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________________ प्रस्तावनी संसारके सभी जीव परम अमृत समान सुखकी गवेपणा करते हैं, सुखके प्रयत्न में लगे रहते हैं, सुखके कारणको ढूँढते हैं, सुखके वातावरणको पसंद करते हैं, सुखकी याचना और सुख ही की मिन्नत मानते हैं, तो भी वे परम सुखके बदले परम दुःख ही प्राप्त करते हैं। सभी प्रयत्न सभी कारण और सभी वातावरण ये दुःखरूप जाल में परिणत होकर आत्मरूप भोले भाले मृगोंको फसा - कर दु:खित करते हैं । जिससे आत्मा अपना भान भूलकर अज्ञानरूपी अन्धकार में गोता खाता है भटकता है, फिर इन्द्रिय रूपी चोर चारों तरफ से आकर दुर्बल आत्माको घेर लेते हैं और अनेक प्रकारकी विडम्बना करते हुए आत्माको हैरान करते हैं । जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतको चूर २ कर डालता है वैसे ही वे आत्मा के शम-दम आदि गुणोंको नाश करके आत्माको जड जैसा बनाते हुए दीन हीन बनाकर छोडते हैं । 1 जब आत्मा निर्बल हो जाता है तब मोहरूपी सुभट आत्मराज्य में प्रवेश करता है, और वहाँ विघ्नपरंपराको उपस्थित कर आत्माका सर्वस्व लूटकर उसको भवरूप रूपमें डालता है । वहाँ आत्माको संयोग वियोगरूप आधिव्याधि रूप दुष्ट जलजंतु हरएक तरह से कंप्ट पहुँचाते हैं, सर्प जैसे मेढकको गिल जाता है वैसे ही जन्म जरा मृत्यु आत्माको गिलता रहता है । फिर किस प्रकार सुख की आशा की जाय ? ऐसी अवस्था में तो सुखका स्वप्न भी नहीं मिल संकता, 'हा कष्टम् ' तो भी ससारी जीव सुखकी आशा करते हैं । फिर अविरति रूपी राक्षसी आकर आत्माको घेर लेती है और विष समान विषय भोगों में फसाकर उसे निःसार बना देती है, आत्माके निज स्वरूपको पल्टाकर विभावदशा उत्पन्न करती है जिससे आत्मा परस्वरूपको अपना स्वरूप समझकर भवभ्रमण रूप परंपराकी और भी वृद्धि करता हुआ कष्ट पर कष्ट भोगता है, सुख कैसे प्राप्त हो इसकी तलाशमें घूमता है, इतनेमें कषाय रूप राक्षस विविध प्रकारसे वास पैदा करता है, तो भी आत्मा दुःखके निदान -
SR No.009351
Book TitleNirayavalikasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages437
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size22 MB
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