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रूप उस कषायको ही सुखका निदान समझकर उसमें आसक्त होता है, सुखके जितने जितने भी कारण हैं- अहिंसा संयम तप आदि; उनको दुःख रूप समझकर उन्हें छोड़ बैठता है, धर्म अधर्म आत्मा अनात्मा विवेकसे वंचित रहना है, उन्मार्गगामी बनता है, सुमार्गको परित्याग करता है, फिर उसी दुःख परंपराकी जालमें फसता है । इतने में प्रमाद रूपी पिशाच आकर झूमता है और आत्माकी ऐसी छिन्न भिन्न दशा करता है कि आत्मा जड स्वरूप बनकर जड वस्तुओंमें ही आनन्द मानना है ।
इधर अशुभयोग रूप भूत आत्मामे प्रवेश करता है; तब फिर क्या ? कल्पना से भी बाहर परिस्थिति बन जाती है । अशुभ योगों की अशुभ प्रवृत्तिया अशुभ कार्योंकी और आत्माको घसीटती हैं । फिर आत्मा परतंत्र बनकर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोंको मन्द तीव्र आदि रसमें प्रवृत्त हो वांधता है और एकलौ अडतालीस प्रकृतियों की फासमें फमकर नाना प्रकार का दुष्कृत्य करके नरक निगोद आदि अनन्त दुःखरूपी खड्डे में गिर जाता है। इस प्रकार अनन्त काल तक आत्माके लिये मनुष्यभव पाना तो दूर रहा, किन्तु निगोदकी अपेक्षा शूक्ष्म एकेन्द्रियसे चादर एकेन्द्रियका भी भव यह नहीं पा सकता |
इस तरह चतुरगतीमें भटकता भव भ्रमण करता २ आत्मा कदाचित् मनुष्य भवमें आ भी गया तो मिथ्यात्व अविरति कषाय प्रमाद और अशुभ योगों की प्रवृत्तियां उसको घेर लेती हैं, जिससे वह फिर भवाटवी में पड जाता है और उसी विकल दशाको प्राप्त कर जन्म मरण आदि पाता रहता है ।
इस प्रकारकी अवस्था सकल संसारी जीवों की भगवानने अपने केवलज्ञानरूपी प्रकाशसे अवलोकन करके परम करुणा करते हुए शारीरिक मानसिक दुःखोंको मिटानेवाली जन्म मरण आदिको उच्छेद करनेवाली जिनवाणीको द्वादश अंग द्वारा प्रवचन रूपसे प्रकाशित की है । वह वाणी १ चरणकरणानुयोग २ धर्मकथानुयोग ३ गणितानुयोग और ४ द्रव्यानुयोग रूपमें विभक्त है !