने घरमें थी तो स्वतंत्र थी, जब मै घर छोडकर मुण्डित हो प्रवजित हो गई तबसे मै पराधीन हूँ । पहले ये श्रमण निर्ग्रन्थिया मेरा आदर करती थीं और मेरे साथ प्रेमका बर्ताव करती थीं, पर आज ये न मेरा आदर ही करती हैं और न प्रेमका वर्ताव ही करती हैं, अपितु ये सर्वदा मेरी निन्दा करती रहती हैं। इसलिये मुझे उचित है कि प्रातःकाल होते ही इन सुत्रता आर्याऑको छोडकर अलग उपाश्रयमें जाकर उतरे। ऐसा विचार कर सूर्योदय होते ही सुव्रता आर्याओंको छोडकर वह सुभद्रा आर्या निकल गयी और अलग उपाश्रयमें जाकर अकेली ही रहने लगी। उसके बाद वह सुभद्रा आयाँ गुरुणी आदिके द्वारा ખુલા કરીને તિરસ્કારરૂપે જëા કરતી વાર વાર પુત્ર આદિના લાલન વિષયનુ નિવારણ ते सुत्रता माह मायामाना परीत प्रभाव हीलना-निन्दना मा ४२वाथी અને નિવારણ (મનાઈ) કરવામાં આવતા તે સુભદ્રા આર્યાના અ ત કરણમાં એ વિચાર ઉત્પન્ન થયો કે “જ્યારે હું મારે ઘેર હતી ત્યારે વતત્ર હતી હવે જ્યારે ઘર છેડી મુડિત થઈ પ્રવ્રુજિત થઈ, ત્યારથી હું પરાધીન છુ પહેલા આ શ્રમણ નિર્ગન્ધિઓ મારે આદર કરતી હતી અને મારા સાથે પ્રેમને વર્તાવ કરતી હતી પણ આજે તે નથી મારો આદર કરતી કે નથી મારી સાથે પ્રેમને વર્તાવ કરતી ઉલટી તે હમેશાં મારી નિન્દા કર્યા કરે છે. માટે સવાર પડતા જ આ સુત્રતા આર્યાઓને છેડી દઈ કઈ જુદા ઉપાશ્રયમાં ઉતરૂ એ મારા માટે ઉચિત છે. એમ વિચાર કરી સૂર્યોદય થતા જ સુવ્રતા આર્યાએને છોડીને તે સુભદ્રા આર્યા નીકળી પડી અને જુદા ઉપાશ્રયમાં જઈ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयाटिकामुत्रे निः सा तथा पत्ता पार्श्वस्या पार्श्वे=साधुगुणानामेकः= नीति तथा अन्ना=सामाचारीपालने अवसीदति तथा शी=कु=कुत्सितं उत्तरगुणमतिमेनाशीलं गयाः मा तथा संसा=गृहस्थादित्यनेन होनेके कारण स्वच्छन्द मति हो गृहस्थीके बच्चोंसे करने लगी। २६० म उसके बाद सुभद्रा आर्या पार्श्वस्था=साधुके गुणांसे दूर श्री. पान्य-विहारिणी हो गयी. इसी प्रकार अवमन= सामाचारी मित्र से विहारिणी हो गयी। और उत्तर गुणमें दक्षेप लगाने तथा संवदन कपायके से कुशीला हो कृशील और गृहस्थ आदिके साथ प्रेम यन्न कारण नामाचारी शिथिलता प्रवृत्त हो संतविहारिणी अपने अभिप्राय कल्पित मार्ग प्रवृत्त हो रणी हो गयी | इस प्रकार बहुत वर्षों तक उसने पादन किया । अन्तमें अर्धमानिकी संदेखना होग afer aint area हारा देवन पापस्थानकी आलोचना और marite के य at अपने उत्तगुण प्रतिसेवनम् मिण नहीं करा पर Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २९३ सामाचारी शिथिलीकरणपूर्वकं प्रवृत्ता यथाच्छन्दा = स्वाभिप्रायपूर्वक स्वमतिकल्पि तमार्गे प्रवृत्ता । शेषं सुगमम् ||५|| पुत्रिका विमान में उपपात सभा के अन्दर देवशयनीय शय्या में देवदृष्य वस्त्रों से आच्छादित जघन्य अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनावाली बहुपुत्रिका देवी होकर उत्पन्न हुई । उसके बाद यह बहुपुत्रिका देवी भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाँच प्रकारकी पर्याप्तिसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त कर उत्कृष्ट सात हाथकी अवगाहनावाली देवी होकर देवअवस्था में विचरने लगी । हे गौतम ! बहुपुत्रिकादेवी इस प्रकार अपनी दिव्य देव ऋद्धि आदिसे यावत् समन्वित हुई है । i हे भदन्त ! किस कारण से इसका नाम बहुपुत्रिका हुआ ? हे गौतम! बहुपुत्रिकादेवी जब-जब देवराज इन्द्र के पास जाती है तब-तब वह बहुतसे लडके लडकियोंकी और बच्चे बच्चि - योंकी विकुर्वणा करती है। विकुर्वणा करनेके बाद जहाँ देवताओंके राजा इन्द्र है वहाँ आती है, और देवताओंके राजा इन्द्रको अपनी दिव्य ऋद्धि, दिव्य देव ज्योति और दिव्य तेजको दिखलाती है । हे गौतम ! इसलिये यह बहुपुत्रिका देवी कहलाती है ॥ ५ ॥ ઉપપાત સભાની અદર દેવશયનીય શય્યામાં દેવદૃષ્ય વસ્રોથી આચ્છાદિત જઘન્ય અંશુલના અસ ખ્યાતમા ભાગ માત્ર (અવગાહના) વાળી બહુપુત્રિકા દેવી થઈને ઉત્પન્ન થઈ ત્યાર પછી જન્મતી વખતે આ બહુપુત્રિકા દેવી ભાષાપર્યા સે મનપર્યાપ્ત આદિ પાચ પ્રકારની પર્યાપ્તિથી પર્યાપ્તિ અવસ્થાને પામી ઉત્કૃષ્ટ–સાત હાથની અવગાહનાવાળી દેવી થઇ દેવ અવસ્થામા વિચવા લાગી હે ગૌતમ! બહુપુત્રિકા દેવી આ પ્રકારે પેતાની દિવ્ય દેવ ઋદ્ધિથી સમન્વિત ( परिपू] ) थ छे. હે ભદન્ત! કયા કારણથી તેનુ નામ બહુપુત્રિકા પડ્યુ ? હે ગૌતમ! બહુપુત્રિકા દેવી જ્યારે જ્યારે દેવાના રાજા ઇન્દ્રની પાસે જાય છે ત્યારે ત્યારે તે ઘણા છેાકરા-છોકરી તથા બાળકા અને માળાની વિધ્રુણા કર્યા પછી જ્યા દેવતાએકના રાજા ઇન્દ્ર ત્યા આવે છે અને તે દેવતાઓના રાજા ઇન્દ્રને પેાતાની દિવ્ય ઋદ્ધિ—દિવ્ય દેવજ્યેાતિ તથા દિવ્ય તેજ દેખાડે છે. હે ગૌતમ! भाटे ते "डुपुत्रा हेवी उडेवाय हे.' (५). Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे मूलम् - बहुपुत्तियाए णं भंते! देवीए केवइयं कालं ठि पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओ माई दिई पण्णत्ता । बहुपुत्तिया णं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ आउक्खपणं टिइक्खणं भवक्खणं अनंतरं चयं चइत्ता कहि गच्छिहिह ? कहिं उववजिहिद ? गोयमा ! इहेव जंबूदीवे दीवे भार से विज्झगिरिपायमूले विभेलसंनिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पच्चायाहि । तएणं तीसे दारियाए अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वितिक्कते जाव वारसेहिं दिवसेहिं वितिक्कते हि अयमेयारुवं नामधिजं करेंति, होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधिज्जं सोमा । तरणं सोमा उम्मुक्कबालभवा विणयपरिणयमेत्ता जोव्वणगमणुप्पत्ता रूवेण य जोवणेण य लायपणे य उक्किट्टा उकिटुसरीरा जाव भविस्सइ । तऐणं तं सोमं दारियं अम्मापियरो उम्मुकवालभावं विणयपरिणयमित्तं जोवणगमणुप्पत्तं पडिकूविएणं सुक्कणं पडिवणं नियगस्स भायणिजस्स रकूडयस्त भारित्ताए दलइस्सर । सा णं तस्स भारिया भव इट्टा कंता जाव भंडकरंडगसमाणा तेलकेला इव सुसंगोविआ चेलपेला (डा) इव सुसंपरिग्गहिया रणकरंडगओ विवसुसारक्खिया सुसंगोविया मा णं सीयं जाव मा णं विविहा रोगातका फुसंतु । २९४ तए णं सा सोमा माहिणी रटूकूडेणं सद्धिं विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणी संवच्छरे २ जुयलगं पयायमाणी सोलसेहिं संकच्छरेहिं बत्तीसं दारणरूवे पयाइ । तए णं सा सोमा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणनम् सुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २९५ माहणी तेहिं बहूहि दारगेहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य डिभएहि य डिभियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य अप्पेगइएहि थणियाएहि य अप्पेगइएहि पीहगपाएहि अप्पेगइएहि परंगणएहि अप्पेगइएहिं परकममाणेहिं, अप्पेगइएहिं पक्खोलणएहिं अग्पेगइएहिं थणं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खीरं मग्गमाणेहि अप्पेगइएहिं खिल्लणयं मग्गमाणेहि अप्पेगइएहिं खजगं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं करं मग्गमाणेहिं पाणियं मग्गमाणेहिंहसमाणेहि रूसमाणेहिं अकोस्समाणेहिं अक्कुस्समाणेह हणमाणेहिं विप्पलायमाणेहिं अणुगम्ममा णेहि रोवमाणेहिं कंदभाणेहिं विलवमाणेहि कुवमाणेहिंउक्कूबमाणेहि निद्धायमाणेहिं पलंबमाणेहिं दहमाणेहिं दंसमाणेहि वममाणेहिं छेरमाणेहिं मुत्तमाणेहिं मुत्तपुरीसवमियसुलित्तोवलित्ता मइलवसणपुच्चडा जाव असुइबीभच्छा परमदुग्गंधा नो संचाएइ रटुकडेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं मुंजमाणी विहरित्तए ॥ ६ ॥ छाया-बहुपुत्रिकाया भदन्त ! देव्याः कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! चतुःपल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता। बहुपुत्रिका खलु भदन्त ! देवी तरमाद्देवलोकादायुःक्षयेण स्थितिक्षयेण भवक्षयेण अनन्तरं चयं न्युत्वा क गमिष्यति क उत्पत्स्यते ? गौतम ! अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले विभेलसन्निवेशे ब्राह्मणकुले दारिकातया प्रत्यायास्यति । ततः खलु तस्या दारिकाया अम्बापितरौ एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते यावद् द्वादशभिर्दिवसैव्यतिक्रान्त रिदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः, भवतु अस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं सोमा । ततः खलु सोमा उन्मुक्तबालभाषा विज्ञकपरिणतमात्रा यौवनमनुप्राप्ता रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा यावद् भविष्यति । ततः खलु तां सोमा दारिकाम् अम्बापितरौ उन्मुक्तवालमात्रां Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ निरयावलिकासूत्रे , विज्ञकपरिणतमात्रां यौवनमनुप्राप्तां प्रतिकूजितेन शुल्केन प्रतिरूपेण निजकाय भागिनेयाय राष्ट्रकूट काय भार्यातया दारयति । सा खलु तस्य भार्या भविज्यति इष्टा कान्ता यावद् भाण्डकरण्डकसमाना तेल केला इव मुलंगोपिता चेलपेटा इत्र मुसंपरिगृहीता रत्नकरण्डक इव मुसंरक्षिता सुसंगोपिता मा खलु शीतं यावत् मा विविधाः रोगातकाः स्पृशन्तु । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकुटेन साई विपुलान् भोगभोगान भुञ्जाना संवत्सरे युगलं प्रजनयन्ती पोडशभिः संवत्सरैः द्वात्रिशद दारकरूपाणि प्रजनयति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तैबहुभितारकेश्च दारिकाभिश्च कुमारैश्च कुमारिकाभिश्च डिम्मैश्च डिम्भिकाभिश्च अप्येककैः उत्तानशयकैश्च, अप्येककैः रतनितेश्च अप्येककैः स्पृहकपादैः, अप्येककैः पराङ्गणकैः, अप्येककैः पराक्रममाणैः, अप्येककैः, प्रस्खलनकैः, अप्येककैः स्तनं मृग्यमाणैः. अप्येककैः, श्रीरं मृग्यमाणैः, अप्येककैः, खेलनक मृग्यमाणैः, अप्येककैः खाद्यकं मृग्यमाणैः, अप्येककैः कूरं (भक्तं) मृग्यमाणैः, पानीयं मृग्यमाणैः, हसद्भिः, रुष्यद्भिः, आक्रोशद्धिः, आक्रुश्यद्भिः, ध्वद्भिः, हन्यमानः, विप्रलपद्भिः, अनुगम्यमानः, रुढद्भिः, क्रन्दद्भिः, विलपद्भिः, कूजद्भिः, उत्कूजद्भिः, निर्धावद्भिः, प्रलम्पमानैः, दहद्भिः दद्धिः, वमद्भिः, छेरद्भिः, मूत्रयद्भिः, मूत्रपुरीपवान्तमुलिप्तोपलिप्ता मलिनवमनपुच्चडा यावद् अशुचिवीभत्मा परमदुर्गन्धा नो शक्नोति राष्ट्रकूटेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् सुञ्जाना वितुम् ॥ ६ ॥ टीका-'बहुपुत्रियाएणं इत्यादि-हे भवन्त ! बहुपुत्रिकाया देव्याः क्रियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? हे गौतम ! चतु:पल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । हे भदन्त ! वहुपुत्रिका देवी तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षयेण-आयुटेलिकनिर्जरणेन देवलोकवासोचितावधिव्यतिगमेनस्थितिक्षयेण-आयुःकर्मणः 'बहुपुत्तियाएणं' इत्यादिहे भदन्त ! बहुपुत्रिकादेवीकी स्थिति कितने कालकी है ? हे गौतम ! बहुपुत्रिकादेवीकी स्थिति चार पल्योपमकी है ! हे भदन्त ! वह बहुपुत्रिकादेवी आयुक्षय भवक्षय और स्थिति'बहुपुत्तियाएणं' त्या. હે ભદન્ત ! બહુપત્રિકા દેવીની સ્થિતિ કેટલા સમયની છે? હે ગૌતમ! બહપુત્રિકા દેવીની સ્થિતિ ચાર પલ્યોપમ છે હે ભદન્ત' તે બહુપુત્રિકા દેવી આયુક્ષય, ભવક્ષય તથા સ્થિતિક્ષય પછી દેવકમાશી એવીને ક્યા જશે? કયા જન્મ લેશે? Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २९७ स्थितिनिर्जरणेन भवक्षयेण=देवभवकारणभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन क= कुत्र उत्पत्स्यते जनिष्यते ? गौतम ! अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे तन्नामके द्वीपे मध्यजम्बूद्वीपे भारते तन्नामके वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले विन्ध्याचलाधस्तले विभेलसंनिवेशे-विभेलनामकग्रामविशेषे ब्राह्मणकुले ब्राह्मणवंशे दारिकातया पुत्रीत्वेन प्रजनिष्यते-समुत्पत्स्यते । ततः जननानन्तरं खलु तस्या दारिकाया अम्बापितरौ-मातापितरौ एकादशे दिवसे–दिने व्यतिक्रान्ते व्यतीते यावत् द्वादशभिर्दिवसः इदमेतद्रपंवक्ष्यमाणलक्षणं नामधेयं कुरुतः, अस्माकमस्याः दारिकायाः पुत्र्याः ‘सोमा' इति नामधेय-नाम भवतु । ततः तदनन्तरम् खलु-निश्चयेन सोमा उन्मुक्तवालभावा-व्यतीतबाल्यावस्था, विज्ञकपरिणतमात्रा=' विषयसुखाभिज्ञा यौवनम्=युवतिदशाम् अनुप्राप्ता=अनुबाल्यात् पश्चात् प्राप्ता, रूपेण-आकृत्या, च-पुनः, यौवनेन तारुण्येन, च-पुनः लावण्येन-मुक्ताफलगतच्छायातरलतासदृशशरीरावयवान्तःप्रविष्टचाकचिक्येन, उक्त च " मुक्ताफलेषुच्छायायास्तरलत्वमिवान्तरे। प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते ॥ १ ॥ क्षयके बाद देवलोकसे च्यवकर कहा जायगी ? कहा उत्पन्न होगी? हे गौतम ! यह बहुपुत्रिकादेवी जम्बूद्वीप नामक द्वीपके अन्दर भरत क्षेत्र में विन्ध्यपर्वतके समीप विभेल संनिवेश (गाम) में ब्राह्मणकी कन्या होकर जन्म लेगी। उसके बाद उसके माता पिता ग्यारह दीन बीतनेपर बारहवे दिन अपनी लडकीका नाम सोमा रखेंगे। वह सोमा बालभाव छोडती हुई विषय सुखके परिज्ञानके साथ यौवनावस्थामें प्रवेशकर रूप-यौवन-लावण्यसे उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीरवाली होगी। गौर आदि सुन्दर वर्णवाले आकारको 'रूप' कहते हैं। હે ગૌતમ! આ બહુપુત્રિકા દેવી જમ્બુદ્વીપની અંદર ભરત ક્ષેત્રમાં વિધ્ય પર્વતની પાસે વિભેલ (સન્નિવેશ) ગામમાં બ્રહ્મણની કન્યા થઈને જન્મ લેશે ત્યાર પછી તેના માતાપિતા અગીયાર દિવસ વીતી ગયા પછી બારમે દિવસે પિતાની છોકરીનું નામ સમા રાખશે તે સોમા બાલભાવ છોડી વિષય સુખના પરિજ્ઞાનવાળી યૌવન અવસ્થામાં પ્રવેશ કરશે ત્યારે રૂપથીવન-લાવણ્યથી ઉત્કૃષ્ટ અને ઉત્કૃષ્ટ शरीरवाणी थो. . । ગોર અદિ સુદરવર્ણવાળા આકારને “રૂપ' કહે છે મોતીની અંદરની ચમકના ३८ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ निरयावलिकासत्रे उत्कृष्टा-उत्कृष्टशरीरा-मनोहरकाया यावद् भविष्यति, तता-परिणययोग्यताप्राप्त्यनन्तरं खलु तां सोमां दारिकाम् अम्बापितरौ-उन्मुक्तवालमावां विवकपरिणतमात्रां यौवनमनुप्राप्तम् एतेपां व्याख्याऽत्रैव मुत्रे प्रागुपपादिता, प्रतिजितेन=स्वीकृतितया प्रतिभापितेन शुल्केन देयद्रव्येण प्रचुराभरणादिना विभूपितां कृत्वेति शेषः, प्रतिरूपेण अनुकलेन प्रियवचनेन ‘भवद्योग्येय' मितिप्रभृतिना वचसा, निजकाय = स्वकीयाय भागिनेयाय = भगिनीपुत्राय राष्ट्रकूटाय भार्यातया स्त्रीत्वेन दास्यति । साम्सोमा खलु तस्य राष्ट्रकूटस्य भार्या भविष्यति, इष्टा-बल्लभा कान्ता कमनीयत्वात् , यावच्छन्देन, प्रिया सदाप्रेमविपयत्वात् , मनोज्ञा मुन्दरत्वात् एवं 'मणामा संमया अणुमया' इत्यादि दृश्यम् । एतद्वयाख्या पूर्व प्रतिपादिता । भाण्डकरण्डकसमाना भूपणादिकरण्डकवत् , तैलकेला तैलधानी सौराष्ट्र देशप्रसिद्धो मृन्मयतेलपात्रविशेषः तद्वत् मुसंरक्षिता अनितरां परिपालिता, मुसंगोपिता यत्नेन रक्षिता चेलपेटा इव वस्त्रमञ्जूपावत् मुसंपरिगृहीता-मुष्ठु परिग्रहत्वेन संरक्षिता । रत्नकरण्डकवत्इन्द्रनीलादिरत्नमञ्जूपावत् सुसंगोर्पिता च, शीतं शीतवाधाः यावत् विविधाः मोतीके अन्दरकी चमकके समान जो शरीरकी चमक हो उसे ‘लावण्य ' कहते हैं। उसके बाद माता पिता, बाल्यावस्था पारकर यौवनावस्थाम प्रविष्ट उस सोमा वालिकाको विषय सुखसे अभिज्ञ जानकर निश्चित देने योग्य द्रव्य और प्रियवचनके माथ अपने भानजे राष्ट्रकूटके साथ उसका विवाह कर देंगे। वह सोमा उसकी इष्टा कान्ता और वल्लभा होगी, और वह उस सोमाकी आभूपणके करण्डकके समान तेलके सुन्दर वर्तनके समान यत्नपूर्वक रक्षा करेगा, वस्त्रोंकी पटा के समान उसको अच्छी तरह रखेगा और इन्द्रनील आदि रत्न. જેવી શરીરની ચમક થાય તેને લાવણ્ય કહે છે. - ત્યાર પછી માતાપિતા, બાલ્યાવસ્થા વીતી ગયા પછી યૌવન અવસ્થામાં આવેલી તે સે બાલિકાને વિષય સુખથી અભિજ્ઞ ( જાણીતી) થયેલી જાણી નિશ્ચિત દેવાયા દ્રવ્ય તથા પ્રિય વચન સાથે પિતાના વાણેજ રાષ્ટ્રની સાથે તેના વિવાહ કરશે ? સમા તેની ઈબ્દા કાના અને વલભા થશે અને તે, સેમાની આભૂષણના કર ૩૧ પિઠે, તેલના સુંદર વાસણની પિઠે યત્નપૂર્વક શ્રા કરશે. સોની પટીની પેઠે તને સારી રીતે રાખશે અને નીલ આદિ નકરંડકની પિડે ,-બાથી પણ વધરિ મહત્વ 3 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ.४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् २९९ नाना प्रकाराः रोगातङ्काः रोगा-चिरघातिनः, ज्वरादयः आतङ्काः सद्योघातिनः, मस्तक शूलादय ! इमां मा खलु-नैव स्पृशन्तु-आश्रयन्तु । नतः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटेन सार्द्ध विपुलान् बहून् भोगभोगान्-विषयभोगान् भुञ्जाना संवत्सरे संवत्सरे प्रतिवर्ष युगलं-सन्तानयुग्मं प्रजनयन्ती-प्रमूयमाना पोडशभिः संवत्सरैःवर्षेः द्वात्रिंशद्-द्वयधिकत्रिंशद् दारकरूपान् बालकलक्षणान् अत्र दारिकाश्च दारकाचेत्यथै एकशेषेण दारिका शब्दस्य लोपे रूपशब्देन समासे पुत्रीपुत्ररूपान् इति तदर्थः, प्रजनयति-उत्पादयति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तैः बहुभिः अनेकैः दारकैः पुत्रैः दारकाभिः पुत्रीभिः बहुकालिकीभिः, कुमारैः बहुतरकालिकैः, पुत्रैः, कुमारिकाभिः बहुतरकालिकीभिः पुत्रीभिः, डिम्भैः अल्पकालिकपुत्रैः डिभिकाभिः अल्पकालिकीभिः पुत्रीभिश्च, अप्येक उत्तानशयकैःऊर्ध्वमुखशयनशीलैः, अप्येककैः स्तनितैः चीत्कारशब्दितः, अप्येककैः स्पृहकपादैः-स्पृहन्ति= गमनं वाञ्छन्ति, इति स्पृहकाः पादाचरणा येपामिति ते तथा गमनेच्छुचरणाः, गमनोत्सुकपादा इत्यथः अत्र गमनेच्छायाश्चेतनवृत्तित्वेऽपि पादेष्वारोपात् 'स्थाली पचति' स्थाल्या पच्यते, इत्यादिवत् साधुता वोध्या । उक्तश्चकरण्डकके समान प्राणोंसे अधिक महत्व देकर रक्षा करेगा, और उसको वात पित्त आदि रोग और आतङ्क न स्पर्श कर सकें इस प्रकार सचदा रक्षाकी चेष्टा करता रहेगा। उसके बाद वह सोमा दारिका राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई प्रत्येक वर्षमें एक २ सन्तान-युगलको जन्म देगी। और वह सोलह वर्षमें बत्तीस बच्चोंकी मा होजायगी बाद उसके वह सामा ब्राह्मणी अपने उन छोटे बडे बच्चे बच्चयोंसे तंग आजायगी। उसके उन बच्चोंमें कोई अल्पकालका जन्मा हुआ बच्चा उत्तान होकर सोता रहेगा, कोई चीत्कार मार कर रोता रहेगा, कोई चलनेकी इच्छा करेगा, कोई દઈને તેની રક્ષા કરશે. તથા તેને વાત પિત્ત આદિ રોગ તથા અતક પણ સ્પર્શન કરી શકે એવી રીતે હમેશાં રક્ષા કરવાની વ્યવસ્થા કરતો રહેશે ત્યાર પછી તે સોમા દારિકા રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ ભેગોને ભેગવતી દર વરસે એક એક સંતાનના જોડલાને જન્મ દેશે અને તે સેળ વર્ષમાં બત્રીસ બાળક બાળકીઓની મા થઈ જશે. પછી નાના મોટા બાળકેથી તે મા બ્રાહ્મણ ત ગ થઈ જશે તેના એ બરચાઓમાં કઈ થોડાજ કાળમાં જન્મેલા બચ્ચા ઉત્તાન થઈને સુઈ રહેશે, કેઈ રેડ પાડીને રવા લાગશે, કેઈ ચાલવાની ઈચ્છા કરશે, કેઈ બીજાના ફળીયામાં જતું રહેશે, અથવા Page #296 --------------------------------------------------------------------------  Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् द्भिः चीत्कुर्वद्भिः, विलपद्भिः आर्तस्वरं कुर्वाणैः, कूजद्भिः स्फुददधरपूर्वकमप्रकटशब्दं कुर्वद्भिः, उत्क्रूजद्भिः उच्चैः शब्दं कुर्वाणैः पूत्कुर्वद्भिः, निद्राद्भिः= निद्रां सेवमानः, (स्वपद्भि) प्रलम्बमानः वस्त्राञ्चलं समालम्बमानैः दहद्भिः ज्वलद्भिः, दशद्भिः दन्तैः कृन्तद्भिः वमद्भिः उद्विद्भिः (मच्छर्दयद्भिः) छेरद्भिः वारंवारं हृदमानैः, मूत्रयद्भिः मूत्रं कुर्वद्भिः मूत्रपुरीपवान्तमुलि. तोपलिप्ता प्रस्रावविष्ठोद्गीणौतमोता, मलिनवसनपुच्चडा-मलयुक्तवस्त्रैः पुचडानिश्शोभा कान्तिहीनेत्यर्थः, यावद् अशुचिवीभत्सा-अशुचित्वेन नितरां दुर्नि रीक्षणीया (घृणिता) परमदुर्गन्धा-अतिदुर्गन्धयुक्ता, राष्ट्रकूटेन स्वपतिना सारै विपुलान्-बहून् भोगभोगान् भुज्यन्ते भोगविषग्रीक्रियन्त इति भोगाः शब्दादयो विषयास्तेषां भोगाः सेवनानि तान् तथा भुञ्जाना=सेवमाना विहर्तुम् अवस्थातुं नो शक्नोति-न प्रभवति ॥ ६ ॥ मूलम्-त्तएणं तीसे सोमाए माहणीए अण्णया कयाई पुवरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुपजित्था-एवं खलु अहं इमेहिं बहूहिं दारगेहि य जाव डिभियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य जाव तस्वरसे रोयेगा, कोई बच्चा कूजता-अव्यक्त शब्द करता रहेगा, कोइ जोरसे अव्यक्त शब्द करता रहेगा, कोइ सोता रहेगा, कोइ कपडेका अंचल पकडकर लटकता रहेगा, कोई आगसे जल जायगा, कोई दातसे काटता रहेगा, कोई वमन करता रहेगा, कोई पाखाना करता रहेगा, कोई मूत्र करता रहेगा। इसलिये उन बच्चोंका पेशाब पाखाना वमनसे भरी हुई तथा मैले कपडोंसे कान्तिहीन, यावत् अशुचि, विभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धित हो राष्ट्रकूट के साथ अपने विपुल भोगोंको भोगने में समर्थ न हो सकेगी ॥ ६ ॥ કૂજતા (ટીકા કરતા) અવ્યક્ત ન સમજાય તેવા શબ્દ બે લ્યા કરશે કઈ જોરથી અવ્યક્ત શબ્દ કર્યા કરશે. કેઈ સુતા રહેશે, કઈ કપડાના છેડા પકડીને લટક્યા કરશે કઈ અગ્નિમાં બળી જાશે, કઈ દાત વડે કરડવા લાગશે, કઈ ઉલટી કરશે, કેઈ ઝડે ફરતા રહેશે, કે ઈ મૂતર્યા કરશે આ માટે તે બચ્ચાના પેશાબ–પાયખાન–ઉલટીથી ભરેલી મેલા કપડાથી કાન્તિહીન એટલે અશુચિ, બીભત્સ અત્યન્ત દુર્ગતિ થઇને રાષ્ટ્રકૂટની સાથે પોતાના વિપુલ ભેગ ભેગવવા સમર્થ નહિ થઈ શકશે (૬) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. निरयावलिकामूत्रे अप्पेगइहिं मुत्तमाणहिं दुजाएहिं दुञ्जम्मएहिं हयविप्पहयभग्गेहि एगप्पहारपडिएहिं जाणं मुन्तपुरीसबमियसुलित्तोवलित्ता जाव परमदुभिगंधा नो संचाएमि रटुकडेग सद्धिं जाव भुंजमाणी विहरितए । तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जीवियफले जाओणं बंझाओ अवियाउरीओ जाणुकोप्परमायाओ मुभिमुगंधगंधियाओ विउलाई माणुस्सगाई भागभागाई भुंजमाणीओ विहरति, अहं णं अधन्ना अपुण्णा अकयपुष्णा नो संचाएमि रटुकुडेणं सहिं विउलाई जाव विहरित्तए । तेणं कालणं २ सुव्याओ नाम अजाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुवाणुपुदि जेणेव विभेले संनिवेसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं जाव विहरति । तएणं तासि सुब्बयाणं अजाणं एगे संघाडए विभेले सन्निवेसे उच्चनीय जाव अडमाणे रट्रकडस्स गिहं अणुपविटे । तएणं सा सोमा माहणी ताओ अजाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता हटुतुहा० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ, अभुट्टित्ता सत्तट्रपयाई अणुगच्छड, अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, विउलेणं असण 2 पडिलाभेइ, पडिलभित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अजाओ ग्टकडेणं सहि विउलाई जाव संवच्छरे २ जुगलं पयामि, सोलसहिं संवच्छरहिं बत्तीसं दारगरूवे पयाया । तएणं अहं तेहिं वहहिं दारएहि य जाव डिभियाहिय अप्पेगइएहि उत्ताणसिज्जपहि जाव मुत्तमाणेहि दुजाएहिं जाव नो संचाएमि रटुकडणं सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरिनए, तं इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्हं अंतिए धम्म निसामित्तए । तएणं ताओ अज्जाओ सोमाए माहणीए Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ सुन्दरबोधिनी टीको वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् विचित्तं जाव केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेइ । तएणं सा सोमा माहणी तासिं अज्जाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्टा जाव हियया ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी सदहामि णं अज्जाओ ! निग्गथं पावयणं जाव अब्भुट्रेमि णं अज्जाओ जाव से जहेयं तुम्भे वयह, जं नवरं अज्जाओ ! स्टुकडं आपुच्छामि । तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पञ्चयामि । अहासुहं देवाणुपिए ! मा पडिबंधं । तएणं सा सेामा माहणी ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ ॥७॥ छाया-ततः खलु तस्याः सोमाया ब्राह्मण्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्पो यावत् समुदपद्यत-एवं खलु अहमेभिर्वहुभिर्दारकैश्च यावद् डिम्भिकाभिश्च अप्येककै उत्तानशयकैश्च यावद् अप्येककैमूत्रयद्भिः दुर्जा तैः दुर्जन्मभिः हतत्रिमहतभाग्यैश्च एकप्रहारपतितः या खलु मूत्रपुरीपत्रमितमुलिप्तोपलिप्ता यावत् परमदुरभिगन्धा नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन सार्द्ध यावद् भुञ्जाना विहर्तुम् । तद् धन्याः खलु 'तएणं तीसे' इत्यादि उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सोमा ब्राह्मणीके आत्मामें इस प्रकारका विचार उत्पन्न होगा-किं अहो ! मै मलमूत्र करनेवाले इन बहुतसे अभागे दु:खदायी थोडे २ दिनोमें उत्पन्न होनेवाले, दुर्जन्मा छोटे घडे और नवजात शिशुओंके द्वारा मलभूत्र और वमनसे लिपी-पुती अत्यन्त दुर्गन्धमयी होकर राष्ट्रकूट के साथ सुखका अनुभव नहीं कर पाती है। 'तएणं तीसे' या ત્યાર પછી એક સમય પાછલી રાતે કુટુંબ જાગરણ કરતા તે સેમા બ્રાહ્મણીના મનમાં એ વિચાર ઉત્પન્ન થશે કે અહે ! હુ મળમૂત્ર કરવાવાળા ઘણુ કમનશીબ દુખદાયી થોડા દિવસોમાં જન્મ લેવાવાળા દુર્જન્મા નાના મેટા અને નવા જન્મેલા બાળકેના મળમૂત્ર તથા વમનથી લીપાયેલ, ખરડાયેલ અત્યત દુર્ગન્ધિમયી બની હોવાથી રાષ્ટ્રકૂટની સાથે સુખને અનુભવ લઈ શકતી નથી Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिका सूत्रे ता अम्बिका यावद् जीवितफलं याः खलु बन्ध्या अविजननशीला जानुकूपरमातरः मुभिमुगन्धगन्धिका विपुलान् मानुष्यकान भोगभोगान भुञ्जाना विहरन्ति, अहं खलु अधन्या अपुण्या नो शक्नोमि राष्ट्रकटेन साई विपुलान यावद् विहर्तुम् । ' तस्मिन् काले तस्मिन् समये मुव्रता नाम आर्या इसिमिता यावद् बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी यत्रैव वेभेलः सन्निवेशस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यथाप्रतिरूपमम् अवग्रहं यावद् विहरन्ति । ततः खलु तासां सुत्रतानामार्याणाम् एकः संघाटको वेभेले सन्निवेशे उच्चनीच० यावत् अटन् राष्ट्रकूटस्य गृहमनुप्रविष्टः । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी ता आर्या एजमानाः पश्यति दृष्ट्वा हटतुष्टा० क्षिप्रमेव० आसनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनु__ . वे माताएँ धन्य हैं और उनका जीवन सफल है, जो बन्ध्या हैं, जिन्हें, जिन्हें बच्चा नहीं होता, जो जानुकूपरमाता हैं जो सुगन्ध द्रव्योंसे सुवासित हो मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको भोगती हुई विचर रही हैं, मैं अधन्य है, अपुण्य है, जो कि मैं राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगोंको नहीं भोग सकती हूँ। उस काल उस समयमें सुव्रता नामकी आर्याए ईर्यासमिति आदिसे युक्त बहुत सी साध्वियोंके साथ तीर्थंकर परम्परासे विचरती हुई वेभेल सन्निवेशमें आवेंगी और यथोचित अवग्रह लेकर . वहा रहने लगेंगी। बाद उसके एक दिन उन सुव्रता आर्याओंका एक संघाटक वेभेल सन्निवेठाके उच्च नीच मध्यम कुलमें फिरता हुआ राष्ट्रकूटके घरमें आयेगा। उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी आती हुई उन आर्याऑको देखेगी देखकर हृष्ट तुष्ट हृदय हो તે માતાઓને ધન્ય છે અને તેમના જીવન સફળ છે કે જે વાઝણી છે-જેને કરૂ થતુ નથી, જે જનુકુપરમાતા છે, જે સુગંધી દ્રવ્યોથી સુવાસિત થઈને મનુષ્ય સબધી ભેગો ભગવતી વિચરે છે હુ અધન્ય છું, અપુણા છુ જેથી હું રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ ભેગેને ભોગવી શકતી નથી તે કાળે તે સમયે સુવ્રતા નામની આર્યાઓ ઇસમિતિ આદિ ચુત ઘણી સાબીઓની સાથે તીર્થકર પર પરાથી વિચરતી બિભેલ સનિવેશમાં આવશે અને યથાચિત અવગ્રહ લઈને ત્યાં રહેવા લાગશે પછી એક દિવસ તે સુવ્રતા આર્યાઓનુ એક સ ઘાડું બિભેલ સન્નિવેશવા ઊંચા નીચા અને મધ્યમ કુલમાં ફરતાં ફરતા રાષ્ટ્રકૂટના ઘરમાં આવશે ત્યાર પછી તે મા બ્રાહા તે આર્થીઓને આવતી જશે અને તેમને જોઈને Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् गच्छति, अनुगत्य चन्दते नमस्यति विषुलेन अशन० ४ प्रतिलम्भयति, प्रतिलम्भ्य एवम गदीत-एवं खलु अहमाया ? राष्ट्रटेन साई विपुलान् यावत् संवत्सरैः द्वात्रिशद् दारकरूपान् प्रजाता । ततः खलु अहं तैर्वहुभिदारकैश्च यावद् डिम्भिकाभिश्च अप्येककैः उत्तानशयकैः यावत् मूत्रयद्भिः दुर्जात यावद् नो शक्नोमि राष्टकटेन सार्द्ध विपुलान भोगभोगान् भुञ्जाना विहर्तुम्, तदिच्छामि खलु आर्याः ! युष्माकमन्ति के धर्म निशामयितुम् । ततः खलु ता आर्याः सोमायै ब्राह्मण्यै निचित्रं यावत् केवलिप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तासामार्याणामन्ति के धर्म श्रुत्वा निगम्य हृष्टतुष्टा० यावद् हृदया ता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमंस्थित्वा शीघ्रातिशीघ्र अपने आसनसे उठ कर खडी होगी। और उन आयाओंका आदर सत्कार करने के लिए सात आठ पग आगे जायेगी। अनन्तर वन्दन नमस्कार कर विपुल अशन पान आदिसे प्रतिलालित करेगी। और उनसे इस प्रकार कहेगी-हे देवानुप्रिये । राष्ट्रकूटके साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई हमने प्रत्येक वर्ष में युगल बच्चोको जन्म देकर सोलह वर्षोलें बत्तीस बच्चोंको जन्म दिया है। मैं दुर्जन्मा उन बचौका मल-मूत्र और वमन आदिसे सनी-पुती दुर्गन्धित शरीर हो अपने पतिके साथ कुछ भी आनन्द भोग नहीं कर पाती। हे आर्याएँ ! मै आप लोगोंके समीप धर्म सुनना चाहती हू। उसके बाद वे साध्विया सोमा ब्राह्मणीको विचित्र यावत् केवली प्ररूपित धर्मका उपदेश देंगी। હષ્ટતુષ્ટ એ તકરણથી જલદી જલદી પિતાને આસનેથી ઉઠીને ઉભી થશે અને તે આર્થીઓને આદર સત્કાર કરવા માટે સાત આઠ પગલા સામે જાશે ત્યાર પછી વન્દન અને નમસ્કાર કરીને સારી રીતે અશનપાન આદિથી પ્રતિલાભિત કરશે (વહરાવશે) ને તેમને આ પ્રકારે કહેશે – હે દેવાનુપ્રિયે ! રાષ્ટ્રની સાથે વિપુલ ભોગને ભગવતી ને પ્રત્યેક વર્ષે એક જોડકા બાળકને જન્મ આપતા સોળ વર્ષમાં બત્રીસ બચ્ચાને જન્મ આપે છે હું દુર્જન્મા તે બચ્ચાના મળમૂત્ર અને ઉલટી આદિથી લીપાયેલી દુન્યવાળા શરીરે મારા પતિની સાથે કઈ જાતને આનદ ભેગા કરી શકતી નથી તે આર્યાઓ ! આપ લેકેની પાસે ધર્મ સાભળવા માગું છું ત્યાર પછી તે સાધ્વીઓ સેમા બ્રાહ્મણને વિચિત્ર એટલે કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ આપશે 36 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रे एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु आर्णः ! निर्गन्धं प्रवचनम्, इदमेतद आर्याः ! यावत् यद् यथेदं यूयं वदथ, यद् नवरमार्याः ! राष्ट्रकुटमापृच्छामि । नतः खलु अहं देवानुप्रियाणामन्ति के मुण्डा यावत् प्रव्रजामि । यथामुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिवन्धम् । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी ता आर्या बन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्यित्वा प्रतिविसर्जयति ॥ ७ ॥ टीका-'तएणं तीसे' इत्यादि-दुर्जातः-दुप्टं जातं प्रादुर्भावो येषां ते तथा तैः, अन एद-दुर्जन्मभिः= दुष्ट-कुत्सितं येषां मम दुःखदायित्वात् ते नथा तैः, हतविप्रहतभाग्यः सर्वथा भाग्यहीनैः । एकपहारपतितः अल्पकालेनैव मम कुक्ष्यवतीर्णैः । शेपं मुगमम् ॥ ७ ॥ __उसके बाद वह मोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंसे धर्म सुनकर उसे हृदयमें अवधारित कर दृष्ट तुष्ट हो अत्यन्त हर्षयुक्त हृदयसे उन आर्याओंका वन्दन और नमस्कार करके इस प्रकार कहेगी हे आर्याओ ! मैं निर्गन्ध प्रवचनपर श्रद्धा रखती हूँ, और निर्गन्ध प्रवचन को सम्मानित करती हूँ। हे देवानुप्रिये ! जो आप कहती हैं वही सत्य है। मै राष्ट्रकूटको पूछती हूँ, वादमें आपके पास मुण्डित होकर प्रव्रजित होऊँगी। ____ उसके बाद आर्याने कहा-जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो। शुभ काममें प्रमाद मत करो । उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओको वन्दन और नमस्कार कर विसर्जन करेगी ॥७॥ ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્મણ તે આર્યાઓ પાસેથી ધર્મ સાભળીને તે હૃદયમાં - ધારણ કરીને હૃષ્ટ તુષ્ટ થઈને અત્યંત હર્ષયુકત હદયથી તે આર્થીઓને વદન અને નમસ્કાર કરીને આ પ્રકારે કહેશે – છે આર્યાઓ! હું નિર્ચન્ય પ્રવચન ઉપર શ્રદ્ધા રાખું છું અને નિર્ચન્ય પ્રવચનને સન્માનિત કરૂ છું હે દેવાનુપ્રિયે! જે આપ કહો છો તેજ સત્ય છે હું રાષ્ટ્રકૂટને પૂછું છુ. પછી આપની પાસે મુડિત થઈને પ્રત્રજિત થઈશ ત્યાર પછી આર્યાઓ કહે છે–જેવી રીતે તને સુખ થાય તેમ કર શુભ કામમાં પ્રમાદ ન કર. ત્યાર પછી તે સોમા બ્રાહ્મણી તે આર્યાઓને વંદન અને નમસ્કાર કરી વિસર્જન કરશે (૭) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवी वर्णनम् ३०७ मूलम्-तएणं सा सोमा माहणी जेणेव रट्टकडे तेणेव उवागया करतल० एवं वयासी-एवं खलु भए देवाणुप्पिया ! अज्जाणं अंतिए धभ्मे निसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए जाव अभिरुचिए, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहिं अभगुन्नाया सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पवइत्तए । तए णं से रहकूडे सोमं माहणिं एवं वयासीं-मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! इदाणिं मुंडा भवित्ता जाव पवयाहि । भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं, ततो पच्छा भुत्तभोई सुब्बयाणं अजाणं अंतिए मुंडा जाव पचयाहि । तएणं सा सोमा माहणी पहाया जाव सरीरा चेडियाचकवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खसइ, पडिनिक्खमित्ता विभेलं संनिवेसं मज्झमज्झेणे जेणेव सुव्वयाणं अज्जाणं उवस्तए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवयाओ अज्जाओ बंदा नमसइ, पज्जुवासइ । तएणं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं केवलिपपणतं धम्मं करिकहेइ, जहा जोवा वति । तएणं सा सोमा माहणी सुब्बयाणं अज्जाणं अंतिए जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जिता सुवयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता जालेब दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। तएणं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगत० जाव अप्पाणं भावे माणी विहरइ। तएणं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ अण्णया कयाई बिभेलाओ संनिवेसाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता, बहिया जणवयविहारं विहरंति ॥ ८ ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रे छाया—ततः ग्वलु सा सोमा ब्राह्मणी यत्रैव राष्ट्रकूटस्तत्रैव उपागता करतल० एवमवादीत एवं खलु मया देवानुप्रियाः ! आर्याणामन्तिके धर्मो निशान्तः (श्रुतः) सोऽपि च खलु धर्म इष्टो यावद अभिरुचितः, ततः खलु अहं देवानुमियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सुव्रतानामार्याणां यावत् प्रत्रजितम् । ततः खलु व राष्ट्रकूटः सोमां ब्राह्मणीमेयमवादीत् मा खलु देवानुमिये ! इदानीं मुण्डा भूत्वा यावत् मब्रज, भुङ्क्ष्य तावद् देवानुप्रिये ! मया सार्द्धं, विपुलान भोग भोगान, ततः पचाद्युक्तमोगा सुत्रतानामार्याणामन्तिके मुण्डा यावत् पव्रज । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटस्य एतमर्थ प्रतिश्रृगोति । ततः खलु सा सोमा ग्रामणी स्नाता यावत् सर्वालङ्कारभूपित ३०८ 'तपणं सा' इत्यादि उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकटके पास आवेगी और हाथ जोडकर इस प्रकार कहेगी हे देवानुप्रिय ! मैले आर्याओंके समीप धर्म सुना । वह धर्म भी मुझे इप्रिय और हितकारक जान पड़ा और अच्छा लगा, इसलिये हे देवानुप्रिय ! मेरी इच्छा है कि तुमसे आज्ञा लेकर मै उन आर्याओं के पास जाउँ, और दीक्षा ग्रहण करूँ । सोमा ब्राह्मणका ऐसा वचन सुनकर राष्ट्रकुट उससे कहेगाहे देवानुप्रिये ! अभी तुम मुण्डित होकर प्रब्रजित मत होओ ! हे देवानुप्रिये ! अभी तुम मेरे साथ विपुल भोगोंका भोग करो । उसके बाद भुक्तभोगा होकर सुवना आर्याके पास प्रव्रजित होना । सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटकी इस सलाहको मान जायगी। बाद में वह सोमा ब्राह्मणी स्नान करके सभी प्रकारोंके अलङ्कारोंसे अलङ्कृत " तणं सा' इत्याहि ત્યાર પછી તે સેમા બ્રાહ્મણી રાષ્ટ્રકૂટની પાસે આવશે અને હાથ જોડીને આ પ્રકારે કહેશે ~હે દેવાનુપ્રિય ! મેં આય પાસેથી ધર્મોનું શ્રવણ કર્યું તે ધ પણ મને ઇષ્ટ પ્રિય અને હિતકારક લાગ્યા ને સારા પણ જણાયે છે માટે હું દેવાતુપ્રિય! મારી ઇચ્છા છે કે તમારી આજ્ઞા લઇને હું તે આર્યાઓ પાસે જાઉં અને દીક્ષા ગ્રહુ કરૂ સામા બ્રહ્માણીના એવા વચન સાભળી રાષ્ટ્રકૂટ તેને કહેશે ~~ હું દેવાનુપ્રિયે । હાલ તુ મુઠિત થને પ્રત્રજિત ન થા હૈ દેવાનુપ્રિય ! હાલ તા મારી સાથે વિપુલ ભેગેને ભગવ ત્યાર પછી ભુકતભેગા થઇ સુત્રતા આર્યાની પાસે પ્રજિત જે સેમા બ્રાહ્મણી રાષ્ટ્રકૂટની આ સલાહને માની જશે પછી તે સેમા બ્રાહ્મણી સ્નાન કરીને તમામ જાતના ઘરેણા-ગાાથી અલકૃત ઇ દાસીઓની Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् शरीरा चेटिकाचक्रवालपरिकीर्णा स्वस्माद् गृहात प्रतिनिष्क्रामतिः, प्रतिनिष्क्रम्य विभेलं संनिवेशं मध्यमध्येन यत्रैव सुव्रतानामार्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य सुव्रतां आया वन्दते नमस्यति पर्युपास्ते । ततः खलु ताः सुत्रताः आर्याः सोमायै ब्राह्मण्यं विचित्रं केवलिपज्ञप्तं धर्म परिकथयन्ति, यथा जीवा वध्यन्ते । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी सुव्रतानामार्याणामन्तिके यावद् द्वादशविधं श्रावकधर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य सुव्रतां आया वन्दते नमस्थिति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेवदिशं प्रतिगता । ततः खलु सा सोमा बाह्मणी श्रमगोपासिका जाता अभिगत० यावत् आत्मानं भावयन्ती विहरति । हो दासियोंके समूहसे घिरी हुई अपने घरसे निकल कर विभेल सन्निवेशके मध्य भागसे होती हुई सुव्रता आर्याओंके उपाश्रयमें आयेगी । आकर बह सुव्रता आर्याको वन्दन और नमस्कार कर सेवा करेगी। उसके बाद वे सुनता आर्या उस सोमा ब्राह्मणीको अनेक प्रकारले विचित्र केवली प्रजह धर्मका उपदेश करेगी-'जिस प्रकार जीव कमसे बद्ध होते हैं और मुक्त होते हैं। इस प्रकार केवलि प्ररूपित धर्म सुनकर वह सोमा ब्राह्मणी सुनता आर्याके पाल यावत् बारह प्रकारका श्रावक धर्मको स्वीकार करेगी। बाद उन आर्यांओंकों चन्दन नमस्कार कर जिम दिशासे आयेगी उसी दिशामें लौट जायगी। तदन्तर वह सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका बनेगी । और सभी जीव अजीव आदि तत्वोंको जानकर श्रावकत्रतसे आत्माको મડળીમાં ઘેરાઈને પોતાના ઘરમાંથી નીકળી બિભેલ સન્નિવેશના મધ્ય ભાગમાથી થઈને સુત્રતા આર્યાઓના ઉપાશ્રયમાં આવશે આવીને તે સુવ્રતા આર્યાને વંદન નમસ્કાર કરી સેવા કરશે ત્યાર પછી તે સુવ્રતા આર્યા તે મા બ્રાહ્મણીને વિચિત્ર કેવલી પ્રજ્ઞસ ધર્મને અનેક પ્રકારે ઉપદેશ કરશે જે પ્રકારે જીવ કર્મથી બધાય છે અને મુકત થાય છે ઈત્યાદિ કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મ સાભળીને તે તેમાં બ્રાહ્મણી સુત્રના આર્થીઓની પાસે બાર પ્રકારના શ્રાવકધર્મનો સ્વીકાર કરશે. પછી તે આર્યાઓને વદન-નમસ્કાર કરીને જે દિશાથી તેઓ આવી હશે તે દિશામાં પાછી જશે. ત્યાર પછી તે સોમા બ્રાહ્મણી શ્રમણ ઉપાસિકા બનશે અને બધા જીવ અજીવ આદિ તત્ત્વોને જાણી શ્રાવક વ્રતથી આત્માને ભાવિત કરંતી વિશે ત્યાર Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रे ततः खलु ताः मुत्रता आर्या अन्यदा कदाचित् वेभेलात् संनिवेशात प्रतिनिष्कामन्ति, बहिननपदविहारं विहरन्ति ॥ ८ ॥ टीका-'तरण सा' इत्यादि-व्याख्या पटिसिद्धा ॥ ८ ॥ मूलम्-तएणं ताओ सुवयाओ अजाओ अन्नया कयाई पुवाणुपुचि जाव विहइ । तएणं सा सोमा माहणी इमीसे कहाए लवटा समाणी हट्टतुट्टा बहाया तहेव निग्गया जाव बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता धम्म सोच्चा जाव नवरं स्ट्रकडं आपुच्छामि, तएणं पव्वयामि । अहासुहं । तएणं सा सोमा माहणी सुवयं अजं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सुबयाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्समित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव रटुकडे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करतल परिग्गहियं० तहेव आपुच्छइ जाव पवइत्तए । अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिवंधं । तएणं से रट्रकूडे विउलं असणं तहेव जाव पुवभवे सुभदा जाव अजा जाता, इरियासमिया जाव गुत्तवंभयारिणी। तएणं सा सोमा अज्जा सुब्बयाणं अजाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिजइ, अहिजित्ता वहहिं छट्टम दसम दुवालस० जाव भावेमाणी वहुई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए । सद्धिं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा सकस्स देविंदस्स देवरणो साभावित करती हुई विचरेगी उसके बाद वह सुव्रता आर्या किसी समय विमेल सन्निवेगले निकलकर बाहर देश में विहार करती हुई विचरेगी।८ । પછી સુત્રતા આઓ કેઈ સમયે બિભેલ સન્નિવેશથી નીકળીને બીજા દેશમાં वि.२ ४२ती वियरी (6) Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ वहुपुत्रिकादेवीवर्णनम् माणियदेवत्ताए उववन्ना। तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं दोसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सोमस्स वि देवस्त दोसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । से णं भंते ! सोमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिइ । एवं खल्लु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स अज्जयणस्स अयमढे पण्णत्ते ॥ ९ ॥ ॥ पुफियाए चउत्थं अज्झयणं संमत्तं ॥ ४ ॥ छाया-ततः खलु ताः सुव्रता आर्या अन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्वी यावद् विहरन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी अस्याः कथाया लब्धार्था सती हृष्टतुष्टा० स्नाता नथैव निर्गता यावद् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा धर्म श्रुत्वा यावद् नवरं राष्ट्रकूटमापृच्छामि, यथासुखम् । ततः 'तएणं ताओ' इत्यादि उसके बाद वह सुव्रता आर्या किसी समय पूर्वानुपूर्वी विचरती हुई फिर विभेल सनिवेशमें आएगी और वसतिकी आज्ञा लेकर वहा तप संयमसे आत्मको भावित करती हुई रहेगी। बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंके आनेका समाचार पाकर हृष्ट तुष्ट हृदय हो स्नान कर तथा सभी अलङ्कारोंसे विभूषित हो पूर्ववत् उन आर्याओंके पास जाकर यावत् वन्दन और नमस्कार करेगी । वन्दन नमस्कार करके धर्म सुनकर उस आर्यासे 'तएणं ताओ' त्याह ત્યાર પછી તે સુવ્રતા આર્યાઓ કોઈ સમયે પૂર્વનુ પૂવી વિચરણ કરતા કરતાં પાછી બિભેલ સન્નિવેશમાં આવશે અને વસ્તીની આજ્ઞા લઈ ત્યા તપસ યમથી આત્માને ભાવિત કરતી રહેશે ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્મણે તે આર્યાઓના આવવાના સમાચાર મળતા હષ્ટ તુષ્ટ હદયથી સ્નાન કરી તથા ઘરેણાં આભૂષણથી વિભૂષિત થઈ અગાઉની જેમ તે આયઓની પાસે જઈને વદન નમસ્કાર કરશે અને વદન નમસ્કાર Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ३१२ खलु सा 'सोमा ब्राह्मणी सुत्रतामाय वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा सुव्रतानामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यथैव स्वकं गृहं यत्रैव राष्ट्रकटस्तत्रैवो पागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीत० तथैव आपृच्छति यावत् जितुम् । यथामुखं देवाप्रिये ! मा प्रतिबन्धम् । ततः खलु स राष्ट्रकूटो विपुलमशनं तथैव यावत् पूर्वभवे सुभद्रा यावद आयी जाता, ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा सोमा आर्या सुव्रतानामार्याणामन्तिके कहेगी - हे देवानुप्रिये ! में राष्ट्रक्टसे पूछकर आपके समीप मुण्डित होकर प्रवज्या लेना चाहती हूँ। वह आर्या उनसे कहेगी - हे देवानुप्रिये ! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो | प्रसाद मत करो । उसके बाद सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंको चन्दन और नमस्कार कर उनके पास से अपने घरमें राष्ट्रकूटके पास आयेगी । आकर हाथ जोड राष्ट्रकूट से पूर्ववत् पृछेगी कि हे देवानुप्रिय | मेरी इच्छा है कि मैं तुमसे आज्ञा लेकर सुत्रता आर्याओके पास प्रब्रजित होऊ । इस बातको सुनकर राष्ट्रकूट कहेगा - हे देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। इस कार्यको करने में प्रमाद मत करो । उसके बाद वह राष्ट्रकूट विपुल अशन पान खाय स्वाद्य चार प्रकार के भोजन बनवाकर अपने मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको आमंत्रित करेगा | और आदर सत्कार के साथ उनको भोजन करायेगा । जिस प्रकार पूर्वभव सुभद्रा आर्या हुई थी उसी प्रकार यह भी आर्या કરી ધર્માં સાભળીને તે આર્યાએને કહેશે -હે દેવાનુપ્રિયે ! હું રાષ્ટ્રકૂટને પૂછીને આપની પાસે મુડિત થઇને પ્રત્રમા લેવા ચાહુ છું તે આર્યાં તેને કહેશે –હે દેવાતુ પ્રિયે ! તને જે પ્રકારે સુખ થાય તેમ કર પ્રમાદ ન કર ત્યાર પછી સેમા બ્રાહ્મણી તે આર્યાંઓન વદન નમસ્કાર કરી તેમની પાસેથી પેાતાને ઘેર રાષ્ટ્રકૂટની પાસે આવશે આવીને હાથ જોડી રાષ્ટ્રકૂટને અગાઉની જેમ પૂછશે કે —હૈ દેવાનુપ્રિય ! મારી ઇચ્છા છે કે હું તમારી આજ્ઞા લઈને સુત્રતા આર્યાઓની પાસે પ્રાજિત થાઉ આ વાત સાભળી રાષ્ટ્રકૂટ કહેશે.- હે દેવાનુપ્રિયે ! જેમ તને સુખ થાય તેમ કર આ કાર્ય કરવામાં પ્રમાદ ન કર ત્યાર પછી તે રાષ્ટ્રકૂટ વિપુલ ( ઘણુા ) અન્નપાન, ખાદ્ય સ્વાદ્ય ચાર પ્રકારના ભાજન મનાવરાવી પોતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન ખધુઓને આમંત્રણુ આપશે અને આદર સત્કાર સહિત તેમને ભેજન કરાવશે જે પ્રકારે આગલા ભત્રમા સુભદ્રા આર્યાં થઈ હતી તેજ પ્રકારે આ પશુ આર્યાં થઈને ઇૌમિતિ આદિથી Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ४ बहुपुत्रिकादेवी वर्णनम् ५३१३ - सामायिकादिनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिः पष्ठाष्टमदशमद्वादश० यावद् भावयन्ती बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया पष्टि भक्तानि अनशनेन छिवा आलोचितप्रतिक्रान्ता समाधिप्राप्ता कालमासे कालं कृत्वा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सामानिकदेवतया उदपद्यत । तत्र खलु अस्त्येकैकेषां देवानां द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र खलु समस्यापि देवस्य द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु भदन्त ! सोमो देवः तस्माद देवलोकाद् आयुःक्षयेण यावत् चयं च्युत्वा क्व गमिष्यति ? क्व उत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे यावद् होकर ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी होवेगी । उसके बाद वह सोमा आर्या उन सुव्रता आर्याओंके समीप सामागिक आदि ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन करेगी, और बहुतसे पष्ट, अष्टम, दशम, द्वादश आदि तपोंके द्वारा आत्माको भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्यायका पालन कर मासिकी सलेखनासे साठ भक्तोंको अनशन से छेदन कर अपने पाप स्थानोंका आलोचन और प्रतिक्रमण कर समाधिको प्राप्त हो काल मासमें काल कर देवेन्द्र के सामानिक देव होकर उत्पन्न होगी । वहाँ एक २ देवकी स्थिति दो सागरोपम है । उस देवलोक में सोमदेवकी भी स्थिति दो सागरोपम होगी । गौतम स्वामी पूछते हैं - हे भदन्त ! वह सोमदेव आयु भव स्थिति क्षयके बाद उस देवलेाकसे च्यवकर कहाँ जायगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा । ચુત થઈ યાવગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી થશે ત્યાર પછી તે સેમા આર્યાં તે સુવ્રતા આર્યાએની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અ ગાનુ અધ્યયન કરશે અને ઘણાએ તપ-૪, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશમ આદિ તપેાથી આત્માને ભાવિત કરતી ઘણા વ સુધી દીક્ષા પર્યાયનુ પાલન કરી પછી માસિકીસ ખેલનાથી આઠ ભકતાને અનશન દ્વારા (ઉપવાસથી) છેદન કરી પેાતાના પાપસ્થાનેાના આવેચન અને પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિને પ્રાપ્ત થઇ કાલ માસમાં કાલ કરી દેવેન્દ્ર શકની સામાનિક દેવ થઇને ઉત્પન્ન થશે. ત્યાં એક એક દેવની સ્થિતિ એ સાગરે પમ છે. તે દેવલેાકમાં સામદેવની પણ સ્થિતિ એ સાગરાપમની થશે ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે~~~હે ભદન્ત તે સેામદેવ આયુભવ અને સ્થિતિક્ષય પછી તે દેત્રàાકમાંથી ચ્યવીને કયાં જશે ! અને કયા ઉત્પન્ન થશે ? ४० Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१४ निरयावलिकासूत्रे अन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बू । श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन चतुर्थस्याध्य यस्य अयमर्थ: प्रज्ञप्तः ॥ ९ ॥ ॥ पुष्पितायां चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ॥ ४ ॥ टीका- 'तणं ताओ' इत्यादि - व्याख्या निगदसिद्धा ॥ ९ ॥ पञ्चममध्ययनम् मूलम् - जइणं भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ० । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे गुणसिलए चेइए, सेणियराया, सामी समोसरिए, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ पुष्णभद्द देवे सोहम्मे कप्पे पुण्णभ दे विमाणे सभाए सुहम्माए पुण्णभद्दंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जहा सूरियाभो जाव बत्तीसविहं नहविहिं उवदंसित्ता जामेव दिसिं पाउ भूए तामेव दिसिं पडिगए । कूडागारसाला ० पुग्वभवपुच्छा । एवं गोयमा ! तेणं कालेणं २ sta जंम्बूदीवे दीवे भारहे वासे मणिवइया नामं नयरी होत्था रिद्ध०, चंदो राया, ताराइण्णे चेइए । तत्थणं मणिasure नय पुण्णभदे नाम गाहावई परिवस अड्ढे | तेणं कालेणं २ थेरा भगवंतो जातिसंपण्णा जाव जीवियास भगवान कहते हैं - हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर यावत् सिद्ध होगा, और सब दुःखोंका अन्त करेगा । सुर्मा स्वामी कहते हैं - हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने पुष्पिताके चतुर्थ अध्ययन के भावोंका निरूपण किया है ॥ ९ ॥ । पुष्पिताका चौथा अध्ययन समाप्त हुआ 1 ભગવાન કહે છે :હે ગૌતમ ! મહા વિદેહક્ષેત્રમા ઉત્પન્ન થઈને તે સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખોના અંત કરશે, સુધર્મા સ્વામી કહે છે હે જમ્મૂ! આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના ત્રંતુ અધ્યયનના ભાવાનું નિરૂપણું કર્યું છે (૯) પુષ્પિતાનું ચેાથુ અધ્યયન સમાપ્ત, {" j Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ५ पूर्णभद्रदेववर्णनम् ३१५ मरणभयविप्पमुक्का बहुस्सुया बहुपरिवारा पुवाणुपुद्धिं जाव समोसढा, परिसा निग्गया। तएणं से पुण्णभद्दे गाहावइ इमीसे कहाए लद्धडे समाणे हटु० जाव पण्णत्तीए गंगदत्ते तहेव निग्गच्छइ जाव निक्खतो जाव गुत्तबंभयारी । तएणं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवंताणं अंतिए सामाइयमादियाई एकारस अंगाई अहिजइ, अहिज्जिता बहुहि चउत्थछठम जाव भाविता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपने कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उववायसभाए देवसयणिजसि जाव भाषामणपज्जत्तीए । एवं खल्लु गोयमा ! पुण्णभद्देणं देवेणं सा दिवा देविडी जाव अभिसमण्णागया। पुण्णभदस्त णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! दोसागरावमा ठिई पण्णत्ता । पुण्णभद्दे णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाऔ जाव कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उबवजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंत काहिइ ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निक्खेवओ।१। ॥ पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ ५ ॥ छाया-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता उत्क्षेपकः। एवं खलु जम्बू : ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं गुणशिलं नाम चैत्यम् , श्रेणिको -राजा, स्वामी समवस्तः, परिपद् निर्गता । तस्मिन् काले २ पूर्ण Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .' निरयावलिकामत्रे भद्रो देवः सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने सभायां मुधर्मायां पूर्णभद्रे सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः यथा सूर्याभो यावद् द्वात्रिंगदविधं नाट्यविधिमुपदर्य यस्या दिशः प्रादुर्भूतम्तामेव दिशं प्रतिगतः, कृटागारशाला, पूर्व भवपृच्छा। पाचवा अध्ययन । . 'जडणं भते' इत्यादि हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके चतुर्थ अध्ययनमें पूर्वोक्त भावांका वर्णन किया है, तो हे भगवन् ! पञ्चम अध्ययनमें भगवानने किम अभिप्राय का निरूपण किया है। आर्य सुधर्मान कहा हे जम्बू ! उस काल उम समय में राजगृह नामक नगर था। वहा गुणगिलक नामक चैल था। उस नगरका राजा श्रेणिक था। उस कालमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी उम नगरीमें पधारे । भगवान के दर्शनके लिये परिपद निकली। उस काल उस समयमें पूर्णभद्र देव सौधर्म कल्पक पूर्णभद्र विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर पूर्णभद्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोके साथ चैटे हुए थे वह पूर्णभद्र देव मृाभ देवके समान भगवानको यावत् बत्तीस प्रकारकी नाट्यविधि दिखाकर जिस दिशासे आये उसी दिशामें चले गये । गीतभने भगवानसे पूर्णभद्र देवकी देव ऋद्धिके विपयम मध्ययन पायभु' 'जटणं भंते' या ભક્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુપિતાના ચેથા અધ્યયનમાં પૂર્વોક્ત ભાનું વર્ણન કર્યું છે તે હે ભગવન્! પાચમા અધ્યયનમાં ભગવાને કયા અભિપ્રાથનું નિરૂપણ કર્યું છે? આર્ય સુધર્માએ કહ્યું – • હે જખૂ! તે કાળે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું ત્યાં ગુણશિલક નામનું ચય હતુ તે નગરને ગજા શ્રેણિક હે, તે કાળે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સવામી તે નગરીમા પધાર્યા. ભગવાનના દર્શન માટે પરિષદ- નીકળી. તે કાળ તે સમયે પૂર્ણભદ્ર દેવ સોધમકલ્પના પૂર્ગભ વિમાનમાં સુધર્મા સમાની અદર પૂર્ણભદ્ર સિંહાસન પર ચાર હજર સામાનિક દેવની સાથે બેઠેલા હતા. તે પૂર્ણભદ્ર દેવ, સૂર્યાભદેવના જેવા ભગવાનને બત્રીસ પ્રકારની નાટયવિધિ બતાવી જે દિશામાથી આવ્યા તે દિશામાં પાછા ગયા ગોતમે ભગવાનને પૃદ્ધ દેવની', દેવદ્ધિના, વિયમાં Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ५ पूर्णभद्रदेववर्णनम् एवं गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये अत्रैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मणिपदिका नाम नगरी अभवत , ऋद्धस्तिमितसमृद्धा, चन्द्रो राजा, ताराकीणे चैत्यम् । तत्र खलु मणिपदिकायां नगयों पूर्णभद्रो नाम गाथापतिः परिवसति, आढ्यः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्थविरा भगवन्तो जोतिसम्पन्नाः, यावत् जीविताशामरणभयविषमुक्ता बहुश्रुता बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी यावत् समवसृताः । परिपत् निर्गता ! ततः ग्वलु स पूर्णभद्रो गाथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टो० यावत् प्रज्ञप्त्यां गङ्गदत्तस्तथैव निर्गच्छति पूछा भगवानने पूर्ववत् कटागार शालाके दृष्टान्तसे उन्हें प्रतियोधित किया। फिर गौतमको उस देवके पूर्वभव जाननेकी जिज्ञासा होने पर, भगवानने कहा-उस काल उस समय इसी मध्य जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र में मणिपदिका नामकी नगरी थी, जो वडी २ अट्टालिकाऔसे युक्त तथा बाहरी भीतरी शत्रुओंसे रहित एवं धनधान्य आदिसे सम्पन्न थी। उस नगरीके राजाका नाम चन्द्र था। उसमें ताराकीर्ण नामक एक उद्यान था। उस नगरीमें पूर्णभद्र नामक धनधान्यसम्पन्न गाथापति रहता था। उस काल उस समय में जातिसम्पन्न कुल सम्पन्न स्थविरपदभूषित मुनिराज यावत् जीवनकी आशा और भरणभयसे रहित, बहुश्रुत तथा बहुत मुनि परिवारसे युक्त तीर्थंकर परम्परासे विचरते हुए मणिपदिका नगरीमें पधारे । जनसमुदायरूप परिषद उनके दर्शनार्थ निकली। उसके बाद वह पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरोंके आनेका वृत्तान्त जानकर हृष्ट तुष्ट પૂછ્યું, ભગવાને પૂર્વવત્ કૂટગારશાલાના દૃષ્ટાતથી તેને પ્રતિબોધિત કર્યા પછી ગૌતમને તે દેવના પૂર્વભવ જાણવાની જિજ્ઞાસા થવાથી ભગવાને કહ્યું –તે કાળ તે સમય આ મધ જમ્બુદ્વીપના ભરત ક્ષેત્રમાં મણિપદિકા નામે નગરી હતી જેમાં મેટી મેટી અટારિઓવાળી હવેલીઓ હતી તથા બહાર તેમજ અ દર શત્રુઓથી રહિત અને ધનધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતી તે નગરના રાજાનું નામ ચન્દ્ર હતુ તેમા તારા નામે એક ઉદ્યાન હતું. તે નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ધનધાન્ય સંપન્ન ગાથાપતિ રહેતા હતા તે કળ તે સમયે સિપન-કુંળસ અને સ્થવિર પદથી ભૂષિત એવા મુનિરાજ જે જીવનની આશા અને મરણના ભયથી રહિત તથા વહુ શુતે અને બહુમુનિ પરિવારથી યુકત તીર્થ કર પર પરાથી વિચરણ કરતા મણિપદિક નગરીમાં પધાર્યા જનસમુદાયરૂપ પરિપં તેમના દેશન માટે નીકળી ત્યારે જે છીતે પૂર્ણભદ્ર ગાથાપતિ તે સ્થવિરેના આવવાના ખબર જાણી હુષ્ટ તુષ્ટ છુંદેયથી " લગ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. निरंयविलिका ३१८ यावद् निष्क्रान्तो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स पूर्णभद्रोऽनगारो भगतामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीतें; अधीत्य चतुर्थ पटाष्टम० यावद् भावयित्वा बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया पष्टि भक्तानि अनशनेन छिच्चा आलोचित - प्रतिक्रान्तः समाधिमातः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावद् भाषामनः पर्याप्त्या । एवं खलु गौतम ! पूर्णमद्रेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः यावद् अभिसमन्वागता । पूर्णभद्रस्य खलु भदन्त | देवस्य हृदयसे भगवती सूत्र में उक्त गङ्गदत्त के समान उनके दर्शन के लिये गया और धर्मकथा सुनकर यावत् प्रवजित होगया । तथा ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी हो गया। उसके बाद उस पूर्णभद्र अनगारने उन स्थविरोंके पास सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययन किया और बहुतसे चतुर्थ पष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्मा को भावित करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाला । बाद में मासिक संलेखना से साठ भक्तोंको अनशन से छेड़कर अपने पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमणकर समाधि प्राप्त की । तथा काल अवसर में कालकर सौधर्म कल्पके पूर्णभद्र विमानमें उपपात सभा के अन्दर देवशयनीय शय्यामें यावत् पूर्णभद्र देवपनेमें उत्पन्न होकर भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पर्याप्तिभावको प्राप्त किया । हे गौतम ! पूर्णभद्र देवने इस प्रकार से इस दिव्य देव ऋद्धिको प्राप्त किया । વીસૂત્રમાં કહેલ ગ ગદત્તની પેઠે તેમના દર્શનને માટે ગયા અને ધર્મ કથા સાંભ~ ળીને ટાવત્ પ્રજિત થઈ ગયા તથા ઈય્યસમિતિ આદિથી યુકત થઈને ગુપ્તબ્રહ્મચારી દઈ ગયા ત્યાર પછી તે પૂર્ણ દ્ર અનગારે તે સ્થવિરેની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અગાનું અધ્યયન કર્યુ અને ઘણા ચતુષ્ટ અષ્ટમ આદિ તપેાથી આત્માને ભાવિત કરીને બહુ વર્ષોં સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. પછી માસિકી સલેખનાથી સાઠ ભકતેનુ અનશન વડે છેદન કરી પેાતાના પાપસ્થાનાની આલાચના તવા પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિ પ્રાપ્તિ કરી. તથા કાળ અવસર આવતાં કાળ કરી સોધ કલ્પના પૂર્ણ ભદ્ર વિમાનમાં ઉપપાત મભાની અદ દેવશયનીય શય્યામાં તે પૂર્ણ ભદ્ર દેવપણામાં ઉત્પન્ન થઈને ભાષાપર્યાંસિ મન:પર્યાપ્તિ આદિ પર્યાપ્તિથી પર્યાપ્તિભાવેાને પ્રાપ્ત કર્યાં. હે ગૌતમ ! પૂ ભદ્રદેવે આ પ્રકારે આ દિવ્ય દેવની J ઋદ્ધિને પ્રાપ્ત કરી. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अ. ५ पूर्णभद्रदेववर्णनम् . कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । पूर्णभद्रः खलु भदन्त ! देवस्तस्माद् देवलोकाद् यावत् क्व गमिष्यति ? क्य उन्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावदन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बूः श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन निक्षेपकः ।। १ ।। ॥ पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ॥ ५ ॥ टीका-'जडणं भंते' इत्यादि व्याख्या स्पष्टा ॥ १ ॥ ॥ इति पञ्चमाध्ययन समाप्तम् ॥ ५ ॥ गौतम स्वामी पूछते हैंहे भदन्त ! पूर्णभद्र देवकी स्थिति कितने कालकी है ? भगवान कहते हैं-हे गौतम ! पूर्णभद्र देवकी स्थिति दो सागरोपमकी है। गौतमने फिर पूछा-हे भदन्त ! यह पूर्णभद्र देव देवलोकसे च्यवकर कहा जायगा तथा कहा उत्पन्न होगा। भगवानने कहा हे गौतम ! यह पूर्णभद्र देव महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर सिद्ध होगा और यावत् सब दुःखोका अन्त करेगा । सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने इस प्रकार पुष्पिताके पांचवें अध्ययनका भाव कहा है सो मैने तुम्हे कहा ॥१॥ ।पुष्पिताका पाचवा अध्ययन समाप्त हुआ। ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદન્ત / પૂર્ણભદ્ર દેવની સ્થિતિ કેટલા કાળની છે ? ભગવાન કહે છે – ગૌતમ ! પૂર્ણભદ્ર દેવની સ્થિતિ બે સાગરોપમની છે. ગૌતમે વળી પૂછયુ –હે ભદન્ત આ પૂર્ણભદ્રદેવ દેવકથી ચુત થઈને કયા જશે અને કયા ઉત્પન્ન થશે? ભગવાને કહ્યું – હે ગૌતમ ! આ પૂર્ણભદ્રદેવ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થઈ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખને અ ત આણશે સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ હે ! મેક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ પ્રકારે પુપિતાના પાંચમા અધ્યયનને ભાવ કહ્યો છે તે મેં તને કહ્યું છે ...! . १९५तार्नु पायभु मध्ययन समाप्त. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० - -.. .. 'निरयालिकामुत्रे - मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया जावं संपत्तेणं उक्खेवओ०, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसरिए । तेणं कालेणं २ माणिमहे देवे समाए सुहम्माए माणिभदंसि सीहासणंसि चरहिं सामाणियसाहस्सीहि जहा पुण्णभदो, तहेव आगमणं, नविही, पुचभवपुच्छा, मणिवया नयरी, माणिभई गाहावई, थेराणं अंतिए पवजा, एकारस अंगाई अहिज्जइ, वहूई वासाई परियाओ, मासिया संलेहणा, सद्धिं भत्ताइं०, माणिभ विमाणे उववाओ, दोसागरोवमा ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । एवं खलु जंबू ! निश्खेवओ ॥ छठें अज्झयणं समत्तं ॥ ६॥ छाया-यदि खलु मदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन उत्क्षेपकः । एवं ग्वल जम्बृ: ! तस्मिन् काले २ राजसह नगरं, गुणगिलं चैन्यं, श्रेणिको छठा अध्ययन. 'जडणं भंते' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने पाचवें अध्ययनका पूर्वोक्त भाव बनलाया है, तो फिर छठे अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ? भगवान कहते हैं हे जम्ब ! उसकाल उस समय में राजगृह नामका नगर था। उस नगर में गुणशिलक चैत्य था । श्रेणिक नामके राजा उसमें मध्ययन. - 'जडणं भंते' या જંબૂ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદન ! મેક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પાચમા અધ્યયનને પૂર્વોક્ત ભાવ બતાવ્યું છે તે પછી છઠ્ઠા અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું ભગવાન કહે છે – હે જખ્ખ ! તે કાળે સમયે રાજગૃષ્ઠ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુણશિલક Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, वर्ग ३ अ. ६ माणिभद्रदेववर्णनम् -३२१ राजा, स्वामी समत्रसृतः तस्मिन् काले तस्मिन् समये माणिभद्रो देवः सभायां सुधर्मायां माणिभद्रे सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्त्रैर्यावत् पूर्णभद्रस्तथैवाऽऽगमनं नाटयविधिः, पूर्वभवपृच्छा, मणिपदा नगरी, माणिभद्रो गाथापतिः स्त्रपिराणामन्ति के माज्या, एकादशाङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि पर्यायः मासिकी संलेखना षष्टिं भक्तानि०, माणिभद्रे विमाने उपपातः, द्विसागरोपमा राज्य करते थे । भगवान महावीर स्वामी उस नगर में पधारे । परिष भगवान के वन्दनके निमित्त गई । उस काल उस समय में माणिभद्र देव सुधर्मा सभामें माणिभद्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे । वे माणिभद्र देव पूर्णभद्रके समान भगवानके पास आये और नाट्यविधि दिखाकर चले गये । गौतमने माणिभद्रको दिव्य देवऋद्धिके बारेमें पूर्ववत् प्रश्न किया । भगवान ने कटागारशाला के दृष्टान्तसे उसका उत्तर दिया । गौतमने माणिभद्र देवके पूर्व जन्म के बारेमें प्रश्न किया । भगवान ने कहा उस काल उस समय में मणिपदिका नामकी नगरी थी, उसमें माणिभद्र नामका एक गाथापति था। जिसने स्थविरोंके समीप प्रत्रज्या ग्रहणकर ग्यारह अंगो का अध्ययन किया । वहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्यायका पालन किया और मासिक सलेखना की, अनशन द्वारा साठ भक्तोंको छेदनकर पापस्थानोंका आलोचन प्रतिक्रमण નામે ચૈત્ય હતેા શ્રેણિક નામના રાજા તેમા રાજય કરતા હતા ભગવાન મહાવીર સ્વામી તે નગરમા પધાર્યાં પરિષદ્ ભગવાનને વદન કરવા ગઇ તે કાળ તે સમયે માણિભદ્ર દેવ સુધર્માં સભામા માણિમુદ્ર સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામાનિક દેવેશની સાથે બેઠેલા હતા, માણિભદ્ર દેવ પૂર્ણ ભદ્રની પેઠે ભગવાનની પાસે આવ્યા અને નાટય વિધિ દેખાડી અન્તર્ધાન થઈ ગયા પાછા જતા રહ્યા ગૌતમે માણિભદ્રની દિગ્ય દેવ ઋદ્ધિના બાબત અગાઉની પેઠે પ્રશ્ન કર્યાં ભગવાને ફૂટગરશાલાના દૃષ્ટાંતથી તેના ઉત્તર આપ્યા. ગૌતમે માણિભદ્ર દેવના પૂજન્મ વિષે પ્રશ્ન કર્યાં. भागवाने उधु : તે કાળ તે સમયે ણુપદિકા નામની નગરી હતી તેમા માણિભદ્ર નામે એક એક ગાથાપતિ હતા જેણે વિરાની પાસે પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરી અગીયાર અગાનું અધ્યયન કર્યું . ઘણા વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાય, ચારિત્ર પર્યાયનું પાલન કર્યું . માસિકી સલેખનાથી અનશન દ્વારા સાઠે ભકતાનુ છેદન કરી પાપ સ્થાનાની આલેચના પ્રતિકમણુ ૪૧ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ निरयावलिका ____ मूलम्-एवं दत्ते ७ सिवे ८ वले ९ अणाढिए १० सब्वे जहा पुण्णभद्दे देवे । सन्वेसि दोसागरोवमाई ठिई। विमाणा देवसरिसनामा । पुवभवे दले चंदणाए, सिवे मिहिलाए वलो हत्थिणपुरनयरे, अणाढिए काकंदीए, चेइयाइं जहा संगहणीए । ॥ तइओ वग्गो सम्मत्तो ॥ स्थितिः, महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति । एवं खल जम्वृः ! निक्षेपकः ॥ १ ॥ ॥ इति पष्ठाध्ययनं समाप्तम् ॥ ६ ॥ टीका- 'जइणं भंते' इत्यादि-व्याख्या स्पष्टा ॥ १ ॥ छाया-एवं दत्तः ७ शिवः ८ बलः ९ अनादृतः १० सर्वे यथा पूर्णभद्रं देवः ! सर्वेपां द्विसागरोपमा स्थितिः, विमानानि देवसदृशनामानि, पूर्वभने करके काल अवसरमें कालकर माणिभद्र विमानमे उत्पन्न हुआ। यह। उसकी स्थिति दो सागरोपम है । अन्तम देवलोकसे च्यव कर महा विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा और सब दुःखोंका अन्त करेगा। सुधर्मा स्वामी कहते है हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके छटे अध्ययनके भावका प्रतिपादन किया । । पुष्पिताका छठा अध्ययन समाप्त हुआ । - इसी प्रकार ७ दत्त, ८ गिव, २ बल, १० अनाहत, इन सभी देवोंका वर्णन पूर्णभद्र देव के समान जानना चाहिये । सभोको स्थिति दो दो सागरोपम है। इन देवोंके नामके समान ही इनके કરી કાળ અવસરમાં કળ કરીને માણિભદ્ર વિમાનમા ઉત્પન થયા ત્યાં તેની સ્થિતિ બે માગરોપમ છે. આખરે દેવકથી એવી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અન્ય સર્વ દુ:ખેને અ ત લાવશે સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જમ્મુ 1 આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પુષ્મિતાના છઠ્ઠા અધ્યયન ભાવનુ પ્રતિપાદન કર્યું. પુપિતાનું છઠ અધ્યયન સમાપ્ત. આ પ્રકારે ૭ દત્ત, ૮ શિવ, ૯ બલ, ૧૦ અનાદત આ બધા દેનું વર્ણન પૂર્ણભદ્ર દેવના જેવું જાણી લેવું જોઈએ બધાની સ્થિતિ બળે સાગરેપમ છે ? Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् अथ पुष्पचूलिकाख्यश्चतुर्थो वर्गः ॥ ४ ॥ मूलम् - जइणं भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ जाव दस अज्झयणा पण्णत्ता । तं जहा - “सिरि-हिरि - घिs - कित्तीओ, बुद्धी लच्छी य होड़ वोधव्वा । इलादेवी सुरादेवी, रसदेवी गंधदेवी य ॥ १ ॥” जइणं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता । पढमस्स णं भंते! उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी दत्तः चन्दनायाम्, शिवो मिथिलायां वलो हस्तिनापुरे नगरे, अनादृतः काकन्द्यां चैत्यानि यथा संग्रहण्याम् ॥ १ ॥ 5 ॥ इति पुष्पितायां सप्तमाष्टमनत्र म दशमान्यध्ययनानि समाप्तानि ॥ ७ । ८ । ९ । १० ॥ ३२३ ॥ इति तृतियो वर्गः समाप्तः ॥ 'टीका- ' एवं ' इत्यादि - व्याख्या स्पष्टा ॥ २ ॥ पुष्पिताख्यस्तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥ ३ ॥ " 6 अनादृत विमानोंका नाम है ! ' दत्त' अपने पूर्व जन्म में चन्दना नगरीमें, ' काकन्दीमें 'शिव' मिथिला में, हस्तिनापुर में, बल' जन्मे थे संग्रहणी गाधाके अनुसार उद्यान जानना चाहिये । ॥ ७ ॥ ८ ॥ ९ ॥ १० ॥ पुष्पिताका सातवा, आठवा, नवमा, और दसवा अध्ययन समाप्त हुआ । T पुष्पिता नामका तृतिय वर्ग समाप्त हुआ || ३ ॥ छे. દત્ત પેાતાના પૂર્વજન્મમા દેવાના નામના જેવાજ તેમના વિમાનના નામ ચન્દના નગરીમા, શિવ મિથિલામાં, ખલ હસ્તિનાપુરમા અનાધૃત કાકન્દીમા જન્મ્યા હતાં સંગ્રહણી ગાથા અનુસાર ઉદ્યાન જાણી લેવાં જોઈએ ! ૭ ૮ | ૯ ૫ ૧૦ ॥ પુષ્પિતાનું સાતમુ—આઠમુ —નવસુ —દશમ્ અધ્યયન સમાપ્ત, - પુષ્પિતા નામે તૃતીય વર્ગ સમાપ્ત. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३२४ निरयावलिकामत्रे समोसढे, परिसा निग्गया। तेणं कालेणं २ सिरि देवी सोहम्मे कप्पे सिरिवर्डिसए विमाणे सभाए सुहम्माए सिरिंसि सीहासणंसि चरहिं सामाणियसाहस्सेहिं चउहि महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं जहा बहुपुत्तिया जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया। नवरं [दारय] दारियाओ नत्थि । पुत्वभवपुच्छा । एवं खलु गोयमो! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए जियसत्तू राया। तत्थं णं रायगिहे नयरे सुदंसणे नामं गाहावइ परिवसइ, अड़े। तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए गाहावइणीए अन्तया भूया नाम दारिया होत्था वुड्डा वुड़कुमारी जुण्णा जुष्णकुमारी पडियपुयत्थणी वरगपरिवज्जिया यावि होत्था। तेणं कालेणं २ पासे अरहा पुरिसादाणीए जाव नवरयणिए, वण्णओ सो चेव, समोसरणं, परिसा निग्गया। तएणं सा भूया दारिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हहतुट्टा जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं ‘बयासी-एवं खल्लु अम्मताओ! पासे अरहा पुरिसादाणीए पुवाणुपक्विं चरमाणे जाव देवगणपरिवुडे विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहि अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गभित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं । .. . तए णं सा भूया दारिया पहाया०, जाव सरीरा चेडीचकवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख'मिता जैणेवे वाहिरिया उवटाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणापवरं दुरूढा. तएणं सा भूया दारिया Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् ३२५ नियपरिवारपरिवुडा रायगिहं नयरं मज्झमज्झेण निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए० पासइ, धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पचोरुहिा चेडीचकवालपरिकिण्णता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिन्ता तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासइ । तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए भूयाए दारियाए तीसे महइ० धम्मकहा, धम्मं सोचा णिसम्म हट० वंदइ, वंदित्ता एवं वयासी सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव अब्भुट्टेमिणं भंते ! निगथं पावयणं, से जहे तं तुन्भे वदेह, जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं जाव पवइत्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! तएणं सा भूया दारिया तमेव धम्मियं जाणप्पवरं जाव दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागया, रायगिहं नयरं मझं मझेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया, रहाओ पच्चोरुहिता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागया, करतल० जहा जमाली आपुच्छइ । अहासुहं देवाणुप्पिए ! तएणं से सुदंसणे गाहावई विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, मित्तनाइ० जाव जिमियभुनुत्तरकाले सुईभूए निक्खमणमाणित्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! भूयादारियाए पुरिससहस्सवाहिणी सीयं उवटवेह, उबटुवित्ता जावः पञ्चप्पिणहः। तएणं ते जाव पञ्चप्पिणंति ॥ १ ॥ --- छाया- यदि खलु भदन्त ! श्रिमणेन भगवता उत्क्षेपको यावद् दश अध्यायनानि प्रज्ञप्तानि । तद् यथा Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ '. : निरयावलिकामत्र "श्री-ही-धृति-कीतयो बुद्धिलक्ष्मीश्च भवति बोद्धव्या । इलादेवी मुरादेवी, रसदेवी गन्धदेवी च ॥.१ ॥" यदि ग्वल भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपागानां चतुर्यस्य वर्गस्य पुष्पचलानां दगाऽव्ययनानि प्रजातानि, प्रथमस्य खलु भदन्त । उत्क्षेपकः, एवं खलु गौतम ! तम्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, चतुर्थ वर्ग (४) पुष्पचूलिका. 'जहणं' भंते इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते है हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिता वर्गमें इस अध्ययनोंका निरूपण किया है । उसके बाद उन्होंने क्या कहा है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्वृ ! उसके बाद भगवानने पुष्पचूलिका वर्गका निरूपण किया है। उसमें उन्होंने दस अध्ययन बतलाये हैं। जोकि इस प्रकार है-(१) श्री, (२) ही, (३) धी, (४) कीर्ति, (५) बुद्धि, (६) लक्ष्मी, (७) इलादेवी, (८) सुरादेवी, (९) रसदेवी (१०) गन्धदेवी । . हे जम्बू ! इस प्रकार भगवानने दस अध्ययनोंका निरूपण किया है। यतुर्थ वर्ग (४) પુષ્પચૂલિકા. 'जडणं भंते' त्यादि. જખ્ખ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષિતા વર્ગમાં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે ત્યાર પછી તેમણે શું કહ્યું છે ? સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જમ્મુ ! ત્યાર પછી ભગવાને પુષ્પવૃલિકા વર્ગનું નિરૂપણ કર્યું છે તેમ तमा ६ मध्ययन मताच्या छे.ना नाम माया मारना छ:-(१) श्री, (२), (3) श्री, (४) धन, (५) मुद्धि, (6) सक्ष्मी , (७) मावी, (८) सुरादेवी, (6) २सहेवी, (१०) अवहेवी. હે જમ્મ! આ પ્રમાણે ભગવાને દશ અધયયનનું નિરૂપણ કર્યું છે – सम्भू चाभी छे: Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् .३२७ गुणाशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा, स्वामी समवसृतः, परिषद् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रीदेवी सौधर्मे कल्पे श्यवतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां श्रियि सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः चतसृभिर्महत्तरिकाभिः सपरिवाराभिः यथा वहुपुत्रिका यावद् नाटयविधिमुपदश्यं प्रतिगता | नवरं [ दारक ] दारिका न सन्ति । पूर्वभवपृच्छा । एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले जम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पचूलिका नामक चतुर्थवर्ग रूप उपाङ्गमें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है, तो प्रथम अध्ययनका उन्होंने क्या भाव फरमाया है । सुधर्मा स्वामी कहते है - हे जम्बू ! प्रथम अध्ययनके भावको भगवानने इस प्रकार निरूपण किया है- उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस नगर में गुणशिलक नामक चैत्य था । उस नगरीके राजा श्रेणिक थे, वहाँ श्रमण भगवान महावीर पधारे । परिषद् उनके दर्शन के लिये निकली । उस काल उस समय में श्री देवी सौधर्म कल्पके श्री - अवतंसक विमान में सुधर्मा सभाके अन्दर श्री - सिंहासनपर चार हजार सामानिक देवोंके साथ तथा सपरिवार चार महत्तरिकाओंके साथ बैठी हुई थी । वह श्री देवी बहुपुत्रिका देवीके समान भागarth लिये आई और नाट्र्यविधि दिखाकर वापस गयी । बहुपुत्रि હે ભદન્ત । શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પચૂલિકા નામે ચેાથા વરૂપ ઉપાગમા દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે પ્રથમ અધ્યયનમા તેમણે કયે ભાવ બતાવ્યો છે ? સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ— હે જમ્મૂ ! પ્રથમ અધ્યયનના ભાવને આવી રીતે નિરૂપણુ કર્યાં છેઃ-~~ તે કાળ તે સમયે રાજગૃહુ નામે નગર હતુ તે નગરમા ગુરુશિલક નામે ચૈત્ય હતુ તે નગરીના રાજા શ્રેણિક હતે ત્યા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પધાર્યા પરિષદ્ તેમના દન માટે નીકળી તે કાળ તે સમયે શ્રી દેવી સૌધ કલ્પના શ્રી અવત સક વિમાનમા સુધર્માંસભાની અદર શ્રી સિંહાસન પર ચાર હજાર સામાનિક દેવાની સાથે તથા સપરિવાર ચાર મહત્તરિકાની સાથે બેઠી હતી તે શ્રીદેવી બહુપુત્રિકા દેવીની પેઠે ભગવાનના દર્શન માટે આવી અને નાટયવિધિ દેખાડી પાછી ચાલી ગઈ. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ . :. निरयालिफामत्रे तस्मिन् समये राजगृह नगरं, गुणशिलं चैत्यं, जितशत्रू राजा । तत्र सलु राजगृहे नगरे सुदर्शना नाम गाथापतिः परिवसति, आढयः । तस्य खलु गुदर्शनस्य गाथापतेः प्रिया नाम भार्या अभवत् सुकुमारा । तस्य खलु मुदर्शनस्य गाथापतेः दुहिता प्रियाया गाथापतिकाया आत्मजा भूता नाम दारिका-अभवन् वृद्धा वृद्धकुमारी जीर्णा जीर्णकुमारी पतितपुतस्तनी वरपरिकास विशेप केवल इतना ही है कि इसने कुमार कुमारियोंको बैंक्रियिक शक्तिसे उत्पन्न नहीं किया। गौतमने पूछाहै भदन्त ! यह श्री देवी पूर्व जन्ममें कौन थी। भगवानने कहा हे गौतम ! उम काल उस समयमं राजगृह नामका नगर था। उस नगर में गुणशिलक नामक चैत्य था। उस नगरके राजाका नाम जितशत्रु था। उसमें सुदर्शन नामका गाथापति रहता था जो धनधान्या दिसे सम्पन्न था। उस गाधापतिकी पत्नीका नाम प्रिया था । जो अत्यन्त मुकुमार थी। उस सुदर्शन गायापतिकी पुत्री तथा प्रिया गाथापत्नीकी आत्मजा- लडकीका नाम भृता था, जो कि वृद्धा और वृद्ध कुमारी ( अधिक वयवाली कन्या) तथा जीर्णा और जीर्ण कुमारी थी, एवं शिथिल नितम्ब और स्तनवाली थी, तथा अविवाहित थी। उस काल उस समयमें पुम्पादानीय (पुरुपोंमें श्रेष्ठ ) नौ हाथके अवगाहनावाले બહુપુત્રિકાથી વિશેષ માત્ર એ હતું કે આ કુમાર કુમારિઓને વૈક્રિયિક શક્તિથી ઉત્પન્ન કર્યા નહોતા ગોતમે પૂછ્યું.– હે ભદન્ત ! આ શ્રીદેવી પૂર્વજન્મમાં કેણ હતી ? ભગવાને કહ્યું –ગૌતમ ! તે કાળ તે સમયે રાજગૃહ નામનુ નગર હતું તે નગરમા ગુગલિક નામનું ચૈત્ય હતું તે નગરના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું. તે રાજગૃડ નગમા સુદર્શન નામને ગાથાપતિ હેતે હતે જે ધનધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતું. તે ગાથાપતિની પત્નીનું નામ પ્રિય હતું, જે અત્યત સુકુમાર હતી તે સુદન ગાથાપની પુત્રી તથા પ્રિયા ગાથાપત્નીની આત્મજા (દીકરી)નું નામ ભૂતા હતુ કે જે વૃદ્ધા અને વૃદ્ધકુમારી ( વધારે વયવાળી કન્યા ) તથા જીણું અને જઈમારી હતી એટલે કે શિથિલ નિત છે અને સ્તનવાળી તથા અવિવાહિત હતી તે કાળ તે સમયે ત્યા પુરૂષાદાનીય (પુરૂમાં શ્રેષ્ઠ) નવહાથની અવગાહનાવાળા Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अ. ४ श्रीदेवीवर्णनम् वनिता चापि अभवत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थीचईन् पुरुषादानीयो यावद् नवरत्निको वर्णकः सएव, समवसरणं, परिपद् निर्गना । ततः खलु सा भूता दारिका अस्याः कथाया लब्धार्थी सती हष्टतुष्टा० यत्रैर अबापितरौ तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य एवमवादीत्-एवं खलु अम्बतातौ ! पार्थोऽईन् पुरुषादानीयः पूर्वानुपूर्वी चरन् यावद् देवगणपरिवृतो विहरति, तद् इच्छामि खलु अम्बातातौ ! युवाभ्यामभ्यनुज्ञाता सती पावस्याऽहंतः पुरुषादानीयम्य पादवन्दनाय गन्तुम्, यथासुखं देवानुपिये ! मा प्रतिवन्धम् । ततः खलु सा भूता दारिका ग्नाता यावत् सर्वालङ्कारविभूपितशरीरा चेटीचक्रवालपरिकीर्णा स्वस्माद् गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, अर्हत पार्थ प्रभु उस नगरीमें पधारे । भगवान के दर्शन के लिये परिषद अपने २ घरसे निकली । उसके बाद वह भूता दारिका भगवान पार्श्व प्रभुके आनेका वृत्तान्त सुनकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे माता पिताके समीप आयी, और उनसे इस प्रकार कहा हे माता पिता ! पुरुषाानीय भगवान पाय प्रभु तीर्थकर परम्परासे विचरते हुए देवगणोंसे परिवृत हो इस राजगृह नगर में पधारे हैं, इस लिये मेरी इच्छा है कि पुरुषाढानीय उन पार्श्व प्रभुकी चरण वन्दनाके लिये जाऊँ। पुत्रीकी ऐसी इच्छा जानकर उन्होंने कहा-जाओ बेटी ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो। प्रमाद मत करो। उसके बाद वह भूता दारिकास्नान कर सभी प्रकारों के अलङ्कारोंसे अपने को अलङ्कृतकर दासियोंसे परिवेष्टित हो अपने घरसे निकलकर અર્હત્ પાર્થ પ્રભુ તે નગરીમા પધાર્યા ભગવાનના દર્શન કરવા માટે પરિષદુ પોતપોતાના ઘરમાંથી નીકળી ત્યાર પછી તે ભૂતા દરિકા ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુના આવવાનુ વૃત્તાન્ત સાંભળીને હષ્ટ તુષ્ટ હદયથી માતાપિતાની પાસે આવી અને તેમને આ પ્રકારે કહ્યુ -હુ માતાપિતા! પષાદાનીય ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુ તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરતા દેવગાણેથી પરિવૃત આ રાજગૃહ નગરમાં પધાર્યા છે. આ માટે મારી ઈચ્છા છે કે પુરુષાદાનીય તે પ્રભુની ચરણ વન્દનાને માટે જાઉં પુત્રીની એવી ઈચ્છા જાણીને તેઓએ કહ્યું- જાઓ દીકરી ! જે પ્રકારે તમને સુખ થાય તેમ કરી કેઈ પ્રકારનું પ્રમાદ ન કરે ત્યાર પછી તે ભૂતા દરિકા સ્નાન કરી બધા પ્રકારના અલંકારો (ઘરેણુ) થી વિભૂષિત થઈ દાસીઓથી પરિવેષ્ટિત (ઘરાયેલી) થઈને પિતાના ઘેરથી નીકળી બાહાર Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका मुत्रे प्रतिनिष्क्रम्य यत्रत्र वाह्योपस्थानगाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानप्रवरं दरूढा । नतः खलु मा भूता द्वारिका निजपरिवारपरिवृता राजगृह नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव गुणशिलं चैत्य नवोपागच्छनि, उपागन्य छत्रादीन तीर्थंकरातिशयान पश्यति । धार्मिकात् यानप्रवरात् प्रत्यवरुह्य चेटीचक्रावालपरिकीर्णा यत्रैव पार्थोऽहन पुरुपादानीयस्त्रयोपागच्छति, उपागत्य त्रिकृत्वों यावत् पर्युपास्ते । ततः खलु पाऽिईन पुरुषाढानीयो भूताय दारिकाय तम्यां महातिमहत्यां० धर्म कथा । धर्म श्रुत्वा निगम्य हतुष्टा० चन्दते, बन्दिन्वा एयमवादीत्-श्रद्दधामि खलु भदन्न ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं यावद् अभ्युतिष्ठामि खलु भवन्त ! निग्रन्थं बाहर उपवेशन गालामें आयी । वहा अपने धार्मिक रथपर चढो । उसके बाद वह भूना दारिका अपनी दासियोंसे परिवेष्टित हो राजगृह नगर के मध्यसे होती हुई गुणगिलक चैत्यमें पहुंची। वहा उसने तीर्थकगेसे परिवेष्टिन हो पुरुपादानीय भगवान पर्व प्रभुके पास गयी और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक बदन नमस्कार करके उपासना करने लगी। उसके बाद पुरुपादानीय अर्हत् भगवान पाश्व प्रभुने उस महती म मामें भूना दारीकाको धपिढा किया । अनन्तर भृता दारिका धर्म सुनकर उसे हृदय में अवधारण का हृष्ट तुट हृदय हो भगवानको वन्दन और नमस्कार किया। पश्चात् उमने इस प्रकार कहा-हे भगवन् ! आपने जिम निर्ग्रन्थ प्रवचनका निरूपण किया है उस निग्रन्थ प्रवचन पर में अद्धा रग्बती है और उसके आराधनके लिये में उद्यत है। हेमन्त ! બેસવાની શાળામાં આવી ત્યા પિતાના ધામિક થ ઉપર ચડી ત્યાર પછી તે ભૂતા દરકા પિતાની દાસીઓથી પરિટિત થઈ જંગ્રહ નગની વચ્ચે થઈને ગુણશિલક ત્યમાં પહાચી ત્યાં તેણે તથિ કે ના અતિશયક છત્ર આદિ જયા ત્યા પિતાના ધામિક માથી નીચે ઉતરી. પછી પિતાની દાસીઓથી ઘેરાઈને પુછવાદાનીય ભગવાન પાર્થ પ્રભુની પાસે ગઈ અને ત્રણવાર પ્રદક્ષિણાપૂર્વક વદન નમસ્કાર કરી ઉપાસના કરવા લાગી ત્યાર પછી પુરુષદાનીય હતું ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુએ તે મોટી સભામાં ભૂતા દારિકાને ધર્મોપદેશ કર્યો પછી ભૂતા દારિકાએ ધર્મનું શ્રવણ કરી તેને હૃશ્યમાં અવધારણ કરી હષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી ભગવાનને વદન તથા નમસ્કાર કર્યા પછી આ પ્રકારે કહ્યું–હે ભગવન્ ! જે પ્રકારે આપે નિર્ચન્જ પ્રવચનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે નિર્ચસ્થ પ્રવચનમા હુ શ્રદ્ધા રાખુ છુ અને તેના આરાધના માટે હું યત્નશીલ છુ. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् ..... ... .. प्रवचनम्, तद् यथैतद् यूयं वैदेथ; यद् नवरं देवांनुप्रिय ! अम्बापितरौ आपृच्छामि । ततः खलु अहम् यावत् प्रव्रजितुम् । यथासुखं देवानप्रिये । ततः खलु सा भूता दारिका तदेव धार्मिकं यानपवरं यावद् दूरोहति, दुरुह्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैवोपागता, राजगृहं नगरं मध्यमध्येन यत्रैव स्वं गृहं तत्रैवोपागता, रथात् प्रत्यवरुह्य यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैवोपागता, करतल. यथा जामालिः आपृच्छति । यथासुखं देवानुप्रिये ! ततः स सुदर्शनेा गाथा पतिः विपुलमशनम् ४ उपस्कारयति, मित्रज्ञाति० आमन्त्रयति, आमन्त्र्य यावत् जिमितभुक्त्युत्तरकाले शुचिभूतो निष्क्रमणमाजाप्य कौटुम्विक: पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेत्र भो देवानुप्रियाः ! मैं अपने माता पिताको पूछ कर आपके समीप प्रव्रज्या लेना चाहती है। भगवानने कहा-हे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुझे सुख हो वैसा करो। उसके बाद वह भूता दारिका उसी धार्मिक रथपर चढी और वहासे राजगृहकी ओर आयी। राजगृह नगरमें जहा उसका घर था वहाँ गयी। अपने घर जाकर रथसे उतरी, अनन्तर अपने माता पिताके समीप पहुंची। जमालोके तरह हाथ जोडकर अपने माता पितासे प्रव्रज्यांके लिये आज्ञा मागी । उन लोगोने आज्ञा दी हे पुत्री ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो। .. उसके बाद उस सुदर्शन गाथापतिने विपुल अशन पान खाद्य इन चारो प्रकारके आहारको तैयार करवाया, तथा मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको निमन्त्रित किया और आदर सत्कार पूर्वक सोजन कराया। खाने पीने के बाद पवित्र हो कौटुम्बिक (आज्ञाकारी) पुरुषांको - હે ભદન્ત | હું મારા માતાપિતાને પૂછીને આ ની પાસે પ્રવજ્યા લેવા ચાહુ છુ. - ભગવાને કહુ –હે દેવાનુપ્રિયે ! જે પ્રકારે તને સુખ થાય તેમ કર ત્યાર પછી તે ભૂતાદારિકા તેજ ધાર્મિક રથ ઉપર ચડી અને ત્યારથી રાજગ્રહ તરફ આવી રાજગૃડ નગરમાં જ્યાં તેનું ઘર હતુ ત્યાં ગઈ પિતાને ઘેર જઈ રથમાથી ઉતરી પછી પોતાનાં માતાપિતાની પાસે પહોંચી જ માલીની પેઠે હાથ જોડીને પિતાના માતાપિતા પાસે પ્રવૃન્યા લેવા માટે આજ્ઞા માગી તેઓએ આજ્ઞા આપી – હે પુત્રી ' જેવી તારી ઈચ્છા” * ત્યાર પછી તે સુદર્શન ગાથાપતિએ વિપુલ (ખૂબ) અશનપાન-ખાદ્યસ્વાદ્ય એવા ચારે પ્રકારના આહાર તૈયાર કરાવ્યા તથા મિત્ર, જ્ઞાતિ સ્વજન બધુઑને નિમંત્રણ આપ્યું અને આદર સત્કારપૂર્વક ભેજન કરાવ્યું. ખાવાપીવાનુ થઈ રહ્યા પછી પવિત્ર થઈ કૌટુંબિક (આજ્ઞાકારી) પુરુષને બોલાવી દીક્ષાની તૈયારી કરવાની આજ્ઞા દેતા તેઓને Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ निरयावलिकामुत्रे भूतादारिकायै पुरुषमणस्त्रवाहिनीं शिविकामुस्थापयत, उपस्थाप्य० प्रत्यर्पयत ! ततः खलु ते यावत् प्रत्ययन्ति ॥ १ ॥ टीका- 'जडण संने' इत्यादि व्याख्या मृगमा ॥ १ ॥ मूलम् तपणं से सुदंसणे गाहावई भूयं दारियं पहायं जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहइ, दुरुहित्ता मित्तनाइ० जाव खेणं रायगिहं नयरं मज्झं मज्झेण जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागए, छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठावे, ठावित्ता भूयं दारियं सीयाओ पच्चोइ । तरणं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए - तेणेव उवगया, तिखुत्तो वंदति नर्मसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाप्पिया ! भृया दारिया अम्हं एगा धूया इद्वा०, एस णं देवाप्पिया ! संसारभविग्गा भीया जाव देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पवयइ । तं एयं णंदेवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुपिया ! सिस्सिणीभिक्खं । अहासुहं देवागुप्पिए । तरणं सा भूया दारिया पासेणं अरहया० एवं वृत्ता समणी हट्टतुडा० उत्तरपुरत्थिमं बुलवाकर दीक्षाकी तैयारी की आज्ञा देते हुए इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियों ! तुम लोग हजार पुरुषोंसे उठायी जानेवाली शिविकाको भृता द्वारिका के लिये तैयार करो और ले आओ। उसके बाद वे लोग शिविकाको सजाकर ले आये ॥ १ ॥ આ પ્રકારે કહ્યુ:--હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લાર્ક હજાર પુરુષાથી ઉપાડાય એવી શિબિકા (પાલખી) ને ભૃતા રિકા માટે તૈયાર કરી અને લઇ આવે ત્યાર પછી તે હાંક તે પાલખીને સાવીને લાવ્યા, (૧), Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् ३३३ सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, जहा देवागंदा पुष्फचूलाणं अंतिए जाव गुत्तबंभयारिणी तएणं सा भूया अजा अण्णया कयाई सरीरबाओसिया जाया यावि होत्था हत्थे धोवइ, पाये धोवइ, एवं सीसं धोवइ, मुहं धोवइ, थणगंतराइं धोवइ, कक्खतराई धोवइ, गुज्झंतराइं धोवइ. जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सिंजं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य णं पुवामेव पाणएणं अब्भुक्खेइ । तओ पच्छा ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेएइ। तएणं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ भूयं अनं एवं क्यासी अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाओसियाणं होतए, तुमं च णं देवाणुप्पिए ! सरीरबाओसिया अभिक्खणं २ हत्थे धोवसि जाव निसीहियं चेएसि, तं गं तुमं देवाणुप्पिए ! एयरस ठाणस्स आलोएहि त्ति, सेसं जहा सुभद्दाए जाव पाडियकं उबस्सयं उवसंपज्जिता णं विहरइ । तएणं सा भूया अज्जा अणोहटिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवइ जाव चेएइ। तएणं सा भूया अजा बहहिं चउत्थछटु० बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिस्विडिसए विमाणे उववायसभाए देवसगणिनंति जावतोगाहणाए लिरिदेविताए उववण्णा पंचविहाए पज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए पत्ता । एवं Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - xxxhiry F मिरयत्नलिकामत्र खलं गोयमा ! सिरीए देवीए एसा दिव्वा देविडी लद्धा पत्ता। ठिई एगं पलिओवसं । सिरी णं भंते ! देवी जाव कहिं गच्छिहिइ ? महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । एवं खलु जंबू ! निस्ववओ । एवं सेसाणं वि नवण्हं भाणियवं, सरिसनामा विमाणा, सोहम्से कप्पे, पुवभवे नयरचेइयपियमाईणं अपणो य नामादी जहा संगहणीए; सव्वा पासस्स अंतिए निक्खंता। ताओ पुप्फचूलाणं सिस्सिणियाओ सरीरवाओसियाओ सद्याओ अगंतरं चई चइत्ता महाविदेहे वासें सिंज्झिहिइ ॥२॥ ॥ पुप्फचुलिया णामं चतुत्थवग्गो सम्मत्तो ॥ ४ ॥ छाया-ततः खलु स मुदर्शनो गाथापतिः भूतां दारिकां लातां यावद् विपिनगरीरां पुरुपसह वाहिनीं शिविकां दूरोहयति, दोह्य मित्रज्ञाति० यावद् रवेण राजगृहनगरं मव्यमध्येन तत्रैव गुणगिलं चैत्यं तोवोपागतः, छत्राटीन तीथकरातिशयान् पश्यति, दृष्ट्वा गिविकां स्थापयति, स्थापयित्वा भूतां दारिकां गिविकातः प्रत्यवरोहयति । ततः खलु तां भूतां दारिका 'तएणं से' इत्यादि-. उसके बाद उस सुदर्शन गाथापतिने स्नान की हुई तथा सभी अलङ्कारोसे अलङ्कृत उस भूतां दारिकाको गिविकामें बैठाया। अनन्तर वह अपने सभी मित्र ज्ञाति स्वनन बन्धुओंके साथ मेरी आदि बाजोंकी ध्वनिस दिशाको मुग्वरित करता हुआ राजगृह नगरीके वीचोबीचसे होता हुआ गुणशिलक चैत्यके पास पहुँचा। वहा उसने तीर्थकरीके अतिशयको देखा और शिविकाको ठहराया। तथा भूता 'तएणं से' त्यादि ત્યાર પછી તે સુદર્શન ગાથપતિએ ભૂતા દારિક કે જે સ્નાન કરીને તથા તમામ અલકારોથી વિભૂષિત હતી તેને તે શિબિકામા બેસાડી. પછી તે પિતાના સર્વે મિત્ર, જ્ઞાતિ, વજન બધુઓની સાથે ભેરી, શરણાઈ આદી વાજાંઓના વિનિથી દિશાઓને મુખરત કરતા રાજગૃહ નગરીની વચોવચ થઈને આવતા, ગુણશિલક ચીત્યની પાસે પહેચ્યા. ત્યાં તે ૫ લખીને શેકાધી? તથા ભૂત દારિકા શિબિકેમાથી’નચે ઉતરી ત્યારે Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् ३३५ मम्बापितरौ पुरतः कृत्वा यत्रैव पार्थोऽहंन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागतो, त्रिकृत्वो वन्देते नसस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादिष्टाम्-एवं खलु देवानुप्रियाः ! भूता दारिका अस्माकमेका दुहिता इष्टाः, एपा खलु देवानुप्रियाः। संसारभयोद्विग्ना भीता यावद् देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा यावर प्रव्रजति, तद् एतां खलु देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षां दद्मः, प्रतिच्छन्तु खलु देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखं देवानुप्रियाः ! ततः खलु सा भूना दारिका पार्श्वनाहता० एवमुक्ता सती हृष्टा उत्तरपौरस्त्यां स्वयमेव दारिका शिविकासे उतरी। उसके बाद माता पिता भूता दारिकाको आगे कर जहा पर पुरुषादानीय अहेत् पाव प्रभु थे वहा आये, और तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिण करके वन्दन और नमस्कार किया अनन्तर उन्होंने कहा-हे देवानुप्रिय ! यह भूता दारिका हमारी एकाएक (इकलौती) पुत्री है, यह हमलोगोंकी अत्यन्त प्यारी है। यह दारिका संसारके भयले अत्यन्त उद्विग्न है, तथा इसको जन्म और मरणका भय लगा हुआ है, इसरिये यह आपके समीप मुण्डित होकर प्रव्रजित होना चाहती है। हे भदन्त ! इसलिये हम आपको यह शिष्यारूप भिक्षा देते हैं। हे देवानुप्रिय ! इस शिध्यारूप भिक्षाको आप स्वीकार करे । भगवानने कहा-हे देवानुप्रिये ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो । उसके पश्चात् अहेत् पाश्च प्रभुके इस प्रकार कहने पर वह भूता दारिका हृष्टतुष्ठहृदयसे ईशान कोणमें जाकर अपने ही हाथोसे પછી માતાપિતા ભૂવા દારિકાને આગળ કરીને ચાલતા જ્યા પુરૂષ દાનીય અત્ પાશ્વ પ્રભુ હતા ત્યા આવ્યા અને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીન વદન તથા નમસ્કાર કર્યા પછી તેઓએ કહ્યું - હે દેવાનુપ્રય છે આ ભૂતા દારિકા અમારી એકની એક પુત્રી છે તે અમને બહુજ વહાલી છે આ દારિકા સ સારના ભયથી ઘણુજ ઉદ્વિગ્ન છે અને તેને જન્મ તથા મરણનો ભય લાગ્યા કરે છે તે માટે તે આપની પાસે મુ ડિત થઈને પ્રિવ્રજિત થવા ચાહે છે હે ભદન્ત ! તે માટે અમે આપને આ શિધ્યારૂપ ભિક્ષા દઈએ છીએ હે દેવાનુપ્રિય ! આ શિધ્યારૂપ ભિક્ષાને આપ સ્વીકાર કરો ભગવાને કહ્યું--હે દેવાનુપ્રિયે ! જવી તમારી ઈચ્છા ત્યાર પછી અહંતુ પાશ્વ પ્રભુના એ પ્રકારે કહેવાથી તે ભૂતા દરિકા હદ તુષ્ટ હદયથી ઈશાન કેણુમાં જઈને પિતાના જ હાથેથી આભૂષણ આદિને પિતાના શરીર Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ." : निरयावलिका मृत्रे आभग्णमाल्यालङ्कारमवमुञ्चति, यथा देवानन्दा पुष्पचूलानामन्तिके यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा भूता आर्या अन्यदा कदाचित् शरीरवाकुशिका जाता चापि अभवत् । अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हम्ती धावति, पादौ धावति, पचं शीय धावति, मुग्वं धावति, स्तनान्तराणि कक्षान्तराणि धावति, गुह्यान्तराणि धावति, यत्र यत्रापि च खलु स्थानं वा शय्यां वा नैपेधिकीं (म्बाध्यायभूमि) चेतयते (करोति) तत्र तत्रापि च खलु पूर्वमेत्र पानीयेन अभ्युक्षति । ततः पश्चात् स्थानं वा शय्यां वा नैपेधिकी बा चेतयते । तनः खलु नाः पुप्पचूला आर्या भूतामा-मेवमवादिषुः-वयं खलु देवानुप्रिये ! श्रमण्या निग्रन्थ्यः, ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो आभूषण आदिको अपने शरीरसे उतारती है। बादमें वह देवान्दाके समान पुष्पचूला आकि समीप प्रवजित हो यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी होती है। उसके बाद वह मृता आर्या किसी समय शरीर वाकुशिका हो गयी, जिससे वह अपने हाथोंको, पैरोंको, गिरको, मुहको तथा स्तनके अन्तर भागोंको, एवं काग्बके अन्तरको और गुह्य के अन्तरको बार बार धोने लगी। जहा कहीं भी मोनेके लिये, बैठने के लिये, स्वाध्याय करनेके लिये उपयुक्त स्थान निश्चित करती थी उसे पहलेस ही पानीसे छिडकती थी, बाद वहा थैठती थी, सोती थी, स्वाध्याय करती थी। अनन्तर उस भूता आर्या के इस प्रकारके व्यवहारको देखकर पुष्पचूला आर्याने उससे इस प्रकार कहा है देवानुप्रिये ! हमलोग ईर्यासमिति आदि समितियोंसे युक्त यावत गुप्तबह्मचारिणी श्रमणी निर्ग्रन्थी हैं। हमें शरोर याकुशिका होना ઉપરથી ઉતારે છે પછી તે દેવાનન્દાની પેઠે પુષ્પગૃલા આર્યાની પાસે પ્રત્રજિત થઈ ગુપ્તબ્રહ્મચારિણી બને છે ત્યાર પછી તે ભૂતા આ કાઈ એક વખતે શરીર ભાશિકા થઈ ગઈ જેથી તે પિતાના હાથ, પગ, માથુ, મેં તથા સ્તનના અંદરના ભાગને અને કાખના અદરના ભાગો તથા ગુહ્યની અંદરના ભાગે વારંવાર ધવા લાગી ત્યાં ત્યા પણ સુવા માટે, બેસવા માટે સ્વાધ્યાય કરવા માટે ઉપયુકત સ્થાનને નિશ્ચય કરતા હતી તે પહેલા જ ત્યાં પાણી છાટતી હતી, પછી ત્યા બેસતી હતી, સૂતી હતી, વાધ્યાય કરતી હતી પછી તે ભૂત આર્યાને આ પ્રકારનો વ્યવહાર જઈને પુપલા આય તેને આ પ્રકારે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય! આપણે ઇસમિતિ આદિ સમિતિએથી યુકત અને ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી શ્રમણ નિગ્રંથી છીએ આપણને શરીરે બાકુશિક Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् खलु कल्पते अस्माकं शरीरवाकुशिकाः खलु भवितुम्, त्वं च खलु देवानुप्रिये ! शरीरवाकुशिकाः अभीक्ष्णमभीक्ष्ण हस्तौ धावसि यावद् नैषेविकी चेतयसि, तत् खलु त्वं देनानुप्रिये ! एतस्य स्थानम्य आलोचयेति, शेषं यथा सुभद्रायाः यावत् प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु सा भूता आर्या अनपघट्टिका अनिवारिता स्वच्छन्दमतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्ण हस्तौ धावति यावत् चेतयते । ततः खलु सा भूता आर्या बहुभिः चतुर्थं पष्ठाष्टम० वहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा नस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा सौधर्म कल्पे श्यवतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावत् तदगाहनया श्रीदेवीतयोपपन्ना पञ्चविधया पर्याप्त्या भापामनःपर्याप्त्या पर्याप्ता । एवं खलु उचित नहीं है। हे देवानुप्रिये ! तुम शरीर बाकुनिका हो गयी हो, उससे सर्वदा-बार २ हाथ पैर आदि अंगोको धोतो होबैठने सोने तथा स्वाध्याय करनेकी जगहको पानीसे छिडका करती हो । इसलिये हे देवानुप्रिये ! तुम इस पाप स्थानकी आलोचना करो। उसके बाद पुष्पचूलाकी बात न मानकर वह भूता आर्या सुभद्रा आर्या के समान अकेली ही अलग उपाश्रयमें उतरी और पूर्ववत् क्रिया करती हुई स्वतन्त्र होकर रहने लगी। उसके बाद वह भूता आर्या बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्माको भावित करती हुई अपने पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल अवसरमें कालकर सौधर्म कल्पके श्री-अवतंसक विमानमें उपपात सभाके अन्दर देव-शयनीय शय्यामें उस देव सम्बन्धी થવુ ઉચિત નથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તુ શીરબાકુ શેકા થઈ ગઈ છે તેથી હમેશા હાથ, પગ આદિ અગેને વાર વાર ધુએ છે બેસવા, સૂવા તથા સ્વાધ્યાય કરવાની જગા ઉપર પાણી છાટે છે માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તુ આ પાપસ્થાનની આલેચના કરે ત્યાર પછી તે પુષ્પચૂલાની વાત ન માનીને તે ભૂતા આર્યા સુભદ્રા આર્યાની પેઠે એકલી જ જુદા ઉપાશ્રયમાં ઉતરી અને પૂર્વવત્ વતી સ્વત ત્ર થઈને રહેવા લાગી ત્યાર પછી તે ભૂતા આર્યા ઘણું ચતુર્થ, ષષ્ઠ અષ્ટમ આદિ તપથી આત્માને ભાવિત કરતી અને ઘણા વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરતી તેણે પોતાનાં પાપસ્થાનની આલોચના અને પ્રતિક્રમણ કર્યા વગર પછી કાળ અવસરમા કાળ કરીને સીધર્મ ક૯૫ના શ્રી અવત સક વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શય્યામાં તે દેવ સબંધી અવ ४३ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ निरयावलिकासूत्रे गौतम ! श्रिया देव्या एषा दिव्या देवऋद्धिलब्धा प्राप्ताः स्थितिरेकं पल्योपमम् । श्रीः खलु भदन्त ! देवी यावत् क्व गमिष्यति ? महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति । एवं खलु जम्ः ! निक्षेपकः । एवं शेपाणामपि नवानां भणितव्यं सदृशानामानि विमानानि, सौधर्मे कल्पे, पूर्वभवे नगरचैत्यपित्रादीनाम् अवगाहनासे श्री देवी पने उत्पन्न हुई और भापापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाच पर्याप्तियोंसे युक्त हो गयी। देवगतिमें भाषा और मनपर्याप्ति एक साथ चाधनेके कारण पाच पर्याप्ति कही गयी है। हे गौतम ! श्री-देवीने इस प्रकार इस दिव्य देवऋद्धिको पाया है। देवलोकमें इसकी स्थिति एक पल्योपमकी है। गौतम स्वामीन पूछाहे भदन्त । यह श्री-देवी यहाँसे च्यवकर कहा जायगा । भगवान कहेते हैं हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होगी और सब दुःखोका अन्त करेगी। सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पचूलिकाके प्रथम अध्ययनका भाव उक्त प्रकार निरूपित किया है । ગાહના દારા શ્રી–દેવી પણ માં જન્મ લીધે અને ભાષાપર્યાપ્ત, મન:પર્યાપ્તિ આદિ પાચ પMિઓથી યુકત થઈ ગઈ દેવગતિમા ભાષા અને મન; પર્યાપ્તિ એક સાથે બાવવાના કારણે પાચ પર્યાપ્ત કહી છે. હે ગોતમ! શ્રી–દેવીએ આ પ્રકારે આ દિવ્ય દેવત્રાદ્ધિને મેળવી છે. દેવલોકમાં તેની સ્થિતિ એક પલેપમની છે. ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદત! આ શ્રી–દેવી અહીંથી અવીને કયા જશે ભગવાન કહે છે હ ગતિમ ! તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને બધાં દુઃખ અ ત લાવશે સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ હ જમ્મુ 1 શ્રમ ભગવાન મહાવીર પુષ્પલિકાના પ્રથમ અધ્યયનનો ભાવ ઉપર પ્રમાણે નિરૂપિત કર્યો છે. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका वर्ग ४ अ. १ श्रीदेवीवर्णनम् आत्मनश्च नामादिर्यथा संग्रहण्याम्, सर्वाः पार्श्वस्यान्तिके निष्क्रान्ताः । ताः पुष्पचूलानां शिष्याः शरीरवाकुशिकाः सर्वा अनन्तरं चयं च्युत्वा महाविदेहे वर्षे सेत्स्यन्ति ॥ २ ॥ टीका-'तएणं से सुदंसणे' इत्यादि । 'अभुक्खइ' अभ्युक्षति अभिपिञ्चति । चेएइ' चेतयति-उपविशति । शेषं स्पष्टम् ॥ पुष्पचूलिकाख्यश्चतुर्थों वर्गः समाप्तः ॥ ४ ॥ इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनौका भी भाव जानना चाहिये । इन नवोंके विमानोंका नाम इनके समान है । सौधर्म कल्पमें ये सब देवीपनमें उत्पन्न हुई। इनके पूर्वभवमें नगर उद्यान पिता आदि तथा इनका अपना नाम आदि संग्रहणीगाथामें आये हुए नामके समान जानना चाहिये। ये सभी पार्श्व प्रभुके समीपमें प्रव्रजित होकर पुष्पचूलाकी शिष्या हुई तथा सभी शरीरबाकुशिका हो गयीं। और ये सभी देवलोकसे च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगी । और सब दुःखोंका अन्त करेंगी ।। २ ।। पुष्पचूलिका नामका चतुर्थ वर्ग समाप्त हुआ આ પ્રકારે શેષ (બાકીના) નવ અધ્યયને પણ ભાવ જાણી લેવું જોઈએ આ નવમા વિમાનના નામ તેના નામના જેવા જ છે સૌધર્મ કપમાં એ બધીને દેવીપણમાં જન્મ થયે તેમના પૂર્વભવમાં નગર, ઉદ્યાન, પિતા આદિ તથા તેના પિતાનાં નામ આદિ સ ગ્રહણું ગાથામાં આવેલા નામના જેવા જાશુવા આ બધી પાર્થ પ્રભુની પાસે પત્રજિત થઈ અને તે બધી પુષ્પચૂલાની શિષ્યાઓ થઈ હતી તથા બધી શરીરબાકુશિકા થઈ ગઈ હતી તે પછી બધી દેવલોકમાથી અવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને સર્વે દુઃખને અત લાવશે. (૨) પુષ્પચૂલિકા નામને ચોથે વર્ગ સમાપ્ત. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिकासूत्रे वृष्णिदशा ५ मूलम्-जइणं भंते ! उक्खेवओ० उवंगाणं चउत्थस्स पुप्फचुलाणं अयमट्टे पण्णते, पंचमस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं वह्निदसाणं भगवया जाव संपत्तेणं के अहे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव दुवालस अज्झयणा पण्णता, तं जहा “निसढे १ मायनि २ वह ३ वहे ४, पगता ५ जुत्ती ६ दसरहे ७ दढरहे ८ य । महाधणू ९ सत्तधणू १०, दसधणू ११ नामे सयधणु १२ य ॥१॥ जइणं भंते! समणेणं जाव दुवालस्स अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! उवक्खेवओ । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ वारवई नामं नयरी होत्था दुवालसजोयणायामा जाव पञ्चक्खं देवलोयमूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तीसे णं वारवईए नयरीए पहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए, एत्थ णं रेवए नामं पवए होत्था, तुंगे गगणतलमणुविहंतसिहरे नाणाविहरूकखगुच्छगुल्मलतावल्लीपरिगताभिरामे हंस-मिय-मयूर-कोंच-सारस-चकवाग-भयणसाला-कोइलकुलोववेए अणेग-तडकडगवियरओझरपवायपुत्भारसिहरपउरे'अच्छरगणदेवसंगचारणविजाहरमिहणसंनिविन्ने निच्चच्छणए दसारवावीरपुरिसतेलोकत्रलयगाणं सोमे सुभए पियदंसणे सुरूवे पासाईए जाव पडिरूवे । तत्थ णं रेवयगस्स पवयस्स अदूरसामंते एत्थ णं नंदुणवणे. नाम उज्जाणे होत्था, सबोउयपुप्फ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् जाव दरिसणिज्जे । तत्थणं नंदणवणे उजाणे सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था चिराइए जाव बहुजणो आगम्म अच्चेइ सुरपियं जक्खाययणं । से णं सुरप्पिए जक्खाययणे एगेणं महया वणसंडेणं सुबओ समंत्ता संपरिक्खित्ते जहा पुण्णभद्दे जाव सिलावट्टए । तत्थणं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया होत्था जाव पसासेमाणे विहरइ । से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोअखाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसहस्साणं पज्जुण्णपामोक्खाणं अधुटाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सटीए दुईदसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसीए वीरसाहस्तीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं रुप्पिणिपामोखाणं सालसण्हं देवीसाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणिया साहस्सीणं, अण्णेसि च बहणं राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईणं वेयगिरिसागरमेरागस्स दाहिणभरहस्स आहेबच्चं जाव विहरइ। तत्थणं बारवईए नयरीए बलदेव नामं राया होत्था, महया जाव रजं पसासेमाणे विहरइ । तस्स णं बलदेवस्स रण्णो रेवई नामं देवी होत्था, सोमाला जाव विहरइ । तएणं सा रेवई देवी अण्णया कयाइ तंलि तारिसगंसि सयणिज्जसि जाव सीहं सुलिणे पासित्ता णं पडिबद्धा०, एवं सुमिण दसणपरिकहणं, निसडे नाम कुमारे जाएं जाव कलाओ जहा महावले, पनासओ दाओ, एण्णासरायकण्णागाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हावैई, नवरं निसढे 'नाम जीव उपिपासाए विहरइ. ॥१॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ निरयावलिकाम छाया-यदि खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः, उपागानां चतुर्थस्य पुष्पचूलानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, पञ्चमस्य ग्वल भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां वृष्णिदगानां श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगबता महावीरेण यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद् यथा निपधः १, मायनी २ वहः ३ वहः ४ पगता, ५ ज्योतिः ६ दशरथः ७ दृढरथश्च ८ महाधन्वा, ९ सप्तधन्वा, १० दशधन्वा, ११ नाम शतधन्वाच १२ ॥ १ ॥ ___यदि खलु भदन्त । श्रमणेन यावद द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथ. मस्य खलु भदन्त ! श्रमणेन यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु । वृष्णिदशा वर्ग। 'जईणं भंते ' इत्यादि जम्बू स्वामी पूछते हैं-हे भदन्त ! पुष्षचूला नामके चतुर्थ उपाङ्गमें भगवानने पूर्वोक्त प्रकारसे दस अध्ययनोंका निरूपण किया तो हे भदन्त ! उसके बाद वृष्णिदगा नामक पाचवें उपाङ्गमें मोक्ष प्राप्त भ्रमण भगवान महावीरने किन अर्थोका निरूपण किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशा नामक पाचवें वर्गमें बारह अध्ययनोंका निरूपण किया है। उनके नाम (१) निषध, (२) मायनी, (३) वह, (४) वह, (५) पमता, (६) ज्योति, (७) दशरथ, (८) दृढरथ, (९) महाधन्वा, (१०) सप्तधन्वा, (११) दधन्वा और (१२) शतधन्वा हैं। વૃદિશા વર્ગ (૫)પાંચમે 'जडणं भंते 'त्यादि જખ્ખ સ્વામી પૂછે છે - હે ભદન્ત | પુષચૂલા નામના ચેથા ઉપાગમાં ભગવાને પૂર્વક પ્રકારથી દશ અધ્યયનાનું નિરૂપણ કર્યું છે તે હે ભદન્ત ! ત્યાર પછી વૃદિશા નામના પાચમા ઉપાગમાં મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કયા અથનું નિરૂપણ કર્યું છે સુધર્મા સ્વામી કહે છે.–હે જમ્મુ 1 શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃષ્ણુિદશા નામના પાચમા વર્ગમાં બાર અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. तभना नाम-(१) निषध, (२) भायनी, (3) पहु, (४) १९, (५) पाता (6) न्याति, (७) ६शरथ, (८) १८२२ (6) माधवा, (१०) सप्तधन्वा. (११) शधन्दा भने (१२) शतधन्वा छे. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निपधकुमारवर्णनम् भदन्त ! उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावती नाम नगरी अभवत् द्वादशयोजनायामा यावत् प्रत्यक्ष देवलोकभूता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा। तस्या : खलु द्वारावत्याः नगर्या वहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे; अत्र खलु रैवतो नाम पर्वतोऽभवत्, तुङ्गो गगनतलमनुलिहच्छिवरः नानाविधवृक्षगुच्छगुल्मलतावल्लीपरिगताभिरामः हंसमृगमयूरको श्वसारसचक्रवाकमदनशालाकोकिलकुलोपपेतः, अनेकतटकटकविवरावझरप्रपातप्रा जम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशामें बारह अध्ययनोंका निरूपण किया है तो उन अध्ययनोमें प्रथम अध्ययनका क्या भाव कहा है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! उस काल उस समयमें द्वारावती नामकी नगरी थी। जो बारह योजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक सदृश 'प्रसादीया' =मनको प्रसन्न करने वाली तथा 'दर्शनीया' देखने योग्य एवं 'अभिरूपा' -सुन्दर छटावाली और 'पतिरूपा'-अनुपम शिल्पकलासे सुशोभित थी। उस द्वारावती नगरीके बाहर ईशानकोणमें ऊँचा तथा आकाशको छूनेवाले शिखरोंसे युक्त रैवतक नामक पर्वत था। वह पर्वत अनेक प्रकारके वृक्ष गुच्छ गुल्म और लता बल्लियोंसे मनोहर था। वह हंस. मृग, मयूर, क्रौञ्च (पक्षी विशेप) सारस, चक्रवाक, मदनशाला (मैना) और कोकिल आदि पक्षिवृन्दसे सुशोभित था । म्भू स्वामी पूछे छे - હે ભદન્ત ! જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃષ્ણુિદશામાં બાર અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તો તે અધ્યયનમાં પ્રથમ અધ્યયનને શું ભાવ કો છે ? सुधा स्वामी ४ छ: હે જબ્બ ! તે કાળ તે સમયે દ્વારાવતી નામની નગરી હતી, જે બાર योनी यावत् प्रत्यक्ष देवनापी, प्रसादीयामनने प्रसन्न ४२वापाशी तथा दर्शनीया हेमपा योग्य, अभिरूपा-सु ६२ छटापाणी मने प्रतिरूपा-अनुपम શિલ્પકલાથી સુશોભિત હતી તે દ્વારાવતી નગરીની બહાર ઈશાન કોણમા ઊગે તથા ગગનચુંબી શિખરવાળે રેવતક નામનો પર્વત હતા તે પર્વત અનેક જાતના વૃક્ષો, ગુચ્છ. ગુલમ અને લતાવઠ્ઠીએથી મનહર હતો. વળી તે હસ, મૃગ. મયૂર, न्य (पक्षी), सास, न्य , भहनशात (भेना) मने sel मा पक्षीयस्थी Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३४४ . . . निरयावलिकामत्रे मारगिग्वरप्रचुरः अप्यरोगणदेवसंघ-चारण विद्याधरमिथुनसन्निचीर्णः, नित्यक्षणकः, दगाहवरवीरपुरुषत्रैलोक्यबलबतां मोमः शुभः प्रियदर्शनः मुरूपः प्रासादीयो यावत् प्रतिरूपः । तस्य ग्बलु रैवतकम्य पर्वतम्य अदृरमामन्ते, अत्र बलु नन्दनवनं नाम उद्यानम् अभवत्, सर्वत्रत पुप्प० यावद् दर्शनीयम् । तथा जिसमें अनेक तट-किनारे और कटक-पर्वतका रमणीय भाग, तथा विवर-सुन्दर गुफाएँ और अवझर-सुन्दर झरने एवं प्रपात-जहाँ झरना गिरता है वह स्थान, तथा प्रारभार पर्वतका झुका हआ रम्य प्रदेश और अनेक सुन्दर गिन्वर विद्यमान थे। वहा अप्सरागण देवगण और विद्याधरांके युगल आकर क्रीडा करते थे। और जहा जङ्घाचरण विद्याचरण सुनि भी ध्यान सोनादिके लिये निवास करते थे। तथा वह पर्वत उत्सवका एक रमणीय स्थल था। और नेमिनाथ भगवानसे युक्त होने के कारण तीनों लोकमें श्रेष्ठ बलवीर दशाहका बह पर्वत मोम-आहाद उत्पन्न करनेवाला था, शुभमंगलकारी था प्रियदर्शन-नत्रोंको मुख देनेवाला था, मुरूप-सुहावना था, प्रमादीय-मनको प्रसन्न करनेवाला था. दर्शनीय-देखने योग्य था, अभिरूप-अपनी सुन्दरताके कारण चमकता था, प्रनिरूपदर्शक जनोंके हृदय में प्रतिविम्बित हो जाता था। उस रैवतक पर्वतके समीपमें नन्दनवन नामक उद्यान था, जो सभी ऋतुओंके फूलोंसे सम्पन्न સુશોભિત હતિ તથા જેમાં અનેક તર=કિનારા અને વ=પર્વતના રમણીય ભાગ तथा विवर- २ शुभम ने अवझर-२१२ 271, प्रपातम्या Bety! ५३ छे ते स्थान, तथा मारमार-तना नभेला समय माग भने सु१२ रा. વિદ્યમાન હતા ત્યા અપરાગણ, દેવગણ, અને વિદ્યાધરોના જોડલા આવીને કીડા કરતા હતા અને જ્યા જ ઘાચરણ, વિદ્યાચરણ મુનિ પણ ધ્યાન, મન આદિ માટે નિવાસ કરતા હતા તથા આ પર્વત હમેશા ઉત્સવનું એક રમણીય સ્થાન હતું અને નેમીનાથ ભગવાનથી યુકત હેવાથી રણે લેકમાં શ્રેષ્ઠ બલવીર શાહને તે પર્વત सेोम= माता सन्न ४२वापाडतो, शुभ-भvin sो प्रियदर्शन-नेत्राने सुम आपापा तः, मुरूप=३पा मा२ नो, प्रासादीय-मनने प्रसन्न ४२वायाजा तो. दर्शनीय याय हतो, अभिरूपपोताना सुदरताने दीधे न्यभरत ता, प्रतिरूपनारन सयभा छ।५ पा3 तेवा हो, (प्रतिमिति थ જતે હતો.) તે રેવત પર્વતની પાસે નન્દનવન નામે એક બગીચે હતું. જે બધી अतुम्मामा वायी संपन्न वाथी हर्शनीयत. ते नन्नवान मायामां-मुरमिय: Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३४५ तत खलु नन्दनवनै उद्याने सुरप्रियस्य यमस्य यक्षायतनमभवत्, चिरातीतं, यावद् बहुजन आगम्य अचयति सुरप्रियं यमायतनम् । तत् खलु सुरप्रियं यक्षायतनम् एकेन महता वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् यथा पूर्णभद्रो यावत् शिलापट्टकः । तत्रः खलु द्वारावत्यां नगर्यां कृष्णो नाम वासुदेवो राजाऽभवत् यावत् प्रशासद् विहरति । स खलु तत्र समुद्रविजयप्रमुखानां दशानां दशाहाणां, बलदेवप्रमुखानां पञ्चानां महावीराणाम् . उग्रसेनप्रमुखानां पोडशानां राजसहस्राणां, प्रद्युम्नप्रमुखानाम् अध्युष्टानां (सार्द्धतृतीयानां ) कुमारकोटीनां, शाम्बपमुखानां षष्टयाः दुर्दान्तसहस्राणं, वीरसेनप्रमुखानामेकविंशत्याः वीरसहसाणा, महासेनममुखानां षट्पञ्चाशतो बलवत्सहस्राणां, रुक्मिणीममुखानां पोडशानां देवीसाहस्रीणाम् , अनङ्गसेनाप्रमुखानामनेकासां गणिकासाहस्रीणाम् , यावत् दर्शनीय था। उस नन्दनवन उद्यानमें सुरप्रिय-यक्षका यक्षा. यतन बहुत प्राचीन था और लोक उसे मानते थे । वह सुरप्रिय यक्षायतन चारों तरफसे एक बडा वनषण्डसे घिरा हुजा था। जैसा पूर्णभद्र उद्यान था। उसमें अशोक वृक्षके नीचे एक शिला पट्टक था। उस द्वारावती नगरीमें कृष्ण वासुदेव राजो थे, जो उस नगरोका यावत् शासन करते हुए विचरते थे। वह कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय प्रमुख दश दशा)के बलदेव प्रमुख पाच महावीरोंके, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओंके, प्रद्युम्न प्रमुख साढे तीन करोड कुमारोंके, शाम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त शरोंके, वीरलेन प्रमुग्व एक्कीस हजार वीरोंके, महालेन प्रमुख छप्पन हजार घलवानोंके, रूक्मिणी प्रमुख सोहल हजार देवियोके तथा अनङ्गसेना प्रमुख યક્ષા યક્ષાયતન બહુ પ્રાચીન હતુ અને લેકે તેને માનતા હતા તે સુરપ્રિય યક્ષાયતની ચારે તરફથી એક મેટા વનષડથી ઘેરાયેલું હતું કે જેવું પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાન હતું. તેમાં અશોકવૃક્ષની નીચે એક શિલાપટ્ટક હતુ તે દ્વારાવતી નગરીમા કૃષ્ણ વાસુદેવ નામે રાજા હતા જે તે નગરીમાં રાજ્ય કરતા વિચારતા હતા તે કૃષ્ણ વાસુદેવ સમુદ્રવિજય પ્રમુખ દશ દશોંના, બલદેવ પ્રમુખ પાચ મહાવીરના, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સોળ હજાર રાજાઓના પ્રવ્રુ પ્રમુખ સાડા ત્રણ કરોડ કુમારોના, સા પ્રમુખ સાઠ હજાર દુન્ત શૂથ્વીરાના, વીરસેન પ્રમુખ એકવીશ હજાર વીરેના, મહાસેના પ્રમુખ છપન હજાર બલવાના, રુકિમણી પ્રમુખ સોળ હજાર દેવીઓના તથા અન ગ સેને પ્રમુખ અનેક હજાર ४४ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ निरयावलिकासूत्रे अन्येषां च बहूनां राजेश्वर यावत् सार्थवाहप्रभृतीनां वैतढियगिरिसागरमर्यादस्य दक्षिणार्द्धमरतस्याधिपत्यं यावद् विहरति । तत्र ग्वलु द्वाराबत्यां नगर्या बलदेवो नाम राजाऽभवत् , महता यावद् राज्यं प्रशामद् विहरति । तस्य खलु बलदेवम्य राज्ञो रेवती नाम देव्यभवत् सुकुमारपाणिपादा यावद् विद्वरनि । ततः खलु सा रेवती देवी अन्यदा कदाचित् तादृशे शयनीये यारत् मिहं स्वप्ने दृष्ट्या बलु प्रतिबुद्धा एवं स्वमदर्शनपरिकथनं, निपधो नाम कुमारो जातः, यावत् कला यथा महावलम्य, पश्चागद दायाः, पञ्चागद्राजकन्यकानामेकदिवसेन पाणिं ग्राहयति, नवरं निपधी नाम यावंद उपरि प्रासादे विहरति ॥१॥ टीका-'यदि खलु' इत्यादि-नानाविधगुच्छगुल्मलतावल्लीपरिगताभिराम:नानाविधाः = अनेकप्रकाराः वृक्षाश्च गुच्छाः स्तवकाश्च गुल्मास्तम्बाश्च (स्कन्धरहितास्तरवः) लताः व्रततयश्च वल्या लताविशेषाश्च, ताभिः परिगतः= अनेक हजार गणिकाओंके और बहुनसे गजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक श्रेष्ठी सनापति सार्थवाह प्रभृतिओंके तथा वैताढयगिरि और सागरसे मर्यादित दक्षिण अर्ध भरतके, ऊपर आधिपत्य करते हुए विचर रहे थे। उम हारावती नगरीमें बलदेव नामक राजा थे, जो महाबली थे और यावत् अपने राज्यका पालन करते हुए विचर रहे थे। उम बलदेव राजाकी पत्नी का नाम रेवती देवी था, जो सुकुमार हाथ पैरबली और यमाङ्ग सुन्दर थी। तथा पँचो इन्द्रियोंके अनुभव करती हुई विचरती थी। अनन्तर किसी समय वह रेवती देवी पुण्यवान के सोने लायक अपनी सुकोमल शय्यामें सोधी हुई स्वनमें सिंहको देचा और जाग गयी। स्वप्नका वृत्तान्त उमने राजा बल કાઓના, વળી ઘણા રાજા ઇવર તલવાર માડમ્બિક કોમ્બિક શ્રેષ્ઠી સેનાપતી સાવા આદિ તથા વેત ઢગરિ અને સાગરથી મર્યાદિત દક્ષિણ અર્ધભ-તના ઉપર આધિપત્ય કળા થકા રહતા હતા તે દ્રાવતી નગરીમાં બલદેવ નામે રાજા હતા જે મહાબલવાન હતા અને પિતાના ગજ્યનું શાસન કરતા વિચારતા હતા તે બલવ - (જાની પત્નીનું નામ રેવતી દેવી હતુ, જે સુકુમાર હાથપગવાળી હતી અને અર્વા ગ સુંદર હતી અને પાચે ઈનિ ગુખ અનુભવ કરતી વિચરતી હતી પછી કઈ સમયે તે રેવતી દેવી gયવાન કેન પઢવા થાગ્ય એવી પિતાની સુકેમલ શા સૂતી હતી ત્યાં વનમાં સિહ જોયા અને જાગી ગઈ નનું વૃત્તાન્ત તેણે રાજા બલદેવકી Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरवोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निपधकुमारवर्णनम् -३४७ " सम्प्राप्तः अभिरामः=शोभा यत्र स तथा अनेकप्रकारकत रुस्तव कस्तम्वलतावल्लीसम्प्राप्तच्छत्रिः, हंस- -मृग-मयूर- - क्रौञ्च- सारस- चक्रवाकमदनशाला कोकिलकुलोपपेतः हंसाः=प्रसिद्धाः, मृगाः हरिणाः, मयूराः क्रौञ्चाः, सारसाः, चक्रवाकाः, मदनशाला:=सारिकाविशेषाः, कोकिलाच, तेषां यत् कुलं=समूहस्तेन उपपेतः= युक्तः । अनेकनटकटकविवरावझरमपातप्राग्भार शिखरप्रचुर : - अनेकानि तटानि = तीराणि कटकाः = गण्डशैलाः पर्वतात्संत्रुट्य- पतिता महापापाणाः, विवराणि= छिद्राणि, अवझराः = निर्झर विशेषाः, प्रपाताः =भृगवः = गर्त्तरूपाणि निर्झरणजलपतनस्थानानि, प्रारमारा : = ई पदावनताः पर्वतप्रदेशाः शिखराणि श्रृङ्गाणि एतानि प्रचुराणि यत्र स तथा अप्सरोगणदेवसंघचारण विद्याधर मिथुन संनिचीर्ण:-अप्सरसां गणः=समूहः, देवसङ्घ := देवसमूहः चारणाः =जङ्घाचारणादयः साधुविशेषाः, विद्याधरमिथुनानि, तैः संनिचीर्णः अधिष्ठितः, नित्यक्षणकः - नित्यम् = अनवरतं क्षण पत्र क्षणकः = उत्सवो यत्र सः, केपामयं गिरि: 2 इत्याह- दशार्हवरवीरपुरुपत्रैलोक्यवलबतां दशा:=समुद्रविजयादयो दश दशाहीः तेषु वराः श्रेष्ठाः, वीरपुरुषाच ते, त्रैलोक्ये लोकत्रये बलवन्तश्च अतुल बलशालिनेमिनाथयुक्तत्वात्, ये ते तथा तेषाम् । शेषं सुगमम् ॥ १ ॥ 3 मूलम् - तेणं कालेणं २ अरहा अरिनेमी आदिकरे दसधई वण्णओ जाव समोसारिए, परिसा निग्गया। तरणं से देवका सुनाया । अनन्तर समय बीतने पर रेवती के गर्भ से एक कुमार पैदा हुआ, जिसका नाम निबंध रखा गया । वह कुमार बडा होकर महाचलके समान बहत्तर कलाओं में प्रवीण हो गया । पचास राजकन्याओंके साथ एक दिनमें उसका विवाह हुआ तथा उसको पचास-पचास दहेज मिला । अनन्तर पूर्वजन्म उपार्जित पुण्य से मिले हुए पाँच इन्द्रियोंके सुखोंका अनुभव करता हुआ अपने महलमें उत्सव आदिके साथ रहने लगा || १ ॥ સ ભળવ્યુ પછી સમય વીતતા રેવતીના ગર્ભોથી એક કુરના જન્મ થયે, જેનુ નામ નિષધ રાખવામાં આવ્યુ તે કુમાર મેટ થતા મહાબલના જેવા ખાતર કળાઓમા પ્રવીણ થઈ ગયા પંચાલ રાજકન્યાઓની સાથે એક દિવસમા તેના લગ્ન થયા અને પચાસ પચાસ દહેજ ૨ ન્યા પછી પૂર્વજન્મ ઉપાર્જિત પુણ્યથી મળેલા પાચે ઇન્દ્રિયાના સુખાના અનુભવ કરતા તે પોતાના મહેસમા આનંદ ઉત્સવમાં રહેવા લાગ્યા (૧) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ निरयावलिका मूत्रे कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लट्टे समाणे हट्टतुट्टे० कोडंवियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव देवाणुपिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाणियं भेरि तालेह । तएणं से कोडुवियपुरिसे जाव पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए जेणेव सामुदाणिया भेरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं सामुदाणियं भेरी महया २ सद्देणं तालेइ, तएणं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महया २ सण तालियाए समाणीए समुदविजयपामोक्खा दस दसारा देवीओ उण भाणियवाओ जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा, अन्ने य वहवे राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईओ पहाया जाव पायच्छित्ता सवालंकारविभूसिया जहा विभवइडिसक्कारसमुदएणं, अप्पेगइया हयगया जाव पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता० जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करतल. कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं बद्धाति । तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडंवियपुरिसे एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणप्पिया ! आभिसेकं हत्थिरयणं कप्पेह हयगयरहपवरजाव पच्चप्पिणंति । तएणं से कण्हे वासुदेवे मजणघरे जाव दुरूढे, अट्टमंगलगा, जहा कूणिए, सेयवरचामरेहिं उद्धयमाणेहिं २ समुद्दविजयपामोक्खेहि दसारेहिं जाव सत्थवाहप्पभिईहिं सद्धिं संपरिबुडे सबिड्डीए जाव रवेणं वारवईनयरीमज्झं मझेण सेसं जहा कूणिओ जाव पज्जुवासइ । तएणं तस्स निसढस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महया जणसदं च जहा जमाली , जाव. धम्म Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अं. १ निषधकुमारवर्णनम् सोचा निसम्म वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जहा चिनो जाव सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवजित्ता पडिगए । तेणं कालेणं २ अरहओ अरिट्रनेमिस्स अंतेवासी वरदले नामं अणगारे उराले जाव विहरइ । तएणं से वरदत्ते अणगारे निसढं कुमारं पासइ, पासित्ता जायसड़े जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी अहो णं भंते ! निसढे कुमारे इट्टे इट्टरूवे कंते कंतरूवे एवं पिए. मणुन्नए० मणामे मणामरूवे सोमे सोमरूवे पियदसणे सुरूवे । निसढेणं भंते ! कुमारेणं अयमेयारूवे माणुवइडी किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता ? पुच्छा जहा सूरियाभस्स, एवं खलु वरदत्ता ! तेणं कालेणं २ इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे रोहीडए नामं नयरे होत्था, रिद्धिस्थिमियसमिद्धे०, मेहवन्ने उज्जाणे, मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे । तत्थ णं रोहीडए नयरे महब्बले नामं राया, पउमावई नामं देवी, अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि सयणिजसि सीहं सुमिणे, एवं जम्मणं भाणियव्वं जहा महब्बलस्स, नवरं वीरंगओ नामं, बत्तीसओ दाओ, बत्तीसाए रायवरकन्नगाणं पाणिं जाव उवगिजमाणे २ पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसन्तगिम्हपजते छप्पिं उऊ जहाविभवेणं भुंजमाणे २ कालं गालेमाणे इट्ट सद्दे जाव विहरइ । तेणं कालेणं २ सिद्धत्था नाम आयरिया जाइसंपन्ना जहा केसी नबरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडए नयरे जेणेव मेहन्ने उज्जाणे जेणेव मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया, अंहापडिरूवं जाव विहरति, परिसा निग्गया। तएणं Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ * . . . . . निरयावलिकासूत्रे तस्स वीरंगणस्स कुमारस्स उम्पिं पासायवरगतस्स तं महया जणसदं च जहा जमाली निग्गओ धम्म सोच्चा जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि जहा जमाली तहेव लिक्खंतो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तवंभयारी । तए णं से वीरंगए अणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारसअंगाई अहिजइ, अहिजित्ता वहई जाव चउत्थ जाव अप्पाणं भावमाणे वहुपडिपुण्णाइं पणयालीसवासाइं सामनपरियाय पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताण झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिझते समाहिपने कालमासे कालं किच्चा वंभलोए कप्पे मणोरसे विमाणे देवताए उववन्ने । तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं दसलागरोवमा ठिई पण्णता । तत्थणं वीरंगयस्स देवस्स वि दस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता, से णं वीरंगए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वारवईए नयरीए बलदेवस्त रन्नो रेवईए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उवनन्ने । तएणं सा रेवई देवी तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सुमिणहँसणं जाव उपि पासायवरगए विहरइ । तं एवं जलु वरदत्ता ! निसढणं कुमारेणं अयमेयारुवा ओराला मणुयइडी लद्धा ३ । पभू णं भंते ! निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पवइत्तए ? हंता पभू । से एवं भंते! २ इय वरदत्त अणगारे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥२॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः आदिकरो दशधनुष्कः वर्णकः यावत् समवसृतः, परिपत् निगना । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवोऽस्याः कथाया लब्धार्थः मन् हृष्टतुष्टः० कौटुम्विकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव देवानुप्रियाः ! सभायां सुधर्मायां सामुदानिकी भेरी ताडयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा यावत् प्रतिश्रुत्य यत्रैव सभायां सुधर्मीयां सामुदानिकी भेरी तत्रैवोपाच्छिन्ति, उपागत्य तां सामुदानिको भेरी महता २ शब्देन ताड यन्ति । ततः खलु तस्यां सामुदानिक्यां भेश महना २ शब्देन ताडितायां सत्यां समुद्रविजयप्रमुखा दश दशार्हाः, ___ 'तणं कालेण' इत्यादि उस काल उम समयमें दस धनुष प्रमाण शरीरवाले धर्मके आदिकर अर्हत् अरिष्टनेमि उस द्वारका नगरीमें पधारे । परिषद् उनके दर्शन निमित्त अपने २ घरसे निकली। भगवानके आनेका समाचार सुनकर कृष्ण वासुदेवने हृष्टतुष्ट हृदयसे कौटुम्लिकपुरुषोंको वुलवाया और इस प्रकारकी आज्ञा दी हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही जाकर सुधर्मा सभाकी सामुदानिक भेरीको बजाओ। जिस भेरीके बजाये जानेपर जन समुदाय एकत्रित हो जाय, उसे सासदानिक मेरी कहते हैं। वासुदेव कृष्णके द्वारा इस प्रकार आज्ञापित वे कौटुम्बिक पुरुष उनकी आज्ञाको स्वीकार कर जहाँ सामुदानिक भेरी थी उधर गये, और वहाँ जाकर सामुदानिक भेरीको खूब जोरसे वजाया। उसको अत्यधिक जोरसे बजाये जानेपर समुद्रविजय प्रमुख दस दशाहसे लेकर यावत् रुक्मिणी 'तेणं कालेणत्याह તે કાળ તે સમયે દશ ધનુષના જેટલા પ્રમાણ (માપ) ના શરીરવાળા ધર્મના આદિકર અહંતુ અરિષ્ટનેમી તે દ્વારકા નગરીમાં પધાર્યા પનિષદ્ તેમના દર્શન નિમિત્તે પિતાપિતાને ઘેરથી નીકળી ભગવાનના આવ્યાના સમાચાર સાભળી કુણુવાસુદેવે હદ તુષ્ટ હૃદયથી કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને આ પ્રકારે આજ્ઞા આપી હે દેવાનુપ્રિય | જલદી જઈને સુધર્મા સભાની સામુદાનિક ભેરી (વાજુ) વગાડે જે ભેરીને વગાડવાથી જનસમુદાય એકત્રિત થઈ જાય તેને સામુદાનિક ભેરી કહે છે કૃષ્ણવાસુદેવ તરફથી આ પ્રકારે આજ્ઞા મળતા તે કીટ બિક પુરુષ તેમની આજ્ઞાને સ્વીકાર કરી જ્યા સામુદાનિક ભેરી હતી ત્યાં ગયા અને ત્યાં જઈને સામુદાનિક ભેરી ખૂબ જોરથી વગાડી તે બહુ જોરેથી વગડવાથી સમુદ્રવિજય પ્રમુખ -દશ દશહથી માડીને Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. निरयावलिका सूत्रे देव्यः पुनर्भणितव्याः, यावद् अनङ्गसेनाप्रमुग्वानि अनेकानि गणिकासहस्राणि, अन्ये च बहवो राजेश्वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतयः स्नाताः यावत् कृतमायश्चित्ताः सर्वालंकारविभूपिता यथाविभवऋद्धिमत्कारसमुदयेन अप्येकके हयगताः यावत् पुरुपवागुरापरिक्षिप्ता यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल० कृष्णं वासुदेवं जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेव कौटुम्विकपुरुपानेवमवादीत्-क्षिप्रमेन भो देवानुप्रियाः ! आभिषेक्यं हस्तिग्नं कल्पयध्वम्, हय-गज-रथ प्रवरान यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो मज्जनगृहे यावद् दूरूढः अष्टाष्टमङ्गलकानि, यथा कूणिकः, श्वेतवरआदि देविया तथा अनङ्गसेना प्रभृति अनेक सहस्र गणिकायें और दूसरे बहुतसे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक यावत् सार्थवाह आदि स्नान ओर दुःस्वप्न आदि के निवारणके लिये मपी तिलक आदि करके सभी अलङ्कारोंसे अलङ्कृत हो अपने २ विभवके अनुसार सत्कार सामग्रियोंके साथ घोडे आदि सवारियों पर बैठकर अपने २ अनुचर पुरुषों के साथ जहा कृष्ण वासुदेव थे वहाँ आये । वहा आकर हाथ जोडकर कृष्ण वासुदेवको जय विजय शब्दसे वधाया। उसके बाद कृष्ण वासुदेवने अपने कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! आभिपेक्य (पट) हस्तिरत्नको और अन्य हाथी घोडे रथ आदिको सजाकर ले आओ। कृष्ण वासुदेवकी ऐसी आज्ञा सुनकर वे कौटुम्चिक पुरुष शीघ्र ही हाथी गेडे रथ आदिको सजाकर ले आये। उसके बाद कृष्ण वास्तुदेव मजनगृहमें स्नान करनेके लिये गये, स्नान कर सभी अलङ्काરુકિમણી આદિ દેવિઓ તથા અન સેના આદિ અનેક સહસ્ત્ર ગણિકાઓ તથા બીજા રાજા ઈ વર, તલવર, માડમ્બિક કૌટુંબિક અને સાર્થવાહ આદિ ખાન તથા દસ્વપ્નના નિવારણ માટે મસી તિલક કરીને બધા ઘરેણાથી વિભૂષિત થઈને પતિપિતાના વૈભવ પ્રમાણે સત્કાર સામગ્રીઓ લઈને ઘોડા વગેરે ઉપર સવારી કરીને પિતાના નોકર-ચાકર સાથે જ્યા કૃણવાસુદેવ હતા ત્યા આવીને હાથ જોડી કૃષ્ણવાસુદેવને જયવિજય શબ્દથી વધુ વ્યા. ત્યાર પછી કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના કોટુંબિક પુરૂને બોલાવી આ પ્રકારે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય! આભિય (પટ્ટ) હાથીરતનને તથા બીજા હાથી ઘોડા ૬થ આદિ તૈયાર કરી લઈ આવે કૃષ્ણ વાસુદેવની એવી આજ્ઞા સાંભળીને હે કૌટુંબિક પુરૂષ જલદી હાથી રથ આદિને તૈયાર કરી લઈ આવ્યાત્યાર પછી કૃષ્ણવાસુદેવ સ્નાનઘરમાં ન્હાવા ગયા સ્નાન કરી બધા ઘરેણુઓથી વિભૂષિત Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् चामरैरुद्धयमानैः २ समुद्रविजयप्रमुखैः दशभिर्दशायर्यावत् सार्थवाहप्रभृतिभिः साई संपरिटतः सर्वऋदया यावत् रवेण यावत् द्वारावतीनगरीमध्यमध्येन शेपं यथा कूणिको यावत् पर्युपास्ते । ततः खलु तस्य निपधस्य कुमारस्योपरिप्रासादवरगतस्य तं महाजनशब्दं च यथा जमालियर्यावद् धर्म श्रुत्वा निशम्य रोंसे अलङ्कृत हो अपने आभिषेक्य हाथी पर चढे । और उन्हें शुभ शकुनके लिये आठ-आठ माङ्गलिक वस्तुएँ दिखायी गई। इसके बाद वह कृष्ण वासुदेव कूणिकके समान हुलाए जाते हुए श्वतचामरोंसे सुशोभित तथा समुद्रधिजय प्रमुख दस दशाहीसे लेकर यावत् सार्थवाह प्रकृतियोंसे घिरे हुए तथा सभी प्रकारके विभवके साथ भेरी आदि बाजोंके शब्दोंसे दिशाको मुखरित करते हुए द्वारावती नगरीके बीचोबीच चलते हुए भगवान अर्हत् अरिष्टनेमिके पास पहुंचे। और कूणिकके समान तीनबार आदक्षिण प्रदक्षिण करके वन्दन नमस्कार किया और सेवा करने लगे। उसके बाद वह निषध कुमारने अपने उपरी महलमें शब्दादिविषयोंका सुखानुभव करता हुआ मनुष्योंके महान कोलाहलको सुना। उसे जिज्ञामा हुई कि क्या बात है ? पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि भगवान् अहंत अरिष्टनेमि यहाँ पधारे है। जनता उनकी वन्दनांके लिये जा रही है इसीलिये यह कोलाहल हो रहा है। यह जानकर जमालिके समान वह भी भगवान के दर्शनके लिये आये, થઈ પિતાના આભિષેકય પટ્ટ હાથી ઉપર ચડયા અને તેમને શુભ શુકનને માટે આઠ આઠ માંગલિક વસ્તુઓ દેખાડવામાં આવી ત્યાર પછી કૃષ્ણવાસુદેવ કૃણિકની પેઠે ઢળાઈ રહેતા વેત ચામરેથી સુશોભિત તથા સમુદ્રવિજય પ્રમુખ દશદશાથી માડીને થાવત્ સાર્થવાહ આદિથી ઘેરાયેલ તથા સર્વ પ્રકારના વૈભવ સાથે, ભેરી વગેરે વાજા ના શબ્દોથી દિશાઓને મુખરિત કરતા દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચે-વચથી ચાલતા ભગવાન અહંતુ અરિષ્ટનેમીની પાસે પહોંચ્યા અને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વદન નમસ્કાર કર્યા અને સેવા કરવા લાગ્યા ત્યાર પછી તે નિષધ કુમારે પણ પિતાના ઊંચા મહેલમાં શદાદિ વિષયને સુખાનુભવ કરતા થકા મનુષ્યનો મોટે કે લાહલ સાભળે તેમને જીજ્ઞાસા થઈ કે શું વાત છે ? પૂછવાથી ખબર પડી કે ભગવાન અહંતુ અરિષ્ટનેમિ અહીં પધાર્યા છે અને જનતા તેમનાં વદન-દર્શન માટે જાય છે. તેથી કોલાહલ થાય છે આ - જાણુને જમાલીની પેઠે તે પણ ભગવાનના દર્શન માટે આવ્યા અને આદક્ષિણ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ निरयावलिकास्त्रे चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत-श्रद्दधामि खलु भदन्त ! निग्रन्थं प्रवचनं यथा चित्तो० यावत् श्रावकधर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य प्रतिगतः । तस्मिन काले तम्मिन् समयेऽहतोऽरिष्टनेमेरन्तेवासी वरदत्तो नाम अनगारः उदारो यावद् विहरति । ततः स बरदत्तोऽनगारो निपधं कुमारं पश्यति, दृष्ट्वा जातश्रद्रो यावत् पर्युपासीन एवमवादी-अहो ! खलु भदन्त ! निपधः कुमार इष्ट इष्टरूपः कान्तः कान्तरूपः, एवं प्रियो० मनोज्ञो० मनोऽमो मनोऽमरूपः सोमः सोमरूपः प्रियदर्शनः सुरूपः । निपधेन भदन्त ! कुमारेण अयमेतद्रूपा मानुप्यऋद्धिः कथं लब्धा ? कथं प्राप्ता ? पृच्छा यथा मर्याभस्य । और आदक्षिण प्रदक्षिण करके वन्दन नमस्कार किया। अनन्तर धर्म सुनकर उसे हृदयसे अवधारण कर वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगा-हे भदन्न ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्वा करता हूँ। इसके बाद वह चित्त प्रधानके ममान यावत् श्रावक धर्मको स्वीकार कर अपने घर लौट आया। उम काल उस समयमें अर्हत् अरिष्टनेमिके अन्तेवासी उदार प्रधान ओजस्वी वरदत्त नामके अनगार धर्मध्यान करते हुए एकान्तमें बैठे थे। भगवान् के समीप आये हुए निपध कुमारको देखकर उन्हें अद्धा जिज्ञासा और कौतूहल उत्पन्न हुआ और उन्होंने भगवानसे इस प्रकार पूछा हे भदन्त ! वह निपध कुमार इष्ट है, इष्टरूप है, कान्त है, कान्तरूप है। इसी तरह प्रिय है मनोज्ञ है मनोऽम (मनको अच्छा लगनेवाला) है, सोम है, सोमरूप है, प्रियदर्शन है, सुरूप है। પ્રદક્ષિણા કરીને વદન નમસ્કાર કર્યા પછી ધર્મનું શ્રવણ કરે તેને હૃદયમાં અવધારણ કરીને વદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે કહ્યુ - હે ભદન્ત ! હું નિન્ય પ્રવચન ઉપર શ્રદ્ધા રાખું છું ત્યાર પછી તે ચિત્ત પ્રધાનની પઠે શ્રાવક ધર્મનો સ્વીકાર કરીને પિતાને ઘેર પાછા આવ્યું તે કાળ તે સમયે અહંત અટિનેમિના અનંતેવાસી ઉદાર પ્રધાન ઓજસ્વી વદત્ત નામે અનગાર ધર્મધ્યાન કરતા એકાન્તમાં બેઠા હતા. ભગવાનની પાસે આવેલા निषधकुमार ने इन तने ज्ञासा मन तुse Sपन थयु गने अगवानने मा प्रभारी पच्यु .--3 महन्त ! निपधकुमार ४ट छे ४५८३५ छ, आन्त छ, भना , मनोरम छ, सोम छ, सोम३५ प्रियानि छ,९३५ छे.... Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३५५ एवं खलु वरदत्त ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे रोहितकं नाम नगरमासीत्, ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् ० मेघवर्णमुद्यानं, मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनम् । तत्र खलु रोहितके नगरे महावलो नाम राजा, पद्मावती नाम देवी, अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे शयनीये सिहं स्वप्ने०, एवं जन्म भणितव्यं यथा महावलस्य, नवरं वीरंगतो नाम, द्वात्रिंशद् हे भदन्त ! इस निषेध कुमारको इस प्रकारकी मनुष्य सम्बन्धी ऋद्धि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, और कैसे यह ऋद्धि इसके भोग में आई ? इत्यादि - गौतमने सूर्याभकी देव ऋद्धि के बारेमें जिस प्रकार भगवानसे पूछा था उसी प्रकार - वरदत्तने पूछा । भगवान कहते है हे वरदत्त । उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक atch अन्दर भरत क्षेत्रमें रोहितक नामक नगर था, जो कि धन धान्यादि ऋद्धिसे समृद्ध था । उस नगर में मेघवर्ण नामक उद्यान था । उस उद्यानमें मणिदत्त नामक यक्षका एक यक्षायतन था । उस रोहितक नगरका राजा महाबल था । उसकी रानीका नाम पद्मवती था । एक समय सुकोमल शय्यापर सोयी हुई उस पद्मावती रानीने स्वप्न में सिंहको देखा । अनन्तर उसके गर्भसे एक बालक उत्पन्न हुआ। उसका जन्म आदिका वर्णन महाचलके समान जानना चाहिये । उस बालकका नाम वीरङ्गत रखा गया। जब वह कुमार હે ભદન્ત ! આ નિષધક્કુમાર્ ને આ પ્રકારની મનુષ્ય સૈ બધી ઋદ્ધિ કેવી રીતે મળી, કેમ પ્રપ્ત થઇ, અને કેવી રીતે તે ઋદ્ધિ તેમના ભાગમા આવી ગૌતમે સૂર્યાભની દેવઋદ્ધિ વિષે જેવી રીતે ભગવાનને પૂછ્યુ હતુ, તેવી રીતે વદત્તે પૂછ્યુ ભગવાને કહ્યુ:--હે વરદત્ત ! તે કાળ તે સમયે આ જમ્મૂદ્રીપ નામે દ્વીપની અદર ભરતક્ષેત્રમા રાતિક નામે નગર હતુ કે જે ધનધાન્ય ઋદ્ધિથી સમૃદ્ધ હતું. તે નગરમા મેઘવષ્ણુ નામે ઉદ્યાન હતુ. તે ઉદ્યાનમા મણિદત્ત નામે યક્ષનુ યક્ષાયતન હતુ, તે હિતકના રાજા મહાબલ હતેા તેની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતુ એક સમય સુકેામળ શય્યા ઉપર સૂનેલી તે પદ્માવતી રાણીએ સ્વપ્નમાં સિદ્ધને એયે. પછી તેના ગર્ભથી મહાવજ ના જેવે એક ખાળક ઉત્પન્ન થયેા. તેના જન્મ આતુિ વર્ચુન મહાબલ જેવું સમજવુ. તેનું નામ વીરત રાખ્યુ હતું. જ્યારે Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका मूत्रे दायाः, द्वात्रिंगतो राजकन्यकानां पाणिं यावद् उपगीयमानः २ प्राङ्घर्षारात्रशरद्धेमन्तग्रीष्मवसन्तान् पडपि ऋतून यथाविभवेन भुञ्जानः इष्टान शब्दान् पावद् विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये मिद्धार्था नाम आचार्या जादिसम्पन्ना यथा केशी, नवरं बहुश्रुता बहुपरिवारा यत्रत्र रोहितकं नगरं यत्रैत्र मेघवर्णमुद्यानं यत्रैप मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागतः, यथाप्रतिरूपं यावद् विहरति, परिपद् निर्गना । ततः खलु तम्य वीरंगतस्य कुमारम्य उपरिप्रामादवरगतम्य तं महाजनगलं च, यथा जमालिनिर्गतो धर्म श्रुत्वा यद् नवरं देवानुप्रियाः ? अम्बापितरौ आपृच्छामि बडा हुआ तो उसका विवाह वतील राजकन्याओंके साथ किया गया । और उसे बत्तीस-बत्तीस प्रकारका दहेज मिला। उसके महलके उपरी भागमें सर्वदा मृदङ्ग आदि बाजे बजते रहते थे। तथा गायक उसके गुणोंको गाते रहते थे। वह वीरङ्गत वर्षा आदि छ ऋतु सम्बन्धी इष्टशब्दादि विषयोंको अपने विभवानुसार भोगता हुआ विचरता था। उस काल उस समयमें केशो श्रमणके समान जातिमन्त तथा बहुश्रुत और बहुत शिष्यपरिवारसे युक्त सिद्धार्थ नामक आचार्य रोहितक नगर के मेघवर्ण उद्यानके अन्दर मणिभद्र यक्षायतनमें पधारे। और उद्यानपालसे आज्ञा लेकर वहा विचरने लगे। परिपद् उन आचार्यवर के दर्शनके लिये अपने-अपने घरसे निकली, उसके बाद वह वीरगत कुमारने सिद्धार्थ आचार्य के दर्शन करनेके लिये जाते हुए मनुष्योंके महान कोलाहलको सुना। अनन्तर उसने તે કુમાર માટે થયે ત્યારે તેના લગ્ન બત્રીસ રાજકન્યાઓના સાથે કામા આવ્યા અને તેને બત્રીસબત્રીમ દહેજ મળ્યા તેના મહેલના ઉપલા માળમાં હમેશાં મૃદ ન આદિ વાજા વાગતા રહેતા હતા તથા ગાયક તેના ગુણાના ગાન કર્યા કરતા હતા. તે રાત વર્ના આદિ છ ઋતુ સંબંધી ઈષ્ટ શબ્દાદિ વિષયને પિતાના વૈભવ પ્રમાણે ભેગવ વિચરતે હો તે કાળ તે સમયે કેશી શ્રમણના જેવા જાતવાન તથા બહત અને બહુ શિષ્ય પરવારવાળા સિદ્ધાર્થ નામ આચાર્ય રાહિતક નગરના મેઘવર્ણ ઉદ્યાનની અંદર મણિક ચંઢાયતના પધાર્યા અને ઉછાનપાલની આજ્ઞા લઈને ત્યાં વિચારવા લાગ્યા પરિષદ તે આચાર્યવરના દર્શન માટે પિતપતાના ઘેથી નીકળી ત્યાર પછી તે ચીત કુમારે પણ સિદ્ધાર્થ આચાર્યના દર્શન કરવા માટે જાતા મનુષ્યના મહાન કલાહલ સાભળે. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३५७ यथा मस्तिथैव निष्क्रान्तो यावद् अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी | ततः ग्खलु स वीरंगतोऽनगारः सिद्धार्थ नामाचार्याणामन्ति के सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहूनि यावत् चतुर्थ० यावत् आत्मानं भावयन् बहुमतिपूर्णानि पञ्चचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा हेमासिक्या संलेखनया आत्मान जोषित्वा सर्विंशतिं भक्तशतमनशनेन छित्त्वा आलोचित - कोलाहलके कारणका अन्वेषण किया उसे ज्ञात हुआ कि सिद्धार्थ आचार्य यहाँ पधारे हुए हैं, जनता उनके दर्शन के लिये जा रही है, उसका यह कोलाहल है । यह जानकर वीरङ्गत कुमार जमालिके समान उन आचार्यके दर्शन करनेके लिये गया । धर्म सुनकर उसने उन सिद्धार्थ आचार्यको वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! मैं माता पितासे पूछकर आपके समीप प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ । उसके बाद वह वीरङ्गत कुमार जमालिके समान प्रब्रजित होकर अनगार हो गया, और ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी हो गया। उसके बाद वह वीरङ्गत अनगारने उन सिद्धार्थ आचार्यके समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययन किया अनन्तर बहुत से चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्माको भावित करते हुए पूरे पैंतालीस वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन किया। बाद दो मासकी संलेखना से आत्माको सेवित करते हुए एक मौ बीस भक्तोंकों अनशनसे छेदित कर अपने पाप स्थाસમજવા તપાસ કરાવી તે તેને જણાયુ જનતા તેના દર્શન માટે જઇ રહી છે તેને આ કુમાર જમાલીની પેઠે આચાર્યાંનાં દર્શન કરવા ગયા આચાય તે વદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે કહ્યુઃ— હે દેવાનુપ્રિય ! હું મારા માતપિતાને પૂછીને આપની પાસે પ્રવ્રજ્યા લેવા ચાહુ છુ. ત્યાર પછી તે વીરગત કુમાર જમાલીની પેઠે પ્રજિત થઈ અનગાર થઈ ગયા અને ઇર્યાસમિતિ આદિથી યુકત થઇ યાવત્ ગુપ્તભ્રંહ્મચારી ખની ગયા, ત્યાર પછી તે અનગારે તે સિદ્ધા આચાની પાસે સામાયિક આદિ અગિયાર અગેનુ અધ્યયન કર્યું પછી ઘણા ચતુર્થી, ષષ્ઠ, અષ્ટમ આદિ તપેથી આત્માને ભાવિત કરતા પૂગ પિસ્તાલીસ વર્ષ સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. પછી એ માસની સ લેખનાથી આત્માને સેવિત કરતા એકસેા વીસ ભકતાનુ અનશનથી છેદન કરી પેાતાના પાપસ્થાનાની પછી તેણે તે કાલાહલનુ કારણ સિદ્ધાંથ આચાર્ય અહીં પધાર્યા છે કેાલાહુલ છે આ જાણીને વીરંગત ધર્માંનુ થંવણુ કરીને તેણે તે સિદ્ધા Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ...' .. . : ... , निरयावलिकामुत्रे प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा ब्रह्मलोके कल्पे मनोरमे विमाने देवतया उपपन्नः । तत्र खलु अम्त्येकपां देवानां दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र खलु वीरंगतस्य देवम्यापि दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु वीरंगतो देवम्तस्माद् देवलोकात् आयुःक्षयेण यावद् अनन्तरं चयं च्युत्वा उदैव द्वारावत्यां नगा बलदेवस्य राज्ञो रेवत्या देव्याः कुक्षी पुत्रतयोपपन्नः । ततः खलु सा रेवती देवी तस्मिन् तादृशे शयनीये स्वप्नदर्शनं यावद् उपरि प्रासावरगतो विहरति । तदेवं खलु वरदत्त ! निपधेन कुमारेण इयमेतद्रूपा उदाग मनुप्य-ऋद्धिलब्धा ३ । प्रभुः खलु भदन्त ! निपधः कुमारो देवानुपियाणामन्तिके यावत् पत्रजितुम् ? हन्त प्रभुः। स एवं भदन्त ! २ इति वरदत्तोऽनगारो यावदात्मानं भावयन् विहरति ॥ २ ॥ टीका-तणं कालेणं' इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा ॥ २ ॥ नोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधि प्राप्त हो काल अवसरमें काल कर ब्रह्म नामक पांचवें देवलोकके मनोरम विमानमें देवता होकर उत्पन्न हुए। वहाँ कई एक देवोंकी स्थिति दस सागरोपम है, वहा इस वीरगत देवकी भी स्थिति दश सागरोपम थी। वह वीरङ्गत देव देवसम्बन्धी आयु भव और स्थितिके क्षय होनेपर उस वह्मलोकसे च्यवकर इस दौरावती नगरी में राजा बलदेवकी पत्नी रेवतीके उदर में पुत्र होकर जन्मे | उस रेवती देवीने स्वप्नमें सिंह देखा । और उसके बाद यह निषध कुमार उत्पन्न हुए यावत् शब्दादि विपयोंका अनुभव करते हुए अपने ऊपरी महलमें विचर रहे हैं। हे वरदत्त ! इस प्रकार इस निषध कुमारने इस प्रकारकी उदार मनुष्यऋद्धि पायी है। આલોચના તથા પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિ પ્રાપ્ત થતા કાળ અવસરમાં કાળ કરીને બ્રહ્મનામક પાચમા દેવલેકના મનરમ વિમાનમાં દેવતા થઈને ઉત્પન્ન થયા ત્યાં કેટલાક દેવેની સ્થિતિ દશ સાગામની છે ત્યાં વીતવાની પણ સ્થિતિ દશ સાગરોપમની હતી તે રાત ટેવ દેવ સ બધી આયુષ્ય ભવ અને સ્થિતિ ક્ષય થવાથી તે બ્રહ્મલોકમાથી બચવીને આ કરાવતી નગરીમ રાજ બલદેવની પત્ની રેવતીના ઉદરમાં પુત્ર થઈને જમ્યા તે રેવતી દેવીએ સ્વપ્નમાં સિંહને દઠ અને ત્યાર પછી આ નિપધમાર ઉત્પન્ન થયા. અને ચાવત શબ્દાદિ વિયેને અનુભવ કરતા તે પિતાના મહેલના ઉપલે માળે રહેવા લાગ્યા હું વરદત્ત ! આ પ્રકારે આ નિવઘાર ને આવા પ્રકારની ઉદાર नुष्य भणेही . . Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३५९ मूलम्-तपणं अरहा अरिटृनेमी अण्णया कयाइं वारवईओ नयरीओ जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ | निसढे कुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । तपणं से निसढे कुमारे अण्णया कयाइं जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव दब्भसंथारोवगए विहरइ । तरणं निसदस्स कुमारस्य पुवरत्तावरत० धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूचे अज्झथिए० धन्ना णं ते गामागर जाव संनिवेसा जत्थणं अरहा अरिनेमी विहरइ । धन्ना णं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभईओ जे णं अरिट्टनेमिं वंदति नमसंति जाव पज्जुवासंति, जइ णं अरहा अरिनेमी पुत्राणुपुविं० नंदणवणे विहरेजा तोणं अहं अरहं अरिटृनेमिं वंदिना जाव पज्जुवा - वरदत्त पूछते है हे भदन्त ! क्या यह निषधकुमार आपके समीप प्रव्रजित होगा ? भगवान कहते हैं— हाँ; वरदत्त ! यह निषधकुमार अनगार बन सकेगा । वरदत्त कहते हैं हे भदन्त ! आप जो कहते हैं वह सत्य ही है; ऐसा कह कर वरदत्त अनगार आत्माको तप संयमसे भावित करते हुए विचरने लगे ॥ २ ॥ વરદત્ત પૂછે છે— હે ભદન્ત 1 આ નિધારી આપની પાસે પ્રજિત થવામાં સમર્થ છે ? ભગવાન કહે છે त! हा, आ निषयकुमार अनगार मनवामां समर्थ छे વરદત્ત કહે છે હુંભદન્ત ! આપ કહેા છે તેમજ છે એમ કહીને વરદત્ત અનગાર આત્માને तथ-सयम व लावित १२तां वियरचा साग्या. - ( २ ) 21 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . - निरयावलिकाम सिजा । तएणं अरहा अरिट्रनेमी निसढस्स कुमारस्स अयमेचारूवं अझत्थियं जाव वियाणित्ता अट्ठारसहिं समणसहस्सेहि जाव नंदणवणे उजाणे समोसढे । परिसा निग्गया। तएणं निसढे कुमारे इमीसे कहाए लहट्टे समाणे हटु, चाउग्घंटेणं आसरहेणं निग्गए, जहा जमाली, जाव अम्मापियरो आपुच्छिता पवइए, अणगारे जाते जाए गुत्तवंभयारी । तएणं से निसढे अणगारे अरहतो अस्टुिलेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याइं एकारस अंगाई अहिज्जइ अहिजित्ता वहई चउत्थछट जाब विचिन्नेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई नव वासाइं सामणपरियागं पाउणइ, वायालीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, आलोइयपडिळते सामाहिपत्ते अणुपुबीए कालगए । तएणं से बरदत्ते अणगारे निसढं अणगारं कालगतं जाणिता जेणेव अरहा अरिट्रनेमी तेणेब उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एवं वयासी एवं खलु देवाणुपियाणं संतेवासी निसढे नामं अणगारे पगइभदए जाव विणीए, से णं भंते ! निसढ अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उबवन्ने ? वरदत्ताइ ! अरहा अरिट्रनेमी वरदत्तं अणगार एवं वयासी-एवं खलु वरदत्ता । ममं अंतेवासी निसढे नाम अणगारे पगइभद्दे जाव विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याइं एकारस अंगाई अहिजिन्ता वहुपडिपुण्णोई नववासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता वायालीस भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिकते सामाहिपत्ते Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३६१ कालमासे कालं किच्चा उडूं चंदिमसूरियगहनक्खत्ततारारूवाणं सोहम्मीसाणं जाव अच्चुते तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेविजविमाणावाससए वीहवयित्ता सबटुसिद्धविमाणे देवत्ताए उबवण्णे। तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमा ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं निसढस्स वि देवस्स तेत्तीस सागरोवमाइ ठिइ पन्नत्ता । से णं भंते ! निसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? वरदत्ता ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उन्नाए नयरे विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पञ्चायाहिइ. तएणं से उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणयमित्ते जोवणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलबोहिं बुझिहिइ, बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चन्जिहिइ । से णं तत्थ अणगारे भवि-- स्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। से णं तत्थ बहुइं चउत्थछटुमदसमदुवालसेहिं मासद्धनासखसणेहिं विचित्तेहि तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिस्सइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसिहिंइ, झूसित्ता सहि भत्ताइं अणसणाए छेदिहिइ । जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए जाव अदंतवणए अच्छत्तए अणोवाहणए फलहसेज्जा कटुसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे पिंडवाओ लद्धावलद्धे उच्चावया य गामकंटया अहियासिज्जइ, तमटुं आराहिइ, आराहित्ता, चरिमेहि उस्सासनिस्सासेहिं सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव सबदुक्खाणं अंतं काहिइ। एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तणं जाव निक्खेवओ॥३॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥१॥ ५०१ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ निरयावलिकासूत्रे छाया-ततः खलु अहन अरिष्टनेमिरन्यदा कदाचित् द्वारावत्या नगयां यावत् वहिर्जनपदविहारं विहरति । निपधः कुमारः श्रमणोपासको जातः अभिगतजीवाजीवो यावद् विहरति । ततः खलु स निपधः कुमारः अन्यदा कदाचित् यत्रैव पोपधगाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् दर्भसंस्तारोपगतो विरहति । ततः खलु तस्य निपधस्य कुमारस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले धर्मजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूपः आध्यात्मिक:०-धन्याः खलु ते ग्रामागर यावत् सनिवेशाः, यत्र खलु अर्हन् अरिष्टनेमिहिरति, धन्याः खलु ते राजेश्वर यावत् सार्थवाहप्रभृतिकाः, ये खलु अरिष्टनेमि वन्दन्ते नमस्यन्ति यावत्० पर्युपासते, 'तएणं अाहा' इत्यादि उसके बाद अर्हत् अरिष्टनेति एक समय द्वारावती नगरीसे निकलकर जनपद-देगमें विहार करने लगे। 'निषधकुमार' श्रमणोपासक हो गये और वह जीव अजीव आदि तत्वोंको जानकर विचरने लगे। उसके बाद वह निपधकुमार एक समय जहा पौषधशाला थी वहाँ गये और वहाँ दासका आसनपर बैठकर धर्मध्यान करते हुए विचरने लगे। उसके बाद रात्रिके अन्तिम प्रहर में धर्म जागरणा करते हुए उस 'निषधकुमार' के हृदय में इस प्रकारका विचार उत्पन्न हुआ कि वह ग्राम यावत् सन्निवेश धन्य है जहा अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान् विचरते हैं ! वे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक यावत् सार्थवाह प्रभृति धन्य हैं जो भगवानको चन्दन नमस्कार करते हैं और सेवा करते हैं। 'तपणं अग्हा' त्यादि ત્યાર પછી અહંત અરિષ્ટનેમિ એક સમય હારાવની નગરીથી નીકળીને દેશમાં વિચારવા લાગ્યા નgધમાર મપાસક થઈ ગયા અને તે જીવ અજીવ આદિ તત્ત્વને જાણીને વિશ્વા લાગ્યા ત્યાર પછી તે નિધિમાર એક વખત જ્યા પિવધશાળા હતી ત્યાં ગયા અને ત્યાં દાભને સંનાક (આસન) બિછાવી તેના પર બેસી ધર્મધ્યાન કષ્ના વિશ્વા લાગ્યા ત્યાર પછી પાછલી રાત્રિએ ધર્મ-જાગરણ કતાં તે નિમાર ના મનમાં એ વિચાર પેદા થયે કે તે ગ્રામ સન્નિવેશ આદિ ધન્ય છે કે જ્યાં અહંત અધિટનેમિ ભગવાન વિચરે છે. તે રાજા ઈશ્વર, તલવર, માડમ્બિક, કૌટુંબિક યાવતુ સાર્થવાહ આદિ ધન્ય છે જે ભગવાનને વદન નસ્કાર કરે છે Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३६३ यदि खलु अर्हन अरिष्टनेमिः पूर्वानुपूर्वी० नन्दनवने विहरेत तर्हि खलु अहमईन्तमरिष्टनेमि वन्देय नमस्येयं यावत् पर्युपासीय । ततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः निषधस्य कुमारस्य इममेतद्रूपमाध्यात्मिकं यावद् विज्ञाय अष्टादशभिः श्रमणसहस्रः यावद् नन्दनवने उद्याने समवसृतः, परिषद् निर्गता । ततः खल निषधः कुमारः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्ट० चातुर्घण्टेन अश्वरथेन यावद निर्गतः, यथा जमालि, यावद् अम्बापितरौ आच्छय मत्रजितः, अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स निषधोऽनगारः अहतोरिष्टनेमेस्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, यदि अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान पूर्वानुर्वी विचरते हुए नन्दन वनमें पधारें तो मैं भी भगवानको वन्दन नमस्कार करूँ और उनकी सेवा करूँ। उसके बाद भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि उस 'निपधकुमार' के इस प्रकारका आध्यात्मिक अन्तः-करणका विचार जानकर, अठारह हजार श्रमणोंके साथ उस नन्दनवन उद्यानमें पधारे । भगवानके दर्शनके लिए परिषद अपने २ घरले निकली। उसके बाद 'निषधकुमार' भी इस वृत्तान्तको जानकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे चार घंटावाला अश्वरथपर चढकर भगवानका दर्शनके लिये निकले, और जमालिके समान यावत् माता पिताकी आज्ञासे प्रव्रजित होकर अनगार हो गये। तथा ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गये। उसके बाद वह निषध अनगार अर्हत् अरिष्टनेमि भगवानके तथारूप स्थाविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया तथा - જો અહંત આરષ્ટનેમિ ભગવાન પૂર્વાપૂવી વિચરતા નન્દનવનમાં પધારે તે હુ પણ ભગવાનને વદન નમસ્કાર કરૂ અને તેમની સેવા કરૂ, ત્યાર પછી भगवान मत अरिष्टनेमि ते निषधकुमार ना मा प्रा२ना माध्यात्मिमत.. કરણના વિચાર આદિ જાણીને અઢાર હજાર શ્રમણની સાથે તે નન્દનવન ઉદ્યાનમાં પધાર્યા. ભગવાનના દર્શન કરવા માટે પરિષદ્ પિતાપિતાને ઘેરથી નીકળી ત્યાર પછી निषधकुमार ५४ मा वृत्तांतने arela - तुटयथा न्या२ टापा 24*4રથ ઉપર ચડીને ભગવાનના દર્શન કરવા નીકળ્યા અને જમાલીની પેઠે માતાપિતાની આજ્ઞાથી પ્રવ્રજિત થઈને અનગાર થઈ ગયા તથા ઈસમિતિ આદિથી યુકત થઈ शुभप्रह्मचारी पनी गया. त्या२ पछी ते निषध मना२ मत अरिष्टनेमि 91વાનના તથારૂપ સ્થવિરેની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અગેનું અધ્યયન કર્યું Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३६४ ' निरयावसिकाने अधीत्य वहुनि चतुर्थ षष्ट यावद् विचित्रैः तपाकर्मभिरात्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, चत्वारिंशद् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या कालगतः। ततः खलु स वरदत्तोऽनगारो निपधमनगारं कालगतं ज्ञात्वा यत्रंब अर्हन अरिष्टनेमिस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् एवमवादीत-एवं खलु देवानुप्रियाणामन्तेवासी निपधो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रको यावद् विनीतः । स खलु भदन्त ! निपधोऽनगारः कालमासे कालं कृत्वा कर गतः ? क्व उपपन्नः ? वरदत्त ! इति अन् अरिष्टनेमिः वरदत्तमनगारमेववादीत्-एवं खलु वरदत्त ! ममान्तेवासी निपयो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रो यावद् विनीतो मम तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशागानि अधीत्य बहुपतिपूर्णानि नत्र बहुतसे चतुर्थ पष्ठ अष्टम आदि विचित्र तपसे आत्माको भावित करते हुए पूरे नौ वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन किया। बयालीस भक्तोंको अनानसे छेदनकर पापस्थानोकी आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधि प्राप्त हो, कमसे काल प्राप्त हुए। उसके बाद निषध अनगारको कालगत जानकर वरदत्त अनगार जहा अहेत् अरिष्टनेमि थे वहा आये और वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार पूछे-हे भदन्त ! आपके अन्तेवासी निषध अनगार प्रकृतिभद्रक और यावत् विनीत थे, सो हे भदन्त ! वह निपध अनगार काल अवसरमें कालकर कहाँ गये और कहाँ उत्पन्न हुए ? वरदत्त अनगारका इस प्रकार वचन सुनकर भगवानने उनसे कहा हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक यावत् विनीत निपध તથા ઘણા ચતુર્ય, પુષ્ઠ, અષ્ટમ આદિ વિચિત્ર તપ વડે આત્માને શાવિત કરતા પૂરા નવ વર્ષ સુધી દક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. બેતાલીસ ભકતોનું અનશનથી છેદન કરી પાપાનની આલેચન તથા પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિ પ્રાપ્ત થતા આનુપૂર્વીથી કાલ गत थया त्या- पछी निपट मनगारने ससगत येसा GAND वरदत्त शनणार જય અત્ અરિષ્ટનેમિ હતા ત્યા આવ્યા અને વદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકાર છયુ –હે ભદન્ત ! આપના અનેતેવાસી નિપજ અનગાર પ્રકૃત્તિભદ્રક અને બહુ વિનીત હતા માટે હે ભદન્ત ! તે નgધ અનગાર કાળ અવસમાં કાળ કરીને ક્યાં ગયા અને કયાં જશે? ૬૨૪ અનગારના આ પ્રકારના વચન સાંભળીને ભગવાને તેને કહ્યું – હે વરદત્ત ! મારા પ્રતિભઠક અતેવાસી અને વિનીત એવા નિધપ અનગાર Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ६ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३६५ वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा द्विचत्वारिंशद् भक्तानि अनशनेन छित्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्त कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्वं चन्द्र-सूर्यग्रह-नक्षत्र-तारारूपाणां सौधर्मेशान यावद अच्युतं त्रीणि च अष्टादशोत्तराणि ग्रैवेयकविमानावासशतानि व्यतिवयं सर्वार्थसिद्धविमाने देवत्वेनोपपन्नः । तत्र खलु देवानां त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र खलु निषधस्यापि देवस्य त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता | स खलु भदन्त ! निषधो देवस्तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षये भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं च्युत्वा क्व गमिष्यति ? क्व उपपत्स्यते ? वरदत्त ! इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे अनगार मेरे तथारूप स्थविरोंके समीप सामयिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययनकर पूरे नौ वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालनकर बयालीस भक्तोका अनशनले छेदनकर पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमणकर समाधि प्राप्त हो काल अवसरमें कालकर चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा आदिसे ऊपर सौधर्म ईशान आदि यावत् अच्युत देवलोकको उक्लङ्घन कर तीनसौ अठारह अवेयक विमानावासको भी उल्लङ्घन करता हुआ सर्वार्थसिद्ध विमानमें देवता होकर उत्पन्न हुआ। वहाँ देवताओंकी स्थिति तेतीस सागरोपम है। उसी प्रकार निषध देवकी भी तैतीस सागरोपम स्थिति है। वरदत्त पूछते है-हे भदन्त ! वह निषध देव उस देवलोकसे देव सम्बन्धी आयु भव और स्थिति क्षयके बाद च्यवकर कहाँ जायेंगे और कहाँ उत्पन्न होंगे ? મારા તથા સ્વવિરેની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અગેનું અધ્યયન કરી પૂરા નવ વરસ સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરીને અનશન વડે બેતાલીસ ભકતોનું છેદન કરી પિતાનાં પાપસ્થાનની આલોચના તથા પ્રતિક્રમણ કરીને સમાધિ પ્રાપ્ત થતાં કાળ અવસરમા કાળ કરીને ચન્દ્ર, સૂર્ય, ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારા, આદિની ઉપર સોધમ ઈંશાન આદિ ચાવત અષ્ણુત દેવલોકનું ઉલ્લંઘન કરી ત્રણસો અઢાર રૈવેયક વિમાનવાસનુ પણ ઉલ્લંઘન કરતા સર્વાર્થસિદ્ધ વિમાનમાં દેવતાપણામાં ઉત્પન્ન થયા ત્યા દેવતાઓની સ્થિતિ તેત્રીસ સાગરેપમ છે એવી જ રીતે નિuધ દેવની પણ તેત્રીસ સાગરેપમ સ્થિતિ છે વરદત્ત પૂછે છે –હે ભદન્ત ! તે નિષધદેવ તે લેકમાથી દેવ સબધી આયુભવ અને સ્થિતિ ક્ષય પછી આવીને કયા જશે અને કયા ઉત્પન થશે.? Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ....... . " ५ निरयावलिकामूत्रे वर्षे उनाते नगरे विशुद्धपितृवंशे राजकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । ततः खलु स उन्मुक्तवालमावः विज्ञातपरिणतमात्रः यौवनक्रमनुप्राप्तः तथारूपाणां स्थविराणामन्ति के केवलबोधि बुवा अगाराद् अनगारतां प्रव्रजिष्यति । स खल तत्राऽनगारो भविष्यति, ईर्यासमितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । स खलु तत्र बहूनि चतुर्थपष्टाष्टमदशमद्वादशै मासा मामक्षपणैः विचित्रैः तपाकर्मभिरात्मानं भावयन् वहनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयिष्यति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोपयिष्यति, जोषयित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति । यस्यार्थं क्रियते नग्नभावो, मुण्ड भावः, अस्नानको, यावद् अदन्तवर्णकः, भगवान कहते हैं हे वरदत्त ! यह निषध देव इसी जम्बूद्वीप नामक हीपके अन्दर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगरमें विशुद्ध पितृवंशवाले राजकुलमें पुत्ररूपसे उत्पन्न होगा। उसके बाद बाल्यकाल बीतनेपर, सुप्त दसो अंगोके जागनेपर वह युवाऽवस्था को प्राप्त होगा, और तथारूप स्थविरोंके समीप शुद्ध सम्यक्त्वको प्राप्तकर अगारसे अनगार होगा। वह अनगार वहा ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी होगा। वह वहां बद्दुतसे चतुर्थं पष्ठ अष्टम दशम द्वादश मासाई मास क्षपणरूप विचित्रतपसे आत्माको भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन करेगा। यादमें मासिकी संलेखनासे आत्माको सेवित कर साठ भक्तोको अनशनसे छेदित करेगा। जिम मोक्ष प्राप्तिके लिये अनगार, नग्नत्व-परिमितवस्त्रधारित्व मुण्डभावद्रव्य भावसे लगवानं हे छ. હે વરદત્ત ! આ નિપથ આજ જમ્બુદ્વીપ નામે દ્વીપની અંદર મહાવિદેહ ક્ષેત્રના ઉન્નત નગરમાં વિશુદ્ધ પિતૃવંશવાળા રાજકુળમાં પુત્રરૂપે જન્મશે, ત્યાર પછી બાલ્યકાળ વીતી ગયા પછી સુતેલા દશેય અગોની જાગૃતિ થતા તે યુવાવસ્થાને પ્રાપ્ત થશે અને તથા૫ વિરે પાસે શુદ્ધ સમ્યકત્વને પ્રાપ્ત કરી પગારમાંથી અનગાર થશે તે અનગાર ત્યા ઈસમિતિ આદિથી યુકત થઈ ચાવત્ ગુપ્તબ્રહ્મચારી થશે તે ત્યાં ઘણુ ચતુર્વ, વિષ્ઠ, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશ, માસાઈ, માસ, ક્ષપણરૂપ વિચિત્ર તપથી–આત્માને ભાવિત કરતા ઘણાં વર્ષ સુધી દીક્ષાપર્યાયનું પાલન કરશે, પછી માસિકી સંલેખનાથી આત્માને સેવિત કરી અનશનથી સાઠ ભકતનું છેદન કરશે ने भाक्षप्राति भाटे मना२ नग्नत्व परिमित आधारि१; मुंडभाव-द्रव्य माथी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. १ निषधकुमारवर्णनम् ३६७ अच्छत्रकः, अनुपानत्का, फलकशय्या, काष्टशय्या, केशलोचो, ब्रह्मचर्यवासः, परगृहप्रवेशः, पिण्डपातः, लब्धापलब्धः, उच्चावचाश्च ग्रामकण्टका अध्यास्यन्ते, तमर्थमाराधयिष्यति, आराध्य चरमैरुच्छ्वास-निःश्वासैः सेत्स्यति, भोत्स्यते, यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन यावत् निक्षेपकः ॥ ३ ॥ ॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ टीका-'तएणं अरहा' इत्यादि । यस्यार्थ-यन्मोक्षप्राप्त्यर्थं क्रियते नग्नभावः अचेलत्वं परिमितवस्त्रधारित्वमित्यर्थः, मुण्डभावः दीक्षितत्वम् । अस्नातका देशसर्वस्नानवर्जितः स्वात्मेति शेषः, अदन्तवर्णकः दन्तवर्णो-दन्तानामुज्ज्वलीकरणं स एव दन्तवर्णकः, अ लिदन्तशाणकाष्ठादिभिर्दन्तघर्पणं, न दन्तवर्णकोऽदन्तवर्णकः दन्तोज्ज्वलीकरणव्यापारराहित्यम् । अच्छत्रका छत्ररहितः । अनुपानका पादत्राणरहितः, उपलक्षणमेतत्-शकटशिविकातुरगादि वाहनानामपि फलकशय्यां-फलकं प्रतिलमायतकाष्ठं तद्रूपा शय्या (पाटा) इति भाषायाम् । मुण्डत्व, अस्नातक देशतः और सर्वतः स्नान वर्जन, अदन्तवर्णक अलि दातन आदिसे दांतोंको स्वच्छ न करना और मिसी आदिसे दांतको न रंगना, अच्छत्ररजोहरण आदिका भी छत्र धारण नही करना, अनुपानत्क-पगरखी तथा मौजे आदिको नहीं पहिनना, एवं गाडो शिबिका और घोडा आदिकी सवारी नहीं करना, फलकशय्याकाण्ठ आदिके पाटपर सोना, काष्ठशय्या काष्ठपर सोना, केशलोच-अपने या दूसरे साधुओंके हाथसे केशोंका लुंचन करना-कराना । ब्रह्मचर्यवासविषय सुख परित्याग रूप ब्रह्मचर्यमें स्थिर होना, परगृहप्रवेशभिक्षाके लिए गृहस्थोंके घरमें जाना, पिण्डपात-भिक्षाग्रहण, लब्धापलब्ध-लाभ भुत्प, अस्नातकशित मने सवत स्नान वन (न न), अदन्तवर्णक मागणी दन्तशाण-te (133) माहिया हाताने २१२७ न ४२वा तया भी माया हातन न २१। अच्छत्रता मानुि पy छत्र धारण न ४२, अनुपानत्कપગરખા અને મોજા આદિ પગમાં ન પહેરવા, વળી ગાડી પાલખી અને ઘોડા આદિની सवारी न ४२वी, फलकशय्या=1४1नी(3108नी नावटी)पाट ५२ सूर्यु काप्ठशय्यासा1 ५२ सूबु केशलोच-पोताना मी साधुम्माना डायथी शानु सुन्यन ४२७४२॥१वु, ब्रह्मचर्यवास-विषयसुम परित्याग३पी प्राय भां स्थि२ २९, परगृहमवेश मिक्षा भाटे स्थाना घरमा ४, पिण्डपात-मिक्षाAY, लब्धापलब्ध-बाल मन Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ... ... निरयावलिकाम्रो ___ काप्ठगव्या काप्ठं स्थूलमायतमेव तद्रूपा शय्या, केशलोचः स्वपरहस्तेन केशोपाटनम् । ब्रह्मचर्यवासः-ब्रह्मचर्य विषयसुखत्यागे वसनं ब्रह्मचर्यवासः । परगृहप्रवेश भिक्षाद्यर्थमन्यगृहप्रवेशः । पिण्ड पातः भिक्षाग्रहणम् । लब्धापलब्धःलाभालामः । उच्चावचाः-उच्चाश्च अवचाश्च उच्चावचा: अनुकूलप्रतिकूलाः ग्रामकण्टकाः-ग्रामः इन्द्रियसमूहस्तस्य कण्टका इव कण्टकाः इन्द्रियवर्गानुकूलपतिकूलशब्दादिपु मुखदुःखोत्पादकत्वेन मुक्तिमार्ग प्रति विघ्नहेतुत्वादेपां कण्टकत्वं व्यक्तम् । उच्चावचा ग्रामकण्टका अध्यास्यन्ते तम् अर्थ-मोक्षप्राप्तिरूपम् आराधयिष्यति । सेत्स्यति सकलकार्यकारितया सिद्धो भविष्यति । भोत्स्यते-विमलकेवलालोकेन सकललोकालोकं ज्ञास्यति । यावच्छन्देन-'मुचिहिइ परिणिव्वाहिइ' इत्यनयोः सङ्ग्रहः, तथाहि-मोक्ष्यते-सर्वकर्मभ्यो मुक्तो भविष्यति । परिनिर्वास्यति समस्तकर्मकृतविकाररहितत्वेन स्वस्थो भविष्यति । सर्वदुःखानासमस्तक्लेशानाम् अन्त-नागं करिष्यति अन्यावाध मुखभाग् भविष्यतीत्यर्थः । हे जम्बुः ! एवम् उक्तप्रकारेण श्रमणेन भगवता महावीरेण यावसिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन यावद् निक्षेपका समाप्तिसूचको वाक्यप्रबन्धः ॥३॥ इति प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ और अलाभ, और उच्चवचग्रामकण्टक-इन्द्रियों के अनुकूल प्रतिकूल शब्द आदिको सहन करना, आदि मर्यादा, चलते हैं; उस मोक्षरूप अर्थकी आराधना करेगा। और सकल कार्योंको सिद्ध करके अन्तिम उच्चास निःश्वासोंसे सिद्ध होगा। निर्मल केवलज्ञानसे रुकल लोकालोकको जानेगा और साकोसे मुक्त होगा, और सकल-कर्मविकाररहित होकर शीतलीभूत होगा और सम्पूर्ण दुःखोंका अन्त करके अव्याबाध सुखको प्राप्त करेगा। श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशाके प्रथम अध्ययनका भाव इस प्रकार कहा है ।। ३ ॥ दृष्णिदशाका प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ. रसास, अन उच्चावचग्रामकण्टक-न्दियोन मनु शो माह सहन ४२वा माह મર્યાદામા ચલે છે, તે મોક્ષરૂપ અર્થની આરાધના કરશે. અને સકલ કાર્ય સિદ્ધ કરી છેદલા ઉછવાસ નિઃશ્વાસે પછી સિદ્ધ થશે નિર્મળ કેવળજ્ઞાનથી તમામ લેક અલૈકને જાહેશે અને સર્વ કર્મથી મુક્ત થશે અને સકળ કર્મ વિકાર રહિત થઈને શીતલીભૂત (શાન) થશે અને સંપૂર્ણ દુઃખને અત લાબીને અવ્યાબાધ સુખને પ્રાપ્ત કરશે. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अ. २-१२ मायनि आदिवर्णनम् ३६५ १.. एवं सेसा वि एकारस अज्झयणा नेयवा संगहणीअणुसारेण, अहीणमइरित्त एकारससु वि। तिबेमि ॥३॥ ॥ बारस अन्झयणा समत्ता ॥ १२ ॥ . . ॥ वह्निदसा नामं पंचमो वग्गो समत्तो ॥५॥ __- ॥निरयावलिया सुयकखंधो समत्तो ॥ ___॥ समत्ताणि उवंगाणि ॥ . छाया-एवं शेषाण्यपि एकादशाध्ययनानि ज्ञेयानि संग्रण्यनुसारेण, अही. नाऽतिरिक्तम् एकादशस्वपि । इति ब्रवीमि ॥ ३ ॥ '.. ॥ द्वादशाध्ययनानि समाप्तानि ॥ १२ ॥ ॥ वृष्णिदशानामा पञ्चमोवर्गः समाप्तः ५ ॥ , , ॥निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥ ॥ समाप्तानि उपाङ्गानि ।। टीका-एवं शेषाण्यपि अवशिष्टान्यपि एकादशाध्ययनानि संग्रहण्यनुसारेण अस्यैवाध्ययनस्यादौ “निसढे मायनी" इत्यादिसंग्रहणीगाथानुसारेण ज्ञातव्यानि । एकादशस्वपि-सर्वेष्वप्यध्ययनेषु अहीनातिरिक्तं न्यूनाधिकभावरहितं वर्णनं विज्ञेयमिति भावः। शेष निगदिसिद्धम् । इति यथा भगवत्समीपे मया श्रुतं तथैव ब्रवीमिकथयामि ॥ ३ ॥ ॥ इति द्वादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ १२ ॥ इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययनोंको भी संग्रहणी गाथाके अनुसार जानना चाहिये । ग्यारहों अध्ययनोंमें न्यूनाधिकभावसे रहित वर्णन जानना चाहिये। સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જમ્મ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃ@િદશાના પ્રથમ અધ્યયનના ભાવ मा ५४ारे ४ा छ. (3) વૃશિખુદશાનું પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત આવી રીતે બાકીના અગીયાર અધ્યયનને પણ સંગ્રહણી ગાથાને અનુસરીને જાણવા જોઈએ. અગીયારે અધ્યયનમાં ન્યૂનાધિક (વધતા ઓછા) ભાવથી રહિત पन मे.. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिकासूत्रे ... मूलम् - (- निरयावलियाउवंगे णं : एगो सुयक्खंधो, पंच, वग्गा, पंचसु दिवसेसु उस्सिति, तत्थ चउसु वग्गेसु दस दस उद्देगा, पंचमग्गे वारस उद्देगा | ३५० " :: ॥ निरयावलियासुत्तं समत्तं ॥ 157 92 छाया - निरयावलकोपाने खलु एकः श्रुतस्कन्धः, पञ्च वर्गाः, पञ्चसु दिवसे उद्दिश्यन्ते, तत्र चतुर्षु वर्णेषु दश दश उद्देशकाः, पञ्चमवर्गे द्वादश देशकाः ॥ ॥ इति निरयावलिकासूत्रं समाप्तम् ॥ सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्ब ! भगवान के समीप मैने जैसा सुना पैसा तुम्हें कहा ॥ ३ ॥ A | वारहवाँ अध्ययन समाप्त हुआ ।. | वृष्णि दशा नामक पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ । निरयावलिका नामक श्रुतस्कन्ध समाप्त,, ( उपाङ्ग समाप्त हुए ) निरयावलिका उपाङ्गमें एक श्रुतस्कन्ध है, पाँच वर्ग हैं, पांच दिनोंमें इसका उपदेश दिया गया है। इसके चार वर्गोंमें दस-दस उद्देश हैं, पांचवें वर्ग में बारह उद्देश हैं । इति निरयावलिका सूत्र समाप्त.. સુધર્માં સ્વામી કહે છેઃ— हे अभ्यू ! भगवाननी पासे में, नेवु सांलज्यु मे तने हुँ-धु., (3).'' બારમું અધ્યયન સમાપ્ત વૃષ્ણુિદશા નામના પાંચમા વર્ગ સમાપ્ત નિયાવલિકા,નામને શ્રૃતકન્ય સમાપ્ત ( उपांग सभाप्त ). - નિમ્યાવલિકા ઉપાગમાં એક શ્રુતસ્ક્રુન્ધ છે પાચ વર્ગ છે. પાંચ દિવસમાં गाना- उथहेश भाषाया है. माना यार, वर्ज भी इश-देश उद्देशो है, पांयभा वर्गभां ખાર ઉદ્દેશો છે ઇતિ નિરયાવલિકા સૂત્ર સમાપ્ત. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- s 4 ॥ शास्त्रप्रशस्तिः ॥. . . काठियावाड देशेऽस्मिन् , वांकानेरपुरं महत् ।। अत्रेत्य मुनिभिः सार्द्ध, ग्रामाद्नामान्तरं व्रजन् ।। १ ॥ टीकामकार्षमेतर्हि, मृवीं सुन्दरबोधिनीम् । त्रिपसद्विसहस्राब्दे, विक्रमीये सुखावहे ॥२॥ आषाढे बहुले पक्षे, पञ्चम्यां बुधवासरे । सेयं सम्पूर्णतां याता, भव्यानामुपकारिणी ॥ ३॥ टीकासमाप्तिकाले च साधवः सत्य उत्तमाः । सन्त्यत्र तेषां नामानि, कथ्यन्ते गुणवृद्धये ॥४॥ सम्प्रदाया लसन्त्यत्र, निरपायाः सदार्हताः । लिम्बडीसम्प्रदायोऽन्न, दीप्यते दिवि चन्द्रवत् ।। ५ ॥ प्रशस्ति. काठियावाड प्रान्तमें वांकानेर नामका एक नगर है । तीर्थकर परम्परासे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए इस नगरमें आकर विक्रम सम्वत् २००३ को मैंने इस सुन्दरबोधिनी नामक टीकाकी रचना की ॥ १ ॥ २ ॥ भव्योंकी उपकारिणी यह टीका अषाढ कृष्ण पञ्चमी वुधवारको समाप्त हुई ॥ ३ ॥ इस टीकाकी समाप्तिके समय जो महासतियां तथा मुनिराज विराजते थे उनके नाम गुणवृद्धि के लिये कहे जाते हैं ॥ ४ ॥ इस ससारमें पवित्र और निर्मल बहुतसी आहंत संप्रदायें प्रशस्ति. કાઠિયાવાડ પ્રાન્તમાં વાને નામે એક નગર છે તીર્થંકર પરંપરાથી ગામેગામ વિહાર કરતા કરતા આ નગરમાં આવીને વિક્રમ સંવત્ ૨૦૦૩ માં મેં આ सुंदरवोधिनी नामनी रा! २२ (१-२) ભવ્યની ઉપકાર કરવાવાળી આ ટીકા અષાઢ (ગુo જેઠ) વદિ પાંચમ सुधपारे समास थ६ (3) આ ટીકાની સમાપ્તિ વખતે જે ઉત્તમ સાધુ અને ઉત્તમ સાધ્વીઓ હતી તેમના નામ ગુણવૃદ્ધિ માટે કહુ છુ (૪) આ સંસારમાં ઘણા નિર્મલ અને ઉત્તમ જેને સ પ્રદાવે છે તે સંપ્રદાયમાં लीवडी संप्रदाय माशमा न्यन्द्र नी पेठे हेही यमान छ (५) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामु तत्रास्ति शान्तो मनसाऽथ दान्तः कृतो मुनिः केशवलालनामा । गुणैर्गुरोरुच्च पदाधिकारी, स्वतत्त्वधारी विलसत्मभावः ॥ ६ ॥ गुणाभिरामो गुणसम्प्रचारे, सदाऽविरामो निहतस्त्रकामः । सुत्यक्तरामोऽपि विभाति नाम्ना, रामो मुनिः केवल इत्ययं च ॥७॥ प्रवर्त्तिनी झाकलवानाम्नी श्रीजीकुमारेति सतीतरा च । सन्तोकाईति परा सती च, तिस्रोऽप्यजस्रं दधते वतित्वम् ||८|| हैं । इन संप्रदायोंमे लिम्बडी सम्प्रदाय आकाशमें चन्द्रमाके समान देदीप्यमान है ॥ ५ ॥ इस लिम्बडी सम्प्रदाय शान्त तथा मन और इन्द्रियों को दमन करने वाले कृती अर्थात् पण्डितराज मुनिश्री केशवलालजी महाराज हैं, जो गुणोंसे गुरुके उच्च पदके उत्तराधिकारी हैं । तथा ये मुनिवर स्व= आत्मा अथवा जैनागमके तत्वोंके निरूपण करनेमें प्रवीण हैं, एवं अपने तेजसे देदीप्यमान हैं ॥ ६ ॥ ३७२ और दूसरे मुनि जो कि गुणासे अभिराम ( सुन्दर ) हैं तथा गुणों के प्रचार में सर्वदा लगे रहेते हैं और जिन्होंने सभी सांसारिक कामनाओंका त्याग कर दिया है इस प्रकार के यह मुनिराज मुत्यक्तराम = ( रामा= स्त्री के त्यागी ) होनेपर भी 'राम इस नाम से प्रसिद्ध हैं । और तीसरे विद्यार्थी केवल मुनि हैं ॥ ७ ॥ अब महासतियोंके नाम कहते हैं , यहाँ पर ये महासतियाँ सर्वदा पञ्चमहाव्रतका धारण करती આ લીંમડી સપ્રદાયમાં શાન્ત તથા મન અને ઇન્દ્રિયાને સ યમથી દમન કરવાવાળા કૃતી અર્થાત પતિ પ્રત્ર મુનિશ્રી દેશવટાની મહારાજ છે જે ગુણે વડે ગુરૂના ઉચ્ચપદના ઉત્તરાધિકારી છે, તથા આ મુનિવર સ્વઆત્મા અથવા જૈન આગમના તત્વાના નિરૂપણ કરવામા પ્રવીણું છે. એ પ્રમાણે તે પેાતાના તેજ વડે हेदीप्यमान छे (१) અભિરામ (સુન્દર) છે તથા ગુણાના સાસાકિ બધી કામનાઓના ત્યાગ हे वा भुनिग त्यक्तराम =राभा (स्त्री) ने छोडीने पायु 4 नामथी शोली ह्या छे अर्थात् जीन गम भुनि हे श्रीव्न केवळमुनि छे, (७) વળી ખોજા મુનિ કે જે ગુણેા વડે પ્રચાાં સદા પડયા રહે છે તથા જેમણે , राम આવા હવે મહાસતીના નામ કહે – હીં સાધ્વીઓ હમેશા પાંચ મહાવ્રત ધારણ કરતી વિચરે છે, તેમાં પ્રથમ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ - शास्त्रपशस्ति - - साध्वी श्रीपार्वतीबाई, श्री हेमकुमरा ऽभिधा । वैयावृत्त्यैकशीला श्री, सम्झूबाई महासती ॥९॥ वांकानेरपुरस्थ एष परमोदारो महाधार्मिकः, शुद्धस्थानकवासिधर्मनिरतः सम्यक्त्वभावान्वितः । तत्वातत्वपयोविवेचनविधौ हंसायमानः सदा, सर्वेषामुपकारको विजयते श्री जैनसंघो महान् ॥ १० ॥ हुई विचर रही हैं, इनमें प्रथम महासतीका नाम प्रवर्तिनी श्री झाकलबाई स्वामी है, दूसरी महासतीका नाम श्री श्रीजी कुँवरबाई स्वामि है, तथा तीसरी महासतीका नाम श्री सन्तोकवाई स्वामी है। ये तीन ठाणों से स्थिरवास विराजती हैं ॥ ८॥ तथा महासती श्री पार्वतीवाई. स्वामी और महासती श्री हेमकुवरवाई स्वामी एवं सेवाभावी महासती श्री सम्झुवाई स्वामी यहाँ तीन ठाणों से विराजती हैं ॥ ९ ॥ वांकानेरका यह परम उदार महाधार्मिक श्री जैनसंघ सदा विजयशाली है। यह जैनसंघ शुद्ध स्थानकवासी धर्ममें निरत है तथा सम्यक्त्वभावसे युक्त है, एवं तत्व और अतत्व रूपो दुग्ध और जलके विवेचनमें हंसके समान है, और यह संघ सभी प्राणियोंका हितकारक है ॥ १० ॥ भासतानु नाम प्रतिनी झाकलवाई स्वामी छे. मी सतीनु नाम श्रीश्रीजीकुंवरवाई स्वामी तथा श्री सतीनुं नाम श्रीसंतोकवाई स्वामी छे. भा ऋष्य था। स्थिवास (मरारे छ (८). __ महासती ची पार्वतीबाई स्वामी तथा श्री हेमकुंवरबाई स्वामी मने सेवा५२सय] श्री समजुबाई स्वामी मी (A२ छ (6) ____पनेरन मा ५२म St२ महापार्भिश्री जैनसंघ सहा विन्यजी छे. આ જૈનસંઘ શુદ્ધ સ્થાનકવાસી ધર્મમા નિરત છે તથા સમ્યકત્વ ભાવથી યુક્ત છે અર્થાત તત્ત્વ અને અતવરૂપી દૂધ અને પાણીના વિવેચનમાં હંસ સમાન છે. અને આ સંઘ સર્વ પ્રાણીઓને હિતકારક છે (૧૦) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३७४ मिरयांवलिका देवे गुरौ धर्मपथे च भक्तिर्येषां सदाचाररुचिहि नित्यम् । ते श्रावका धर्मपरायणाश्च सुश्राविकाः सन्तिगृहे गृहेऽत्र ॥११॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दक-श्री शाहूछन्त्रपति कोल्हापुर राजपदत्त-'जैनशास्त्राचार्यभपद भूषित-कोल्हापुरराज गुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल अतिविरचिता श्री निरयावलिकादि पञ्चमूत्राणां सुन्दरपोधिनी टीका समाप्ता । __इस नगरके घर घरमें देव, गुरू और धर्ममें सर्वदा श्रद्रा रूचि रखनेवाले तथा सदाचारसे युक्त एवं धर्मपरायण श्रावक और श्राविकाएं विद्यमान है । ॥ ११ ॥ इति श्री निरयावलिका आदि पांच सूत्रोंकी सुन्दरयोधिनी टीकाका हिन्दी अनुवाद समाप्त । જેમની દેવ, ગુરૂ તથા ધર્મમા હમેશા ભકિત છે તથા સદાચારમાં રૂચી છે એવા શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓ આ નગરમાં ઘેરઘે વિદ્યમાન છે. (૧૧) ઈતિ નિરયાવલિકા આદિ પાચ સૂત્રેની સુન્દરધિની ટીકાને शुराती मनुवाई समाप्त मद्गलं भगवान वीरो मगलं गौतमः प्रभुः। मुधर्मा मगल जम्बुजैनधर्मश्च मङ्गलम् ॥ Page #371 --------------------------------------------------------------------------  Page #372 --------------------------------------------------------------------------  Page #373 --------------------------------------------------------------------------  Page #374 --------------------------------------------------------------------------  Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ सम्यक्त्वप्रशंसा - किञ्च (इन्द्रवज्राछन्दः) " सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्ववन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः । सम्यक्त्वमित्रान परं हि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान परोऽस्ति लाभः ॥२॥" हृदयभूमिकायां सञ्जातः सम्यक्त्वाचारदृढमूलो भावनाजलधारासिच्यमानः श्रुतचारित्रलक्षणधर्मस्कन्धः प्रमाणशाखो नयप्रतिशाखो दयादानक्षमाधृति __ अर्थात्-निर्मल सम्यक्त्व अतुल सुखका निधान है, वैराग्यका धाम (घर) है, संमारके क्षणभंगुर और नाशवान सुखोंकी अमारता समझने के लिए सच्चा विवेकस्वरूप है, भव्य जीवोंके मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी और नरक निगोद आदि दुःखोंका उच्छेद करनेवाला है और मोक्ष सुखरूपी वृक्षका बीजस्वरूप है ॥ १ ॥ और भी कहा है:" सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः । सम्यक्त्वमित्रान परं हि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान्न परोऽम्ति लाभः ॥२॥" अर्थात्-संसारमें सम्यक्त्व रत्नके समान अन्य रत्न नहीं, सम्यक्त्व बन्धु के समान अन्य बन्धु नहीं । सम्यक्त्व मित्रके समान अन्य मित्र नहीं। सम्यक्त्व लाभके समान अन्य लाभ नहीं ।।२।। सम्यक्त्व रूपी महावृक्ष हृदय भूमिमें उत्पन्न होता है सम्यक्त्व का आचार जिसका मूल है, भावना जलसे सींचा जाता है, અર્થાત-નિર્મળ સઓફત્વ અતુલ સુખનુ નિધાન છે વૈરાગ્યનું ધામ (ઘર) છે. સસારના ક્ષણભંગુર તથા નાશવાન સુખની અસારતા સમજવા માટે ખરેખર વિવેક સ્વરૂપ છે ભવ્ય જીનાં મનુષ્ય તિર્યં ચ સ બ ધી તથા નરક નિગદ આદિ દુ:ખને ઉછેદ કરવાવાળું છે તથા માલસુખ રૂપી વૃક્ષનાં બીજ સ્વરૂપ છે. (૧) ફરી પણ કહ્યું છે કે – "सम्यक्त्वरन्नान परं हि रत्नं, सम्यक्त्ववन्धोने परोऽस्ति बन्धुः सम्यक्त्वमित्रान परंहि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान परोऽस्ति लाभः॥२॥" અર્થા–સ સારમાં સમ્યકત્વ રત્નના જેવું બીજું રત્ન નથી સમ્યક્ત્વ બંધુના જે બીજે બધુ નથી સમ્યક્ત્વ મિત્રના જે બીજે કઈ મિત્ર નથી અને સમ્યક્ત્વ લાભના જે બીજે કઈ લાભ નથી (૨) સમ્યક્ત્વરૂપી મહાવૃક્ષ હદયરૂપ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થાય છે સમ્યક્ત્વનો આચાર જેનું મૂળ છે ભાવનાજળથી જેનું સિંચન થાય છે. જેનું કૃત તથા ચારિત્ર ધર્મ રૂપી Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . निरयावलिका मुत्रे दलोशीलभविजनमनोमिलिन्दन्दगुञ्जिनजिनपचनप्रेमप्रसनः शास्त्रऋतिकः (कृति'चाड' इति भाषायाम्) स्वर्गापवर्गमुरवफलो निजात्मकल्याणग्सः सम्यक्त्वमहामहीरुहो मिथ्यात्वगजेन्द्रादिकृतोपसर्गकुगास्त्रकुतर्कमहावातशतसहमरप्युन्मलयितुमशक्यः। इति विग्तरेणारय वर्णनमाचारागमत्रस्या (चतुर्थाध्ययनेऽऽचारचिन्नामणिटीकानोऽवसेयम् । एवं सम्यक्त्वप्रशंमां कुर्वाणः सपनिम्वविज्ञानेन जम्बूद्वीपमरतक्षेत्र श्रेणिकभूपं ददर्श । सम्यक्त्वगुणशालिनं राजनयपालिनं तं विलोक्य प्रफुलबदनजिमके श्रुत और चारित्र धर्मरूपी स्कंध है, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणरूप जिसकी गाग्वा हैं, लयरूप प्रतिगात्राएँ हैं, दया, दान, क्षमा, वृति और शीलरूप पत्र-पत्ते हैं, जिन बचनका प्रेमरूप मुन्दर पुष्प है, जिसपर भव्य जीवोंके मनरूपी अमावृत गूंज रहे हैं, शास्त्ररूपी बाडसे मुरक्षित है, स्वर्ग और मोक्षके सुखरूप फल है, निज आत्माके कल्याणरूप रम है, ऐसे हद सम्यक्त्वम्पी महावृक्षको मिथ्यात्वरूपी महागजकृत उपसर्ग और कुशास्त्र कुतर्करूपी हजारों महाबायु नहीं उखाड सकता। सम्यक्त्वका विस्तृत वर्णन आचागण सूत्रके चौथे अध्ययनकी आचारचिन्तामणि टीकामें किया गया है। इस प्रकार सम्यक्त्व प्रशंसा करते हुए सुरपनि सुधर्मा इन्द्रने अवधिज्ञान द्वारा जम्बूद्वीपक भरनक्षेत्र में श्रेणिक राजाको देवा । सम्यक्त्वगुणशाली राजनीति को पालनेवाले राजाको देखकर प्रसन्नमुख होकर સ્ક ધ (થડ) છે પ્રત્યક્ષ આદિ પ્રમાણ ૩૫ જેની શાખાઓ છે નયરૂપી પ્રતિ–શાખાઓ 'છે દયા, દાન ક્ષમા, ધૃતિ તથા શીલરૂપ પાદડા છે જિન વચનના પ્રેમરૂપી સુઈર પુષ્પ છે જેના ઉપર ભવ્ય જીના મનરૂપી ભમરાનાં વૃદ ગુજન કરી રહ્યા છે. શાસ્ત્રી વાડથી સુરક્ષિત છે સ્વાર્થ તથા મોક્ષનાં સુખરૂપી ફલ છે પિતાને આત્માના કલ્યાણરૂપી રસ છે એવા સુદઢ સવરૂપી મહાવૃક્ષને મિથ્યાવરૂપી મહાગજકૃત ઉપસર્ગો તથા કુશાસ્ત્ર કુતર્ક રૂપી હજારે મહાવાત ઉખેડી નહિ શકે સમ્યક્ત્વષ્ટ્ર વિસ્તારથી વર્ણન આચારગ સૂત્રના ચોથા અશ્ચયનની આચારચિંતામણિ ટીકામાં કરેલ છે આ પ્રકારે સમ્યક્ત્વની પ્રશંસા કશ્તા થકા સુરપતિ સુધર્મા ઈ અધિજ્ઞાન દ્વારા જ બૂ દ્વીપના ભત ક્ષેત્રમાં શ્રેણિક ગજાને જોયા સમ્યકત્વગુણુશાલી રાજનીતિનું પાલન કરવાવાળા રાજાને જોઈને પ્રસન્નમુખ થઈ પિતે સભ્યત્વગુણથી નિમ ળ ઈન્દ્ર, Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ देवकृतश्रेणिक परीक्षा कमलः सम्यक्त्वगुणविमला सादरं भूयो भूयोऽवाप्तसम्यक्त्वादिगुणश्रेणिकं श्रेणिकं मुधर्माख्यायां स्वदेवसभायां प्रशशंम । इत्थं पुरन्दरास्यशैलनिस्सृता श्रेणिकसम्यक्त्वप्रशंसासरित् सकलसुरसदस्य श्रवणसिन्धुमवागाहत । । देवाश्च तदीयसम्यक्त्वादिगुणगणमहिमानं श्रावं श्रावममन्दानन्दतुन्दिला जातकोतहलाः श्रेणिकं धन्यममन्यन्त । तदा द्वौ मिथ्यात्विदेवौ शक्रवचनं न श्रद्दधतुः । श्रेणिकं परीक्षितु मनुष्यलोके तदन्तिकं समागतो । उक्तञ्च" मुहेंदुदिव्य मुहवत्थिगो हि सग्गा सुरो सेणियरायमागा । परिक्खिउ साहुसुवेसधारी अज्जासमेओ य सगेतडे मो ॥ १ ॥" छाया-'मुखेन्दुदीव्यन्मुग्ववस्त्रिको हि, स्वर्गात्सुरः श्रेणिकराजमागात् । परीक्षितु साधुसुवेषधारी, आर्यासमेतश्च सरस्तटेऽसौ ॥ १ ॥ स्वयं सम्यक्त्व गुणसे निर्मल इन्द्र, आदर के साथ बार बार सम्यक्त्वगुणधारी श्रेणिक राजाकी प्रशंसा अपनी सुधर्मममा करने लगे। इस प्रकार राजा श्रेणिककी प्रशसारूपी नदी इन्द्रके मुखरूपी पर्वतसे निकल कर सभामें बैठे हुए सब देवों के कर्णरूपी सागरमें पहुंची। देवता लोग उनके सम्यक्त्व आदि गुणोंकी महिमा सुनसुन कर अपूर्व आनन्दसे भर गए और आश्चर्यचकित होकर श्रेणिक राजाको धन्यवाद देने लगे उस समय दो मिथ्यात्वी देवोंने इन्द्रके वचनपर श्रद्धा नहीं की और राजा श्रेणिककी परीक्षा लेनेके लिये मनुष्य लोकमें उनके पास आये । जैसे कहा है: ___ मुहेंदुदिव्वं मुहबत्थिगो हि, सग्गा सुरो सेणियरायमागा। परिक्खिड साहुमुवेसधारी, अज्जासमेओ य सरोतडे सो ॥१॥ આદર સહિત વાર વાર પિતાની સુધમાં સભામા સમ્યક્ત્વગુણધારી શ્રેણિક રાજાની પ્રશ સા કરવા લાગ્યા. એ પ્રકારે રાજા શ્રેણિકની પ્રશ સારૂપી નદી ઈન્દ્રના મુખરૂપી પર્વતથી નિકળી સભામાં બેઠેલા સર્વ દેવના કર્ણરૂપી સાગરમાં પહોંચી દેવતા કે તેના સમ્યકત્વ આદિ ગુણેને મહિમા સાભળી સાંભળીને અપૂર્વ આન દથી ભરપૂર થઈ ગયા તથા આશ્ચર્ય ચકિત થઈને શ્રેણિક રાજાને ધન્યવાદ हेवा वाया , તે સમયે બે મિથ્યાત્વી દેએ ઈદ્રના વચન ઉપર શ્રદ્ધા ન કરી અને રાજા જૈશ્વિકની પરીક્ષા લેવા માટે મનુષ્ય લેકમાં તેની પાસે આવ્યા. જેમ કહ્યું છે કે – , मुहेंदुदिव्वं मुहबत्यिगो हि सग्गा सुरो सेणियरायमागा। . परिक्खिउं साहुसुवेसधारी, अजासमेओ य सरोतडे सो ।। १॥ . Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ निरयावलिकामत्रे • . . ततः साधुरूपधारी सुरो जलाशये जालं वितत्य स्थितः, आर्यिकारूपधारी तत्र सरस्तीरे तिष्ठति स्म । अत्रान्तरे श्रेणिको राजा पवन से वनार्थ समागतः । तत्र मत्स्यं हन्तुमुद्यतं साधु विलोक्यावोचत-किमिति साधुर्भूत्वा दुराचरमि ? | स सरोपं तमुवाच-इयमार्यिका दोहदवतीत्यतो मीनमांसं बुभुक्षाणाऽस्तीत्येतदर्थ जाल विस्तारयामि, त्वमितो गच्छ राजन् ! किं ते प्रयोजनमेतादृशप्रश्नन ?, इति तद्वचनं राजा श्रुत्वा कोपारुणनयनोऽवदत् निर्लज्ज ! कृत्यमिदं त्यज, अन्यथा देहदण्डं ते दास्यामि । इति श्रुत्वाऽसौ साधुरवोचत्गौतमादयश्चतुर्दशसहस्रमुनयश्चन्दनयालादयः त्रिंगत्सहस्रार्यिकाश्च सर्वे अन्तदुराचारिणो बहिः साधुवेपधारिणः सन्ति नदि किं मामधिक्षिपसि ? ।, उन दोनों देवोंने वैक्रिय शक्तिसे साधु और साध्वीका रूप धारण किया मुखपर सदोरकसुखवस्त्रिका बांधी और कक्ष प्रदेश (कांग्च) में रजोहरण लिया, इस प्रकार वेष बनाकर सरोवरके किनारे जा ग्वडे हुए । उनमें से एक देव माधुरूप धारण किया हुआ जाल फैलाकर सरोवर के तट पर खड़ा होगया और दूसरा साध्वी रूप धारण किया हुआ वही उमके समीपमें खडा हो गया । उसी अवसरपर महाराज श्रेणिक क्रीडाके निमित्त घूमते हुए वहा आ पहूँचे उन्होंने मछली मारनेके लिए उद्यत माधुको देखकर कहा ओह ! तुम साधु होकर यह दुष्ट आचरण क्यों करते हो ? तब वह साधुवेषधारी क्रोधित होकर बोला-यह आर्या गर्भवती होनेसे इसको मछली खानेका दोहद उत्पन्न हुआ है इस लिए मछलियां मारनेको जाल फैलाये खडा हूँ, जाइये-राजन् ! इससे आपका क्या प्रयोजन है ? તે બને દેએ વૈક્રિય શકિતથી સાધુ તથા સાધ્વીનું રૂપ ધારણ કર્યું મુખ ઉપર દેરાસહિત મુખવઅિકા બાંધી તથા કાખમાં રજોહરણ લીધું એ પ્રકારનો વેષ લઈ તળાવને કાંઠે જઈ ઊભા રહ્યા. એમાંથી એક દેવ સાધુનું રૂપ ધારણ કરીને જાળ ફેલાવી સરોવરના તટ ઉપર ઊભે રહ્યો તથા બીજે સાધ્વીનું રૂપ ધારણ કરી ત્યાજ તેની પાસે ઊભા રહ્યા તે વખતે મહારાજ શ્રેણક ફીડા નિમિત્તે ફરતા ફરતા ત્યા આવી પહોચ્યા તેમણે માછલી મારવા માટે ઉદ્યત થયેલા સાધુને જોઈને કહ્યું હ! તમે સાધુ થઈને આ દુષ્ટ આચરણ શા માટે કરે છે ? ત્યારે તે સાધુવેષધારી ક્રોધ કરીને બોલ્ય-આ આય ગર્ભવતી હોવાથી તેને માછલી ખાવાને ડહેળે થયો છે. એટલા માટે માછલી મારવાને જાળ ફેલાવીને ઊભું છું જાઓ રાજન્ ! એનું આપને શુ પ્રજન છે? Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ देवकृतश्रेणिक स्तुतिः ततः श्रेणिकोऽवदत्-त्वादृशानां दम्भं दुराचारं च वीक्ष्य मम धर्मानुरागो नापगच्छति, पृथिवी पातालं गच्छेत् , सूर्यः पश्चिमदिश्युदियात् , चन्द्रो वहिं वर्षेत् , वहिः शीतलो भवेत् , अमृतं विषं भवेत् तदपि सम सम्यक्त्वं न प्रचलेत् । ततो देवद्वयमवधिज्ञानेन राजानं सम्यक्त्वधर्मे निश्चलं विज्ञाय पुनः पुनः स्तौति । तथाहि (इन्द्रवज्रा) " सम्यक्त्वधारी च परोपकारी, धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः। तुल्यस्त्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन् , सर्व समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १ ॥ ऐसे साधुके वचन सुनकर राजा क्रोधित हो बोले निर्लज ! छोड इस दुष्कृत्यको, नहीं तो दण्ड दूंगा । यह सुनकर वह साधुवेषधारी बोला ? किसको दण्ड देते हैं ? गौतमादि चौदह हजार मुनि और चन्दनवाला आदि छत्तीश हजार साध्विया सभी अन्तर दुराचारी और बाहर साधुपनका आडम्बर रखते हैं तो मुझ अकेलेपर ही क्यों आक्षेप करते हो ? ।। यह सुनकर. राजा श्रेणिक बोले-तुम्हारे जैसे दम्भी और दुराचारीको देख कर मेरा धर्मका अनुराग नहीं हट सकता है, अर्थात् जिनवचनपर स्थित मेरी दृढ श्रद्धा नहीं हट सकती है, पृथ्वी पातालमें चली जाय, सूर्य पश्चिममें उदय हो जाय, चन्द्र अग्नि वरसावे, . अग्नि शीतल बन जाय, अमृत विष बने तो भी मेरा सम्यक्त्व विचलित नहीं हो सकता। એવા સાધુના વચન સાંભળી રાજા કોધ કરીને બેલ્યા – નિર્લજ્જા છેડી દે આ દુષ્કૃત્યને, નહિ તે દડ કરીશ. આ સાંભળીને તે સાધુવેષધારી બે-દડ કોને આપશો? ગૌતમ આદિ ચૌદ હજાર મુનિ તથા ચદનબાળા આદિ છત્રીસ હજાર સાધ્વીએ તમામ અન્તર દુરાચારી તથા બહાર સાધુપણાને આડબર રાખે છે તે મારા એકલાના ઉપરજ કેમ આક્ષેપ કરે છે ? આ સાંભળીને રાજા શ્રેણિક બોલ્યા–તમારા જેવા દંભી તથા દુરાચારીને જોઈને મારે ધર્મ ઉપર અનુરાગ ડગી શકશે નહિ, અર્થાત્ જિનવચન ઉપર મારી દૃઢ શ્રદ્ધા વિચલિત ન થઈ શકે. પૃથ્વી પાતાળમાં ચાલી જાય, સૂર્ય પશ્ચિમમાં ઊગે, ચંદ્ર અગ્નિ વરસાવે, અગ્નિ ઠડે બની જાય, અમૃત ઝેર બની જાય તે પણ મારું સમ્યક્ત્વ ચલાયમાન થઈ શકે નહિ. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अन्यच्च शार्दूलविक्रीडितम् । सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं, देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूषते ! राजते । दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता, धर्मैकप्रियता गुरौ विनविता देवेऽनुरागस्तथा ॥ २ ॥ 66 निरयावलिकासूत्रे उसके पश्चात् उन दोनों देवोंने अवधिज्ञान द्वारा राजाको / सम्यक्त्व धर्मके अन्दर निश्चल जानकर बारम्बार इस प्रकार स्तुति करने लगे " सम्यकत्वधारी च परोपकारी, धन्योऽसि राजन ! कृतपुण्यराशिः । तुल्यस्त्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन्, सबै समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १ ॥ धारी, परोपकारी राजन्, तुम धन्य हो । तुम्हारे जैसा पुण्यवान् असमतिधारी इस भृतल पर अन्य नहीं । जो सम्यक्त्वधारीके गुण होते हैं वे सब तुममें प्रत्यक्ष पाये जाते हैं ॥ १ ॥ फिर भी - अर्थात- हे ――――――― सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं, देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते ! दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता, धर्मे प्रियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरागस्तथा ॥ २ ॥ + ત્યાર પછી તે અન્ને દેવા અધિજ્ઞાન દ્વારા રાન્તને સમ્યક્ત્વ ધર્મોની અંદર નિશ્ચલ જાણીને વારવા તેની આ પ્રમાણે પ્રશ'સા કરવા લાગ્યા— सम्यक्त्वधारी च परोपकारी, धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः । तुल्यस्त्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन् सबै समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १ ॥ અર્થાત્—હૈ સમ્યફૂંધારી પરોપકારી રાજન્ તમેા ધન્ય છે, તમારા જેવા પુણ્યવાન અટલ સમક્તિધારી આ પૃથ્વી ઉપર ખીજાં નથી જે સમ્યક્ત્વધારીના ગુણુ હાય છે તે બધા તમારામા પ્રત્યક્ષ જોવામા આવે છે. (૧) दूरी या सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं, देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते । दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता, धर्मैकप्रियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरागस्तथा ॥ २ ॥ F Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनीटीका अ. १ देवद्वयार्पितहारादिवर्णनम् ४७ ___ एवं स्तुवन् देवदर्शनममोघं भवतीति प्रसन्न एको देवो हारमपरश्च द्वौ मृगोलको श्रेणिकाय दत्वा स्वस्थानं गतौ । ततः श्रेणिकेन देवदत्तहारश्चेल्लनायै दत्तः, द्वौ सगोलकौ च नन्दायै । नन्दा च 'पतिदत्त किमपि वस्तु सादरं ग्राम्य मिति मनसि कृत्वा पातिव्रत्यरक्षायै मृगोलको जानानाऽपि सपत्नीद्वेषं विहाय सादरमाहतौ । सहर्षोत्कर्ष मञ्जूषायां स्थापनसमये भूषणकरण्डा हे राजन् ! दान देना, दीन पर दया रखना, जिनवचनके रहस्यको जानना, सज्जनता रखना, सर्मका अद्वितीय प्रेम, गुरुजनके साथ विनय और वीतराग देवके प्रति अनुराग इत्यादि जो तुम्हारे दृढतर सम्यक्त्वके निर्मल गुण इन्द्रने वर्णन किये हैं उससे भी अधिक तुम्हारेमें साक्षात् मौजूद है ॥ २ ॥ - इस प्रकार राजाकी प्रशंसा करते हुए देवोंने देवदर्शन अमोघ ' होता है, इस भावसे प्रसन्न होकर उनमें से एक देव राजाको हार और दूसरा देव दो मिट्टीके गोले भेट करता है। बाद वे दोनों , . अपने स्थानपर गये और राजा अपने स्थानपर आया । पश्चात् राजा श्रेणिकने देवसमर्पित हार चेल्लना महारानीको दिया, और दोनों मिट्टीके गोले' नन्दा महारानीको दिये । नन्दाने भी 'पतिको दी हुई कोई भी वस्तु आदरसे लेना चाहिए, यह पतिव्रताका धर्म है' ऐसा विचारकर अपनी सौतके साथ ईर्षाको छोडकर आदरसे उन गोलोको लेलिए। और अत्यन्त हर्ष के साथ उन भिट्टीके गोलोंको सुरक्षितपनेसे अपनी હે રાજન ! દાન દેવ, ગરીબ ઉપર દયા રાખવી, જિનવચનના રહસ્યને જાણવું, સજજનતા રાખવી, ધર્મમાં અદ્વિતીય પ્રેમ, ગુરુજનની સાથે વિનય તથા વીતરાગ દેવમાં અનુરાગ, ઈત્યાદિ જે તમારા દઢતર સમ્યક્ત્વના નિર્મળ ગુણ ઈ વર્ણન કર્યા છે તેનાથી પણ વધારે તમારામાં સાક્ષાત્ મેજુદ છે (૨) આ પ્રકારે રાજાની પ્રશંસા કરતા થકા દેવાએ દેવદર્શન અમેઘ હોય છે, એ ભાવથી પ્રસન્ન થઈ તેમનામાથી એક દેવ રાજાને હાર અને બીજે દેવ બે માટીના ગોળા ભેટ આપે છે. પછી તે બેઉ પિતાના સ્થાને ગયા તથા રાજા પિતાને સ્થાને આવ્યા પછી રાજા શ્રેણિકે દેવે આપેલે હાર ચેલના મહારાણીને આપે તથા બેઉ માટીના ગેળા ન દા મહારાણીને આપ્યા ન દાએ પણ “પતિએ આપેલી કોઈ પણ વસ્તુ આદરથી લેવી જોઈએ એ પતિવ્રતા ધર્મ છે” એમ વિચાર કરી પોતાની ' શકયની સાથે ઈષને છેડી આદરથી તે ગોળા લઈ લીધા અને અત્યંત હર્ષથી તે Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४८ निरयावलिकामत्रे घातेन तौ भग्नौ । तत्रैकस्मिन् कुण्डलयुगलमपरस्मिन् वस्त्रयुग्मं च वीक्ष्य परं प्रमुदिता जाता। ____ अन्यदाऽभयो भगवन्तं महावीरम, पृष्टवान्-अपश्चिमः को राजऋषिभविष्यति ? । भगवता प्रोक्तम्-अतः परं बद्धमुकुटो नृपो न प्रत्रजिष्यतीति श्रुत्वा श्रेणिकभूपेन तातेन दीयमानं राज्यं न स्वीकृतवान । नन्दया दीक्षाभिलापिणमभयकुमारं ज्ञात्वा कुण्डलयुगलं बेहल्याय दत्तम् , वस्त्रयुग्मञ्च बेहायसाय । तदनु महतोत्सवेन महारानी नन्दाऽभयकुमारश्चीमी प्रत्रजिती । पेटीमें रग्बने लगी उस समय भूपणकग्डंककी टफारसे दोनों फूट गए, तब वहां वह देखती है कि एक गोलेमें कुण्डलकी जोडी और दूसरेमें दो दिव्य वस्त्र हैं, ऐसा देखकर रानी बहुत प्रसन्न हुई। एक समय अभयकुमाग्ने भगवान महावीर स्वामीसे पूछा कि-हे भगवन् ! अंतिम राजमाप कौन होगा ? भगवानने कहा-हे अभयकुमार ! आज पीछे मुकुटबद्ध राजा प्रव्रजित नहीं होगा। यह सुनकर अभयकुमारने मनमें विचार किया कि-अगर पिताद्वारा मिलने वाले राज्यको स्वीकार करू तो में भी मुकुटबद्ध राजा बनूं , परन्तु भगवानका वचन है कि-मुकुटबद्ध राजा राजऋपि नहीं बनेगा एतदर्थ में राज्य नहीं लूंगा । इस लिए पितासे, प्राप्त होते राज्यको उनने स्वीकार नहीं किया । માટીના ગોળાને સુરક્ષિત રીતે પિતાની પેટીમાં રાખવા લાગી પર તુ તે રાખતી વખતે આભૂષણના ડાબલાના અથડાવાથી બેઉ કૂટી ગયા ત્યારે તેના જેવામા આવ્યું કે એક ગોલામા કુંડલની જોડી છે તથા બીજામાં બે દિવ્ય વસ્ત્ર છે આ જોઈને રાણું બહુ પ્રસન્ન થઇ એક સમય અભયકુમારે ભગવાન મહાવીર સ્વામીને પૂછયું કે-હે ભગવાન્ ! અંતિમ રાજપિ કેણુ થશે? ભગવાને કહ્યું- હે અભયકુમાર આજ પછી મુગટધારી રાજા પ્રવ્રજિત થશે નહિ આ સાંભળીને અભયકુમારે મનમાં વિચાર કર્યો કે જો પિતા તન્ફથી મળનાર રાજ્યને સ્વીકાર કરું તે હું પણ મુગટબદ્ધ રાજા બનુ પર તુ ભગવાનનું વચન છે કે મુગટબદ્ધ રાજી રાજઋષિ નહિ બને તે માટે પિતા તરફથી મળનાર રાજ્યને સ્વીકાર નહિ કરું, આમ નિશ્ચય કરીને તેણે રાજ્યને સ્વીકાર ન કર્યો Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकवर्णनम् ४९ . श्रेणिकभूपस्य काली-महाकाली-प्रमुखान्यराजीनामन्ये कालकुमारादयः पुत्रा आसन् । अभये प्रव्रजिते वक्ष्यमाणचरित्रः कणिकः कदाचित् रहसि कालादिदशकुमारः सह मन्त्रयति स्म-स्वेष्टसुखविघातकं जनकं बद्ध्वा राज्यस्यैकादश भागान् करोमीति सर्वैः स्वीकृतम् । । छलेन कूणिकेन रखपूर्वभवत्ररित्वेन श्रेणिको बद्धो लौहपञ्जरे निक्षिप्तश्च । पूर्वाह्नेऽपराह्ने च कशाशतं भृत्यादिना दाध्यते । भूपस्य भोजनादिकं निरुद्धम् । ___ अभयकुमारको दीक्षाभिलाषी जानकर नन्दा महारानीने कुंडल युगल वैहल्य कुमारको दिया और वस्त्रयुगल वैहायस कुमारको दिया और फिर वढे उत्सवसे नन्दा महारानी और अभयकुमार दोनों प्रत्रजित हुए । श्रेणिक राजाके काली महाकाली आदि अन्य रानियोंके काल महाकाल आदि और भी अनेक पुत्र थे। अभयकुमारके दीक्षा लेने पर कूणिक राजा जिनका चरित्र आगे वर्णन करेंगे उन्होंने एक समय एकान्नमें कालकुमार आदि दस कुमारोंके साथ इस प्रकार मंत्रणा (सलाह) की-अपने पिता महाराज श्रेणिक अपने इष्ट सुखके विधातक हैं इस लिए इनको बन्धन में डालकर राज्यका ग्यारह भाग करके सुखपूर्वक राज्यसुखका अनुभव करें । यह बात सब आइयोंको पसन्द आगई और उन्होंने स्वीकार कर ली। अपने पूर्वभवके वैरसे कूणिकराजाने 'अपने पिता श्रेणिकको किसी छल से पकडकर लोहेके पीजरेमें डालकर सुबह शाम अपने અભયકુમારને દીક્ષાભિલાષી જાણીને નદી મહારાણીએ કુડલની જોડ વૈદ્ય કુમારને આપી અને વસ્ત્રની જોડ વૈહાયસ કુમારને દીધી, તે પછી મોટા ઉત્સવથી ન દા મહારાષ્ટ્ર અને અભયકુમાર એ બન્ને પ્રવ્રજિત થયા શ્રેણિક રાજાને કાલી મહાકાલી આદિ બીજી રાણીએ ના કાલ મહાકાલ આદિ બીજા અનેક પુત્ર પણ હતા અભયકુમારે દીક્ષા લીધા પછી કુણિક રાજા કે જેનું ચરિત્ર આગળ વર્ણવવામાં આવશે તેણે એક વેખત એકાતમાં કાલ કુમાર આદિ દશ કુમારની સાથે આ પ્રમાણે મ ત્રાગા કરી કે-આપણા પિતા મહારાજ શ્રેણિક આપણા ઈષ્ટ સુખને નાશ કરનાર છે તેથી તેને બ ધનમાં નાખી રાજ્યના અગીયાર ભાગ કરી સુખ પૂર્વક રાજ્ય સુખનો અનુભવ કરે આ વાત બધા ભાઈઓને પસ દ પડી અને તેઓએ તેને સ્વીકાર કર્યો. પિતાના પૂર્વ ભવના વેરથી કુણિક રાજાએ પિતાના પિતા છે શુકને કે ઈકપટથી પકડી લેઢ ને પાંજરામાં નાખ્યો અને સવાર સાજ પોતાના નેકરે દ્વારા Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० • निरया वलिकाम तदा चेल्लनाच प्रच्छन्नरीत्या स्वार्थ वस्तु तथा च स्त्रपरिधानवस्त्रमा कृत्य भूपसमीपे गच्छति । गुप्तरीत्या भोज्यं वस्त्रनिप्पीडनजलं च भूपाय समर्पयति । कशाघातप्रबल वेदनाशमनाय भेपजमिश्रितवत्रजलेन गात्रं मक्षालयति, तत्मभावेन भूपो वेदनां न वेदयति । अथ चेल्लनावृत्तान्तं वर्ण्यते चेल्लना त्रिकालं धर्मक्रियां समाराधयति मनसि विचारयति च - 'अहो ! कर्मणां विचित्रागतिरीदृशशक्तिशालिनोऽपि भृत्योंके द्वारा सौ-सौ चाबुककी मार महाराज श्रेणिकको दिलवाता था और खान-पान भी रोक दिया था, जब मनमें आता तब खानेको देता था । इस प्रकार राजाको भूख और प्यासकी यातनासे पीडिन देखकर चलना महारानी अत्यंत दुःखित हुई और वह ग्वानेकी 'वस्तु गुप्त रीति से बांध लेती और पानीसे भींगे वस्त्र पहनकर राजाकी पास जाती थी. खाद्य वस्तु गुप्त रीतिसे राजाको खिलाती और अपने कपडे निचोड़ कर उसका पानी पीलाती और चाबुककी प्रबल चोट से उत्पन्न हुई वेदनाको शान्त करने के लिए औषधसे मिले हुए वस्त्र जलसे राजा शरीरको धोती थी, जिससे वेदना कुछ कम पडजाती थी । अब चेल्लनाके विषय में कहते हैं-चेल्लना महारानी धर्मात्मा और धर्मपरायणा थी । त्रिकाल ( प्रातःकाल, मध्याह्न और सायंकाल) धर्मध्यान करती थी और अपने पति महाराज श्रेणिकके विषयमें बोलती थी कि अहो ! कमोंकी कैसी विचित्र गति है, कि जिससे સેા સે। ચાબુકને માર મહારાજ શ્રેણુકને દેવરાવતે હતા તથા ખાવા પીવાનુ પણુ અટકાવ્યુ હતુ. પેાતાના મનમાં આવે ત્યારે ખાવાને આપતા હતા આ પ્રકારે રાજાને ભૂખ અને તરસની પીડાથી દુખી જોઈને ચેલના મહારાણી ખ઼હુ દુ:ખી થઇ અને તે ખાવાનો વસ્તુ છાની રીતે ખાધી તથા પાણીથી ભીંજાવેલા વસ્ત્ર પહેરી રાજાની પાસે જતી ખાવાની વસ્તુ છાની રીતે કાઢી રાજાને ખવરાવતી તથા પેાતાના કપડા નિચેવીને તેનુ પાણી પીવરાવતી તથા ચાણુકના સખત ઘાથી ઉત્પન્ન થતી વેદનાને શાત કરવા માટે ઔષધ લગાડેલા વઅના પાણીથી રાજાનાં શ્રીને Àાતી હતી જેથી વેદના કઈક એછી પડી જાતી હતી. હવે ચેલનાનું વૃત્તાત કહે છે-ચેલના મહારાણી ધર્માત્મા તથા ધર્મ પરાયણા હુતી ત્રિકાલ ધર્મ ધ્યાન કરતી હતી તયા પોતાના પતિ મહારાજ શ્રેણિકની ખાખતમાં કહેતી હતા કે અહા! કર્માંની કેવી વિચિત્ર ગતિ છે જેથી આવા શકિતશાળી મહા Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेल्लनावर्णनम् भूपस्यैतादृशी दशा जाता ?, केन कर्मणा-एतादृगवस्था जातेति सर्वज्ञो जानाति, सर्वज्ञमन्तरेण को नाम कर्मगति ज्ञातुं शक्नोति । हे आत्मन् ! यदि धर्मों नाराध्यते तदा तवापि तादृशी दुर्दशा भविष्यति' । ___इत्यादि स्वमनसि विचार्य चेल्लना निरन्तरं प्रवर्धमानपरिणामेन धर्मक्रियां करोति । नमस्कारपौरुपीप्रभृतिदशविधप्रत्याख्यानसमाचरणं श्रावकव्रतपरिपालनं, मार्यमाणजीवरक्षणं, स्वधर्मिपरिपोपणं, दीनाऽनाथाऽन्धपवादिकरुणाकरणं साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूपचतुर्विधतीर्थसेवाकरणमशरणाशरण्यतां ऐसे शक्तिशाली महाप्रभाववाले भूपकी भी यह दुर्दशा हो रही है, किस कर्मसे इनकी ऐसी दशा हुई है इसे तो सर्वज्ञके सिवाय कोई नहीं जान सकता है। हे आत्मन् ! अगर तु धर्मका आराधन नहीं करेगा तो तेरी भी एसी ही दुर्दशा होनेवाली है। इत्यादि कर्मकी गहन गतिको और अपने पतिकी दुर्दशाको विचारती हुई निरन्तर प्रवर्धमान परिणामसे धर्मक्रिया करती थी। नमस्कार (नवकारसी) पौरुषी आदि दस प्रकार के प्रत्याख्यान (पचखाण) नित्यप्रति करती थी। श्रावकके व्रतोंका पालन करता थी, मारेजाते हुए जीवोंको बचाती थी, साधर्मियोंका पोषण करती थी, और दीन, अनाथ, पङ्गजनोंके ऊपर परम करुणा करके अन्न, वस्त्र, ओषधि आदिके द्वारा उनके दुःखोंका निवारण करती थी। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविको रूप चार तीर्थ की सेवा करती थी। निराधारकी પ્રભાવવાળા રાજાની પણ આવી દુર્દશા થઈ રહી છે કયા કમથી તેમની આવી દશા થઈ છે તે તે સર્વજ્ઞ સિવાય કઈ જાણી શકતું નથી હે આત્મન ! અગર જો તુ ધર્મનું આરાધન નહિ કરે તો તારી પણ આવી જ દુર્દશા થવાની છે. આ પ્રમાણે કર્મની ગહન ગતિને અને પિતાના પતિની દુર્દશાને, વિચાર કરતી થકી હમેશાં પ્રવર્ધમાન પરિણામથી ધર્મક્રિયા કરતી હતી. નમસ્કાર (નવકારસી) પૌરૂષી આદિ દશ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન (પચખાણ) નિત્ય પ્રતિ કરતી હતી. શ્રાવકનાં વ્રતનું પાલન કરતી હતી. માય જતા જીવેને બચાવતી હતી. સાધમઓનું પિષણ કરતી હતી તથા દીન, અનાથ, લુલાં પાંગળા માણસેના ઉપર પરમ કરૂણા કરીને અન્ન વસ્ત્ર ઔષધ વગેરેથી તેમનાં દુઃખોનું નિવારણ કરતી હતી. સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક શ્રાવિકા રૂપ ચાર તીર્થની સેવા કરતી હતી. નિરાધારની આધાર હતી. કયા સુધી Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ निरयावलिकासूत्रे सकलजीवहितमुखपथ्यकारितां च दबाना, एवं विचित्रधर्मक्रियां कुर्वाणा विरति, त्रिकालसामायिकं च कुरुते । तथाहि-- “सा चेल्लणा भूमिथल पमज्ज, वत्थाई सव्यं पडिलेक्व भावा । बढ़ा सदोरं मुहवत्तिमासे, सामाइयं तं कुणए निकाल ||१||" छाया-"सा चेल्लना भूमिस्थल प्रमायं, वस्त्रादि सर्व प्रतिलेख्य भावात् । बद्ध्वा सदोरां मुखवस्त्रीमास्ये, मामायिकं तत् कुरुते त्रिकालम् ॥ १॥" __ अन्यदा कृणिकः सर्वालङ्कारविभूपितः स्वमातुश्चेल्लनादेव्यथरणी वन्दितुं समागतस्तत्र तामार्तध्यानयुक्तां दृष्ट्वा बन्दमानः कृणिकराजः स्वजननीं पृच्छतिआधार श्री, कहा तक कहें महारानी चेल्लना मव प्रकारसे सब जीवोंके लिए हितकारी, पथ्यकारी, और मुखकारी थी, और अनेक प्रकारसे धर्मक्रिया करती हुई शीलवत आदि आराधन करती हुई तीनों काल सामायिक करती थी। कहा है: " सा चेल्लणा भूमिथलं पमज्ज, वत्थाइ मन्वं पडिलेक्ख भावा । बद्धा सदोरं मुहबत्तिमासे, सामाइयं तं कुणए तिकालं" ॥ १ ॥ वह चेलना महारानी विधिपूर्वक पहले प्रमाणिका (पूँजनी) से भूमिको पूज लेती थी, बाद बस्त्रोंकी प्रतिलेखना (पडिलेहणा) करके मुँहपर सदोरकमुखवस्त्रिका बांधकर तीनों कालमें सामायिक करती थी। एक समय कूणिक महाराज सब अलंकार पहिने हुए अपनी माता चेल्लना महारानीके पास चरण-चन्दनके लिए आये। अपने पतिके दुःखसे दुःखित आर्तध्यानयुक्त अपनी माताको देखकर कहने કહીએ મહાગણી ચેલના સર્વ પ્રકારે બધા જેને માટે હિતકારી, પથ્યકારી અને સુખકારી હતી તથા અનેક પ્રકારે ધર્મક્રિયા કરતી થકી શીલત્રત આદિ આરાધન કરતી થકી ત્રણે કાળ સામાયિક કરતી હતી કહ્યું છે કે – "सा चेल्लणा भूमिथलं पमज्ज, वत्थाइ सव्वं पडिलेक्ख भावा । ' वद्धा मदोरं मुहवत्तिमासे सामाइयं तं कुणए तिकालं ॥ १ ॥" તે ચેતવના મહારાણું વિધિપૂર્વક પહેલાં ગુરછાથી ભૂમિને પુંજી પછી વસ્ત્રોની પ્રતિલેખના (પડિલેહણા) કરી મે ઉપર દેરા સહિત મુખવઅિંકા બાધીને ત્રણે કાલ (सवार अपार साल) सामायि४ ४२ती ती.. એક સમય કૃણિક મહારાજ બધા અલંકાર પહેરીને પિતાની માતા ચેરલના મહારાણીની પાસે ચરણ–વંદન માટે આવ્યા. પિતાના પતિના દુખથી દુખિત આતધ્યાન કરતી પિતાની માતાને જોઈને કહેવા લાગ્યા.– જનની ! હું પોતે મેટી Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ चेलनाकूणिकप्रश्नोत्तर वर्णनम् हे मातः ! यदहं खलु स्वयमेव महाराज्याभिषेकेण विशालराज्यश्रियमनुभवामि तेन किं तव मनसि सन्तोष उल्लासः प्रमोदो न वर्तते ? तुभ्यं मम भाग्योदयो न रोचते किम् ? । ततश्चेल्लणा देवी कूणिकराजमेवमवादी-हे पुत्र ! यत्वं देवगुरुसदृशपरमस्नेहानुरागरक्तं निज तातं निगडवन्धने विधाय स्वयं राज्यश्रियमनुभवसि तत्कथ तादृशेन दुष्कृतेन मम मनसि तुष्टिहीवकाशश्च । ततः कणिकः पृच्छति-हे मातः ! कथं मयि तातः स्नेहानुरागरक्तः ?, तदा सा जगाद-हे पुत्र ! यश्चोपकुरुते तमेव त्वं द्वेक्षि, पश्य-जन्मानन्तरं मदाज्ञप्तया दास्या वने त्वं विसृष्टस्तदानीं तवेयमङ्गलिः कुक्कुटेन तुण्डेन खण्डिता, अकलगे-हे जननी मै स्वयं बडे राज्य के अभिषेकसे अभिषिक्त होकर विशाल राज्यश्रीका अनुभव कर रहा है, इससे तुम्हारे मन में क्या संतोष, उल्लास, प्रमोद नहीं है ? क्या मेरा भाग्योदय तुझे इष्ट मालूम नहीं देता ? । पुत्रके ऐसे वचन सुनकर महारानी चेल्लना देवी बोली-पुत्र ! तू देव और गुरुके समान परम स्नेहेवाले अपने पिताको बन्धनमें डालकर स्वयं राजश्रीका अनुभव करता है ऐसे दुष्कृत्यसे किस तरह मेरा मन सन्तुष्ट और प्रमुदित हो सकता है ? !' । तव कूणिक महाराज बोले-हे जननी ! मेरे पिताका मुझपर किस तरहका अनुराग है ? ।' . माता चोली-वत्स ! जो तेरे उपकारी हैं, तू उन्हीका द्वेष करता है, देख-तेरे जन्म होने के बाद तुझे मेरी आज्ञासे दासीने अशोक-बाटिकामें छोड दिया था, उस समय तेरी यह अंगुली कुक्कुट-(मुर्ग) ने अपनी तीक्ष्ण चोंचसे खंडित करदी थी और तू રાજ્યના અભિષેકથી અભિષેક કરાયેલ હોઈ વિશાલ રાજ્યશ્રીને અનુભવ કરી રહ્યો છું તેથી તમારા મનમાં શું સતષ, ઉલાસ આનંદ નથી થતો? શુ મારૂ ભાગ્યોદય તમને નથી ગમતું ?. પુત્રના આવાં વચન સાભળી મહારાણી ચેલના દેવી બોલીપુત્ર! તું દેવ તથા ગુરુ સમાન પરમ સ્નેહવાળા પિતાના પિતાને બંધનમાં નાખી ને પોતે રાજ્યશ્રીને અનુભવ કરી રહ્યો છે એવા દુષ્કૃત્યથી કેવી રીતે મારું મન સતુષ્ટ તથા આન દિત રહી શકે ? ' - ત્યારે કુણિક મહારાજ બોલ્યા-હે જનની ! મારા પિતાને મારા ઉપર કેવી જાતને અનુરાગ છે? માતા કહે-વત્સ! જે તારે ઉપકારી છે તેનો જ તુ દેષ કરે છે. જે–તારે જન્મ થયા પછી મારી આજ્ઞાથી દાસીએ તને અશોકવાટિકામાં મૂકી દીધું હતું તે વખતે તારી આ આંગળી કુકડાએ પિતાની તીખી ચાંચથી ખડિત કરી દીધી હતી Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ₹ निरयावलिकामुत्रे स्मात्त्वामुपगतस्त्वदीयतातो गृहमानेपीत् । अङ्गुलित्रणव्यथान्याकुलस्त्यमुच्चैश्रीत्कुaft मनागपि शान्ति नावलम्बमान आसीः करुणया त्वत्पिता बहुविधोप चारेणाङ्गलि वेदनामपहृत्य त्वां शान्तिमुपनीतवान् एवं प्रकृत्या परमोपकारिणि पितरि कथमथान्यथा मात्रमाविष्कुर्वन् न लज्जसे ? इति चेल्लनावचनं निशम्य दीर्घ निःश्वस्य सपदि पीठादुत्थाय गृहीतपरशुः श्रेणिकबन्धनपञ्जरान्तिकं तदीयअनाथ ( निराश्रित ) होकर पडा-पडा चिल्ला रहा था। अकस्मात् तेरे पिता वहां आ पहुंचे और तुझे उठा लाये । तेरी अंगुलीका घाव चढ गया था और तू यडे जोर-जोर से रुदन करता था । जय तेरी अंगुली में पीप भरजाता था तब तुझे अत्यधिक पीडा होती और तनिक भी आराम नहीं मिलता था तब तेरे पिता तेरी तडफन और वेदनाको देख दुःखित हृदय हो करुणासे औषधि उपचार करते थे और परम स्नेहसे तेरी अंगुलीको मुंहमें लें पीपको चूसकर थूक देते थे और तुझे सब तरहसे आराम पहुंचाते थे । इस तरह स्वभावसे परमोपकारी हितैषी पिताके प्रति तृ अब कृतघ्न भावको धारण कर दुष्ट व्यवहार करता हुआ क्यों नहीं शरमाता है । इस प्रकार माताके मार्मिक और स्नेहभरे शब्दों को सुनकर कूणिकने एक arat सांस ली और उसी समय आसनसे उठ पिताके बन्धन काटनेके लिये हाथमें कुल्हाडी ली और जिस पींजरेमें श्रेणिक थे અને તુ અનાથ (નિરાશ્રિત) થઇ પડયે—પડયે રાતા હતા અચાનક તારા પિતા જ્યાં આવી ઉહાચ્ચા અને તને ઉપાડી લાવ્યા. તારી આંગળી ઉપરને ઘા વધી ગયે હતા અને તુ બહુ જોરથી ઇન કરતા હતા. તારી આંગળીમાં પીપ (પ) ભરાઇ જાતું હતું ત્યારે તને ઘણી પીડા થતી હતી, મળતા નહોતા. ત્યારે તારા પિતા તારા તડફડાટ અને થઇ દવાથી ઔષધ ઉપચાર કરતા હતા અને પરમ સ્નેહથી તારી આંગળીને મેઢામાં લઇ પરૂને ચુસીને થુકી દેતા હતા તયા તને સર્વ રીતે આરામ પહાંચાડતા હતા. આવી રીતે સ્વભાવથીજ પરમ ઉપકારી હિતેચ્છુ પિતાના તરફ તું હવે કૃતન ભાવને ધામણુ કરી દુષ્ટ વ્યવહાર કરતાં કેમ શરમાતા નથી ? જ્યારે અને તને જરા પણ આરામ વેદનાને જોઇને દુઃખીત હૃદય આ પ્રકારે માતાના માર્મિક સ્નેહ ભર્યા શબ્દો સાંભળી ફૂણિકે એક લાંબા નિઃસાસો નાખ્યું તથા તેજ વખતે આસન ઉપરથી ઊઠીને પિતાનું મધન કાપી નાખવા હાથમાં કુહાડી લીધેા અને જે પીંજરામાં શ્રેણિક હતા, તે તરફ જવા માંડયું, ५४ 1 3 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ श्रेणिकस्य माणत्यागः बन्धनं सकरुणं छेत्तुम पक्रामनि । श्रेणिकश्च परशुपाणिं कृतान्तमिवायान्तं कूणिकं विलोक्य जातवेपथुः कदुपचारेण परशुपहारेण मम प्राणानद्य हरिष्यतीति शङ्कमानो यावदसौ तदन्तिकमुपैति तावद् ‘मुद्रिकानिहिततालपुटविषमवलिह्य प्राणानत्यजत् । ततः कूणिको मृतकृत्यं विधाय निजदुराचारं चिन्तयनात्मनि परं ग्लायन् गृहमागतः, राज्यभारं वहन् कियता कालेन विशोको जातः । परञ्च यदा यदा पितुः शयनासनादीनि वस्तूनि विलोकयति तदा तदा तस्यू परमखेदो जायते, तेन राजगृहानिर्गत्य चम्पायां राजधानी चकार । तत्र निजभ्रातृगणसहितः कूणिको राज्यं बुभोज’ ॥ इति कूणिकविवरणम् ॥ उस तरफ जाने लगा, जब श्रेणिकने कुणिकको कुठार हाथमें लेकर आते हुए देखा तब भयसे धूजते हुए श्रणिकको शंका हुई कि यह कुठार लिये हुए यह यमके समान मेरे पास आ रहा है मुझे न जाने किस कुमौतसे मारेगा ?, ऐसा विचार कर जब तक वह समीप आता है उतने ही समयमें उन्होंने अपनी शुद्रिकामें लगा हुआ तालपुट विषको चूसकर अपने प्राणोंको छोड दिया । बाद यह देखकर कूणिक बहुत दुःखित हुआ और पिताका दाह संस्कार आदि मृतककार्य करके अपने दुराचारोंकी मन ही मन निन्दा करता हुआ विषादयुक्त हो अपने घर आया । राज्यभारको वहन करते हुए उसे कुछ दिनोंके वाद पिताका शोक विस्मृत होने लगा किन्तु जघ-जब पिताके शयन, आसन आदि वस्तुओंको देखता तय-तब कूणिक राजाके मनमें बडा दुःख उत्पन्न होता, इस कारण જ્યારે શ્રેણિકે કૃણિકને યમરાજ સમાન કુહાડી હાથમાં લઈને આવતે જે ત્યારે ભયથી ધ્રુજતા શ્રેણિકના મનમાં શંકા થઈ કે-રમે આ કુહાડી લઈને યમના જેવો મારી પાસે આવી રહ્યો છે અને મને ન જાણે કેવા કુમેતથી મારશે. એમ વિચારી જ્યાં સુધી તે પાસે આવી પહોંચે તેટલાજ વખતમાં તેમણે પિતાની વીંટીમાં લગાડેલ તાલપુટ વિષને ચૂસીને પિતાના પ્રાણ ત્યાગ કર્યો. બાદ આ નેઈ કૃણિક બહુ દુઃખિત થયે તથા પિતાના દેહનો અગ્નિસંસ્કાર આદિ મૃતક કર્મ કરીને પિતાના દુરાચારની મનમાં ને મનમાં નિંદા કરતે થકે ખેદયુક્ત થતા પિતાને ઘેર આવ્યે રાજ્યના ભારને વહન કરતાં ડા દિવસ પછી પિતાને શોક ભૂલાવા લાગે પણ જ્યારે-જ્યારે પિતાનું બિછાનું આસન વગેરે વસ્તુઓને જેતે ત્યારે ત્યારે કૃણિક રાજાના મનમાં બહુ દુખ થતું હતું. આ કારણથી રાજગૃહ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकास्त्रे कूणिकस्य युद्ध साहाय्यविधायकानां कालादिदशकुमाराणां रथमुशलनामकसङ्ग्रामे प्रचुरजनविनाशकरणेन नरकपायोग्यकर्मसम्पादनहेतोर्निरयगामित्वेन कालादिदशकुमारविवरणग्रथितस्य प्रथमाध्ययनस्य 'निरयायुः' इति नाम । अथ रथमुशलाभिधानसङ्ग्रामाविर्भावे कारणमुच्यते, तथाहि-चम्पायां नगया कूणिको राजा राज्यशासनं करोति । तदीयावनुजी बैदल्य-बैहायसौ पितृदत्तसेचनकहस्तिनमाख्टौ दिव्यकुण्डलवसनहारालङ्कृती विलसन्ती कणिकराजगृह नगरको छोडकर राजाने अपनी राजधानी चम्पानगरीमें की और वहां अपने भाइयों व कुटुम्बियोंके सहित रहकर राज्य करने लगे। , इसप्रकार महाराज कणिकका वर्णन यहां पर समाप्त होता है। रथमुशल संग्रामका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है: कणिक राजाके युद्ध में सहायता करनेवाले कालकुमार आदि दम कुमारोंने रथमुगल संग्राममें बहुत जनोंके विनाश करनेके कारण नरकप्राप्तिरूप कर्मोंका उपार्जन किया और नरकगामी बने, उन्हीं दस कुमारोंका वर्णन इस प्रथम अध्ययनमें है, इस कारण इसका 'निरयायु' नाम है। अब रथनुशल संग्रामकी उत्पत्तिका कारण कहते हैं चम्पानगरीमें कूणिक राजा राज्य करते थे । उनके वैहल्य और हायस, ये दो छोटे भाई थे । वे पिताके दिये हुए सेचनक हाथीपर चढकर दिव्य कुण्डल वस्त्र और हारको पहनकर विलास નગરને છોડીને રાજાએ પિતાની રાજધાની 2 પાનગરીમાં કરી અને ત્યાં પિતાના ભાઈઓ તથા કુટુંબિઓ સાથે રહીને રાજ્ય કરવા લાગ્યા ' આ પ્રમાણે મહારાજ કૂણિકનું વર્ણન અહીં સમાપ્ત થાય છે રથમુશલ સ ગ્રામનું સ ક્ષિપ્ત વર્ણન આ પ્રકારે છે– * કૂણિક રાજાને યુદ્ધમાં સહાયતા કરવાવાળા કાલકુમાર આદિ દશ કુમારને રથમુશલ સંગ્રામમાં ઘણા માણસોને વિનાશ કરવાના કારણથી નરકપ્રાપ્તિરૂપ કમેનું ઉપાર્જન કર્યું તથા નગ્મગામી બન્યા તેજ દશ કુમારનું વર્ણન આ પ્રથમ અધ્યયનમાં છે. આ કારણથી આનું “નિરયાયુ” નામ છે હવે રથમુશલ સગ્રામની ઉત્પત્તિનું કારણ કહે છે – ચ પાનગરીમાં કૃણિક રાજા રાજ કરતા હતા. તેમને વૈહય તથા વૈપાયસ એ બે નાનાભાઈ હતા. તેઓ પિતાએ આપેલા સેચનક હાથી ઉપર બેસીને દિવ્ય કુંડલ, Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ रथमुशलसङ्ग्रामकारणवर्णनम् राजमहिषी पद्मावती निरीक्ष्य सेचनकगजमपहर्तुं कूणिकं प्रेरितवति । कूणिकेन नेकधा विज्ञाप्यमानाऽपि हस्तिहरणनिषक्तमानसा ततो न निवृत्ता। ततः पद्मावतीमेरितः कूणिको हस्तिनं तौ याचते । हस्तियाचने कृते वैहल्यवहायसौ सपरिवारौ सान्तःपुरौ कूणिकमयाद् विशाल्यां नगया चेटकनामधेयं स्वमातामई राजानं प्रपन्नौ । कूणिकेन दूतप्रेपणेन स्वकीयानुजौ चेटको याचितः, परञ्च चेटकेन तौ न मेषितौ, किन्तु दूतद्वारा कूणिकनिकटे संवादः प्रहितः-राज्यभागमाभ्यां यदि दास्यसि तदाऽमू हारहस्तिनौ च मेषयिष्यामीति । ततः कणिकः कोपारुणनयनयुगलो वार्ता प्रेषयामास-यदि तौ वैहत्य-वैहायसौ न प्रेषयसि तदा युद्धाय संनदो भव । चेटकेनोक्तम्-अहमपि संनद्धोऽस्मि ।। करते थे। उन्हें देखकर पद्मावती रानीने सेचनक हाथीको अपने अधीन करनेके लिये कूणिकको प्रेरित किया। भ्रातृप्रेमके कारण कूणिकके बहुत समझाने पर भी रानीका मन हाथीसे नहीं हटा । अन्तमें पद्मावतीकी बात मानकर कूणिकले दोनों भाइयोंसे हाथीकी याचना की। हाथीकी याचना करनेपर दोनों भाई भयभीत हो अपने परिवार सहित विशाला नगरीमें अपने नाना चेटक महाराजके पास चले गये । कूणिकने दूतद्वारा राजा चेटकसे हार और हाथी सहित भाइयोंको मांगा। तब चेटकने दूतद्वारा कूणिकको यह समाचार भेजायदि तुम राज्यका भाग इन दोनोको देते हो तो इनको तथा हार एवं हाथीको भेज सकते हैं। यह सुनकर महाराज कणिककी आँखें लाल हो गयीं और उन्होंने सन्देश भेजा-यदि हार हाथीके साथ વઓ તથા હાર પહેરીને વિલાસ કરતા હતા તેમને જોઈને પદ્માવતી રાણીએ સેચનક હાથીને પિતાના કબજામાં લેવા માટે કૃણિકને પ્રેરણ કરી ભ્રાતૃપ્રેમને લીધે કૃણિકે. બહુ સમજાવી છતા પણ રાણુનુ મન હાથીથી હઠયું નહિ આખરે પદ્માવતીની વાત માનીને કૂણિકે બન્ને ભાઈઓ પાસેથી હાથી મા હાથી માગવાથી બન્ને ભાઈને બીક લાગી અને પિતાના પરિવાર સાથે વિશાલાનગરીમાં પોતાના નાના ચેટક મહારાજની પાસે ચાલ્યા ગયા કૃણિકે દૂત દ્વારા રાજા ચેટક પાસે હાર તથા હાથી સહિત ભાઈઓ માંગ્યા ત્યારે ચેટકે દૂત દ્વારા કૃણિકને આ સમાચાર મેકલ્યા “જે તમે રાજ્યને ભાગ આ બન્નેને દેતા હે તે તેઓને તથા હાર તેમજ હાથીને મોકલી શકું ” આ સાંભળી મહારાજ કૃષિકની આંખો લાલ થઈ ગઈ તથા તેમણે સ દેશ મલ્યા જે હાર Page #392 --------------------------------------------------------------------------  Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ सङ्ग्रामवर्णनम् सैन्यद्ले गरुडव्यूहः, चेटकसैन्ये च सागरव्यूहो निर्मित आसीत् । ततश्च प्रथमेऽहि कणिकराजस्य कालकुमारोऽनुजो निजसैन्ययुतः सेनापतिः स्वयं युध्यमानश्चेटकेन निक्षिप्तेनामोधेनैकेन शरेण निहतः । कणिकसैन्यं च भग्नम् । ततो द्वयोरपि राज्ञोबलं निजं निजं स्थान प्राप्तम् ।। द्वितीयेऽति सुकालो निजसैन्यसमन्वितो रणमुपगतो युध्यमानश्चेटके नैकेन शरेण निपातितः । एवं तृतीयेऽति महाकालः, चतुर्थे दिने कृष्णकुमारः, पश्चमे दिवसे सुकृष्णकुमारः, षष्ठे महाकृष्णः, सप्तमे वीरकृष्णः, अष्टमे रामकृष्णः, नवमे पिसेनकृष्णः, दशमे दिने पितृमहासेनकृष्णश्च चेटकेनैकैकेन बाणेन प्रत्यहमेकैकशः कालादयो दश कुमारा निहताः। दशसु निहतेषु कूणिकएकही अमोध बाण छोडते थे। वहा कूणिकके सैन्यमें गरुडव्यूह था और चेटक (चेडा) के सैन्याने सागरव्यूह । उसके बाद पहिले दिनमें कूणिक राजाके छोटे भाई कालकुमार अपनी सेना सहित सेनापति बनकर स्वय चेटक-(चेडा) महाराजके साथ लडता हुआ उनके अमोघ बाणसे मारा गया । और कणिककी सेना नष्ट होगयी। दूसरे दिन सेनासहित लुकालकुमार युद्धमें चेटकके बाणसे मारे गये । इसी तरह तीसरे दिन महाकाल कुमार, चौथे दिन कृष्ण कुमार, पॅचवें दिन सुकृष्णकुमार, छठे दिन महाकृष्ण कुमार, सातवें दिन वीरकृष्ण कुमार, आठवें दिन रामकृष्ण कुमार, नवमें दिन पितृसेनकृष्ण कुमार और दसवें दिन पितृमहासेनकृष्ण कुमार चेटकके एक-एक बाणसे मारे गये । दसों कुमारोंके मारे जाने पर દિવસમાં એકજ અમેઘ બાણ છોડતા હતા આ તરફ કુણિકના સૈન્યમા ગરૂડ-બૃહ હત તથા ચેટક (ચેડા)ના સૈન્યમાં સાગર-બૃહ હતું ત્યાર પછી પહેલે દિવસે કુણિક રાજાનો નાનો ભાઈ કાલકુમાર પિતાની સેના સહિત સેનાપતિ બનીને પિતે ચેટક ( ચેડા) મહારાજની સાથે લડતા લડતા તેના અમોઘ બાણથી માર્યો ગયે, અને કૂણિકની સેનાનો નાશ થઈ ગયે બીજે દિવસે સેના સાથે સુકલકુમાર યુદ્ધમા ચેટકના બાણથી માર્યા ગયા. આવી રીતે ત્રીજે દિવસે મહાકાલ કુમાર, ચોથે દિવસે કૃષ્ણકુમાર, પાંચમે દિવસે સુકૃષ્ણ કુમાર, છઠું દિવસે મહાકૃષ્ણ કુમાર, સાતમે દિવસે વીરકૃષ્ણ કુમાર, આઠમે દિવસે રામકૃષ્ણકુમાર, નવમે દિવસે પિતૃસેનકૃષ્ણકુમાર, તથા દશમે દિવસે પિતૃમહાસેનકૃષ્ણકુમાર, ચેટકના એક-એક બાણથી માર્યા ગયા દશેય કુમારના માર્યા ગયાથી Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे ६० थ्रेटकं जेतुं देवाराधनायाष्टमभक्तं कृतवान् । ततः शक्रचमरौ द्वौ देवेन्द्रौ प्रसनी समागतौ । तत्र शक्र उवाच - चेटको व्रतधारी श्रावकोऽस्तीत्यतस्तं न हनिष्यामि, परं त्वां रक्षितुं शक्नोमि, कूणिकेनोक्तं तथाऽस्तु ततः शक्रस्तद्रक्षणाय वज्रकल्पमभेद्यकवचं त्रिकुर्वितवान् । चमरथ - 'महाशिलाकण्टक' 'स्थमुगल' चेति द्वी सङ्ग्राम विकुर्वितवान, तत्र महाशिलेव प्राणापहारकत्वात् कण्टको 'महाशिलाकण्टक' इत्युच्यते । अथवा - तृणाग्रेणापि तस्य गजाश्वादेर्महाशिलाकण्टकेन तस्येव वेदना यत्र भवति स सदग्रामो 'महाशिलाकण्टक' इत्युच्यते । 'चेटकको जीतें' इस भावसे कणिक राजाने देवताको आराधन करनेके लिए अष्टमभक्त किया । उसके बाद शकेन्द्र और चमरेन्द्र प्रसन्न हुए और कूणिकके पास आये। उनमें से केन्द्र बोले- हे कूणिक ! चेटक ( चेडा) राजा व्रतधारी श्रावक है इस लिए हम उसे नहीं मार सकते, पर तेरी रक्षा कर सकते हैं । केन्द्रके मुखसे निकले हन चचनोंको श्रवणकर कूणिकने 'तथास्तु' कहा | कूणिक के 'तथास्तु' कहने याने स्वीकार करलेनेके बाद शकेन्द्र कूणिककी रक्षा के लिएवज्रसह अमेय कवच वैक्रियक्रिया से बनाया । चमरेन्द्रने महाशिला - कंटक और रथमुशल नामक संग्राम विकुर्वित किया । 'महाशिलाकण्टक' - जो महाशिलाके समान प्राणोंका कंटक अर्थात् घातक है वह महाशिलाकंटक कहलाता है, अथवा तिनकेकी नोंक से मारनेपर भी हाथी घोडे आदिको महाशिलाकंटकसे मारने जैसी तीव्र ‘ચેટકને છતુ' એવા ભાવથી કૃણિક રાજાએ દેવતાનું આરાધન કરવા માટે અહેમ ( ૩ ઉપવાસ ) કર્યાં તેથી શકે તથા ચમરે પ્રસન્ન થયા તયા કૃણિકની પાસે याव्या. तेभांथी शहेन्द्र मोट्या - हे लिए ! २४ ( भेडा ) रान्न વ્રતધારી શ્રાવક છે તેથી અમે તેને નહિ મારી શકીએ, પશુ તારી રક્ષા કરી શકીએ, શક્રેન્દ્રના મુખથી નિકળેલાં આ વચના સાભળીને કૃણિક તથાસ્તુ ’ કછું. કૃણિકના ‘તથાસ્તુ’ હેવાથી એટલે સ્વીકાર કરી લીધા પછી શક્રેન્દ્રે કેણિકની રક્ષાને માટે વજના જેવુ અભેદ્ય કવચ વૈક્રિય ક્રિયાથી બનાવ્યુ. ‘ ચન્દ્રે મહાશિલાક ટક તથા થમુશલ નામે ગ્રામ વિકૃવિત કર્યાં, ‘મહાશિલાક ટક’--જે મહાશિલાના જેવા પ્રાણેાના કટક અર્થાત્ ધાતક છે. તે મહાશિલાર્ક ટક કહેવાય છે, અથવા તણુખલાની અણીથી મારવાથી પણ હાચી ઘેાડા આદિને મહાશિલાક ટકથી મારવા જેવી તીવ્ર વેદના થાય છે, એ સંગ્રામને ‘મહાશિલાક ટક ' કહે છે. - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ सङ्ग्रामवर्णनम् 'रथमुशलं चेति-मुशलेन सहितो रथस्तस्मात् निस्सरन्मुशलो धावमानो जनसमुदाय यत्र विनाशयति स सामो 'रथमुशल' इति निगद्यते ॥ १२ ॥ तत्र कुणिकेन सह कालः स्ववलसमन्वितः स्थमुशलसङ्ग्राममुपयातः, इत्याशयकं सूत्रमाह-'तएणं से काले' इत्यादि । । ___मूलम्-तएणं से काले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं, तिहिं रहसहस्सेहि, तिहिं आससहस्सेहि, तिहिं मणुयकोडीहि गरुडवूहे एकारसमेणं खंडेणं कूणिएणं रन्ना सद्धिं रहमुसलं संगामं ओयाए ॥ १३ ॥ छाया-ततः खलु स कालः कुमारः अन्यदा कदाचित् त्रिभिर्दन्तिसहस्रः त्रिभी रथसहस्रः, त्रिभिरश्वसहस्रः त्रिभिर्मनुजकोटिभिः गरुडव्यूहे एकादशेन खण्डेन कूणिकेन राज्ञा साई रथमुशलं सग्रामम् उपयातः ॥ १३ ।। टीका-'तएणं से' इत्यादि-ततः सङ्ग्रामनिर्णयानन्तरं सा=असौ प्रथमः काला कालकुमारः अन्यदा-अन्यस्मिन् कदाचित् कस्मिंश्चित् समये त्रिभिः त्रिसंख्यकैः, दन्तिनां हस्तिनां सहस्राणि-दन्तिसहस्राणि तैस्तथा, त्रिभी रथसहस्रः, त्रिभिरश्वसहस्रैः, त्रिभिर्मनुजकोटिभिः सह गरुडव्यूहे एकादशेन खण्डेन वेदना होती है उस संग्रामको ‘महाशिलाकंटक' कहते हैं। 'रथमुशल'-मुशलयुक्त रथको 'रथमुशल' कहते हैं, अर्थात्रथसे- निकलकर मुशल बहुत वेगसे दौडकर शत्रुपक्षका विनाश(संहार) करता है उस संग्रामको 'रथमुशल' कहते हैं । ॥ १२ ॥ वहाँ कूणिकके साथ कालकुमार अपनी सेना लेकर रथमुशल संग्राममें उपस्थित हुए, इस आशयका सूत्र कहते हैं-'तएणं से काले' इत्यादि । संग्रामके निश्चित होजानेके पश्चात् वह कालकुमार नियत રથમુશલ–મુશલયુક્ત રથને “રથમુશલ” કહે છે. અર્થાત રથમાંથી નીકળી મુશલ બહુ વેગથી દેડીને શત્રુપક્ષને વિનાશ (સંહાર) કરે છે. એ સંગ્રામને “२यभुशल" डे छे (१२) ત્યાં કણિકની સાથે કાલકુમાર પિતાની સેના લઈને રથમશલ સ ગ્રામમાં ઉપસ્થિત यया मा माशयतु सूत्र ४ छ तएणं से काले' इत्यादि સંગ્રામનેં નિશ્ચય થઈ ગયા પછી તે કાલકુમાર નિશ્ચિત વખતે ત્રણ ત્રણ હજાર Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रे =अंगेन सहितेन एकादशभागिना कूणिकेन राज्ञा साई रथमुशलं तदाख्यं सङ्ग्रामम् उपयातः-उपगतः प्राप्त इत्यर्थः ॥ १३ ॥ ___मूलम्-तएणं तीसे कालीए देवीए अन्नया कयाइ कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु मम पुत्ते कालकुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहि जाव ओयाए, से मन्ने कि जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जीविस्सा नो जीविस्सइ ? पराजिणिस्सइ ? णो पराजिणिस्सइ ? काले पं कुमारे णं अहं जीवमाणं पासिज्जा ? ओहयमण जाव झिग्याइ ॥ १४ ॥ छाया-ततः खलु तस्याः काल्या देव्या अन्यदा कदाचित् कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खलु मम पुत्रः कालकुमारः त्रिभिAन्तिमहः यावत् उपयातः तन्मन्ये किं जेप्यति ? न जेप्यति ? जीविष्यति ? न जीविष्यति ? पराजेयते ? न पराजेयते ? कालं खल कुमारम् अहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? अपहतमनःसंकल्पा यावत् ध्यायति॥१४॥ टीका-'तएणं तीसे' इत्यादि । ततः युद्धप्रवर्तनानन्तरम् अन्यदा कदाचित् एकरिमन् दिने कुटुम्बजागरिका:-कुटुम्बः स्वजनवर्गः पोष्यवर्गादिस्तदर्थ जागरिकां-जागरणमिन्द्रियेविपयज्ञानयोग्यावस्थां जाग्रत्याः प्राप्नुवत्याः, तस्याः काल्या देव्याः अयम्=एपः एतद्रूप वक्ष्यमाणलक्षणः आध्यात्मिका आत्मसमयपर तीन २ हजार हाथी-घोडे-रथ आदि, एवं तीन करोड पैदल सेनाको लेकर गरुडव्यहमें, ग्यारहवें अंशके भागी राजा कूणिकके साथ 'स्यमुशल' संग्राम में उपस्थित हुआ ॥ १३ ॥ 'तएणं तीसे' इत्यादि. संग्राम आरम्भ होनेपर इधर एक समय कुटुम्बजागरणा करती हुई काली महारानीके हृदय में वृक्षके अङ्करसमान 'आध्यात्मिक' હાથી ઘેડા શ્વ આદિ અન ત્રણ કરોડ પાયદળ સેનાને લઈને ગરૂડ બૃહમાં અગીયારમા ભાગના ભાગીદાર રાજા કિની સાથે “રથમૂશલ સગ્રામમાં ઉપસ્થિત થયા. (૧૩) 'तएणं तीसे 'त्यादि સંગ્રામના આર ભ થતા એક વખત કુટુંબ-જગરણ કરતી કાલી મહારાણીના હૃદયમાં વૃક્ષના અંકુરની પેઠે “આધ્યાત્મિક અર્થાત્ આત્મવિષયક વિચાર ઉત્પન્ન Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कालीदेव्याः विचारदर्शनम् विषयो विचारः वृक्षस्याङ्कुर इव, यावत्करणात्-"चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे " इति संगृह्यन्ते, तदनु चिन्तितःपुनः पुनः स्मरणरूपो विचारः द्विपत्रित इब, ततः कल्पितः स एव व्यवस्थायुक्तः पुत्रविषयको विचारः पल्लवित इव, प्रार्थितः स एत्र इष्टरूपेण स्वीकृतः पुष्पित इव, मनोगतः संकल्पः मनसि इष्टरूपेण निश्चयः फलित इव समुदपद्यत जातः । अर्थात् आत्मविषयक विचार उप्तन्न हुआ । वह - 'चिंतित ' अर्थात् वारवार स्मरणसे 'विपत्रित' के समान, 'कल्पित' वही पुत्रविषयक विचार व्यवस्थायुक्त होनेसे 'पल्लवित' के समान, 'प्रार्थित ' मनमें विचार स्वीकृत ह जाने के कारण पुष्पित ' के समान, 'मनोगत संकल्प' वही इष्ट रूपसे मनमें निश्चित होजानेके कारण 'फलित, के समान अवस्थाको प्राप्त हुआ । __ भावाथ-संग्रामके प्रारम्भ होजाने पर महारानी कालीके हृदयमें पुत्र स्नेहके कारण एक समय वृक्षके अंकुरके सदृश आत्मिक भाव अंकुरित हुए, पश्चात् वेही विचार बारबारके चिन्तन-स्मरणसे द्विपत्रित अर्थात् जैसे वीजसे अंकुर और अंकुरके कुछ बढनेपर दो कोमल किशलय - दो नये पत्ते निकलते हैं, उसी प्रकार विचारोंका स्वरूप वढा, बाद वेही वात्सल्यमय विचार 'कल्पित' याने पल्लवितअधिक पत्रोंके रूपमें अग्रसर हुए, पश्चात् मनमें बढते- पनपते हुए उन विचारोंके 'प्रार्थित' होजानेपर याने अपने विश्वाससे स्वीकृत होजाने पर पुष्पित' फूले हुए के समान होगये और अन्तमें जब થયે તે “ચિતિત =અર્થાત વારવાર મરણથી દ્વિપત્રિત સમાન, કલ્પિત =તે પુત્ર વિષે વિચાર વ્યવસ્થાયુક્ત થવાથી પલવિતના સમાન, “પ્રાર્થિત”=મનમાં વિચારને સ્વીકાર થઈ જવાથી પુષ્પિતના સમાન મનોગત સંકલ્પ=ને ઈષ્ટરૂપથી મનમાં નિશ્ચય જ થઈ જવાથી ફલિતના સમાન અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયે ભાવાર્થ–સ ગ્રામ શરૂ થઈ જતા મહારાણું કાલીના હૃદયમાં પુત્ર-સ્નેહના કારણે એક વૃક્ષના ફણગા જેવા આત્મિક ભાવ એ કુરિત થયા પછી તે જ વિચાર વારંવારના ચિતન સ્મરણથી દ્વિપત્ર અર્થાત્ જેમ બીજમાંથી અંકુર અને અકુર જરા વધવાથી બે કેમલ કિસલય–બે નવાં પાદડા નિકળે છે તેવી જ રીતે વિચારોનું સ્વરૂપ વધવા બાદ તેજ વાત્સલ્યમય વિચાર “કલ્પિત” અર્થાત્ “પલ્લવિત’ વધારે પાદડાંના રૂપમાં આગળ આવે–પછી મનમા વધતા–વિસ્તાર પામતા તે વિચારે “પ્રાચિંત” થઈ જતાં યાને પિતાનાજ વિશ્વાસથી સ્વીકારાઈ જવાથી પુષ્પિત ફલની પેઠે થઈ ગયા તથા Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ - निरयावलिकासूत्रे संकल्पस्वरूपमाह-'एवं खल्वि'-त्यादिना । मम पुत्र: आत्मजः कालकुमारः विभिर्दन्तिसहस्रम् त्रिसहस्रसंख्यकगजेः, यावत्करणात्-स्थानामश्वानाच त्रिभिः सहस्रर्मनुष्याणां च त्रिमृभिः कोटिभिः सह उपयातः सङ्ग्रामाय गतः, तन्मन्येतत् संदिहे-कि जेष्यति ? सङ्ग्रामे शत्रूनभिभूय प्रतापं प्राप्स्यस्यति ?, अथवा-न जेष्यति ?, जीविष्यति ?-प्राणधारणं करिष्यति ? अथवा-न जीविप्यति ? पराजेष्यते ? शत्रुतः पराम्तो भविष्यति ? वा न पराजेष्यते ? अहं काल कुमारं स्वपुत्रं खलु-निश्चयेन जीवन्तं = प्राणयुक्तं द्रक्ष्यामि-प्रेक्षिप्ये, इत्येवम्, 'अपहतमनःसंकल्पा'-अपहतो-मलिनीभूतो मनःसंकल्पो-योग्याऽयोग्य विचारो यस्याः सा तथा, यावत्करणात्-करयलपल्हत्थियमुही, अट्टज्झाणोवगया, ओमंथियणयणवयणकमला, दीणविवनवयणा, मणीमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूया' एतेपां सङग्रहः । करतलपर्यस्तितमुखी, आतध्यानोपगता, अवमथितनयनवदनकमला, दीनविवर्णवदना, मनोमानसिकेन दुःखेन अभिभूता, इतिच्छायाः, 'करउनपर दृढ संकल्प होगया तब वे फलितसमान अवस्थाको प्राप्त हुए याने वृक्षके फलके समान फलरूप बन गये । ___ अब महारानी कालीके विचारका स्वरूप कहते हैं-' एवं खल' इत्यादि । मेरा पुत्र कालकुमार तीन२ हजार हाथी घोडे रथ और तीन कोटि सेनाके साथ संग्राममें गया है। मेरे मनमें इस बातका संशय आ रहा है कि वह युद्ध में शत्रुओं पर विजय पावेगा अथवा नहीं ? वह जीवित रहेगा या नहीं ? । शत्रु उससे पराजित होंगे या नहीं। में अपने लाल कालकुमारको जीवितावस्थामें देखूगी या नहीं ? । इस प्रकारके अनेक संशयात्मक विचार करने लगि । ऐसे कर्तव्याकर्तव्यके આતમાં જ્યારે તેના ઉપર દઢ સંક૯પ થઈ ગયે ત્યારે તે “ફલિત' જેવી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે અર્થાત્ વૃક્ષના ફળની જેમ ફલરૂપ થઈ ગયા वे भाel seीना वया२ (४६५)न २१३५४ छ-"एवं खल' त्याहि. મારો પુત્ર કાલ કુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ સેનાની સાથે સંગ્રામમાં ગયે છે મારા મનમાં આ વાતને સશય આવે છે કે તે યુદ્ધમાં શત્રુઓ ઉપર વિર્ય મળવશે કે નહિ તે જીવિત રહેશે કે નહિ? તેનાથી શત્રુ પરાજય પામશે કે નહિ ? હું મારા લાલ કાલકુમારને જીવિત અવરથામાં જોઈશ કે નહિ ? આ પ્રકારના અનેક સંશયાત્મક વિચાર કરવા લાગી એવા કર્તવ્ય અકર્તવ્યના Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, अ. १ कालीराशाः विचारः ६५ तले 'ति - करतले - हस्ततले पर्यस्तितं = स्थापितं मुखं यया सा तथा, 'आर्ते'ति—ऋतं=दुःखं पुत्रविरहजन्यं तत्र भवमार्तं तच्च ध्यानं, तत्रोपगता=पुत्रत्रिरहजन्यदुःखान्वितध्यानयुक्तेत्यर्थः, 'अवमथिते 'ति - अवमथितानि = अधः कृतानि नयनबदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा प्रबलदुःखेन निम्नम्लान नेत्रमुखकमलेत्यर्थः, 'दीने 'ति - दीनस्य = अकिंचनस्येव विवर्ण = कान्तिरहितं मुखं यस्याः सा तथा= शोकम्लानवदनेत्यर्थः, 'मनोमानसिकेने 'ति मनसि भवं मानसिकं दुःखं मनस्येव, न बहिः, वचनादिभिरप्रकाशितत्वात् यत् तन्मनोमानसिकं, तेन दुःखेन अभिभूता = व्याप्ता, शोकसागरप्रविष्टा ध्यायति = आर्तध्यानं करोति, इति ॥ १४॥ मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए । परिसा निग्गया । तए णं तीसे कालीए देवी, इमीसे कहाए लद्धट्टाए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था ॥ १५॥ छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रवणो भगवान् महावीरः समसृतः । परिषत् निर्गता । ततः खलु तस्याः काल्याः देव्याः एतस्याः कथायाः लब्धार्थायाः सत्याः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत ॥ १५ ॥ विचार और उनका निर्णय जब शिथिल अवस्थाको धारण करने लगे तब सहसा रानीका मन मलिन होगया और हथेलीपर अपना मुँह रखकर पुत्र विरहके दुःखसे क्षुब्ध रानी आर्तध्यान करने लगी । अत्यन्त दुःखके कारण कुम्हलाये हुए कमलके समान नेत्र और मुखको नीचा किये हुए बैठ गई, उसका मुख दीनजनके समान शोकाच्छादित - उदासीन हो गया । वह मानसिक दुःखोंसे घिरी हुई शोक सागर में डूबी हुई आर्तध्यानपरायणा थी । ॥ १४ ॥ વિચાર તથા તેના નિ ય જ્યારે શિથિલ અવસ્થાને ધારણ કરવા લાગ્યા ત્યારે એકદમ રાણીનું મન મિલન થઇ ગયુ તથા હથેળી ઉપર પોતાનું મે રાખીને પુત્ર વિરહના દુ:ખથી પીડાતી રાણી આત ધ્યાન કરવા લાગી અત્યત દુઃખને લીધે કરમાઈ ગયેલાં કમળના જેવાં નેત્ર તથા મુખને નીચુ કરીને બેસી ગઇ તેનુ મુખ ગરીખ માણુસના જેવું ચેકાચ્છાદિત ( દીલગીરીથી છવાઈ ગયેલુ. ) ઉદાસીન થઇ ગયુ તે માનસિક દુ:ખેાથી ઘેરાયેલી શેાકના સાગરમાં ડૂખી જવાથી આધ્યાનપરાયણા હતી ( ૧૪ ) 1 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयालिका सु टीका- 'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन समये श्रमणां भगवान् महावीरः समवसृतः = सदेवमनुप्यपरिपदि भव्यानुपदेष्टुं समुपस्थितः, परिपत्= जनसमुदायः निर्गता = गृहान्निस्सृता । ततः परिपन्निर्गमनानन्तरं खलु= निश्चयेन तस्याः पूर्वोक्तायाः प्रसिद्धाया वा, काल्या देव्याः एतस्याः =समीपतरवर्तिन्याः : कथायाः लव्धार्थायाः - लोsर्थी यया सा तस्याः प्राप्तार्थाया इत्यर्थः अयम् एतद्रूपः = वक्ष्यमाणस्वरूपः 'आध्यात्मिकः " आत्मनि विचारः यावत्पद्गृहीतानां 'चितिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे' एतेषां च व्याख्याऽव्यवहितपूर्वसूत्रोक्तरीत्या विज्ञेया, समुदपद्यत ॥ १५ ॥ ६६ तदेव दर्शयति-- ' एवं खलु' इत्यादि । मूलम् - एवं खलु समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुवि० इहमागए जाव विहरड़, तं महाफलं खलु तहारूवाणं जाव विलस्त अस्स गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं जाव पज्जुवासामि, इमं च णं एयारूवं वागरणं पुच्छिस्सामित्तिक एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी - विपामेव भो देवाशुप्पिया ! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तमेव उवटुवेह, उवचित्ता जाव पञ्चप्पिति ॥ १६ ॥ ' तेणं काळेणं' इत्यादि । उम काल उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी उस नगरीमें पधारें। देवता और मनुष्यांकी सभा में भव्यांको धर्म देशना देने लगे । धर्मकथा श्रवण करनेके लिए परिषद निकली | भगवान यहाँ पधारे है; ऐसा वृत्तान्त सुनकर काली रानीके मनमें वक्ष्यमाण आगे कहे जानेवाले विचार उत्पन्न हुए | ॥ १५ ॥ " तेणं काळेण ' इत्याहि તે કાળે તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવી સ્વામી તે નગરીમાં પધાર્યા. દેવતા તથા મનુષ્યેની સભામાં ઊગ્યેને ધર્મદેશના દેવા લાગ્યા. ધ કથા સાભળવા માટે પરિષદ નીકળી ભગવાન અહીં પધાર્યા છે એવા વૃત્તાન્ત સાંભળી કાઢી રાણીના મનમા વક્ષ્યમાણુ-આ પ્રમાણે વિચાર ઉત્પન્ન થયા. (૧૫) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कालीराज्ञाः विचारः छाया-एवं खलु श्रमणो भगवान महावीरः पूर्वानुपूर्व्या० इहागतः वावद् विहरति, तन्महाफलं खलु तथारूपाणां यावत् विपुलस्यार्थस्य ग्रहणतया तद्गच्छामि खलु श्रमणं यावत् पर्युपासे, इदं च खलु एतद्रूपं व्याकरणं प्रक्ष्यामि, इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एत्रमवादी-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! धार्मिक यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थापयत, उपस्थाप्य यावत् प्रत्यर्पयन्ति ॥ १६ ॥ टीका-एवं खलु यत्-श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्वी यथाक्रम, यद्वा-पूर्वेषां तीर्थंकराणां या आनुपूर्वी परिपाटी मर्यादेत्यर्थः, तां चरन्= आचरन् परिपालयन्नित्यर्थः, “गामाणुगामं दूइज्जमाणे "ग्रामानुग्रामं द्रवन् 'प्रामानुग्रामम्'-एकस्माद् ग्रामाद् अनु पश्चाद् यो ग्रामस्तम्, अर्थादनुक्रमेण ग्रामाग्द्रामान्तरं द्रवन-विहरन, इह-अस्यां चस्पानगया विद्यमानं पूर्णभद्रसुद्यानम् भागतासमन्ताद वित्योपस्थितः, पावत्करणात् 'अहापडिरूचं ओग्गहं ओगित्तिा संजमेणं तसा अप्पाणं भावमाणे एतेषां संग्रहः । छाया-"यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्' इति ।' 'यथे'ति-यथाप्रतिरूपं यथा संयमिकल्पम् अवग्रहम् निवासार्थमुद्यानपालस्याज्ञाम् अवगृह-आदाय संयमेन सप्तदशविधेन तपला द्वादशविधेन आत्मानं भावयन= गासयन् संयोजयन्निति यावत, विहरति = विराजते, तत्-तस्मात् महाफलंमहत्-विशालं फलं=शुभपरिणामलक्षणम्, अत्र 'अत एवेतिशेषः खलु-निश्चयेन तथारूपाणां शुभपरिणामरूपमहाफलजननस्वभावानां, यावच्छन्देन-"अरिताणं, भगवंताणं, णामगोयस्सवि सवणयाए किमंगपुण अभिगमण-बंदणमामसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणाए, एकस्सवि आरियस्स, धम्मियस्स, सुवयणस्त सवणयाए किमंग पुण" एतेषां सङ्ग्रहः । छाया-'अर्हतां भगवतां वे विचार ये हैं-' एवं खलु' इत्यादि- श्रमण अगवान महावीर प्रभु यहा पधारे हैं, और संयमी लोगोके कल्पके अनुसार निवासके लिए उद्यानपालकी आज्ञा लेकर संयम और तपसे अपनी आत्माको भावित करते हुए विराजते हैं, तथारूप अरि ते विया२ ॥ छ.--' एवं खलु' શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ અહીં પધાર્યા છે તથા યમી લેકના ક૫ને અનુસરી નિવાસને માટે ઉધાનપાલની (વાડીના પાલક કે માળીની આજ્ઞા લઈને સંયમ તથા તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા બિરાજે છે તથા રૂપ અરિહંત અથૉત્ સર્વજ્ઞતાના કારણે જેનાથી કે વાત અજાણું નથી અને સ પૂર્ણ એશ્વર્યના Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ - निरयावलिकास्त्रे नामगोत्रस्यापि श्रवणतया किमङ्ग ! पुनरभिगमन-वन्दन-नमस्यन-प्रतिपच्छनपर्युपासनेन, एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य अषणतया किमङ्ग ! पुनः' इति । 'अर्हता'-नास्ति रहः प्रच्छन्नं किश्चिदपि येषां सर्वज्ञत्वात्तेऽर्हन्तस्तेषाम्, 'भगवतां-भगः समग्रेश्वर्यादिगुणः, स विद्यते येषां ते भगवन्तस्तेपाम् । नाम च-वर्धमानादि, गुणनिष्पन्नमभिधानं गोत्रं च-कश्यपादि, तयोः समाहारे नामगोत्रं, तस्य श्रवणेनापि महाफलं भवति । किमङ्ग ! पुनः अभिगमन-सम्मुख गमनम्, वन्दनं-गुणकीर्तनम् । नमस्यनं पश्चागसयत्ननमनपूर्वकनमस्करणम्, प्रतिप्रच्छनं शरीरादिवार्ताप्रश्नः, पर्युपासना-सावद्ययोगपरिहारपूर्वकनिरवद्यभावेन सेवाकरणम्-एतेषां समाहारस्तथा, अयं भावः-भगवन्नामगोत्रश्रवणमात्रेणापि शुभपरिणामरूपं फलं भवति, तहि अभिगमनादिना जातं फलं किं पुनः कथनीयम् ? अर्थात् तत्फलमानन्त्याद्वक्तुमशक्यमिति । एकस्यापि आर्यस्य-आर्यप्रणीतस्य धार्मिकस्य श्रुतचारित्रलक्षणधर्मप्रतिबदस्य सुवचनस्य= सर्वप्राणिहितकारकवचसः श्रवणतपा-श्रवणेन यत् फलं तत् किं पुनर्वाच्यम् ? हन्त अर्थात् सर्वज्ञताके कारण जिनसे कोई पात छिपी हुई नहीं है और सम्पूर्ण ऐश्वर्यके कारण जो भगवान हैं, उनके वर्धमान आदि नाम और कश्यप आदि गोत्रके सुननेसे भी शुभ परिणाम स्वरूप महाफल होता है तो सम्मुख जाना, गुण-कीर्तन करना और पाचों अंगोंको यतना पूर्वक नमाकर नमस्कार करना, शरीर आदिकी सुखज्ञाता पूछना, और भगवानके त्यागी होने के कारण सावधका परिहार-पूर्वक उनकी निरवध सेवा करना, इन सबका क्या फल होगा, इसका तो कहना ही क्या ? और उनका एक भी श्रेष्ठ श्रुत चारित्र धर्म युक्त और समस्त प्राणियोंके हितकारी सुवचनके श्रवणसे जो महाफल मिलता है तो કારણે જ ભગવાન છે. તેમના વર્ધમાન આદિ નામ તથા કશ્યપ આદિ વગેરે ગોત્રને સાભળવાથી શુભ પરિણામ સ્વરૂપ મહાફલ થાય છે-તે સન્મુખ જવું, અને કેતન કરવું, તથા પાચે અને યતના પૂર્વક નમાવીને નમસ્કાર કરવા, શરીર આદિ વગેરેની સુખ-શતા પૂછવી તથા ભગવાન ત્યાગી હોવાથી સાવધના પારહાર પૂર્વક તેમના નિરવદ્ય સેવા કરવી એ બધાનુ શુ ફળ હોય તેનું તો કહેજ શું ? તેમના વચનના આચાર અને તેમના એક પણ શ્રેષ્ઠ શ્રત ચારિત્ર ધર્મ ચુકત તથા સમસ્ત કાછિઆનું હિતકારી સુવચન સાંભળવાથી જે મહાફળ મળે Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ भगवान् शब्दस्यायः अर्थात् वक्तुमशक्यम् । विपुलस्य-प्रभूततरस्य अर्थस्य-भगवद्वचनप्रतिपाद्यविषयस्य श्रुतचारित्रलक्षणस्य ग्रहणतया ग्रहणेन यत्फलं भवति तत् किं पुनर्वाच्यम् ? अर्थात्कथमपि वक्तुं न शक्यम् । तत्-तस्मात् कारणात् अहं गच्छामि श्रमणंश्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणोद्वादशवर्षाणि घोरतपश्चरणात् 'श्रमण' इति प्रसिद्धि लब्धवान् , तम् । जावशब्देन-'भगवं महावीरं, वंदामि, नमसामि, सकारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, विणएणं' इत्येषां सङ्ग्रहः । एतच्छाया-'भगवन्तं, महावीरं, वन्दे, नमस्यामि, सत्कारयामि, सम्मानयामि, कल्याणं, मगलं, दैवतं, चैत्यं, विनयेन' इति । 'भगवन्त 'मिति-भगः = ज्ञानं, माहात्म्य, यशः, वैराग्यं, मुक्तिः, उनका विपुल श्रुत चारित्र रूप जो अर्थ है उसको ग्रहण करने के फलका तो कहना ही क्या है?-वह फल तो अकथनीय है। इसलिये मैं श्रमण भगवान् महावीर प्रभुके पास जाऊँ और उनको वन्दन-नमस्कार करूँ; सत्कार सम्मान करूँ जो कल्याण स्वरूप हैं, मंगल स्वरूप हैं, दैवत-इष्ट देव हैं और चैत्य-ज्ञानस्वरूप हैं उन प्रभुकी विनयपूर्वक उपासना करूँ । अब यहाँ श्रमण भगवान आदि पदोंका विशेष अर्थ करते हैं: (१) श्रमण-साढे बारह वरस तक घोर तपस्या की, इसलिए "अमण' नामसे प्रसिद्ध है । (२) भगवान्-श्रग शब्दके ज्ञानादि दस अर्थ जिनमें हो उन्हें भगवान कहते हैं। 'भग' शब्दके दस अर्थ (१) सम्पूर्ण पदाथोंको विषय करनेवाला ज्ञान. (२) महात्म्य अर्थात् अनुपम और महान् महिमा. છે તે તેમના વિપુલ શ્રત ચારિત્ર રૂપી જે અર્થ છે તેના ગ્રહણ કરવાનાં ફળનુ તે કહેવું જ શું? તે ફળ તે અકથનીય છે આથી હુ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુની પાસે જાઉં તથા તેમને વદન નમસ્કાર કરૂ સત્કાર સન્માન કરૂ જે કલ્યાણ સ્વરૂપ છે મંગળ સ્વરૂપ છે દવત અર્થાત ઈષ્ટ દેવ છે તથા ચિત્ય-જ્ઞાનવરૂપ છે તે પ્રભુની વિનયપૂર્વક ઉપાસના કરું હવે અહીં શ્રમણ ભગવાન આદિ શબ્દોના વિશેષ અર્થ કરીએ છીએ (૧) શ્રમણ સાડા બાર વરસ સુધી ઉગ્ર તપશ્ચર્યા કરી તેથી “શ્રમણ” નામથી પ્રસિદ્ધ છે (૨) ભગવાન–ભગ શબ્દના જ્ઞાન આદિ દશ અર્થ જેમાં હોય તેને ભગવાન 34 भग' शण्टीना श अर्थ (1) सपू पहानि विषय ४२पापा ज्ञान.. (૨) મહા" અર્થાત્ અનુપમ તથા મહાન્ મહિમા. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयाविकासत्रे वीर्यः श्रीः धर्मः, ऐश्वर्य, सोऽस्याऽस्तीति भगवान्, तम्, 'महावीर' मिति - वीग्यति पराक्रमते मोक्षाष्टाने इति वीर, महामौ वीरो महावीरो= मकरस्तम् वन्दे मनःमणि यानपूर्वकं वाचा स्तौमि नमः ७० (३) विविध प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल परीपहोंको महन करनेसे उस कोनेवाली या संसारकी रक्षा करनेवाले अलौकिक भावोंसे sairaat कीर्ति । (४) को आदि पायका सर्वथा निग्रहरूप वैराग्य । (५) मोक्ष | (६) सुर-असुर और मानव के अन्तःकरणको हरलेने वाला सौन्दर्य | (७) अन्य कर्मके नाशसे न होनेवाला अनन्त चल | (८) बानिया-कर्म-पटलकेर जानेसे होनेवाली अनन्य चनुष्य-ज्ञान. वर्शन, चरित्र, वीर्य-प) लक्ष्मी । १९) मोरको बोलनेका साथ चारित्र यथा ख्यात चारित्र धर्म | (१०) तीन लोकका आधिपत्य रूप ऐश्वर्य । ( 2 ) महावीर - सोक्ष के अनुoानमें पराक्रम करनेवाले होने से जाने ऐसे वर्धमान स्वामी चरम तीर्थंकरकी ફળ તથા પ્રતિફળ પરીઓને ન કથી ઉત્પન્ન २. ५० महनीयान्ववाणी कसोटि भावनाथी उत्पन्न (3 mi H ܐ ܬ こ २४४हिये सर्व पिंश्य चीन इस वक Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनीटीका अ. १ कालीराज्ञाः विचारः स्यामि-सयत्नपञ्चाङ्गनमनपूर्वकं नमस्करोमि, सत्कारयामि-अभ्युत्थानादिनिरवद्यक्रियासम्पादनेनाऽऽराधयामि, सम्मानयामि मनोयोगपूर्वकमईदुचितवाक्यप्रयोगादिना समाराधयामि, कल्याण-कर्मवद्धसकलोपाधिव्याधिवाधाविधुरत्वात् कल्यो मोक्षस्तम्, आ-समन्तात् नयति प्रापयतीति ज्ञानादिरत्नत्रयलक्षणमोक्षमार्गोपदेशदानद्वारा (भविजनान् ) कल्यान जन्मजरादिरोगमुक्तान् आणयति-धातूनामनेकार्थत्वात् सम्पादयतीति वा कल्याणस्तम्, 'मङ्गलं सकलहितप्रापकत्वाच्छुभमयं, यद्वा-मां गालयति भवाब्धेस्तारयतीति मङ्गलः, अथवा-मङ्गते अजरामरत्वगुणेन भविजनान् भूपयतीति मङ्गो-मोक्षस्तं लाति-आदत्त इति मङ्गलस्तम्, दैवतम् आराध्यदेवस्वरूपम् अत्र 'देवतैव देवतमिति स्वार्थेऽण्' चैत्य-चित्ते भवं तदस्यानिर्मल मनके साथ बचनसे स्तुति करूँ। यतना-पूर्वक पांच अंग नमाकर, नमस्कार करूँ। यतना-पूर्वक अभ्युत्थान आदि निरवद्य क्रियासे भगवानका सत्कार करूँ । मनोयोग-पूर्वक अर्हन्तो का उचित वाक्य द्वारा सम्मान करूं। कर्मबन्धसे उत्पन्न होनेवाली उपाधि-व्याधिके नाशक होनेसे 'कल्य' को मोक्ष कहते हैं, उसको प्राप्त करानेके कारण भगवान् कल्याण-स्वरूप हैं। अथवा ज्ञानादि रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्गके उपदेश द्वारा भव्य जीवोंको जन्म, जरा मृत्युरूप रोगसे मुक्त करते हैं, इस कारण भी कल्याणस्वरूप है। सम्पूर्णहितको प्राप्त करानेवाले तथा भवसागरसे तारनेवाले हैं इसलिये भगवान मङ्गल स्वरूप हैं। अथवा अजर अमर गुणोंसे भव्यजनोको भूषित करने के कारण मङ्ग' को मोक्ष करते हैं, उसे जो प्राप्त करावे वह मङ्गल कहलाता है, इसलिये भगवान भी मङ्गल हैं। इष्टदेव स्वरूप કરૂં યતના–પૂર્વક પાચ અંગ નમાવીને નમસ્કાર કરૂં યતના પૂર્વક અભ્યથાન આદિ નિરવઘ ક્રિયાથી ભગવાનનો સત્કાર કરૂં. મનોગ–પૂર્વક અન્તાનુ ઉચિત વાક્યથી સન્માન કરૂ. કર્મબંધથી ઉત્પન્ન થનારી ઉપાધિ અને વ્યાધિના નાશક હોવાથી “કલ્ય” ૧ માસ કહેવાય છે તેને પ્રાપ્ત કરાવનાર હોવાથી ભગવાન કલ્યાણ-સ્વરૂપ છે અથવા જ્ઞાનાદિ રત્નત્રયરૂપ મેક્ષ માર્ગના ઉપદેશ દ્વારા ભવ્ય જીને જન્મ જરા મૃત્યુ રૂપ રેગથી મુક્ત કરે છે. આ કારણથી પણ કલ્યાણ-સ્વરૂપ- છે સ પૂર્ણ હિતને માપ્ત કરાવવાવાળા તથા ભવસાગરથી તારવાવાળા છે તેથી ભગવાન મ ગલ-સ્વરૂપ છે અથવા અજર અમર ગુણોથી ભવ્ય જનેને ભૂષિત કરવાના કારણે મગને મોક્ષ કહેલ છે. તેને જે પ્રાપ્ત કરાવે તે મગળ કહેવાય છે. આથી ભગવાનું પણ ભગળ છે. એવા ઈષ્ટદેવ–સ્વરૂપ હોવાથી દેવત છે અને વિશિષ્ટ જ્ઞાનવાળા હોવાથી Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावळिका सूत्रे ७२ स्तीति यद्वा चित्तिर्विशिष्टज्ञानं तथा युक्तमिति, सर्वथा विशिष्टज्ञानवन्तमित्यर्थः, विनयेन=प्रतिपत्तिविशेषेण पर्युपासे = सेवे, तथा 'इ' ति इदं मम हृदयस्थम् एतद्रूपं पुत्रविषयकं व्याकरण-मनं खलु निश्चयेन = मक्ष्यामि= निर्णेष्यामि, इति कृत्वा = इति मनसि निश्चित्य एवम् = अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते = विचारयति, संप्रेक्ष्य = विचार्य, कौटुम्बिकपुरुषान=प्रधानकर्मकारिपुरुपान्= शब्दयति =आहयति शब्दयित्वा =आहूय एवं = त्रक्ष्यमाणम् अवदत् = आज्ञापयदिति । किमाज्ञापयत ? इत्याह- 'क्षिप्रमेवे' त्यादिना - भो देवानुप्रियाः = हे कार्य करणप्रत्रीणाः ! यूयं धार्मिकं धर्माय नियुक्तं धार्मिकं यात्यनेनेति यानं रथादिकं तत्र प्रवरं श्रेष्ठं शीघ्रगामित्वादिगुणोपेतम् इत्युपलक्षणं तेन 'चाउरघंटं, आसरहं' इत्यनयोरपि ग्रहणम् । एतच्छाया - चतुर्घष्टम्, अश्वरथम् इति । चतुर्वष्टमिति - चतस्रः = पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वतश्च लम्बमाना घण्टा यस्य यस्मिन् वा स चतुर्घण्टस्तम् 'अश्वरथ' मिति - अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथः, शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपः तम् - युक्तमेत्र = अश्वसारथ्यादिसहितमेव न तु तद्रहितं, क्षिमं शीघ्रमेव नतु विलम्बेन, उपस्थापयत = प्रगुणीकुरुत, उपस्थाप्य = मगुणीकृत्य यावच्छन्देन कौटुम्बिकपुरुषाः कालीदेव्याज्ञानुसारेण सर्वे कृत्वा तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति ॥ १६ ॥ होनेसे दैवत हैं । विशिष्ट ज्ञान युक्त होने से चैत्य हैं। ऐसे भगवानकी विनयके साथ निरवद्य सेवा करू, ओर मेरे हृदय में स्थित पुत्रसम्बन्धी प्रइनका निश्चय करू । इस प्रकार अपने मनमें विचार कर काली महारानी अपने कौटुम्बिक (आज्ञाकारी) जनों को बुलाया और आज्ञा दी । क्या आज्ञा दी ? वह कहते हैं - हे चतुर कार्यकर्ताओ ! तुम लोग रथोंमें श्रेष्ठ- शीघ्र गतिवाला रथ जिसके आगे पीछे और दोनो बाजुओंमें चाल घण्टिकायें लगी हुई हैं ऐसा धार्मिक अश्वरथ, सारथी आदिके सहित लाओ। कौटुम्बिक पुरुष काली महारानीकी आज्ञा अनुसार रथ तैयार कर उनसे बोले - हे महारानी ! आपकी आज्ञानुसार रथ तैयार है || १६ | ચૈત્ય છે એવા ભગવાનની વિનય—પૂર્વક નિરવદ્ય સેવા કરૂ તથા મારા હૃદયમાં રહેલ પુત્રસખ ધી પ્રશ્નનેા નિશ્ચય-ખુલાસેના-કરૂ આ પ્રકારે પેાતાના મનમા વિચાર કરી કાઢી મહારાણીએ પાતાના કૌટુમ્બિક (આજ્ઞાકારી) જનેને ખેલાવ્યા તથા આજ્ઞા કરી. હું ચતુર કા કર્તાએ! તમે લેાકેા ઉત્તમ રથ શીઘ્ર ગતિવાળા રથ જેની આગળ પાછળ તથા મને માજીએ ચાર ઘટડીએ લગાડેલી એવા ધાર્મિક અશ્વરથ, સારથી આદિ સહિત લઇ આવા કૌટુમ્બિક પુરૂષાએ કાલી મહારાણીની આજ્ઞા પ્રમાણે રથ તૈયાર કરીને તેને કહ્યુ . હે મહારાણી ! આપની આજ્ઞા પ્રમાણે રથ તૈયાર છે (૧૬) Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टोका अ. १ कालीराशाः बन्दनार्थगमनम् - मूलम्-तए णं सा काली देवी व्हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा बहूहि खुजाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव, बाहिरिया उवटाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग्गच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहइ, दूरुहित्ता नियगपरियालसंपरिवुडा अपं नयरिं मां-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुन्नभदे चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता छत्ताईए जाव धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठवित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पञ्चोरुहइ, पचोरुहित्ता बहहिं खुजाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ, वंदित्ता ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणा नमसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासइ ॥ १७ ॥ ___छाया-ततः खलु सा काली देवी स्नाता कृतबलिकर्मा यावत् अल्प-- महार्घाभरणालड्कृतशरीरा बहीभिः कुब्जाभिः यावन्महत्तरकटन्दपरिक्षिप्ताः अन्तः पुराग्निगच्छति, निर्गत्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला, यत्रैव धार्मिको यानप्रवरस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानप्रवरं दृरोहति, दुरुह्य निजकपरिवारसंपरिता चम्पां नगरी मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्रश्चैत्यस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादिक यावद् धार्मिकं यानप्रवरं स्थापयति स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य बहीभिः कुब्जाभिः यावत्-महत्तरकटन्दपरिक्षिप्ता यत्रैव श्रमणो भगवान महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वो वन्दते, वन्दित्वा स्थिता चैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा नमस्यन्ती अभिमुखी विनयेन माञ्जलिपुटा पर्युपासते ।१७। . टीका-'तएणं सा' इत्यादि-ततः तदनन्तरं सा पूर्वोक्ता काली देवी स्नाता-कृतस्नाना कृतवलिकर्मा स्नाने कृते पशुपक्ष्यायथ कृताम्मभागा, जाव १० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ... निरयावलिकारचे शन्देन-'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता मुदप्पावेस्साई वस्थाई पवरपरिहिया' इत्येषां सडग्रहः । एतच्छाया च-कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता, शुद्धप्रवेश्यानि वखाणि प्रवरपरिधृता' 'कृतकौतुके 'ति-कृतानि कौतुकानि मपीपुण्ड्रादीनि, मङ्गलानिसर्षपदध्यक्षतचन्दनदूर्वादीनि च प्रायश्चित्तानीव दुःस्वमादिविनाशायावश्यकर्तव्यस्वास्मायश्चित्तानि यया सा तथा, यथा पापविनाशार्थ प्रायश्चित्तमवश्यं क्रियते तथैव दुःस्वप्नदोषशान्त्यर्थं दध्यक्षतादीनि मालान्यवश्यं ध्रियन्त इति तात्पर्यम् । 'अल्पमहर्धे'-ति-अल्पानि स्तोकभारवन्ति महा_णि बहुमूल्यानि यानि आमरणानि भूपणानि तरलङ्कृत-भूषितं शरीरं यस्याः सा अल्पमहार्घाभरणालङ्कृतशरीरा, बहीभिः प्रचुराभिः, कुन्जामिः कुब्जशरीराभिः सेवापरायणदासीभिः 'नाव' शब्देन-"चिलाईहिं वामणाहि १, वडहाहिं २, बब्बरीहि ३, वउसि 'तएणं सा' इत्यादि-पाद रानीने स्नान किया और पशु पक्षी आदिके लिये अन्नका भाग निकालनेरूप पलिकर्म किया और दृष्टिदोष (नजर.) निवारणके लिये मषी (काजल ) का चिह्न किया और पाप नाश करनेके लिए जैसे प्रायश्चित्त किया जाता है वैसे ही दुःस्वम आदि दोषोंके निवारणके लिए मङ्गलरूप सरसो, दहीं, चावल चन्दन ओर दूष आदिको धारण किया, तथा अल्प भार किन्तु पहुमूल्य भूषणोंसे शरीरको भूषित किया और सेवापरायण कुपडी आदि १८ अठारह प्रकारकी दासियोंको साथ चलनेका हुक्म दिया। उन दासियोंके नाम इस प्रकार हैं-(१) 'चिलाती' चिलात नामके अनार्य देशमें उत्पन्न होनेवाली 'कुब्जा'कूघडी तथा 'वामना'-ठिंगनी दासियां, (२) 'वटभा'-जिस देशमें छोटे-छोटे पेटवाले जन्मते हैं उस देशकी, (३) 'वर्वरी'-बर्बर 'तएणं सा' त्यादि पीसीय स्नान यु तथा पशु पक्षी पाहिन भाटे અન્નને ભાગ કાઢવા રૂપી બલિકર્મ કર્યું તથા દૃષ્ટદેષ (નજર) ના નિવારણને માટે મળી (કાજળ)નું ચિહ્ન કર્યું તથા પાપનાશ કરવા માટે જેમ પ્રાયશ્ચિત્ત કરાય છે તેવીજ રીતે દુ:સ્વપ્ન આદિ દેના નિવારણને માટે મગલરૂપ સરસવ, દહીં, ચાવલ, ચંદન તથા દુર્વા વગેરેને ધારણ કર્યા; તથા વજનમાં અ૫ પણ કિસ્મતમાં ભારે એવા ઘરેણાથી શરીરને શણગાર્યું સેવાપરાયણ કૂબડી દાસીઆ આદ ૧૮ પ્રકારના દાસીએને સાથે ચાલવાને હુકમ કર્યો તેના નામ આ પ્રકારે છે–(૧) ચિલાત નામના અનાર્ય દેશમાં ઉત્પન્ન થનારી કૂબડી અને ઠીંગણ દાસીઓ. (૨) જે દેશમાં નાના નાના પેટવાળા જન્મ खेत यिनी (3) मर्मर शनी. (४) मधु शनी. (५) योन शनी. (६) ५७ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कालीरामाः वन्दनार्थगमनम् ७५ याहिं ४, जोनयाहि ५, पल्हवियाहिं ६, ईसिणियाहि ७, वासिणियाहिं ८, लासियाहि ९, लसियाहिं १०, दविडीहिं ११, सिहलीहिं '१२, आरवीहि १३, पकणीहि १४, बहलीहिं १५, मुरुंडीहिं १६, सबरीहिं १७, पारसीहि १८, णाणादेसाहि इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं," इत्येषां सग्रहः । . चिलातीभिः अनार्यदेशोत्पन्नाभिः-वामनाभिः-हस्वशरीराभिः १, वंटभाभिः मडहकोष्ठाभिः २, बर्बरीभिः बर्वरदेशसंभवाभिः ३, बकुशिकाभिः ४, यौनकाभिः ५, पल्हविकाभिः ६, इसिनिकाभिः ७, वासिनिकाभिः ८, लासिकाभिः ९, लकुशिकाभिः १०, द्राविडीभिः ११, सिंहलीभिः १२, आरवीभिः १३, पकणीभिः १४, वहुलीभिः १५, मुसण्डीभिः १६, शवरीभिः १७, पारसीभिः १८, नानादेशाभिः बहुविधदेशोत्पन्नाभिरित्यर्थः, इङ्गितचिन्तितमाणितविज्ञायिकाभिः, इङ्गितेन नेत्रबक्त्रहस्ताङ्गुल्यादिचेष्टांविशेषेण चिन्तितं हृदि भावित देशकी, (४) 'बकुशिका'-वकुश देशकी, (५) 'यौनका यौन देशकी, (६) 'पल्हविका'-पल्ह देशकी, (७) इसिनिका'-इसिनिकदेशकी, (८) 'वासिनिका' वासिनिक देशकी, (९) 'लासिका'-लासिक देशकी, (१०) 'लकुशिका - लकुश देशकी, (११) 'द्राविडी'-द्रविड देशकि, (१२) 'सिंहली'-सिंहल देशकी, (१३) 'आखी'-अरब देशकी, (१४) 'पक्कणी-पक्कण देशकी, (१५) 'बहुली'-बहुल देशकी, (१६) 'मुसण्डी'-मुसण्ड देशकी, (१७) 'शबरी'शवर देशकी, और (१८) 'पारसी'-पारस देशकी दासिया । ___ इस प्रकारकी अनेक देशमें उत्पन्न होनेवाली दासिया, जो इङ्गित, चिन्तित, प्रार्थितको जाननेवाली थी। 'इङ्गित ' का अर्थ-नेत्र, मुख, हाथ तथा अंगुली आदिके इशारेसे अभिप्रायको जानना । देशनी. (७) सनि शिनी (८) पासिनि शनी (6) सासि शनी (१०) सश देशनी (११) विदेशनी. (१२) सिंदीप शनी. (१3) म२५ शनी (१४) ५४४५ शनी. (१५) मge शनी. (१६) भुस हैशनी. (१७) श१२ देशनी. तथा (१८) पारस शनी हासीमा આવી રીતે અનેક દેશમાં ઉત્પન્ન થનારી દાસીઓ ઇગિત, ચિતિત, પ્રાતિને एका पाणी इती. ઈગિત’ને અર્થ નેત્ર, સુખ, હાથ તથા આંગળી આદિના ઈશારાથી અભિપ્રાયને જાણ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयापलिका freeसपनं ग विमाननि गास्नया, नाभिानुध्यमानाभिः, युरोनि ५: ! जमा 'माननि-अनिमन मान-मातरः म एन मात्तरका अन्न: पुर न्दमन्नानागोयमनेटकममाम्तेन 'पगिक्षमा' परिम्सर्वनः frareशारिता. नया पती अन्न पुगत निर्गमातिम्वनिःसरति निर्गस्य परमिमी गाने पारिभरा उपम्यानमाला-उपगनमन्डपः यत्रमन पर पार्मिकपानमन:शादियानोत्तमः, नत्रन नरिमन्नेव स्थाने पनि, सागप्यधार्मिकयानभनरममीपमागत्य धार्मिक-धर्माय निपूर्ण माना गम्भिागनि, दरा उक्तयानप्रवरमारुय निजके' निकिनिननग परिवागा दाम्यादयः, ते: मंपग्टिना परिवष्टिना, मनगमगन नम्पानगर्गा मध्यमागेन निर्गनि, निर्गत्य गव न नी उपागनानिगमायानि, उपागन्य 'एनाईए' हादिकान पारन-देन नायागानिगान पदयति, या धार्मिक यानमवरं म्यापयति, म्यापिका मानिदाद गानमनगागार्मिकग्यान पन्यवरोहनिम्भवम्नादननरति, mar atil नामिनिदामीभिर्युता याक्न मनग्यटन्दनाभिगमरम्मर प्रेगस्मिन्नेव पूर्णभदोघाने भगवान मानीर- frige - मायको अनुमानसे मममना । fin-अभिनपिनको अनुमानमे जानना । मी शामिग मा अन्तःपुररक्षक पुष्पवृन्दसे नशा अनेक में TATEगार दासमनाम घिरी अनापुरम पार निकटकार मन मा- सिम पर धार्मिक या am आई और ही। माः माने मप परिवार, माघ ना नगरीक थीमगरे मा पा यही पड़ेगी। और शायरी Trafframti Arrन को धापित frपा और Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, अ. १ धर्मकथाश्रवणम् ७७ स्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रित्वो वन्दते, च पुनः स्थितैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा = सेवमाना नमस्यन्ती अभिमुखी = सम्मुखं स्थिता विनयेन = नम्रभावेन माञ्जलिपुटा = ललाटतटसविनयविन्यस्तकरकमला पर्युपास्ते= सेवते ॥ १७ ॥ मूलम् - तए णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए तीसे य महति महालया धम्मका भाणियव्वा जाव समणोवास वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ ॥ १८ ॥ छाया - ततः खलु श्रमणो भगवान यावत् काल्यै देव्यै तस्यां च महातिमहालयायां परिषदि धर्मकथा भणितव्या यावत् श्रमणोपासको वा श्रमगोपासिका वा विहरन् आज्ञाया आराधको भवति ॥ १८ ॥ टीका- 'तएणं समणे' इत्यादि - ततः तदनन्तरं श्रमणो भगवान महावीरः यावत्-सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तुकामः, काल्यै देव्यै तस्यां = पूर्वोक्तायां महाति - महालयायां = अतिविशालायां परिषदि धर्मकथा भणितव्या= कथयितव्या, धर्मकथास्वरूपं विस्तरत उपासकदशाङ्गसूत्रस्यागारधर्मसंजीविन्यारूयायां व्याख्यायां त्रिलोकनीयं विशेषजिज्ञासुभिरिति । रथसे नीचे उतरी। फिर अपने सब परिवार के साथ पांच अभिगम पूर्वक जहाँ भगवान बिराजते हैं वहाँ पहुँचकर विधिपूर्वक वन्दना - नमस्कार किया, और सपरिवार भगवानके सम्मुख नतमस्तक हो विनयके साथ अञ्जलिपुटको ललाटपर रखती हुई खडी होकर सेवा करने लगी ॥ १७ ॥ 4 तणं समणे ' इत्यादि । बाद मोक्षगामी श्रमणे भगवान् महावीर स्वामीने काली महारानीको लक्ष्य करके विशाल परिषद में धर्मकथा कही । धर्मकथाका विशेष वर्णन जाननेके जिज्ञासुओंको हमारी बनाई સઘળા પરિવાર સાથે પાંચ અભિગમ—પૂર્વક જ્યા ભગવાન મિરાજતા હતા ત્યા પહાચીને વિધિપૂર્ણાંક વંદના—નમસ્કાર કર્યા તથા સપરિવાર ભગવાનની સન્મુખ માથુ નમાવીને વિનયપૂર્ણાંક અજલિ પુટને ( જોડેલા હાથને) લલાટ પર રાખી ઊભી રહીને સેવા श्वासाी. (१७) 4 तरणं समणे' इत्यादि, माह भोक्षणाभी श्रमण भगवान् महावीर स्वाभीये કાલી મહારાણીને લક્ષ્ય કરી વિશાલ પરિષદમા ધર્માંકથા કહી ધર્મકથાનુ વિશેષ વર્ણન - Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० निरयावलिकास्त्रे यथामतिरूपं साधुकल्प्यमवग्रहम् वसतिं अवगृद्य - गृहीत्वा संयमेन तपसा चाssत्मानं भावयन् विहरति स्म । परिपन्निर्गताश्री धर्मस्वामिनं वन्दितं धर्मकथाश्रवणार्थे च परिषद्वृन्दरूपेण जनसंहतिर्नगरान्निर्गता = निस्सृता, पञ्चविधाभिगमपुरस्सरं तत्र समागता । पञ्चविधाभिगमो यथा (१) सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, (२) अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए, (३) एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं, (४) चक्खुप्फा से अजलिप्पगणं, (५) मणसो एगत्तीकरणेनं. , 'धम्मो कहिओ' इति श्रुतचारित्रलक्षणां धर्मः कथितः = उपदिष्टः, ' परिसा पडिगया' इति - परिषत् - जनसंहतिः तत्समीपे सविधिवन्दनपुरस्सरं धर्मकयां वा यस्या दिशः सकाशात् प्रादुर्भूता = आगता तामेव दिशं प्रतिगता इति ॥ ३ ॥ नगर है, जहाँ गुणशिलक नामका चैत्य (व्यन्तरायतन) है वहाँ पधारे और मुनियोंके फल्प के अनुसार अवग्रह लेकर संयम और नपसे, आत्माको भवित करते हुए रहने लगे । श्री सुधर्मा स्वामी यहाँ पधारे हैं, इस यातको सुनकर राजगृहसे परिषद् निकली वन्दन करनेके लिए और धर्मकथा सुननेके लिए जनसमूह पाच अभिगमपूर्वक आए । पाँच अभिगम इस प्रकार हैं:(१) धर्मस्थान पर नहीं लेजाने योग्य पुष्पमाला आदि सचित्त porter त्याग करना । (२) वस्त्र भूषण आदि अचित्त द्रव्योंका त्याग करना । (३) मिलाई किया हुआ कपडा न हो ऐसे, अर्थात् अखण्ड वस्तु - द्वारा मुख पर उत्तरासंग करना । (४) धर्मगुरु के दृष्टि - पथमें आने पर दोनो हाथ जोडना । (५) मनको एकाग्र करना । નામે ચૈત્ય (વ્યતરાયતન) છે ત્યા પધાર્યાં, તથા મુનિએના ચાર પ્રમાણે અવગ્રહ લઈને સચમ તથા તપથી આત્માને ભાવિત કરતા રહેવા લાગ્યા શ્રી સુધર્મા સ્વામી અહીં પધાર્યા છે, એ વાત સાભળી પરિષદ્ નિકળી વના કરવાને તવા ધ કથાનુ શ્રવણુ કરવા માટે જન સમૂહ પાંચ અભિગમપૂર્વક આવ્યા પાચ અભિગમ આ પ્રકારના છે – (૧) ધર્મ સ્થાનપર ન લઇ જવા જેવા પુષ્પમાલા ગાદિ સચિત્ત દ્રબ્યાને ત્યાગ કરવે. (ર) વઅઅ ભૃષણ આદિ અચિત્ત દ્રવ્યેાના ત્યાગ ન કરવેા. (૩) સીવલ કપડુ ન હાય ખવા અર્થાત અખડ વસ્ત્રથી મુખ ઉપર ઉત્તરાસગ કરવુ . (૪) ધર્મોગુરુ નજર પડતાજ એ ાથ જોડવા (૫) મનને એકાગ્ર કરવુ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ जम्बूस्वामीवर्णनम् मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी जंबू णामं अणगारे समचउरंससंठाणसंठिए जाव संखित्तविउलतेयलेस्से अजसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उडंजाणू जाव विहरइ ॥ ४ ॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये आयमुधर्मणोऽनगारस्य अन्तेवासी 'जम्बू' नामाऽनगारः, समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः यावत् संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः, आर्यसुधर्मणोऽनगारस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानुविद् विहरति ॥ ४ ॥ टीका- तेणं कालेणं' इत्यादि-तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मकयां श्रुत्वा जनसंहतिप्रतिगमनानन्तरकाले आर्यमुधर्मणः स्वामिनोऽनगारस्यान्तेवासी आयेजम्बूनामाऽनगारः काश्यपगोत्रोत्पन्नः, ___अत्र प्रसङ्गात् जम्बूस्वामिनः परिचयश्चायम् -' राजगृह ' -नगर्याम् 'ऋषभदत्त'-नामा इभ्य-श्रेष्ठी निवसति स्म, तस्य 'भद्रा'-नाम्नी भार्या, तत्पुत्रः पञ्चमस्वर्गाच्च्युतो 'जम्बू'-नामा सञ्जातः, मात्रा स्वप्ने जम्बूवृक्षो दृष्टस्तेन इस मर्यादा से समवसरणमें सुधर्मास्वामी आदि झुनियोंको सविधि वन्दन करके स्व-स्व स्थान पर परिषद्के स्थित हो जाने पर श्री सुधर्मास्वामीने श्रुतचारित्रलक्षण धर्म सुनाया। धर्मकथा श्रवण करनेके पश्चात् परिषद् जिस दिशासे आई, पुनः उसी दिशाको चली गई॥३॥ • __'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल उस समय श्री आर्यसुधर्मा स्वामी के अंतेवासी काश्यपगोत्रीय श्री आर्य जम्बूस्वामी जिनका परिचय इस प्रकार है राजगृह नगरमें ऋषभदत्त नामके इस्य (उत्कृष्ट धनिक) सेठ रहते थे। उनकी पत्नीका नाम भद्रा था । पंचम देवलोकसे चवकर આવી મર્યાદાથા સમવસરણમા સુધર્માસ્વામી વગેરે મુનિઓને વિધિપૂર્વક વદના કરીને પિતપિતાને સ્થાને પરિષદ્ (મળેલા લેકે) ના સ્થિર થયા પછી શ્રીસુધમાં સ્વામીએ શ્રત ચારિત્ર લક્ષણ ધર્મ સંભળાવ્યે ધર્મકથા સાંભળી રહ્યા પછી લેકે જે જે બાજુએથી આવ્યા હતા ત્યા ત્યા પાછા ગયા (3) ___ 'तेणं कालेणं ' त्याहिजे ते समय श्री माय सुधमा स्वाभाना मन्तेવાસી શિષ્ય) કાશ્યપગોત્રી શ્રી આર્યજબૂસ્વામી હતા જેમને પરિચય નીચે પ્રમાણે છે – રાજગૃહ નગરમાં ઋષભદત્ત નામના ઈભ્ય–શેઠ (બહુ ધનવાન ) રહેતા હતા. તેમની પત્નીનું નામ ભદ્રા હતુ. પાચમા દેવકથી ચ્યવીને એક ઋદ્ધિશાળી દેવે Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकास्त्रे हिन्वा विनश्वरधनं ममत्रोऽपि धन्य औरायगोचरमनयमवाप्तवान यः । रत्नत्रयं स्थिरतरं निजवन्धमाज्यं पाययमइनमनन्तसुखावहं च ॥ २ ॥” इति भय मत्रकागं जम्बम्बामिनं विभिनष्टि-'समचतुरे' त्यादिना, समाः= तुल्याः अन्यूनाधिकाः चतस्रोऽमयो हस्तपादोपर्यधोरूपाश्चत्वारोऽपि विभागाः (शुभलक्षणोपेताः) यस्य (संम्धानम्य) तव समचतुरसं-तुल्यारोहपरिणाह, तन्त्र मंन्धानम-आकारविशेषः इनि समचतुरस्रसंस्थानं, तेन संस्थिता समचतुरस्रसंम्यानमंम्धिनः । जाव-(यावत्)-गन्देन 'सत्तुस्सेहे वन्जरिसहनारायसंघयणे, कणग-पुलग-नियमपम्हगो' तथा-'उग्गतवे, तनतके, दित्ततवे, उराले, घोरे, घोरबये, संग्विनविउलतेउलेस्से' एतेषां सङ्ग्रहः । एतच्छाया-'सप्तोत्सेधः, व सम्पम-नाराचसंहननः, कनकपुळकनिकप पद्मगौरः, तथा-उग्रतपाः, नप्ततपाः, दीप्ततपाः, उदारः, घोरः, घोरव्रतः, संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः।। "जम्ब म्बानी के समान इस संसार में न हुआ न होगा, जिम बीर प्रशंमनीय महापुरुष ने बोरोको भी संयम मार्गमें आरूढ़कर. और वैसे ही अपनी आठों भार्याओं, तथा उनके मातापिता और अपने मातापिताको भी संयममार्गपर आरुढकर मोक्षगामी बनाये ॥ १॥ घिनश्वर धन आदिका त्याग कर, न जिसको चोर चुरासकते हैं और न जिनकी कीमत हो सकती है, जो अविनाशी है, निजवन्धु भी जिमका भाग नहीं ले सकते. तथा मोक्ष स्थानको पहुँचनेके लिए सबल (भाना) के ममान है, ऐसे अनन्त सुग्व के देने वाले रत्नत्रययो प्रभवन भी प्राप्त किया हम लिये वह धन्य है ॥२॥ " मानाना पा ससामा थया ना मन ना જે ધર તથા પ્રશ મનીય મહાપુરુષે ચેન પણ સંયમન માર્ગે ચડાવ્યા તથા મોક્ષ બનાવ્યા એવીજ રીત પિતાની આઠ સ્ત્રીઓ તથા તેમના માતાપિતાને તથા Gari (ना) माता पितान पाय मय मागे दी भाभी पनाया. ૧ ન- ધન વગેરેને ત્યાગ કરીને, જેને ચાર ચારી ન શકે, જેનું મૂલ્ય ન શા કે જે અવિનાશી છે, પોતાના ભાઈ પણ જેમાથી ભાગ ૫ડવી ન શકે, તથા એ રા યન પંચત્ર ટે ? ભાના સમાન છે. એવું અન ન ગુખ દેવાવાળાં રન१५. nirle न प धन्य छे ।। २ ।' Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ जम्बूस्वामीवर्णनम् १५ तत्र 'सप्तोत्सेध' इति-सप्तहस्तोच्छ्रायः सप्तहस्तपमितोच्छ्रितदेहः । 'वज्रे' त्यादि-चन-कीलिकाकारमस्थि, ऋषभः तदुपरिपरिवेष्टनपट्टाकृतिकोऽस्थिविशेषः, नाराचम्-उभयतो मर्कटवन्धः, तथा च-द्वयोरस्नोरुभयतो मर्कटवन्धनेन वद्धयो पट्टाकृतिना तृतीयेनाऽस्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयं पुनरपि दृढीकर्तुं तत्र निखातं कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वज्रऋषभनाराचम्, तत् संहनन-संहन्यन्तेढीक्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत् संहननम् अस्थिनिचयो यस्य स वज्रऋषभनाराचसंहननः । 'कनके ' त्यादि-कनकस्य-सुवर्णस्य पुलका खण्डम् , तस्य निकषा= शाणनिघृष्टरखा, 'पद्म'-शब्देन पद्मकिचल्कं गृह्यते, पद्म = पद्मकिञ्जल्कं च, तद्वद् गौरः, इति । यद्वा-कनकस्य सुवर्णस्य पुलका सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकपः-शाणनिघृष्टसुवर्णरेखा तस्य यत् पक्ष्म = बहुलत्वं तद्वद् गौर:= शाणनिघृष्टानेकसुवर्णरेखावच्चाकचिक्ययुक्त गौरशरीरः, 'उग्रतपा'इति-उग्रं-उत्कृष्टं प्रवृद्धपरिणामत्वात्पारणादौ विचित्राभिग्रहत्वाच्च अप्रधृष्यमनशनादि द्वादशविधं तपो यस्य स तथा, तीव्रतपोधारीत्यर्थः । 'तप्ततपा'इति-येन तपसा ज्ञानावरणीयाधष्टकर्म भस्मीभवति तादृशं तपस्तप्तं येन स तथा, कर्म निर्जरणार्थतपस्यावान् । 'दीप्तपाः' इति-दीप्तं-जाज्वल्यमानं तपो यस्य स तथा वहिरिव कर्मवनदाहकत्वेन, ज्वलत्तेजस्वीत्यर्थः, उदारः = सकलजीवैः सह मैत्रीभावात, 'घोर' इति-परीपहोपसर्गकपायशत्रुप्रणाशविधौ भयानकः, 'घोरव्रत' इति-घोरं कातरैर्दुश्चरं व्रत-सम्यक्त्वशीलादिकं यस्य स तथा, 'संक्षिप्तविपुले' त्यादि सूत्रकार फिर जम्मू स्वामीका वर्णन करते हैं जो मम चतुरन संस्थानवाले थे, जिनके शरीरकी अवगाहना सात (७) हाथ की थी, वऋषभनाराच संहननके धारी थे, ___ कसौटी पर घिसी हुई स्वर्ण रेखाके समान, तथा फसलकेशरके समान गौर वर्ण थे । उग्र तपस्वी थे । तीव्र तपके करनेवाले देदीप्यमान तपोधारी थे । षटकायोंके रक्षक होनेसे उदार थे, સૂત્રકાર વળી જ બૂસ્વામીનું વર્ણન કરે છે-જે સમચોરસ સ સ્થાનવાળા હતા, જેના શરીરની અવગાહના સાત(૭)હાથની હતી, વજ ત્રાષભનારા સ ઘણુવાળા હતા, કસોટી ઉપર ઘસેલી સુવર્ણ રેખા સમાન તથા કમલ-કેશર સમાન જેને ગોર વર્ણ હતો. ઉગ્ર તપસ્વી હતા નીવ્ર તપ કરવાવાળા દેદીપ્યમાન પધારી હતા છ કાયાના રક્ષક હોવાથી ઉદાર હતા, પરિષહ ઉપસર્ગ કષાયરૂપ શત્રુનો વિજય કરવામાં Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकास्त्रे संक्षिप्ता-शरीरान्तर्गतत्वेन सङ्कुचिता विपुला-विशाला अनेकयोजनपरिमितक्षेत्रगतवस्तुभस्मीकरणसमर्थाऽपि, तेजोलेश्या विशिष्टतपोजनितलब्धिविशेपसमुत्पन्नतेजोज्वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्या शरीरान्तर्लीनतेजोलेश्यावान् । एवं गुणगणसमेतो 'जम्बुम्बामी' भार्यसुधर्मणोऽनगारस्य अदरसामन्तेदुरं-विप्रकपः, सामन्तं समीपं तयोरभावोऽदरसामन्तं तस्मिन नातिदरे नातिनिकटे, उचिने देश इत्यर्थः । 'उहूंजाणू' इति-अर्चनानुः-ऊर्वे जानुनी यस्य स तथा, जाव-(यावत्)-शब्देन 'अहोसिरे, कयंजलिपुढे, उक्कुडासणे, माणकोट्टोवगए, संजमेण तवसा अप्पाणं मावेमाणे' इत्येणं गङ्ग्रहः । 'अहोसिरे' इति-अबाशिराम्नतमस्तका, इतस्ततश्चक्षुापारं निवर्त्य नियमितभूमिभागनिहितदृष्टिरित्यर्थः । 'कयंजलिपुढे' इति कृताञ्जलिपुट: मस्तकन्यस्तसम्पुटीकृतहस्तः, 'उक्कुडासणे' इति-उत्कुटासनः उत्तुटं भूमावलग्नपुतम् आसनं यस्य स तथोक्तः भूप्रदेशास्पृष्टपुततयोपविष्ट इत्यर्थः । ध्यानकोष्ठोपगनः-ध्यायतेचिन्त्यतेऽनेनेति ध्यानम्, एकस्मिन् वस्तुनि तदेकाग्रतया चित्तस्थावस्थापनमित्यर्थः, ध्यान कोष्ठ व ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः, ग्रथा कोष्ठगतं धान्यं विकीण न भवति तथैव ध्यानत इन्द्रियान्तःकरणवृत्तयो वहिन यान्तीति भावः, निय और परीषहोपलग-कषाय-रूप शत्रुके विजय करनेमें भयानक अर्थात् वीर थे । घोरव्रतवाले थे अर्थात् कठिन व्रतके पालक थे । तपके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली और अनेक योजन विस्तृत (लम्बे-चौडे) क्षेत्र में रही हुई वस्तुको लस्म करने वाली अन्तर्वालारूप लब्धिको 'तेजोलेश्या' कहते हैं, उसको संक्षिप्त करनेवाले, अर्थात् गुप्तरूपसे रखनेवाले थे। इस तरह शुणके भण्डार श्री जम्बू अनगार श्री आर्यमुधर्मा स्वामी के पास उर्चजातु किये हुए, इधर उधर न देग्वते हुए, दोनों हाथ जोडकर मस्तक झुकाये, उऋकुडासनसे बेटे ભયાનક અર્થાત્ વીર (બહાદુર) હતા ઉગ્ર વ્રતધારી હતા અર્થત કઠણ વ્રતનું પાલન કરતા હતા તપના પ્રભાવથી ઉત્પન્ન થવાવાળી અને અનેક યે જન વિસ્તારના ક્ષેત્રમાં રહેલી વસ્તુને ભસ્મ કરવાવાળી અતર્વાલા રૂપ લબ્ધિને “તે લેફ્સા” કહે છે તેને સંક્ષિપ્ત કરવાવાળા અથત ગુપ્તરૂપમાં રાખવાવાળા હતા આવી રીતે ગુણના ભંડાર થી જ “ સ્વામીએ શ્રી આર્યસુધર્યા સ્વામીની પાસે ઊર્ધ્વજાનુ રહીને આજુબાજુએ નજર ન નાખતાં બે હાથ જોડીને માથું નમાવી ઉકકુડાસને બેઠેલા મનને Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ जम्बूस्वामी प्रश्नः १७ न्त्रितचित्तवृत्तिमानित्यर्थः । ' संजमेण ' इति - संयमेन सप्तदशविधेन, 'तत्र से 'ति - तपसा = द्वादशविधेन आत्मानं भावयन् विहरति = तिष्ठति, इति ॥ ४ ॥ मूलम् - तएणं से भगवं जम्बू जायसडे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी - उवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अडे पणत ? एवं खल जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं एवं उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता, तं जहा - निरयावलियाओ १, कप्पवर्डिसियाओ २, पुप्फियाओ ३, पुप्फचूलियाओ ४, वहसाओ ५ ॥ ५ ॥ छाया - ततः खलु भदन्त ! स भगवान् जम्बूः जातश्रद्धः यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत - उपाङ्गानां भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोsर्थः मनप्तः ? । एवं खलु जम्बुः ! श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन एवम् उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - निरयावलिकाः (१) कल्पावतंसिकाः (२) पुष्पिताः (३) पुष्पचूलिका : ( ४ ) वहिदशा : ( ५ ) || ५ | " टीका- 'तएणंसे' इत्यादि - ततः खलु = निश्चयेन सः = असौ भगवान् = अपूर्वसम्यक्त्वशीलसमाराधनयशोवान् जम्बू :- जातश्रद्धः = उत्पन्न प्रश्नेच्छः याव च्छब्देन-जातसंशयः=उद्भूतसंदेहः, जातकुतूहल:- उत्पन्नौत्सुक्यः, इति सग्रहो बोध्यः, श्रीसुधर्मस्वामिनमुपागत्य सविधिवन्दनं विधायाभिमुखं प्राञ्जलिः पर्युपासीनः=सेवमानः एवम्=वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् अवोचत् अमाक्षीदित्यर्थःहुए ध्यानरूपी कोठेमें स्थित, अर्थात् चित्तवृत्तिको एकाग्र करके तप और संयमसे आत्माको भावित करते हुए बैठे थे ॥ ४ ॥ 'तएणंसे' इत्यादि । उसके बाद श्री भार्य जम्बू अनगार जो जिज्ञासु थे, जिनमें श्रद्धा थी और जिन्हें जिज्ञासा के कारण कौतूहल (उत्सुकता) हुआ था । श्रद्धा उप्तन्न हुई, संशय उप्तन्न हुआ और कौतूहल हुआ । जिन्हें भला भाति श्रद्धाथी, भली भाँति संशय था ओर भली ધ્યાનરૂપી કાઠામાં સ્થિર રાખીને અર્થાત્ ચિત્તવૃત્તિને એકાગ્ર કરીને તપ તથા સચમથી આત્માને ભાવિત કરતા થકા બેઠા હતા ॥ ૪ ॥ " तपणं से' छत्याहि त्यार पछी श्री मार्य जूस्वामी ने लज्ञासु हता, જેને સારી રીતે શ્રદ્ધા હતી, સ ંશય પણ સારી રીતે હતેા, અને કુતૂહલ પણ સારી રીતે Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामुत्रे हे भदन्त != भगवन् ! उदं गुरोः सम्बोधनम्, उपाङ्गानां श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् आदिकरेण, तीर्थकरेण, स्वयं संकुद्धेन पुरुषोत्तमेन, पुरुपसिंहेन, पुरुषवरपुण्डरीकेन, पुरुषवरगन्धहस्तिना, लोकोत्तमेन, लोकनाथेन, भाँति कौतूहल था, खडे होकर जहाँ श्री आर्यमुधर्मा स्वामी थे, वहाँ गये । वहाँ जाकर श्री आर्यधर्माको अपने दक्षिण तरफसे अंजलिपुट (दोनों हाथ ) को घुमानेरूप तीनवार प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दना की, तत्पश्चात् श्री आर्य सुधर्मास्वामी से न अधिक दूर और न अधिक पास निकट सेवामें उपस्थित हो युगलकर जोड विधिपूर्वक शुश्रूषा करते हुए, इस प्रकार वोले १८ हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामीने जो स्वशासनकी अपेक्षासे धर्मकी आदि करनेवाले, जिससे संसार सागर तैरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं, वे तीर्थ चार प्रकार के हैं- साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, ऐसे चतुर्विध संघ रूप तीर्थ की स्थापना करने वाले, स्वयं बोधको पाने वाले, ज्ञानादि अनन्त गुणोंके धारक छोनेसे पुरुषोत्तम । राग द्वेषादि शत्रुओंके पराजय करनेमें अलौकिक पराक्रमशाली होनेसे पुरुषो में केशरीसिंह के समान । समस्त अशुभरूप मलसे रहित होने के कारण विशुद्ध श्वेत कमल के समान निर्मल | अथवा - जैसे कीचड़ से उप्तन्न और जलके योगसे बढा हुआ होकर - યુ તુ તે ઉભા થઈને જ્યા શ્રી આર્ય સુધર્મા સ્વામી હતા ત્યા ગયા ત્યાં જઈને શ્રી આ` સુધર્માને પેાતાની જમણી બાજુએથી જજલપુટ (બે હાથ) ફેરવવા શરૂ કરી ત્રણ વાર પ્રદક્ષિણા પૂર્ણાંક વધના કરી ત્યાર પછી શ્રી આર્ય સુધમાં સ્વામીથી બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ પસે પણ નહિ એમ નિકટ સેવામા ઉપસ્થિત થઇ બે હાથ જોડી વિધિપૂર્વક સેવા કરતા આમ ખેલ્યા: હે ભગવન્! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરસ્વામીએ જે સ્વશાસનની અપેક્ષા ધર્મની આદિ કરવાવાળા, જેથી સ’સારસાગર તરી જવાય તેને તીર્થ કહે છે, તે તી, ચાર પ્રકારના ઇં–સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા એવા ચતુર્વિધસઘ રૂપ તીર્થની સ્થાપના કરવાવાળા, પોતે બાધ પામેલા, જ્ઞાન વગેરે અનંત ગુણુ સપન્ન હાવાથી પુરૂષાત્તમ, રાગદ્વેષાદિ શત્રુઓને પરાજય કરવામા અલૌકિક પરાક્રમવાળા ડાવાથી પુરુષમા કેસરીસિંહ સમાન, સમસ્ત અશુભરૂપી મળથી રહિત હાવાથી વિશુદ્ધ, શ્વેતકમળ સમાન નિર્મળ, એટલે કે—જેમ કાદવમાંથી ઉત્પન્ન થયેથ્યુ કમળ પાણીના ચેગથી વધતુ હાવા છતા Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनरबोधिनी टीका अ. १ जम्बूस्वामी प्रश्नः लोकहितेन, लोकप्रदीपेन, लोकप्रद्योतकरण, अभयदेन, चक्षुर्देन, मार्गदेन, भी कमल उन दोनों (जल-कीच) के संसर्ग को छोडकर सदा निर्लेप रहता है, और अपने अलौकिक सुगंधि आदि गुणोंसे देव मनुष्यादिकोंका शिरोभूषण बनता है, वैसे ही भगवान् कर्मरूपी कीचड से उत्पन्न और भोगरूपी जलसे बढे हुए होकर भी उन दोनोंके संसर्गको त्याग कर निर्लेप रहते हैं और केवलज्ञानादि गुणोंसे परिपूर्ण होनेके कारण भव्य जीवों के शीरोधार्य हैं, जिसका गन्ध सूंघते ही सब हाथी डर के मारे भाग जाते हैं। उस हाथीको 'गन्धहस्ती' कहते हैं। उस गन्धहस्तीके आश्रयसे जसे राजा सदा विजयी होता है, उसी प्रकार भगवान के अतिशय से देशके १ अतिवृष्टि, २ अनावृष्टि, ३ शलभ(तीड), ४ चूहे, ५ पक्षी, ६ स्वचक्र-परचक्र-भय, यह छह प्रकारकी ईति, और महामारी आदि सभी उपद्रव तत्काल दूर हो जाते हैं । और आश्रित भव्य जीव सदा सब प्रकारसे विजयी होते हैं । चौतीस अतिशयों और वाणीके पैंतीस गुणोंसे युक्त होनेके कारण लोगोमें उत्तम । अलभ्य रत्नत्रय के लाभ रूप योग और लब्ध रत्नत्रयके पालन रूप क्षेमके कारण होने से भव्य जीवोंके नाथ । एकेन्द्रिय आदि सकल प्राणीगणके हितकारक । जिस प्रकार એ બેઉ (પાણી–કાદવ) ને સ સને છોડીને હમેશાં નિલેપ રહે છે, તથા પિતાની અલૌકિક સુગધ આદિ ગુણેથી દેવ, મનુષ્ય આદિના મસ્તકનું ભૂષણ બને છે, તેવી જ રીતે ભગવાન કર્મરૂપી કાદવમાંથી ઉત્પન્ન અને ભૂગરૂપી જલથી વૃદ્ધિ પામ્યા છતા તે બેઉને સંસર્ગને ત્યાગ કરીને નિર્લેપ રહે છે, તથા કેવળજ્ઞાન આદિ ગુણોથી પરિપૂર્ણ હેવાથી ભવ્યજીવને શિરોધાય છે જેને ગંધ સુઘતાજ બધા હાથી બીકથીજ ભાગી જાય છે તેવા હાથીને “ગધહસ્તી' કહે છે, તે ગધહસ્તીના આશ્રયથી જેમ રાજા હમેશાં વિજય મેળવે છે, તેવી જ રીતે ભગવાનના આ તશયથી દેશના અતિવૃષ્ટ (૧), मनावृष्टि (२), शमा (ता) (3), 6४२ ४), पक्षी (५), स्वयपरस्य अय (8), એ છ પ્રકારની ઈતિ (ઉપદ્રવ) અને મહામારી આદિ સર્વે ઉપદ્રવ તત્કાલ દૂર થઈ જાય છે, તથા આશ્રિત ભવ્ય જીવ હમેશાં સર્વ પ્રકારે વિજયી થાય છે ચેત્રીશ અતિશય તથા વાણીના પાત્રીશ ગુણેથી યુક્ત હોવાથી લેકેમાં ઉત્તમ, અલભ્ય રત્નત્રયના લાભારૂપી વેગ, તથા લબ્ધ રત્નત્રયના પાલન રૂપી ક્ષેમનું કારણ હોવાથી ભવ્ય જીના નાયક, એકેન્દ્રિય આદિ સર્વ પ્રાણીગણના હિત કરનારા, જેમ પિક Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामूत्रे दीपक सबके लिये समान प्रकाशकारी है तो भी नेत्रवाले ही उससे लाभ उठा सकते हैं नेत्रहीन नहीं, उसी प्रकार अगवानका उपदेश सबके लिये समान हितकर होने पर भी भव्य जीव ही उससे लाभ उठाते हैं अभव्य नहीं, अतएव भव्यों के हृदय में अनादि काल से रहे हुए मिथ्यात्व रूप अन्धकार को मिटाकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले । लोक शब्दसे यहां लोक और अलोक दोनोंका ग्रहण है अतएव केवलज्ञान रूपी आलोकसे समस्त लोकालोकके प्रकाश करनेवाले । मोक्षके साधक उत्कृष्ट धैर्य रूपी अभय को देनेवाले, अथवा-समस्त प्राणियोंके सकटको छुडाने वाली दया (अनुमम्पा) के धारक । ज्ञाननेत्रके दायक, अर्थात् जसे किसी गहन वनमें लुटेरोंसे लूटे गये और आखों पर पट्टी बांध कर तथा हाथ पैर पकड कर गड्ढेमें गिराये गये पथिकके कोई दयालु सब बन्धनों को तोड कर नेत्र खोल देता है, इसी प्रकार भगवान भी संसार रूपी अपार कान्तारमें राग-देष रूप लुटेरोंसे, ज्ञानादि गुणोंको लूट कर तथा कदाग्रह रूप पटेसे ज्ञान चक्षुको ढक कर मिथ्यात्व के गड्ढे में गिराये गये भव्य जीवोंके उस कदाग्रह रूप पट्टेको दूर कर ज्ञाननेत्रको देने वाले हैं, अतएव सम्यक् रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग, બધાને માટે સરખે પ્રકાશ કરે છે તે પણ આપવાળાજ માત્ર તેનાથી લાભ મેળવી શકે છે નેત્રહીન એટલે આધળા મેળવી શકતા નથી. તેમ ભગવાનનો ઉપદેશ બધા માટે સમાન હિતકારક હોવા છતાં પણ ભવ્ય જીજ તેને લાભ મેળવી શકશે અભવ્ય નહિ મેળવી શકે. એ રીતે ભવ્યના હૃદયમાં અનાદિ કાળથી રહેલું મિથ્યાત્વરૂપી અધારૂ મટાડીને આત્માના યથાર્થ સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળા. લેક શબ્દથી અહીં લાક અને અલેક બેઉ સમજવાના છે. આ રીતે કેવળજ્ઞાનરૂપી આકથી તમામ લેક અને અલોકને પ્રકાશ કરવાવાળા, મેક્ષના સાધક, ઉત્કૃષ્ટ પૈવરૂપી અભયને દેવાળ, અથવા સમસ્ત પ્રાણિઓનાં સંકટ મટાડનારી દયા (અનુકંપા)ના ધારક જ્ઞાનરૂપી નેત્ર આપનારા અર્થાત્ જેમ કે ગહનવનમાં લટારાથી લૂટાઈ ગયેલા અને આખે પાટા બાધીને તથા હાથપગ પકડીને ખાડામાં નાખી દીધેલા મુસાફરને કઈ દયાળુ બધા બંધને તેડી આંખ ઉઘાડી દે છે તેવી રીતે ભગવાન પણ સંસારરૂપી અટવીમાં રાગ-દ્વેષ રૂપી લૂટારાથી, જ્ઞાનાદિ ગુણેને લૂટી તથા કદાહરૂપી પાટાથી જ્ઞાનચક્ષુને ઢાકી દઈ મિથ્યાત્વરૂપી ખાડામાં પાડી નાખેલા ભવ્યજીને કદાગ્રહરૂપી પાટાથી મુકત કરી જ્ઞાનરૂપી નેત્રદેવાવાળા, એટલે સભ્ય રત્નત્રય સ્વરૂપ મોક્ષમાર્ગ અથવા વિશિષ્ટ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ जम्बूस्वामी प्रश्नः . २१ शरणदेन, जीवदेन, बोधिदेन, धर्मदेन, धर्मदेशनादेन, धर्मनायकेन, धर्मसारथिकेन, धर्मवर-चातुरंतचक्रवर्तिकेन, द्वीपत्राण-शरण-गतिप्रतिष्ठेन, अप्रतिहतअथवा विशिष्ट गुणको प्राप्त होने वाले, क्षयोपशम भाव रूप मार्गको देने वाले । कर्म शत्रुओं से दुःखित प्राणियोंको शरण (आश्रय) देने वाले, पृथिव्यादि षड्जीव-निकाय में दया रखने वाले, अथवा मुनियोंके जीवनाधार स्वरूप संयमजीवितको देने वाले । शम संवेग आदि प्रकाश, अथवा जिनवचनमें रुचिको देने वाले। धर्मके उपदेशक। धर्मके नायक अर्थात् प्रवर्तक । धर्मके सारथी अर्थात जिस प्रकार रथपर चढे हुए को सारथी रथके द्वारा सुखपूर्वक उसके अभीष्ट स्थान पर पहुंचाता है, उसी प्रकार भव्य प्राणियो को धर्म रूपी रथके द्वारा सुखपूर्वक मोक्ष स्थान पर पहुंचाने वाले । दान, शील, तप और भावसे नरक आदि चार गतियों का अथवा चार कषायोंका अन्त करनेवालें, अथवा चार-दान, शील, तप और भाव से अन्त-रमणीय, या दान आदि चार अन्त-अवयव वाले, अथवा दान आदि चार अन्त-स्वरूप वाले श्रेष्ठ धर्म को 'धर्मवरचातुरन्त' कहते हैं, यही जन्म जरा मरण के नाशक होने से चक्र के समान है। अतएव धर्मवरचातुरन्त रूप चक्र के धारक । यहाँ पर 'वर' पद देनेसे राजचक्रकी अपेक्षा धर्मचक्रकी उत्कृष्टता तथा सौगत (बौद्ध ) आदि धर्मका निराकरण किया गया है, क्योंकि राजचक ગુણના પ્રાપ્ત કરાવવાવાળા પશમભાવ રૂપી માર્ગ દેવાવાળા, કર્મશત્રુથી પીડિત પ્રાણિઓને આશ્રય દેવાવાળા, પૃથ્વી આદિ છ જવનિકાયમી દયા રાખવાવાળા, અથવા મુનીના જીવન આધાર સ્વરૂપ સંયમ જીવન દેવાવાળા, શમ સ વેગ આદિ પ્રકાશ અથવા જિન વચનમાં રૂચિ દેવાવાળા, ધર્મના ઉપદેશક, ધર્મના નાયક અર્થાત પ્રવ ક, ધર્મના સારથી અર્થાત્ જેમ રથ ઉપર બેઠેલાને સારથી રથવડે સુખપૂર્વક તેના અભીષ્ટ સ્થાને પહોંચાડે છે તેવી રીતે ભવ્ય પ્રાણિઓને ધર્મરૂપી રથદ્વારા સુખપૂર્વક માક્ષસ્થાન પર પહાચાડનાર, દાન, શીલ, તપ તથા ભાવથી નરક આદિ ચાર ગતિએન અથવા ચાર કષાયેના બંત કરવાવાળા, અથવા ચાર-દાન, શીલ, તપ તથા ભાવેથી આ ત=રમણીય, અથવા દાન આદિ ચાર અન્ત =અવયવવાળા, અથવા દાન આદિ ચાર અન્તસ્વરૂપવાળા, શ્રેષ્ઠ ધર્મને “ધર્મવરચાતુરન્ત” કહે છે, એજ જન્મ જરા મરણને નાશ કરવાવાળા હોવાથી ચક્ર સમાન છે, એટલે ધર્મવરચાતુરત રૂપી ચકના ધારક, અહીં “વર” પદ ગ્રહણ કરવાથી રાજચકની અપેક્ષા ધર્મચક્રની ઉત્કૃષ્ટતા તથા સોગત (બાદ્ધ) આદિ ધર્મનું નિરાકરણ કરેલું છે, કેમકે રાજચક કેવળ આ લેકનું જ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामूत्रे वरज्ञानदर्शनधरेण, ध्यावृत्तच्छमकेन, जिनेन, जायकेन, तीर्णेन, तारकेण, बुद्धेन, बोधकेन, मुक्तेन, मोचकेन, सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना, शिवमचलमरुज-मनन्तमक्षयमव्यावाधमपुनरावृत्तिकं सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संपाप्तेन, कोऽर्थः= केवल इस लोकका साधक है, परलोकका नहीं, तथा सौगत आदि धर्म यथार्थ तत्वोंका निरूपक न होनेसे श्रेष्ठ नहीं। 'चक्रवर्ती' पद देनेसे तीर्थङ्करोंको छह खण्डके अधिपतिकी उपमा दी गई है, क्योंकि वह चक्रवर्ती भी चार सीमावाले, अर्थात् उत्तर दिशामें हिमवान् और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, दिशाओमें लवण समुद्र तक जिसकी सीमा है ऐसे भरतक्षेत्र पर एक शासन राज्य करता है। संसार-समुद्रमें डूबते हुए जीवोंके एक मात्र आश्रय होनेसे दीप समान । भव्य जीवोंके कल्याणकारी होनेसे त्राणस्वरूप अतएव उनके गरण-आधारस्थान । तीनों कालमें अविनागी स्वरूप वाले । आवरणरहित केवलज्ञान, केवलदर्शन के धारक । ज्ञानावरणीय आदि कर्मोका नाश करने वाले । राग-द्वेपरूप ात्रको स्वयं जीतने वाले और दूसरोंको जीताने चाले । भवसमुद्रको स्वयं तैरने वाले और दूसरोंको तिराने वाले । स्वयं बोधको प्राप्त करने वाले और दुमरोको प्राप्त कराने वाले । स्वयं मुक्त होने वाले और दूसरोंको मुक्त करनेवाले । सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा निरूपद्रव, निश्चल, कमरोगरहित, अनन्त, अक्षय, वाधारहित पुनरागमनरहित, ऐसे सिद्ध स्थान अर्थात् સાધન છે.પરલોકનું નહીં. તથા સીગત આદિ ધર્મ યથાર્થ તત્ત્વના નિરૂપણ ન કરતા હોવાથી શ્રેષ્ઠ નથી “ચક્રવર્તિ” પદ આપવાથી તીર્થકરોને છ ખંડના અધિપતિની ઉપમા દીધી છે, કેમકે તે ચક્રવતી પણ ચાર સીમાવાળા અર્થાત ઉત્તર દિશામાં હિમાવાન અને પૂર્વ, દક્ષિણ, પશ્ચિમ દિશાઓમાં લવણસમુદ્ર સુધી જેની સીમ છે એવા ભરતક્ષેત્ર પર એક શાસન રાજ્ય કરે છે સંસારસમુદ્રમાં ડૂબતા જીને એકજ આશય હોવાથી ઢીષ સમાન, ભવ્યજીના કલયાણકારી હોવાથી ત્રણ વરૂપ તેથી તેઓને શરણ-આધારસ્થાન, ત્રણે કાળમા આવરણરહિત કેવળજ્ઞાન, કેવળદર્શનના ધારક, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના નાશ કરવાવાળા, રાગદ્વધરૂપી શત્રુને જાતે જ જીતનારા તેમજ બીજાને જીતાવવાવાળા, ભવસમુદ્રને જાતે તરનારા તેમ બીજાને તારનારા, પિતે બેધ મેળવનારા તેમજ બીજાને બેધ પ્રાપ્ત કરાવનારા,પિતે મુક્ત થવાવાળા તથા બીજને મુક્ત કરવાવાળા, સર્વજ્ઞ સર્વદશી તથા ઉપદ્રવ વગરના નિશ્ચલ કમરગ રહિત, અનન્ત, અક્ષય, બાધારહિત, પુનરાગમન રહિત, એવા સિદ્ધસ્થાન એટલે મોક્ષને પ્રાપ્ત Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ शास्त्रपरिचयः 'शब्दसमुदायात्मकवाक्यतात्पर्यविषयीभूतः को भावः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः, कथित इत्यर्थः । जम्बूस्वामिपृच्छानन्तरं सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति प्राह-हे जम्बूः ! एवम् इत्थम् खलु-निश्चयेन यावत्-उक्तगुणवता सम्प्राप्तेन मुक्ति लब्धता श्रमणेन भगवता महावीरेण एवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाङ्गानां 'पञ्च वर्गाः' इति, अध्ययनसमूहो वर्गस्ते प्राप्ताः-निरूपिताः, तद्यथा-ददेव दश्यते-निरयावलिकाः . (१), अस्योपागस्य 'कल्पिके ति नामान्तरम्, कल्पावतंसिकाः (२), पुष्पिताः (३), पुष्पचूलिकाः (४), वृष्णिदशाः (५), अस्य 'वहिदशे'ति नामान्तरम् । इद सर्वत्रावयवंगतबहुत्वविवक्षायां बहुवचनम् । तत्र निरयावलिकाः यत्रावलिकाप्रविष्टाः श्रेणिष्ववस्थिताः इतरे च नरकाऽऽवासाः प्रसङ्गतस्तद्गामिनश्च मनुष्यास्तिर्यञ्चः प्रतिगायन्ते तास्तथा (१), कल्पावतंसिकाःमोक्षको प्राप्त करने वाले उन प्रभुने उपाङ्गोंका क्या भाव कहा ?। इस प्रकार जम्बूस्वामीके पूछने पर श्री सुधर्मा स्वामीने जम्बूस्वामीसे कहा-हे जम्बू ! इस प्रकार उक्त गुण विशिष्ट यावत् सिद्धि गतिको प्राप्त करने वाले भगवान्ने उपाडौके पांच वर्ग निरूपण किये हैं वे क्रमशः इस प्रकार हैं:... (१) निरयावलिका, इसका दूसरा नाम 'कल्पिका, भी है । (२) कल्पावंतसिका, (३) पुल्पिता, (४) पुष्पचूलिका और (५) वृष्णिदशा, इसका भी 'वहिदशा' दूसरा नाम है । यही सब जगह-अवयवगत बहुत्व विवक्षा से बहु वचन है। इन पांचोंमेसे प्रथम-(१) निरयावलिका सूत्र में नरकावासोंका तथा उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यचौका वर्णन है। કરવાવાળા તે પ્રભુએ ઉપાંગે ભાવ શું કહ્યો છે. એ પ્રકારે જ બૂ સ્વામીએ પૂછવાથી શ્રી સુધમાં સ્વામીએ જંબુ સ્વામીને કહ્યું –હે જંબૂ ! એ પ્રકારે કહેલા ગુણવિશિષ્ટ થાવત્ સિદ્ધિ ગતિની પ્રાપ્તિ કરવાવાળા ભગવાને ઉપાંગોના પાચ વર્ગ નિરૂપણ કર્યા છે તે અનુક્રમે નીચે પ્રમાણે છે: (१) निरयावि, भानुं भी नाम दिय४' (२) ४६५'तसि (૩) પુપતા (૪) પુષ્પલિકા તથા (૫) વૃષ્ણિદશા આનું પણ “વદ્વિદશા” એવું બીજું નામ છે અહીં બધે ઠેકાણે અવયવગત મહત્વ વિક્ષાથી બહુવચન વપરાયું છે. છે એ પાચેમાંથી પ્રથમ (૧) નિયાવલિકા સૂત્રમાં નરકાવાસેનું તથા તેમાં ઉત્પન્ન થનાશ મનુષ્ય તથા તિર્યચેનું વર્ણન છે. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ निरयावलकासूत्रे नाम - कल्पावर्तमक देवमतिवद्ध ग्रन्थपद्धतिः, तास्तथा (२), पुष्पिताः - संयमभावनया पुष्पिताः सुखिनाः प्राणिनः संयमाऽऽराधनपरित्यागेन ग्लानावस्थां प्राप्ताः सङ्कचिताः सन्तो भूयस्तदाराधनेन पुष्पिता यत्र प्रतिपाद्यन्ते ताः पुष्पिताः (३), 'पुष्पचूलिकाः ' पूर्वो कार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडाः, ता एव तथा ड - लयोरैक्यात् (४), वृष्णिदशा:- अयं चाऽन्वर्थः- वृष्णिपढेन 'नामैकदेशेन नामग्रहणम्' इति न्यायवलात् अन्धकवृष्णिनराधिपो ग्रद्यते, तत्कुले ये, जातास्तेऽपि अन्धकवृष्णयो निगद्यन्ते तेषां दशा:=अवस्थाश्चरित गतिसिद्विगमनलक्षणा यासु ग्रन्थपद्धतिषु वर्ण्यन्ते तास्तथा ( ५ ), तत्र 'अन्तदशाङ्गस्य कल्पिका (निरयावलिका) (१), अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गस्य कल्पावर्तसिकाः (२) मश्नव्याकरणस्य पुष्पिकाः (ताः) (३), विपाकसूत्रस्य पुष्पचूलिकाः (४), दृष्टिवादस्य वृष्णिदशाः (५) उपाद्गानि विज्ञेयानि ॥ ५ ॥ , (२) द्वितीय - कल्पातंमिका सूत्र में सौधर्म आदि बारह देवलोको कल्पप्रधान इन्द्र सामानिक आदिकी मर्यादायुक्त-कल्पावतंसकविमानोंका और तप विशेषसे उनमें उत्पन्न होने वाले देवोंका तथा उनकी ऋद्धिका वर्णन है । (३) तृतीय पुष्पिता सूत्रमें जिन्होंने संयम भावनासे विकमित हृदय होकर संयम लिया, पीछे उसके आराधनाका परित्याग करनेमें शिथिल होनेसे ग्लान अवस्थाको प्राप्त हुए और फिर संयमकी आराधना करके पुष्पित और सुखी बने, उनका वर्णन है । (४) चौथे पुष्पचूलिका सूत्र में पूर्वोक्त अर्थका ही विशेष वर्णन है । (५) पांचवें - वृष्णिदशा सूत्रमें अन्धकवृष्णि राजाके कुलमें उत्पन्न होने वालोंकी अवस्था-चरित्र, गति और सिद्धिगमनका वर्णन है । (૨) દ્વિતીય-કલ્યાવતસિકા સૂત્રમા સૌધર્મ આદિ ખાર દેવલાકમા ૫ પ્રધાન ઈંદ્રસાાનિક આદિ મર્યાદાયુકત કપાવતસક વિમાનાનું તથા તપ વિશેષથી તેમાં ઉત્પન્ન થનારા દેવેનુ તથા તેમની ઋદ્ધિનું વર્ણન છે (૩) તૃતીય—પુષ્પિતા સૂત્રમાં જેમણે સયમ ભાવનાથી વિકસિત હૃદયપૂર્ણાંક સયમ લીધા, પછી તેની આરાધનાના પરિત્યાગ કરવામાં શિથિલ થઇ જતાં પ્લાન અવસ્થા પ્રાપ્ત થઇ અને ફરી સચમની આરાધના કરી પુષ્પિત અને સુખી બન્યા તેનું વર્ણન છે. (૪) ચેાથા પુષ્પચૂલિકા–સૂત્રમા અગાઉ કહેલા અનુંજ વિશેષ વર્ણન છે. (૫) પાચમાં વૃષ્ણુિદશા-સૂત્રમાં અન્ધવૃષ્ણુિરાજાના કુળમાં ઉત્પન્ન થનારની અવસ્થા, ચારિત્ર, ગતિ તથા સિદ્ધિગમનનું વર્ણન છે. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ जम्बूस्वामि प्रश्नः मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणंपंच वग्गा पन्नत्ता तं जहा निरयावलियाओ जाव वहिदसाओ, पढमस्स णं भंते ! वग्गस्त उवंगाणं निरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कई अज्झयणा पन्नत्ता ? ॥ ६ ॥ ___छाया-पदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-निरयावलिका यावत् वृष्णिदशाः, प्रथमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां निरयावलिकानां श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कति अध्ययनानि प्राप्तानि ? ॥ ६ ॥ ___टीका-' जइणं भंते' इत्यादि । अथ सोत्साहं सविनयं जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं पमच्छ-भदन्त-हे भगवन् ! यदि-यदा खलु-निश्चयेन यावत्उक्तगुणवता संप्राप्तेन=मुक्तिं लब्धवता, श्रमणेन-दुश्वरतपश्चर्या प्रसिद्धेन भगवता महावीरेण उपाङ्गानां पञ्चवर्गाः प्रज्ञप्ता:निरूपिताः तद्यथा-तदेव दयतेनिरयावलिका इत्यारभ्य वृष्णिदशापर्यन्ताः, तेषु हे भदन्त --हे भगवन निरयावलिकानामुपाङ्गानां प्रथमवर्गस्य श्रमणेन भगवता यावत्-उक्तगुणवता सम्प्राप्तेन-मोक्षंगतेन कति=कियत्संख्यकानि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? ॥६॥ मूलम्-एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्त वग्गस निरयावलियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं निरयावलिका-अन्तकृदशाङ्गका उपाङ्ग है । कल्पावतंसिका-अनुत्तरोपपातिक दशाङ्गका। पुष्पिका-प्रश्नव्याकरणका । पुष्पचूलिकाविपाकसूत्रका। और वृष्णिदशा-दृष्टिवादका उपाङ्ग है। ॥ ५॥ __ 'जइण भंते' इत्यादि । हे भदंत ! भगवान महावीर प्रभुने निरयावलिका से लेकर वृष्णिदशा पर्यन्त उपागोंके पांच वर्ग कहे उनमें भगवानने निरयावलिका के कितने अध्ययन कहे हैं ? ॥ ६ ॥ નિરયાવલિકા–અ તકૃતદશાંગનું ઉપાંગ છે, કલ્પાવત સિક. એ અનુત્તરોપાતિક દશાંગનું, પુષ્પિક પ્રશ્નવ્યાકરણનું, પુષિચૂલિકા, એ વિષાક સૂત્રનુ તથા, વૃ@િદશા, એ દષ્ટિવાદનું ઉપાંગ છે કે પર 'जइणं भंते' या नात! लगवान महावीर प्रभुमे निरयापतिथी માંડીને વૃષ્ણિદશા સુધીનાં ઉપગના પાંચ વર્ગ કહ્યા તેમાં ભગવાને નિશ્યાવલિકાનાં કૈટલાં અધ્યયન કહ્યાં છે? ૬ છે Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - __ निरयावलिकामत्र जहा-काले १ सुकाले २ महाकाले ३ कण्हे ४ सुकण्हे ५ तहा महाकण्हे ६ वीरकण्हे ७ य बोद्धव्वे रामकण्हे ८ तहेव य पिउसेणकण्हे ९ नवमे दसमे महासेणकण्हे १० उ ॥७॥ छाया-एवं खलु जम्युः ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन उपागानां मथास्य वर्गस्य निरयावलिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि नद्यथा-कालः (१) नुकालः (२) महाकालः (३) कृष्णः (४) सुकृष्णः (५) तया महाकृष्णः (६) बीरकृष्णश्च (७) बोद्धव्यः । रामकृष्णः (८) तथैव च पितृ सेनकृष्णो नवमः (१) दशमो महासेनकृष्णस्तु (१०) ॥ ७ ॥ टीका-सुधर्मास्वामी प्राद-एवं खलु' इत्यादि-हे जम्बूः ! एवं खनु यावत्-उक्तगुणवता सम्प्राप्तेन सिद्विगति गतेन, श्रमणेनघोरपरीपहोपसर्गसहनशीलेन भगवता महावीरेण निरयावलिकानामकोपाजस्य प्रथमम्य वर्गम्य दश अध्यनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-कालः (१), मुकालः (२), महाकालः (३), कृष्णः (४), सुकृष्णः (५), तथा महाकृष्णः (६), वीरकृष्णः (७), नामकृष्णः (८), तथैव च पितृसेनकृष्णः (९), नवमः । दशमस्तु, महासेनकृष्णः (१०). ... वोद्धव्य इति सर्वत्रान्वेनि, विजेय इति तदर्थः । काल्यादिशन्देभ्य इदमर्थेऽणप्रत्यये कृते कालादयः शब्दाः सिद्धयन्ति तथा काल्याःतन्नाम्न्या श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामीसे कहते हैं-' एवं खलु' इत्यादि। हे जम्बू ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवानने निरयावलिकाक दस अध्ययन कहे हैं, उन दस अध्ययननोंके नाम इस प्रकार है(१) काल, (२) सुकाल, (३) महाकाल, (४) कृष्ण, (५) सुकृष्ण (६) महाकृष्ण, (७) वीरकृष्ण, (८) रामकृष्ण (९) पितृसेन कृष्ण, और (१०) महासेनकृष्ण । 'काली' आदि शब्दौसे-उसके सम्बन्धी अर्थमें 'अण' प्रत्यय श्री सुधारवामी श्री स्वाभान ४७ :- ‘एवं खलु' त्या _હ જંબુ! શ્રમણ યાવત્ મોક્ષપ્રાપ્તિ ભગવાને નિરયાવલિકાનાં દશ અધ્યયન કહ્યાં છે. એ દશ અધ્યયનના નામ આ પ્રકારના છે . .(१) स, (२) सुस, (3) Hea, (४) ४], (५) सु), () महाप, (७) वीर, (८) समय (6) पितृसेन तथा (10) महासेनय કાલી” આદિ શબ્દોથી તેના સંબંધી અર્થમાં “અ” પ્રત્યય કર્યો છે, જેથી Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ जम्बूस्वामि पश्नः महाराझ्या अयं पुत्र इति कालः । एवं सर्वत्र विज्ञेयम् । अत्र 'कुमारे 'ति सर्वत्र योजनीयं यथा-'कालकुमार' इत्यादि, कालीकुमार इत्यर्थः ॥७॥ मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स निरयावलियाणं ससणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ? ॥ ८ ॥ छाया-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य निरयावलिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य निरयावलिकानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ॥ ८ ॥ टीका-'जइणं भंते' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! हे भगवन् ! यावत् पूर्वोक्तगुणवता संप्राप्तेन मुक्ति लब्धवता, श्रमणेन भगवता महावीरेण निरयावलिकानामकोपागस्य प्रथमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि मज्ञप्तानि-निगदितानि हे भदन्त ! = हे भगवन् ! निरयावलिकानां प्रथमस्य अध्ययनस्य यावत्-पूर्वोकगुणवता संप्राप्तेन मुक्तिं लब्धवता श्रमणेन-भगवता महावीरेण कोऽर्थः प्रज्ञप्तः प्रतिपादितः ? . अत्र सवत्र 'श्रमणेन' 'यावत्' 'संप्राप्तेन' इत्यादिपदानां पुनः पुनरुपादानं भगवद्भक्तिवाहुल्यसूचनाय । किया है, जिससे काली महारानीका पुत्र काल कुमार कहा जाता है, उसके चरित्रप्रतिबोधक अध्ययन भी काल-अध्ययन नामसे प्रसिद्ध है। इस प्रकार सब अध्ययनकी योजना समझना चाहिए ॥ ७ ॥ जम्बू स्वामीने सुधर्मा स्वामीसे फिर पूछा 'जइणं भंते' इत्यादि । हे भदन्त ! इन दस अध्ययनोंमें प्रथम-कालकुमार अध्ययनका भगवानने क्या अर्थ कहा? यहां सर्वत्र श्रमण आदि पदोंका पुनः पुनः उपादान किया है वह भगवानकी अतिशय भक्ति सूचनार्थ है । अथवा वाक्यभेदसे કાલી મહારાણના પુત્ર કાલકમાર કહેવાય છે તેનું ચરિત્રપ્રતિબંધક અધ્યયન પણ કાલઅધ્યયન નામથી પ્રસિદ્ધ છે. આ પ્રકારે બધા અધ્યયનની યોજના સમજવી જોઈએ છા ४) स्वामी सुधर्मा स्वाभान वणी पूछ्यु-' जइणं भंते' त्या હે ભદુત, એ દશ અધ્યયનમાં પ્રથમ-કાલકુમાર અધ્યયનને ભગવાને શું અર્થ કો? - અહીં સર્વત્ર શ્રમણ આદિ પદનું વાર વાર ઉપાદાન કર્યું છે, તે ભગવાનની આતશય ભકિત સૂચનાથે છે. અથવા બ્રાય ભેદથી પુનરૂકિત દોષ ન સમજવું જોઈએ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ निरयावलिकामूत्रे यद्वा-वाक्यभेदेन पुनरुक्तिने विज्ञेया । अन्यच्च भगवद्गुणानां सन्ततं स्मरणेन भव्यानामन्यविपयतो मनोनिवृत्तिपूर्वकोपादेयविषयावधानार्थ पुनः पुनः कथनं गुण एवेति ॥ ८॥ ___ अथ प्रथमं कालकुमारं वर्णयति-'एवं खलु' इत्यादि । मूलम्-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपा नाम नयरी होत्था, रिद्ध०, पुन्नभद्दे चेइए, तत्थणं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो पुत्ने चेल्लणाए देवी अत्तए कूणिए नामं राया होत्था, महया०, ॥९॥ छाया-एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इदैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे चंपा नाम नगरी अभूत् । ऋद्र०, पूर्णभद्रं चैत्यम् , तत्र खलु चम्पायां नगया श्रेणिकस्य राज्ञः चेल्लनाया देव्या आत्मजः कणिको नाम राजाऽभवत्, महता० ॥ ९ ॥ ___टीका-हे जम्वृः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव अस्मिन्नेव दशनः प्रत्यक्ष दृश्यमाने जम्बूद्वीपे तन्नामकमध्यद्वीपे न पुनर्जम्बूद्वीपानामनन्तत्वादन्यत्रेति भावः । भारते वर्षभरतक्षेत्रे-भरतक्षेत्रस्य मध्यमदेशे चम्पा नाम नगरी पुनरुक्तिदोष नहीं समझना चाहिए। अथवा भगवान के गुणोंको चार चार स्मरण करनेसे भव्यों का अन्य विषयसे मनोवृत्ति का निरोध होजाता है। उपादेय विषयमें सावधान होनेके लिये पुनः पुनः उन्हीं शब्दोंका उच्चारण किया है अर्थात् उन्हों पदोंका बार चार श्रवण करनेसे उपादेय विषय पर चित्त श्रद्धालु होजाता है ||८|| यहां प्रथम काल कुमारका वर्णन करते हैं श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं-' एवं खलु' इत्यादि। हे जम्यू ! उस काल उस समय इसी ही-मध्य जम्बू द्वीप અથવા ભગવાનના ગુણાનું વારંવાર સ્મરણ કરવાથી ભવ્યાની બીજા વિષયથી મનાવૃત્તિને નિરોધ થઈ જાય છે ઉપદેય વિષયમાં સાવધાન થવા માટે ફરી ફરી તે શબ્દનું ચિત્ત શ્રદ્ધાળુ થઈ જાય છે. ૮ છે અહિં પહેલા કાલકુમારનું વર્ણન કરે છે – श्री सुधा स्वामी श्री स्वामीन ४३ छे:- ' एवं खलु' Uत्या. હિં જબૂ! તે કાલ તે સમય આજ મધ્ય જંબુદ્વીપમાં ભારતનાએ ક્ષેત્ર છે જેના ઉચ્ચારણ કર્યો છે અર્થાત તેના તે શબ્દ વાર વાર શ્રવણ કરવાથી ઉપાય વિષયમાં Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कूणिकराजवर्णनम् अभूत् 'ऋद्धस्तिमितसमृद्धा' ऋद्धा-नभःस्पर्शिबहुलप्रासादयुक्ता बहुलजनसङ्खला च, स्तिमिता= स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा-धन-धान्यादिपरिपूर्णा, अत्र त्रिपदकर्मधारयः । तत्रेशानकोणे पूर्णभद्रं नाम चैत्यम् व्यन्तरायतनम् उद्यानमिति वा आसीदिति शेषः । तत्र खलु चम्पानगया श्रेणिकस्य तन्नामकस्य, राज्ञः पुत्रः चेल्लनाया:-तनाम्न्या देव्याः-राश्याः आत्मजा अङ्गजातः कूणिको नाम राजा अभवत् । 'महता' शब्देन-'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे' अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंसम्प्पनए, निरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे सीमंधरे मस्सिदे, पुरिससीहे, पसंतडिंबडंवररज्जं पसाहेमाणे विहरई' इत्यादीनां सङ्ग्रहः। छायामहाहिमवन्महामलयमन्दमहेन्द्रसारः, अत्यन्तविशुद्धदीर्घराजकुलवंशसुप्रसूतः, निरन्तरं राजलक्षणविराजिताङ्गाङ्गः, सीमन्धरः, मनुष्येन्द्रः, पुरुपसिंहः, प्रशान्तडिम्बडम्बरं राज्यं प्रसाधयन् विहरति । राजवर्णनमाह-'महाहिमवदित्यादिना-महाश्चासौ हिमवान् महा हिमवान् स इत्र महान शेषराजपर्वतापेक्षया, मलयो मलयाचलः, मन्दरो मेरुगिरिः, महेन्द्रः सुरपतिः पर्वतविशेषो वा, तद्वत्सार प्रधानो यस्तथा, अत्यन्तविशुद्ध अतिनिर्मलः दीर्घ-चिरकालीनो राज्ञां कुलरूपो वंशस्तत्र प्रमूतः जातः अतिमें भरत नामका क्षेत्र है, उसके मध्य भागमें चम्पा नामकी नगरी गगनचुम्बी प्रासादों से अलस्कृत, स्वचक्र परचक्रका भय रहित और धन धान्य आदि से सम्पन्न थी। उसके ईशान कोणमें पूर्णभद्र नामका व्यन्तरायतन था। उस चम्पानगरीमें श्रेणिक राजाके पुत्र कोणिक राजा राज्य करते थे जो चेलना महारानीके गर्भसे जन्मे थे। कोणिक राजाका वर्णन इस प्रकार है-महा हिमवान पर्वतके समान थे अर्थात्-शेष अन्य राजा रूप पर्वतोंसे बढे चढे थे। मलय पर्वत और महेन्द्र पर्वत के समान श्रेष्ठ थे, अत्यन्त निर्मल प्राचीन મધ્ય ભાગમાં ચપા નામની નગરી આકાશસ્પશી ભવનોથી શોભિત સ્વપર ચકે ભય રહિત અને ધન ધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતી તેના ઈશાન કેણમાં પૂર્ણભદ્ર નામે વ્યતરાયતન હતું. તે ચ પા નગરીમાં શ્રેણિક રાજાના પુત્ર કેણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા, જે ચેલણ મહારાણીના ગર્ભથી જનમ્યા હતા કેણિક રાજાનું વર્ણન આ પ્રકારે છે મહા હિમવાન પર્વત સમાન હતા અથ શેષ અન્ય રાજા રૂપી પર્વતેથી માટા હતા, મલય પર્વત અને મહેન્દ્ર પર્વતના સમાન શ્રેષ્ઠ હતા. અત્યંત નિર્મલ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकास्त्रे निर्मलचिरन्तनराजकुलसमुत्पन्नः, निरन्तरं सर्वदा, राज्ञां लक्षणानि स्वस्तिकशङ्कचक्रादीनि तैः विराजितं-शोभितमनाङ्ग-प्रत्यहं यस्य स तथा, सामुद्रिकशाखप्रतिपादितराजलक्षणोपेतशरीर इत्यर्थः, 'सीमन्धरः' राजमर्यादापालकः 'मनुप्येन्द्र'मनुष्येपु-नरेषु इन्द्र इव ऐश्वर्यवान्, 'पुरुषसिंहः '=पुरुषेषु सिंह इव शुरः शत्रून् प्रति अप्रतिहतवीर्यवान् , 'प्रशान्ते' ति-प्रशान्तानि डिम्बानि अतिकृष्टयनाष्टिम्पकशलभशुकात्यासमराजरूपा विघ्नाः, डम्बराणि-परस्परराजमजाविरोधरूपक्लेशा यत्र, तथाभूतं राज्यं प्रसाधयन्=परिपालयन विहरति-तिष्ठति ।।९। मूलम्-तस्स णं कूणियस्स रन्नो पउमावई नामं देवी होत्था, सोमालपाणिपाया जाव विहरइ ॥१०॥ छाया-तस्य खलु कूणिकस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी अभवत्, मुकुमारपाणिपादा यावत् विहरति ॥ १० ॥ टीका-'तस्सणं' इत्यादि-तस्य कूणिकस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी अभवत्, तस्या वर्णनमाह-'सुकुमारपाणिपादा' सुकुमारं = कोमलं पाणिपादं राजवंशमें जन्मे थे। जिनके शरीर के प्रत्येक अवयवमें स्वस्तिक, शंख, चक्र आदि राजचिह्न यथास्थान स्थित थे। राजमर्यादाके पालक थे। ऐश्वर्यसम्पन्न होनेसे मनुष्योंके इन्द्र थे। और शत्रुओंको अप्रतिहन शक्ति द्वारा जीतनेसे पुरुषमें सिंहके समान थे। जिनका राज्य अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक चूहे, शलभ-टिडिया, शुक-तोते तथा राजाओं का युद्धादिके कारण गांव के समीप निवास करना, इन छह प्रकार की ईतियों-उपद्रवोंसे मुक्त था। एसे राज्यका पालन महाराज कोणिक करते थे। ॥ ९ ॥ 'तस्सणं' इत्यादि । महाराज कोणिकके पद्मावती नामक महाપ્રાચીન રાજવશમાં જન્મ્યા હતા જેના શરીરના પ્રત્યેક અવયવમાં સ્વસ્તિક, શંખ, ચિક આદિ રાજચિહ્ન ગ્ય ઠેકાણે રહેલાં હતાં. રાજમર્યાદાના પાલક હતા. એશ્વર્ય સપન્ન હોવાથી મનુષ્યના ઈન્દ્ર હતા તથા શત્રુઓને અપ્રતિહત શક્તિ દ્વારા જીતવાથી પુરુષમાં સિંહસમાન હતા. જેનું રાજ્ય અતિવૃષ્ટિ, અનાવૃષ્ટિ, મૂષક (ઉંદર), શલભ (તીડ), શુક પેટ) તથા રાજાઓનાં યુદ્ધ આદિના કારણે ગામની નજીક નિવાસ કરે, એ છે પ્રકારની ઈતિ એટલે ઉપદ્રવથી સુત હતું એવાં રાજ્યનું પાલન મહારાજ आणुि ४२ता ता. 'तस्सणं' त्यात महा अनि पावती नामनी भ७२राक्षी ती Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, अ. १ पद्मावतीवर्णनम् यस्या सा तथा, कोमलकरचरणयुक्ता, अत्र-'यावत्' शब्देन-'अहीणपंचिंदियसरीरा, लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगा, ससिसोमाकारा, कंता, पियदसणा, सुरूवा' इत्यन्तविशेषणानामन्यत्रोक्तानां समन्वयो बोद्धव्यः । एषां छाया-अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरा, लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता, मानोन्मानप्रमाणपरिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दरागी, शशिसौम्याकारा, कान्ता, प्रियदर्शना, सुरूपा, इति । अथैतानि विशेषणानि प्रतिपदं व्याचक्ष्महे-अहीनानि लक्षणस्वरूपाभ्यां परिपूर्णानि पञ्च इन्द्रियाणि यस्मिस्तादृशं शरीरं यस्याः सा अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरा-स्वस्वविषयग्रहणसमर्थपूर्णाकारचक्षुरादीन्द्रियविशिष्टेत्यर्थः, 'लक्षणे ति लक्ष्यन्ते-चितयन्ते यैस्तानि लक्षणानि स्त्रीचितानि हस्तस्थविद्याधनजीवितरेखारूपाणि वा, व्यज्यन्ते यैस्तानि व्यञ्जनानि-मपतिलकादीनि, गुणा:-सौशील्यपातिव्रत्यादयो, यद्वा - पूर्वोक्तप्रकारैर्लक्षणैर्व्यज्यन्ते इति लक्षणव्यञ्जनास्ते च रानी थी। 'सुकुमालपाणिपाया' जिसके हाथ पैर अत्यन्त कोलल थे। 'अहीणपंचिंदियसरीरा' लक्षण और स्वरूपसे परिपूर्ण (पूरी) पाच इन्द्रियां सहित शरीर वाली थी, अर्थात जिसकी चक्षु आदि पांचों इन्द्रिया अपने-अपने विषय ग्रहण करने में पूर्ण सावधान, तथा-यथायोग्य आकार वाली थी। 'लक्खणवंजणगुणोववेया' जिनके द्वारा पहचान होती है उनको लक्षण (चिह्न) कहते हैं। अथवा हाथ आदिमें बनी हुई विद्या धन जीवन आदिकी रेखाओको लक्षण कहते हैं। जिनके द्वारा अभिव्यक्ति (प्रगटपन) होती है, उन तिल और मस आदि को व्यञ्जल कहते हैं, सुशोलता पतिव्रतता आदि गुण हैं, इन तीनों से जो स्त्री युक्त हो उस लक्षणेव्यञ्जनगुणोपपेता कहते हैं, अथवा लक्षणोंके द्वारा व्यक्त ‘मुकुमालपाणिपाया 'रेना in ५५ अत्यत मिण ता. 'अहीणपंचिंदियसरीरा' क्षण तथा स्व३५थी परिपूर्ण पाय ७ दिया સહિત શરીરવાળી હતી અર્થાત જેની ચક્ષુ આદિ પાંચે ઈદ્રિયે પોત પોતાના ગ્રહણ કરવામાં પૂર્ણ સાવધાન તથા યથાયોગ્ય આકારવાળી હતી लक्खणवंजणगुणोववेया' माथी सोमाय न. क्षय ४९ छे अथवा हाथ આદિમાં બનેલી વિદ્યા ધન આદિની રેખાઓને લક્ષણ (ચિહ્ન) કહે છે જેના દ્વારા અભિવ્યકિત (પ્રગટપણું) થાય છે તે તલ અથવા મસ આદિને વ્યાજન કહે છે. સુશીલતા पति माह गुर छ.मा यथा २ श्री युत अाय तेने लक्षणव्यंञ्जनगुणापपता ४ छ मया लक्ष द्वारा व्यतापावाणा गुबान सक्ष, व्यनगुष्प Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिका मूत्र गुणाः, अथवा-प्रोक्तस्वरूपाणां लक्षगव्यञ्जनानां ये गुणास्तैः, उपपेता-पमन्त्रिना,'अत्र 'उप' "अप'इत्युपसर्गयोः शकन्ध्वादित्वात्पररूपम् । हस्तस्थप्रधानरेखालक्षणानि यथा"जस्स हवइ बहुरेहो, हत्थो अहवा रहियसयलरेहो । सो अप्पाऊ अहणो, तहा दुही लक्वणन्नुणिट्टिो ॥१॥ एगेगंगुलिमज्झे, होई पणवीसवच्छरं आऊ । जाणह जीवियरे, जा य कणिटुंगुलीमूला ॥ २ ॥ करहाओ धणरेहा, मणिबंधत्तो तहेव पिउरेहा । एया सव्या पुण्णा, हवंति चे आउगोत्तधणलाहो ॥३॥" छाया-यस्य भवति बहुरेखो, हस्तोऽथवा रहितसकलरेखः । सोऽल्पायरधनस्तथा दुःखी लक्षण निर्दिष्टः ॥ १ ॥ एकैकाङ्गुलिमध्ये, भवति पञ्चविंशतिवत्सरमायुः । जानत जीवितरेखां, या च कनिष्ठाजुलीमूलात् ॥ २ ॥ होने वाले गुणोंको लक्षणव्यञ्जनगुण कहते हैं, और इनसे युक्त स्त्रीकोलक्षणव्यतनगुणोपपेता कहते हैं, अथवा पूर्वोक्त लक्षणों और व्यञ्जनोंके गुणोंको लक्षणव्यञ्जनगुण कहते हैं, और इनसे युक्त. स्त्रीको लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता कहते हैं। महारानी पद्मावती इन गुणों से युक्त थी। हाथ की प्रधान रेखाओंके लक्षण इस प्रकार हैं-जिसके हाथमें बहुत रेखाएँ हो या बिल्कुल रेखाएँ न हों वे अल्पायु वाले निर्धन और दुःखी होते हैं, ऐसे, लक्षणके जानने वाले कहते हैं ॥ १ ॥ जो रेखा कनिष्ठ अंगुलीके मूलसे निकलती है वह जीवनआय-की रेखा है। एक-एक अंगुलीमें पच्चीस-पच्चीस वर्षकी आयु होती है, अर्थात् यदि आयुकी रेखा एक अंगुल तक है तो (२५) छ. तथा तनाथी युति र सहायतन लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता मथवा પૂત લક્ષણે તથા વ્યાજનેના ગુણેને લક્ષણ વ્યંજન ગુણ કહે છે. તથા તેનાથી યુકત श्री डायतेने लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता छ. महाराणी पद्मावतीमा मा गुण हता. હાથની મુખ્ય મુખ્ય રેખાઓનાં લક્ષણ આ પ્રકારનાં છે જેના હાથમાં બહુ રેખાઓ હોય અથવા બિલકુલ રેખા ન હોય તે અલ્પ આયુવાળા, નિર્ધન તથા દુ:ખી હિોય છે. એમ લક્ષણના જાણવાવાળા કહે છે. ૧ જે રેખા ટચલી આંગળીના મૂળથી નીકળે છે તે જીવન–આયની રેખા છે. એક એક આંગળીમાં પચીસ-પચીસ વર્ષનો આરું હોય છે અર્થાત્ જે આયુની રખાં એક આંગળી સુધી હોય તે પચીસ વર્ષની આયુ,એ હિસાબે આગળ પણ સમજી લેવું જોઈએ.(૨) Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टीका अ. १ पद्मावतीवर्णनम् करभाद्धनरेखा, मणिबन्धात्तथैव पितरेखा । एताः सर्वाः पूर्णा, भवन्ति चेदायुर्गोत्रधनलाभः ॥ ३ ॥ इति । माने'ति-मीयते-परिच्छिद्यते पदार्थोऽनेनेति मानं, तुलाशुलीप्रस्थादिना तोलनं, यद्वा-जलादिपरिपूर्णकुण्डादिप्रविष्टे पुरुषादौ यदा द्रोणपरिमितं जलादि निस्सरति तदा स पुरुषादिनिवानित्युच्यते तदेव, उन्मानम् ऊर्चमानं, यद्वा-अर्द्धभाररूपः परिमाणविशेषः, प्रमाणं सर्वतो मान, यद्वा-निजा गुलीभिरष्टोत्तरशताङ्गुलिपरिमितोच्छ्रायः, इत्थं च-मानं चोन्मानं च प्रमाणं चेत्येषां द्वन्द्र मानोन्मानप्रमाणानि, तैः परिपूर्णानि सम्पन्नानि, अत एव सुपच्चीस वर्षकी आयु, दो अंगुली तक हो तो (५०) पचास वर्षकी आयु, इस हिसाबसे आगे समझना चाहिये ॥ २ ॥ धन की रेखा करम-गुद्देसे निकलती है और मणिबन्ध (करके मूल) से पितृरेखा फूटती है। यदि ये सब रेखाएँ पूर्ण हो तो आयु गोत्र प्रतिष्ठा और धनका लाभ होता है ॥ ३ ॥ "माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगा" जिसके द्वारा पदार्थ मापा जाय उसे मान कहते हैं, अर्थात् तराजू अंगुली सेर छटांक आदिके द्वारा तौलना, अथवा कोई पुरुष आदि जलसे संपूर्ण भरें हुए कुण्ड (शरीरप्रमाण गहरा, शरीरममाण लम्बा व शरीरममाण चौडा) आदि में घुसे और उसके घुसनेसे एक द्रोण-(परिमाणविशेष) जल बाहर निकले तो, उस पुरुष आदिको मानयुक्त कहते हैं । मानशन्दसे इसीका ग्रहण करना चाहिए । मान से अधिकको अथवा अर्धभार रूप परिमाण को उन्मान कहते हैं। सर्वतोमान को, अथवा भपने अंगुलीसे (१०८) एक सौ आठ अंगुली ऊँचाईको प्रमाण कहते ધનની રેખા કરભ-ગુદાથી નિકળે છે તથા મણિબંધ (કાંડાના મૂળથી) પિતૃરેખા ફટે ७. मामधारेमामे पूर्ण डायता आयु, गोत्र, प्रति तथा बनना न थाय छे.(3) "माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगा"रेना द्वारा पहा भाषा રાક્રાય તેને માન કહે છે અર્થાત ત્રાજવું, આંગળ, શેર, છટાંક આદિના દ્વારા તળવું. અથવા કોઈ પુરુષ વગેરે જલથી સંપૂર્ણ ભરેલા કુડાદિ (શરીર જેટલો ઊંડે તથા લાંબે પહોળ)માં પેસે અને તેના સિવાથી એક દ્રોણ (પરિમાણ-વિશેષ) જલ બહાર નિકળે તા તે પુરુષ આદિને માનયુકત કહે છે માન શબ્દથી આજ વાત સમજવી જોઈએ. માનથી અધિકને અથવા અર્ધભાર રૂપ પરિમાણને ઉન્માન કહે છે, સર્વતેમાનને અથવા પિતાની આંગળીથી (૧૦૮) એક આઠ આંગળી ઊંચાઈને પ્રમાણ કહે છે આ માન Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका मृत्रे जातानियोचिनादययमन्निवेशरन्ति, सर्वाणि-मकलानि अगानि-अज्यतेच्या या प्रागी यम्नानि मन्तकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिन शरीरे तन मनोमान्ममा पनिपूर्णमानमर्वाङ्गम्, अत एव तादृशं मुन्दरमद्भवपुर्यस्याः मा नयी1, 'गनी नि गगी चन्द्रग्नदत सौम्यः प्रासादक आकार स्वरूपं या मा. पवना कमनीया. चिनारिणी, 'प्रिय'ति मियदर्शकजनमनासादर दर्गनमालारनं यस्याः मा प्रियदर्शना, यत्तु-दर्शनं रूपमिति व्यारपान नगर्योनगवान विशेषणपोनरत्तचापत्या हेयमेव । यन गवंविशेषणविशिष्टाऽत. एवम्याम गनिमाविपचण्यवती. पण लावग्यस्याप्युपत्रसितत्वात् ॥१०॥ . मल्-तत्थणं चंपाय नगरीप नेणियस्स रन्नो भजा कृणियम रन्नो चुल्हमाउया काली नामं देवी होत्था, सोमालपाणिपाया जाव सुरुवा ।। ११ ।।। है ! हम मान उन्मान और प्रमाणले युक्त होने के कारण सुजात पागोय असपत्रांकी रचनासे सुन्दर) जो मङ्ग-जिमके द्वारा प्रागी मान होता है-किमी आकृतिक रूपम दिखाई देता है उसे, अर्थाने लेकर मस्तक नक अवयवाको अंग कहते हैं। इन मय अंगार मुन्दर अंगवाली महारानी पद्मावनी थी। _ मिमीमामा चन्द्रमांक समान शान्न आकारवाली थी 'ना' जो यामनीगा-चित्त हरण करनेवाली हो उस स्त्रीको 'कान्ता' कहते हैं। विपणा जिमकी दृष्टि दर्शकों के मनमें आसाट उत्पन्न करती सो र श्रीमी प्रियदर्शनाकहते है। इस प्रकार उक्तगुणविशिष्ट हानेर-मार गच्या अंमलप लावनी थी ।। १० ॥ ....... ... . (याय५ Rumaril नायी ११.) ... Ar : - नना ३५मा दणार . .. .. मीना यात स भगाथा १६. . . . . . . . पानी पनी 'गमा १४.सानात savl ती 'कंवा गनी श्रीन. 'कान्ता' परटंग Art 1 तीन kin at : २ : १.८, गु...22त 'मुरूपा' Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अ. १ कालीवर्णनम् 4 ३५ छाया-तत्र खलु चम्पायां नगयी श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता काली नाम देवी अभवत् सुकुमारपाणिपादा, यात्र सुरूपा ॥११॥ टीका- 'तत्' इत्यादि-तत्र = तम्यां चम्पायां नगया ' खलु ' इति वाक्यालङ्कारे, श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या = पट्टराज्ञी कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता = लघुजननी काली नाम देवी सुकुमारपाणिपादेति पूर्ववत्, अभनत् पुनः सा कीदृशी ? ति विशेषवर्णनमाह- 'कोसुइरय णिरविमलपडि पुम्नसोमवयणा, कुंडलुल्लिडियगंड लेहा, सिंगारागारचारुवेसा' छाया-कौमुदीरजनिकर विमलपरिपूर्णसौम्यवदना, कुण्डलोलिखितगण्डरेखा, शृङ्गारागारचारुवेषा, एतेषां विशेषणानामेवं व्याख्या- तथाहि 'कौमुदी'ति - 'कु' शब्देन मही प्रोक्ता, 'मुद' हर्षे ततो द्वयम् । धातुज्ञैर्नियमैश्चैव, तेन सा कौमुदी स्मृता ॥ १ ॥ कौ पृथिव्यां मोदत इति अन्तर्भावितण्यर्थत्वाद् हर्षयति प्राणिन इति कुमुदन्द्रस्तस्येयं कौमुदी आश्विन - कार्तिकपूर्णिमाचन्द्रिका, तत्प्रधानो यो रज ' तत्थणं ' इत्यादि । उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजाकी पट्टरानी कोणिक राजाकी लघुमाता काली नामकी देवी सुकुमाल कर - चरणवाली यावत् सुरूपा थी । फिर इन्हीं काली देवी का वर्णन करते हैं'कोमुडस्यणिय र त्रिमलपडि पुनसोमव्यणा' कौमुदी शब्दका अर्थ इस प्रकार है66 'कु' शब्देन मही मोक्ता, 'मुद' हर्षे, ततो द्वयम् । धातुर्नियमैश्चैव तेन सा कौमुदी स्मृता ॥ १ ॥ 13 " कु' शब्दका अर्थ पृथिवी है ' मुद' शब्दका अर्थ हर्षित करना है, जो पृथ्वी में रहे हुए जनोंको जान्नद उत्पन्न करे उसको कौमुदी कहते हैं । कौमुदी याने आश्विन कार्तिक मास रूप शरद ऋतुकी ' तत्थणं' छत्याहि ते यंचा नगरीमा श्रेणि रान्मनी चटराली अर्थि राजनी લઘુમાતા કાલી નામે દેવી સુક્રેમળ હાથ પગવાળી બહુ સ્વરૂપવાન હતી. વળી તે કાલી દેવીનું વર્ણન કરે છે.~ कोमुइरयणियरविमलपडिपुन्नसोमवयणा કૌમુદી શબ્દના અર્થ આવા છે:-~~ , 66 'कु' शब्देन मही प्रोक्ता, 'मुद' हर्षे, ततो द्वयम् । धातुज्ञैर्नियमैश्चैव तेन सा कौमुदी स्मृता ॥ १ ॥ " કુ' શબ્દના અર્થ પૃથ્વી છે. મુન્નુ' શબ્દના અર્થ ર્ષિત કરવુ' છે જે પૃથ્વી ઉપર રહેલાં માણુસેને આનદ કરાવે તેને કૌમુદ્રી કહે છે. કૌમુદી અર્થાત્ આસે કાર્તિક , Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. निरयावलिका सूत्र निकरश्चन्द्रस्तहत् विमलं परिपूर्ण सौम्यरमणीयं वदनं मुखं यस्याः सा तथा, 'कुण्डले ति-कुण्डलाभ्यां कर्णाभरणविशेषाभ्यां उल्लिखिता-वृष्टा गण्डरेखाकपालतलविरचितकस्तूरी रेखा यस्याः सा तथा, 'शृङ्गारे'ति-शृङ्गारस्य रसविशेस्य अगारमिव अगारं, तथा चारुः सुन्दरः वेशो नेपथ्यं यम्याः सा तथा, इति । पुनः कीदृशी सेत्याह- सेणि यस्म रनो इट्टा कंता पिया मणुना नामविजा वेसामिया सम्मया बहुमया अणुमया भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इब मुसंगोविया चेलपेडा इव मुसपरिग्गहिया सा काली देवी सेणिएण रम्ना सद्धि विडलाई .भोग भोगाई भुजमाणा बिहरइ' छाया-'श्रेणिकस्य राज्ञ इष्टा कान्ता प्रिया मनोज्ञा नामधेया वैश्वासिका संमता बहुमता अनुसता भाण्डकरण्डकसमाना तैलकेलेच सुसंगोपिता चेलपेटेव मुसंपरिगृहीता सा काली देवो श्रणिकेन राक्षा साढे विपुलान् भोगमोगान् शुञ्जाना विहरति । इटा-अभिलपणीया पातिव्रत्यादिगुणवाहुल्यात्, कान्तान्कमनीया, प्रिया - प्रेमवती सदाप्रेमविषयत्वात् किमन्यदर्शनेनेति परिणामजनिका, मनोज्ञा = पतिमनोविनोदिनी, मावतः पतिभाववती, स्वरूपतः शोभना । नामधेयाप्रशस्तनामवती, नामधायाँ, इति वा छाया, नत्र नामधाय - हृदि धरणीय पूर्णिमाकी उज्वल चन्द्रिका (चाँदनी) उस चन्द्रिकावाला चन्द्रमाके समान निर्मल संपूर्ण रमणीय मुखवाली थी। ' कुंडलुल्लिहियगंडलेहा' जिनके घर्पण लगनसे कपोल पर रही हई कस्तरी आदि सुगधी द्रव्यकी रेखा हट गई है ऐसे विशाल कुंडलको धारण करनेवाली थी। सिंगारागारचारुवेसा', शृंगार रसका घर और सुन्दर वेप वाली थी। 'इष्टा' पातिव्रत्य आदि गुणांसे राजा श्रेणिकके अभिलषित थी। ‘कान्ता राजा के मन में आहाद उत्पन्न करने के कारण कान्ता-कमनीय थी। राजाके प्रेम उत्पन्न करनेके कारण 'प्रिया' थी। राजाके मन प्रसन्न करने के कारण 'मनोज्ञा' थो तथा प्रशस्त नामवाली थी, उसका नाम हृदयमें धारण करने योग्य था। માન રૂપી શરદ જતુની પૂર્ણિમાની ઉજવલ ચંદ્રિકા તે ચદ્રિકાવાળા જે ચંદ્રમા સમાન निमय स २[य भुभवाणी ती 'कुंडलुल्लिहियगंडलेहा'-रने धमारी वायी ગાલ પર રહેલી કસ્તૂરી આદિ સુગંધી દ્રવ્યની રેખા જતી રહી છે એવા વિશાલ કુડલને या ४.4t amil sती 'सिंगारागारचारवेसा' श्रृ॥२ सनुं घर तथा सुंद२ ३५ पाणी ती 'इष्टा' पातिव्रत्य माहिशुशथी शिनी भानीताता 'कान्ता' રાજના મનમાં આન દ ઉત્પન્ન કરનારી હતી તેથી કાન્તા એટલે કમનીય હતી. રાજાને प्रेम 4-1 ४२पाने २0 'प्रिया' ती, शन्तन मन प्रसन्न ४२वावाणी डावाची 'मनोज्ञा' ती तथा प्रशस्त नामवाणी ती मया तेनु नाम (ध्यम धारय ४२११ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 सुन्दरबोधिनी टीका अ. 1 कालीवर्णनम् यस्याः सा तथा / वैश्वासिका = सर्वथा विश्वसनीया, सम्मता-सम्मानयोग्या तस्कृतगृहकार्याणां संमतत्वात्, बहुमता-पतिदासीदासादिसकलपरिजनसम्मानिता, अनुमता-सकलकार्यानुमतिग्रहणयोग्यत्वात् सकलकुटुम्बसमदर्शिनी विप्रियकरणेऽप्युनुकूलेत्यर्थः,भाण्डकरण्ड कसमाना=आभरणकरण्डकतुल्या यूपणकरगडकवत्पतिसुरक्षितेत्यर्थः, तैलकेलेव सुमंगोपिता-तैलकेला देशविशेपप्रसिद्धो मृण्मयस्तैलभाजनविशेषः, सोऽतिसौन्दर्येण दृष्टिदोपसंभवाद् भङ्गभयाच मुठु संगोप्यते, एवं सा, चेलपेटेच सुसंपरिगृहीता=बहुमूल्यवस्त्रमञ्जुषेव मनागप्यविचलतया स्वायत्तीकृता सा = पूर्वोक्तगुणविशिष्टा काली देवी श्रेणिकेन राजा स्वपतिना साई विपुलान् = बहून् नानाविधान् भोगान् = शब्दादिविषयान् भुञ्जाना = अनुभवन्ती विहरति आस्ते स्म // 11 // मूलम्-तीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नामं कुमारे होत्था, सोमालपाणिपाए जावसुरूवे // 12 // __छाया-तस्याः खलु काल्याः देव्याः पुत्रः कालो नाम कुमारोऽभवत्, सुकुमारपाणिपादः यावत् मुरूपः // 12 // शील आदि गुणके कारण विश्वास योग्य थी। पतिके मनके अनुकूल कार्य करनेसे संमान योग्य थी. सकल कुटुम्बके हित करनेले 'बहुमता' थी, सब कार्य पतिकी संमतिसे करनेके कारण 'अनुमता' थी, भूषणकरंडकके समान 'सुरक्षिता थी। किसी देशमें मिट्टीका तेलपात्र ऐसा सुन्दर होता है कि जिसको दृष्टिदोषसे बचानेके लिये गुप्त रखते हैं, इसी प्रकार, वह सुगोपित्त थी, बहु मूल्य वस्त्रवाली पेटीके समान सर्वथा सुपरिगृहीता थी। ऐसे विशिष्ट गुणवाली काली महारानी श्रेणिक राजा के साथ अनेक प्रकारके शब्दादिविषयोंका अनुभव करती हुई रहती थी // 11 // - એગ્ય હતુ. શીલ આદિ ગુણે વડે વિશ્વાસપાત્ર હતી પતિના મનને અનુકૂળ કાર્ય કરવાથી सन्मानयोग्य ती. स४८ टुमनु हित ४२वाथी 'वहुमता' ती या आय पतिना सभतिथी ४२पाने १२'अनुमता' ती. भूपए४२ 4 (घरेयांना 42 141-31 )नी पेठे સુરક્ષિત હતી કે દેશમાં માટીનું તેલ પાત્ર એવુ સુંદર હોય છે કે જેને દષ્ટિ દેષથી બચાવવા માટે ગુપ્ત રાખે છે તેની પેઠે આ પણ સુપિત હતી. કિંમતી વસ્ત્રવાળી પેટીની પેઠે સર્વથા રાજાથી સુપરિગ્રહીત હતી એવા વિશિષ્ટ ગુણવાળી કાલી મહારાણી શ્રેણિક રાજાની સાથે અનેક પ્રકારના શબ્દાદિ વિષયને અનુભવ કરતી રહેતી. 11