Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Rajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणदत्त-चरित (आदिकालिक हिन्दी काव्य) रचयिता-कविवर राजसिंह सम्पादक: डा. माताप्रसाद गुप्त एम.ए., डी. लिट्. डा. कस्तूरचंद कासलीवाल एम. ए., पी. एच. डी. प्रकाशक: गंदीलाल साह एडवोकेट __ मंत्री प्रबन्ध कारिणी कमेटी, दि० जन प्र० क्षेत्र श्रीमहावीर जो जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E *.०सं -: अनुक्रमणिका २ विष्य ९. प्रकाशकीय भूमिका ३. जिस चरित ४. शब्दकोष Pr ... PE सं क. -ल. १-४० १-१६८ १६२-२४० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय हिन्दी पद संग्रह के प्रकाशन के कुछ मास पश्चात् ही जिणदत चरित' को पायकों के हाथों में देते हुए अतीन प्रमन्नता है । 'जिएदत्त चरित' हिन्दी साहित्य की प्रादिकालिक कृति है और इसके प्रकाशन से हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ सकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इसके पूर्व साहित्य पोध विभाग को अोर से 'प्रद्य म्न चरित' का प्रकाशन किया जा चुका है। इस प्रकार हिन्दी के दो प्रादिकालिक एवं अज्ञात काव्यों की खोज पर प्रकाशन करके साहित्य शोध विभाग ने राष्ट्र भाषा हिन्दी की महनी सेवा की है। दोनों ही कृतियां प्रबन्ध काव्य हैं और हिन्दी के मादिकाल की महत्वपूर्ण कृतियां हैं। प्रद्य म्न चरित का जब प्रवाशन हुआ था नो उराका सभी प्रोर मे स्वागत हुअा था तथा स्त्र ० महापंडित राहुल सांकृत्यायन, डा. नारीप्रसाद द्विवेदी, डा. वासुदेवशरण अग्रवाल एवं डा० गत्येन्द्र जैसे प्रभृत्ति विद्वानों ने उसकी अत्यधिक सराहना की थी। उसी समय पंरित राहल सांकृत्यायन ने तो हमें जिरणदत्त चरित' को भी शीघ्र ही प्रकाशित करने की प्रेरणा दी थी लेकिन इसकी एकगात्र प्रति डा. कनूर नंद कामचीवाल को जयपुर के पाटोदी के मंदिर के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची बनाते समय उपलब्ध हुई थी इसलिए दूसरी प्रति को प्रावश्यता थी। इसके पश्चात् इमकी दूसरी प्रति की तलाश करने का भी काफी प्रयाग किया गया लेकिन उसमें अभी तक कोई मफलता नहीं मिली। अत: एक ही हस्तलिखिन प्रति के प्राचार पर ही इमका प्रकाशन किया जा रहा है । जिरादत्त चरित के सम्पादन में हिन्दी के मुर्धन्य विद्वान डा माताप्रसाद जी गुप्त अध्यक्ष हिन्दी विद्यापीठ, आगरा विश्वविद्यालय, प्रागरा ने जो सहयोग दिया है उसके लिये हम प्रामारी हैं। डा गुप्त जी की हमारे साहित्य शोध दिमाग पर सदैव कृपा रही है। उन्होंने पहिले भी प्रद्य म्न परित पर प्राक्कथन लिखने का कष्ट किया था । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य शोध विभाग द्वारा खोज एवं प्रकाशन का कार्य तेजी से चल Jain Granth Bhandars in Rajasthan रहा है और शीघ्र ही 'राजस्थानी जैन सन्तों की साहित्य साधना' पुस्तकें प्रकाशित होने वाली हैं। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को ग्रंथ सूची का पांचवा माग भी शीघ्र ही तैयार होकर सामने आने वाला है। इसमें २० हजार से अधिक ग्रंथों का परिचय रहेगा। इस तरह और भी पुस्तकें प्रकाशित होने वाली हैं। साहित्य शोध विभाग को एक पंचवर्षीय योजना मी क्षेत्र कमेटी के विचाराधीन है । तथा खोज एवं प्रकाशन के कार्य को और भी अधिक गतिशील बनाने का प्रयास जारी है। अभी कुछ समय पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ के व्यवस्थापक डा० गोकलचंद जी जैन जब जयपुर श्राये थे तब उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ सुभाव मी दिये थे । श्राशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि श्रागामी कुछ ही वर्षों में प्राचीन साहित्य की खोज एवं प्रकाशन तथा अर्वाचीन साहित्य के निर्माण की दिशा में हम पर्याप्त प्रगति कर सकेंगे । महावीर भवन १-१२-६५ ख AL "" दलाल साह एडवोकेट अजनिक मंत्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका "जिणदप्तचरित" की उपलब्धि डा० कासलीवाल को राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को प्रक सूची बनाते समय हुई थी। इसको एक मात्र पाण्डलिपि जयपुर के दि. जै मन्दिर पाटोही के शास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत है । गटके का प्राकार ६"x=" है । इसमें ३४ पत्र है। प्रथम १३ पत्रों में 'जिगादत्त चरित' लिखा हृया है । शेष २१ पत्रों में अन्य छोटो १३ रचनाओं का संग्रह है । ये कृतियां संवत् १७४३ मंगसिर बुदी ७ से लेकर मंदत् ११७२ तक लिपिबद्ध हुई हैं । जिगदत्त चरित' का 'लेखन काल सं. १७५२ कार्तिक मुदी ५. शुक्रबार ' है । यह प्रति पालम निवासी पुष्करमल के पुत्र महानंद द्वारा लिखी गई थी जो पञ्चमीव्रत के उद्यापन के निमित्त व्रतकर्ता की ओर से साहित्य- जगत् को भेंट दी गयी थी । प्रति कागज पर लिखी हुई है । लिपि सामान्यत: स्पष्ट है । प्रत्येक पृष्ठ पर मामान्यत. ३२ पक्तियाँ तथा प्रति पंक्ति में इतने ही अक्षर हैं। लेकिन प्रारम्भ के ३ पत्र मोटी लिपि में लिखे हुवे हैं । इसी तरह अन्तिम पत्रों में लिपि किचित् पतली हो गयी है । गुटके के पत्रों का एक छोर टेहा कटा हुआ है, जिससे कुछ अमर कट भी गये १. सं. १७५२ वर्षे कातिक मुदि ५ शुक्रवामरे लिखितं महानंद पालवं निवासी पुष्करमलात्मज । यादृशं पुस्तकं दृष्टत्रा, तादृशं निखितं मया । यदि शुद्धमशुद्ध वा, मम दोपो न दीयते ।। शुभं भवेत् लेखकाध्यापकयोः ।श्रीरमत। पंचमीव्रतोपमानिमित्त ।शुभं । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना का नाम लिपिकार ने प्रारम्भ में कृति का नाम 'जिणदत्त कथा' तथा अन्त में 'जिणदत्त चउपई' लिखा है । स्वयं कवि भी अपने काध्य के सम्बन्ध में स्थिर मंतव्य नहीं रख सका है। वह भी कभी 'चरित,' कभी 'पुराण' एवं कामी 'चउपई' के नाम से रचना का उल्लेख करता है । लेकिन जैन चरित काव्यों में जीवन चरित. कथा श्राख्यायिका तथा धर्म कथा प्रादि के लक्षणों का समन्वय प्रायः हुआ है । इसलिये चारत-काव्य को कभी कभी 'कथा' एन 'पुराण' भी कहते हैं । इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर रन्द कवि ने भी अपने काव्य को 'चरित, 'कथा' एवं 'पुराण शब्दों से अभिहित किया है। 'उपई' शब्द का प्रयोग मुख्यतः इसी छन्द में कवि ने अपनी रचना निक्छ करने के कारण किया है जैसा कि अन्यत्र उल्लिवित च उपई-बन्ध शब्द से प्रकट है' । प्रस्तुत काव्य को चरित' नाम स कहना ही अधिक उचित रहेगा, क्योंकि कवि ने इसे प्राय: 'चरित' ही कहा है और यह चरित ) धार्मिक है इसलिए इसे 'पुराण' भी कहा है। कवि परिचय मंगलाचरण, सरस्वतीचन्दना एवं अपनो लघुता प्रदर्णित करने के पश्चात् कवि ने अपना परिचय देते लिखा है कि वे जैसवाल जाति के धावक --...- .... १. जत्य होइ कुतइणि अंधु, जिणदत्त रयउ चउपई बंधु ॥२५॥ जिरणदत्त पूरी मई चउपही, छप्पन होणधि छमह कहीं ॥१५३।। २ महु पसाउ स्वामिनि करि लेम, जिणदत्त चरितु रचउ हउ म ।।१६।। तउ पसाइ शारण घवरु लहर, ता जिगदत्त अरिउ हर काहउ ।।१।। यह जिणदत्त धरिउ निय कहिउ, अशुह कम्मु चुइ सुह संगहइ ।। ५४८।। ३. हउ अखउ जिरणदत्त पुराणु, पविउ न लखरण छंद बखाण ॥२०।। __ मइ जोमउ जिणदत्त पुराणु, लाखु विस्यउ प्रइसु पमाणु ।। ५५०॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे ' । पाटल उनका गोत्र था । कवि के पिता का नाम 'पचऊलीया प्रमइ' था जो एक स्थान पर 'आते' भी कहा गया है । किन्तु 'सस्ते संभवतः अमि प्रभई से पाठ-प्रमाद के बारा हुआ है । इनकी माता का नाम 'सिरीया' था । इनके पिता का संभवतः वचपन में ही स्वर्गवास होगया था और लालन पालन माह में है कि नाति होंने माता के प्रति अपना मक्तिमाव प्रदर्शित करते हुये लिखा है कि सिरिया माता ने इनफा बड़े ही करूणा भाष से पालन किया तथा दश मास तक उदर में रखा जिसकी कृतज्ञता से उऋण होना संभव नहीं था । इनकी माता धार्मिक विचारों वाली थी । कवि का नाम रल्ह था लेकिन उसके कितने ही छन्दों में 'राजसिंह' अथवा राइसिंह भी नाम पाए हैं संभवतः कवि का नाम राजसिह था लेकिन उनका लघु नाम, जिससे वे जन-साधारण में सम्बोधित किये जाते रहे होंगे 'रल्ह' रहा होगा । इसलिये कवि ने अपनी इस कृति में दोनों ही नामों का उल्लेख किया है। पैसे उस युग में छोटे नामों का अधिक प्रयोग होता था । वल्ह, पल्ह, बुचा, दोहन, पूनो प्रादि नाम बड़े नामों के ही विकृत नाम हैं जिन्हें कवि ही नहीं किन्तु जन-साधारण भी प्रयोग में लाते थे । प्रथ प्रशस्तियों में ऐसे सैकहों नाम पढ़ने को मिलते हैं । इसलिये यह निश्चित है कि 'रल्ह मोर 'राजसिंह कवि के ही दो नाम थे। १. जइसबाल कुलि उत्तम जाति, घाईसइ पाउल उत्तपाति । ___पंऊसीया पाते फउ पूतु, कधइ राहु जिरणदत्त चरितु ॥२६॥ जो जिणवत्त कउ सुरण्इ पुगणु, तिसको होइ गाए निव्याण । अजर अमर गउ लहइ निस्त, चवइ रह प्रभई कउ पुत्त ॥५५१।। २. माता पाइ नमउ जं जोगु, देखालियउ बेहि मत लोग । उचरि माश दश रहिउ धराइ, धम्म झुधि हुइ सिरीया माइ ॥२७॥ पुरण पुरण पणवउ माता पाइ, जेइ हउ पालिउ करुणा भाइ । म उवचारणा हुइराउ उरण, हा हा माइ मझ जिण सरणु ॥२८।। सीन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाकाल +4 हिन्दी के आदिकाल की कृतियों में 'जिरावत चरित' ऐसी इनी-गिनी कृतियों में से हैं जिसमें स्वयं कवि ने रचनाकाल का उल्लेख किया हो। इस दृष्टि से भी इस रचना का विशेष महत्व है । रल्छु कवि ने इस काव्य को संगत १३५४ (सं. १२६७ ) मादवा सुदि ५ गुरुवार के दिन समाप्त किया था । उस दिन चन्द्रमा स्वाति नक्षत्र पर था तथा तुला राशि थी। भारत पर उन दिनों अलाउद्दीन खिलजी ( सन् १९६६ - १३१६ ) का शासन था। कवि ने उस समय की राजनैतिक अवस्था का कोई उल्लेख नहीं किया है। संभवल उराने शासन के पक्ष-विपक्ष में लिखना ही उचित नहीं समझा। प्रथ प्रमाण है । असंभव नहीं कि इसलिए भी छद कवि ने काव्य के तीन स्थलों पर पद्यों की संख्या का भी उल्लेख किया पद्यों में पद्यों की संख्या क्रमशः ५४३ व ५४४ श्रीं कहीं है, जबकि प्रतिलिपि कार ने इन पद्यों की संख्या ५५३ दी है। मूल के छंदों को प्रतिलिपिकारों ने तोड़ तोड़ कर पढा हो, संख्या में कुछ वृद्धि हो गई हो । अन्य कारण भी संभव है । हमें कवि द्वारा दिया हुआ ही स्वीकार करना चाहिए। लेकिन वे पद्य कौन से हूँ जो बाद में बढा दिये गये हैं, इसका निर्णय तब तक नहीं हो सकता जबतक इस रचना की दूसरी प्रति उपलब्ध न हो । अतः अंध-प्रमाण कथा का श्राधार चार सेठ जिनदत्त की कथा जैन समाज में बहुत प्रिय रही है। इस कथा १. संत तेरह वजवणे, भादव मुदि पंचभ स्वाति नखत्त चंदु सुनहती, कह रहत परव २. गम सत्तावन छप्पन होरात्रि सय माहि ( ५५२ ) सय कही ( ५५३ ) गुरु दिप्ां । सरसूती ।। २६॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी आदि सभी भाषाओं में कृतियां मिलती है । 'अभिधान राजेन्द्र' कोश में इस कथा का उद्भव प्राकृत भाषा में निवड श्रावश्यक कथा एवं श्रावश्यक चूणि ग्रंथों में बतलाया गया है। यह कथा वहाँ चक्षुर के प्रसंग पर कही गयी है क्योंकि जिनदत पाषाण को पुतली को देखकर ही संसार की ओर प्रवृत्त हुआ था । प्राकृत भाषा में एक और रचना नेमिचन्द्र के शिष्य सुमति गरिए को भी मिलती है । संस्कृत भाषा में जिनदस चरित्र आचार्य गुणभद्र का मिलता है। यह एक उत्तम काव्य है और जिनदत्त के जीवन पर अच्छा प्रकाश डालने वाली एक सुन्दर कृति है। यह माणकचन्द्र दि० जैन ग्रंथमाला से प्रकाशित भी हो चुका है। इसके पश्चात् अपभ्रंश माषा में 'जिरायत कहा' की रचना करने का श्र ेय कविवर लाखू अथवा लक्ष्मण की है जिन्होंने उसे संवत् १२५७ में समाप्त की थी। अपश मापा में रचित यह रचना जैन समाज में अत्यधिक प्रिय रहो है अतः ग्रंथ भण्डारों में इस ग्रंथ की कितनी ही प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं। इसमें ११ संधियाँ हैं और जिनदत्त के जीवन पर सुन्दर काव्य रचना की गई है। हमारे कवि रल्ह अथवा राजसिह ने लालू कवि द्वारा रचित 'जियत्त कहा' अथवा 'जिरायत चरित' के आधार पर नवीन रचना का सर्जन किया जिसका उल्लेख उन्होंने अपने काव के अन्त में बड़े श्रागार पूर्वक किया है। रह कवि ने लालू कवि द्वारा विरचित १. बसन्तपुरे नगरे वसन्तपुरस्चे स्वनामख्याते श्रावके, प्रा. क. । वसन्तपुरे नगरे जियसत्तू राया जिरगदलो सेट्ठी, प्राव, ५ प्र । आ. चू. (तत्कथा चक्षुरिन्द्रियोदाहरणे चक्लंदिय पदे तृतीय भागे११०५ पृष्ठे काउसग्गा ४२७ पृष्ठे च प्ररूपिता) पृष्ठ संख्या १४६२ २. देखिये जिनरत्न कोश ३. देखिये डा० कासलीवाल -- पृष्ठ संख्या- १३५ द्वारा संपादित प्रशस्ति संग्रह पृष्ठ संख्या - १० मा | ४. मद्द जोय जिलदत्त पुराणु लाखु विरमत अस देखि बिसूर रयउ फुड एड. हत्थालवण बुह देहु ||५५०|| पांच Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना को "जिरणदत्त पुराण' के नाम से सम्बोधित किया है। रल्ह कवि के पश्चात् भी १५ वीं शताब्दी में दो विद्वानों ने जिनदत्त के जीवन पर अलग अलग कृतियां लिखी। इनमें प्रथम महापडित रइधु हैं जो अपनश के भारी विद्वान थे सधा उस भाषा में रचना करना गौरव समझते थे । इसी शताब्दी में गुणसमुद्र सूरि ने संरकृत गद्य में संयत् १४५४ में जिनदत्त कथा लिखी। इसके पश्चात् २० वीं शताब्दी में पन्नालाल चौधरी ने जिनदत्त चरित्र बनिका ‘एवं बख्तावर सिंह ने जिनदत्त चरित भाषा (छन्द बद्ध) निखा । इस प्रकार भटि जिनदत्त की कथा प्रायः प्रत्येक युग में लोकप्रिय रही है और जन विद्वान उसके जीवन पर एक न एक रचना लिखते आ रहे हैं । रल्ड काय द्वारा रचित 'जिरणदत्त चरित' पूर्वापर सभय के अनुमार पतुर्थ रचना है, इस दृष्टि से भी रचना का महत्व है । रलह की रचना के अनुसार जिनदत्त की जीवन-कथा निम्न प्रकार है :---- कथा सार (५६ ने ६५) जिनदत्त वसंतपुर के सेठ जीव देव का इकलौता पुत्र था। उसकी माता का नाम जीवंजमा था। उस समय वसंतपुर पर चन्द्रशेखर नाम का राजा राज्य करता था । जीवदेव नगर सेठ था और उसकी संपत्ति का कोई पार नहीं था । जिनदत्त को खूब लाड प्यार से पाला गया था । १५ वर्ष की अवस्था में उसे पढ़ने के लिये उपाध्याय के पास भेजा गया । वहां उसने लक्षण नथ, छन्द शास्त्र, तक शास्त्र, श्याकरण, रामायण एवं महापुगरण पद्धे । इसके पश्चात् उसे अन्य कलायें सिम्ललाई गई। (६६ से ७६) युवा होने पर जब उसने विवाह करने की कोई इच्छा प्रकट नहीं की तो सेठ को बहुत चिन्ता हुई । मेठ ने नगर के जुबारियों एपं लंपटों को बुलाया और जिनदत्रा को मार्ग पर लाने का उपाय करने के लिये कहा । अब जिनदत्त जुआरियों को संगनि में रहने लगा और नगरवधुनों के पास जाने लगा लेकिन फिर भी उसका मन उनकी ओर नहीं झुका । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेठ (७७ से १०५) एक दिन वह नन्दन बन गया और वहाँ उसने एक पापा को पुतली को देखा और उसकी सुन्दरता की प्रशंसा करने लगा । अब यह भी ऐसी ही किसी सुंदरी से विवाह करने की इच्छा करने लगा । जुवारियों ने जिनदत्त को जब इस स्थिति में बड़ा प्रसन्न हुआ । जुवारियों ने सेन से अपार धन प्राप्त किया। बुलाकर सेठ ने पूछा कि यह प्रतिमा किस स्त्री की थी। शिल्पकार ने बताया कि यह चंगपुरी के नगर सेठ विमलसेट की कन्या विमलामती की प्रतिमा थी । सेठ ने चित्रकार से अपने पुत्र जिनदत्त का मिश्र उतरवाया और एक ब्राह्मण को वह चित्र देकर चंपापुर भेजा । शिल्पकार को (१०६ से १२७) विमलसेठ उस चित्र को देखकर एवं माता पिता के सम्बन्ध में जानकारी कर विमलामती का विवाह जिनदत्त के साथ करने की स्वीकृति दी । बसन्तपुर से बड़ी धूम धाम से बारात चम्पापुर के लिये रवाना हुई। बारात में हाथी, घोडे, रथ, पालकी आदि सभी थे। दोनों का विवाह हो गया और बारात वसन्तपुर लौट श्राई | जिनदत्त और विमलामती सामन्य रहने लगे । (१२८ से १४५ ) एक दिन पालकी में बैठकर जिनदत्त चैत्यालय जा रहा था कि उसकी जुवारियों से भेंट हो गयी । उन्होंने जिनदत्त को जुम्रा खेलने का निमन्त्रण दिया । जिनदत्त उनकी बात टाल न सका । वह जुझा खेलने लगे और जिनदत्त उसमें ११ करोड द्रव्य हार गया। जिनदत्त जब दांव हार कर घर जाने लगा तो जुवारियों ने उसे बिना रुपया चुकाये जाने नहीं दिया । जिनदत्त ने अपना आदमी अपने पिता के मण्डारी ( मुनीम ) के पान भेजा लेकिन उसने जुप्रा में हारे हुये रुपयों को चुकाने से मना कर दिया । आखिर उसे मिलावती की कांचली ६ करोड रुपयों में बेचनी पड़ी। जिनदत्त को इससे अत्यधिक दुःख हुआ। वह घर आकर विदेश जाकर धन कमाने की सोचने लगा | ( १४६ मे १५८ ) पत्र अपने श्वसुर के यहां से इसी समय उसने एक चाल चली और एक झूठा मंगा लिया जिसमें उसको बुलाने के लिये लिखा सात Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हना था । जिनदत्त एत विमलामती बंपापुरी के लिये चल दिये । यह उनको पहली विदेश-यात्रा थी । विमल सेठ ने उनका अच्छा सत्कार किया। लेकिन ४-५ दिन पश्चात् ही वह उस विमलामती को चैत्याना में अकेली छोड़कर वगपुर के लिये रवाना हो गया । पति के वियोग में विमलामती अत्यधिक सदन करने लगी और उसके लौटने तक यह वहीं चैत्यालय में रहने लगी। (१५६ से १७६) जिनदत्त दशपुर नगर के प्रवेश द्वार पर पहुँचा तो वहाँ के उद्यान को देखने लगा । इतने में ही वहां नगर सेठ सागरदत्त आया । इधर वह बागीचा जिनदत्त के आगमन से हरा होने लगा । हरी वाष्टी को देखकर मागायत्त प्रसन्न हो गया और उसने जिनदत से उस बाडी को सुवासित एवं फलयुक्त करने को कहा । जिनदत्त ने शीघ्र ही प्रक्षाल का जल उन पेड़ों में सिंचन किया और दे शीन हो हरे एवं फल बान हो गये । अब वहाँ प्राम, नारंगी, सहारा, दाख, इलायची जामन श्रादि के वृक्ष लहलहाने लगे । सागरदत्त उसके इन कार्यों से बड़ा प्रभावित हुया और उसे अपने घर ले जाकर अपना धर्म-पुत्र घोषित कर दिया। (१७७१६) कुछ सारय पश्चात् जिनदत्त सागरदत्त के साथ व्यापार के लिये विदेशयात्रा पर रवाना हुआ। उनके साथ नगर के अनेक व्यापारी एवं १२ हज़ार बलों का टाँडा था । वे जहाजो में सामान लादकर चले । (१६०२ ०२) उन्हें समुद्र-यात्रा का ज्ञान था। वे हना के प्रवाह को देखकर चलते थे । वेरणानगर को छोड़ कर वे कवण द्वीप में पहुँचे । यहाँ से मंभापादन चलकर कुण्डलपुर पहुँचे और मदमद्वोप में होकर वे पाटल तिलक द्वीप में पहुँने । गोत्र ही वे सहजावतो नगरी को छोड़कर फोकलनगरी में प्रवेश किया । फिर वहां के कितने ही द्वीपों को पार करते हुये सिंघल द्वीप पहुँने । यहाँ बे अनेक वस्तुओं का क्रय विक्रय करने लगे । वे अपनी वस्तुत्रों को तो महँगा बेचते एवं मस्ते भावों से वहाँ की वस्तुनों को खरीदने । पाठ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१से२१६) सिंघल द्वीप का उस समय धनवाहन नाम का सम्राट श्रा । उसके श्रीमती नाम की राजकुमारी थी जो एक मसंकर म्याषिसे पीड़ित थी। जो भी व्यक्ति रात्रि को उसका पहरा देता था, वहीं मृत्यु को प्राप्त हो जाता था। इस कार्य के लिये राजा ने पहरे पर भेजने के लिये प्रत्येक परिवार को प्रवसर बाँट रक्खा या । उस दिन एक मालिन के इकलौते पुत्र को शरी थी, इसलिये यह प्रातः काल से ही रो रही थी । जिनदत्त उसके करुण विलाप को नहीं सह सका और उसके पुत्र के स्थान पर राजकुमारी के पास स्वयं जाने को नेयार हो गया। (२१ से २३२) सायंकाल को जव वह जिनदत्त राजा को पीडित कन्या के पास पहरा देने गया, तो राजा उसे देखकर बड़ा दुखित हुआ और राजकुमारी की निंदा करने लगा। जिनदत्त राजकुमारी से मिला 1 राजकुमारी ने उसके रूप, यौवन एवं प्राकक व्यक्तित्व को देखकर उससे वापस चले जाने की प्रार्थना की । ये बातचीत करने लगे और इसी बीच में राजकुमारी को निद्रा मागयी । बातचीत्त के समय जिनदत्त ने उसके मुंह में एक सर्प देख लिया । जब राजकुमारो सो गई, तो वह् श्मशान में जाकर एक नर-मुड उठा लाया और उसे राजकुमारी को खाट के नीचे रख दिया और तलवार हाथ में लेकर स्वयं वहीं छिप गया । रात्रि को राजकुमारी के मुख में से वह भयंकर काला सर्प निकला । वह नर मुड के पास जाकर उसे इसने लगा । जिनदत्त ने जब यह देखा तो उसने सर्प को पूछ पकड़ कर घुमाया, जिससे वह व्याकुल होगया और फिर उसे पोटली में बांध कर निःशंक सोगया । (२३३से २३६) प्रातः होने पर राजा को जिनदत्त के जीवित रहने के समाचार मालूम पड़े तो वह तुरन्त ही कुमारी के महल में आया पौर सारी स्थिति से अवगत हुआ । राजा ने श्रीमती के साथ जिनदत्त का विवाह कर दिया ! कुछ दिनों तक वे दोनों बहीं सुखपूर्वक रहे और जब जलपान पलने लगा तो वह भी राजा से प्राज्ञा लेकर श्रीमती के साथ रवाना हुआ । राजा ने विदा करते हुये उसे अपार सम्पत्ति दी । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०२४३) सागरदत्त श्रीमती के रूप एवं बदन को देखकर कामासक्त हो गया एवं उसे प्राप्त करने का उपाय सोचने लगा । उसने एक पोटली समुद्र में लिए दी। पोली के लिए जान जोर से रोने लगा तथा उसे प्राप्त करने के लिये हाहाकार करने लगा। जिनदत्त सागरदत्त की पीड़ा को देखकर एक रस्सी के सहारे पोटली को निकालने के लिये समुद्र में उत्तर गया। तब सागरदत्त ने डोरी को बीच ही में से काट दिया, जिससे जिनदत्त समुद्र में रह गया | (२४४ से २५८) श्रीमती उसे डूबा हुआ जानकर विलाप करने लगी। सागरदत्त उसे मोटी २ बातों से फुसलाने लगा। लेकिन उसके शोल के प्रभाव से जलमान हो जगमगाने लगा। जलयान के अन्य व्यापारियों ने सागरदत्त को खूब फटकारा तथा सब लोग श्रीमती के हाथ पैर जोड़ने लगे। आखिर जलयान एक द्वीप पर जा लगा। फिर वह श्रीमती सागरदत्त को छोड़कर अन्य व्यापारियों के साथ चम्पापुरी चली गई और चैत्यालय में विमलमती के साथ रहने लगी । ( २५६ से २६८ ) समुद्र में गिरते ही जिनदत्त ने भगवान का स्मरण किया । इतने में ही उसे दो लकड़ी के टुकड़े मिल गये और उनके सहारे वह एक विद्याधर नगरी में पहुँच गया । तट पर आते हुये देखकर पहिले तो वहाँ के चौकीदार उसे मारने के लिये दौड़े लेकिन बाद में उसकी शक्ति एवं साहस को देखकर उन्होंने उसका स्वागत किया और उसे विमान में बैठाकर विद्याधरों की नगरी रथनूपुर ले गये। वहां उसका भव्य स्वागत हुआ और वहाँ के राजा अशोक ने अपनी कन्या श्रृंगारमती का उसके साथ विवाह कर दिया । जिनदत्त को दहेज में १६ विद्याएँ मिली तथा इनके अतिरिक्त उनने और भी विद्याएँ प्राप्त की। जिनदत्त नहीं काफी समय भानन्द से रहा तथा अन्त में प्रस्थान की तैयारी करने लगा। राजा ने उसे काफी सम्पत्ति दी तथा एक विमान दिया | वह विमान से श्रृंगारमती सहित चषापुरी में आ गया। दस Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ से ३१९ ) वहाँ सबसे पहिले उसने वही वाडी देखो । वे दोनों उस रात उद्यान में ही ठहर गये। पहिले जिन्दल सरे गया और बाद में पगारमती सो गई और जिनदस जागने लगा। जिनदत्त ने अपनी स्वो को मपना कौशल दिखलाने के लिये बीता का रूप धारण किया। सारमती जब जगी और उसने जिनदत्त को नहीं पाया तो वह विलाप करने का नाम लेकर रोने लगी। इतने में ही वहाँ विमल सेठ आया और उसे वैद्यालय में ले गया जहाँ विमलमती एवं श्रीमती पहिले से जिनदत्त की प्रतीक्षा कर रही थी । लगी । वह जिनदत्त ( ३२० से ३३३ ) जिनदत्त बौने का रूप धारण कर नगर में अनेक कौतूहल पूर्ण कार्य करने लगा। उसने राजा से भेंट की और अपनी स्थिति पर उससे निवेदन किया | उसने कहा कि वह भूखों मरने के कारण ब्राह्मण से बौना बन गया है। उसने राजा से उसके द्वारा किये हुये कौतुक देखने की प्रार्थना की । राजा ने उसे आज्ञा देवी । वह खेल दिखलाने लगा। वह अपनी विद्यात्रल से प्राकाश में उड़ गया और अनेक ताल घर कर ताली बजाने लगा ! राजा ने प्रसन्न होकर उससे पुरस्कार माँगने के लिये कहा । तब राज सभा के किसी सदस्य ने कहा कि यदि यह विमल सेठ की तीनों लड़कियों को जो त्यालय में मौन रह रही थी बुला सके तब हो इसे पुरस्कार दिया जाए । चौने ने कहा कि मानव ही नहीं वह पाषाण प्रतिमा को भी बुला सकता है । फिर उसने विद्यावल से पाषाण की शिला को भी हंसा दिया । ( ३३४ से ३४३ ) राजा ने फिर उससे पुरस्कार के लिये कहा । इस पर किसी अन्य व्यक्ति ने कहा कि जब तक वह त्रिमल सेठ की तीनों लड़कियों को नहूँमा दे, तब तक उसे पुरस्कार नहीं दिया जाए। जिनदत ने यह भी स्वीकार कर लिया और एक २ दिन उक्त तीनों में से एक २ स्त्री को बुलाने के लिये कहा । उसके कहे अनुसार बारी २ से वे स्त्रिया आई और जिनदत्त ने उनकी सारी बातें बतलादी । इससे राजा और भी प्रभावित हुआ । ग्यारह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४४४३६०) इसी समय राजा के महल वा एक हाथी उन्मत हो गया और सब बंधन तोड़कर वह नगरी में स्वच्छंद फिरने लगा । चारों ओर कोलाहल मच गया। तीन दिन तक यह हाथी किसी से भी नहीं पकड़ा जा सका । लोग नगर छोड़कर भागने लग । राजा ने घोपणा की कि जो भी वोर हाथी को वश में कर लेगा उसे वह अपनी कन्या एवं प्राधा राज्य देगा । बौने ने राजा की घोषणा को स्वीकार किया । बौने ने विद्या-जल से हाथी को वश में कर लिया, उसने उस पर चटकर खूब घमाया और अंत में उसे ले जा कर ठा में वाँध दिया । बोने का यह चमत्कार देखकर उपस्थित जनता ने उसको जयजयकार की। (३६१ से ३८४) बौने ने राजा से राजकुमारी के साथ विवाह के लिय कहा । राजा जिन मंदिर गया और उसने अपने गुरु से सारी बात कही । गुरु ने राजा से जिनदत्त द्वारा किये गये अबतक के कार्यों का सविस्तार वर्णन किया । फिर राजा ने बौने को वास्तविक बात बताने के लियेकहा तो वह राजकुमारी के साथ विवाह करने से इन्कार करने लगा । मंत्रियों ने राजा से बौने के साथ राजकुमारी का विवाह करने के लिये मना किया । (३८५से४२७) मंत्रियों ने बोने से फिर अपने जीवन को सत्य कथा कहने के लिये कहा, तो उसने अपनी सारी राम कहानी कहदी और कहा कि विहार (चैत्यालय) में रहने वाली सीनों स्त्रियां उसकी पलियां थी । यह सुन राजाने उन स्त्रियों को बुलाने भेजा, तो वे मौन धारण कर बैठ गयीं । इस पर राजा, मंत्रीगण एवं प्रजाजन उस चैत्यालय में गये और उनसे बौने द्वारा कही हुई बात पर प्रकट करने के लिये कहा । बौने और उन स्त्रियों में खूब बादविवाद हुआ। तीनों स्त्रियों ने उसे अपना पति मानने से इन्कार कर दिया तथा हृप्पा सेठ की कथा कही जिसके विदेश जाने पर एक दूसरा घूतं पाकर हप्पा सेठ बन गया था और उन स्त्रियो ने भी उसे अपना स्वामी मान लिया था। (४२८से४४६) अन्त में तीनों स्त्रियों की उसने परीक्षा ली । उसकी परीक्षा में सफल होने के पश्चात् जिनदत्त ने अपना वास्तविक रूप धारण किया। बारह Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह कामदेव के समान देह वाला हो गया। सभी उसके रूप को देखकर चकित हो गयीं । तीनों स्त्रियां उतके चरणों में पड़गई प्रौर मपनी २ कथा कहने लगी। राजा ने मी उससे क्षमा मांगी तथा अपनी राजकुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया । राजा ने उसे अपार धन, सम्पदा, एवं हाथी घोडे प्रादि वाहन दिये । (४४७से ४५६) जिनदत्त कुछ दिनों तक वहाँ रहने के पश्चात् सागरदत्त से मिलने गया । उसके पापोदय से हाथ-पांव गल गये थे । जिनदत्त ने उससे अपना सारा घन से लिया और चम्पापुर से विदा लेकर यह अपने देश यसंतपुर को रवाना हुआ । उसने अपने साथ एक बड़ी भारी सेना ली । उसकी सेना को देखकर बड़े २ राजा कांपने लगे और इस तरह वह बड़े ठाट-बाट से से वसंतपुर के समीप पहुँच गया । (४५७से ४६४) वसंतपुर को प्रजा सेना को देखकर घर से भागने लगी सथा सारा नगर सेना से बेष्टित हो गया । खाइयां खोद कर उन्हें जल से भर दिया । चन्द्रशेखर राजा ने प्रजा को सान्त्वना दी और कहा कि जबतक उसके पास दो हाथ हैं, तबतक कोई भी शत्रु परकोटे में पर नहीं रख सकता। चारों मोर मोबिंदी होने लगी। राजा ने अपने मत्रियों से मंत्रणा करके वास्तविक स्थिति जानने के लिये जिनदत्त के पास दूत भेजा। (४६५से४७४) चन्द्रशेखर का दूत जिनदत्त के दरबार में गया और उसने उसके आगे रत्नों का थाल रखकर यथायोग्य अभिवादन किया । दूत ने जिनदत्त से व्यर्थ ही प्रजा का संहार न करने एवं उचित दण्ड लेकर वापस लौटने के लिये प्रार्थना की। लेकिन जिनदास ने कहा कि उसे किसी प्रकार के दण्ड की आवश्यकता नहीं। वह तो नगर सेठ जीवदेव एवं उसकी पत्नी जीवंजसा को लेना चाहता है। दूत ने सेठ के पवित्र जीवन की प्रशंसा की और कहा कि संभवतः राजा ऐसे भव्य पुरुष को नहीं दे सकता। लेकिन जिनदत्त ने दूत की एक न सुनी और शीघ्र ही उन्हें समपित करने का मादेश दिया । तेरह Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७५से ४८६) दूत ने घापस लौटकर राजा से सारी मात कहीं। राजा चन्द्रशेखर ने किसी भी परिस्थिति में सेठ को देना स्वीकार नहीं किया । जब यह बात सेठ को मालूम हुई तो वह जिनदत्त को याद करने लगा और उसने अपने फूटे भाग्य को धिक्कारा । सेठ अपने ही कारण सारे नगर पर इतना संकट लेने को तैय्यार नहीं हुआ और शत्रु सेना में स्वयं जाने को तैय्यार हो गया किन्तु उसकी आँख फड़कने लगी एवं चित्त पुलकित हो उठा जो उसको पुत्र मिलन को मानो सूचना दे रहे थे । सेठ सेठानी कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ, पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुये राजा से मिलने चल दिये । (४८७से५१२) डरते २ सेट राजा के पास पट्चा । जिनदत्त अपने माता पिता को देखकर प्रसन्न हो रहा था । उसने उनके मौन रहने का कारण पूछा, तो सेठ ने अपने विदेश गये हुये पुत्र के बारे में सारी बात कही । सेठानी ने कहा उसके समान उनके भी एक पुत्र था । यह सुनकर जिनदत्त उसके पैरों में गिर गया और उसकी चारों पत्नियाँ भी उसके चरणों में लिपट गयीं । माता के स्तनों से दूध की धारा बह निकली । गजा चन्दशेखर ने जिनदत्त की बड़े मादर के साथ अगवानी की और दोनों वसन्तपुर में राज्य करने लगे । कुछ वर्षों बाद जब चन्द्रशेखर का स्वर्गवास होगया तो जिनदत्त अकेला ही राज्य करने लगा। (५१३से५४८) एक बार असंतपुर में निन्थ मुनि का प्रागमन हुधा जिनबता अपनी स्त्रियों के साथ उनके दर्शनार्थ गया और उनका धर्मोपदेश सुना । इसके पश्चात् उसने अपने पूर्व मवों के बारे में जानना चाहा तो उसका भी समाधान कर दिया । संसार की प्रसारता को जानकर उसने चारों पत्नियों सहित जिन दीक्षा ले ली और तपश्चरण कर अष्टम स्वर्ग प्राप्त किया । उसकी चारों स्त्रियाँ मी मर कर स्वर्ग गीं। (५४६ से५५३) अन्त में कवि ने जिनदत्त चरित की प्रशंसा करते हमे लिखा है कि "जो कोई भी इस काव्य की सुनेगा, सुनावेगा, लिलेगा तथा लिखवावेना उसे धन धान्य, सम्पदा एवं पुण्य लाम होगा"। चौवह Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैन कथा साहित्य का स्वरूप एवं विकास जैन कवियों एवं विद्वानों ने कथा ग्रंथों के लिखने में पूणं रुचि ली है । इन कथा ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य सामान्यतः किसी पुरुष-स्त्री का चरित्र संक्षेप में चरित कर उसके सांसरिक सुख-दुखों का कारण उसके स्वयं कृत पाप-पुण्य के परिणाम को प्रकट करना है। धर्मोपदेश के निमित्त लघु कथाओं का निर्माण श्रमरण-परम्परा में बहुत ही प्राचीन काल से रहा है । इसके अतिरिक्त कथाकारों का मुख्य उद्देश्य जगत् के प्राणियों को कल्याण मार्ग को और प्रेरित करने का रहा है। लघु कथाओं के स्वाध्याय में साधु एवं गृहस्थ दोनों ही विशेष रूचि लेते हैं और वे उन्हें अच्छी तरह से हृदयस्थ कर लेते है । इसीलिये लघु एवं वृहद् दोनों ही प्रकार के कथा कव्य हमें प्राकृत, संस्कृत, अपना एवं हिन्दी भाषा में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । कथाओं के मुख्य विषय का वर्णन करने का ढंग प्राय: इन सभी भाषाओं में एकसा रहा है । जैन कथा साहित्य को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं । (१) व्रत कथा साहित्य - एक प्रकार की कथायें व्रतों के माहात्म्य प्रतिपादित करने के लिये लिखी जाती रही हैं। मे प्रायः लघु कथाओं के रूप में मिलती हैं जिनमें किसी एक घटना को लेकर किसी पात्र विशेष के जीवन का उत्थान अथवा पतन दिखाया जाता रहा है। कथा के मध्य में किसी संकट अथवा व्याधि विशेष के निवारणार्थं व्रत को पालन करने का उपदेश दिया जाता है। व्रत को निचिन समाप्ति पर उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और तब उसके जीवन को उदा पन्द्रह Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरण स्वरूप रख कर पाठकों में किसी एक व्रत विशेष को पालने का उपदेश दिया जाता है । ऐसी कथामों में अनन्त व्रत कथा, अष्टाह्निकाप्रत कथा, रोहिगीवत कथा दशलक्षणत कथा, द्वादशवत कथा, रनियत कथा, मेघनत कथा, पुष्पांजलिव्रत कथा. सुगन्धदशमीयत कथा, मुक्तावलियत कथा, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । (२) जीवन कथायें कुछ ऐसी लघु अथवा वृहद् कथायें हैं जिनमें किसी व्यक्ति विशेष के जीवन का वर्णन रहता है। इसके अतिरिक्त कुछ सामाजिक अथवा घटनाप्रघान कथायें भी लिखी जाती रही हैं । अठारह नाता था तथा रक्षाबंधन कथा कुछ ऐसी ही कथा कुतियाँ है। तीर्थकर, प्राचार्य, अथवा व्यक्ति-विशेप से सम्बन्धित कथानों में ज्येष्ठ जिनवर कया, अकलंक देव कथा, अंजन चोर कथा, चन्दनमलयागिरि कश्रा, धर्म बुद्धि पाप बुद्धि कथा, नागधी कथा, निशिभोजन कथा एवं शील कया आदि के नाम उल्लेखनीय है । ये ऋघायें भी जीधन के लिये प्रेरणादायक सिद्ध हुई हैं। (३) रोमाञ्चक कथा साहित्य-- तीसरी प्रकार की वे कथायें हैं जो किसी श्रावक एवं मुनि विशेष के जीवन पर आधारित रहती हैं और उनमें नायक के जीवन का माद्योपान्त वर्णन रहता है। इनमें अधिकांश कथायें रोमाञ्चक होती हैं जिनमें नायक द्वारा प्राध्चर्यजनक कार्यों को सम्पन्न किया जाता है । इसके जीवन का कभी उत्थान होता है तो कभी उसका मार्ग संकटों से प्रवरुन दिखाई देने लगता है लेकिन नायक अपनी विशिष्ट योग्यता एवं माहम से उन्हें पार करके पाठकों की प्रशंसा का पात्र बनता है और पुण्य की महिमा का यशोगान किया जाने लगता है। ऐसी कामों में नायक का एक से अधिक विवाह, सिंहल-यात्रा, वन में अकेले भ्रमण करके किसनी ही अलौकिक विद्याओं को प्राप्त करना, उन्मत्तगज. को वश में करना, अपनी विद्यानों का प्रदर्शन करना आदि घटनायें मुख्य रूप सोलह Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से वागत होती हैं जो पाठकों में नायक के ओवन के प्रति उत्सुकता बनाये रखती हैं। ऐसे रोमाञ्चरु कथा-वाव्यों में श्रीमल, रत्नचूड, जिनदत्त, नागकुमार, भविष्यदत्त, करकंडु, सनत्कुमार, घन्यकुमार, रत्न शेखर, जीवन्धर, प्रद्य म्न अादि विशिष्ट महापुरुषों के जीवर पर प्रापपरित काव्य उल्लेखनीय हैं। ये काव्य प्रायः उपर्युक्त सभी भाषा में मिलते हैं । इन पुण्य पुरुषों के जीवन में घटने बाली प्रमुख घटनायें निम्न प्रकार हैं : श्रीपाल ___ सिद्धचक्र पूजा के माहात्म्य को प्रकट करने के लिये श्रीपाल के जीवन का स्मरस्प किया जाता है। उसके जीवन में मर्व प्रथम कुष्ठ रोग पीड़ा की घटना प्रपती है जिसके कारण उसे राज्य-मार छोड़कर अंगल की शरण लेनी पड़ती है । इसी बीच उसका राजकुमरसे मैनासुन्दरी से विवाह हो जाता है पाप-पुण्य के अनुसार सुख-दुल्न की प्राप्ति होती है इस सिद्धान्त पर मटान रहने के कारण वह अपने पिला की कोप भाजन बनती है । मनासुन्दरी अपनी पतिभक्ति एवं सिद्धचक्र पूजा के प्रभाव से श्रीपाल एवं उसके साथियों का कुष्ठ दूर करती है । श्रीपाल को नया जीवन मिलता है और वह मश एवं सम्पत्ति सर्जन के लिये विदेश जाता है वहाँ उमका कितनी ही राजकुमारियों के साथ विवाह होता है, लेकिन धवन सेठ के द्वास समुद्र में गिराया जाना, अपने बाहुबल से उसे तैर कर पार करना, राजकुमारी के साथ विवाह होने के समय अपने विरोधियों के कुपत्रों से झूली का प्रदेश मिलना, पुनः दैवी सहायता से उसरों मी बन जरना एवं राजकुमारी के साथ विवाह होना अादि घटनायें उसके जीवन में इस प्रकार आती हैं, इसमे परक यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि भविष्प में नायक के जीवन में फोन सी विपत्ति एवं सम्पत्ति प्राने वाली है । श्रीपाल के जीवन की कथा जैन समाज में बहुत प्रिय है। रत्नचूल रस्मन्ड कमलसेन राजा का पुत्र था । उसका जीवन भी अनेक रोगा सत्रह Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोमाञ्चक घटनामों में भरा पड़ा है। रत्नबूड ने एक मदोन्मत्त गज का दमन किया था किन्तु वह गज के रूप में विद्याधर था अतः उसने रलचूड़ का ही अपहरण कर उसे जंगल में ला फटका । इस के पश्चात् यह नाना प्रदेशों में भ्रमण करता रहा और उसने अनेक सुन्दर राजकन्यायों से विवाह किया, अनेक विद्याथे प्राप्त की। तदनंतर राजधानी पाकर उसने कितनों हो वर्षों तक राज्य सुख मोगा और अन्त में साचु जीवन अपना कर स्वर्ग लाभ लिया। रत्नचुर के जीवन पर प्राकृत भाषा में अनेक रचनायें मिलती हैं मागकुमार श्रुतपंचमी व्रत के माहात्म्य को प्रगट करने के अवसर पर नागकुमार के जीवन का वर्णन किया जाता है | नागकुमार कनकपुर के राजा जयन्धर एक रानी पृथ्वी देवी का पुत्र था । शौयाव में नागों के साथ रक्षा किये जाने के कारण उसका नागकुमार नाम पड़ा । नाग देश में ही अनेक विद्यायें सीखकर वह युवा हुमा और वहां की मुन्दर किन्नरियों से उसने विवाह किया । नागकुमार का सौतेला भाई श्रीधर उत्ससे विद्वेष रस्त्रता घा । नागकुमार जब नगर के एक मदोन्मत हाथी को बग करने में मफल होगया तो श्रीधर और भी कुपित हो गया। नागकुमार अपने पिता की सलाह मानकर कुछ समय के लिये विदेश भ्रमण के लिये चला गया। सर्व प्रथम वल मथुरा पहुंचा और वहाँ के राजा की कन्या को बन्दीगुह से निकाल कर काश्मीर पहुँचा जहाँ पर वीणा बादन में त्रिभुवनरति को पराजित करके उसके साथ विवाह किया । रम्यक वन में उसका काल गुफाधासो भीमासुर से साक्षात्कार हुमा । कांचन गुफा में गट्च कर उसने अनेक विद्याय एवं अपार सम्पत्ति प्राप्त की। इसके पश्चात् उसकी गिरिशिखर के राजा बनराज से भेंट हुई और ऊर्जयन्त पर्वत की पोर उसकी पुत्री लक्ष्मी से उसने विवाह किया । नागकुमार वहाँ से ऊर्जयन्त पर्वत की ओर गया । वहां उसने सिन्ध के राजा चंप्रद्योत से अपने मामा अठारा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनगर के राजा को रक्षा की और उसके बदले उसको पुत्री से विवाह किया। इसके पश्चात् उसने प्रबंध नगर के मत्याचारी राना सुकंठ का वध किया और उसको पुची रुक्मिणी से विवाह किया । पन्त में उसने पिहितासव मुनि से अपनी प्रिया लक्ष्मीमती के पूर्व भव की कथा एवं थ तपंचमी के उपवास के फल का वर्णन सुना । श्रीधर द्वारा दीक्षा लेने के कारण उसके पिता ने नागकुमार को बुलाकर और उसे राज्य देकर स्वयं दीक्षा धारण कर ली। नागकुमार ने राज्य सुख भोग फर मन्त में साधु जीवन अपनाया मोर मर कर स्वर्ग प्राप्त किया । महाकवि पुष्पदंत का अपभ्रक भाषा में चिबद्ध "सायकुमार चरिउ' इस कथा की एक बहुत सुन्दर रचना है। भविष्यदत्त भविष्यदत्त एक श्रेष्ठि पुत्र है । वह अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त के साथ व्यापार के लिये विदेश जाता है वहाँ वह खूब धन कमाता है और विवाह भी करता है । उसका सौतेला भाई उसे बार-बार धोखा देता है भौर एक दिन चन में उसे अकेला छोड़कर उसकी पत्नी के साथ लौट प्राता है। भविष्यदत्त मी एक पथिक को सहायता से घर लौटता है और राजा को प्रसन्न करके राजा कन्मा से विवाह कर लेता है । भविष्यदत का पूर्वाद्ध जीवन रोमाञ्चक और साहसिक यात्राओं एवं आश्चर्यजनक घटनामों से भरा पड़ा है । उत्तरार्द्ध में युद्ध एवं पूर्व भवों के वर्मन की बहुलता है । भविष्यदत्त के जीवन पर कितनी ही रचनायें मिलती हैं। इन रचनायों में धनपाल कृत "मविसयत्तस्था" अत्यधिक सुन्दर काव्य है । फरफुण्ड मुनि कनकामर ने करकुण्डु के जीवन पर अपम्रश में बहुत सुन्दर काश्य लिखा है जो दश संधियों में विभक्त है । यह एक प्रेमाख्यानक कथा है जिसमें करकण्डु का मदनावली से विवाह, विद्याधर द्वारा मदनावली-करण, सिंहलयात्रा. वहाँ की राजकुमारी रनिवेगा के साथ विवाह, मार्ग में मच्छु जगणीच Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा अाक्रमण, विद्याधरी द्वारा करकाण्डु का अपहरण एवं विवाह, रतिवेन एवं मदनावली से मिलन की घटनाओं का रोमांबक रीति से वर्णन किया गया है । बीच बीच में अवान्तर कथामें भी बरिणत है । करकण्ड अन्त में साधू, जीवन व्यतीत कर निवरण प्राप्त करते हैं। प्रद्युम्न प्रद्युम्न श्री कृष्ण के पुत्र थे । रुक्मिणी इनकी माता का नाम था , जन्म की छछी रात्रि को ही इन्हें धमकेनु प्रसर हरा कर ले गया और मन में इन्हें एक गिला के नीचे दबा कर च ना गमा । जगी रामय वालनंवर विद्याधर ने इन्हें उठा लिया और अपनी स्त्री को पूत्र सम में पालने के लिय दे दिया । प्रद्युम्न में युवावस्था को प्राप्त करने पर कालसंवर के शत्र, सिंहस्थ को पराजित किया । प्रद्य म्न का बल एवं उसकी शक्ति देख कर अन्य राजकुमार उससे जलने लगे । जिनमन्दिर के दर्शन के बहाने वे उने का में ले गये और उसको विपसियों से लड़ने के लिये अकेला छोड़ कर भाग पाए । लेकिन प्रद्य म्न डरा नहीं और उनपर विजय प्राप्त कर उसने अनेकों विद्याएं प्राप्त. की । वापिस लौटने अपनी माना कंचनमाला से तीन विधायें चतरता से प्राप्त को किन्तु उसके कहे अनुसार काम न करने का संग उनकी माता का ही कोष भाजन बनना पड़ा । कालसंवर नी प्रधान को मारने की सोचने लगा लेकिन अन्त में नारद द्वारा बीच बत्राव करने पर वास्तविक स्थिति का पता लगा। प्रद्य म्न द्वारिका वापस लौट पाये । मार्ग में वे दुर्योधन की कन्या को बल पूर्वक छीन कर विमान द्वारा द्वारिका पाए । वारिका पहुंचने पर सत्यभाम। के पुत्र मानुकुमार को अपनी गनेको नियात्रों से खूब छकाया । तदनंतर ब्रह्मबारी का येण बना कर में अपनी माता मुक्मिणी के पास पहुँचा। वहां उन्होंने सत्यभामा की दासियों का विकृत रूम कर दिया। इस पश्चात् प्रद्युम्न ने मायामयी रुक्मिणी की बाह पकड़ कर उसे श्रीकृष्ण की सभा के आगे से ले जाते हुए ललकारा । दोनों ओर की सेना आमने सामने आ इटी तथा श्रीकरण एवं प्रद्य म्न में खूब कमासान युद्ध हुआ। किसी की भी हार न होने से पूर्व श्रीस Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद ने बीच में आकर प्रद्य म्ग का परिचय दिया 1 इससे सवको बड़ी प्रसत्रता हुई और प्रय म्न का खूब स्वागत हुना तथा नगर में उत्सव मनाया गया । प्रय म्न ने वर्षों राजमुख भोगा तथा अन्त में दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया 1 महाकवि सिंह की अपभ्रश मात्रा में पज्जुष्णा कहा तथा कवि सचारु कृत हिन्दी में प्रद्युम्न चरित दोनों ही सुन्दर काव्य हैं । इस प्रकार रोमाञ्चक कथा काव्य लिखने की परम्परा जैनाचार्यों एवं विद्वानों में बहुत प्राचीन काल से रही है । इनके सहारे पाठक असद्गुण को छोड़कर सद्गुणी की अोर प्रवृत्त होता है । इन रोचाञ्चक जीवन कथानों में बहुत सी घटनाएं समान रूप से मिलती है जिनका कुछ वर्णन निम्न प्रकार है - (1) करमाक था ना में पुरुषों, मटियों तथा राजकुमारों का जीवन परिणत होता है । ये महापुरुष अपनी अलौकिक प्रतिभा के कारण किसी भी बड़ी से बड़ी बिपत्ति का साग्ना करने में समर्थ होने हैं। इन कथाओं में धार्मिकता एवं लौविकाता का मेल कराया गया है । प्रत्येक नायक अन्त में साघु जोवन धारण करता है और मर कर स्वर्ग अथवा निर्वाण प्राप्त करता है। प्रद्युम्न, जिनदत्त, करकण्ड मर कर निर्वाण प्राप्त करते हैं, जबकि भविष्यदत्त, नागकुमार पर स्वर्ग जाते हैं। इस प्रकार कथायें शान्त रस मे पर्यनसान्त हैं। (२) सभी रोमाञ्चक कथानों में प्रेम, विरह, मिलन का खूब वर्गान मिलता है। इससे जैन कवियों के प्रेमाश्यानक काय लिखने के प्रति प्रौत्सुक्य प्रकट होता है । जिनदत्त, भथिप्यदत्त, श्रीपाल, नागकुमार के जीवन में कितनी ही घटनायें घटती हैं, उनका कभी किसी पत्नी से मिलन होता है तो कभी किसीसे विरह । यास्तव में इस प्रकार की जीवन-कथानों को १५वीं शताब्दी तक खूब महत्व दिया गया और इस तरह अनेकों कथा-ग्रयों का निमांगा हुना। (३) में काव्य युद्ध-वर्णन से भरे पड़े हैं । प्रद्युम्न के जीवन का अधिकांश भाग युद्ध में व्यतीत होता है । कभी-कभी नायक अपनी विद्यायों से युद्ध लडते इक्कीस Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जिनमें सारी सेना एक बार भर भी जाती है, किन्तु बुद्ध गान्त होने पर नायक उसे अग्नौ विद्या के बल से फिर जीवित कर देते हैं। वास्तव में ये कथायें वीर रस से श्रोत प्रोत होती है । (४) इन कथा - काव्यों में मदोन्मत हाथों पर विजय सागर को तैर कर किसी राजकुमारी से विवाह विद्याधर कुमारियों से विवाह तथा तथा उनसे अनेक विद्याएँ प्राप्त कर लेना, समुद्र- यात्रा, विदेश गमन, यक्ष गन्धर्व-विद्याधरों से युद्ध यदि ऐसी घटनायें है जिनमें एक से अधिक प्रत्येक नायक के जीवन में मिलती हैं । 1 , (५) रोमाञ्चक कथा काव्यों के नायक एक से अधिक विवाह करते हैं, तथा वे सभी जातियों की कन्याओं को ले श्राते हैं। इसे मध्यकाल में बहु विवाह प्रथा प्रचलित होना जाना जाता है। नागकुमार एक सौ से भी अधिक राजकुमारियों से विवाह करता है । (६) इन चरित नायकों के जीवन में देवता, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, विद्याधर नाग श्रादि की पूरी महायता मिलती है और कभी कभी विरोध मी सहन। पड़ता है । जिनदत्त एवं प्रद्युम्न को विद्याबरों से अनेक विद्यार्थी प्राप्त हुई थी । इसी तरह नागकुमार को नागों से खूब सहायता मिली थी। (७) चरित नायकों के इन कथा काव्यों में पूर्व भवों का भी वर्णन मिलता जिससे उनके पूर्व भय में किये गये पुन्यापुन्य का फल दर्शित होता है । बाद में वे व्रत अथवा साधु जीवन धारण करने की ओर प्रेरित होते हैं । इसी प्रकार का जिनदत्त चरित भी एक रोमाञ्चक शैली का काव्य है जिसका अध्ययन प्रस्तुत किया जारहा है। जिणदत्तचरित - एक अध्ययन भाषा : हिन्दी के आदिकाल में निर्मित एवं विकसित काव्यों में 'जिरणदत्तचरित' का स्थान विशेषतः उल्लेखनीय है । इस कृति की रचना उस समय हुई श्री जब यहाँ साहित्य में अलश की प्रधानता थी | महाकवि बाईस Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू, पुष्पदंत, धनपाल, वीर, नयनन्दि, घवल कनकामर, लातू जमित्रहल, नरसेनदेव जैसे विद्वानों ने अपनी कृतियों से अपभ्रश साहित्य को धीवृद्धि प्रदान कर रक्खी थी । वत्त मान भारतीय भाषाओं के साहित्य पर भी अपनश का प्रभाव बना हुया था। विक्रमीय ग्यारहवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल जिसे हिन्दी का प्रादिकान कहा जाता है, भाषा की दृष्टि से अपनश से बहुत प्रभावित है । जिणदत्त चरित की भाषा को हम पुरानी हिन्दी के नाम से सम्बोपित कर सकते हैं । 'जिरणदत्त चरित' अपभ्रश एवं हिन्दी भाषा की एक बोच की कड़ी है । अपभ्रंश भाषा ने धीरे धीरे हिन्दी का रूप किस प्रकार लिया, यह इस काव्य से और सधार के 'प्रद्युम्न-चरित' जैसी रचनामों से अच्छी तरह जाना जा सकता है । रचना अपभ्रंश एव राजस्थानी बहूल शब्दों से युक्त है किन्तु हिन्दी के ट्रेक शब्दों का भो उसमें प्रयोग हुआ है। मारत पर उस समय यद्यपि मुसलमानों का शासन था लेकिन उनको साहित्य एवं संस्कृति का उस समय तक भारतीय जीवन, साहित्य एवं संस्कृति पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था। साहित्य में प्रायः पूर्ण रूप से भारतीयता थी। हिन्दी के काव्यों का विकास प्रायः अपभ्रंश काव्यों के अनुसरण से हुआ । १४ वीं शताब्दी तक हिन्दी साहित्य को जो रचना हुई उस पर तो अपभ्रश का प्रभाव रहा ही, किन्तु १४ वीं के बाद लिखे गये पौराणिक एवं रोमांचक पोली के प्रबन्ध काव्यों पर भी अपभ्रश के काव्यों का सीधा प्रभाव दिखलाई पड़ता है। काव्य-रूप 'जिगदत्त चरित' रोमाञ्चक शैली का चरित है जिनका नायक धीरोदात्त है । वह सवंशोत्पन्न है, वीर है। अनेक विपत्तियों में भी नहीं -..- . १. प्रद्य म्न चरित - संपादक डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल प्रकाशक - दि० जन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी । तेईम Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमराता और उसमें सफल होकर निकलता है । अपनी सूझ-बूझ से ही यह अंटि होकर मी राज्य प्राप्त करता है और वर्षों तक योग्यता पूर्वक शासन चलाता है । अन्त में वह वैराग्य धारण कर स्वर्ग प्राप्त करता है। महाकाव्य की जो विशेषताएं प्रस्तुत काव्य में मिलती हैं वे निम्न प्रकार हैं : (१) जिनदत्त का कथानक पुराण मम्भत लिखा गया है । कवि ने उस में अपनी ओर से न कहीं जोडा है और न घटाया है । (२) नायक एवं उससे सम्बन्धित पात्रों की पूर्व भव की कथा अन्त्य कथा का एक अंग मात्र है। (३) यह काव्य अन्त में बैगम्य मुलक एवं शासरम पर्यवसायी है। नायक अन्त में मुनि बनकर रवर्ग लान करता है और उसकी चारों पत्तियाँ भी स्वर्ग जाती है। (x} पस्न त कान्ध में गलौकिक तन्तों का समायणा हआ है। जैसे अजनी मूल से अपने प्राप को प्रच्छन्न करना, विद्याधरों से विद्याओं को प्राप्त करना, आकाग मार्ग से विमान में बसकर जिन त्या नयों की वन्दना करना, अपने बाहुबल से सागर पार करना, बौना बन कर अनेक कौतुक करना तथा मदोन्मत्त हाथी को वश में करना आदि । (५) प्रारम्भ में तीर्थकरों की मन नि की गयी है। गरस्वती का स्मरण एवं फाट्य रचना का उद्देश्य बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त विनम्रता का प्रदर्शन, हीनता का प्रमाणन करते हा लोक भापा में काय लिखने का हेत धसाया गया है। इस प्रकार उ विशेषताओं के प्राचार पर जिगादत्त परित' महाकान्य कोटि में आ सकता है किन्भु इममें वर्णनों की कमी है, हॉली का चमत्कार नहीं है. और न छंद विधान में किसी प्रकार की विशिष्टता लाने का प्रयास किया गया है । इसमें यह स्मना एक उदात्त व्यक्ति का चरित-काव्य ही पानी नानी माहिए। नौबीम Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः इसे कवि ने सर्गों में विभाजित नहीं किया है। केवल जब कथा को नया मोड देना होता है तो कवि यह कह उठता है कि 'एतहि मदरु कथंतर भय' (१२७) अर्थात् अब कथा का प्रभाव दूसरी ओर मुडता है । काव्य को सर्गों में विभाजित करने की परम्परा को हिन्दी में जैन विद्वानों ने बहुत कम अपनाया है। दो-चार कवियों के अतिरि, किसी ने भी कापी रम हो सर्गों एवं अध्यायों में विभाजित नहीं किया। जैन कवियों ने रास, वेलि, फागु, चरित, कथा, चौपई, व्याहलो, मतसई, संबोधन प्रादि के रूप में जो काब लिखे, वे प्रायः विना सर्गों अथवा अध्यायों में विभाजित हुए रचे गये हैं। संभवतः इन कवियों का उद्देश्य कथा को बिना किसी व्यवधान के अपने पाठकों को सुनाने का रहा है। नायक-नायिका काव्य के नायक जिनदत्त हैं किन्तु नायिका का सम्मान किसको दिया जाने इस विषय में कवि मौन है । जिनदत्त एव नहीं चार विवाह करता है। चारों ही पलियां परिणीता हैं । किन्तु इन सबमें प्रथम पत्नी का अवश्य उल्ले. खनीय स्थान है क्योंकि उसी के कारण जिनदत्त का चरित्र मागे बढ़ता है तथा दूसरी एवं तीसरी पत्नी भी उसी के पाश्रय में आ कर रहती हैं। इसलिये यदि नायिका का ही स्थान किसी को अवश्य देना हो तो वह प्रथम पत्नी विमलमतो को दिया जा सकता है । लेकिन प्रतिनायक का पद तो किसी भी पात्र को नहीं दिया जा सकता । यद्यपि सागरदत्त सेक उसकी पत्नी पर भासक्त होकर उसे समुद्र में डुबो देता है लेकिन यह घटना सो उसके जीवन को एक और मोड़ पर ले जानेवाली घटना है । सागरदत्त प्रारम्भ में तो जिनदत्त का परम गहायक रहा है। इसलिये इस काम में कोई प्रतिनायक नहीं है । घटनात्रों के वश नायक का स्वयमेव व्यक्तित्व निखरता रहता है और उसमें अन्य किसी वितंधी घ्यक्ति की सहायता की श्नावश्यकता नहीं होती। रस जिए दसरा चरित गांत रस का महाकाव्य है । यद्यपि काव्य में कहीं कहीं पच्चोस Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीर, बीकाम है मान्य का मुख्य रस शान्तरस हो है । जिनदत्त वणिक - पुत्र है। विवाह होने के पश्चात् वह् व्यापार के लिये देशाटन को निकल जाता है और उसमें प्रपार सम्पत्ति अर्जन कर वापस स्वदेश लौट आता है । राजा चन्द्रशेखर और उसकी सेनाओं में जो युद्ध की आशंका होती है वह केवल आशंका मात्र बन कर ही रह जाती है। हाँ इतना अवश्य है कि जिनदत्त मी अपने ऐश्वर्य एवं विद्याओं के बल पर चन्द्रशेखर की उपस्थिति में प्राषा राज्य और उसकी मृत्यु के पश्चात् संपूर्ण राज्य का एक मात्र स्वामी बन जाता है । लेकिन इस परिवर्तन में खून की एक धारा भी नहीं बहती तथा न चन्द्रशेखर और न जिनदत्त को हथियार उठाने की आवश्यकता पड़ती है । अन्त में वह वैराग्य धारण कर स्वर्ग लाभ करता है । श्रमार रस का वसंत विमलमती के सौन्दर्य दर्शन करने के प्रसंग में हुआ हैं । कवि ने विमलमती की सुन्दरता का अच्छे एवं प्रलंकृत शब्दों में वन किया है। उस का वर्णन करते हुये कवि कहता है कि वह श्रनिद्य सुन्दरी थी। हंस के समान उसकी गति थी। वह क्रीडा करती हुई, सरोवर तट पर बैठी हुई और जल से खेलती हुई रूपराशि लगती थी । उसकी पिण्डलियों में सभी वर्ण शोभित थे मानो के कंधु की पिडलिया हो । कदली के समान उसकी जां थी तथा उसकी कटि में समा जाने वाली थी। वह मानों कामदेव का छत्र थी। उसका शरीर चंपा के समान था । वह पीन स्तनों वाली थी । उसकी उदर की पेशियों एवं कटितल फैले हुये थे। चन्द्रमा के समान उसका मुख था। उसके नेत्र दीर्घ थे तथा वह मृगनयनी थी। उसके शरीर से सोजि सुन्दरी या पुत्तार | लंतिय हंस गए कीलमारण सरवर वइटी । खेलती जल पयउ रूप रासि मह विशिय || अन्त्रीस Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणे फूटती थी । उसको भौहे कामदेव के धनुष के समान थी । उसकी चाल मस्ती को लिये हुये थी एवं उत्तकी एक झलक पाकर ही कुमुनि भो पिघल जाते थे। सहिम समारिणय सहो भणिय, इम बंपइ मुतधारी । तासु रूब गुण वणिपयज, कइ रल्ह सबिचार ॥१०॥ मुदड़िय सहु कसु सोहइ पाउ, चालत हंसु देउ सस माउ । जाणू थाणु विहितहि घणे, तहि ऊपरि नेउर वाजणे ॥१॥ क.बई जा सइ र, छवि के कुयू पिंडरी । जंघ शुयल कदली ऊयरइ, तामु लक मूटिहि माइयइ।।२।। जणु हइ इति अणंगहु तरणी, महइ जु रंग रेह तहि घणी । नोले चिकुर स उज्जल काख, अबरु सुहाइ दीसहि काख ।।१३।। चंपाचणी सोहइ देह, गल कंदलह तिमि जसु रेह । पीराथरिण ओव्वरण मयसार, उर पोटी कडियल विस्थार ।।६।। हाथ सरिस सोहहि प्रांगुली, गह सु त दिपाह कुद की फली । मुव वल जंतु काटि जणु गणे, वणि सु रेख कविन्हु ते कहे ॥१५॥ इलोणी अरु माठी लोव, हरु सु पट्टिया सोइय गौष । काणि कुडल इकु सोचनु मणी, नाक थाणु जरणु सूवा तरणी ॥१६॥ मृह मंडलु जोवद्द ससि वयरगु, दोह वस्तु नावई मियणयरिण । अहि केहो वा चाले किरण, जारि डसागी हीरा मरिण छिरण।।१७।। मउह ममरण घरगु खंचिय धरी, दिपा लिलाट तिलक कंचुरी । सिरह मांग मोत्तिय भरि घलिइ, अवरु पीठ तलि विशी रूलई ||१८|| नाद विनोद कथा प्रागनी, गहिरी रयण बड़ी कंचुली । इकु तहि अस्थि देह की किरणी, अवर रल्ह पहिरइ आमरण ।। ६६ ।। जिम तणु वाहइ दिठि पसारि, काम वारण बस घालइ मारि तिह को रूप न वाइ जाई, देखि सरीर मयरगु अकुलाइ ॥१०॥ माल्हतो बिलासगइ चलइ, दरसन देखि कुमुणिवर उलइ 1 सत्ताईम Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर रस का वर्णन जिनदत्त के स्वदेश लौटने के समय हुअा है। उसके अतुल वैभव, परिजन, सेवक एवं योद्धाओं को देखकर चन्द्रशेखर राजा उसे आक्रमण कारी राजा मानकर उनका सामना करने के लिये युद्ध की तैय्यारी करने लगता है । इसी प्रसंग को लेकर कवि ने कुछ पद्य लिखे हैं जिन्हें वीर-रस से युक्त कहा जा सकता है। जिला सेवा दश लाख घुडसवार, छह हजार हाथी एवं असंख्य ऊंट थे। पैदल एवं धनुषधारी दश करोड़ थे जब उसकी सेना ने अभियान किया तो धूल के उडने से सूर्य का दिखना बन्द होगया और जब निशानों को जोड़कर नोट मारी गई तो उसकी वनि से बहुत से नागरिक एवं राज्ञा देश छोड़ कर भाग गये । किसी राजा ने भी उसका सामना करने का साहस नहीं किया। जन्न वह असंतपुर के पास पहुँचा तो वहां की सारी प्रजा भागकर किले में चली गई। कारों और की परिखा को जल से भर दिया गया । राजा चन्द्रशेखर ने दरवाजे की रक्षा का भार स्वयं सम्हाल लिया । बारों दिशाओं में मुभट खरे हो गये, १. लए तुरंग मोल दह लाम्न भइगल' छ सहस्र करह गम ख' । सहस बतीस जोडरिग.........., चाउरंगु वलु बन्नु दीन पवाणु ॥४५.१।। पाइक धाराक हद दह काडि, पयदल चलन रायसिहु जोडि । छत्तधारी बुसि गिरि जिन्हु पाहि, ते असंख रावत दल माहि।।४५२।। जिरणदत्त चलतहि कंपइ घररिंग, उत्थइ धलि न सुझर तरणी । हाकि निसारण जोडि जरा हरण, अपनइ देश फ्लाणे घणे ॥४५३।। कउणइ गरहिउ उटहि थाट, क (उरणइ) राय दिखालहि बाट । दूसह राज गण को मंगत्र, नाम कहा जइनी चक्वकवइ ।।४५४।। भाजइ नयर देश विमल......, पर चक भज न वि असिऊन सहहि । चाले कटक किए बहु रोल, अरि मंडल मरिण इल्ल कलोल ||४५५।। ठा ठा करत जोडि नीसरह, जाइति माय देश पइसारहि । परिजा भाजि गई जहि राज. बेदिउ सो वसंतपुरु ठाउ ||४५६11 परिजा भाजी, रहर महंत, लागी पउलि तिऊ भेजंत । भयउ होकुलि अरु गोफरणी, रने मार कहु सीसे घरणी ।।४५७।। प्राइस Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त के चरित में साहस और वीरता के स्थल हैं। देशाटन के लिये निकल पडना, सागरदत्त की गिरी हुई पोटली के लिये उसका समुद्र में कूद पडना, तथा अन्य अनेक उदाहरण इस संबंध में दिये जा सकते हैं । कवि ने इन प्रसंगो में भाव चित्रों को प्रस्तुत करने का प्रयास अवश्य बहुत कम क्रिया है । जिनदत्त ने जो कौतुक दिखाए हैं, वे प्रद्भुत रस की सृष्टि करते हैं। कुछ ग्रन्य रसों का भी यत्र तत्र समावेश हुआ है । धन्य काव्य का मुख्य छन्द चउपई है किन्तु वस्तु बन्धछन्द का भी खूब प्रयोग हुआ है 1 काव्य के ५५३ पचों में से ५५३ चउरई छन्द एवं वस्तु बन्न हैं लेकिन कितनो चौपई छन्द के बाद में वस्तुबन्ध छन्द प्रयोग होगा इस का कोई निश्चित सिद्धान्त कवि की दृष्टि में नहीं था । वस्तुबन्ध तथा चौरई छन्द का प्रयोग उसकी इच्छानुसार हुआ है। काव्य में दोहे छन्द का भी प्रयोग हुआ है । की गई है। समग्र रूप से रचना उपई-बन्य काव्य रूप में प्रस्तुत जिससे यह प्रकट है कि उसका मुख्य छन्द वज्रपई है, केवल एक रसता निवारण के लिये उनमें कुछ अन्यों का समावेश भी कर दिया गया है । वन और उल्लेख प्रस्तुत काव्य में जिन वस्तु व्यापारों का वर्णन ना उन्हें हम निम्न श्रयों में विभक्त कर सकते हैं: (१) देश एवं नगर बरन- इस काव्य में मगधदेश, (३१) बसन्तनगर (४०-४२), चंपापुरी ( ८६८ ) दपुर (१६०), वेणानगर ( १३६ ), कुण्डलपुर ( १६६ ), भंभापाटन : (१६६) मदनद्वीप, पाटल डीप (१९६), सिंहद्वी २००-२०११ रथनुपुर (२६) प्रति देशों, नगरों एवं द्वीपों का वर्णन एवं उल्लेख हुआ है । उनतीम Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- -... सबसे विस्तृत वर्णन मगध देश एवं वसन्तपुर का है जो हमारे नायक का जन्म स्थान था। यह वर्णन परम्परा-मुक्त है । कान्द ने कहा है कि उस समय का व सबसे सुखी एवं वैभवशाली नगर था, जहाँ घर२ में ग्राम के पेड़ थे, जहाँ केला, दाख एवं छुहारा के पेड फलों से लदे रहते थे। अतिथियों का स्वागत सत्त से किया जाता था । दुष्टों के लिए दण्ड व्यवस्था थी लेकिन वहाँ चोर-चरट कहीं भी दिखलाई नहीं देते थे । वह नगर मानों साकेतपुर था। यह धनधान्य से पूर्ण एवं ऊंचे ऊंचे महलों वाला था। ममी जातियों के लोग उसमें बसते थे । कवि ने उसे स्वर्ग का एक टुकड़ा हो कहा है । इसी तरह - -- १. सवतरण पाउ वत्थ जहि टाउ, मगह देसु तहि कह्यि उ गाइ । पारि घरसिा अवासहि चडी, जणु त्र छुटि सग ते पड़ी।।३११३ गिणगुणहु देसु तयों व्योहार, घरि घरि सफल अंवसाहार । कारहि राजु सकुटंबउ लोइ, परतह दुखी न दोसइ कोइ ॥३२।। पहिया पंथ न भूखे जाहि, केला दाल छुहारी लाहि । मामि गामि छेते सत्कार, पहियह क्रूर देहि अनिवारु ॥३३।। गामि गामि बाड़ी अंबराइ, जइसे पाटण तेमे ठाइ । धम्म वि गरु भोयरा देहि, दाम विसाहि न कोई लेहि ॥३४॥ गांकर कूड दंड तहि चरइ, अपुराइ सुखि परजा व्यवहरह । दोर नु चरा यांखि देखिये ग्रह पररणारि जगणि पेखियइ ।। ३५।। मगह दे भीतर सहि मार, वासव सुरह अहिउ सो बारु । घग का कच ' मन्त्र विभूर, मंदर लुग पिहिय कय सूर ॥३६।। चरिणावं मण वद वासीठ ।। वाइ बेसा यरुद्ध बंदरा, त्रिवारी विहारहं । ना चाह वारी धुरु वह विहार जीवरखहं ।। अरु बिहारि वारिठिया बुह विडह वरिण पार । नह वसंतपुरि रल्ह कहि चयीय कार ।।३७॥ सीस Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पापुरी और रथनुपुर नगरों का वर्णन हुआ है। रधनुपुर के राजा की ८४ । स्त्रियों से प्राचीन काल के देशों का पता चलता है । सूर सामीय साहु सोतियहि । सरि सरवर सावयहं सबल अघि सारंग साहणसिक । सोहा सहियण हं सिखी संत सहीयरण समारणहं ॥ दसरा सीमा सत्थवइ सत्यं सवप सुहसार । सुवस सील वसंतपुर छह चउवीस सकार ।। मोह मछरु मारण मायारु । मउ मरी मारण मरविण मलिण मलण जहि कोवि सीसइ । महु मंस मवरासहि उतहि मछिटु मउरउण दीसइ । मूढ़ मुसण मगलु मखरु जहि ए मसइ जल मीणु । भरणह रह सु वसंतपुर बीस मकार विहीगु ॥३६।। राज-पाणु किमु करि वणियइ, पच्चलु सग्गु खंड जारिशयह । वसइ बसंतु एयरु सो घणउ, चंदसिंहरु राजा तह तरिणउ ।।४०।। चंदसेखर रावा के भवरणा, दिपहि त माणिक मोती रपण । समनु प्रतेउरु रूपनिवासु, वीस बीस सवण्हु प्रवासु ।।४।। वसहि त सबल लोय सुपियार, कंतरामइ तिन्ह कियाए विहार । पर कहु मीच एग बंछइ कोइ, जीव दया पालइ सब कोइ ।।४।। कोखी माती पालहि दया, पटवा जीवकह इहि मया । पारधो जीव रंग घालहि घाउ, दवा धम्मु कर सबही भाउ ।।४।। बामण खत्री अकरति चर्म, ते सब पालक सरावग धर्म । मारण लाइ दियइ कलमली, जिणवरु गवहि छत्तीसउ कुली ।।४४॥ १. तहि असोक बिज्जाहर राज, असोकसिरी राशि कह भाउ । र सुरेन्द्र जो यापिउ सुरई, गरुव गरेंद सेवज सु करहं ॥२६॥ साहरण बाहरण न मुणउ अतु, करहि राजु मेइणि विलसंत । इकतीस Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रीतिरिवाज - 'जिनदत्त चरित' के अध्ययन से प्राचीन सामाजिक रीति-रिवाजों का भी थोड़ा आभास मिलता है। विवाह सम्बन्ध निश्चित करने के लिये ब्राह्मण जाया करते थे । वे ही लड़की को देखकर सम्बन्ध निश्चित कर दिया करते के नाम जान ||२६| सोरठी | प्रतेक चाउरासी पति mrafts गुर्जर धरु मरुहटो, लाडि घोडि दक्षिण पुरविणी करणवजि बंगालि, मंगाली तिलंग सुरखारि ||२०|| दवही गडी करणा भरणी, रूपादे कंचरणदे धणी । उपमा मामा नारि, प्रत्राभव सुतम रूव मुरारि ||२३१| चिसरे सहिवर सो रेख, किसरेख जरगु सोवन रेख 1 1 गुलगा सुरगा नवरस देद भोगमती गुरणमती भीड़ || २७२॥ उरभादे रंभा कांति, विसरणदे व विलसति । सुमयादेवि रूपसुन्दरी, पदमावती मयासुन्दरी || २७३ || मारोगा कन्हादे राणि साबल दे हम जारि । रेह सुम सुय पथवरिंण, मोगविलासति हंसागमणि ॥ २७४ ॥ । दरिद्रे सुखमेणावलि, तारादे कहु र मंदोदरि अरु चंद्रामती, हीरादे राशी सारंगदे अरु चंद्रावयरिंग, वीरमदे राणी भावती 1 गंगादे सरिए गजगमरिण कमलादे अरु हसागमरिंग ।।२७६ ।। मुक्तादेवि रूत्र प्रागली, चित्तिरिंग इंसिणी अरु पद्मिनि । सोनवती वरंगत हो घराणी सभालि । ।। २७७|1 रेवली ।। २७५॥ अवली याला पोढा तिरी पियमुंदरी सुमन मनपुरी । मोती रामा अधिकार, भोगवती कडलास कुमारि || २७८ || श्री संतमाला सोभाष, हररू चित्त कामिणी काप 1 सव दानि दारि चालहि सव्वइ मसोहराय बालही ।। २५६ || X X X १. विष्णु एक कउ प्राइस भयउ सो पड़ लइ चंपापुर गयउ | भेटिन मिलती सा या प्रलीम पड छोडि दिखाल ॥ १०५॥ बत्तीस Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे । वे कमी-कमी अपने साथ लड़के का चित्र भी ले जाने थे। बारात खूध मन-धज के साथ निक नती थी । बारात की खातिर मी खूब को जाती थी। विवाह में सोनार होती थी । विवाह मण्डप में होता था जहां लोक पूरा जाता था । स्त्रियों माङ्गलिक गीत गाती थीं । दहेज देने की प्रथा तब मी खूध थी । जिनदत्त को चारों विवाहों में इतना अधिक दहेज मिला कि उससे सम्हाले न सम्हाला गया । पुत्र जन्म पर खूब स्तुशियां मनायी जाती थी। गरीवों अनाथों और अपाहिजों को उस अवसर पर खूब दान दिया जाता था । जिनदत के जन्म पर उसके पिता ने दो करोड़ का दान दिया था । भविष्यवाणियों पर विश्वास किया जाता था । राजा महाराजा कमी २ अपनो कन्याओं का विवाह भी इन्हीं भविष्यवारिंशषों के आधार पर कर दिया करते थे। समाज में बहु वियाह की प्रथा थी । राजाचण तो अनेक विवाह करते ही थे, बड़े-बड़े सेठ साहूकार एवं व्यापारी मी चार-चार पांच-पांच विवाह तक कर लिया करते थे और इन्हें कोई बुरा भी नहीं बतलाता था । जिनदत्त ने चार विवाह किये और नब भी उसका मारी नागत हुा । जिस समय को ध्यान में रखते हुए कथा १, पंच सघद बाजेवि तुरंतु, बहु परिमणु चाले सु वरातु ॥१२०॥ एकति जाहि मुलासरण चढे, एकतु वास्त्रर मोडे तुरे । एकतु साजित सिगरी घरी, एकरगु साजि पनाणी वरी ॥१२१॥ एकति छाडी टोला जाहि, एकति हस्त चढे विगसाहि । एकति जाहि विवाहगु व श्ठ, मनु मिलि चंपापुरीहि पइठ ।।१२।। चंपापुरि कोलाहलु भयो, प्रागइ हानि विमलु पाइयो । २. राय सोय पुपु नीका की प्रज्ञ, कडड़ चूड करि मंडिय धीय । अह मनु चितिध दिन्नु निमः गु, तहि दियाइ रयगा अपमारण ॥२६५।। ३. देहि तं बोल न फोफा पारण, दोणे वीर पटोने पाम्प । पुत देधाए नाहीं स्त्रोरि, दीने गेलि दाम दुइ कोडि ।।६१।। सेतीस Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की रचना की गई है उस समय सामाजिक बन्धन कम ही था । जिनदत के विवाह अपनी ही जाति तक सीमित न रह कर अन्य जातियों में भी हुए थे । नगर में जुझारी होते थे एवं वेश्यायें होती थीं। कभी २ मद्र व्यक्ति भी अपने लड़कों को चतुर जीव के स्थानों में भेजा करते थे। जिनदत्त को कुछ दिनों तक ऐसे व्यक्तियों की छाया में रखा गया था। ऐसे ही लोगों का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है '— भरद्द ।। बार बार बेसा धरि जाहि अरु जूवा खेलत न अधाहि । खोरी करत न आलस करड, गांठ काटि मंगलइ जिन के दव्य गइम लिन्छु विठि सो जगु किय आखो मुदि । गंज कूडू मारि जिशु सही तिरिए सङ्घ सेठि बात सह कहीं || 1 समाज में जुआ खेलने की प्रथा थी और उसे समाज विरोधी नहीं समझा जाता था । उनके बड़े बड़े केन्द्र थे, जहां भोले भाले एवं नवसिखिये व्यक्ति फँस जाया करते थे। जिनदत्त मी एक बार में ११ करोड का दांव हार गया था | हारे हुए पैसो को दिये विना जुवादियों से मुक्ति मिलना संभव नहीं था । १ P विद्यisrai की प्रथा थी किन्तु कभी-कभी १४-१५ वर्ष होने के बाद उसे उपाध्याय के पास भेजते थे। शिक्षक को उपाध्याय कहते थे । वहाँ उसे लक्षण ग्रंम छंद शास्त्र, न्याय शास्त्र, व्याकरण, रामायण, महाभारत, भरत का नाटय शास्त्र, ज्योतिष, तंत्र एवं मंत्र शास्त्र आदि को शिक्षा देते थे । विद्याध्ययन के पश्चात् उसे शस्त्र चलाना भी सिखाते थे जिससे वह समय खाने पर अपनी आत्म रक्षा भी कर सके । समाज में जातियों एवं उप जातियों की संख्या पर्याप्त थी । कवि ने १. खेलत भई जिवन्त हारि, जूवारिन्तु जीति पच्चारि । भर रस्तु हम नाहीं सोडि हारिज दब्बू एगारह कोडि ।। १३० ।। श्रोतीस Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने काव्य में २४ प्रकार की 'वकार' एवं २४ प्रकार की 'सकार' नाम वाली जातियों के नाम गिनायें है जो उस समय वसंतपुर में रहती थी। उस नगर की एक और विशेषता यह थी कि २० प्रकार की 'मकार' वाली जातियाँ वहाँ नही थी जिनसे उस नगर का वातावरण सदैव शति एवं पवित्र रहता था । प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णन I काव्य में प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन भी यत्र तत्र मिलता है। कवि को पेष्ट पोधों एवं फल-पुष्पों से अधिक प्रेम था इसलिये उसने नगर वन के साथ उनका भी वर्णन किया है। सागरदस सेठ के उद्यान में विविध पौधे थे । अशोक एवं केवडा के वृक्ष थे। नारियल एवं आम के वृक्ष थे । नारंगी, छुहारा, दाख, पिंडखजूर, सुपारी, जायफल, इलायची, लोग यदि कितने ही फलों के नाम गिनाये हैं पुष्पों में मरुमा, मालती, चम्पा, रायचम्पा, मुचकन्द, मोलसिरि जपापुष्प, पाडल, कठ पाइल, गुडहल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार का वर्णन हिन्दी की बहुत कम रचनाओं में मिलता है। समारु कवि ने भी आगे चलकर प्रद्युम्नचरित (सं. १४११ ) में भी इसी तरह का अथवा इससे भी विशद वर्णन किया है। परवर्ती अपना काव्यों में भी ऐसे वर्णनों की प्रमुखता है । रह कवि ने इन वृक्षों पौधों एवं लताओंों के नाम उनकी विशेषता सहित गिनाये हैं । कवि के शब्दों में ऐसा ही एक वर्णन देखिये : किए । जो असोक करि विक सांगु, अन पर परितहि दीनउ मांगु । जो सिर रहिउ केवडउ, सिचित्र खीर भयो रुवडउ || १६६ ॥ जे नालियर कोपु करि थिए, तिन्हई हार पटोले जे छे सूकि रहे सइकार, लिन्छु अंकमाल दिवाए बाल ॥ १७० ॥ नारिंगु जंबू छुहारी शख, पिंडखजूर फोफिली प्रसंख 1 जातीफल इलायची लवंग, कररणा भरणा कीए नवरंग || १७१ || पैतीस Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काथु कपित्थ वेर पिगली, हरड बहेड खिरी आवली । सिरीखंड अगर गलींदी धूप रहि नारि तहि अइ सहप || १७२ || जाई जुहि बेल सेवती, दवो मस्तच अरु मालती । चंप राइचंप मचकुदं क्रूज वनभित्र जाउ १७३ ।। इसी तरह जब चंपापुरी में मदोन्मत्त हाथी अपने बंधन तोड़कर राजपथ पर विचरण करने लगा, उस समय का भी कवि ने अच्छा मन गिया है । कवि ने कहा कि वह म विन हाथी प्रकु को नहीं मान कर सम्भ को उबाड़ कर सकटुकरशे उसके एडमि को भयंकर रूप से खोद रहे थे। उसको बडे २ धीर पकड़े हुये थे । उसकी भयंकर चीत्कार थी। भ्रमरों की पंक्ति उनके पास मंडरा रही थी । लोग उसे साक्षात् काल ही समझने लगे थे। लोग टीलों पर जा चुके थे। इसी वर्गांन का अंश देखिये : I मय मिश्रलु गञ्ज अंकुस मोड़ी बंभू उहि तु सलि तोडि । सांकल तोडि करि चक चूनि गयउ महावतु घर की प्रतु । गयउ महावत्थू मरो जित्थ, गज भूड मऊ व तत् । उवरिङ जुन खूट कालु, तर सुडिउ तोडिनु भालु इस प्रकार के वर्णनों से ज्ञात होता है कि कवि में वरन करने की यथेष्ट क्षमता धी, यद्यपि उसने उसका उपयोग सीमित ही परिमाण में क्रिया है । रोमाञ्चक तस्व काव्य में रोमाञ्चक कार्यों का विस्तृत वर्णन मिलता हूँ । सर्व प्रथम जिनदत्त ने अजनी मूल जड़ी के सहारे अपने आप को प्रच्छन्न कर लिया । जब यह समुद्र तैर कर रथनुपुर पहुंचा तो उसका विद्याधर कुमारी से विवाह हुआ और दहेज में सोलह विचार प्राप्त हुई। इनमें जलगामिनी, बरूपिणी, छत्तीस Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलसोखरणी, जलस्तीमनी, हृदयालोकिनी, अग्निस्तंमिनी, सर्वसिद्धि विद्यातारिणी, पातालगामिनी, मोहिनी, अंजणी, रत्नवषिरणी, शुमदशिनी, वजरणी मादि विधानों के नाम उल्लेखनीय हैं । जिनदत्त ने वहाँ तिमिरवृष्टि विद्या मणीबंध एवं सौषध विद्याएँ भी प्राप्त की थी। विद्यायल से ही उसने विमान बनाया और प्रकृत्रिम चैत्यालयों की बन्दना की 1 | चम्पापुर पहुँच कर वहाँ राज दरबार में बौने के रूप में जो उसने अपनी विद्यानों का प्रदर्शन किया और मदोन्मत्त हाधी को वश में किया वह सब उसकी प्राप्त विद्याओं के प्राधार पर ही था । जैन काव्य एवं पुराणों में इसी तरह को विद्याओं का बहुत वर्णन मिलता है। जैन काव्यों के नायक प्रायः ऐसी विद्याएं प्राप्त करसे हैं और फिर उनके सहारे कितने ही प्रलौकिक कार्य करते हैं । विवेश यात्रा कवि के समय में मारत व्यापार के लिए अच्छा माना जाता था । व्यापारी लोग समूह बनाकर तथा बलों पर सामान लाद कर एक देश से दूसरे देषा एवं एक नगर से दूसरे नगर तक जाया करते थे । कमी नावों से यात्रा करते तो कभी जहाज में चढ कर व्यापार के लिये जाते । इस व्यापारिक यात्रा के समय एक प्रमुख चुन लिया जाता था और उसी के प्रादेगानुमार सारी छपवस्था चलती थी । जिनदत्त जब व्यापार के लिए निकला तो रचना के अनुसार उसके संघ में १२ हजार बैल थे एवं अनेक चरिणक-पुत्र थे । सिंहस द्वीप उस समय व्यापार के लिये मुख्य आकर्षण का केन्द्र स्थान या । वहाँ जवाहरात का खून व्यापार होता था । लेन देन वस्तुओं में अधिक होता था । सिक्कों का चलन कम ही था । ऐसे अवसरों पर व्यापारी म्बूब मुनाफा कमाते थे । नाविक एवं जहाज के कप्तान जलजंतुओं का पूरा पता लगा लिया १. पायउ जगमगंतु सो तित्थु, जीवदेव नंदणु हइ जित्थु । विज्जा चयइ निसुरण जिणदात, इंदि अकिट्टमि जिसमलचत्तु ।। सैतीस Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते थे । वे अपने साथ मुद्गर एवं लोहे की सांकल भी रखा करते थे । समुद्र में बड़े बड़े मगर रहते थे, उनसे बचने का उपाय भी वे लोग भली प्रकार जानते थे । व्यापारिक यात्रा से वापिस लौटने पर उनका राजा एवं प्रजा द्वारा बड़ा स्वागत-सत्कार किया जाता था । उन्हें उचित रीति से सम्मानित करने की भी प्रथा थी । इस प्रकार जिदत्त हिन्दी के प्राधिकान की एक उत्कृष्ट रचना है भाषा है उसको हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होगा । ग्रंथ सम्पादन भव: जल्दी में लिखे 'णित चरित' को पर्याप्त खोज करने के पश्चात् भी कोई दूसरो प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी । इस कारण इसका सम्पावन एक ही प्रति के आधार पर किया गया है और इसी कारण से इसके पाठ भेव प्रादि नहीं बिये जा सके। फिर भी हमें संतोष है कि ऐसे प्राचीनतम हिन्दी काव्य का [सम्पादन एवं प्रकाशन हो सका है। मूल प्रति प्रारम्भ में काफी स्पष्ट लिखी हुई हैं लेकिन अन्त के कुछ पृष्ठ प्रतिलिपिकार ने हैं। इसलिये उसने प्रारम्भ के समान भागे प्रत्येक पद्य दी है। फिर भी प्रति सामान्यतः शुद्ध एवं स्पष्ट है। लिये मूल ग्रंथ का हिन्दी अर्थ भी दे दिया गया है तथा पछों के नीचे महत्वपूर्ण शब्दों के अर्थ एवं उनको उत्पति तथा अन्त में विस्तृत शब्दकोश अर्थ सहित बिया गया है। हिन्दी शब्दकोष के विद्वानों को इस काव्य में कितने हो नये शब्द मिलेंगे जिनका संभवतः अभी तक अन्य काव्यों में उपयोग नहीं हुप्रा है । के प्रागे संख्या भी नहीं पाठकों की सुविधा के जिदत्त चरित के समान राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में और भी महत्वपूर्ण काथ्य उपलब्ध हो सकेंगे ऐसा हमारा विश्वास है इसलिये इस विशा में विशेष प्रयत्न की प्रावश्यकता है अडतीस Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार : हम श्रीमहावीर क्षेत्र कमेटी एवं उसके अध्यक्ष महोदय कर्नल डा० राजमलजी कासलीवाल तथा मंत्री श्री गंदीलालजी साह एडवोकेट के आभारी हैं जिन्होंने इस को अपने साहित्यशोध विभाग से प्रकाशित कराया है। क्षेत्र के साहित्यशोध विभाग को प्रोर से प्राचीन हिन्दी रचनाओं के प्रकाश में लाने का जो महत्वपूर्ण काम हो रहा है उसके लिये सारा हिन्दी जगत उनका कृत्तश है। क्षेत्र के स हिस्य शोध विभाग के अन्य विद्वान् श्री अनूपचंद न्यायतीर्थं सुगनचंच जैन एवं प्रेमचंद का के भी हम आभारी हैं जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में अपना महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। श्री दि० जैन मन्दिर पाटोदी जयपुर के शास्त्र भण्डार के व्यवस्थापक श्री नाथूलालजी बज के भी हम कृतज्ञ हैं की हस्तलिखित प्रति बेकर इस काव्य के प्रकाशन में हम श्री पं० सुखदासजी व्यायतीर्थ के प्रति जिनको सतत प्ररेणा हो इस ग्रन्थ के प्रकाशन में महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। सहायक बने है। अन्त में आभार प्रदर्शित करते हैं माताप्रसाद गुप्त कस्तूरचंद कासलीवाल उनतालीस Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय की सोची ख जिदत्त चरित की पाण्डुलिपि का एक चित्र Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिगदत्त चरित (स्तुति - खण्ड) (वस्तुबंध) रणविवि जिएवर प्रासि जे विस । रिसहाई धम्मुद्धरण, वियि त जि गय कालि होसहि । सइ सहि खित्ति पुणु, ताहं विवि कमसोहहि ॥ रगाहिलरेसरु सुउ रिसह, वरिसिर घम्म पवाहु । सो जय कारण रसह कद, माइ-प्रणाहु अगणाहु ॥ अर्थ :-धर्म का उद्धार करने वाले जो ऋषभादि वर्तमान तीर्षकर हैं. उन्हें नमस्कार करके तथा जो तीर्थकर हो गये हैं और जो भविष्य में होंगे. उन्हें नमम्कार करके तथा उनके साथ (मंघ) में पृथ्वी सल पर जो कर्मों का शोषण करने वाले सिद्ध हुए, उन्हें नमस्कार करके नाभि नरेश के सुन जिन ऋषभदेव ने धर्म-प्रवाह की वर्षा को रल्ह कवि ऐमे जय के कारण स्वरूप जगत् के नाथ आदिनाथ (को नमस्कार करता है)। प्रासि – अम् - होना। वित्त : (वि० प्रसिद्ध, विख्यात) अथवा वृत : वित उत्पन्न. संजान, अतीत्त । रिसह -- ऋषभ। सोहाँह-सोह - शोषय । सृज - सृत । कइ – कवि । माइ-प्ररणाहू - प्रादिनाथ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त चरित [ २ ] संजमु नेमु अम्मु तस जाणु, जो णिसुबइ जिरणदत पुराणु । संपत्ति पुत्त प्रवर नसु होइ, महिपाल वुल न देखइ कोइ ॥ अर्थ :-जो इस जिनदत्त पुराण को सुनता है (जीवन में) सयम, निगम और धर्म उसको (प्राप्त हुआ) जानो। उसको बमव, सन्तान तथा यश (का लाम) होता है तथा बह पृथ्वी पर कोई भी दुःख नहीं देखता है । संजमु पु. (संयम) – हिंसादि पाप कर्मों से निवृत्ति - दश धर्मों में से एक धर्म । नेमु - नियम धर्म, व्रत उपवास प्रादि । जय जगरगाह रिसीस जिरणेब, रणहि प्रजिय गय गरगहरविंद । जिण, संभव अहिणवण देउ, सुमहगाह परराषउं गय लेउ । अर्थ :-जगत् प्रभु ऋषभ जिनेन्द्र को जय हो तथा गणधरों द्वारा पूजित अजितनाथ के चरणों में नमस्कार हो । जिनेन्द्र संभवनाथ, अभिनन्दन देव, सुमतिनाथ को प्रणाम करता हूँ जो मत लेप (निष्पाप) हुये हैं । रिमीन - ऋषभेण, ऋषभदेव स्वामी। गणहाविद - गाधरद । गय ले उ – गतलेप-चला गया है पा जिसका । पटमपट्ट सामिय दुहहरण, जिण सुपामु जरा असरण सरण । चंदप्पटु समचित्त सहाउ, पुष्पर्यतु सिमपुरि कार राउ ।। मयं :--पमपम स्वामी दुःखों का हरण करने वाले है तथा सुपाश्वनाथ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति खण्ड जिनेन्द्र नाथों को शरण देने वाले हैं। चन्द्रप्रभ स्वामी शान्त चित्त एवं शान्त स्वभाव वाले हैं तथा पुष्पदंत मोक्ष नगरी के राजा हैं । पमप्पहु - पद्मप्रभ । सिवपुरि - शिवपुरी-मोक्षनगरी । [ सामिय स्वामी । ५ जगत्तय - 1 - ] जित सोयसु ग्रह सोयल वयणु, तु सेयंस जयत्तय सरगु । वासुमुज्ज प्रहरणे सरीर, जय जय विमल अतुल बलवीर ।। - अर्थ :- और शीतलनाथ जिनेंद्र गोतल बचन वाले हैं तथा हे यांसनाथ, तुम तीन जगत के शररणभूत हो । वासपूज्य स्वामी तुम लाल रंग के शरीर वाले हो तथा अतुल बल के धारक हे विमलनाथ तुम्हारी जय हो । 1 सीयलु - शीतल । जगाय | ६ ] सहाउ - तिहुवरण त्रिभुवन पहु - प्रभु । १. मूलपाठ 'जगगाह' है । स्वभाव । जिणु धनंतु तिहूवर जगरणत्षु", वस्तु धम्म उद्धरण समस्यु । जय पहु संतिरणरह वह हरण, जय जय कुंथु जीव दय करण || अर्थ :- अनन्तनाब जितेंद्र जो तीनों लोकों तथा जगत के स्वामी हैं, धर्मनाथ जो धर्म का उद्धार करने में समर्थ है, शान्तिनाथ जो जगत के नाम हैं तथा दुःखों का हरण करने करते हैं तथा जीवों पर दया करने वाले कुपनाथ स्वामी की जय हो । धम्मु - धर्मनाथ । समत्यु - समर्थ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद घरिकम्प वप्y जिह हरिज, सुरिगसुग्धउ जिरण गुरण को रासि जिरगदत्त चरित Į J महिलरगाह सुरु लिपरें नमिउ । रामि' जिरण खल बोसह पासि ॥ अर्थ:-रनाथ जिन्होंने कर्म शत्रु के दर्द का हरण किया है, देवताओं के द्वारा पूजित माल्लिनाथ को नमस्कार हो, मुनिसुव्रत जिनेन्द्र जो गुणों की राशि हैं तथा नमि जिनेन्द्र निश्चय ही दोषों को नाश करने वाले हैं। नियर - निकर-समूह | f - ७ १. मूलपाठ 'रात्रि' है परसद स्पृण-स्पर्श करना । समद विजय सुतु रोमि जितेंदु, पासरणाह पय परसह दु । धर सिरु लाइ राइसिंह कवद, बहुफलु वीरशाहू जो पवई ।। - अर्थ:-समुद्रविजय के पुत्र जितेंद्र नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ जिनके चरणों का स्पर्श इन्द्र करता है ( इन सभी को नमस्कार है) । कवि राजसिह ( र ल्ह ) साष्टांग नमस्कार करके कहता है कि सबसे अधिक फन्न उसे होता है जो भगवान् वीरनाथ ( महावीर ) को नमस्कार करता है । [ ८ } € 1 चrates सामि वुह हररण, चजवोसह मुक्के जर मरण । चवीसह मक्ख कउ ठाउ, जिला बीस नाउ धरि भाउ ॥ श्रथं वीवीसों स्वामी (तीर्थंकर) दुःखों के हर्ता हैं, सभी चौवीस जरा एवं मरण से मुक्त हो चुके हैं। सभी नौबीस मोक्ष के निवासी हैं इसलिये सभी चौबीस तीर्थकरों को भाव धारण कर ( माव पूर्वक ) नमस्कार करता हूँ । मुक्के मुक् मुच् छूटना, मुक्त होना । ठाउ - स्थान । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति खण्ड [ १. ] चक्केसरि रोहिरिण जयसारु, जालामालरिंग अरु खेतपातु । अंबिमाइ तुब मबऊ सभाइ, पदमावती कह लागउ पाई ।। अर्थ :-देवी चक्र श्वरी, रोहिणी, ज्वालामालिनी तथा क्षेत्रपाल (देव) की जय हो । माता अम्बिका को भी भावपूर्वक नमस्कार करता है तथा पपावती देवी के पाय लगता हूँ। सभाइ -- स ! भाव-भावपूर्वक । । ११ ] जे चवीस अख' जविखरणो, ते पणमा सामिरिण मापुरिण । कुमद्र कुमुधि वि महु हरह, पविह संघह रज्या करहु ।। अर्थ :-जो चौबीम यक्ष यक्षिणियां हैं, (तथा जो) स्वयं ही (बिन शासन) को स्वामिनी हैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। हे देवियों, मेरी विकृत मति एवं विकृत बुद्धि का हरण कशे तथा चतुर्विध संघ की रक्षा करो। जक्ख - यक्ष । कुमद - कुमति। सामिणों – स्वामिनी । रख्या – रक्षा। चउविहसंघह - चविध संघ-मुनि, प्रायिका. धावक थाविका इन चारों का संघ कहलाता है। १. 'जख' मूलपाठ है । इंच वहण जम रिज जाणु, वरुणु धाय पणदुवि ईसाणु । परणमउ पोमिरिणवद धररिंगदु, रोहिणीकंतु जयज पहिचंदु ।। प्रर्य .--न्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरुण, वायु, कुबर तथा ईशान तथा पद्मावती देवी के पति धरौद्र को नमस्कार करता हूँ नया रोहिणी देवी के स्वामी चन्द्रदेव की जय हो । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिहादत्त चरित इस पद्य में कवि ने दशों दिशाओंों के दस दिवालों को नमस्कार किया है । इद - इन्द्र | बरुणु - जल । ईशाणु ईशान । चंदु - सोम । - दहरण - अग्नि । वाय - वायु, पवन धरण - धनव-कुबेर | फोर्मिणिव पद्मिनी (पद्मावती ) । धदु धरद्र । मंगल अर्थ :- रवि, सोम, सुख का विस्तार करें। शुक्र, शनि, नव ग्रह जितागम में प्रसिद्ध हैं । - सूरु सूर्य दुइ दुख 1 १. इन्द्रो वह्नि पितृपति, नैऋतो वहरणोमरुल 1 कुबेर ईश: पतय: पूर्वादीनामनुक्रमात् । श्रमरकोश | विप सुक्क - शुत्रः । सिठ वृहस्पति । केज L १३ 1 · सूर सोम मंगल बहुउ, बुद्ध विहन्यद सुह विन्दर । शुक्रानि 'एजा ग्राम सिह ॥ - शिष्ट प्रतिष्ठित । ― -- जम केतु । - सुह-सुख । यम फेरिउ नैऋत दुःखों को भस्म करें। बुध एवं वृहस्पति राहु और केतु विशिष्ट ग्रह हैं, ये सभी - - यह दह दग्ध करना। बुह् बुध । विच्छरउ विस्तु फैलाना | गरिठ-गरिष्ठ-विशिष्ट । गढ़ ग्रह । - १. 'उ' मूल पाठ है । - (शारदा स्तवन ) [ १४ ] जहि संभव जिधर मुह कमल, सप्तभंगवाणी जसु श्रमत । प्रागम छंद तक्क वर वाणि, सारद सह अन्य पय लागि ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति खण्ड अर्थ: जो (शारदा) जिनेन्द्र भगवान के मुख से प्रकट हुई है, जिसकी सप्तभंगमय वाणी है, जो श्रागम, बंद एवं तर्क से युक्त है, ऐसी वह शारदा शब्द अर्थ एवं १६ की खान है। संभव जन्म | अस्ति ( २ ) स्यात् नास्ति (x) स्यात् अस्ति वक्तव्य नास्ति वक्तव्य । अस्थ पथं । - 1 ( ३ ) सप्तभंग - स्याद्वाद के सात सिद्धान्त (१) स्यात् स्यात् अस्ति नास्ति ( ४ ) स्यात् प्रवक्तव्य ( ६ ) स्यात् नास्ति श्रवक्तव्य ( 9 ) स्यात् प्रतितर्क । शारदा । सक्क पुठि पृष्ठ-पीठ । गय - पद | मारद | १५ 1 गुण रिप हि बहु विज्जागमसार, पुठि मराल सहद भविचार | छंद वहरि कला भावतो, सुकह रहू परब सरसुती । अर्थ: जो गुणों की निधि एवं विद्या तथा श्रागम की सार-स्वरूपा हैं, जो स्वभावत हंस की पीठ पर सुशोभित हैं जिसे बंद एवं बहत्तर कलायें प्रिय है, ऐसी सरस्वती को रह कवि नमस्कार करता है । । विज्जागम - विद्या और श्रागम | गुरिहि गुणनि थुइ - -J I सद्द शब्द । १६ 7 करि बुइ सुद्द ठरणव तु पात्र, परसबरे तु सारब माइ । महु पसाउ स्वामिनि करि तेम, जिस वरितु रचज हज क्रेम । पसाउ स्तुति । - ] अर्थ :- कवि स्तुति करके तुम्हारे चरणों में नमस्कार करता है हे शारदा माता ! श्राप प्रसन्न होओ। हे स्वामिनि, मुझ पर अपनी कृपा उस प्रकार करो जिस प्रकार मैं जिनइत चरित की रचना कर सकूं। प्रसाद कृपा । १. हु - मूलपाठ - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 जिरायत चरित ( शारदा का प्रकट होना ) [ १७ घनरु सुखित्रि वयण सारव यौ कहै, मेरठ श्रन्त न कोई सह । किमड का श्राहि मोह मांहि ॥ अर्थ :- प्रार्थना को सुनकर शारदा यों कहने लगी "मेरा पार कोई नही पा सकता है । किस कार्य के लिये तू मेरी आराधना करता है ? मैं तुझ पर संतुष्ट हुई तू मांग, मांग | " प्राराह ] आराघ्-आराधना करना। संतु संतुष्ट । भराड सुदर करि सुधन भाउ, तह पसाइ पारण घवरु लहर, - [ १८ ] अर्थ :- कवि शुद्ध भाव करके कहता है- निश्चित रूप से यदि तुमने मुझ पर प्रसाद किया है तो तुम्हारे प्रसाद से अपार ज्ञान प्राप्त करू जिसमे मैं जिसादत्त-वरित को कह सकूं । J - ! जा निरु अहं किउ पसाज | ता जिरणदत्त श्ररित हट कहउ ।। भाउ नाव १ निरु निश्चित रूप से । गहवर, भारी, गम्भीर, अपार । गाण - ज्ञान । ( शारदा का वरदान ) [ १६ ] सा भारती गुसाइरिग देवि, तूठी सारगंदे पभवि । सुकर कहा तू कहण समस्यु, खुहु सिरि रहें दिष्णु मह हत्यु ।। अर्थ :- वह स्वामिति भारती (शारदा) देवी प्रसन्न होकर श्रानन्द के Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति खण्ड साथ कहने लगी, "हे सुकवि तु कथा कहने में समर्थ है। हे रल्ह, तेरे शिर पर मैंने अपना हाथ रख दिया है । गुसाइि समन्धु – समर्थ ! - अख चड यदि — गोस्वामिनी-स्वामिनी । पमरण - मृत्यू हा -- ( कवि द्वारा लघुता प्रदर्शन ) [ २० } उ उ जिरगवत पुराणु, पडिउ न सपखरण छंद वस्वाणु । मक्खर' मत होग जड़ होइ, मह जिए दो बेड कवि कोद्र ।। अर्थ :- मैं जिनदत्त पुराण को कह रहा हूँ। मैंने काव्य के लक्षण एवं छंदों का बखान (वन) नहीं पढा है । इसलिये यदि कहीं प्रकार एवं मात्रा की हीनता हो तो मुझे कोई भी कवि दोष न देवें । क्या ख़्या कहना | अक्ज़र १. श्रम्बर मूलपाठ । - I २१] होरा बुधि किए करेज कवित्त, रंजि रंग सक धम्म कथा यह वोसु, दुज्जरण सयण - 1 पत्र प्रकट प्रकट करना । प्र + मरण - कहना । अक्षर । मऩ - मात्रा । अर्थ :- मैं होन बुद्धि है कविता किस प्रकार करू ? (क्योंकि) मैं विद्वानों के चित्त को प्रसन्न भी नहीं कर सकता हूँ । धर्मकया को प्रकट उमलिये दुर्जन एवं सज्जन ( दोनों ( प्रतिपादित ) करने में दोष होते ही है। से ही प्रार्थना है कि वे ) रोष न करें । विवरण वित्त । कह जिष्णु रेसु ॥" Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवत्त परित [ २२ । भुवश कईस प्रतीते घणे, बहुले अहि ठाइ आपुणे । कहतणु फुरइ विवह जरण पेखि, पाय पसारउ प्राचल देखि ॥ अर्थ :- भुवन (जगत) में बहुत से कवीश्वर (महाकवि) हुए हैं और बहुत से अपने स्थानों पर विद्यमान हैं। कवित्व विबुध जनों (विद्वानों) को देकर स्फुरित होता है । (और मैं सीमिन बुद्धि का है)। अतः अपने अंचल-वस्त्र (अपनी सामर्थ्य) को देखकर ही मैं पैर पसार रहा (काव्य रचना कर रहा) हूँ। भुवन - जगत्। कईस' - कवीश-महाकत्रि । अत्यहि - स्था-घटना । काइतागु – कवित्य । पेखि – 1 ईक्ष देखना । जइ अइरावद मत्त गईदु, जोयरण लक्षु सरीरह विजु । तासु गाज जइ अवरण सम्पारण, गहयर इयर प्रापुणे माण ॥ अर्थ :-यद्यपि ऐरावत मत गजेन्द्र है, उसका शरीर एक लाख पोजन प्रमाण जाना जाता है और उसकी गर्जना भुवन में व्याप्त है तो भी इतर गज अपने मान (सामर्थ्य) के अनुरूप गर्जते ही हैं। अइ - यदि । इरावइ - ऐरावत । गद - गजेन्द्र । जोयण - बोजन । विद - विद्-जानना । इयर - इतर । मारा - मान-सामध्यं । घोसु कला पुणुं सासि भा पाहि, सवइ अमिड सीयसक सब काहि । सासु किरण तिचरा जद दिपइ, पाप समारण जोगणा तपइ ।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तुति शल प्रय :-चन्द्रमा पोष्टश कला पूर्ण कहा जाता है, वह संपूर्ण रूप से अमृतमय है और सबके लिए शीतल (होता) है। यदि उसकी किरणें तीनों मुवनों को प्रदीप्त (प्रकाशित) करती हैं, (तो भी) अपनी शक्ति के प्रमाण से (सामर्थ्य पर) जुगुन तपता (चमकार) ही है । पुरण - पूर्ण । अमिउ - अमृत । सीयल - शोतल ।। तिहुवरण - त्रिभुवन । पमाण - प्रमाण । जोगणा - जुगनू - खद्योत । 1 २५ ] हाथ जोड जिधर पय पडउ, पोपराग सामिय मणि धरउ । जस्य होह कुलदसणे मधु, जिरणवत्त रपज पउपई वेषु ॥ अर्थ :- हाथ जोड़ कर मैं जिनेन्द्र मगवान के चरणों में पड़ता हूँ सथा वीसराग स्वामी को मन में धारण करता है, जिससे कुकवित्व अंधा हो जाए, और मैं जिनदत्त (की कथा) चउपई बंध (काव्य रूप) में रच सक। पप - पद । वीयराग - धोतराग 1 सामिय - स्वामी । कुकइतणा - कुकवित्व । ग्यउ - रच-रचना करना । (कत्रि परिचय) जइसवाल कुलि उत्तम जाति, वाईसद पाडल उतपाति । पंचकलीया पाते कर पूतु, कवइ रहु जिरणवत्त चरितु ।। अर्थ :-जैसवाल नामफ उत्तम जाति के बाइसर्वे पाटल गोत्र में मेरी उत्पत्ति हुई है। पंचऊलीया माते का जो पुत्र है ऐसा कवि रल्ह जिनदत्त चरित की रचना कर रहा है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरगवत चरित अन्तिम छंदों में कवि ने अपने को 'अमई' का पुत्र बताया है कदाचित यहां भी 'भाते' के स्थान पर पाठ 'अम होना चाहिए। संभवत: अमई ग्रमिते हुआ है। ર पंचकल - पञ्चकुल - पाइ कई कवि । I माता पाइ नभउ जं जोगु, देखालियर जेहि मतलोग । उवरि मास इस रहिउ परम धम्म वृधि हुइ सिरीया माइ r उबगार - अर्थ :- माता के चरणों में यथायोग्य नमस्कार करता हूँ जिसने मुझे मृत्युलोक दिखाया तथा जिसने अपने उदर में दश मास तक रखा, होसी धर्म बुद्धि वाली सिरिया मेरी माता भी प्रथा धर्म बुद्धि में मेरी माता सिरिया ( श्रीमती - जिसका उल्लेख कवा में हुआ है) के समान हुई । उदर-पेट | २७ - I उपकार पाद - चरणा । मतलो - मृत्युलोक। उवर [ २८ । पुणु पुणु गणवज माता पाइ, मेह हउ पालिज करुणा भाइ । उरगु, हा हा माझ मक्भु जिन सरण || म उषधारण लुइस अर्थ :- मैं बार बार माता के चरणों में नमस्कार करता हूँ जिसने दया भाव से मुझे पाला है। मैं उसके उपकार से उऋण नहीं हो सका। हे माता मेरे तो जिनेन्द्र भगवान हो गर हैं । 773 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( रचनाकाल ) [ २६ ] संवत तेरह चडवण्णे भावव सुदि पंचम गुरु दिष्णं । स्वाति नखत्त चंदु तुमहतो, कवइ रहू पणवद सरसुती । तुल - तुला । अर्थ :- संवत् १३५४ की भाद्रपद शुक्ला पंचमी बृहस्पतिवार को जब चन्द्रस्वाति नक्षत्र में था और तुला राशि थी, कवि रल्ह सरस्वती को नमस्कार करता है । मग वरन - (कथा का प्रारम्भ ) | लवणो हि उपासहि फिरिउ, जंबूदीपु मभिः विप्पुरिव । दाहिण भरलेस जिण क्षणी, वह कालु तहि प्रविण ।। - विष्णुरिउ विस्कुरित । अर्थ :- लवणोदचि समुद्र जिसके चारों ओर फिरा हुआ है, ऐसे जम्बूद्वीप के मध्य में विस्कुरित दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र हैं जहां काल चल रहा है । वहि लवणोदधि । ३० ] भरत अवसरी - अवसपिरो । - भरत क्षेत्र । ' ( मगध देश का वर्णन ) | ३१ j सवइण पाउ वत्थ जहि ठाउ, मह देसु तहि कहिथउ गाइ । पामरि घराण प्रवासह वही जगु वह छूट से पड़ी ।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अर्थ :- जहां पर समस्त मगध कहा जाता है । पामरों महलों पर चढी हुई ऐसी लगती हैं मानों वे छोड़ो आकर स्वर्ग से छूट पड़ी हों । पारि - नीच चन चय - व्यक्त - छोड़ा हुआ | मगह मगध आवास- प्रासाद प्रवास १. सग मुलपाठ | - अंब - श्राम | जिवत चरित वस्तुएं पाई जाती हैं ऐसे उस देश का नाम (नीच मनुष्यों) की स्त्रियां (उस देश में ) 1 परतह प्रत्यक्ष 1 गाइ - नाम । - करहि राज्जु सकुटंब अर्थ :- अब उस देश का व्यवहार सुनी जहां पर घर घर में फल सहित सहकार ग्राम के वृक्ष थे । लोग सकुटंब राज्य जैसा सुख भोगते तथा प्रत्यक्ष में कोई दुखी नहीं दिखाई देता था । साहार - सहकार - एक जाति का आम 1 [ ३२ | बसाहार । हरि घरि सफल लोइ, परसह दुखी न दीसइ कोइ ॥ T ३३ 1 पहिया पंथ न भूखे जाहि केला दाख छहारी खाहि । गामि गामि देते सत्कार, पहियह कूरु देहि अनिवार ।। पद :- जहां पर पथिक मार्ग में भूखे नहीं जाते थे तथा केला, दाख, छुहारा खाते थे। जहां पर गांव गांव में सत्त के भोजनालय थे जो पथिकों को देखते ही अनिवार्य रूप से ( सत्तओं के ) कूट (ढेर ) खाने के लिये देते थे पहिय – पथिक । क्रूरु - कट-ढेर | मनकार मत्सु क... आलय - सत्तू धर (सत्त-भुने हुए यव आदि का चूर्ण जो पानी में मानकर मीठा व नमकीन बना कर खाता जाता है) । - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामि गामि वाडी धम्मु विषे गरु भोषणु अर्थ :- जहां पर गांव गांव में बगीचे एवं अमरायां थो तथा जैसे नगर थे वैसे ही वे स्थान ( ग्राम ) थे । धर्म-कार्यों में ( वहां के ) नर (लोग) भोजन ( श्राहारदान ) देते थे तथा बेची हुई वस्तु का दाम नहीं लेते थे अथवा दाम देकर कोई वस्तुएं नहीं लेते थे । भोयर - भोजन । पाटण वादी - वाटिका नगीना । — मगध वर्णन L २४ J अंबराड़, जहसे पाटण तेसे ठार । देहि, वाम विसाहि न कोई लेहि ॥ पत्तन -नगर 1 असण्ड मरासिम को बगीची । विसाहिविमाहि-विमाधित- बेची हुई वस्तु । [ ३५ ] पोक कूल दंड तहि चर, प्रभुणइ सुखि परजा व्यवहङ्ग चोर न चर प्रांखि देखिये, ग्रह परगारि जरिए पेखि || ग़ाँ करु अपराधी । लूटेरों का एक प्रकार । पेन — अर्थ :- जहां जो अपरात्री और कूट [दुष्ट ] होते थे उनके लिये दंड चलता था और प्रजा अपने व्यवहार [ दैनिक जीवन में मुखी थी । चोर चरट कहीं भी नहीं दिखायी देते थे तथा पर स्त्री माता के समान देखी जाती थी । . कूड - कूट- कुटिल, दुष्ट । -प्र + ईक्षु-- देखना । ३.६ 1 १५ [ मगह देसु भीतर सुहि सारे धरण करण कंचरण सव्य विपूर, चरडु - चरट वासव सुरह महिउ सो चाह । मंदर तृग पिहिप कप सूर ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरगवत चरित अर्थ :--मगध देश भीतर से भी सुखी और मारवान (संपन्न) वा । यह इन्द्र का चाक स्वर्ग था अथवा सुरथ का भाकेतपुर था । वह धनं धान्य एवं स्वर्ण से पूरित श्रा लया उसके सूर्य को ढकने वाले कंचे मंदिर (पर्वत) के सदृश महल थे । १६ सुहि सुखिन सुखी साकेलपुर का एक राजा गियि - सारु ● - मारवान संपन्न | विवि-पिहितका हुया | - ( विभिन्न जातियों के नाम ) वस्तुबंध मुरह सुरथ | २७ वरिंकु वंभरण वइव बासीठ || बाढड़ बेसा वरुड यंवरा fववारी बिहार । वाणू वाह बारो वुरु बहू विहारछ जीवराहं ॥ रु बिहारि वारिठिया बुह विडह " वरियार । तह वसंतपुरि रह कई छहि वज्रवीय वकार ।। अर्थ :- वणिक, ब्राह्मण, वैद्य, अमीठ, बर्ड बेण्या, वरुड बंदरा, 1 - दिवारी, विहार, वा, वाह, बारी, बुरु, बहु विहार, वरख, बरु, बिहारी, वारिटिया तुह, बिडह वशियार रह कवि कहता है कि ये चौबीस 7 प्रकार की बकार के नाम वाली जातियाँ वहां मंपुर में रहती थी । १. खरियार मूलपाठ | I ३८ 1 सूर सामीय साहु सोत्यिहि । सरि सरबर सावयहं सव्वल ग्रत्थि सारंग साहरणा सिक । सोहा सहियरण सिरिव संत सहियण समाराहं ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगध बन सरण सीमा सत्यवई, सत्य सर्वर सुहसार सुव्बास सील वसंतपुर, छहि उवीस सकार 4 2 अर्थ:-सकार के नाम व्याली निम्न चोदोस जातियां बसंतपुर में निवास करती थी : सुर, सामी (स्वामी), साहू, सोतिय ( श्रोत्रिय), सरि, सरवर, साव‍ ( श्रावक ), सव्वल, सारंग, साहस, सिऊ, सोहा, सहियरण, सिरि (ख), संत सहिगरण समारण, सीमा, सत्यवs ( सार्थपति), सत्य (सार्थ), स्वर, सुर (सुखसार), सूत्रबस, सवेल, ( शील) 1 मोह म माथु मture 1 म मरि मार भरविणु, मलिणु मल मह स ममरासहि उतहि, मध तू मुसरण मंगलु वर, जहि ग मल जल मोनू भरखर ररुह सु बसंतपुर, वीस मकार विहीणु ॥ १७ जहि कवि सोस । मचरण दोसई ॥ नोट :- इस छद के पाठ में कुछ मैल कवि सीस' चरण ३ के भवरउरण दोस अर्थ:-रह कवि कहता है कि बसंतपुर में, मोह, मत्सर, मान, माया, मद, मरी ( एक रोग), मारण, मरर्सवरण, मलिरण ( मासिन्य), मलन ( मन ), मधु, मांस, मदिरा, मविन्दु ( मच्छन्द), मउरण (मुकुट बिना), मुढ, मुसरण, मंगल, भवर तथा मीन सहित जल ये बीस मकार नहीं थे । 1 लगती है चरण २ का 'जहि के साथ श्राना चाहिए । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरणवत्त चरित ( बसंतपुर नगर वर्णन ) चौपई [ ४० ] राज-याणु किमु करि वणियह, परमसु सन्शु खंड जारिणयद । बसइ वसंतु एयर सो घराउ, चंबसिहरु राजा तह तरिणउ ।। मर्थ :-राजा के स्थान (राजधानी) का किस प्रकार वर्णन किया जाय ? उसे तो प्रत्यक्ष स्वर्ग का टुकष्ठा ही जानो। यह वसंसपुर नगर बना बसा हुमा था और उसका चन्द्रशेखर नाम का राजा था । थाणु - स्थान । पाचवु - प्रत्यक्ष । सागु - स्वर्ग । चंदसिहरु - चन्द्रमोखर । चंदसेखर राजा के भवरण, दिपहि त माणिक मोती रयण । सयतु अंतेउर रूपनिवानु, बोस बोस सबण्ड प्रवामु ॥ अर्थ :-चन्द्रशेखर राजा के महल से माणिक मोती एवं रन चभकते थे (प्रथवा, वे महल माणिक, मोती एवं रनों से चमकते थे)। उसका समस्त अन्तःपुर रूप का निवास या सवा सबके लिये बीस बीस प्रानाम (महल) थे । योउम - अन्तःपुर । रयर्ण - रत्न। सयलु - सकल, समस्त । मधनु - सबके लिये-स्वर्ण । वसहि त सयल लोग सुपियार, कंदण मइ तिन्हु कियए विहार । पर कल मीचु ण बछड़ कोइ, जीव दया पालइ सम कोइ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगव वर्णन अर्थ :-समी लोग प्रेम से रहते थे। उन्होंने अपने विहार (जिन मन्दिर) स्वर्ण-मय बना लिये थे। वहां दूसरे की मृत्यु की वांछा कोई नहीं करते थे तथा सभी जीव दया का पालन करते थे । सुपियार - सु.:-पिय+तर-प्रत्यन्त प्रिय ! मीचु - मृत्यु । कोली भाली पालहि श्या, पटवा जीवकट इंहि मया । पारधी जीव रण घालहि घाउ, ज्या धम्मु कउ सबही भार अर्थ :-कोली और माली (तक) मी जहाँ दया धर्म का पालन करते थे । पटवा एवं सपेस भी दयावान थे । वधिक जीवों पर कोई मौ पात नहीं करते थे । (इस प्रकार) सभी का दया धर्म का भाष था । कोली - कौलिक-सूती वस्त्र बुनने घाले। पटवा - पटवाय-रेशमी वस्त्र बुनने वाला। जीवक - सपेरा। पारधी - पापधि-वधिक । [ ४४ । वाभरण खत्री प्रवरति चर्म, ते सब पालक सरावग धर्म । मारण पाइ दिया कलमली, जिरणवर गहि छत्तीसज कुली ॥ अर्थ :-ब्राह्मण सभा क्षत्रिय चर्म (के प्रयोग) से विरत थे और वे सभी श्रावक धर्म का पालन करते थे। मारने (हिंसा करने) का नाम उनको कष्ट देता था और छत्तीसों जातियां जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार भारती थी। अवरस - अवरत-प्रपरक्त-बिरक्त । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त चरित (स्तु बंध) ४५. ] सुवण रंजणु धम्मु गुण वारिए । परिवारई सोहियउ बेइ, वाण जिगरगाह पुज्जन । सपल मोब करणा फरक, जीवदेउ तहि ठ छमाह । परणि सुहाइ वाम घरि, जीवंजय सुषिसाल । सरण किति सिन्ह रह कर, भमिय पुहमि प्रसराल । प्रर्म :-वह सभी सवरणौ (उच्च जातियों का प्रिय था तथा उसकी पाणी घमं एवं. गुणों से युक्त थी। वह अपने परिवार के साथ गोभित था, जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता था तथा दान देता था। नत्र जोषों पर करुणा (दया) करता था, ऐसा वहाँ जीवद्रेव नाम का सेठ शोभित होता था। उसके घर में सुन्दर गृहिणी (धर्म-पत्नी) 'जीवंजसा' नाम की थी जो बहुत सुन्दर थी। 'रसह कवि' कहता है कि उनकी दान देने की प्रशसा सम्पूर्ण पृथ्वी तल पर निरंतर फैल रही थी। असराल - निरन्तर । सुवणु - सवर्ण - उच्च जातियाँ । सयल -- सकल। छज्जा - शोभित होना। अमिन - फैलना । [ ४६ । जगह पीठि करावा वेलिं, जीउदेव तहि निवसद सेठि । जीवंजसा मामें तसु घरणि, रुब सुरेख हंस-गाइ-गमणि ।। अर्थ :-दुखित जनों की पीड़ा को दूर कर बैठने (विश्राम लेने) वाला जीवदेव नाम का सेठ वहां रहता था । उसको स्त्री का नाम जीवंजसा था जो रूपयती, शुभ रेखानों से मंडित तथा हंस की चाल चलने वाली थी। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगर वर्सन [ ४३ ] पाइसज सेठि वसाद तहि नगरी, सिहि समु भयउ न होसद प्रजह । घरण करण परियणु सवरण संयुक्त, पर घरि नाही एकह पूर्व ।। अर्थ :-ऐसा सेठ उस नगरी में रहता था, उसके समान न तो कोई हुआ और न दूसरा होगा । वह धन-धान्य एवं सब वारजनों से युक्त था केवल उसके घर में पुत्र नहीं था। मउरु – अपरु-दूसरा। परियशु - परिजन । [ ४८ सेठिणो भणइ सेठ णिमुरलोहि, पुतह विणु कुसु धूड तोहि । वारण धरमु संपइ स बोज, फुण ऋष पास भाइ तपु सोज । अर्थ :-सेठानी सेठ से कहने लगी “हे सेक सुनो बिना पुत्र के तुम्हारा वंश डूब (समाप्त हो) जावेगा । दान, धर्म में सन संपत्ति दे दीजिये तथा फिर ऋषि के पास जाकर तप (व्रत) ले लीजिये । पृत्त - पुत्र । संपह - संपत्ति । [ ४६ ] कियउ मंतु परियणु क्यसारि, कहइ वयणु सुहयरु ऊसारि । पूतह विनु कुल ब्रम्ह मोहि, कि किज्जा यह प्रथउ तोहि ॥ अर्थ :-अपने परिजनों को बैठाकर उसने मंत्रणा की तथा यह मुखकर वचन (मुख से) निकाल कर कहा-"बिना पुष के मेरा कुल डूब रहा है । क्या करना चाहिए, यह हे बुद्धिमानों, मैं आपसे पूछता हूँ।" । मंतु – मंत्र-मंत्रणा । मुहयर – सुखकर। ऊसारि - उच्चारण कर। वह – बुह-बुध । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जिtraत्त चरित [ ५० ] श्रवण जिरगवर बंदियह, ऋणु विष्णु सेठि श्रप्पु गिदिय । पर पसंसु कर जो भव्वु, बेद धारण मरिण परि हरि गणधु || अर्थ :- ग्रह सेठ श्रमण वदना करने लगा तथा प्रतिदिन दूसरों की प्रशंसा करता है तथा मन से गर्व को दूर कर दान देता है । अ - कहना । भगवान का नाम लेने और जिनेन्द्र क वह अपनी निन्दा करने लगा । जो भव्य पसु - प्रशंसा । श्रवण H श्रमण भगवान । परह-दूसरे की । । ५१ । जोवस्था जो ग्रह निसि करs पंचानुव्यइ निम्मल परइ । पुरणवय तिष्णि सिखवय चारि, मुत्ति स्वयंबर व नारि ।। अर्थ :- जो रात-दिन जीव दया पालन करता है, निर्मल पंचाणुव्रत को धारण करता है, तीन गुणवतों और बार शिक्षाव्रतों को ( जीवन में उतारता है) मुक्ति-मारी स्वयं आकर उसका रक्षा करती है । यह निसि - अहः निशि । पत्रानुस्वई - पंचा।" निम्मल निर्मल | गुरदम - गुणवत 1 तिष्षिण - श्रीणि । सिग्ववय - शिक्षाव्रत । हिमायत सत्यायन श्रचीयरगुव्रत, ब्रह्मचर्या व्रत एवं परिम परित ये पांच कहलाते हैं । ★ दित, देश एवं ये तीन गुणवत हैं । सामयिक प्रोषधोपनास, भोगोपभोग परिमाण एवं अतिथि संविभाग ये चार शिक्षागत हैं । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मषध वर्णन तिहि खरिण घबड़ जोक्यो सेठि, हज पाराहरु निरु परमेष्ठि । समस चराचर जाणउ मेउ, बोधराज मह अरउ' प्रलेउ ।। जल चंदरण प्रलय पर फुल्ल, चरु दीवइ अशुद्ध सहय प्रमुस्ल । अगर धूव कारण निर लपत्र, फल समूह जे जिपवर गया । जिपवर वि जोइ मणु तुट, चिर संघिउ कलिमल गड तुठ । अठविह पूय करत त्यांतु, नियम भावद देउ परहंतु ॥ पर्य :-उस क्षण जीवदेव संठ कहने सगा प्रध में निश्चितरूप से परमेष्ठि की प्रासघना करता हूँ (कहगा) क्योंकि वे ही सकल घराचर का भेद जानते हैं (प्रतः। मैं उन अजित बीनगग भगवान का अप करता (बोलता) है। 11५२३ एक थाल में जल, चंदन, अक्षत, उत्तम पुरुष एवं बिना स्पर्श किये हुये अमूस्य (निर्मल) नवेद्य एब दीपम उसने लिये तथा अगर धूप (दशांग धूप) और उसी कारण (उद्देश्य) मे फलों के समूह को लिया और बह मन्दिर में गया ।।५३॥ जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के दर्शन कर उसका मन पूर्ण संतुष्ट हो गया तथा चिरकाल से संचित पापमल त्रुटित (नष्ट) हो गये । वह भगवान की अष्ट विधि से पूजा करने लगा तथा अपने मनमें अईन देव का ध्यान करने लगा ।।५४॥ खरिण - खण-क्षण। परमेठि - परमेष्ठि। प्रतय - प्रक्षत । निरु - निश्चितरूप से । घर - नैवेद्य । दोपह - दीपक । तल - अदित-टूटा। झाव - पावइ - ध्यान करना, चितन करना । १. जयज-मूलपाठ। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जिरणबस परिस [ ५५-५६ ] गृह कारणो सामिय जिरणसुत्त, सत्यु पुज्ज गुरु पूज्जिउ भत्ति, मुमिवर पाइ पड़ी तिहू पति । मह होइ इह मुरिंगवरु भए पुत ॥ जिरण सेडिरिंग हिडइ बिलाहि । कुल मंडणू तुष होस पुत्तू ॥ हाथु देखि मुनि बोलड़ ताहि, प्रखरण बत्तीस कलर संजूत्त, अर्थ :- शास्त्र की पूजा करके शीघ्र ही उसने गुरू की पूजा की तथा ( तशतर) उसकी पत्नी मुनि के पांव पड़ गईं। ( उसने कहा ) हे स्वामी आप जिनसूत्रों (आगमों) को जानने वाले हो । मुझे पुत्र हो, हे मुनिवर, ( श्राप) यह कह (आशीष दें [ अथवा क्या मुझे पुत्र होगा, हे मुनिवर, आप यह बनाएँ | ।। ५५३ हाथ देखकर मुनि उस समय बोले "हे सेठानी हृदय में दुखित मत हो । बत्तीस लक्षणों एवं कला से युक्त एवं कुल की शोभा बाला पुत्र तुम्हारे होगा ।। ५६ ।। सत्भु - शास्त्र । पति - पत्ती-पत्नी- मार्या । झट- शीघ्र । | सेठिपि सगुणु गाठि गांधिवउ, मोसिस मुणिवरु कहिउ गणेगु, सि - झटिति - ५७-५८ ] शिम घर जान महोछउ कोय | तूठी सेठिरिए माइ सा अंग || पुपु अलहादी बोल सोय, रिसि भासियड मभूठि होय । हि आरबिउ वोल साहू, पिव होसइ मणु वित्ति बचा ।। अर्थ :- सेठानी ने उस शकुन ( शुभ सूचना ) की गांठ बांध ली और अपने घर जाकर महोत्सव किया। गुणों के वारी मुनिवर ने मुझ में इस ( प्रकार ) कहा है "इससे प्रसन्न नेदानी अपने अंगों में समा नहीं रही थी ||१७|| Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त-मम्म १५ ठा फिर प्रसन्न होकर कहने लगी "ऋषि का कहा हुआ कमी नहीं होता है । सेठ भी निश्चित रूप से आनन्दित होकर बोला- प्रिय (अच्छा हो ) होगा ऐसा मनमें सोचकर उछाह करो । ११५८|| मोसिउ - मुझसे । रिज़य - निज । रिंगरु निश्चित रूप से । - 1 ५६ - ६० ] ६ दुख शत्रु करत दिन केते गये, सेहिरिए गम्भु मास कुछ भए । आह भए पूरे बस्त मास, सु जम्मु भी पूरिष मास जीवयेउ धरि मंदण भयंज, घर घर कुटंब बघाऊ गयउ । गावहि गीतु नाइका सकु, चउरी पूरिज मोतिन्ह कु ॥ महोउ - महोत्सव पिव पितृ-पिता- प्रिय । अर्थ:- राज करते हुये ( सुख भोगते हुये ) कितने ही दिन बीत गये । कालान्तर में सेठाणी को गर्भ रहा जो दो मास का हो गया फिर दम मास पूरे हो गये । पुत्र का जन्म हुआ और सबकी याशा पूरी हुई ||५६।१ गभु गर्ने । 1 जीवदेव के घर जब पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसके कुटुम्बियों द्वारा घर-घर मैं बघावा गाया गया । स्त्रियां उत्साहपूर्वक गीत गाने लगी तथा उन्होंने मोतियों के चौक पूरे ॥६०॥ उत्साहपूर्वक । - नद्रिका - नायिका - स्त्री । उकुस उत्क [ ६१-६२ ] चेहि तंबोस त फोफल पारा, दो चोर पटोले पारी । लोरि, दोने सेठ बाम दुइ कोडी ॥ लुल वधाए नाही • Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवत्त चरित बाद तु कला निमु चंच, नाइ विहार कियर पार्णव । जिरणवह पून मुगिह पयो पम्ह, रिधि जिनदस नाउ सिस धरइ ॥ अर्थ:-सेठ लाम्बूस, सुपारी तथा पान (बीड़े) देने लगा। उसने सूती एवं रेशमी बस्त्र दान में दिये । पुत्र (जन्म) के बघावे. में कोई खोरि (कसरकमी) नहीं रखी । सेठ ने दो करोड़ का मुद्रा) द्वार में दि । चन्द्रमा की कला के समान पुत्र बढ़ने लगा तथा जिन मन्दिर जाकर उसने आनन्दोत्सव मनाया। जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके तह मुनि के चरणों में पड़ा तथा ऋषि (मुनि) ने उसका नाम जिनदत्त रखा । फोफस - पुगफल-सुपारी । पढोल - पट्टफूल-रेशमी वस्त्र । परष दिवस वाढइ जे तडज, दिन दिन विरष करइ ते तडउ । बरष पंच रस को सो उछाह, विज्जा पहरण उन्माउरि नाई मोंकार मपज मनु माणि, मखन यंदु सपक परिवारिग । मुणि व्याकरण विरति कज नाणु, भरह रमायण महापुराणु ॥ अर्थः वर्ष और दिन ज्यों-ज्यो व्यतीत होने लग ब उसमें उतनी ही वृद्धि लाने लगे। जम उसकी १५ वर्ष की अवस्था हुई तो विद्या पड़ने के लिये वह, उपाध्याय कुल (विद्यालय) जाने लगा। सर्व प्रथम उसमें 'ओंकार' शब्द को मन में जाना । फिर लक्षण शास्त्र, छंद शास्त्र तथा तक शास्त्र को प्रमाणित किया (पहा)। व्याकरण जानकर वैराग्य का विषय उसने आना और इस प्रकार भरत (नाट्न शास्त्र) रामायण तथा महापुरगरण का (ज्ञान प्राप्त किया) । उछाइ - उच्छाय-ऊंचाई, अवस्था । विज्जा - विद्या । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त-जन्म उज्झाउरि - उपाध्याय कुल-विद्यालय । लखरगु - वक्षरण । तक्क - सर्क। मुगण - जानना । बिरति - बैराग्य-प्रध्यात्म । 1 ६५-६६-६७ । लिखत पत सौखिउ प्रसुरानु, जोतिषु संत मंतु सब साए । छुरो सपनु परू खंडागर, सोखी सयलु कता बहत्तरु ।। भउ जुवाणु मह सुद्धि सहाउ, लगातु बउ पम्मु कर भाउ । सीत गुरु मा किमा. शिव पर भाव न घरइ ॥ देखिऊ पूत तण विवहारु, भगद सेठि कुल भूउप हाए । पूत विषय मनु लगु ण तोहि, कैस बस विद्धि हुई मोहि ॥ अर्थ :-निरन्नर पढ़ कर जोतिष, नव शास्त्र और मंत्र का सब सार सीख लिया । समी प्रकार से छुरी और तलवार चलाना (मादि) समी ७२ कलायें उसने सीख ली ॥६॥ वह युवा हुना किन्तु वह स्व मात्र में शुद्ध मति का श्रा, इस अवस्था में भी वह लज्जागोल था तथा उसे धर्म का मात्र था । वह शीलदंत कुल की मर्यादा के भीतर आचरण करने वाला था तथा विषयों पर ध्यान नहीं देता था ॥६॥ पृप का ऐसा) व्यवहार देखकर सेठ कहने लगा " (मेरा) कुले इसके कारण बने वाला है। (पुत्र मे, उसने कहा,) हे पुत्र तुम्हारा मन विषयों में लग नहीं रहा है, अत: मेरे वंश की वृद्धि कसे होगी" ।।६।। संत - तंत्र मंतु - मंत्र - खंडागरु असरानु - निरंतर नलवार । जुवागु - वुवा । मइ - मति 1 लजालु - लज्जागील । च - पुष्-शरीर अवस्था । बमविद्धि - बंश वृद्धि । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवत्त चरित । ६८ । ( वस्तु बंध ) कबड जिणि के वसह प्रणय चिति । नगु ज हर्गह प्रारहहि, गाठे मुठि तबकते मोबाह । मुगरिउ लस्ज विण, विसय मत न विरत्ति सोहि ॥ जिन्ह परदम्यहं मनु ठविण, अय बहि परनारि । तिन्ह हकारि वि सेठि निरु, कहिय बत्त व्य मारि ॥ अर्थ:-जिनके चित्त में नित्य कपट वमता है, तथा जो दुनियां को गाली देते हैं (दुरा माला कहने) तथा शोरगुल मचाते हैं, तथा जो (द्रुमगे की) मांट और मुट्ठी ताकते हुये देखते रहते हैं । जुनारी जन जो निलंज्ज होकर विषयों के भक्त होते हैं और जिन्हें वैराग्य प्रच्या नहीं लगता जिनका मन सदैव दूसरों के द्रव्य में स्थित रहता है तथा जो दूसरों की स्त्री की वां छा करते रहते हैं ऐसे व्यक्तियों को सेट ने बुलाने एवं बैठाकर (अपनी) बात करने का निश्चय किया। कवड़ - कपट । र । हँड / भण्ड - बुरा कहना, गाली देना। पारड् / प्रा+रट् – चिल्लाना, शोर करना । हकारि – बुलाना । मत्त । भक्त। नि: – निश्चित रूप से । विरत्ति -- वैराम्प । [ ६९-७० । नवहि सेठि मंतु परिठविउ, चुनारीहत हमकारत गपड़ । मठ भट जो न कहि बहु काण, ते सतु सेठि बुलाए जारण ।। भार बार वेमा घरि आहि, अरु जूवा खेलत न अघाहि । भोरी करत न पालसु करा, गांठ काटि अंतराला धरइ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत-अम्म प्रर्थ :-तब सेठ ने मंत्र (विचार) परिस्थापित (निर्धारित करने हेतु जुवारियों को बुलाया । नट तया घर जो बहुत कानि (लज्जा) नहीं करते थे उन सबको भी से ने जान बूझकर बुलाया ॥६॥ जो बार बार वेश्या के घर जाते थे तथा जुर्ना खेलते हुये तृप्त नहीं होते थे, जो चोरी करने में प्रालस्य नहीं करते तथा (दूसरों की) गांठ काट करके अपने घर के भीतर घरते थे 11७०॥ [ ५१-७२ । जिनु के शव गइम तिन्ह विठि, सो जप कियर मापुरणो मुठि । गंजणु कू मारि निघु सही, तिरिय सह सेठि बात साह कहो ॥ महो वीरु तुम्ह एसउ करहु, डिउ कुस मेरउ उबरउ । जो जिरणवस दिव्य मनु लाचं, निछय साख वामु सो पावै ।। अर्थ :--जिनकी दूसरों के धन पर दृष्टि जाती थी उनको उसने अपनी मुट्ठी में कर लिया। जिनका कार्य तिरस्कार करना (कपट करना) एवं मारना (इस प्रकार का) मभी कुछ था, उनसे मी सेठ ने वे सभी बार्ने कहीं ॥७११६ “अरे वीरो तुम इस तरह करो कि मेरे डूबे हुए वंश को उबार लो। जो जिनदत्त का मन विषयों को प्रोर लगा देगा, वह निश्चित रूप से एक लाख दाम पावेगा ।।२।। गंजण /_ गञ्जन - अपमान, तिरस्कार 1 धाम /. द्रम्म – एक सोने का सिक्का । जुवारिउ हंसि बोलह वोसु, तुम्हि तो परिज हमारी तोलु । जहया रमा नयर नर नारि, तब तुम पार्छ सका सवारि ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जिered afte हि । राजा सेदि सु प साह, महू समु बलि अउर न महु लीला रस छ जाहि त ह उत्तरु बोबउ साहि ।। अर्थ :- जुवारियों ने हँस करके यह बात कही "तुम ने तो हमको टटोल लिया (हमारा मूल्य यांकलिया ) | यदि वह (जिनदत्त ) नगर-नारियों ! ( वेश्याओं) के साथ रमने लगे, तो ( उसके ) पीछे तुम उसे ( अपने लक्ष्य के अनुसार ) ठीक कर सकोगे ?" राज- सेठ ने उनसे कहा कि मेरे समान लज्जिस दूसरा कोई नहीं है इसे अधिक क्या कहूँ। वह जिनरत्त लीला रस ( भोग विलास ) में जब इच्छा करने लगे, तब हमें उसका उत्तर देना (विवाहादि के विषय में उसके विचार बताना ) । जइ ८ यत्रि । बलियच ८. श्रीडित नयर 4 नगर / लज्जित, JM शरमिस्वा " [ ७५-७६ ] वले वीर जिरणदत्त हकारि भवजोवली दिलालहि नारि । कवर और थका मनु भाव, पुणु बसहिं तु एक्कइ भाव ।। rets खोर जुवा रस रमई, कवर लेइ वेसा घरि वस । लइका ति महि किथन, सोविएतासु देवि हि ॥ अर्थ : वीर जिनस को बुला कर लें चले तथा उन्होंने नव युवतियों को दिखाया। किसी वीर ने उसका मन किसी ग्रभ्य प्रभंग में लगाया लेकिन जिनदत्त का मन एक में भी नहीं लगा 1४७५६ 1 कोई वीर उसे जुए के रस में रमाने लगा तथा कोर्ट उसे वेश्या के घर में ले जाकर रहने लगा। किसी ने उसे ले जाकर स्त्रियों के बीच में खड़ा कर दिया, तब भी उसका हृदय ( उनसे) विह्वल न हुआ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हकारि चेसा आ घारय् -- बुलाना । वेश्या। थका / थक्क -- अवसर, प्रस्ताव-समय । | 53-19८ ] एत्वंतरि ते कहा कराहि, एंकरण पण त्यासद जाहि । मासि वोपन्ह बंबरण ठई, उह को दिठि सिलाहि गई ।। वीठो पाहणमय पूतलो, गय जिलदत्त चिठि भिमली । बहु लावण गढी सुतधारि, भूले देखि प्रचेपण नारि ।। अर्थ :-इसके पश्चात वे क्या करते हैं कि नंदन वन के चैत्यालयों में जाते हैं । वहां पर बैठकर उन वीरों ने भगवान करे बंदना की । इसके पश्चात उसकी दृष्टि (चत्यालब) के ललाट पर महई । जब एक पाषाणमय (पापण निर्मित) पुतली दिखाई पड़ी तो जिनदत की विह्वल दृष्टि उस पर जा लगी । वह सूत्रधार (शिल्पकार) के द्वारा प्रति सुन्दर गढ़ी गई थी । उस अचेतन स्थी (पुतली) को देखकर वह जिनदत्त अपने आप को भूल गया। एस्पतरि : इत्यंतर - इसके बाद। दिठि / दष्टि । पाहणमय - पाषारगमय । गय - गत । ७९-८० | ७६-७ मलिवि पजिउ ताहि मुख देखि, इह परि पाहि रूप को रेल । काम वारण तसु अघिउ हियउ, धार जुयारित प्रचलु कउ सयज ।। बाहरि वीर ति देख हि प्राइ, सइ जिरणवत्त उर्छग प्रहार । देसि पूसली विभिउ एहु, सेठिरिण भलिउ बघाउ देह ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणरत परित अर्थ :-उसका मुख देखकर वह अपने प्रापको भूल गया और कहने लगा हो में हो यह रूप की सीमा है । उसके हृदय को जब मदन माण ने कौंध दिया सो उसने दौड़ कर जुवारियों का मांचल पकड़ लिया । उम वीरों ने उसे बाहर पाकर देखा और जिनदत्त को गोद में उठा लिया । "पूतली को देखकर वह विस्मित हो गया है इसलिये सेठानी से कह कर बधावा दें" II उच्छंग - उत्संग-गोद। संखण वीर पहूते सहा, निय मंदिरह सेठि हो जहाँ । कुवरह सहरण परखि किन लेह, हम कह सेठि वभाग चैहु ।। अर्थ -उभी क्षण वे वीर वहां पहुंचे जहाँ सेठ अपने मन्दिर में था। (उन्होंने कहा) हे सेय, कुमार के लक्षणों को क्यों न परख लो ? हमको भी है सेठ, (अब) बधाई (पुरस्कार) दो। तंत्रिण तत्क्षरण । [ ८३-८३ ] तहि सेठि तूज सतभाउ, लाल मामु तिम बियउ पसाउ | र संबोल घरह पठाइ, अंग दाह जिगवत, भगाइ । रिगसुरिण पूतु तुहि कहज विचारि पुतलो रूपमा नाहि नारि । भइ र विमाहरि पहि रासि, प्रयास करउ सोरि घरि वासि ॥ अर्थ --यह सुनकर सैठ बहुप्त सन्तुष्ट हुअा और प्रसन्न होकर लाख धाम उन्हें पुरस्कार-स्वरूप दिये । उन्हें (संदनन्तर) पान देकर घर विदा क्रिमा और अपने प्रारोर के दाह (चिना) को जिनदत्त से कहा ।।१२॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अिमदत्त जन्म "हे पुत्र, सुनो । मैं तुम्हें विचार फर कहता हूं। जिस नारी को तुम गुतनी के रूप में जानते हो, यदि वह रूप की राशि विद्याधरी भी हो, तो ऐसी स्यो को तुम्हारे घर में दासी के रूप में लाऊँगा ।।३।। तंबोल .. ताम्बूल-पान । विजाहरि विद्याघरी । । ६४-६५ | सुत्तधारि सहयउ कराइ, किसुका रूप घरी ते नारि । कहिहि देसु मछु बहियउ प्राइ, कर कंकरस तुष देउ पसाउ ॥ निसुाह सेठि कहउ फुड सोहि बारह मरस भमत पये मोहि । फिरत देस माह चित्त पइक, नयरी एक भली मह दिढ़ ।। प्रर्य :- उसने सूत्रधार को बुलवा लिया और उससे पूछा "नूने किस स्त्री के रूप को यह (पुतली) गढ़ी है ? उसका देश मुझसे कहो, में दधित है। मैं तुम्हें प्रसाद के रूप में कर कंकण दूंगा। (यह सुनकर वह कहने लगा) "हे सेठ, सुनो, मैं तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि जब मुझे चारह वर्ष देशों में फिरते हुए हो गए। देशों में भटकते हुए मैंने ऐली एक मली नगरी देखी और वह मेरे हृदय में प्रविष्ट हो गयी" । वहिय - व्यथित । फर - स्फुट-पष्ट । । ८६-६७ 1 चंपापुरी नयरो सा भरणी, धण कण कंचरण सोहद घरणरे । अंड दंड एक सोवन घडी, मंदिर दिपहि पदारथ मो॥ घरि घरि कूषा वाइ बिहार, कंचए मह जिन कोए पगार । उसम लोक वसहि सा भरी, जणु कइलस इंद को पुरी।। अर्थ :--वह पंपापुरी नगरी कहलाती थी जो धन-धान्य एवं कंचन से । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवत्त चरित खूब सुशोभित थी, जहां एक स्वर्ण-निर्मित अण्ड दण्ड नाम की गढ़ी है तथा रत्नों से जले हुए महल दीप्त रहते हैं ।।८६11 __जहाँ घर घर में कूवा, बावड़ी एवं विहार बगीचा हैं जिनके प्राकार स्वर्ण के बने हैं । उत्तम लोग उसमें भरे रहते हैं और (वह ऐसी लगती है) मानों इन्द्र की पुरी कैलाश हो ॥३॥ बाइ – वापी-बावड़ी। [ ८५-८६ | वपिरिण जरण के हु देहि शुकः, नीमवंत माशाह तु सह । सपल सरड अंतेजह भारि, करहि राजु ने नयर ममारि ॥ बिमल सेठ विमला सेठिरणी, तहि कोरसि महि मंजल धरणी। विमप्तामती मंनि सा किसी, रूप बिसेषद जिह उरवसी ।। अर्थ :-बंदी जनों को जो [अपनी कोति से] उत्साह प्रदान करता है उस नगरी का [चम्पापुरी का| राजा गुणपाल है जो नीतिवान है । उसके अन्तःपुर की समस्त स्त्रियां रूपवती हैं ऐसा राजा नगर में राज्य करता है |॥८॥ ___ उसी नगर में विमल सेट और विमला मठानी है जिनको कीति मही मण्डल में घनी है । विमलामती नाम की उनके जो लड़की है वह मानों एप की विशेषता में उशी है । नीव - नीति । वस्तु बंध सौजि सुदरी गयण पुत्तार । मंतिय हंस गई कौलमा सरवर बइठी । खेलंतो जसा पड रूपरासि भद विठिय ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त जन्म सहिय समारिणय तहो भरिणय इम जंपा सुतधारी । तासु रूप पुण वणियज कर रल्ह मुषिचार ।। अर्थ :-उस सुन्दरी नयनाभिराम [प्रांखों की पुतली के समान] हंस गति लिये हुई, क्रीड़ा करती हुई, सरोवर के तट पर बैठी हुई और जन से खेलती हुई, प्रकट रूप राशि को मैंने देखा। उसकी सखियां और समवयस्काएँ भी उसके अनुरूप थी, ऐसा सूत्रधार ने कहा । “[तदन्तर] रल्ह कषि कहता है कि वह विचार करके उसके रूप मौर गुण का वर्णन करने लगा। राणायणपुत्तार - अखि की पुतलो। कोलमरण - क्रीडमाण । पयन - प्रकट । सहिय - सखिन् । ममारिणय - समान+इक-समवयस्का । मुंदरिय सह कसु सोहइ पाउ, चालत हंसु ' देउ तसु भाउ । जाणू पान विहितहि घणे, तहि अपरि नेउर वाजणे ॥ सबई वष्णु सोहइ पिंडरी, अम् हि ते कुंथू पिडरौ । जंघ जुयत कदली अपरइ, तासु लंक २ मूठिहि माइया ।। अर्थ :- छल्लों से युक्त उसके पैर सुशोभित थे। उसको चाल हंस को चाल का माव प्रगट करती यो । घुटनों के नीचे के स्थान टिकोरणे बहुत घने न्य और उन पर बजने वानी नेचरिया थी। उसकी पिपलियों में सभी वर्ण शोभित थे, मानों वे कुषु (मनुष्य विशेष) की पिंडलियाँ हों । उनके अपर कदली के (सने के) समान उसको युगल जाँचें थी और उसकी कटि मुट्ठी में समा (भा) जावे ऐसी क्षीण थी। कुथु - एक पौराणिक गजा, मनुष्य विशेष । १. हा - मुलपा। २. लोक – मूलपाठ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणदत्त चरित 1 ६३-६४ ] जणु हह छति अगंगहु तरणी, सहइ जु रंग रेह तहि धरणी । नोले बिहुर स उजल काख, अवर सुहाइ बीसहि कास्य । चंपावण्णी सोहइ देह, गत दसह तिणि जसु रेह । पोरणस्थणि जोवरण मयसार, उर पोटी कडियल वित्यार ।। अर्थ :-वह (काँट) मानो कामदेव का सूत्र थी और समग रंग तथा धनी रेखाएं उसमें थीं । उज्वल एवं नील वर्ण की रोमावलि थी जो अत्यन्त सुन्दर एवं सुशोभित थी। उसका चंपा पुटप के रंग का शरीर शोभित हो रहा था उसके उदर में तीन रेखाएं पड़ती थीं। वह पौन (उन्नत ) स्तनी वाली थी तथा (उसके स्तन) यौवन-मद से युक्त थे। उसके उदर की पेशियां कटिस्थल तक फैली हुयी थी। निहर / विक्रुर – केश - रोमावलि । पोटी पाहि - उदर पेशी। [ ६५-६६ । हाथ सरिस सोहहिं प्रागुली, राह सु त दिपहि कुर की कली । भुव वल जंतु काटि जणु कारणे, वणि सु रेख फबिन्हु से कहे ।। इलोणी अरु माठी लीय, हरू सु पहिया सोइय गोय । कारिण कुंडल इफु सोखनु मरणी, नाक थाणु जण सूवा तणो । अर्थ :-हाथों के समान ही उसकी अंगुलियाँ मुशोभित थी । उनके मख कुद-कलिकाओं के समान चमकते थे । उसकी बलशाली भुजाएँ थीं जो गानो (सिंह जैसे) उस स्थान पर जंतु की काटकर लगाई हो । ऐसा इसकी सुन्दर रेखाओं का वर्णन कवियों ने किया है ।। ६५|| Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त जन्म लावण्यपूर्ण और मारित ( सुडौल ) वह बालिका थी और एक हलको पट्टि उसकी सत्रा में थो। कानों में स्वां के एक-एक कुण्डल थे । तथा नाक मानों सुए (तोते की जैसी थी । माठी माठित-मित । लोब चालक, बालिका । 1 89-5 I मुह मंडलु जोबइ ससि वयणु, दोह् च नावइ मियार्याणि । जहि के हो वप चाले फिररण, जणु रि कसरी होरा मरिण खिरण || भउह ममरण धणु खतिय घरी, दिपछ मिलाट तिलक कंचुरी । सिर मांग मोति भरि चलई, श्रवरु पीठ तलि बिली रुपई ।। अर्थ : चन्द्रमा के बदन के समान उसका मुख मण्डन शेखता था । वह मृगनयनी अपने दोनों को ने किये हुए थी। उसके शरीर से किसी न किसी प्रकार की फिल्मों (दीप्ति) निकलती रहती थी। उसके दाँत हीरामणि को कांति के समान थे । उसकी माँ ऐगी थी मानो कामदेव ने बतुप चढ़ा रखा हो। उसके ललाट का तिलक तथा हार (?) चमक रहे थे। सिर की मांग में मोतियों को भरकर वह चल रही थी और उसकी पीठ के नीचे तक वेणी हिल रही थी।" कंचुरी - कंकुली-हार | 3.9 . ६६ - १०० रर जडी कंचुली । I नाद विनोद कथा श्रागलो, पहिरी safe fra की फिरसी, जिसु तणु वाहह विठि पसारि काम वार तसु घालइ मारि । तिष्ठ कौ रूपु न वण्णइ जाइ देखि सरीर मणु प्रकुलाह ।। अवर तह पहिर ग्राभरण || १. मोग- मूलपाठ । २ मूलपाठ - पटि । ३ मुलगा चि.रणि । 1 -x Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिदत्त चरित अर्थ :- "वह संगीत विनोद एवं कला में बढ़ी चढ़ी थी तथा उसने रत्न जटिल कंचुकी पहिन को एक तोकेको फिर रल्हू कवि कहता है उसने ( ऊपर से ) श्राभूषण पहिन रखे थे ॥६॥ थी. ३५ जिसको भी वह एक बार दृष्टि फैला कर देखती थी उसे बहु काम के वाणों से मार डालती थी। उसके रूप-सौन्दर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता है; (क्योंकि) उसके शरीर को देखकर स्वयं कामदेव भी माकुल हो उठता था । [ १०१ - १०२ 1 J माल्हंती विलासगड चल दरसन देखि कुमुशिवर ढलइ । असी विमलम गुण भागली, धम्म बुधि सो भट्ट साभली ॥ हंस गमरण सा पदमणि भारिण, सरवर विठि सख सिह महाति । रूप देखि सुर विभव कर, नरसूर लोइ सयलु पटतरह १ IE अर्थ:-वह लोक एवं विलास गति से चलती थी और उसका दर्शन ( रूप ) देखकर कुमुनि पिघल जाते थे । इस प्रकार की वह गुणों में बड़ीची मिलती (नाम की थी जिसकी भली बुद्धि धर्म की ओर थी ।। १०१ ।। वह हंस की मी चाल चलने वाली मानों पद्मिनी थी और वह अपनी सखियों के साथ नहाते हुये सरोवर में दिखाई पड़ी। उसका रूप देखकर देवता भी विस्मय (आश्चर्य ) करते थे और समस्त लोग तरलोक एवं मुरलोक में (उपसे) तुलना करते थे ॥१०२॥ सुखबार बज्र पाट पटोले ' १०३-१०४ | भयउ पसाउ, दोयों लाल दाम कौ छाउ । आरण, विठ मंनु कि चित्तु परवारिष । दोने १. पटतरे मूलपाट । - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवत जन्म चिसकार तय सइयउ बुलाइ, पूत रुपु पडि लिखु निकुताइ । लिखतह कहिउ सरीरह ठवणु, भगाइ सेठि सई आई हे कवतु ॥ अर्थ :--उस सूत्रधार को सेठ ने प्रसाद (पारितोषिक) दिया, एवं एक लाख द्रश्य का उसने ठाउ (उपहार दिया, उसे उस ज्ञानी ने रेशमरे कपड़े दिये तथा अपने चित्त को प्रमाण (स्थिर) करके उसने (एक) दृढ़ विचार किया । उसी समय उसने चित्रकार को बुलाया (तथा कहा)—मेरे पुत्र के रूप का चित्र बिना किसी कुताही (कमी-फसर) के लिण्डो । जब (चित्रकार ने) कहा कि शरीर का उसने चित्र उतार लिया है, तब सेठ (अपने स्वजनों मे) कहने लगा “इसे कौन ले जावेगा।" दाम - ब्य, एक सोने का सिक्का । पाट - पट्ट-रेशम । पटोल - पट्टकूल-रेशमी वस्त्र । उप्रल - स्थापना-चित्र, प्रतिकृति । [ १०५-१०६ ] विप्पु एक कउ प्राइसु भयउ, सरे पर लड़ चंपापुरि गया । भेटिउ विमसमती सा वाल, देइ भासीस पर छोडि विलाल ॥ बिमलमती पडु बोठउ जाम, गप बिहलंघल सघर परि ताम । हार डोर जसु सोहि अंग, चंदन सिजि सई उमंग ।। अर्थ:-एक विप्र को प्राज्ञा हुई; वह पट (चित्र) लेकर चंपापुरी गया । उस बाला विमलमती से उसने भेंट की तथा पार्शीवाद देकर चित्रपट को खोल कर उसने दिखलाया । विमलमती ने जब चित्रपट देखा तो वह विह्वलाङ्ग होकर धरा पर गिर पड़ी । उसके शरीर में हार | माला सुशोभित हो रहे थे । उसे चंदन से सींच कर सचेत कराया गया । पड - पद-चित्रपट । बिहलंघन -विलाङ्ग-व्याकुल शरीर वाली। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त चरित [ १०७-१७ | कि यह बहा कि प णु, क य स क महमहणु । कि यह कब मयणु को खानि, किसु की कला मरीतइ प्राणि ॥ निसुनहि सेठि कहउ हउ विबरु, कहियद सो वसंतपुर नया । वसइ जीवधेत मुटय मंजुत, तिहि जिरणदत्त मनोहरु पूतु ।। अर्थ :--(जव सेठ ने यह चित्र देखा तो उसने कहा ) "क्या यह ब्रह्मा है अघवा यह विष्णु है ? अथवा शंकर है अथवा मसूदन कृष्ण है अथवा यह रूप एवं काम (लावण्य) की खान है ? यह किमकी कना है जिसे हे दूत | स ले पाया है ? ॥१०७।। उस अाहारा ने कहा, "हे सेठ सुनो मैं तुमसे विवरण के साथ कहता हूँ: उमे वसंतपुर नगर कहते हैं । उस नगर में जोवदेव सेठ सकुटुम्ब रहता है, उसका यह सुन्दर पुत्र जिनदत्त है।" ॥१८॥ तइ - तत्र, महमहरा - मधुमयन-विष्णु, उपेन्द्र । स्व - रूप। सदा-वहां, उस समय । चरी - चरीय-परक-चर, इस । इहा हो तज गयउ सुतधार, जाट कही विमलामति नारि । तवहि बुलाइ सेठि मनु' कीय, पट्टय वररण तुहारी धीय ।। रिणय परियण लव लइ हकारि, पूछ। सेठि मंतु पइसारि । परिपणु भगइ विमल अस कोज, विमलमति जिरणदत्तहि दोज ।। ग्रहो कुटंब तुम्ह नोकत किया, इसवर बोस हम विगसह हियउ । धीय रूखडी कहा सो कोल, सा पर अयस सजण घरि बीज ।। अर्थ :- [पुनः उसने कहा) "जब यहां से होकर मूत्रधार गया था, ५. मनू-मूलपाठ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह-वग उसमे मिमी नारी की बात ( बसंतपुर ) जाकर कहो यो । तब सेठ ने ( सेठानी को ) बुला कर मंत्रणा की कि तुम्हारी लड़की को धरण करने के लिये वे ( मुझे ) भेजें ॥१०६॥ ४१ यह परिजनों को ला लिया और उन्हें बिठाकर 'उसने मंत्र पुष्टी । परिजनों ने कहा "हे विमल, ऐसा ( ही ) करो: विमलमती को जिनदत्त को दे दो ॥ ११०॥ सेक ने कहा, "हे कुटुम्बियों, तुमने अच्छा किया, तुम्हारे इस श्रेष्ठ वचन से हमारा हृदय विकसित हो रहा है । दुहिता रूपवती हो तो क्या किया जाय ? हो न हो उसे प्रत्र किसी सज्जन के घर दे दिया जाए" ।। १११।। T ११२-११३ } विवाहहु भाइ । चद्र सेठि तुव देण्ण साह, नीको लगनु श्री रूप पुणु पट्ट लिहा, कापरु पहिरि विष्णु घर जाइ ॥ विप्पह जाइ मेटियज साहू. सेठि जोवदेड हसतिनच 1 तुमह काजु हम किये जु बहुत धन सुलखन तुहाराज तु ॥ अर्थ: तब सेठ ( प्रस्ताव स्वीकार करते हुये ) दैन्य स्वभाव से कहने लगा "अच्छी लगन में आकर व्याह करनी।" फिर ( उसको) लड़की का रूप एक पट्ट पर लिखा कर और कपड़े पहन कर वह ब्राह्मगा ( बायस) घर गया ।।११२॥ (घर) जाकर ब्राह्मण ने सेठ से भेंट की। सेठ जोवदेव उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ । ब्राह्मण ने कहा "मैंने तुम्हारा कार्य बहुत ( प्रकार से ) किया । तुम्हारा सुलक्षणा पुत्र धन्य है ।। ११३ ॥ देण दण दैत्य | Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त सरित विधात् वर्णन । १.१४-११५. सहि सेठि विठियउ तुरंतु, चिप्त अहिनादिन पूछइ संतु । पावत नाह न नागों बार, तिन्ह के खेमु कुसल परिवार । तिन्ह कल खेमु कुसलु सर्व काहु, अरु प्राय हमु रोपि विवाहु ॥ बाभगु भरपाई वेणि करि जोडि, अवम लिखतु किन देखह छोरि ।। प्रथं :-तब सेठ ने (उसे) शीघ्र देखा और मन में प्रसन्न होकर शांत भाव से पूछमे लगा, "तुम्हें आने जाने में कोई देर नहीं लगी। क्या उनके परिवार में कुशल क्षेम है" ? ।।११४॥ "उनके यहाँ सब किसी को कुशल क्षेम है और में विवाह निश्चित कर पाया हूँ।" यह कह कर ब्राह्मण ने दोनों हाथ जोड़े और कहने लगा "इसके अतिरिक्त (जो कुछ उधर का रामाचार है वह) इस लेख को खोल कर क्यों नहीं देखते हो : ।।११।। [ ११६-११७ । सउ जिरणवत्तह तय हकारि, पूछ सेठि पास वइसारि । निसुण पूत हउ अक्सउ तोहि, इकुणिक लेख वाचि किन मोहि ।। भगति गुहार कुंटव कुसलात, परम लिखी लगुरण की बात । प्रति क्वडी नयरण सुतार, दौठी सिखी विमलमति नारि ॥ अर्थ :-फिर उसने जिमदत्त को बुलाया तथा (पासमें) बिरला कर बह बात पूछने लगा पुत्र ! सुनों मैं तुमसे एक बात कहता हूँ, निपिचत रूप से इस लेख को पढ़ कर मुझे क्यों न मुना दो" ।। ११६।। ( पूत्र ने पढ़ कर कहा, ) पत्र में भक्ति, जुहारु पीर (अपने) कूटम्ब की कुशल-क्षेम लिखी है तथा उममें लग्न (विवाह) की बात भी लियो Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह वर्णन हुई है। (इसके अनन्तर) उसने प्रस्यधिक रूपवती तथा मुन्दर तारिकानों के मैत्रवाली विमलमती नारी को (पट्ट पर) लिखा (चित्रांकित) देखा १११७।। 1 ११८-११६ ] पुण जइ देखइ नारि गुजंग, काम वारण धाय सव्वंग ॥ अतुल महावल सम्हर धोर, गउ मिहलंघस सामु सरीर ।। भरणा सेठि हमु हुहहइ सोगु, करहु विवाह हंस जिण लोमु । जे र विजाहरि सहि रासि, प्रवास करम तोहि परि पासि ।। अर्थ:-जब उसने गुण सम्पन्ना उम स्त्रो (विमलमती) को देखा तो उमके सर्वांग को काम बागर ने बेच दिया । वह असुल महा बसवान एवं धीर साहूकार था किन्तु (उप नारी के चित्र को देखने ही) पह सरीर से विह्वलाङ्ग हो गया। सेठ ने कहा रहे पुत्र, तुम्हारी इस दशा से) हमें तो दुःख होगा। तुम विवाह करो, जिससे लोग हंसी नहीं करें। यदि यह विद्याधरी तथा रूप की रापिप है तो भी उसे अवश्य ही तेरे घर की दाम्रो बनाऊग" ।।११६॥ साहर । साहार । साधृकार / साहूकार-महाजन । [ १२०-१२१ । सहि सेलि धरि उछर कियउ, साहु परियल न्योते पाइयो । पंच समय बाजेषि तुरंतु, बहु परिवरा पाले सु वरातु' । एकत्ति जाहि सुखासरण बढे, एकतु वाखर भोडे पुरे। मनु साजित सिगरी घरी, एकाणु साजि पसारणी बरी।। अर्थ :-तव सेठ ने अपने घर में उत्सब किया । (जममें) समी परिजनों १. बरात - मूलपाछ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिदत्त चरित ने निमन्त्रण पाकर भाग लिया। शीघ्र ही पांच प्रकार के बाजे बजने लगे तथा बहुत से परिजन बारात में चले ||१२०॥ ૪૪ कोई बराती सुखासरण (पालकी) पर चढ़े जा रहे थे तथा कोई चोटों पर काठी रख करके चले । कोई शीघ्र जाने वाले वाहनों पर चले और किसी ने ऊँटों पर पलाणा सजाया । परियगु - परिजन । उछउ उत्सव | की पालकी । सुख स एक प्रकार [ १२९ - १२३ } एकति डाडी डोला जाहि एकति हस्त as विगसाहि ॥ एकति बाहि विवाणु वइठ, सबु मिलि पावुरिहि पइठ ॥ चंपापुर कोलाहलु भयो, आगइ होनि far मिलिज लोग भउ हस्त कल्लोलु, उपर परते बेहि आइयो । तो ॥ - अर्थ :- कोई डॉडी के डोले में चल पड़े। कोई हाथी पर चढ़े हुए प्रसन्न हो रहे थे । कोई विमानों में बंट कर जा रहे थे और के इस प्रकार I सब मिलकर चम्पापुरी की ओर चले ।। १२२ ।। चंपापुरी में कोलाहल मच गया । विमल सेठ अगवानी के लिये आगे श्रया । लोग जब आपस में मिले तो शोरगुल एवं प्रसन्नता छा गयी और वे एक-दूसरे को तांबूल देने लगे ।। १२३ ।। डोला - बोल । तबोल हल्ला हल्ला । -T ताम्बूल-पान: [ १२४-१२५ ] भर विमलु तुम्हि सो करहु, कुमरु वराल सबु जेवर चल | उठ मुहुङ जेबहु जिवणार, पुनि तो होड़ लगुण की जाए || Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह वर्णन चउरी रत्रीय हरिए वास, अरु तह थापे पुष्ण कलास । गावहि गीतु नाइका सउकु, चउरी पूरित मोतो अउकु ॥ अर्थ :-विमल सेठ (परिजनों से) कहने लगा, आप ऐसा करें कुमार एब बरात (को लेकर) सब जीमने चलें । हे सुभटो, उठो और जीमणावार जीमो क्योंकि फिर लग्न का समय हो जावेगा ॥१२॥ हरे बांस को चंवरी (वैदिका) बनायी गयी और वहां पुष्प कलश स्थापित किए गाए । स्त्रियाँ उत्साहपूर्वक गोत गाने लगी तथा उन्होंने स्वरी वे. वीच मोतियों का चौक पूरा ।।१२५ ॥ जेवण - जीमन । सुहड - सुभट । लसुण - लग्न । पुणण – पुण्य. पवित्र । नाहका - नायिका-स्त्रियाँ । राउका - सउत्क - उत्साहपूर्वक । भयो विवाह विमल कसु किग्ण, प्रगनिज दाम' दाइजो विष्ण । समयो विमलमती विलखाइ, लह विवाह वसंतपुर जाई ।। घरह आइ ते कहा कराइ, चढिवि प्रवास भोग विलसाइ । राज करत दिनु केतकु गयो, एतहि अवरु कथंतर भयो । अर्थ :--विवाह सम्पन्न हुआ तथा विमल सेठ ने दहेज में प्रगगित अन्य दिया । उसने कुमारी विमलमती को बिलखते हुए विदा किया अथवा समयी (याही) विलावती हुई विमलमनी को लेकर विवाह के पश्चात् बसन्तपुर के लिए रवाना हो गये ।। १२६।। घर जाकर उन दोनों ने क्या किया। वे अपने महल में रह कर भोग भोगने लगे। इस प्रकार राज्य करते हुए (मानन्दपूर्वक जीवन व्यतीन करते हुए) कितने ही दिन व्यतीत हो गये। इसके पश्चात् कथा का प्रवाह दूसरी ओर मुड़ा। १. मूलपाठ - दारा । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ कसु कीदृश 1 मम - वि करना । - जिरगदत्त चरित दास (दाम) - लभ्य-सोने का सिक्का सेवक | [ १२८ - १२६ सुवासरण जात बिहार भई भेट पटह जुवार । सहि खेलु ॥ श्राइ कुमारी बोलियो बोलु, ग्रहो जिन्दवस इकु सरह, सुनौ बाउ जुवारिज धरछ । णं णं कार करत पवरण मनावी पूर } हुवा थापा कु भासहि तिया ॥ ' धर्य :- एक दिन पालकी में बैठ कर चैत्यालय को जाते हुए जुवारियों एवं दुराचारियों से जिनदस की) भेंट हो गयी। उन्होंने ( जिनदत्त को देखकर ) कुमारी श्रा रही है, इस प्रकार बचन कहे और फिर कहा "ग्रहो जिनदत्त ( आओ ) हम एक खेल खेलें ।। १२५ ।। मना करते रहने पर भी वह वहां बैठ गया । और तब जुम्बारियों ने एक सूना दाव लगाया। (पासा) बेलने पर उनकी इच्छा पूरी हुई तथा व अपने-अपने को लीन अंकों वाला कहने लगे ।। १२६ ।। तिया - पांसे की वह दलान जिसमें प्राप्त अंक ३ के हों। द्यूतक्रीडा १३० - १३६ | | स्त भई जिदतहि हारि, जूबारि जीति परचारि । भाइ रेल्हमु नाहीं खोटि हारि व हारि घरि वा जारिए, बारीहरु हम विणु दीने ज घर जाहू तो तुम्ह जोबधेच एगारह कोडि || अर्थ:-खेलते-खेलते जिनदत्त की हार होती गयी और ( अन्त में ) दीनी आरण | वध कर || Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यूतक्रीडा-वर्णन कारियों ने ललकार कर उससे दाव जीत लिया। रल्हू कवि कहता है कि जुवारियों ने कहा कि हमारा इसमें कोई दोष नहीं है" और इस प्रकार जिनदत्त ग्यारह करोड़ द्रव्य वहाँ हार गया ।। १३०।। J हारने के पश्चात् जब जिनदत्त ने घर जाना चाहा तो जुवारियों ने उसे सौग दिला दी और कहा कि यदि हमें बिना दिये घर जायोगे तो तुम जीवदेव का वध करोगे ।।१३१।। पच्चारि प्रचारय्-ललकारना । मूलपाठ कर [ १३२-१३३ } सो जिरगवत भगोटि तहां परवड जर कारवि तेरा कही यह बात बेह पश्शरय भंडारिज कोपिज भरोषा हारे चेइ सेठि सरु देख मांगि, मह भंडारहं ४७ भारी पहां । जाहू तुरंत ॥ को ब वेह | विलाइवी धागि | अर्थ :- उसके पश्चात् जिनदत्त तो वहीं रुक गया और उसने एक आदमी अपने भंडारी के पास भेजा। उसने वहां जाकर सारी बात कही और कहा कि शीघ्र ही बहुमूल्य रत्नादि दो जिससे वह जावे ।। १३२ । भंडारी क्रांति होकर कहने लगा कि जुए में हारने वाले को कौन धन देता है ? यदि सेठ देवे तो उससे मांग करके देखलो। मैं (तो) भण्डार को प्रति में नष्ट नहीं होने दूँगा ।। १३३ ।। । १३४ - १३५ । उपासु । जणू उठि गयउ विमति पास, जिदत्त यह पड सुरण बात नियम प्राकुलो, माफी रमा जति काचली ॥ मालिक रतन पदारथ जडी, विचि विचि होरा सोने घडी । टए पासि मुसाहल जोडि, लह हह मोलि सु ाव धन कोडि । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरगवत्त चरित अर्थ वह व्यक्ति फिर विमलमती के पास उठ कर चला गया और कहा कि "जिनदत्त को उपास करना पड़ गया है ।" यह बात सुन कर वह अपने मन में व्याकुल हुई तथा उसने अपनी रत्न जड़ित कंचुकी उसे दे दी ।। १३४ || ४८ वह कंचुकी माणिक्य एवं रत्नों ग्रादि बीच-बीच में हीरे एवं सोने से घड़ी हुई थी। हुए श्री । तथा वह नौ कोटि द्रव्य में [ १३६ - १३७ तहां, छह जिरगवत्त जणु लइ गयउ काबुली हारिवि दम्ब काचुली आापि, तुणु घर जाइवि पडिउ संतापु भयइ विलखाद, बापु विनंती कुपुरिषु जाह । मो समु अउर कुपूत न भयो, तात अर्थ मह ह ण लयो || वह व्यक्ति कंचुकी लेकर उसी स्थान पर गया जहाँ पर जिनदत्त रुका हुआ था। जिनदत्त हारे हुये द्रव्य ( के रूप ) में कंचुकी अर्पित कर घर चला गया और फिर वहाँ संताप करने लगा ॥ १३६॥ वह दुखित होकर विलाप करने लगा और कहने लगा कि fear की कमाई ( इस प्रकार ) कु पुरुष ही खाता है। मेरे समान दूसरा कौन कुपुत्र होगा जिसने पिता के भ्रम को इस तरह हारने के लिये लिया हो ॥ १३७॥ आपू -- प्रपित करना | वा पिता । अघोटिज अगोटना रोकना, विना । -- • कमाई हुई पूँजी | पदार्थों से जड़ी हुई थी तथा इसमें पास-पास में मोती जड़े लगी १९३६ ॥ - बीर और जे विढह अर्थ जिला विनंती I घोटिङ जहां | पडिउ संता || " १३८ - १३६ 1 पुरिस गहीर, विवहि अर्थ जाहि पर तौर । भुवेवा करहि ते पुरिस किन जाम ति महि ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTA उद्दिमु करहि जे साहसु करहि, घोरे होर दिसंतर फिरइ । विढइ लछि जे पुरवहि प्रास, जाए गुरिष यहि स मास ॥ अर्थ :-जो पुरुष धीर, वीर एवं गम्भीर होते हैं वे परदेश जाकर घन कमाते हैं । जो धन कमा करके उसकी वृद्धि नहीं करते हैं वे पुरुष क्यों नहीं जन्म ग्रहण करते ही मर जाते है ।।१३।। जो साहस करके पुरुषार्थ करते हैं तथा धीरतापूर्वक देशान्तरों में फिरते हैं, तथा जो लक्ष्मी कमा कर पाशा पूर्ण करते हैं ऐसे ही लोगों को दस मास सक माता के गर्भ में रह कर उत्पन्न होना उचित मानना राहिए ॥१३६॥ [ १४०-१४१ ] ला विवाह न विसंतर फिरइ, दान परम उपगार नु करहि । विहिं न किसहि पातको लोण, बइठे राखहि घर के कप' ॥ णासत घर बैठे सु खियाहि, पारिणऊ पिवहि वार चज खाहि । प्रांस पराई करद जू मुयउ, सोभित न पूतु गरभ ही सुपर अर्थ:--जो न धन कमाते हैं और न किमी देशान्तर में जाते हैं तथा न दान, घर्म एवं परोपकार करते हैं। ऐसे पापी किसी को नमक भी नहीं देते हैं, और वे केवल घर के कोने में बैठ कर रखवाली करने हैं ॥१४०।। बैठे बैठे घर को नष्ट करते हैं और भय को प्राप्त होते हैं । उनका कायं केवल पानी पीना तथा चार २ बार खाते रहना है । जो दूसरों को पाशा करते हैं वे मरे हुगे हैं । ऐसा पुत्र (मी) शोभित नहीं होता, यह परी मानों गर्भ में ही मर गया हो ।।१४१।। दिमतर - देशान्तर । उपगार - जपकार । लोणु - लवण, नमक । मार च3 - चार वार ! Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० } एते लएि जइ भ्रायो पूर्व, संघ (इ) प्रत सुपत्तह् बीज, करण पूरा तुम्ह पडिउ जूबा हारि होरिए न हु तिन्ह कहु पूत सइ जणु जुबा हारिषि खोयहि दबू, वs खबंदि लछि पाइप, सा किमु पूतु अहि लायइइ जइ यदा E L होणि - चिन्ता जिरगवत चरित अर्थ : उसी क्षण जब उसका पिता प्राथा, तो उसने कहा "हे पुत्र, तुम कौन से दुख में पड़े हो ? संपत्ति को सुपात्र को देना चाहिए किन्तु प्रब जुए में हार कर चिन्ता न करनी चाहिए ॥१४२॥ - जुए में हार कर जो द्रव्य खोता है। हे पुत्र ! उस पर सभी जन हँसते हैं। बड़ी कठिनाई से लक्ष्मी पाई जाती है उसे हे पुत्र ! किरा प्रकार कुमार्ग में लगाया जाय ? ।। १४३ ।। जब 1 *४९- पूञ वितृ -पिता । अपह - - बंदि कठिनता । संतानु । कोन ॥ सब्बु । m सुपत - सुपात्र । अपथ - कुमागे | [ १४४ - १४५ ] दोजइ होरा दोष कहु पूत, धम्मु काजि बेचियह बहूत । बाल कह बोज, अउर बछ संपय क फीज ॥ केंद्र हम समझा जिवायों जाम, देखि रहह तिस कवि उपाउ, निगवत्त भयो परहस ताम । घर छाया को करें उपार ॥ अर्थ :- हे पुत्र ! हीनों (अपंगों ) एवं दीनों को देना चाहिए और धर्म कार्य के लिए बहुत कुछ (यदि आवश्यक हो तो) बेच भी डालना चाहिए । तथा ( चाहे उसे ) किसी बालक को दे दिया जाये किन्तु हे वत्स ! संपत्ति का और क्या किया जात्रे " || १४४ ।। इस प्रकार अपने पुत्र को समझा कर जब उसने उसे जिमाया उस Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुत क्रोडा-वर्णन समय जिनदत्त प्रसन्न हो गया। (किन्तु) रलह कवि कहता है वह अवसर देख कर घर छोड़ने का कोई उपाय करने लगा ।।१४५।। [ १४६-१४७ । झूठउ लेखि सुसर कहु लिलई, फुणि जुलाइ जण एकह कहा । कहिउ सेठिस्यों जाईयि तेरण, हो गिरणवतह प्रायउ लेण ।। तउ जिणवत्तह ले हकारि, पूछइ मंतु सेठि वइसारि 1 जइयह पूत तत इस कोज, नातरु घर पठइ जण बीज ॥ प्रय :-(तदनन्तर उसने) अपने श्वसुर का एक झूठी लेख (पत्र) लिखा और एक व्यक्ति को बुला कर कहा, "सेट के पास जा कर यह कहो कि मैं जिग्णदत्त को लेने पाया है ।।१४६।। फिर मेठ ने जिनदत्त को बुलाया और अपने पास बैठा कर मंत्रणा की और पूछा "यदि पुत्र, जाना है तो ऐसा करो, नहीं तो इस व्यक्ति को घर भिजवा दो" ॥१४॥ | १४-१४६ । तौ जिरणवत्त भएइ कर जोडि, हम कहु तात देहु जिण खोडि । मापु मत हरें कैसे चलो, जो तुम पिता कहहु सो करौ ॥ पिता मतह जिरणवत्त दलाइ, संबत बहुलकु देइ प्रधाइ । बिमलामती चलो तिह ठाइ, सासु सुसरु का लागा पाई॥ अर्थ :-तत्र जिनदत्त हाथ जोड़ कर बोला "पिलाजी हमें कुछ दोष न को । मैं अपने मतानुमार कैसे चल गा ? जो पाप हे पिता कहेंगे मैं वही काँगा" ||१४८।। पिता से प्राज्ञा लेकर जिनदत्त चला गया उसके साथ मार्ग के लिये बहुत Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जिरणवस चरित सा सामान बांध दिया गया। विमलामती भी सास श्वसुर के पांव लग कर उसी स्थान को चली ॥१४६॥ I १५० - १५१ ] न पंचदश गोहिरिए चले, बेगि मक्झि चंपारि मिले। res विमल तुम्ह नोकर कियड, प्राणि भिटाइय म्हारिय धीयउ || दिन दोड चारि तिहा ठा रहइ, पुणु उषाउ चलिये को करइ । सो जिदत्त, विमलमल कंतु, नंदरणवणु चल्लिद विषसंतु ।। अर्थ :- ( जिनदत्त के ) साथ में पन्द्रह ग्रादमी और चले और शीघ्र ही चंपापुर लाकर उन्होंने पड़ाव किया। विमल सेठ ने उससे कहा "तुमने अच्छा किया जो यहां लाकर मेरी लड़की से भेंट करादी" ।। १५० ।। दो चार दिन तो वहां वह ठहरा लेकिन फिर चलने का उपाय करने लगा | वह विमलमती का पति जिनदल विकसित होता हुआ नदनवन को चला ।११५११६ गोहिरिण - साथी । १. धोयो-मूल पाठ [ उबाज 1 उपाय १५२ - १५३ ] देखि वासुपूज्ज को भवणु, पंचमि साहि कराया हवणु । भयो परछतु न देख कोइ ॥ जणु मुलु सई तं जोइ, पुरिए असीस देइ सोधरणी, फूलह माझि होंति सिरह असीस भाभड़ी जाम, विमलामती । देख तम ॥ अर्थ :- ( उस नंदनवन में] वासुपूज्य स्वामी का मन्दिर देख कर जिनदत्त ने पंचामृत अभिषेक कराया। उसने अंजनी मूल (एक प्रकार की Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषेश गमन जड़ी) को देखकर निया-(उसकी सहायता से) वह प्रछन्न हो जाता और उसे कोई न देख पाता था ।। १५२।। फिर उसने (समी को) खूब प्राशीर्वाद दिया तथा वह फूलों के मध्य होने वाली पराग (रुप) हो गया । जब (विमलमतो) के शिर पर (हाथ रख फर) उसने प्राशीप दी, तो विमलमती भी उसे नहीं देख सकी ।।१५३।। पंचमि - पंचामृत वस्तु बंध । १५४ ] पुर्णवि सिर रूधित्त अंजणोया । झति परहण भयउ, सिग्ध अवि पी पदहित । ता रजियउ विमुलमई, जा न कंतु निय नयणु दिठियऊ ।। छडि इकल्ली जिणभुवणि, गउ पड कारिणि कवन । पिय बिऊय हुय रल्ह कद, रोबइ हसागमणि ॥ अर्थ :-जिनदत्त ने फिर सिर पर अंजनी रख ली जिससे यह झट प्रछन्न हो गया और शीघ्र हो दशपुर पहुँच गया । जब उसने अपने स्वामी को अपनी आंखों से न देखा तब विमलमती (रोने) लगी । "मुझे जिन मंदिर में अकेली छोड़ कर मेरा स्वामी किस कारण से चला गय" रल्ह कवि कहता है कि पति से विमुक्ता होकर वह हंसगामिनी रोने लगी। जत्ति – झाति, झट, शीषु । सिधु - शीघ । विजय - विमुक्त । प्रनाराव [ १५५-१५६ ] संसागवणी वंदावइणी, करइ पलाय। मोहो माग देखत पेखत, कत गपउ नाह ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त चरित पाव धूपद हियडा कोपह, मणुन 'रडई । हा हा दइया काहोभइया, पिउ पिउ पिउ कराइ । भायउ मरण नाही सरण, साइ कहा कराऊ । फंठारोहण वालि हासणु, झंपा देह।मराऊ ।। काठन कीयउ कसे जीबऊ, पिय विषु तेहि । हाइ बाइ गुसद सहि, छाडि कति गयज कंत मोहि ।। अर्थ :-वह हमगामिनी और चन्द्रवदनी (विमलमसी) प्रलाप करने लगी । "मेरे आगे से देखते देखते, हे नाध, आप कहाँ चले गये ।" वह दौष्ट धूप करती है । उसका हृदय कुपित हो रहा है तथा मन रुदन कर रहा है । हा हा देष, क्या हो गया ? (इस प्रकार रटते हुय) वह पिउ, पिउ करने अगी ।। १५५।। " (अब) मेरी मृत्यु आ गयी है, किसी का शरण नहीं है, अब क्या उपाय करू ? कंठ अवरुद्ध हो रहा है, क्या अग्नि जला कर और उसमें कूद कर मरजाऊँ ? तुमने कष्ट दिया है है पति ! तुम्हारे बिना कैसे जीऊ ? हाय मरे. स्वामी कहां छोड़ कर चले गये ॥१५६॥ काठ - कट्ठ - कष्ट । माह – साति -- उपाय । [ १५७ । धारिसि जोवइ धाहहि रोवर, कहा किया करतार । वेसि घडतो पवित्यरंती, गउ सामी अंतराल । भई स दुखी काला मुखो, सासू सुसरे माइ । जिणदत्त गुसाईऊ प्रप्पाणउ, सायउ चल्ली इवहि गवाइ ।। ससु को कंतू सो जिणवंतू, लिसको सुनहु विचार । एकल्लज गयउ सो मु, भयउ पसपुर वारि ॥ अर्थ :-चारों दिशाओं में यह देखती है प्रथा चार मार बार रोती है, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेश गमन परमात्मा, तूने यह क्या किया ? चढ़ती लता को गिराकर स्वामी अंतराल (बीच) में ही चले गये । अत्यधिक दुखित हुई तथा सास श्वसुर एवं माता (के सामने) यह मलिन मुख वाली हो गई। जिनदत्त गुसांई को जो अपने स्वामी थे, उन्हें मैं इस प्रकार गवां बनी । अब उसका स्वामी जो जिनदत थे उसके बारे में सुनिये । वह जो अकेला गया था वह दशपुर के द्वार पर जा पहुंचा ।।१५७।। चौपई [ १५८-१६० ] विमलमति जिणहरु मिर महल, पिय त्याच लोकांश सहा । इंदिय एमइ सोलु पालेइ, गमोथार णिय चित्त गुपो।। जीवदेन नंदनु नियकंतु, निगवरु दह परिहार संबु । जुवा खेले परिहमु भयो, मिमि संघात... इसपुर गयो ।। बसपुर पाटण कर परसार, वाडी देखतु भई बसवार । वृष प्रसोक कंज दि गऊ जहा, खणु इकु नोव विर्तव्यो तहा ।। अर्थ :-विमलमती निश्चित रूप से जिन मन्दिर में रहने लगी। पति के वियोग में बह कष्ट सहन करने लगी। इन्द्रियों का दमन और शीलयत का पालन करने लगी तथा सदैव सामोकार मंत्र का चित्त में स्मरण करने लगी ।।१५८॥ जोवदेव का पुत्र मेरा पति है । मन्दिर की वंदना करते समय मुझे छोड़ कर चला गया है । जुवा खेलने से (उसका) जो परिहास हा उसी चोट के कारण बह दशपुर चला गया है ।।१५६॥ [उधर जिनदत' को] दशपुर नगर के प्रवेश द्वार पर उसके बगीचे देखते २ बड़ा समय हो गया । वह अशोक वृक्ष की मोट में गया, वहाँ उसने एक क्षण (थोड़ी देर) नींद में विश्राम किया ॥१६०।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जिरणवत्त चरित [ १६१-१६३ ] चहिउ सुखासणु मायरदत्त , पायउ अहि सोइ जिणवत्त । भण ए (कइ) पूधियज उठाइ, महो वीर तू सोहि काई ।। णिपमणि पोर राइ पयपाइ, तो जिणवत्त, भणा विहसाः । ह तहु अलउ निठाले वण, तुम्ह तौ पाए कारण कारण ॥ अर्थ :--(इतने में ही) सुखासन (पालकी) पर बैठ कर वहाँ सागरदत्त प्राया, जहाँ वह जिनदत्त सो रहा था । (उसके) एक जन (सेवक) ने उसको जठा कर पूछा "हे कीर ! बयों को रहा है ।१६।। अपने मन में वीर का राज पद प्राप्त करके वह जिनदत्त हंस करके ओला "मैं तो निठल्ली स्थिति का है; तुम यहां फिस कारण प्रावे हो ?" ||१६२।। । १६३-१६४ ] हाथि जोडि तो नाइकु भणइ, हूं प्रायो वाडी घेखणाई । तउ जिणवत्त भणद वियसाद, पुर की वाडी दोसइकाइ । कारण स कौन केम गह गही, मुणिउ न सूफि जेमु यहरही । धनु परिमणु मो घरह बहुतु, पर पंथो घर नाही पूतु ।। प्रयं :हाथ जोड़ कर तब नायक (सागरदत्त ने कहा "मैं बाड़ी (बगीचा) देखने के लिये माया हूँ ।" जिन इत्त तब विकसित हो (सकर) कर कहने लगा "तुम्हें पुर की याड़ी में क्या दिख रहा है " ।।१६३।। कौन (स्या ) कारगा है ? किस प्रकार यह मानाद है ? यह सूत्रो वाडी कसे ही हो गई यह मैं नहीं जान पापा । मेरे घर में धन और परिजन ना बढ्त हैं-किस्तु हे पश्रिवः । पुष नहीं है ।।१६।। वियस - विकस् – विकास करना । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्यान-वर्णन । १६५-१६६ । लउ जिणदत्त बात हसि कहा, हमार ... कोपरा : तोहि निपुस्सकु अंपड़ लोगु, ताहि अमरउ रहिउ करि सोगु ।। भणइ बोस जई कहिउ करेहि. बाडी सपल भगति जा देहि । फूलहि अंध नौब कचनार, सहले करि प्राफउ सइहार ।। अर्थ :-फिर जिनदत्त हंस करके बात करने लगा, मैं तो मूखी (बाड़ी) ही जानता हूँ । लोग तुम्हें नपुसक कहते हैं और इसीलिये यह मान वाटिका शोक कर रही है ।।१६।। पुनः उस यीर ( जिनदत्त) ने कहा "यदि आप मेरा कहना करें तो संपूर्ण बाड़ी मुक्ति (भोजन फल) देने लगे; प्राम, नींबू, कचनार के पेड़ों पर फूल प्रा जावे तथा मैं सहकार को सफल (फलयुक्त) करके प्रपित्त करू" ||१६६।। अमरउ (अमराउ) - ग्राम्रराजि - आम्र वाटिका उद्यान-वर्णन 1 १६७-१६८ । जाद तू चादी करहि सुवास, सौ जिरणबत्त हूं तेरउ दास । करहि संत जड अस्वद तोहि, निहलै राजु करहि घरि मोहि ॥ जो राडी हुई थी मइल, अठविह पूज रई हि सषस । पुण्य विहे जे उक्टे गए, जिण गंधोवइ सिंचरण लिए । अर्थ :-मोट ने कहा "यदि तू वाडी को सुवासित कर दे तो हे जिनदत्त ! मैं तेरा दास हो जाऊ । यदि तुझे, (कुछ) माता हो, तो (मेरा यह प्रनिष्ट) गान कर और मेरे घर में तू निश्चय राज्य कर ॥१६७॥ जो चाड़ी मलिन हो गयी थी वहां अब सच ने अष्ट प्रकार से पूजा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरायत्त चरित की । पुष्प के जो विटप (वृक्ष) पहिले उकऊ (सुख) गये थे, उनका जिन भगवान के गंधोदक से वह सिंचन करने लगा ।। १६८ ।। ५८ { १६६ -१७ ! थक्किउ सोगु, अन पर परितहि दोन भो । भयो रूबल 1 P जो प्रसोक करि मो छ कसिर रहिउ केवल सिंचित वीर ने नालियर कोपु करि ठिए सिन्हई हार पढोले किए । जे छे सूफि रहे सहकार, सिम्ह अंकबाल दिवाए चाल ।। अर्थ :- जो प्रशोक वृक्ष पहिले शोक कर (से) थक रहा था, उस पर (गंधोदक) पड़ते ही भोग में रखने योग्य हो गया। जो केवडे का पौधा पहिले कृश हो रहा था, और से सिंचित होने के पश्चात् वह सुंदर हो गया | १६६६ || जो नारियल को किए हुए खड़े थे ? उन्हें अब हरे एवं मजबूत कर दिये । जो आम पहिले सूम रहे थे उन्होंने अंक पानी में अब मंजरिया दी || १७० || कसिर • कसिट - कृष्ट | - अंकवाल – कपाली । - [ १०१-१०२ ] नारिंग जंबु बुहारी दाख, पिम्खमूर फोफिली प्रसंख | जातीफल इमायो लवंग, कररणा भरणा कोए नवरंग ॥ कायु कपित्थ वेर पीपली, हरड बहेड खिरी आबिली । सिरीखंड अगर गलवी धूप, खरहि नारि तहि ठाइ सरूप || अर्थ : नारंगी, जामुन, छुहारा, दाख, पिंडखजूर, असं पूगफली (सुपारी), जायफल, इलायची, लोंग करणा तथा मरणा के वृक्षों ने नया दंग कर लिया ।। १७१ ॥ · यहाँ जो करथा, कैथफल, बेर, पीपल, हरड बहेडा, खिरणी, इमली, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्यान - बग श्रीखंड, अगर और गलीदी धूप के वृक्ष थे, वे सुन्दर नर-नारी के समान ही वहां खड़े थे | || १७२॥ | १७३ - १७४ [ जाई जूहि वेल सेवती, दचरणौ चंप शपज मचकुंद, कूजज वालव मेवालज मंदार, सिकुवार पाउस कपाल धरगहू, सरवर कमल बहुत हुआ । मरुवड मर बलसिरो - सुरही मालती । जाज || मंदार Yê : धर्म-जाति, पूथिका, वेला, सेवती, वरणा मरुमा तथा मालतो, चंपा, रायचंदर, मुचकुंद, कुब्जक मोलसिरी तथा जपापुष्न ।।१७३ ।। बाला, निवारिका, मंदार, सिंदुवार, सुरभित मंदार, पाडल, कठपॉइल, गुडहल तथा तालाब में (खिले हुए) कमलों में (भ्रमरादि का) बहुतेरा हल्ला ( शब्द ) होने लगा ।।१७४॥ बलसिरी - बकुलश्री मोलसिरी । मुरही - एक प्रकार कीघास । १०५-१३६ 1 अंबराउ फल लोयड प्रसशत्रु कोइल शब्द कियो वालु । जयति सहि कहा कराड, परइ लागि पुगे घरि लइ जाइ ॥ उदहिद घरि गज जिरणतु, धर्म करिव्यं तुरंतु तिस हिस सुल अखंड सरीर, जो इह वणिज जाग पर तोर | अर्थ :- ( अ ) अमराष ( मात्र वाटिका ) ने निरंतर ( सघन रूप से ) फल धारण किए, कोयलों ने जोरशोर का शब्द किया। तब सागरदत्त ने यात्रिया कि पैरों पड़ कर वह उसे घर ले गया ।।१७५ ।। जब जिनदत्त सागरदत्त के घर गया तो सागरदत्त ने उसे स्काल Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जिगवत चरित धर्मं पुत्र कह के मान्यता दे दी। उसके शरीर सुख के लिये पूर्ण व्यवस्था कर दी ताकि वह समुद्र पार व्यापार के लिये न [ जावे | ।। १७६ || प्रसरालु - निरंतर । अंवराउ - राजि । आलु - जोर शोर का वालु - इन्द्र + १७७-१७८ एतहि खरिण अणिवर सामहहि, ता जिरगदक्ष हिराज गहगह । हाथ जोडि पुणे पूछह बात हमहू वरिगन पठाबहु तात ॥ वहिदत्त बोल सुह पेखि, पूल वियोग रग सकउ देखि | हमि तुम्हि एकहि जदयो पूत, जिम लइ आहि रथ बहुत ।। अर्थ :- इतने ही में कुछ बड़े व्यापारी यहाँ सम्मुख आए, जिससे जिनदल को हृदय गद्गद् हो गया। हाथ जोड़ कर सागरदत्त से उसने निवेदन किया, कि "हे बात हमें भी व्यापार करने भेजो " ॥ १७ सागरबत्त उसका मुख देख कर बोला, "मैं पुत्र का वियोग नहीं देख सकूंगा । हे पुत्र, हम और तुम एक ही ( साथ) जाएंगे, जिससे हम बहुतेरे रत्न लाएँगे" || १७८॥ पेस् - प्र + ईक्षु - देखना । व्यापार के लिये प्रस्थान i १७६- १८० } वहिदत्त घाल जिदत्त, अनु-अनु वा सद्द सुकीठ वस्तु सह भरी जा पर तीर चारुदत्त गुणवत्त सुबत्त सोमदत्त घरण सिरिगण हरिगणु श्रासादितोथे हया सेठ की पुतु ॥३ दत्त । सयो बहूत | महंघी खरी ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापार के लिये प्रस्थान अर्थ :- सागरदत्त और जिनदत्त चने तथा अपने साथ उन्होंने बाखरों बहुत सा अन्य अन्य ( विविश्व प्रकार का ) सामान लिया। उन्होंने उन सब वस्तुओं को मरा जो कठिनाई से तैयार होती थी और विदेशों में बहुत में मँहगी थी ।।१७।। ( सागरदत्त के साथ) चारुदत्त, गुणदत्त सुदत्त, घनदत्त, श्रीगुण, हरिगुण, ऋणादित्त ड़ी था । १५०|| सोमदत्त, भ्रना, तथा हपा सेठ का पुत्र मीठ - क्लिपट - क्लेण युक्त कंप्ट पूर्वक तैयार की हुई । ६१ T १८१ - १८२ I सुठ सुठु सुरुपाल ।। प्रजउ विजउ रजउ चलहि, श्रासे वासे सोम तहि मिलहि । बलिउ साहु तेजू दिवपालु, मरु पुन drea stea हरिचंद पूतु ते वावर भरि चले बहूत । सोल्हे वी गुणहि ग काहु, चलहि विज्जाहर असे साहु चले और आशा, वासा तथा सोम · श्रयं: अजय, विजय तथा रजय ( नाम के व्यापारी उनमें मिल गये । तेजू साह तथा देवपाल चले तथा महरूका सुन्दर पुत्र सुठु तथा श्रीपाल भी उनके साथ हो गये ।। १८१॥ हरिचंद के पुत्र तीकड तथा बीक ( वे भी अपना सामान) बाखरों में भर कर चले। सील्ह तथा बील्ह इस प्रकार चल पड़े कि किसी को (अपने भागे) नहीं मिलते थे तथा विद्यावर मामा साहू भी ( उनके साथ ) खले ।। १८२ ॥ T १-३-१८४ Į अध थोरगवहि ख ख गूढ, छोला खोखर कन्हउ सू । सुमति महामति सोलह ताउ चलिउ सधार वोल्हू चंद तरंग || 1 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पूतु न जाउ घण्णुवेड सेठि बाखर फुल जिरणदत्त चरित आदि, कोडि सोंग भर लइ जे वाति । बिए, वुइ वो भरि वेरणालए । अर्थ :- गूढ खोखयाही, बाधा, छोला, खोखर, कान्हा, सूढा, महामति सवेल का ( सूत्र ) सुमति, सधारु एवं चंद का (पुत्र) वील्ह जले || १८३ ।। उन्होंने बाजरों में क्या है, यह जानते हुये की कांडिया एक सींगों को बैलों पर लाद लिया । धनदेव सेठ ने भी अपार सामग्री दी जिससे दो जहाज भर लिये और बेणा नगर ( को जाने का संकल्प लिया ||१८४॥ [ १०५ - १८६ | अवध, कोडि खडा तिरिए नोए घाधू पीता चालिउ म । धनु नाम मागे ज प्रसु सारु पाटल चालित भूतु ॥ जिसुकं हिय पंच परमेठि, सो पुर्णा चासि जिरावरु पूज करs तिहुकाल, सोपुणु चालिउ दंता सेठि । सतु गुणपाल अर्थ :- और धावू तथा गीता मी चले तथा करोड बरे चमर ( साथ ) लिए | नाग का लड़का धन्ना तथा धूल भी रेशमी ( मूल्यवान पाट लेकर ) चना ।। १८५ ।। जिसके हृदय में पंच परमेष्टि थे ऐसा वह ता सेठ भी चला। जो जिनेन्द्र भगवान की तीनों काल पूजा करता था ऐसा गुगपाल भी साथ चना ।। १६६।। | १८०३ - १८८ [ पदार्थ धरहि । चले ति रवरा परीक्षा कहि थले ति मोलु सघ वनारे भए इकठा को पंचदश मिलिए आइ ।। सबु यरिगजारे चतुर छल्ल, बारह सहस चले भरि बइल्ल | जो मतिद्दोष अबूझ प्रजाया, सव महि उबहित परधान || Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापार के लिये प्रस्थान ૬૩ अर्थ :- जो रत्नों की परीक्षा ( परख ) करते थे वे भी चले तथा जो मूल्य पदार्थ रखते थे वे भी चले। सभी व्यापारी एक स्थान पर इकट्ठे हुये तथा पन्द्रह कोश पर जा कर उन्होंने पड़ाव किया ।।१८७।। सभी व्यापारी चतुर एवं छैले थे और बारह हजार बैलों को भर कर वे चले थे । जो मतिहीन एवं अज्ञ थे ( उन ) सब में सागरदत्त प्रमुख थे ।। १८ ।। रयरण रत्न | परीक्षा परीक्षा, पारखी - - | १=c ] छाडत नयर देश अंतरास, चलद महिष सबु दs निरु करहि गए बिलावल कड पद पसारि । वाखरु सयल परोह्णु भर्राह । अर्थ :--नगर और देशों की दूरी को छोड़ते हुये वे बिलावल तक चलते गये उन्होंने बैलों एवं भैसों को दूसरों को दे दिया और सारा सामान जहाजों में लाद दिया ।।१८६॥ I १६०-१६१ ] भरि जोहिथ चले निज दाइ, प्रष्णु बहुत इंगुरु चर सयलह वत्थु परोह्णु कथउ, वारस वरिस के संबल लयज || वणिजारे जल जंत६ ठांद, धुजा पताका पड़ा इरs । सुदिगर लोहे भार सोकरे, सावधान हुइ वणिवर बडे || अर्थ :- तदनंतर चे जहाजो को में बहुत सी अन्न एवं ईंधन उस पर ( खर्ची) लेकर सभी बस्तुओं को जलयानों में लाद दिया ।। १६० ।। मर कर अपने स्थान को चले। साथ चढ़ा लिया। बारह वर्ष का संबल वणिजारों को जल जंतुओं का पता था । ( जलयानों पर ) ध्वज, पताका तथा पद (हवा द्वारा ) प्रेरिल हो रहे थे । उन्होंने अपने साथ मुद्गर Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणदत्त चरित एवं लोहे की भारी सांकल भी ली। इस प्रकार के व्यापारी मावधान होकर सते ।।१६१।। ईर - प्रेरणा करना। [ १६२-१९३ 1 माझ परोहणु रोपिउ बासु, तहि चडियउ मरजिया देसासु । माघे दीनी लोह टोपरी, नातर गौद्ध लेहि चांचरी ।। धुजा पताका पवण जब हपउ, जोयण साठि परोहण गमउ । दूत । चाय र चलिउ तुरंत, सुरा सेतु दीसह मु अगंतु ।। अर्थ :-( उन्होंने देखा कि) मरजीवा ने प्ररोहरण (जहाज) के मध्य में बास खड़ा किया तथा उस पर वह (मरजीवा) सांस रोक कर पतु गया। उसने माथे पर लोहे की टोपी दे रखी यी नहीं तो उमे (समुद्री) गिद्ध अपने चोचों में ले लेते ३१६१।। ध्वजा एवं पताका जाल वायु से आहत हुई तब वह प्ररोहण (जलयान) साठ योजन चला गया । वे उस और उत्साहपूर्वक चल रहे थे और अनंत जल ही जल चारों ओर दिखाई पड़ता था ।।१६२।। - मरजिया - मरजीवक - समुद्र के भीतर उतर कर उसमें से वस्तुओं को निकालने वाला। दूत - दुत - वेग से [ १९४-१६५ 1 दुद्धर मगरमछ घडियार, पारिणउ अगम , सुभाइ पार । जल भय कंपइ सयल ससेर, लहरि पर्यड भकोलइ नीर ।। घउहडाइ गाजई शु समुह, सउ जोपण गहिर जलउद्द । वूध निकरहि रहस मुह कोलि, जाराइ मच्छ न घालइ सोलि ।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापार के लिये प्रस्थान अर्थ :-- पानी में दुई र मगर, मत्स्य एवं घडियाल थे तथा उस अगम पानी का पार भी नहीं सूझता था । जल के भय से सब शरीर कांपता था तथा प्रचंड लहरों से पानी भको बा १९६६ : समुद्र गड़गड़ा कर गर्जना करता था तथा वह समुद्र सौ सौ योजन गहरा था। वह मरजीबा डुबकी लेकर सुख पूर्वक मुंह को बंद किए हुये निकलता था; क्योंकि यदि मच्छों को मालूम पड़ जाता तो उसे निगम ही जाते ।। १६५॥ घडियार घडियाल | पमंड प्रचंड | - रहम- रमम् - सुख | [ बेला are afs जब भंभा पाटणु वाए मयादीउ हूतद सहजावती बेगि १६६-१६७ ] चलेय, कवम् दीड वेति परहरिय | बोधि भयो वोहिथ कुंडलपुरु खोलि ।। नोसरिउ, पाटण तिलज दीउ पसरिउ । परिहरउ, गउ छोहिथ फोफल ही पुर' ॥ बोहिथ जहाज फोफ - - अर्थ :- जब वे वेगा नगर को छोड़ कर चले तब कवरप द्वीप भी उन्होंने शीघ्र ही छोड दिया। मंभा पाटर बीच ही में छोड़ कर उन्होंने जहाज कनपुर स्थींच लिया ।। १६६१। १ मुनपा मदन द्वीप से होकर वे निकले तथा पाटल तिलक द्वीप में प्रवेश किया ( तदनंतर ) उन्होंने शीघ्र ही सहजावती को छोड़ा और वह जहाज फोफलपूरी [ पुगफल-सुपारी की नगरी) को गया ।। १६७।। ६५ - उद्द - उदर । गूगफल - सुपारी । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणदत्त चरित | १६६-१६६ ] बावानल बोहिमु गट पेसि, अंतरु छाडि पवालो देसि । संखचोड परित्रिपउ आरिण, गयो वहां जहि हीरा लानि ।। परणसइ पणु जल जिपवर नाहु, भय अंतर चोठिउ अलमाहु । ताहि पन परिसिव वरिणवह चलइ, कलिमलु सयनुलोउ परिहरहि ।। अर्थ :- बह जहाज बइवानल को नकेल कर आगे बढ़ा तथा वीच में पवाली-वेला को भी उसने छोड़ दिया। संख द्वीप को भी उसने जानबूझ कर छोड़ दिया और वह वहाँ गया जहां हीरों की खान थी ॥१६॥ वहाँ जल के मध्य जिन चैत्यालय था तथा वहां उन्होंगे मन से पार करने वाले जिनेन्द्र भगवान के दर्शन किये । उनके चरणों का स्पर्श करके वे व्यापारी आगे चले और समस्त सोगों ने यहाँ अपने कलिमल (पाप) त्याग दिए ।।१६।। । २००-२०१ । तहां इंतज परोहण चला, जोयण सउ बोसा नीसरह । मुन्हि राइसिहि कान्हु कि भाइ, संधल वीप पहूते जाइ। बरिणवारा सहि ठाहरि रहा, कय बिफेरण दीवि पसरहि । मोल महंघी वाखर देहि, आप सउँ धो साटिवि लेहि ॥ अर्थ :-वहां से होकर वह प्ररोहण (जहाज) चला और फिर एक सौ बीस पोजन निकल गया । कवियों का सत्संग करने वाले राजसिंह ने सुना है कि वे सभी सिहल द्वीप जा कर पहुँचे ।।२०।। व्यापारी लोग वहाँ ठहर गये तथा क्रय विक्रय करने के लिये उस द्वीप में प्रवेश किया। प्रपनी वाखरों (बम्ओं ) का वे महंगा किए हुए भावों में देते थे और उनकी वस्तुओं को वे सस्ते भाव में साट [बदल] लेते थे ।।२०१॥ भाइ - भागिन - साझीदार, सत्संगी। महंय - महार्घ - महंगा। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल द्वीप-वन [ २०२ - २०३ 1 सहि घरवाह पटु चक्कत, नव निहि चउवह रमण भण्डार, तमु कुमर पिरिणमति केह, जो ताहि महिर निसि पसरद जो असराल दोष भोगवह 1 विजयादे राणी लइ विपाधि पोडिय कारषु व्हिसही सो जुन सुपियार ॥ असु देह । एव ॥ अर्थ :- उस ( द्वीप) का प्रभु घनवाहन नाम का चक्रवति था जो निरंतर उस द्वीप का योग ( राज्य ) करता था । उसके भण्डार में नव निधिय सथा चौदह रस्त थे, और अत्यन्त प्रिष विजमादे उसकी रानी थी || २०२ ।। उसके श्रीमती नाम को राजकुमारी थी जिस की देह व्याधि के कारप पीडित थी । जो भी आदमी निणा का प्रवेश होने पर उसका पहरा (पहर पहर तक की रखवाली करना) देता था वह मनुष्य किसी भी कारण पर जनता या १२०३ | २०४ - २०३ मंत्री मंतु किय भलि जोड़, रायल लोग तिन्हि लयउ हकारि, कह मंति तु अस करे, एक प्रूतु तद्धि मालिखि केरड, घरि घरि पत कहीय यात जां बस सबु कोइ । बलि बसारि ॥ अपर्ण ऊसर तुम पडियड 2 पहिरउ दे । ऊसरंज ॥ अर्थ:-मंत्रियों ने फिर मलाई देखकर मंत्रणा की, क्योंकि सभी घरों से पात्र (पहरा देने के उपयुक्त युवक ) रहते थे । इसलिये उन्होंने सभी लोगों चो (मंत्रणा के लिये बुलाया और उन्हें बैठाकर उनसे बात कही || २०४४ | मंत्रियों ने कहा "आप लोग ऐसा करो कि अपनेर ओसरे (पागे) पर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिणवत्त चरित पहरा दो।" वहां एक मालिन' के एक ही पुत्र था, उसका उग लमय (उम दिन) प्रोसरा ना पड़ा था ।।२०५।। । २०६-२०६ ] फूल बिसाहरण गउ जिणवत्त, मालिरिंग का परि जाइ पस्तु । पोवा ती हिण्ड विलादाद नति बोर पद वियसाद ।। कउप कान ये रो प्रारहि, काहु काररिंग पलावे करहि । किसि कारणि दुख परहि सरोरु, बेगि कहेहि इर्ड अंपइ वीर ।। अर्थ :-जिनदत्त फूल ऋय करने के लिये निकला और (संयोग से) मालिन के घर पहुंच गया । बुढिया हृदय से बिजख२ कर रो रही थी। तब उससे वीर जिनदत्त ने विकसित (खुलकर) कारण पूछा ॥२०६।। परी किस लिये इस रीति से रोती हो और किस कारण प्रताप करती हो ? किस कारण शरीर का दुत्रित कर रही हो : उस वीर ने कहा, "मुझसे शीघ बहो।" ॥२०७॥ री - रोइ - रीति। पलाव - प्रलाप । जंप -जल्प - कहना। [ २०८-२०६ । रुदन फरइ अरु जंपइ वयणु, भासू बहुत न थाकद नयणु । कहउं तामु जो दुखु प्रकहरुइ, होगह कहे कहा सुखसरइ ।। सुरण जिलयत्त फ्यंफ्य ताहि, भसी कुरी कहियर सङ्घ काहि । भालिन वातु कहा मनु सोइ, मन वुम तुझ निवारइ कोइ । अर्थ :- वह वृद्धा जिसके प्रास्त्रों के आँसू नहीं रुक रहे थे, रोती हुई बोली (मह दुख) मैं उसमें कहूँ जो उसे दूर कर सके । हीन (असमर्थ) से कहने से कौनसा सुख प्राप्त हो सकता है ।।२०।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल द्वीप-वन फिर जिनदत्त उससे कहने लगा "भली बुरी जो भी हो, वह सबसे कहना चाहिए । जो बात तुम्हारे मन में हो, ऐ मालिन, बात वह तुम्हे कहनी चाहिए, जिससे कि तुम्हारा दुःख कोई दूर कर सके ।। २६ ।। [ २१०-२११ ] कहद्द वात बूढी लिखी, इहि काल इनि जो सहि जागइ राति उहारण इजि कुवरि बुरी हो टेव, दिन दिन जो हि जागइ पहिर हृषक, सो नर भोल ( प ) छोड़ मुकऊ विहान | सो पर वीस मारणसु मार देव । (न) खियइ मुषक ॥ उह उभय । अर्थ :- वह वृद्धा रो रो कर कहने लगी, "इस समय यहाँ एक सा की काया है जो कोई वहां रात्रि में ( उसके साथ ) दूसरा ( होकर ) जागता रहता है वह व्यक्ति सबेरे (दुसरे दिन ) मृत दिखाई पड़ता है ।।१०।। - राज कन्या की यह बहुत बुरी आदत है कि वह दिन प्रति दिन मनुष्यों को मारती है। जो वहाँ जागता है और पहरा देता है, वह मोला आदमी मग दिखाई पड़ता है ।।२११|| रा [ २१२-२१३ J एकु प्रूतु एकति घरवाहि पहिर प्रजु तु सो मरह, मालिरण तरणी सुरगी जयु वत्त, हर बात पूछियड़ मकाजु, ६ε कहि गउ डोमु कसर] तरहि । तह बुख, पूल हियउ गहवर शाहूट त्रि उनसे जिणवत्त् । पूछित रु दुनु सारज भ्रातृ । अर्थ :- ( इस घर में ) इकलौता एक ही पुत्र है और डोम (वधिक ) कह गया है कि श्राज पहरे का ओसरा उसी का है। आज के पहरे में मेरा वह पुत्र मरेगा, इसी दुःख से मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है ।।२१२ || Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरगवत चरित जब उसने मालिन की यह बात सुनी तो जिनदत्त अपने मन में कहने लगा, यह बात मैंने व्यर्थ ही पूछी, किन्तु पूछ बैठने पर तो आज इसका दुःख दूर ही करूंगा || २१२ ॥ 190 1 २१४ - २१५ 1 विरलौ न परतिय परिहर, विरल विरलज सामि काजु सयं भीच 1 हा हा फार करह जिमवत रहू रहू माह में रोहि खरी, अर्थ :- विरला ही मनुष्य दूसरे की स्त्री का परित्याग करता है, तथा विरला ही कोई गुण करने पर भी गुण करता है । विरला ही भृत्य स्वामी का कार्य करता है तथा विरला ही द्रुमरे की मौत मरता है ।।२१४ ॥ अवगुण कन्तु गुरंग करई । मरइ पराई मीच ॥ विरल मालिणिस्यों बोलई विहसंत | कां कुष्ठाय महू टोकरी || जिनदत्त हः हः करने लगा तथा मालिन से हँसता हुआ बोला, "हे माता चुप रह चुप रह । इतना अधिक मत रो । हे वृद्धा तू मुझे क्यों कुठा रही है ।। २१५।। 1 मीच भृत्य । मीच मृत्यु | - डोकरी - बुद्धा | [ २१६-२१७ 1 जय महु लवण नोवल चरणु, तहू मह श्रादिनाह जिण प्राणू । कहा पचारहि सूनि काज, कहत घात भयौ तीजी पहरा, तो जिणदत्त भणह विहसाह तुब सुख उन् हम माहिव्व प्राजु || भायो होम हकारज अवरु | सांझी वारु व सेबउ भाइ ।' अर्थ : यदि मैं वृद्धा के चरणों की निंदा करता हूँ, तो मुझे आदिनाथ सौगन्ध है । ( इस प्रकार ) मूर्ख मुझे क्यों व्यर्थ हो ललकार रहे है ? Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल द्वीप-वर्णन ७१ तुम्हारे इस पुत्र को और मुझको ( दोनों को ) आज उसे मारना होगा ।।२१६॥ बातें कहते हुय तीसरा पहर हो गया । डोम आया और उसने पुकार लगाई तो जिनदत्त हेम करके कहने लगा कि संध्या समय आकर मैं संवा करूंगा ।।२१।। उह – उभय मास गठि पहरण परीरयउ, बोर गठि करि जूडउ व्यत्र । सह कर खडग फरी फटकाइ, खांति संबोल वसग सो माद ।। चढत अवास दीठ जघु राइ, घणवाहग बोलद को बाद । कवणे कहिन राबस्यों खरे, यह देव जाइ बसण ऊसरद ।। अर्थ :-मल्ल गांठ देकर और द्वन्द्व युद्ध के लिय] उसने कपड़े पहन लिए तथा वीर सथि कर उसने बालों को बांधा। हाथ में तलवार लेकर फर्ग (लाठी) को फटकाता (फटकारता) हुआ पान खाता हुअा वह सोने के लिये चला ।।२१।। महन पर चढत हुये जब उसे गजा ने देखा तो पूछा कि ''कौन जा रहा है ? किसी ने राजा से खड़े होकर निवेदन किया हे देव ! यह पाग पर सोने के लिए जा रहा है ॥२१॥ तवोल - पान । को - कौन । । २२०-२२१ ] देखि राउ पछतावउ करा, अइसन बोर ऊसरा मरइ । धिय पापिणी लियो ऊचालि, जितनु वेखर तितु देहि निकालि ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ गिरणवत्त चरित गउ जिणदत्त प्रवास मझारि, सहसर अथणी बोठी नारि । पातु देखि राइ को मुवा, हाय जोष्टि प्रासणु पिया ।। अर्थ :-राजा देख कर पछताने लगा, कि "ऐसा कोर प्रोसरे (पारो) पर मरेगा। धिक्कार है जिसने ऐसी री चाल कर रखी है जितनों को देखता हूँ वह उनको (मार कर) वहां से निकाल देती है ।" ॥२२०।। जिनदत मन के मध्य गया (वहाँ) यह (चन्द्र) बदनी स्त्री दिखाई दी । जब राजा की सुता ने उमे आते हार देखा तो हाथ जोड़ कर उससे आसन पर बैठने को कहा ।।२२१।। सुवा - मुता वस्तु बंध विजय मंदिर गयो जिणदत्त । तो बिभत णिय मणह, जब जवु सुउि पालक उठियउ । जिम मुंड माणुमु गलहि, मुह मयंक बोलति ।। मिठिया कि अग वाणहि हणहि प्रवरु ण प्रावहु तुझ । भणई बीफ फूड वत्त कहि, सिरिमइ सुन्दरि तुझ ।। अर्थ :----जिनदत्त विजय मन्दिर गया । उसे अपने मन में विस्मय किया तब वह (जिनदत्त) (यवस्थापूर्वक) पलंग को छोड़ कर अन्नग जा बैठा । जिस प्रकार मोह मनुष्य को ग्रमता है उसी प्रकार वह चन्द्र मुन्नी बोली "तुम चयों अपनी मधुरिमा से मुझे मार रहो हो, और (तुम मेरे) पास (क्यों) नहीं आ रहे हो? यह सुन कर यह धौर (जिनदत्त) कहने लगा 'श्रीमती ? सुन्दरी ! तुम म्फुट (स्पष्ट रूप से (अपनी} बात कहो" ||२२२॥ विमउ – निस्मय। जवु – बाम – व्यवस्था करना । पानक - पर्वङ्क - पलंग । म - मुधि । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल द्वीप-वर्णन । २२२ । सासुन्दरि पेखि पर बोर ॥ को तुड्स पर सोय, महू कातु पुसि करणे गसिर । परहनु लायर तिरिषि प्राणि, सत्थे तुह भरि पेसियउ ।। देखि बूद्धि रोति दुहिया, एका पूतु विशाख । तिहि सुर बहुतो मरज, पइसा दिषण मा भाष ।। अर्थ :-राज सुन्दरी जम श्रेष्ठ वीर को देख कर ( पूछ कर } बोली । इस परलोक (परदेश) में तुम कौन हो? तुम किसके पुत्र हो, और किसकी तलाश में हो ? (उसने उत्तर दिया)-सोक) परिहास के कारण मैंने सागर पार किया और एक व्यापारी-दस) में यहाँ पाकर तुम्हारे नगर में मैंन प्रवेश किया । दुखिता वृद्धा को जिसके एक ही विशाख नरम का पुत्र है, रोती देख कर उसके पुत्र के स्थान पर मैं मरूंगा, ऐमा मैंने उसे वपन दिया है ।।२२३॥ पेख - प्र-+ईक्ष – देखना। गवेसउ - गवेषगा करना - खोजना सस्थ – सार्थं -च्यापारी दत्त । म् – प्रविश्न – घुरना, पटना । दुहिया - दुःखिता। ताहं जपई राय सुबरोय। परऐसिय पाहुणई जाहि माहि, मा तुह निवारिउ । तुष पेखि मोहिल अणण, बस हूं मई जन तुंह मु मारिज ॥ एमु भर्जतहि रल्ह कइ, गरु छाय ना माइसि । कथा एक वर वीर काह, निवडा पहिरा बासि ।। अर्थ . तब गज मुन्धगे राजकुमारी | कहने लगी “हे परदेशी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जिणवस परित पाहुने ! तुम यहाँ से जामो जानो। मैं तुम्हें मना करती हूँ। तुम्हें देख कर मेरे पिता मोहित हो गये हैं और एक मैं हूँ जो तुम्हें मारने जा रही हूँ।" रह कवि [ कहता है ] इस प्रकार कहते कहते काफी रात्रि बीत गयी और फिर [उसने कहा] "हे श्रेष्ठ वीर एक कघा कहो जिससे पहरा बैटे [जागते रात्रि का शेष प्रहर निकल जाये ॥२२४।। नाराज छंद [ २२४ । सा पहरा बैठिउ नारि बिठत वीर भुजगु । बोला कुद्धि सोषि विधि मोति ।। कहि कहा नीको मारणी, निब सुख्खु जिमु होइ । हा संपुरता तयR पक्ष सोइ ।। अर्थ :-उस पहर में वह नारी बैठी रहीं और एक वीर [ भयंकर | सर्प उसको दिखाई पड़ा। अत:] यह अद्ध होकर और विद्धित होकर तथा अंगों को मोड़ती हुई बोली “तुम कोई भली भांति जानी हुई कथा कहो, जिससे निद्रा-सुख मिले । कथा-वार्ता से वह शीघ्र वहाँ मृत स्त्री [होकर | मो गयी ॥२२४॥ सूती जा महि मंतू सा महि जिरणवत्त करई । गयउ मसारिण भउज प्राणि खाट तलि भरह । अपुणु सोबई घण्णउ हर खडगु सभालि । प्रज्ज सु प्रावद पहिरव मायड़ मरह प्रयालि । अर्थ :-जब वह सो गई उस समय जिनदत्त ने यह किया कि श्मशान भूमि जाकर वहां से एक मृडी लाकर स्वाट के नीचे रख दिया और पाप स्वयं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल द्वीप-वर्णन छन्त्र होकर [छिप कर ] तथा तानवार मेमाल कर सोने लगा। उसने कहा, यदि वह पहरे में प्रावेगा तो वह वडग् से प्रकाल ही मरेगा ॥२२५॥ खाय - खड्ग - तलवार। अयाल - अकाल - अनुचित समय [ २२६ ] एत्तहि साला गवलह झाला मुह महते नौसर । कालउ वारण विसहर वावणु तहि फौकर । हिंदइ चउपासहि वोह सहासहि कालु भमंतु । कहि गज सो पहिरउ जसु हो वारिउ खूटउ जसु कड मंतु ॥ प्रर्य :-इसी समय (उस राजकुमारी के) मुख में से एक गुरु ज्वामानिकनी और वह काला और दारुरण सपं वहाँ (द्वार पर) फुकारने लगा। वह चारों पोर घूमने लगा मानों दीर्घ काल हँसता हुना घूम रहा हो । (उसने कहा) वह पहरेदार कहाँ गया, जिसके साथ मेरा बर है, जो क्षय हो चुका है भौर जिसका अन्त (सन्निकट) है ।।२२६॥ विसहर – विषधर – मई। ग्वूट - क्षी - क्षय होना । भारणसु सुत्ता निदइ भुत्तउ जगह न काई । बोला बोरु सा बलबीर बह भयंगु नितु सा ।। करि कर चप्पू काल सप्पू लाग्यो (मु) बइ सु खरिण । बोरे पश्चारिवि वीनी गालिवि इव इवरण सम्भा बाल ॥ अर्थ :-यह मनुष्य (जिनदत्त) सो रहा है और निद्रायुक्त है; क्या वह (मेरा प्रागमन) नहीं जानता है ? (यह सुनकर) वह वीर पौर बलबीर कोला, "वही सर्प रोज सा जाता है।" बड़े गर्व के साथ वह काना सर्प उस Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिगरत्त चरित को इसने लगा । (तब) कीर ने ललकार कर उसे गाली दो "अब तु जाने नहीं पाएगा" ॥२२॥ । १२६ } भरे चोरी खाहि भाजिव माहि पेटहि पहसि रहही । प्रानु प्रतडल प्रसियर मारउ का सुत पर कहाहि ॥ एवा कहि नाही वेग माही फिरि तिहि सिरि चंपिउ । फुरकारहउ परिज तुरंबउ पूछ धरे पिणु फेरियउ ।। अर्थ :-अरे तू चोरी से लाता है और भाग जाता है और (श्रीमती के पेट में घुस कर रहता है । प्रात्र में इसे तलवार से मारूंगा जिसमे कौन मा पुत्र नर कहा जायेगा। यह कह कर तथा वेग से जाकर उसने उस सर्प के पिर को धर दबाया और उस फुकार करते हुये (मर्म) को तुरंत पकड कर और फिर उसकी पूछ को पकड़ कर घुमाया (फिराया) ॥२२॥ चौपई । २९६-२३. । परिण भुसाइ सहि सलि सिरु करद, गर छाडि विसहर घर पडइ । विकम भुयंग देखी मनु पर, जीउ मारि को नरयहं पाइ ।। योलि जगाइ सज रह रह करइ, हाथ होइ तउ हाह घरई । होहि पाई त भाइ पलाइ, सो वपु आज मारउ काइ ।। __ अचं :-उसे मुलाकर उसका सिर तल (भूमि पर कर दिया, (जिमके परिणाम स्वरुप) गवं छोड़ कर वह सर्प धरा पर पड़ गया । (ब) उस भुजंग को विकल देख कर वह मन में सोचने लगा कि जीव-वध करके कौन मनुष्य नर्क में पड़े ? यदि उसे बोली ज्ञात होती तो वह ठहरा ठहरो' Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल द्वीप-वर्णन ७. करता, हाथ होते तो हाथ को पकड़ता, पैर होते तो भाग जाता, प्रतः अब इस शरीर मात्र को क्या कष्ट दू अथवा मारूं ।।२२६-२३०॥ { २३१-२३२ । जंपा सेठिपुत गुण चार, किम करि करउ जोव कज घाउ । हाथ पाउ विणु किमु साधरउ, प्रयसउ घालि चौधुरी घरख ।। धालि घउमुरी धरियड़ नागु, फुनि निसंगु होइ सोवा लागु । पह फाटी हउ भुरपसार, आयो डोमु सु काढए हारु ।। अर्थ :-गुणों को चाहने वाला वह सेठ पुत्र बोला किस प्रकार मैं जीव-वध करू ? उस बिना हाथ पैर वाले जीव को कैसे पकड ? इमलिये इसे ऐसे ही डालकर वौगृटी में रख देता है ।।२१।। चौपुटी (पोटली, चंगेडी) में डालकर उसने सर्प को रख दिया और फिर निःशंक होकर वह सोने लगा 1 पौ फटने पर जब सवेरा हुमा तो होम उसे निकालने आया ॥२३:।। चौपुडी - चतुःपटी – चार छोरों की पोटली । घाउ - घात । निसंगु - निःशंक । माझ प्रवास डोमु जनु गयो, खेसत सार और देखियो । भाजित पाणु राइसिंहू कहा, कालि बसिउ सो खलत प्रहद्द ।। गपि राइ भेटियउ तुरंतु, किमु उयरिउ वीर कहि वात । भणइ कुमर इनि नोकउ केह, निरर्शवत भई हमारो देह ।। अर्थ :-जब वह डोमु महल में गया तो उस वीर को उसने चौपड़ खेलते हुये देखा । प्राण (लेकर) भागते हुये उसने राजा से कहा, "जो कल सोने के लिये आया था वह आज (चौपड़) खेल रहा है।" ॥२३॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरायत चरित राजा ने जाकर उससे तुरन्त सेंट की तथा पूछा, "हे वीर तुम कैसे बच गये ? वह वार्ता कहो ।" राजकुमारी ने कहा कि इन्होंने ( मुझे ) रोग से अच्छा कर दिया है अब मेरा शरीर विष रहित हो गया है ।।२३४|| ས सार चौपड़ । नीक रिक्क ग्रच्छा । - 1 [ २३५ - २३६ ] काहि भुयंगु दिवालह सोइ, भाजी राउ पिछोउडो हो । इहु देव कुमरि पेट नीसरउ इनि क्षेत्र समलु लोग संहरिउ ।। बाल छोडि त झाडे पाइ, सिरियामती बोनी पराइ | वह दाइजे रयणी अनिवार, घरह जारण चाह६ वरियार । अर्थ :- उस ( जिनदत्त ) ने सर्प निकाल कर दिखाया । ( जिसे देख कर ) राजा भाग कर उसके पीछे हो गया। जिनदत्त ने कहा हे देव यह राजकुमारी के पेट में से निकला है और इमीने हे दंब ! सब लोगों का संहार किया है ।।२३५|| यह सुन कर राजा ने अपने बालों को खोलकर ( जिरणदत्त के ) पैरों को भाडा तथा श्रीमती का उसके साथ विवाह कर दिया। दहेज में अनगिनत रत्न दिये । ( इसके बाद ) वरिग़क दल घर जाने की इच्छा करने लगा ||२३६ ॥ [ २३.७-२३८ | वरिंगवर समक्ष प्ररोहण चवहि, तर जिस्गदत्त वीनती करहि | समदहि देव मोह चित धर, मेरउ साथ जातु हह परहिं ॥ घराबाह बोलइ सनभाउ श्राधउ देसु करउ नि राय । भो रायणु तुम्ह नाहीं खोड, मुह पुणु पिता तरी श्रवसेरि ।। अर्थ :- सभी व्यापारी प्ररोहा (जहाज) पर चढ़ गये तब जिनदत्त P Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल द्वीप-वर्णन ने (राजा से) विनती की, "हे देव मुझे विदा दो । मुझे चित्त में रखना । मेरा साधं (व्यापारी-दल) घर (वापस) जा रहा है ।।२३७।। घणवान ने उससे सत्य भाव से कहा, "तुम प्राधे देश पर निश्चितरूप से शासन करो। जिनदत ने कहा, "हे राजन! तुम्हारो अोर से कोई श्रुटि नहीं है किन्तु मुझे ही मेरे पिता को चिन्ता हो रही है" ।।२३८।। जातु -कदाचित । अवसेरि - चिन्ता । । २३६-२४० । सिरियामती समंदी जवही, बउवह दिन्न पाभरण तहि । जिनबत्तहि दोने वहु रयण, समदिउ राज विसखाणिउ बयण ॥ तोरिव खुलाइ परोहरण चडइ, उहिस्त, पाप छ मनि घरइ । पापी पाप बुधि जय जडी, काकर बोषि पोटसी घरी॥ मर्थ :--अब श्रीमती को राजा ने विदा किया तब उसे उसने चौदह (प्रकार के प्राभूषण दिये | जिनदत्त को भी बहुत से रत्न दिये और गजा ने रोते हुये वचनों से उन्हें विदा दी ।।२३६11 जहाज पर चढ़ते ही उसके लंगर खोल दिये गये, (किन्तु इसी समय) सागरदत्त के मन में पाप पंदा हुअा। जब उसके (पापी के) पाप बुद्धि बड़ी सब उसने कांकरों की पोटली बांध कर रख दी ।। २४०।। समद् - विदा देना। तीरिद - तीर से बंधे हुए लंगर । । २४१-२४२ । सो घाली र समद महि रालि, कही वीर रयण्णह की माल । एहा हो परी रयम पोटली, सो देखि पुत्त समद महि परि ।। रोबहि बाप म धीरउ होहि, काढि पोटली मप्पर तोहि । स्वहि वीरु मनु साहसु घरड, लागि परत सापर महि परह ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस चरित अयं :-उसने वह पोटली समुद्र में डाल दी और कहा "हे वीर वह रत्नों की माला हैं । मह रत्नों की पोटली यहाँ रखी हुई थी हे पुत्र देख यह समुद्र में गिर गयी है ॥२४१।। [जिणदत्त ने कहा, "हे पिता, आप मन रोइये और धैर्य धारण करिये । मैं पोटली को निकाल करके तुम्हे अर्पित करूमा। तब वीर [जिनदत्त] मन में का पारणा का था : ६.१. ११ । में कूद पड़ा ।।२४२।। प्रष्ण - अय् – देना। 1 २४३-२४४ । गपत्र पोटली खोजु पताल, काटी थरत हेड अंतराल । काटी चरत पापोया जाम, सिरियामती पहायज ताम । इकु रोबइ अर वौलइ ताहि, छाडे पूत सुसर कस जाहि । सुसरु मुसा तुम बोलाहि काह, वह तर हतउ हमरत दास ।। अर्थ :-जब वह जिनदत्त पोटली को खोजने के लिये पाताल में गया, तो सेठ ने बह रस्मी ठेठ बीच में काट दी। जब उम पापी ने डोरी को काट दिया तब श्रीमनी धाड मार कर चिल्लाई ॥२४३।। बह रोने लगी तो एक बोना "पुत्र ने छोड़ दिया तो श्वसुर कहाँ गया है" ? नेकिन सागरदस ने कहा, एकमर २ तुम किसे कहते हो ? बह तो हमारा दास था ।।२४४।। [ २४५-६४६ । उष्णु को सोग सखी मति कहि, मोश्यों रात्रु भोगु मु१ धरहि । उवहदत्त के वरणं सुणेइ, सिरियामती हाय मुंह देई ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर पार करना कुलबह किट्ठर कहा चित भरह, कुभो नरक पापोया पहि । उपरत बोला मूह दया, यह रोवहि पर धीमहि नपणु ॥ अर्थ :-सागरदत्त ने कहा, "हे सखी, उसका शोक मत करो । मेरे साय तुम राज मन मोगो।" जब सागररत के ये वचन उसने सुने तो श्रीमती ने मुग्ड को हाथों से ढक लिया ।।२४५॥ श्रीमती ने कहा, "कुल-वधू के विषय में मुमने चित्त में कैसी भावना धारण कर ली है ? हे पापो ! तुम भीपाक नर्क में पहोगे।" सागरदस ने फिर उससे मुखकारी वपन कहें, “तुम बहुत से रही हो, अब नेत्रों को धर्य दो ॥२४॥ धीम् -- धैर्य देना। । २०७-२४६ 1 अा असहर माह सतो सतभाउ, तो यह र परोहा जाउ । उहि सत जलदेवी उछलाह, उछलो परोहणु बोलहि महि । गजमाप लाग्यो बोहिय, किउ बरिणजारिह मंत उचित । चरिणयक सयस परेपर भरहि, श्यो बोहिषु इज करा ॥ अर्थ :-(बह प्रार्थना करने लगी) यदि "लहरों में सती का सत्यभाव हो तो यह जहाज डूब जाबे ।" उसके सतीत्य के प्रभाष से जलदेवो उछल परी और उछल कर मन में विचार किया कि अहाज दुवा दे ।।२४७।। वह वाहिष (जहाज) गमगाने लगा । तब व्यापारियों ने एक उचित विचार किया तथा वे म्यापारी परस्पर कहने लगे, "यह जहाज इसी प्रकार के कार्यो मे डूब रहा है ।" ।।२४८।। सतभाउ - मश्य माव। परोहण --प्ररोहरण, सवारी। दोल् - नोहय् -डुबाना। मंत्र -मंत्र - मंत्रणा । परंपर – परस्पर । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणदत्त चरित । २४६-३५० । साधु लागि सिरियामति पाई, कोच संति करि म्हारी माइ । उहियत, तिन्ह कूटणु लय, सिरियामती कोयु ईडियउ ।। बलिउ परोहणु रहिउ उम्र ठाउ, वीप दिलाउलि लागिउ जाइ । भवियह सुबह सती सतभाउ, दुइसइ उपचासे भउभाउ ।। :: अर्थ :-- (यह सोचकर) समो ने श्रीमती के पाँव पकट लिये तथा निवेदन किया, "हे हमारी माता! अपने क्रोध को शान्त करो।" वे जब सागरदत्त को मारने लगे तत्र श्रीमती ने कोध त्याग दिया ॥२४६।। . जहाज उस स्थान से चला और एक द्वीप के वेलाकुङ (बंदरगाह पर जा लगा। हे भविको ! सनी का सत्यभाव सुनो। इसके २४६ भेद हैं ।।२५०11 विलाउलि -चेगाकुन – बन्दरगाह । भत्रिय -भविक - मुमुक्षु । [ २५१-२५२ . . . कहइ रह महू यह संभवई, .....सु सोनु ता सजि संभवई , भण जिरायत्त पंच पय सरण, जव जलहर मनि प्राय उपरणु ॥ मह निर्णिच सामी की प्राण, लिउ प्रणसगु किगु जाहि पराण । मह जिन सुमरत आहि पराण, होई जीव पंचम गह ठाण ।। . अर्थ :-जब जिनदस सागर में से ऊपर पाया तो उसने कहा, मुझे पंचपरमेष्ठि के पदों की शरण है । रल्ह कवि कहता है कि यह सब शीलश्रत पालने से ही समय हुआ है । ।। २५.१ ।। मुझे जिनेन्द्र स्वामी की सौगन्ध है । मैंने अनशन का निश्चय ने लिया है को न चाहे मेरे प्राग चले जाएं । यदि जिन भगवान का Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर पार करना रमर करते हुये प्राण निकल जाएं तो जीव को पंचमगति का स्थान (मोक्ष) प्राप्त हो जावे ॥ २५२ ॥ { २५३-२५४ ] सत्तबर पंच मुखाइ, फै सुरु स की मोखहि जाइ । सही कथा यह पूरी भई, सागर मश्झि कहर संभई | विषम समुद्द न जाई तरण, जिपवत्त सुमरइ जिरण के चरण । जहां जुरहण चरिंग हू कियज, सिरिया धम्म साथि पाइप || ८३ अर्थ :--- सात अक्षर ( णमो अरिहंताणं) एवं पचपन (पंख परिमेष्ठि) काममा होने पर वह देव होता है प्रथवा मोक्ष जाता है । यह समस्त कथा यहाँ पूरी होती है तथा श्रागे की क्या सागर के मध्य उत्पन्न होती है ।। २५३ ।। समुद्र विषम था जिसे मेरा नहीं जा सकता था। जिवन ने जिनेन्द्र भगवान के चरणों का स्मरण लिया। ( फलतः ) जहाँ मी वरि केन्द्र ( जिरदल ) में रहना किया (हरा) श्रीमती के धर्म को अपने साथ ( रक्षा करते हुये ) पाया || २५४।। 1 २५५--२५६ j पापी छाडि गुपत सो भई, मिलि संघात चंपापुर गई । सा पुगि गइ निणिव विहारि पाय लागि निगवस संभालि || for की ना विनमति सुनिउ को जिलदत्त सखी हर्ड भरद्द | सिरिमति कहर मुहइ चाहि, तहि कौ घरि वसंतपुरि श्राह ॥ r अर्थ :- उस पार्थी को छोडकर श्रीमती गुप्त होगई तथा एक संघात (समूह) में मिलकर चंपापुर चली गयी। फिर श्रीमती जिन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 किरणदत्त चरित मन्दिर में गयी तथा उसके (विमलमती ) चरणों में लगकर उसने जिनदत्त को पुकारा ।।२५५।। ८४ जब विमलमति ने पति का नाम सुना तो तुझने लगी, "हे सखी। यह जिनदत्त कौन है जिसका नाम तुम ले रहो हो ? "श्रीमती ने उसके मुख क देख कर कहा, "उसका घर वसंतपुर में है ॥ २५६ ॥ [ २५७ - २५८ } ओमदेव नंदन सुपिवार, सो मेरठ जिरगवत्तु मत्तारु सो तहि व्यरण ण भोधणु कर, मरण वय कररण परतिय परिहर | रहिम तिरिप ते दुख सरीर, सायद उलि साहस धीर '— अर्थ :- "जी जीवदेव का प्रियतर पुत्र है वही जिनस मेरा स्वामी है। वह रात्री में भोजन नहीं करता है और मन, वचन, काय से परस्त्री का स्थागी है ।। २५७ ।। || (विमलमती ने कहा, ) "हे स्त्री (नि) तुम रुको, तुम्हारे शरीर में दृश्ख है । वह साहसी एवं धैर्यवान सागर में से ( उछल कर ) निकल आयेगा ।। ।।२५८ ।। ( वस्तु बंध ) [२५६ । विष सrue *हिर गंभीर । हि विदु उद्यलि कठखंड पुणेण लउ । कहि तुरंतु हविकउ खमरु, विहिवसेण तहि काइ सिद्ध 10 हरिवि महोहि भवियराहि, खिसुर देखि छह तहि पुण्ण फसु, बिज्जाहरि मंजि खहेद्र | परि ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर पार करना प्रर्य :-समुद्र विषम, गहरा एवं गंभीर था। वह' लकड़ी के टुकड़े उछल पाए जिन्हें उसने पुण्य-प्रताप से प्राप्त कर लिया । उसे शीघ्र ही एक विद्याधर ने बुलाया तथा कहा | देखोJ भाग्य से कार्य सिद्ध हो गया । रल्ह कवि कहता है, उस महोदधि को तैर कर भव्य जनो ! सुनो, जो कुछ उसने प्राप्त किया। उसके पुण्य--फल (प्रभाव) को देखो कि किस तरह विद्याधरी ने उससे विवाह किया 1।२५६।। हक्क - प्राक्कारम् - मुलाना। खयर - खचर-पाकाश में विचरने वाला विकार : महोति - हो: धि थाउ बोर तहां उछला, भुजाड सो सापत तिरइ । सूके सीवल के पुर खंड, रगीसो पायो पम्म करा ।। बेनत विग्जाहरु प्रावही, मारवेग महावेगु पाबहो । अरे रि किसु मरण बुधि तुहि गई, राखि समुद्द तीरहि मानाई ।। अर्थ:---वह डूबा हुया वीर यहां उछल पड़ा और अपन भुजादंड से सागर को तिरने लगा । मूखे सेमल का एक टुकड़ा धर्म-करंड (पेटिका) के समान उसके न्यास पाया (धरोहर के रूप में मिला) 11 २६० ॥ विद्याघरों ने उसे माता देखा सो वे पायुवेग तपा महावंग उसकी मोर दौड़े । उन्होंने कहा, "अरे कसो मरने की चुधि तुम्हें हुई है जो तुमने इस समुद्र को छोड़ कर तीर पर माने का संकल्प किया है ?" णास - न्यास – स्थापना, धरोहर । २६२-२६३ । कवड़ भाइ बौलह ति पचार, जाहिरण नपुडा घालहि मारि । रमण निहाणु जहाँ हा रहिउ, जो जलु कवणु तरण तुहि कहिउ ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणदत्त चरित कायर मारु मार पभोहि, गडवड़ कर समव जिम मेहु । उन्नति करि गहि अपमाण, विहडि जाहि दोसहि. न मिपारण है। अर्थ :-वे ललकार कर कपट भाव में बोले, "यह वप्पृष्ठा (असहाय) जाने न पावे, इसे हम मारेंगे। यह रत्न-निधान (रत्नाकर) है जहाँ मृत्यु रहती है । इसके जल को पार करने के लिए तुझसे किसने कहा है ?" ॥ २६१ ।। थे कायर जन मारो मारो कहने लगे । जिस प्रकार समुद्र में मेघ गर्जना करते हैं, उसी प्रकार उमड़ कर वे अप्रमाण (अपरिमित रूप में) चिल्लाने लगे । “ यह विघटित हो जाए (टुकड़े २ हो जाए) और यह जलाशय समृद्र में दिखाई न पड़े ।। २६२ ।। हुइ – हुति - मृत्यु ! [ २६४-६६५ । महिलइ मारण बोला जोइ, सो मरई चित मणुसु न होई । मारि जु पाछई मारणु कहर, सोनि बोरु मुणसाद लहद ।। फहद जिदत छुरी करि तोलि, माबहु प्रज्ज ने मारउ बोलु । - तौ न मुरणसु जौ अंसी करउ, मारि छुरी यह दिह वित्यरउ ।। अर्थ :-जो मध्य में ही गारने के लिये कहता है वह चिन्ता करके मरता है नथा (पृन:) मनुष्य नहीं होता है। पहिले मार करके जो पीछे . मारने के लिये कहता है, वही वीर मनुष्यता प्राप्त करता है। ।। २६४ ।। छुरी को दिखला कर जिनदत्त ने कहा प्रानो, मारने के बोल मत बोलो | जो ऐसा नहीं करेगा उसे छुरी मार कर दशों दिशाओं में फेंक दुगा ।।। २६५ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रबनूपुर नगर-वर्णन । २६६-२६७ । भरणहि खयह पहु घाटि नु होग, हाथ समुद्द पइरनु हइ जोड़ । रह रहु बीर कोपु जणि करहि, चडि तू विमाण हमारे चलहि ॥ प्रालि बिमारण लयो जो तहां, भरणइ योरु लइ अवह कुकिहा । वसहि पिज्जाहर गिर उम्परह, तुहु लेदर जाह रचनुपूहि ।। अर्थ :-खेचरों (विद्याधरों) ने कहा, "यह वीर कम नहीं है जो अपने हाथों से समुद्र को तैर रहा है (पार कर रहा है)1" वे कहने लगे, "हे वीर, शान्त हो काप न कर! तू विमान पर चढ और हमारे साथ चल ३२६६॥ विमान पर चढ़ा कर जब वे जाने लगे तो उस वीर ने पूछा, “तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो? उन्होंने कहा," इस पर्वत के ऊपर विद्याधर लोग रहते है, उस रथन पर नामक स्थान पर नु. ले जावेंगे ।।२६।। रयनूपुर नगर-वर्णन । २६८-२६६ } तहि असोक विज्जाहर राउ, प्रसोक सिरी राणि कह भाउ । पं सुरेंद्र जो पापिउ सुरहं, गरुव गरेव सेवज तु करहं । साहप बाहण न मुगज अंतु, कररि राजु मेहरिण बिलसा । अंतेउरू घउससी राणि, तिह के नाम रल्तु कवि मान । अर्थ :-"वहां पर प्रशोक नामबा विद्याधर राजा है और उसकी रानी का नाम अशोकश्री है । मानो इन्द्र ने ही वहाँ स्वर्ग को स्थापना की हो और जिसकी सेवा बड़े बड़े नरेन्द्र करते है।" ।।२६८।। ' उसके साधन-वाहनादि का अंत न जानो। इस प्रकार वह राज्य करता तया पृथ्वी का मोग करता है । उसके अन्तःपुर में ८४ गानिया है जिनके नाम रल्ह् कत्रि कहता है. मैं जानता हूँ।" ||२६६।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जिवत चरित २७० - २७१ F कार्नाड गूजरि अरु मरहटी, लाडि चोडि दक्षिण पूरविणी करवजि बंगाल, मंगाली मी गजडी कररणा भरणी, रूपादे उपमादे [ तिलंग कंचये धली । भामावे मारि, प्रचाभउ सुतभउ रुष मुरारि ॥ अर्थ :- "कशडी, गूजरी, महाराष्ट्रीय, लाडी, चोली, दक्षिणी, सौराष्ट्र, पूरविनी, कन्नोजिनी, बंगालिनी, मंगाली ? सैलंगी, सुरतारी, द्रविडी, गौडी, करणा, रूपादे, कंचलदे, उपमादे, सामादे और प्रवास सुतभउ रूपमुरारी ॥। २७०-२७१ ॥ [ २७२ - २७३ } चितरेह तहिवर सो रेख, किलरेख भोगमति गुरणगा सुरगा नवरस वेद, चरभावे रंभावे कांति, सुमयादेत्रि विहस र वे रूपसुन्दरी, पदमावती सोरठी । सुरतार ॥ P जणु सोबनू गुणमति प्रछ्इ रेख । भरणे ॥ विलसति सुन्दरी ।। अर्थ :- यहां चित्त रेखा है, जो वह श्रेष्ठ रेखा बाली है, और कीर्ति रेखा है जो मानों स्वर्ण-रेखा है; नब रसों का आमन्द देने वाली गुणगा और सुरगा है और भोगमती एवं गुणमती कही जाती है । ।।२७२॥। उरभादे एवं रंभादे हैं। जो कांतिमती हैं तथा विहसादे रानी है जो सुशोभित रहती हैं । सुभगादेवी रूपमुन्दरी पद्मावती और मदनसुन्दरी हैं । ।। २७२ - २७३ ।। | २३४-२५५ ! जालि । भारोगा कन्हावे रारिण, साबलवे मुगाचे रेह सुमई सुध पवमणि भोगविलासनि हंसागमणि || Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथम पुर नगर-वर्णन घरसरिणवे सुखसेरणालि, तारादे कर कह समालि । मंवोधरि अरु चंद्रमतो, होररवे राणी रेवती । अर्थ :-"मारेगा महादे राशी हैं, सांबन पोट महगाटे को जानो रेखा, मुमति सुता पधिनी हैं। तथा मोगविलसिनी, हंसगामिनी हैं।" ।।२७४॥ दर्षानदे, सुखसेशावली, तारादे (के नाम) रल्ह कवि स्मरण कर कहता है 1 मंदोदरी, चन्द्रमती, हीरादे तथा रेषली रानियां हैं ।।२७५।। [ २५६-२७७ ] सारंगदै अरु चंद्रायरिण, वीरमदे राणी भावतो । गंगावे राणी गजगमणि, कमलावे पर हंसागमरिण । मुक्तादेयि रुब भागली, चिणि हंसिणि अरु पपिनौ । सोनमती वरंगत हो घरणी अर्थ :- “सारंगदे, चन्द्रवदनी, मनको भावने नाली राणो वीरमदे, भगाद, रामी गजगामिनी, कमन्नादे मोर हंसगामिनी हैं।" ।।२७६ ।। "मुवता देवी है जो रूप में वही बड़ी है, चितिशी, हंसिणी एवं दिनो रानियाँ हैं । सोनवती अत्यत्रिक सुन्दर स्त्री है..........||२७७।। [ २७६-२६-२८० ] अषलो वासा पोदा तिरो, पिग्रसुन्दरी सुमहल ममपुरी । भोरपती रामा अविचार, भोगवतो करलाल कुमारि ॥ श्रीवसंतमासा सोभाष, हरह चिस कामिणी कराव । सव्वद वानि दारिद. घालहि, सम्बर सोदराय बालहो ।। करला विनोद छंद पर करहि, सुरप पर्सगि राा मन हाहि । गीत विनान जारण पति, हाव भाव विभृम सुपरति ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसवन्त चरित भोगवती तथा अर्थ :- पुनः अवलीवाला प्रौढ़ा स्त्री है। प्रिय सुन्दरी, मन को प्रसन्न करने वाली सुमइल्ल ( सुमति ) देवी, मोरवती, रामा, कैलाश कुमारी हैं ||२३|| ०३ श्रीवसंतमाला कही जाती है जो अपने कटाक्षों से चित्त को हरण करने वाली है। सभी रानियां दानी और दरिद्रता को दूर भगाने वाली हैं । ये सभी रानियां अशोक राजा की बल्लभाएं हैं" ||२७ I "चे विविध प्रकार के कला विनोद तथा चंद रचना करती हैं, सुरतप्रसंग द्वारा राजा के मन को हरती हैं। गीत-विज्ञान तथा ज्ञान को प्रकट करती हैं तथा दे हाव-भाव एवं विभ्रम धारण करती हैं ॥२०॥ [ २०१-२०२ ] असौ सयल तेच सा चाटु, असोसिरी राणी कह पाट । तहि कुलिशंणि चंगो खरी, छइ सिंगारम विज्जाहरी || को तहि कह अंग सोवण्ण, जीती रूप ताल लोचन । राह श्रसोग पुछिउ मुनिनाहु, धीयह वह सो सामि कहा । " अर्थ :-- ऐसा ( उस राजा का ) सम्पूर्ण रावास का भाव (ठाट ) है । उसकी अशोकश्री पट्टरानी है उसके कुल की मर्यादा स्वरूपा प्रत्यधिक सुन्दरी तथा विद्याधरी श्रृंगार मती नाम की पुत्री है" || २६१|| उसके स्वर्ण के सदृश अंगों का कहां तक वर्णन करें। उसने रूप और ताल में लोचन को जीत लिया है। राजा अशोक ने मुनिवर से पू " हे स्वामी मेरी पुत्री का कौन पति होगा उसे कहिये ॥२६२॥ [ २०३ - २६४ ] हाथ उवह जो पइरतु होइ, कन्या कज वरु होइस सोह । विजाहर राइ साउ कहिय, तज हमु भाइ समुद्र तल रहिय ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह विद्यानों को प्राप्ति सुह तुरंतु भेटियउ दह ठाउ, बेगि चाति परिणावहि माद । गए विज्जाहर पुरी मंझारि, गुरु र तोरण मे वारि ।। अर्थ :-(उन्होंने उत्तर दिया,) "अपने हाथों से इस समुद्र को तैरता (पार करता) हो, बड़ी इम कन्या का स्वामी होगा ।" जब विद्याधर राजा ने हम से ऐसा कहा और तभी से यहां आकर समुद्र-तट पर रह रहे हैं ।।२८। "इसलिये तुम उस स्थान पर चलकर राजा से भेंट करो तथा शोघ्न जलकर (उसकी कन्या से) विवाह करो।" (यह सुनकर) वह विद्याघरों की नगगे में गया जहां गुड़ी एवं लोरण द्वार पर लगे हुये थे ।।२८४१५ उहि – उदधि । सोलह विद्यानों की प्राप्ति [ २८५-२८६ । देखि वीर मानंदउ खया, परिणाविण सिंगारमई कुरि । राय सोग तह काइ करेन, अमनिउ दानु पाजी ॥ सिहज पदार्थ भूपड़ी मिली, बिज्जा सोलह पाई भलो । गगनगामिनी बहुरूपिणी, पाणिउसोखणी इलयभणी ॥ अर्थ :-उस वीर को देर कर वह विद्याधर आनन्दित हुप्रा तथा अपनी कुमारी शृंगारमती का उसके साथ विवाह कर दिया 1 राजा मशोक ने क्या किया कि दायजे में अगणित धन दिया ॥२८॥ उसे (दहेज में) सिंधुज पदार्थों की मुद्रिका मिली एवं सोलह उत्तम विद्याएँ प्राप्त हुई। ने हैं गगनगामिनी, बहुरूपिणी, जलसोस्विनी तथा बलस्तमिनी ॥२-६।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिएवत्त सरित [ २०७-२८८ | हिपलोकरणी सुइंघिउ देइ, अागथंभ धारणउ करेह । सव्यसिद्ध विनातारणी, पायालगामिणी अक मोहणी ।। चितामरिण गुटिका सिद्धि लहइ, गुपति निहाए अंजणी कहइ । माणिक व रमण वरसिणो, शुभ वरसिणी भुवरण गामिणी ।। रसण प्रणेय भेय रसु देइ, बज्ज सरीरु बज्जणी थेई ।। हृदयलोकिनी जो स्वइच्छित देती हैं, अग्निस्तमिनी (आग से) स्तंभन करती है । सर्वसिद्धि, विद्या तारिणी, पाताल गामिनी एवं मोहनी ।।२३।। चिन्तामणि गुटिका जिसने सिद्धि प्राप्त होती है तथा गुप्त तथा निधान (गाठी हुई) वस्तुयों को कहने वाली अंजरणी, रत्नवर्षिणी जी माशिक देती है, शुभदशिनी, मुत्रनगामिनी, रसना जो अनेक भेदों का रस देती हैं और वजू जैसा शरीर बनाने वाली वजिगी विद्याओं को उसने प्राप्त किया ॥२८॥ [ २८६-२६० । प्रवर पन्न लई तहि भली, तिमिर दिठि विज्जा तहु मिली । अगोवंध पारा बंधणी, सव्वीसही तहि भयो । बलि विजउ जिरणदत्त लिलार, सोलह विजा लक्ष्य विचार । विजनु को देखइ जु पमाणू, हकारिउ मनु चितिउ जु विमाणु ।। अर्थ :-उस प्राज्ञ ने वहाँ और भी विद्याएँ ली। तिमिर दृष्टि विद्या (अन्धकार में देखने को विद्या) भी उसे मिली 1 अरीबंध तथा धारा बधणी और सवौषधि विद्याएँ तक उसने प्राप्त की 1॥२८॥ जिनदत्त का ललाट विद्या बलित हो गया। उसने विचार करके सोलह विद्याएं ली जिससे उसका मुख्ख चमकने लगा। उसने विद्याओं की Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौलह विद्याओं की प्राप्ति परीक्षा करने के लिये मन में जिस विमान का विचार किया उसको बुलाया ॥ २६०॥ पत्र - पष्ण-प्राज्ञ | हक्कारिउ - बुलाया । [ २९१-२३२ 1 आयउ अगमगंतु सो तित्थु जीवदेव नंदषु हइ जित्यू | विज्जा व निसुण जिदत्त, बंदि अकिमि निगमलवतु || तहि जिवत्तु तिरिय वीसमदं मरण चिति फिरि कंसर (स) बंदि जिरादेव, बंदि करिवि पासि उपमह । भायो तहि खेव ।। अर्थ :- और जगमगाता हुआ वह विमान नहीं पर भा गया जहाँ इस विद्या ने जिनदत्त से प्रार्थना लिये " ॥ २९२॥ पर वह जीवदेव का पुत्र ( जिनदत्त ) था । की "अकृत्रिम चैत्यालय की वंदना करने ६३ फिर जिनदत्त ने अपनी विस्मृत स्त्री को मन में विचारा तो बहु पास आ गयी । फिर कलाग पर जिनदेन की वंदना करके वापिस वहीं श्रा गया || २६२ नोट- कैलाश पर्वत भगवान् आदिनाथ का मोक्ष स्थान है । [ २९३ - २९४ ] भाइ पर्यार से राजु कराहि, पुणु प्रयोग सिउ बात कराहि । समवह देवति भेटरा जाहिं, माय शत्रु अबसेर कहि || कहइ विज्जाहरु एमु करेहु, श्रषौ देखु की राजु तुम लेह | भरगइ वीर हम यह न सुहाइ, तात गवेसिज करि हज जाइ || अर्थ :- वे नगरी में आकर राज करने लगे । फिर उसने अशोक राज से बात की और कहा, "हे देव! तुम मुझे विदा दो तो माता तथा पिता से मिलने जाएँ। वे मेरी चिन्ता कर रहे हैं " २६३॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जिहादस चरित विद्याधर ने उससे कहा, ''तुम ऐसा करो कि तुम प्राधा देश का राज्य ले लो (और यहीं रहो) ।" बोर (जिनदस) ने कहा, "मुझे यह अच्छा नहीं लगता है । मैं जाकर माता-पिता की सेवा करूंगा" ||२६४।। { २६५ । राय सोय पुणु नौकर कीयउ, कडप चूद करि मंडिय षीय । पर मनु चितिन दिन्नु विमाणु, तहि दियइ रयण प्रपमारण ।। अर्थ :--राजा अशोक ने फिर यह सत्कार्य किया कि अपनी लड़की को कड़इ (कड़ा) तथा बड़ा (प्रादि प्राभुषणों) से मंडित किया और उसे मन चाहा विमान दिया नया अप्रमाण (अनन्स) रत्न दिये ॥२६५।। तहि - तहा-तथा चंपापुरी के लिये प्रस्थान [ ६६-२१७ ] विहि विमाण रयण घाघरी, पालक सेज सुहाइ धरी । ठाइयो हंसतूल घिचि छाइ, समवत राय सोउ बिलखाय ।। उतरि विमारहि ठाउच भयउ, विराज करि पिणु पूजण लयउ । रिपरु मणु चितिउ प्रखउ सोहि, चंपापुरि लइ घलहि मोहि ॥ अर्थ : वह विमान रत्नों की झालर से च मयः रहा था, जिसमें एक सुन्दर पर्य का शय्या रक्खी हुई थी। हंस के समान उस विमान में बह वैक गया और राजा अशोक ने उसको बिलखते हुए विदा किया ।।२६५।। विमान से उतर कर वह खड़ा हो गया। दोनों हाथों से उसने फिर (भगवान की) पूजा की। पुनः विमान से कहा, "मनमें विचार करके निश्चयपूर्वक मैं तुझसे कहता हूँ, न मुझे चंपापुर ले वान ।। ६६७।। विण ... विणण-दोनों। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंपापुरी के लिये प्रस्थान [ RES-REE ] सो विमासा ठिय रयरणनु भरइ विजआहरिय कति सिंह विष्ण विचित्ति बेगह गहरे, चंपापुरिय रायसि चंपापुर नयरो पसारि, वाडी बेखत भई बड़ी पंथह सूरु मेरु तल गयो, पहली रात पहर इकु - अर्थ :- पुनः रत्नों से वह विमान भर गया तथा विद्याषरी पपने कान्त ( जिदत्त) के साथ उस पर चड़ी। राजसिंह (कवि ) कहता है कि वह विमान शीघ्र ही चंपापुरी पहुँच गया ॥ २६॥ | कहे ।। बार | भयो |" चंपापुरी नगरी के प्रवेश मार्ग पर बाड़ी ( उद्यान ) देखते उसे बड़ी देरी हो गई। सूर्य अस्त्व होकर मेरु के तले (पीछे) चला गया तथा इस अकार (हाँ) प्रथम रात्रि का एक पहर व्यतीत हो गया म विष्ण विज्ञ | 1 ३०० } जंपइ योर नरि सुनि भत्ति, पहिरे अज्जु विलवहु राति । भइ तिरिय मह लाइब रोय, पहिलउ पहिरन मेरउ देव || — &# अर्थ :- वीर जिनदत्त विद्याधरी से कहने लगा, 'हे नारी (स्त्री) शीघ्र सुनो याज की रात्रि पहरे में बिलमाश्रो ( व्यतीत करो)। श्री कहा, "मैं रुचिपूर्वक करूंगी। प्रथम पहरा हे देव, मेरा हो" ||३०० ।। भत्ति भटित - शीघ्र | सेव रोम-रुचि । [ ३०१-३०२ ] सोवइ तहि जिवंत प्रघा, राउ विरउ पद भऊ परतूस पहरु वुइज आइ, जागि वीद बोल तिहि जाइ । विहसाह || Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिएवत्त चरित सुरण तू राइ प्रसोगह थीय, जागत बहुल रयण सो भईय । थोषु एक बोलहि स भणी, हूं जागड तू सोबहि घरणी ॥ अर्थ :- वहां जिनदत्त प्रघाकर (थक कर) सोने लगा तथा एक पहर रागविराग में व्यतीत हो गया | जब दूसरा पहर हुआ तो उसे प्रतोष (संतोष) हुआ और वीर (जिरणवत्त) जाग कर सता या बोला ।।३०१॥ "हे राजा अशोक की पुत्री ! तु मुन : तुझे, जागते हुए बहुत रात्रि हो चली है । मैं तुझसे एक बात कहता हूं कि अब मैं जागता हूँ और तू खूब सो जा" ।।३०२।। राउ – राग। विरल – विराग । रमण - रजनी। [ ३०३-३०४ । पिय बालहे भुहि मो बास, अवधिउ बोल म बोल हि कत । पिय दुसु दइजु घरणी सुखिपाद, तह पतियार प्रहलउ जाइ । सती निरीने नाह सुजाण, सामी प्रागह वेहि पराए । सुरिण साई मेर जु भत्तार, नाहि मोहि घडइ इतिवार ।। अर्थ :-(स्त्री ने कहा.) "हे प्रिय यल्लम ! गेरी बात सुनी; स्लीटे बोल हे कान्त, न बोलो। जो भित्र (पति) को दुरन देकर घने सुन्न उठाती है उसका पतियारा (विश्वास) निकल जाता है ।। ३०३।। गली वह है जो (अपने ) मुजान (नाघ) के सामने (अपना अस्तित्व मिटा दें और जो स्वामी के मार्ग प्रागा दे । हे स्वामी सुनो; "तुम मेरे भसार हो, (विन्तु आपको बातों पर) मुझे एतवार (निवास) नहीं हो रहा है" ।।३०४।। नई तुम्हि जागत अवसुख होस, लो मुहि लोगुण सलहहि कोइ । बालम पाछ। करहि कुकम्मु, ना तिनु तिरिय वीपुमा अम्मु ।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में तो जिणवत रूसि बोलेइ, केतिउ झहि वावसी भर । सोवहि घणो म लाहि खेड, घी एक हूउ पहिरड बेड ।। ___ अर्थ :-"यदि तुम्हें जागते हुए अवमुख (कष्ट) होता हो तो कोई भी लोग मेरी सराहना न करेंगे । वल्लम (पति) के पीछे जो (स्त्री) कुकर्म करती है वह स्त्री नहीं कुत्रिया है उसे मनुष्य जन्म दुबारा नहीं मिलता है ॥३०५।। जिनदत्त नब रुष्ट होकर बोला, "तुम पागल होकर यह सब क्या बक रही हो । तुम धनी (नींद) मोनो तथा मन में जरा मी खेद मत करो । प्रब एक बड़ी मैं पहरा दूगा" ॥३०६।। [ ३०४-३०६ ] बिलखवि घरणी नोव मनु कीयउ, बोती रपरिण सूर अगयो । करइ कपटु वावरण उरिप जामु, हुइ वावरणउ छाडि गऊ तासु ॥ परछनु माइ देखा तिरिय, घण सत सिह यह किसत टसोय । प्रापण गुपत नयर महि फिरइ, जागि मारी सो कारन करइ ॥ अर्थ :--बिलखती हुई उस स्त्री ने घनी नींद की इच्छा को [पौर सो गई । रात्रि पीती और सूर्य उदित दृया। उससे कपट करके (जिनदत्त ने) खोने का शरीर बना लिया तथा बौना होकर अपनी स्त्री को छोड़ गया ||३०७ छिप-छिप कर वह अपनी स्त्री को देखने लगा कि वह (स्त्री) सत सह अथवा सत्त को उसने छोड़ दिया है । स्वयं वह गुप्त रूप में नगर में फिरने लगा । जब वह स्थी (विद्यावरी) जगी तो वारण करने (सेने-चिल्लाने) लगी ॥३०॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरायस परित वस्तु बंध धरण विषयन ललित सुकुमाल । खोपोवरि ससिवरिण करणय 'वूडमणि हार मंडिय । मोतिय गींव भरि पियगुरण गहि कार इंजय ॥ पुण धम्मक्किम जोवइ विसइ, उठि जवु जोइप पासु । मन्म बिमाहि रमह का तिरी न देखाइ ताम् ।। पर्य :-यह पन्या (स्त्री) सुख सम्पदा में पनी हुई सुन्दर एवं सुकोमल थी । वह क्षीरसोदरी तथा शि बदना थी; स्वर्ण चुडामणि एयं हार से मंडित (सुशोभित) थी । नींद भर सोते हुए वह गुणगत प्रिय (पति) द्वारा क्यों छोड़ दी गई ? पुनः (तदनन्तर) धमकी (रतमित) होकर दिशाओं में देखने लगी । अपने पाय (बगल) में देखा तो रल्ह कवि कहत। है कि विमान के मध्य उस स्त्री को यह दिखाई नहीं दिया ||३.६ ठि तिरिम च जोवन पासु, माझि विमारण न देखक तासु । कलिमलाइ मने बढि बाह, पाइ रगाह फरि मूको बाह् ॥ प्रति गह कार सानियन लागि एज, मह पापिणी मोहमणि कीर । लोग कहन साचौ भयो, जागत चोर नु कुद मुसि गयऊ । अर्थ :-स्त्री ने जो उठकर पास (बगल) में देखा तो विमान में उसे नहीं पाया । अकूला कर विमान पर ऊंची चढ़ करके स्वागी ! म्यामी ! करते हुए उसने पाड़ मारी (वह जोर से रोने लगी) ३१०।। अत्यधिक प्राग्रहपूर्वक मैंने स्वामी को पकड़ा था किन्तु मुझ पापिनी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में नोव (सोने की इच्छा की लोगों का कहना सच्चा हो गया कि जागते ? हुए किसी को भी चोर नहीं चुरा सका है ॥३१११। गढ़ - प्रवेश-प्रासक्ति तल्लोमता । नूष मूष चुराना - १ ३१२ - ३१३ ] गही वरि परि कूट हिपज, कवळु दोसु मइ सामी कीपर भूकी वरण माह | जणु कछु श्रीवरण बीज नाह, तर काहे कियो मोहि वज्र की हियउ, कि वय पाहण शिम्मदियउ । सून विम्पण देखि विलिखाद, किन फाहि हि चरडाइ ॥ EE अर्थ : आवेश में भी (ग्राकुल- व्याकुल होकर ) वह अपनी छाती कूटने लगी ( तथा कहने लगी, "हे स्वामी, मैंने कौनसा अपराध किया है और यदि तुम्हें कुछ भी अवगुण नहीं दिखा है, तो फिर क्यों वन के मध्य तुमने मुझे छोड़ दिया ||३१२ ॥ क्या (विधाता ने मेरा वज्र का हृदय किया है प्रथवा उस देव ने उसका पाप से निर्माण किया है ?" सूने विमान को देखकर वह रोने लगी तथा कष्टने जगी, "मेरा हृदय चरड़ा (नरवरा) कर क्यों नहीं फट जाता ? ३९३ [ ३१४-३१५ । तुहि वी भुहि रहहि परारा, तुहि वोह पर जियउ शिया । सुहि विनु उर न देखउ आणि पिय जिवस मिसर साखि ॥। मा को निसएस, कोहे पिय छोडी परदेश | जन किमु माह दिनु जियउ, इष किसु देखि सहा हिट || सद्द अर्थ :- तुझे देखने पर हो मेरे मार रहेंगे तथा तुझे देखने पर ही में Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जिरगवत चरित जी सकती हूँ। तुम्हारे बिना में दूसरे किसी को भी इन आँखों से नहीं देखती हूँ, जिनेश्वर मेरे साक्षी है कि जिनदत्ल ही मेरा प्रिय पति है ||३१४|| ऐसी रात्रि में तुमने मुझे (कैसे ) छोड़ दी ? हे प्रिये मुझे परदेश में क्यों छोड़ दिया ? तुम्हारे बिना में कैसे जीऊँगी तथा अन्न किसको देखकर हृदय को संभालू ? ।। ३६५११ मया - स्नेहपूर्वक | [ २१६- ३१७ ] जिवत निगदत्त विरिणि भरगड, कारण केहियउ सेठिस्यो जाई | रोवइ त्रिमल रहा वह नारि करि उछंग लई गज विहारि ॥ हयर गयउ जितेंद बिहार, पाय लागो जिरगवत्त सम्हारि । पिय को भाउ विमलमति सुराइ को जिबन्त सखी तू भरणइ ॥ अर्थ : वह विरहिणी, जिनदल जिनदत्त कह रही थी, यह बात सेक से जाकर किसी ने कही । ( वह सेट ) विरुल शेने लगा तथा उस नारी को सान्त्वना देने लगा 1 तदनन्तर उसे हाथ का सहारा देकर जिन मन्दिर में ले गया ||३१६॥ वह फिर जिन मन्दिर में चली गई तथा ( जिनेन्द्र के) चरणों में पड़कर भी जिनदत्त को स्मरण करने लगी | जब विगलमती ने अपने प्रिय (पति) का नाम सुना तो उगने उससे पूछा, "हे सखी तू कौनसे जिनदत्त का नाम ले रही हैं ॥३१॥ 2 [ ३१८-३१६ ] जयंजसि की। विज्जाहरी कहद्द सुगि सखी, खिय जपणी जोयदेव नंदणु व भयउ सोबत छांडिल पिउ गाँउ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौने के रूप में वाइ तिरिया कहाहे तुरंतु, हमु पुर्ण अहि तासु को कति । तिन्यो तिरिया प्रचहि ठाइ, बाहुडि कथा वोर पहि जाई । अर्थ :-विद्याधरी कहने लगी, हे सखी सुन, "उसने माता का नाम जीवंजसा बताया था और कहा था कि वह जीवदेव का श्रेष्ठ पुत्र है। किन्तु मह प्रिय कल मुझे सोती हुई छोड़ कर चला गया। ।।३१८।। उन दोनों स्त्रियों ने भी उसी समय कहा. "हम मी उसो की कान्ताएं (पत्नियाँ) हैं ।" फिर दे तीनों स्त्रियां वहाँ रहने लगीं। अब लौट कर कथा का प्रसंग वीर जिनदत्त के पास जाता है ।।३१६।। बाहुई - व्याघुट-लौटना । । ३२०-३२१ ] बहुफ चोख नबरो महि कियउ, पुखि बुलाइ राजा पूछिपउ । कहहि जाति कुल प्रापुरण ठाउ, पुष्णु कौतूला परिसहि घरगज ।। कहद बाप्त घठित वावरणा, हमु देव सामी वाभणा । गीत कला गुण जागहि सय्यु, महु वेउ कम्मु नाउ गंध ॥ अर्थ:-नगरी में अब उसने (जिनदत्त ने) बहुक (अनेक) चमत्कार के कार्य किए तो उसको गजा ने बुलाकर पूछा, "अपने कुल, जाति एवं स्थान को बतायो और अपने घने कौतूहल (चमत्कार) मी दिसायो" ।।१२०॥ वह धौना बैट कर कहने लगा, "हे स्वामी हम ब्राह्मण देव हैं । मैं समी गायन-वला और गुण को ज्ञानता हूँ तथा मेरा कम में नाम हे देव ! गंधर्व है" ।।३२१।। । ३२२-३२३ ] तबहिं राउ घोला रि झत्ति, लोपहि नाउ म गोवहि जाति । सुन्न पुगु घावरिण चहि प्रयाण, तुहि तिण लोग कहइ तुम्ह पाण ।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जिणवत धरित भूख मरत देव हउ केहा करउ, सइ हड़ पाणु भयन विबहउ । नवहि गुसाई मूबी चुद्धी, तबहि पणाठी सु प्रा कुली ।। अर्थ :-तब राजा खोझ कर बोला, "तुम अपना नाम व जाति न छिपाओ । हे बौने ! तुम अज व्यक्ति की सी बातें कर रहे हो इससे तो लोग तुम्हें पाण (श्वपच तथा शराबी की तरह प्रयास करने वाला) काहेंगे ॥३२२॥ ___ "उसने कहा, "हे देव । भरखों मरता मैं क्या करता : तब मैं विनष्ट हुआ पाए (एक्पच हो गया । जब से स्वामी (परमात्मा) ने मेरी चोटी मूड दी तभी मैंने कुल और कुल की कानि प्रगष्ट कर दी" ।।३९३।। विवह - विनाश । । ३६४-३२५ । पेट प्ररथ देव सेवा कोज, पेट परम संतर लोज । कतहरण अग्नु पान सिह भेट, पारण भयन हो कारण पेट ।। बार बार पाषण भणाइ, वेव विभूषित किग्म कराइ । मिलइ ण श्रोति कापड खाण, भगु हुति भयो यहु पाणु ।। अर्थ :-"है देव ! पेट के लिए ही सेवा की जाती है तथा पेट के लिए ही देशान्तर लिया जाता (जाना पड़ता है। अन्न एवं पानी से मुझे भेंट कहाँ थी । पेट के लिये ही मैं पारण (श्वपच) हुआ (अना) ।।३२४।। वह बीमा बार-बार कहने लगा "हे व 1 मुझे भुख रहित क्यों नहीं कराते ? मुझे धोती, कपड़ा तथा खाना महीं मिलता इसीलिये ब्राह्मण से मैं यह पाया (पनपथ) बन गया ॥३२५॥ 1 ३६६-३२४ } जाति पाति पह पूहि ताहि, ध्याह योधु जिण सनमधु पाहि । वपण एक हर कहउ समीद, जिरणवत्त भरगति नारि म दिए । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में तखिरणी विमलुमती पहुतउ तहां, वरणमहि नारि मेरउ खेलु जोतु छद पाल, नाटकु नटर्ड बइठो जहाँ । देखि भूपाल ।। अर्थ :-"प्रभु ! गज़न ! ) नानि गति सदमी पहें किसे सिमा आदि का सम्बन्ध (करना) हो । जिनदत्त कहने लगा मैं आपसे एक मोठी (मधुर) बात कहता हूं : ..-''नारी ( विवाह योग्य स्त्री ) को मुझे बताइये" ।।३२६।। उसी समय जहाँ विमलमती थी तथा उद्यान के मध्य वह (विद्याधरी) स्वी बैठी हुई थी, वह यहाँ पट्टेचा (उसने अपने प्राप कहा) मेरा परिविस खेल कोमल और मृदु है, (अतः) मैं आज एक नाटक का जिसे राजा देखें ।।३२७।। जीत ! जित-जीला हुमा, परिचित । पाल - मृदु, कोमल । [ ३२८-३२६ । नाव विनोद छंद बहु करज, रूप विरूप कला भणुसरउ । खोह भाइ सुटिव वीसह घराउ, इउ मट भर खेल वावरणउ ॥ घरइ सासु जिह हासउ वयण, बंधद किरणि भमद पुणु गगन । विपरितु छोह एक परसियज, राजा हसइ पावलउ भएउ ।। अर्थ :--मैं वादित्र (बजाऊंगा) एवं विविध प्रकार के हाम्प छैद कहूंगा तथा भली एवं दुरी दोनों ही प्रकार को कलात्रों का अनुसरण करूगा। जिससे क्षोभ तथा माव (स्नेह) दोनों का ही खूब अनुभव हो। इस प्रकार यह (बौना) नट-मद (का खेल) खेलने लगा ।।३२८।। वह ऐसे ताल धरने लगा जिससे हंसी के बचन निकाने (हंसो प्रावे । किरणों को बांध कर वह अाकाश में घूमने लगा । विपरीत (विरोध का) माव Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरायत चरित और द्रोह (कृपापूर्ण स्नेह) को एक सा दिखा दिया जिससे राजा हँसता हँसता बावला हो गया ।। ३२६ ।। १०४ छंद - हृद्म । वाउ ! वातूल- बावला, पागल । [ ३३०-३३१ I तूठउ राजा निज चित्ताव मागि मार्गि वावरण कउरगइ एकु सभामइ कई विमल सेठ की तन्धो धोय, इतौ नारि खुला एहु तबहि बात एकु को कारण रही बिहारि देव तपु गुशाई बासणु पसाउ अह ।। लीय । देहि ॥ अर्थ :- राजा अपने चित्त में सन्तुष्ट हो गया तथा प्रसन्न होकर बोले से कहा, " पुरस्कार माँग पुरस्कार माँग 1" ( तब तक ) सभा में किसी एक ने कहा, "एक बात का क्या कारणा है ? ( यह बीना बताए ) " ||३३०|| "हे देव, विमल रोल की तीनों लड़कियां तप (व्रत) लिये हुये ( मन्दिर में ) रह रही हैं। यदि उन रित्रयों को यह वृला सकेँ, तभी अब इसे प्रसाद ( पुरस्कार ) का वस्त्र में ||३३१॥ [ ३३२-३३३ | की पाषरण काठ की घडो, को ले अक्षर की ते सवासी भरइ वेव माणुस कि इसहि, की ते चित्त लेपसी खड़ी | भरगइ राउ ते हहि माणुसी ।। मेरह बोल पाहूणु हँसइ । तव मे देष तिनि सोखी कला, जो न हसाउ पाहणु सिला || अर्थ - ( बौने ने पूछा ) "क्या वे प्रस्तर अथवा काठ की गढ़ी हुई है ? अथवा क्या वे चित्र के लेप से खड़ी हुई हैं क्या वे अप्सरा है, अथवा क्या वे ब्रह्मणी [?] हैं ? " ( तब ) राजा ने कहा, वे मानवी हैं" ।।३३३।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में (बौने ने कहा, "हे देव ! मनुष्य के हंसने की क्या ? मेरे बोल से पाषाण मी हँस सकता है । हे देव ! मैंने तो बह कला सीखी है कि मैं पापाण की पिला को मी न हँसाद (तो मेरा क्या नाम) ॥३३॥ सवास - ब्राह्मण [ ३३४-३३५ ] बस्त उठाइ सिला परिठा, एक चित्तु विज्जा सुमरा । सर्व सभा सिलाइ, लण. तिला हाणि ॥ अहि धोरु तिमु पाइस कहा, सिलारूप जइ विजा रहा । यहु तारूणी वि(ज्जा) तिह ठाड, हसि हहडाइ रंजाहि राउ ।। अर्थ :-वस्तु को उठाकर शिला पर रख दिया तथा एक चित होकर विद्या का स्मरण करने लगा । (विद्या से उसने कहा) "समी समर का चित्त सुखी हो इसलिये तू ही तारुणी (विद्या) शिला होकर हंस" ।।३३४।। उस वीर ने जब उसको यह बादेश दिया तो वह विद्या शिल-रूपिणी होकर यहां जा कर बैठ गई । यह तारुणी विद्या ही थी जो उस स्थान पर ठहाका मार कर (स्लब जोर से) हसने और राजा को रिझाने लगी ॥३३॥ [ ३३६-३३७ । तबु सो सिला हसइ हहडाइ, सभा लोगु मोहउ तिह ठा। सूहि राजा करि तहि भाउ, मागि मागि धावणे पप्ताउ ।। इहि पसाउ पञ्य केम, जाम रग मारि हसाउ देव । सामी वयण एकु अवधारि, दिन दिन एक बुलालाउ नारि ।। अर्थ :---तब वह शिला ठहाका मार कर हँसने लगी जिससे ममा के लोग उस स्थान पर मोहित हो गये । राजा स्नेहपूर्वक प्रसन्न हुअा और कहने लगा "हे बौने । न पुरस्कार मांग पुरस्कार मांग" ।।३३६॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति ( किसी ने कहा ) "कैसे पुरस्कार मिल सकता है, जब तक है देव, यह मों (इसी प्रकार ) नारियों को न हँसा दे ।" बौने ने कहा हे स्वामी ! मेरी एक बात मान लो । मैं एक-एक दिन एक-एक स्त्री को बुलाऊँगा १३३८ ॥ १०६ आह बिहारी जिरा हारिउ १० जूषह छाडि पाटणु राइ इ सती माराच द [ ३३८ ] जयकारी चालो तिन्ह को बात जिणदत्तु ॥ चंपापुरी | तिरी ॥ सषु निकल मयउ विवादणु प्रायच विमलम्मत्तो छाड गपउ अर्थ : - इस वचन के अनुसार उसने बिहारी (मन्दिर) में जाकर जिनेन्द्र की जय-जयकार की तथा उनकी वार्ता चलाई। "जुए में सब द्रश्य हार करके जिनदत्त वहाँ से निकल गया ( भागा ) । पाटण को छोड़ कर तथा रात-दिन चल करके चंपापुरी माया तथा यहां वह सती मिलती को छोड़ गया " ॥ ३२६॥ा [ ३३६ | कोलह बइठी नारी जेठी, बाडी मोही फुरसी गउ कहि तू तुतु काली छहि निरवाली ठाल इवा घरि म हउ काल कहि हउ महा गड तपग्रह पूछ तेहि । " को सोइ ॥ अर्थ :- बड़ी स्त्री जो बैठी हुई थी यह सुनकर बोली में तुम से उसके बाद की बात ) पूछती हूँ। मुझे छोड़कर फिर वह कहां गया । (बोने ने उतर दिया ) तू तो डाली है और निरवाली ( उलझनें सुलझाने वाली है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में १०७ ६ किन्तु) कोई (अन्य भी) ठाली (बेकार) है ? इस समय घर जाकर मैं पह पर ऊंगा, जहा रह फ गया ..३ [ ३४० ] दुइजद विवसी जाय वइसी कहा सो कहा । छानउ होइ जाइ सोइ वसपुर राहाइ । तहा हूं तेउ जाइ पहुंता सिंहल दीप भार । विवाही सत्तो सिरियामसी सायर माहि पगा। अर्थ :-दूसरे दिन वह नारी जा बैठी तो वह बौना क्या कहने लगा? प्रछन्न होकर बह दसपुर में रहा और वही से भी जाकर वह मिहल द्वीए जा चढ़ा । फिर वहां श्रीमती से विवाह करके सागर के मध्य गिर गया" ॥३४०1। सागो प्रावण नारि पियखल काही सो भयउ । यूजियि नोरन गहिर गंभीरह पुरिण करय गयउ ।। तू तुह वाली (ग्ली) छहि निरवाली कहिसहु काल सुबास । इसउ कहाई सो बुलाई गयो तुरंत ।। अर्थ :-फिर वह विचक्षरण नारी कहने लगी, प्रागे क्या हुआ ! (मागर के) गहरे गम्भीर जल में डूबने के पश्चात् वह कहाँ मया ? (बोने ने कहा,) हे स्त्री न टाली है और निरवाली (उलझन सुलझाने वाली) है । (आगे की वार्ता मैं कल कहूँगा) । "इस प्रकार यह कह कर यह लौटकर (?) मोन ही वहां से चला गया ॥३४१॥ [ ३४२ ] तीजइ वासार वो अगसरि सिणि वाहो प्राइ । मुरिग सुरिण लिरिया मेला परिया अहा गया सोइ ।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ जिerer afte पइरतु सायद लई विज्जाहरु लइ गय सिंगारम विज्जाहरु श्राहि म श्राप म :- तीसरे दिन सभा में उस स्थान पर आकर बोला- (तब बनि सुनो, जैसे ही वह ( सागर में ) गया, वह छोड़ दिया ( उसे देखकर ) उसको विद्याधर रयनपुर नगर उरो चंपापुरी ले ने कहा ) हे स्त्री ! सुनो, गया। सागर में तैरते हुये ले गए। वहाँ शृंगारमती विद्याधरी को याद कर आया ।।३४२ | अवसर - रथनपुरि | चंपापुरी ॥ सभा [ ३४३ ] पूछइ तोही । कल मोही ।। मी धरण बंगी बोलरण लामो बावण देखित्रि सूतो निबासूती छाडि गय तू तहि वाली (ठाली) छह निरवाली ठाउ इव घरि उ जहऊ काल्हि सु कहिउ जहा गयउ सोइ || छ कोइ । अर्थ :- यह सुनकर वह सुन्दर स्त्री बोलने लगी, "हे बोने मैं तुम से पूछती हूँ, "मुझे वह सोती हुई और निद्रा के वशीभूत देखकर छोड़ कर कहाँ चला गया ?" वह बौना कहने लगा, तू तो काली है और निरवाली ( उलझने सुलभाने वाली ) है किन्तु क्या (तेरी भांति) कोई और भी ढाला है ? अमी तो में घर जाऊँगा । मैं तुम्हें यह कल बतलाऊंगा कि वह कहां गया" ।। ३४३।। [ ३४४ ] सीनिज तिमिज नारी नारी बुलाईवि सा छोड़ खोह बहुलू बहुलू राजा के मन गायक । भयऊ || Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देई देई एते परप घर‍ फ बौने के रूप में जाम तहि बहु जाम छुट्ट पट्टश्षि रयण बंधरण समस्थि । हस्थी ॥ नारियों को बुलवा कर अर्थ :- ( इस प्रकार ) तीनों की तीनों ही ( उनसे बातें कर ) वह गया जिससे राजा के मन में अत्यधिक कृपा पूर्ण स्नेह हुआ। वह उसे बार बार में रत्न देने लगा । उनी क्षा नगर में बसे एक हाथी खुल गया ||३४४ ।। छोह - कृपापूर्ण स्नेह [ ३४५ 1 मय भिभलु गउ अंकुस मोडो खंभ उपाडि बंसलि तोडि । साकल तोडि करि चकवूनि गयउ महात्रतु घरको पूतु ॥" गयउ महावत्यु रायरी जिस्म गज भूडउभऊ प्रवद्दत्थु । हउ उचरिउ जुन खूट कालू त डिउ तोडिनु भालु ॥ - *** अर्थ : - वह मद् विह्वल ( हाथो ) अंकुश को मोड़ ( न मान कर ) करके, जम्भे को उपाड तथा तोड करके वह पुष्ट दांतों वाला (हाथी) चला गया। सांकल को तोड़ कर उसने चकनाचूर कर दिया तथा वह महावत घर की ओर भाग गया। महावत नगरी में जिधर गया, वहां हाथी से भयभीत होकर लोग कहने लगे, मैं ( किसी प्रकार ) उबरा ( बचा) बहू मानो काल ही खुल गया हो । सब वह विनाश करके शिर तोड़ने लगा ||३४५ ऊसल पीन पुष्ट । सुड़ मुद् - विनाश करना वस्तु बंध [ ३४६ ] सरण तास रसुंडु सपड़ भू भंजणु बिसमु । धरs वी धिक्कार सोट्टड, गुभु गुर्मति प्रतिलिनियरु | उरि लोग भय कालु छूट, विद्ध सह मंदिर समल तरुवरु ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरगवत्त वरित धरणा उप्पाष्टि रत्ह नयर, भंग पsिa fer गयंद धरणमारि । डुद्धय गणवरु धरण न जाह तदिविष्कार भई लोग ११० अर्थ :- उसके जो दाँत थे भूमि को भयंकर रूप से नष्ट करने वाले ( हो रहे ) थे । बडे बडे वीर उसको पकडे हुये थे और उसका ( मयंकर ) चीत्कार था। उसके पास भ्रमरों की पंक्ति गुंजार कर रही थी। लोग डरने लगे मानों साक्षात् काल ही छूट गया हो। वह मकानों तथा सभी वृक्षों को नष्ट कर रहा था । रल्ह कवि कहता है कि सारे नगर में अत्यधिक उत्पात हो गया था तथा लोग सोचने लगे थे कि हाथो को कैसे मारा जाय । वह दुर्घ ( भयंकर ) हाथी पकड़ा नहीं जा रहा था तब लोग पुकार करके भागने लगे थे ।। ३४६ ।। [ ३४७-३४८ ] दंतुसलि खूवंत 1 फिरह तल की माटी ऊपर करद । सो मयमंतु रा लेखड़ कासु, वा उउणु कियड निरखासु || छदि रहे । तीन दिवस तहि छूटे कले, बाज' "उही नमरहं फिर भाजि लोग डोंगर हास्थिउ माटिउ ज फोड भरड || अर्थ :- वह पुष्ट दांतवाला हाथी पृथ्वी को खूद रह् था तथा नीचे की मिट्टी को ऊपर कर रहा था। वह मोन्मत्त हाथी किसी से भी नहीं समझ रहा था तथा (जिराने ) धनों और उद्यानों को निर्वास नहीं रहने योग्य) कर दिग्र था ।। ३४७ ।। इस प्रकार उस हाथी को छूटे हुये तीन दिन हो गये थे और लोग भाग करके टीलो पर जा सढे थे। नगर में बाजे के साथ घोषएस किरने लगी थी यदि कोई हाथी को मार कर भी पकड़ेगा ॥ ३४८ ॥ बंतूसली पुष्ट दंत - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौने के रूप में । ३४१-३५० । जो भाजद गयवर भडवाह, परिणइ कुमरि वेस प्रधराउ । एतिउ बोलु वावरणइ मुरिणउ, हायटेकि फरिण बोलइ तणाई ।। परि विरुद्ध गयवरु अामाइ, झूठे होह त कोजइ कार । साखो करण ते दिये हारि, सई राजा परिगहु बहसारि ।। अर्थ :--''तथा जो भट उस गजराज को प्रष्ट कर देगा, उसे वह अपनी लड़की परणा देगा तथा प्राधा राज्य देगा।" यह घोषणा बौने ने सुनी, तन्त्र हाथ टेकते हुए उसने यह बात स्वीकार कर ली ।।३४६।। (राजा ने कहा) "यदि तुम हो । बिरस का मू प्रमाणित हो तो हम क्या कर सकेंगे ?" यह सुनकर साक्षी के लिये (बौने ने) हार दिये तब राजा ने उस पर अपना परिग्रह (विश्वास) बिशपा ॥३५०।। परिगह / परिग्रह-ममत्व । नए – विश्वास करना । ३५५-३५ । ३५१-३५२ ] वीतराग को प्राण जु मोहि, पाथइ जाणीव वाहरि । राजासह कौतूहल चला, वाधरण पासि लोगु बहु मिला ।। ठाट विरुद्ध रु गयवरु (ग) हा, सुइरी विजातारणी तहा । देखि हाथ बोलइ जु पचारि, काहि पुर पालिय उजाडि ॥ अर्थ :--मुझे वीतराग भगवान की प्रान (सौगन्ध है यदि मैं) इस कार्य को न कर । राजा स्वयं कौतूहल वश वहाँ गया तथा उस बीने के पाम बहुत से लोग इकट्ठे हो गए ।।३५१।। यह बौना गजराज के सामने जाकर खड़ा हो गया। तारणी विद्या को उसने स्मरण किया। उस हाथी को देखकर वह उसे ललकार कर बोला, "तुमने नगर को क्यों उजाड़ डाला है" ॥३५२।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवस चरित साइ । सई-स्वयं । सुइर स्मृ - स्मरण करना । हाथ 2 हरितन - हाथी । पागल हाथी को वश में करना । ३५३-३५४ ] मुगिह मेडक हउ दिख तोहि, गयबरु भसाउ ति सौंहो होहि । गयवर वोह कोह व (लि) वंड, जिरणवत्तह निरखे भुज पंड ।। क्यसित हापि प्रकावसि धरत, चक्क भवणु लइ गयवरु फिरिउ । हाकि वीर बोला मुनिबाण, अरे वेड़ तौहि य हर पाराणु । अर्थ :-- (बौने ने हाथी कहा, "सून, मैं तुझे भीरु देख रहा है। यदि तू भला और श्रेष्ठ गज है तो मेरे सन्मुख हो । उस बलत्रान गजेन्द्र ने मार्ग दे दिया जब उमने जिनदत्त के मुजदंर को देखा ।। ३५३।। प्रविष्ट होकर उसने हाथी को पकड़ा तो हाथी उसको चन-भवन लेकर लौट पड़ा । वीर (जिनदत्त) उसे हांक करके निदान बोला, "अरे सेवक, तुझमें यही नारण (बल) है" ।।३५४॥ भेडक -- भीरु, कातर। दीह / वीथी-रास्ता, मार्ग । । ३५५-३५६ । सुडि पूछ धरि देखउ तोहि, गमयर भलो सिसौहउ होहि । नजि पूष जज परिउ तुरंतु, भव लावत लपच जिणवत्तु ।। पहरु एकु धरि फेरित जान, खेव विषण भर गयवरु ताम । महि गपवर की गड्रिी गाज, जहि गयवरु भय पिरथी भाज ।। ___ अर्थ :- (जिनदत्त ने कहा,) तेरी सूड एवं पूछ पकड़ कर देखूगा । श्रेष्ठ गज, यदि तू मन है सो सम्मुख हो ।" उसने शीघ्र ही जब हाथों को Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में सूड एवं पूछ को पकड़ लिया । जिनदत्त ने उसको उसके भव (जन्म) का जान कराते हुये पकड़ा ।।३५५११ उसने एक पहर सक एकह कर घृणा : चंद्र श्रेष्क मज लेन-दिम् हो गया । जिम येष्ठ गजराज की गहरी पर्जना थी भौर जिस श्रेष्ठ मज के मय से पृथ्वी भागती घी ॥३५६॥ साव .. लापय् - बुलवाना, कहलाना । [ ३५७-३५८ ] जहि गयवर का मोह हियउ, सो पावसे विललो कियउ । शो गयवर गश्वर हर माण, रण गराइ सोहहि माल पराण ॥ बेडु ड स पहारहि करह, तहि बावणे जोति निरकरइ । धरि वंतूसरि मूठिहि हयउ, चढिवि फंधि करि अंकुस तया ॥ अर्थ :-जिस हाथी का मोटा (बड़ा) हृदय था, उसको उस बौने ने रुवामा (रोने पर तुला हुना) कर दिया । ओ गज श्रेष्ठ गजों के मान (अभिमान) का हनन करता था और सिंह को नहीं गिनता था, जो ऐसे प्रक्षत प्राणों का था ||३५७|| जो अपने प्रहारों से (अपने) बड़े बन्धन को जूट-वालों के जुड़े (का सा) कर डालता था, उसे वह बौना निश्चित रूप से पराभूत कर रहा है । द्राथी के पुष्ट दांतों को पकड़ कर उसने मुट्ठी मारी तथा कन्भे पर चढ़कर अकृण ले लिया 1।३५८।। ऊसर असल - पुष्ट । , १. मूल पाठ - मोटट ३. इस चरण का दूसरा पाठ :–बावण जंघ अब ललि नीसए। अयं :-उसके (हाथी के) दोनों जंघामों के नीचे से वह बौना निकल गया। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवस चरित । ३५६-३६० ] हथिया पानि खंभ पंधि ठाउ, जय-जयकार लोकु सहु किया । हाथि जोडि फुरिण विणवह तेव', पुत्ति लगण छिकार्वाह देव । बइठो मार गिरणेसर भवरण, पूर्वाह निय गुरु कारजु महवणु । सब पुरु सामि प्रभो भयड, हामित्र पणे वावणे परिउ ।। ___ अर्थ :-(तदनंतर) हाथी को लाकर उसके स्थान पर उराने खंभे मे बांध दिया। (इससे) सभी लोगों ने जय जयकार की। हाथ जोड़ कर फिर यह बौना विनय करने लगा, हे देव, "(अब) अपनी पुत्री का लग्न दिखाइये (विवाह कीजिए)" ||३५.६। राजा जिन मंदिर में जाकर बैठ गया तथा वहाँ पर अपने) गुरु से उस राजा । सायंचय पूछ । गो पुरुषों को आश्चर्य हुना कि इस बौने ने हाथी को अक्षत (बिना किसी चोट फेट के) पकड़ लिया ॥३६॥ महवरघु। मधवन - इन्द्र १. मूल पाठ - 'सेव' अद्भुत कार्यों का वर्णन ३६१-३६२ । भवियज बात कह निव सम्वणु, एही बात अचंभउ कवणु । फोडि एग्यारह नूवा खेलि, माता पिता छोडि गउ मेसि ।। अहि परकम्म प्रइसा सहज, नह को पौरक्ष केत्तर कहज । मो मोहिन पूतलिय पहाय, पुण्यवंत को सका पहारण ।। अर्थ :-श्रमण (गुरु) ने निश्चय रूप से कहा, हे भव्यो, ऐसी (इस) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में सात में प्रचम्मा ही क्या? जो ग्यारह करोड़ जुत्रा में हार गया तथा माता पिता को छोड़कर चला गया ॥३६१॥ जिसने पराक्रम (पुरुषार्थ) ऐसा पाया, उसके बल पौरुष के विषय में कितना कहा जाय । जो पत्थर की पूतली को देखकर मोहित हो गया । उस पुण्यवंत को कितनी प्रशंसा की जावे ॥३६२१॥ अछे । अक्षत - विना अंग मंग किये। भवित्र । भविक - मुक्तिगामी, मन्य जीव । परकम्म / पराक्रम । [ ३६३-३६४ } परिहसु लियउ विसंतर करइ, हि को हाथ मजणी चा । सकल प्रवर पहोइ जोइ, सहि किड पौरुष कइसर होह ।। फिरिउ भनेयह सागर योप, पोपी सम्परबत्त समीप । सिंहस हंसकूट देखियउ, तासु वीर को कसौ हिपत्र ।। प्रर्थ :-जिसने खुशी के साथ परदेश गमन लिया तथा जिसने अपने हाथ से अंजनी (मुटिका) चढाई । जिसने सुखी (वाडी) हरी कर दी। ऐसे (पुरुष) का और कैसा पुरुषार्थ होगा ? ॥३६३।। ज्ञा पापी सागरदत्त के साथ अनेक दीप समुद्रों में घूमा । जिसने सिहल एवं हंसकूट देखा, उस वीर का हृदय कैसा होगा ? ।।३६४॥ [ ३६५-३६६ मालिण तणो नास निसुरगाह, मीच पराई मरण आइ । गयो प्रसारण मडउ प्रारिणयज, ग्रहो भविया सह कसो हियड ।। सिरियामती उब (२) नीसरयो, जिरण विसहर सयस लोय हरित । कासु पूछ परि ताइ जोइ, तह कर पौरिषु कवसङ हो । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणदत्त चरित अर्थ :- "मालिन से वार्ता सुनकर जो दूसरे की मृत्यु में मरने के लिये गया, जो श्मशान जाकर मुरदे को लाया । हे भव्यो, (तुम ही बताओ ) उसका हृदय कैसा होगा" ? ॥ ३६५॥ ११६ "श्रीमती के पेट में से निकलने वाले जिसस ने समस्त लोगों का संहार कर दिया था, उस काल की (सर्प की) पूछ पकड़कर जिसने (बौन ने ) ताड़ना की ऐसे व्यक्ति का पौरुष कैसा होगा ? ॥३६६ ।। [ ३६७-३६६ } कर अकेलउ सायर झंप, तहि जस मगर मध्य की प गयउ पतालहि पारिज साहि, तहि की पौर कहियह काहि ॥ फोडि नीर उछलिउ बलिकंठ, पुणे पेरिय समुद्द भुजवंड हाकि विज्जाहरु सिह र भिडाइ, तिहि पौरुष कहि हिषइ हुइ वावरण त्रु सत्ती बुलाइ ऐसा मंतिह हिमइ मरिचिति विवाणु जिहु लयज लाह वीर को कैसो समाइ ॥३ समाइ । हिउ || अर्थ :- जो अकेला समुद्र में कूद पड़ा, जहाँ मगरमच्छ वगैरह कूदतें हैं, जो जल के सहारे पाताल लोक में चला गया ऐसे ( मनुष्य के) पीसम के बारे में क्या कहा जा सकता है ?" ॥३६३|| "वह पराक्रमी जल को फाड़ कर उछल आया, फिर उसने अपनी भुजाओं से समुद्र का संतरण किया तैर कर पार किया) । विद्याधरों को ललकार कर वह उनसे भिड़ गया। ऐसे पुरुषार्थी का वल किसके हृदय में समा सकता है ?" ।।३६८ ।। बीना होकर जिसने सतियो को बुलवा दिया और जिसकी हेला ( धाक) मंत्रियों ( ? ) के हृदय में समा गई, जिसने मन चाहा विमान प्राप्त किया, ऐसे वीर का हृदय कैसा होगा ?" ॥ ३६६॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में ११७ [ ३७०-३७१ ] विमा वलाह जहि अर्थाह पास, डिषि विमाणु गयौ कलाप्त । तिह भवहि जहि करी खियाति, हथिए... वपुडा केतो बात ।। तउ बाबरणउ हकारिउ राइ, पूछउ वात कहज सतभाउ । तू परछण्ण बोर हहि ..., प्रापउ किन पयासहि मोहि ।। अर्थ :-''जिसके पास विद्यावल है, जो विमान पर चढ़ कर कैलाश गया था, जिसने तीनों भुवनों में अपनी ख्याति करली थी, ऐसे वप्युडे (बेचारे) की कितनी (क्या बात है" ॥३०॥ सब बौने को राजा ने बुलाया और पूछा, “तू मुझसे (अपनी) वाता सतभाव (सत्य रूप) से कह । हे वीर! तू छिपा हुषा क्यों है ? तू किस कार्य के लिये पाया है जिसे प्रकाशित नहीं करता (बताता) है? ||३७१।। हजार / आकारम् - बुनाना । पयास् / प्रकाशय - प्रकाशिन, करमा । ! ३७२-३७३ । गात मलखण कहियइ कार, मूडिउ मडु चोटी फरहराइ । जिहि भोयरा भित्या कोय, सो किम परिणद राजा धोय ॥ जाति विहीण देव वावराउ, बार वार सत चूफर भगउ । पाछह लोगु हसइ मो बघणु, फूजर कंठि कि मोहइ रयण । अर्थ :-(बौन ने कहा ) "जिसका शरीर लक्षणों रहित है, उसे क्या कहें ? जिसका शिर मुडा हुआ है तथा चोटी फहरा रही है, जिसने मिक्षा का भोजन किया है वह राजा की कन्या से कैसे विवाह कर सकता है ?" ॥३७२।। "हे देव 1 जो जाति विहीन तथा बौना है तथा बार बार सत्य से चूके वचन बोलता है और पीछे से जिसके वचनों को सुनकर लोग हंसते हैं। क्या Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त चरित हाथो के गले में रत्नों का हार शोमा दे सकता है" 11३७३।। रया - रत्न । ३७४-३७५ ] कहा कुमरि मुहि होणे बोन, परिहनु मरउ लेह कोई छीनि । घाली जाइ देव जिट पाल, गावह गलं रयण को माल । पापुहाव कहिया काइ, छेलो मुह किं मालियर माइ । अनई देव न पावज कला, वांविर करि रयण मेखला । अर्थ :- मुझ हीन वो राजकुमारी देने से क्या नाम ? परिहास के कारण मैं मरूंगा और कोई उमको (राजकुमारी को) छीन लेगा । हे देवा यह वैसा ही होगा जैसे गधे के गले में रत्नों की सुन्दर माला डालदी जाए ॥३७४।। अपने लिये मैं और क्या कह सकता हूँ । बकरी के मुह में क्या कस्तूरी समाती है ? हे देव! बंदर को कटि में रदन मेखला कला (शोभा) नहीं प्राप्त करती है ॥३७॥ [ ३७६-३७७ । धात्र सु कहा करह रविषाम, भुजिज जोडि जाइ परिणाम । प्ररण छाणत इह सा सब कोइ, बोले कहा सवारय होई॥ वेह कुछील हाय इकु काय, प्रांगुल चारि चारि मो पाप । सोचे-थु जग रु साकडी, खालउ पेट पीठि कूबडी ।। अर्य :- 'मयं के धाम में जाकर घृग्यु (उनुका) क्या करेगा ? उसे वहां जाकर उसका परिणाम भोगना पड़ेगा । यहाँ म। अनचाहा हो रहा है । मरे बोलने से क्या स्त्रार्थ निकलेगा। ।।३७६।। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी देह कुत्सित है लंबे पैर हैं । घारीर जैसे है ।। ३७७ ।। कुछील / कुद्रित ८ कुत्सिल । बौने के रूप में तथा एक हाथ का शरीर है। मेरे चार २ अंगुल लकड़ी हो, पिचका पेट है तथा पीठ कूबड़ौ [ कपाल निधान, उसरण वातलय पूचे कान | खि कुबाल कुही ऐसी देव मोकडी, श्रछ कपोल १ नाक छोपडी ।। कामकला तिहि तेरी कुमरि, रंभ सरंभ तिलोत्तम गवरि । जोग मोहरिय मृग लोपणु जासु, सा किमु सोहड मेes पस्सु ।। ३७८ - ३७६ ] अर्थ :- लाख बेढगी हैं तथा कपसल गड़ा हुआ है। दांत हसिया (जैसे ) तथा कान बुने हैं। ह्र देव कुहनी जंमी मुंगरी हो, गाल बैठे हु तथा नाक चिपटी है ||३७|| — ( दूसरी ओर ) तेरी राजकुमारी काम की कला है। बहु रंभा, तिलो तमा एवं गौरी है । वह जगत् मोहिनी है, जिसके लोचन मृगों के जैसे है । यह मेरे पास कैसे सुशोभित होगी ? ॥ ३७६ ॥ B दातला / दात्र घास काटने की हँसिया । बैठना । अछ् ८ ग्रास १. कपाल मूल पाठ है । ११६ [ ३८० - ३०१ ] पडही नयर माहि याजहि गयषर वर कन्य धरिम हाथ मइ मंतिहि तव हिप बेटी देहि कुचालि म परणे । वावरण भाट, ग्रंथ उठि जाउ प्रापणी वाट || कंपियज, कूड चालि, कोली मंतु देउ सबु क्रिमज । लागि म देवतु ढालि ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त परित अर्थ :-"नगर में पटही वन रही थी कि हाथी को वश में करने वाला कन्या को विवाहेगा। हाथी को बौने भाट ने पकड़ा है और अब मैं उठ कर अपने मार्ग को जाता हूँ' ।।३८०।। मंत्रियों का हृदय कांपने लगा तथा उन्होंने कहा, "हे देव ! समस्त विचार फूट (बुरा) किया है । प्रानो पुत्री को हमें देकर कुचाल मत चलिए कोली के लिये देवल में मत गिराइए ।।३८१।। हाथ हस्तिन - हाथी। [ ३८२-३८३ ] प्रबरु भगइ देव अंसी कीश, लिप राइ एक कह दाज । मेरी वात जिरण करहु संदेहु, फुड वयणु भइ अखिउ एड्छ ।। जइ पहु कइसई पीय न देउ, तर यह सयलु अंतेउरु लेइ । राजा मंतिहि समुद वहाइ, नयत आधुणी प्राणु विवाद ।। __अर्थ :-वह फिर कहने लगे, "हे देव ! ऐसा करिये । इस कन्या को एक राजा को दीजिए । मेरी बात में पाप सन्देह न कीजिए: मैंने प्रापसे स्फुट (स्पष्ट) बचन कहा है" ॥२८२।। "अदि हे प्रमो ! किसी प्रकार लड़की को नहीं देते हो तो सात अंतःपुर यह (ऐसे ही) ले लेगा (करेगा)" राजा ने मंत्रियों को विदा किया और अपनी नगरी में उसने माझा दिलाई (प्रमारित की) ।।३६३।। [ ३८४-३८५ ] भंती रहे ह्यिइ फरि संक, राजा कइ मनि पइठी संक । बार वार भए गह्यिइ कोइ, अति करि मथियउ कालकुट होइ ।। सह फरायड सोरघु गंधयु, पृथ्वइ राउ कहत रु सम्बु । तुह कउ प्रारिण जिणेसर सरणी, फुडी बात कह सब मापुरणी ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में अर्थ :-मंत्रीगण हृदय में संका करते रहे तथा राजा के मन में भी काका बैठ गयी । मार-बार मन को कोई टटोलने लगा । अत्यधिक मथने से काल क्रुष्ट हो जाता है ॥३८४।। ____सत्र श्री रघु (नाम के) मंधर्भ ने (बौने से) कहा, "राजा पूछ रहा है (अस.) तुम्हें सब कुछ कहना चाहिए; तुम्हें जिनेन्द्र की सौगन्ध है अपनी सब स्फुट (स्पष्ट) बात कहो' ।।३८५।। [ १८६-३७ । सुणि सुरिण देउ कई सतभाउ, कहियद सा वसंतपुर ठाउ । माता जीवंजस पिय स्खौर, पिता ओमधेष साहस थोर ।। एक पूतु हा तिट परि भयज, पुणु जिरत नाम मह व्यउ । हारिउ सामिय जूवा दग्द, कियउ विसंसरु वित्त परि गा॥ प्रय :- (बौना बोला) हे देव ! सुनिए, सुनिए । में सत्यमाव से कह रहा हूँ । “उस (मेरे स्थान) को वसंतपुर कहा जाता है। जिसका मैंने दूध पौया है ऐसी मेरी माता का नाम जरेवंजसा है तथा मेरे पिता साहमी जीवदेव है" ||३८६।। “उनके घर में मैं एक ही पुष हुआ, तदनन्तर उन्होंने मेरा जिनदत्त नाम रकबा । हे स्वामी ! मैं जुए में द्रष्य हार गया, इसलिए चित्त में गर्न धारण करके मैंने मिदेश (जाने) का निश्चय किया" ।।३६७ [ ३८-३६ ] प्रासा कार हर अरिणयउ मात्र, तो किमु छोडि दिसंतक माइ । धन को हियर म फादर देव, मह मिथु बाप म बोवा केव । दोठे अस नयर बहु घणे, हेटे चोप समुह रणे । वारह चरस विसंतर गए, न जाएज माय बापु कहा भए ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जिणदत्त चरित मर्थ :-"मुझे मेरी मां ने बड़ी आशात्रों से पैदा किया था । उसे छोड़ कर विदेश में क्यों कर गया ? हे देव ! मेरा बच का हृदय नहीं फटता है । मेरे बिना मेरे पिता भी किसी प्रकार मान रहा । ___ "मैंने बहुत से देश और नगर देते तथा अनेक समुद्रों एवं दीपों की यात्रा की । विदेश भ्रमण करते हुये बारह वर्ष बीत गये, पता नहीं मेरे माँ-बाग का क्या हुआ" ॥३८६ [ ३६०-३६१ ] इहा पररणी विमलामती, सिंघल बीपि सिरियामती । पुरिण परिणिय विज्जाहरि, सो कह लड़ पायच चंपापुरी ।। विमलसेठि देव तणइ बिहारि, मई तु सुसाइय तीनिउ नारि । को तहि मरद यहतु काह वत्त', ते सीनिउ सु अम्हारी कलत ।। अर्थ :-"यहां मैंने त्रिमलमती के साथ विवाह किया तथा रािहल द्वीप में श्रीमती के साथ (विवाह किपा) । फिर विद्याधरी स्त्री रो विवाह किया और उसको चंपापुरी लाया" ।।३६०॥ "विमल सेठ के जिन मन्दिर में मैंने जिन तीनों स्त्रियों को बुलाया था वे तीनों ही मेरी पत्नियां हैं" लेकिन बहुत सी बातें कह कर कोन मरे ? (कहने से क्या मतलब)।।३६१॥ १. मूल पाठ - 'चाल' । ३६२-३१३ । जे से बछ तुम्हारी नारि, किम पत तो मिलधर वइसारि । फुडउ वयण जा यह तुम्हि देत, इह तुतु काइ विवाह बीस ।। जइ ते कहि हमह पिंउ पाहि, बीस फुर्मार मांगर कनु पासि । एक कुमरि बइ सहि न जाहि. वीस कि तीस विवाहहु काहि ।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में १२३ अर्थ :-राजा ने कहा, "हे वत्स ! यदि वे तुम्हारी पलियां हैं तब (उन्हें) बैठा कर मिल क्यों नहीं लेते ? यदि तुम स्फुट (सत्य) बचन कह रहे हो तो इन बीम (?) स्त्रियों के साथ तुमने क्यों विवाह किया ?" ।।३६२॥ ___ यदि वे कहेंगी कि तुम हमारे प्रिय पति हो तो वे बीस (?) पलियां किससे (कुछ) मांगेंगी ? तुम जब एक स्त्री को नहीं दे सकते हो, तब तुमने फिर बीस-तीस (2) के साथ विवाह क्यों किया ? ॥३६३॥ देम – कहना। बोल बोल वावरण तुरंड करइ, राजा बोल तु सासा पडा । मंत्री को मंत्र धरि ठाणु, इव तुह एकह कुमरि परिमाण । श्री रघुराइ पठायो दूतु, जाइ विहारह वेगि पहत । हाय जोडि बोलइ सतभाउ, तुम्ह पुणि तिल बुलाषा राउ । प्रभ :---बौना बोल बोल कर बुद्धि (भूल) कर रहा था पोर राजा के बोलते ही वह संशय में पड़ गया । मंत्री ने मंत्ररणा कर निश्चय करके कहा, "जम्हे अब एक ही कन्या व्याइनी है" ।।३६४॥ __ श्री रघु (गंधर्व) को राजा ने दूत बना कर भेजा । वह जाकर शोघ्न ही विहार (जिन-मन्दिर) में पहुँच गया । वहाँ हाथ जोड़ कर वह सत्यभार में कहने लगा, राजा सुम गीनों को पुन: बुला रहा है" ||३६५।। [ ३६६-३६७ ) एतउ वातु सवरण जघु सुरहि, लोभिज राउ परंपरु भगाई । काऊसगि रही तिह लाइ, प्रछीस ताहि झाण मणु लाद ॥ बाहुडि दूतू न बोलइ बयण, चहि रण देव रण वाहि नपर्नु । शो मद क्षेत्र धुलाई सही, तौनिउ झारण मजण सड़ रही। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जिणदत्त परिक्ष अर्थ :-यह बात जब कानों से उन्होंने सुनी तो वे प्रापस में कहने खगी, "राजा लुब्ध हो गया है ।" फिर वे कायोत्सर्ग में (स्थित होकर) वहीं पर ध्यान मग्न हो गयीं ॥३६६।। यहां से लौटकर वह दूत बोला, हे देव ! वे न बोलती हैं और न नेत्र डुलाती हैं । ज्यों ही मैंने उन सभी को बुलाया तो तीनों ध्यान तथा मौन धारण कर बैठ गयी ||३६७।। वाहुड़ 1व्याघुट - लौटना। [ ३९८ ] वृत वयण मुरण वियसिस राइ, रे वावरणे यह तेरो बाउ । बायण भगह पलहु तिह ठाइ, तिनसि नरवह बोलहि काइ । अर्थ :-दून के वचन सुनकर राजा विकसित हुआ (मुसकराया) और कहा, "हे बौने ! यह तेरा स्थान है ।" (यह सुन कर) बौने ने कहा, उस स्थान पर चलिये, उनसे नरपति क्या बोलेंगे' ||३६८॥ नाराम छंद तीनों स्त्रियों से पुनः साक्षात्कार .. ! ३६६ ] राजा परजा लोगु बागु गयउ विहारि । बइठे प्रागे प्रकरण लागे सिहुई हकारि ।। अहो तोया पूछन सीया बाप्त एक तुव भणी । हम ए पत्तीजह ररह कहाइ मेरो एती तौनिउ धनी ।। अर्थ :--राजा प्रजा और लोग-बाग (जनसमुदाय ) उस विहार में गणे और (उनके आगे) बैठकर तथा उन्हें बुलाकर पूछने लगे। हे सीता के समान Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में १२५ नारियों तुमसे हम एक बात पूछते हैं । राह कवि कहता है हम (इसकी बात पर) कि ये तोनों ही मेरी स्त्रियां हैं, प्रतीति नहीं करते हैं" ।।३६६।। [ ४००-४०१ । विमलामतो कहइ बात सुरिण हो स्वामी ताता । यहु तउ वांवरणउ भइ दोरणा बरणउ कहा हमारी कंता ।। ग्रम्ह पिउ चंगु सुगुणगुण मुठि माह रुवाउ । इहु वोलह झूठउ विरह न बोठउ दोराउ कूवार ।। पुणु पण गे बोला निता गेलइ परे प्रचागले । कि बोलहि नारी भिक्खाहारी जोह भागले । म्हारी फंता जो जिरणवत्ता वह छह घराउ । तू तहु वायण करहिन मगु रंजावहि लोयण तरराज । अर्थ :-विमलामती कहने लगी, "हे स्वामी और तात, बात मुनो यह तो बौना है तथा अत्यन्त दीन बचन कहने वाला है और यह अपने को हमारा पति कहता है : हमारा पति स्वस्थ है, पर्याप्त सद्गुणोंवाला एवं अत्यधिक रूपवान है । यह झूठ बोल रहा है । हमें तो विरह में यह दीन कुत्रा दोखा भी नहीं है 11४०७।। तू बार बार यही कहता है और तेरा चित्त, परे दृष्ट (इस प्रकार) डोल गया है ? अपनी जिह्वा के अग्रभाग से ऐ भिक्षा मांग कर खाने वाले ? तू क्यों कहता है कि हम तेरी पत्नियां हैं ? हमारा स्वामी तो जिनदत्त है जो अत्यन्त रूपबान है । तू तो बौना है, करही है, तथा अपनी अस्ति एवं शरीर में लोगों का मनोरंजन करने वाला है ।।४०१॥ अइ /. अति । करही - ऊँटनी पर सवारी करने वाला । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जिणवत्त चरित । ४०२-४०३ ] विज्जारिया बोलइ तिरिया सो जि तुरंतु सुरिण । पिरथी राइ कहियर काई (म) पणो वात पार ।। अम्हह कंता तणिया घाता जागर सबह एहो । गहू जाण एवहि ते मिय (पू)ह हा संदेह ।। तुमि नारि निकिठी तिनिउ भूठी झूठउ यह परिवार । महु मेल्लिवि पिलिपि प्रववि कवणुषि कहल्छु भत्तारु ।। परि संपट लाइ जाइ विसाए फोटउ होहि रे विरूप । पर पिरथी लोए माही कोई प्रम्ह पिय के रूप ॥ श्रर्य :-तदनन्तर विद्याधरी बोली, "हे पृथ्वीपति I तुरन्त सुनिये । अगनी बात क्या कही जाए । यह हमारे पति की सारी बातें जानता है (प्रा) नहीं जानता है, इससे थोड़ा पूछे, जिससे संदेन्न मिटे" ।।४०२॥ __बोने ने कहा, "तुम निकृष्ट नारियां हो और तीनों भूली हो और भूठा ही यह तुम्हारा परिवार है । तुम मुझे छोड़ कर और ठेल (धकेल) कर और किसी को मार कहती (कहना चाहती) हो।" स्त्रियों ने कहा, "अरे लंपट, तू अटी लगा रहा है, रे विरूप तु नष्ट हो: इस पृथ्वी पर लोक में हमारे प्रिय के समान रूपवान कोई नहीं है" ॥४०३।। मिनट मत - भोड़ा, अल्प । [ ४०४-४०५ ] रिगसुण्डं वात विसंतर तरणी, काहे माहि निसु भन्नु धरणी । तुम्हारे दुसह पडिउ संदेहु, तिहि भइ मेरो कुबडी देह ।। टापुण लाग्यो प्यो पज, तहि होइ पार भयो बाबरणउ । तुम्ह विजोग दुख भरिउ घरगाह, जली धेह भई खोची वाह ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में १२७ अर्थ :- (बौने ने कहा,) “विदेश (यात्रा) की बात मुनो; ए स्त्रियों तुम मुझे (इस प्रकार) क्यों मार डाल रही हो (तंग कर रही हो) ? तुम्हारे दुःख में मुझे सन्देह है इससे मेरी देह कुबड़ी हो गई है ।।४०४।। और अब मैं अत्यधिक (दुःखों की) घानी में पड़ गया तो मैं बौना हो गया । तुम्हारे वियोग से अत्यधिक दु रन में मर गया इसलिये देह जल गई और बांह खोची (टेढ़ी) हो गई ॥४०५।। निसुभ L गिसुभ -- नि – शुम्भ – मार डालना । घाण – घानी, कोल्हु जिसमें तिल प्रादि पेरे जाते हैं । पा/ पातिन - गिरने वाला। | ४०६-४०, ] तुम्हहि लोगु दुख भयउ महंतु, बइठे जाडू निकले दंत । परिहसु लियइ हिपई विलखातु, कहइ वावरणउ हो जिलदत्त ।। लए जु हाकट फइसे संत, सउरा न्यों मिलहि न वात । काल्हि जु छाडि गयो वड', सो कि मागु भयो कुबल ।। अर्थ :-(बौने ने कहा, तुम्हारे शोक में मुझे अत्यधिक दुःख हुमा इसलिए गाल बैठ गये और दांत निकल माये । हृदय परिहास के कारण विलखता रहा इसलिए जिनदत्त बौना हो गया ।।४०६।। (स्त्रियों ने कहा, "तुम जो हाकट (?) एस दांत लिए हुये हो, तुम सब बातें (झूठ) मिला रहे हो । तुम कल ही (यदि) द्वार कर गये थे तर तो सुन्दर थे । प्राज कैसे क़बड़े हो गये?" ॥४०७।। १. मूल पाठ - कूबडउ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ન बिगत चरित हृप्पा सेठ की कपा ४०६ -४०६ 1 झूठो भईय तिरिय करहु, मेरे बोल न तुमि गरहु | सद पडे उघाउ कोड, सगे बुषा कहि भोलर होइ ॥ खिसुरिण बावणे होय अजाण, हृपा सेठिरिए वस पठाण | असी कोडि घर व अपार, घाठि कोव करs महारु ॥! [ गनू सबु अर्थ :- (बोने ने कहा.) हे स्त्रियों । तुम झूठी होकर इस प्रकार दुःख ( शोक) कर रही हो । मेरी वाणी पर तुम विश्वास ( ? ) नहीं करती हो । उघाड़े पड़ जाने पर सभी हँसते हैं, सगा "कह कर मनुष्य भोला बनता है ।।४०८ ।। (स्त्रियों ने कहा, ) " ओ हीन और प्रज्ञान बौने सुन। एक हृप्पा नाम का सेठ प्रतिष्ठान में बसता था। उसके घर में अस्सी करोड़ अपार द्रव्य था किन्तु वह स्वयं तो घटिया चावलों का आहार करता था " ||४०६ ॥ [ ४१० - ४११ ] तीनि नारि तह खरी गुणंगु, रूप विज्जाहरि सुठु हृपा सेठि उठि वरिवजह गयउ पठ ब उतारि तेन विट्टयउ, भूवित तिरी धूत एकु धरि भापुरा हपा सेठि सो लीनिउ प्रानि त सोने लेत पटोलो सुवंगु | श्राइ ॥ भयज । भरी ॥ अर्थ :- उसके तीन स्त्रियां अत्यधिक गुणवती थी रूप में वे विद्याधरियों जैसी अत्यधिक सुन्दर थी। जब हृपा सेठ उठकर व्यापार के लिये (विवेश) गया तो वहाँ एक मूर्त आया || ४१० ।। उसके ( गई हुए) द्रव्य की (निकाल ) कर उसका भोग किया ( " ) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के और आप हृप्पा सेठ बन गया। उसकी दी हुई पटोली (रेशमी साड़ी) को लेकर वे स्त्रियां प्रति प्रसन्न हुई और ( उसके साथ में ) ( स्वर्ण से ) ई ११५ प्राकर तीनों ही में [ ४१२-४१३ ] फलेक होइ । दुख हरी || मांडे दूध नियात संजोय, घिव लापसी केला दाख छुहारी खीर खां बिरोजी नितु बडिव जिरसोरा बहु लाज, विलसहि राणी जहसे राज । फूल संयोल कपूर बहुत भइसो भोग करावद भूत || 14 १२६ प्रर्थ :- उन्होंने दूध और नवनीत संजोकर मांडे तथा घी और लापसी का कलेवा होने लगा । केला, दाख, छुहारा, खीर, खांड़ घोर चिरौंजी नित्य दुख हरने लगे । दाडिम, विजौरा आदि बहुतेरे खाद्य से 'भाँति ने विलसने लगे । फूल, पान, कर्पूर आदि का बहुत उपभोग कराने लगा ।।४१२ - ४१३० १. मूल पाठ - व राणी और राजा की इस प्रकार वह पूर्त [ ४१४ - ४१५ ] घाटि कोवई जले जुगात छाडी हप्पा सेठि की बात जिरग चाहुडि भावइ करतार सभ शुखु पुरए ए सु असार । तह दीम्यो वस्तु बधाई, राजा फुल वालउ अपनाई । रिस विगि दह वणिजह गए, परं बेटा बेटो भए । [ कोदच ] [ खाने अर्थ :- किन्तु घाटो ( अथवा घटिया) और कोई से ] उनका गात्र जल गया तो उन्होंने हप्पर से की बात छोड़ दी। स्त्रियां कहने लगी. "हे भगवान हमारा भर्त्तार वापस न थाए, यही हमारा भतार है क्योंकि इसने हमारे लिए सब सुख पूरे कर दिये हैं ।।४१४ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणरत्त चरित उस धतं ने उन्हें अपार द्रव्य दिया । हे राजन् ! उन बालात्रों ने उसको अपना लिया। [सेठ के] वाणिज्य के लिए बारह वर्ष तक चले जाने के बीच उनके बेटा बेटी हो गए ॥४१५] [ ४१६-४१७ । मरिस बारह प्राय: जवरु, घर को विक्रम वोठी अबरु । लहर कहेडे भेट गवर राइ, मछु घर बरसद बोन्यो काहि ॥ तवहि भारत कात हसि कहइ, बात एक कउ कारणु कहह । हप्पा सेठि वह प्रख्या प्रपु, बेटा बेटी केरउ कापु॥ अर्थ :-जब बारह वर्ष पर सेठ घर लौटा तो उसे घर की व्यवस्था दूसरी ही दिखाई पड़ी। बहेडे | ? | लेकर जब उसने राजा से भेंट की तो कहा, "मेरा घर तूने किसको दे दिया ?" ||४१६।। तब राजा ने हंस कर कहा, "एक बात का कारण बता। वह अन्य व्यक्ति भी अपने को हापा सेठ और बेटे देटियों का बाप कहता है" ॥४१७।। { ४१८-४१६ ) हए। सेठि मन बिलखो भयज, मूड खुमाइ परि चठि गयज । नियम विरह न पावद मारण, धूतह दिण्ण राइ की प्राण ।। शियमणि धर्मा गयो सो तित्थु, पारवा सिंहासण हई जित्थु । हाथ जोरि तिनि विनयो राइ, जा पह दीनह करह पसाउ ।। अर्थ :-यह हण्या सेठ मन में दुःखित हुआ और शिर को खुजलाते हुए उठ कर घर को चना गया। इस बियोग के वह कोई कायदे-कानून नहीं जानता था किन्तु उसने तो धूर्त का राजा की दुहाई दिलादी ॥४१८ ।। अपने मन में चौंक कर वह (हमा सेठ) वहीं गया जहां नरपति का Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौने में सिंहासन था। हाथ जोड़ कर उसने राजा से विनती की, “प्रभु, दीन पर कृपा करो" ।।४१६॥ ४२०-४२१ ] सोनिड नारि बुलाबहु आणि, सभा माहि वइसारहु ताणि । कहहु घास फुरिण तुम्ह घरि जाइ, सभा मह हुमा कवरण तुम्हारउ पाहु ॥ किंकर लेण ताह पेठिया, लइ प्राइसु सुह कारण गयऊ । तिहू मारि सिज प्रापइ तित्यु, पुहिमु गाढ़ निय मन्दिर जित्य ।। अर्थ :-(राजा ने आदेश दिया) "तीनों स्त्रियों को बुलानो तथा उन्हें समा में बैठामो और तुम उनके घर जाकर कहो कि सभा में बतानो कि दानों में से तुम्हारा कौनसा पति है" ॥४२॥ उन्हें ले पाने के लिए उसने किंकर भेजे। (किंकर) प्रादेश लेकर शुभ कार्य के लिए नया । तीनों नारियों के साथ वह वहां प्राया जहां पर राजा (पृथ्वीपति) का निज मन्दिर था ॥४२१॥ [ ४२२-४.३ ] धूलहें हारडोर पराय, पतिथि सुखासारण राबसि गइय । पूछइ राउ हियइ वियसंतु, महि कवष्णु तुम्हारी कंतु 11 णिसुरिण वपणु मुह जोयउ तासु, जिसको करतज सेठि विसासु । जेठी घण बोला तहा, गावद सभा बइठा महा ।। अर्थ :-धूतं को लिवाने के लिये हाल डोल भेजा और बह सुग्वामन (पालकी) में चढ़कर राज-मवन गया । राजा मन में हँस कर (स्त्रियों से पूछने लगा, "दोनों में कौनसा तुम्हारा स्वामी है ?" ||४२२॥ इन वचनों को सुनकर उसने उस राजा के मुह की भोर देखा। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जिरणवत्त चरित जिसका सेठ प्रधिक विश्वास करता था। जहां सभा बैठी थी वहां सबसे बड़ी स्त्री बोली ॥४२३॥ { ४२४-४२५ । रहिन भातु घिउ परतिषु मीठ, भान जनम वहिणी किन बोटु । हप्पा सेठि तह घालहु छार, इमु तिह सिड कहहु भत्तारु । कहिङ भतार षत निरु जबहि, हाहाकार अउछ किउ तहि । सभा सोगु हुा भोगे रहिउ, निय सामिज तिन्ह मान वहिउ ।। अर्थ :-(इतो समय एक ने उससे कहा,) दही, भात, घो प्रत्यक्ष में मौटे हैं । अन्य जन्म हे बहिन, किसने देखा है। हपा सेठ पर राख डालो और. इस घुर्त को ही मार (स्वामी) कहो' ।।४२४॥ ___ जब उसने धूतं को ही निश्चितरूप से स्वामी कहा तव दूसरी ने हाहाकार किया। सभा के लोग तब मौन हो गए और कहा, "अपने स्वामी पर तीनों ही खड़ग चलायो ।।४२।। । ४२३-४२७ । जवाह' पर अपरंपर पुछ, रायपमुह र नाणहु भूरु । मेठि धणी रगर यह जाइसइ, णर भद दुल्लह पनि पाइसह ॥ हरतु परतु तिन्द्र घासिद्ध हारि, कभी गरद पड़ी ते नारि । झूठउ बोसि ते एरयहि गई, हम हि तिरिया समु भई ।। अर्थ :-जक दुष्टात्रों ने परस्पर वार्ता की; तब राजा ने सब कुछ (हप्पा सेठ के वचन को) झूठा जाना । उन्होंने कहा, 'यह सेठ और सेठाणी नकं जाएंगे और दुनंभ मनुष्य जन्म पुनः नहीं पायेंगे ।।४२६।। हरते परते उन्होने (इम दुर्लभ मानव जन्म को) हार डाला तथा Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में स्त्रियां कुभीपाक नर्क में जा पड़ी । झूठ बोलकर वे नर्क गई। हम उन स्त्रियों की भांति (नहीं) हो गई है ? ।।४२७।। [ ४९८-४२६ ] भरगद वावणउ तुम्ह अलिय म चबहु, जैसे होइ तुम्ह पिउ सेसों मुहि करहु । लछण यतीसह परिचिउ अंगु, रूप देखि मोहियइ अनंगु ।। सिह थापियो पटोलो दलि, (विजा) वन्तु रूपिणी सभालि । छाडी बावण कला हीर्णगु, भयो जित सामले मंगु । अर्थ :--उस बोने ने महा. "तुम भी मत जोलो साहारः पति था वैसा ही मुझे करदा ।" उसका शरीर बत्तीस लक्षणों मे युक्त हो गया जिसे देखकर कामदेव मो माहिल हुश्रा ।।४२८।। उसने अपना गिर रेशमी वस्त्र डाल कर इक लिया तथा बहुरूपिरगी विद्या का स्मरण किया । ह्रीन अंग बौने की कला छोड़ दी, तब जिनदत्त सांवले शरीर का हो गया ।।४२६।। अलिय 2. अलीक-मसत्य । [ ४३०-४३१ ] सोस उघाडि धालियउ रालि, मोही सभा सयलु तिहि काल 1 तिहू नारिस्थु फहद हसंतु, हबहु ति तुम्हारउ कंसु ।। देखि तिरी ते प्रचरिजु भयउ, चाहहि निरलहि ते विर्भा । अपरंपर ते कहइ जोइ, किछु किछु होर किरनि होइ ।। अर्थ – शिर उघाड करके तया पैरों में राल (रंग) डालकर (बहपाया) तो उस समय उसका रुप देखकर सारी समा माहित हो गई । उम ने तीनों स्त्रियों से हंसते हुये कहा, "अब मैं तुम्हारा पति हूँ ॥४३७।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जिरणवस चरित यह 'देखकर तीनों स्त्रियों को प्राश्चर्य हुआ तथा विस्थित होकर वे उसे ध्यान पूर्वक देखने लगी। वे परस्पर कहने लगी, (हमारा पति) तो यह है कुछ कुछ है और कुछ कुछ नहीं है (ऐसा विचार करने लगी) ।।४३१।। [ ४३२-४३३ ] विज्जारिय काहत हा बाप्त, संभलि पुहम ताह मुह बात । या विमा खेला धावललः देम पिउ देख माहीं सावलउ ।। पुणु पन्चानु भयो जिनवत्त , बत्तीसह लखण संजुत्त । छाडी सामन वण्णी छाय, भई देह सोने की काय ।। अर्थ:-विद्याधरी बात कहने लगी ।हे पृथ्वीपति ! उस की बात को स्मरण कर | यह बावला तो विद्या के खेल खेल रहा है हमारा पति तो है देव ! सोने का सा है। सांवला नहीं है ।।४३२।। तब जिनदत्त प्रत्यक्ष हो गया तथा वह बत्तीस लक्षणों वाला था । सांबले वणं को छाया छोड़ दी और उसको देह सोने की काया हो गई ।।४३३।। ] ४३४-४३५ । विमलामती का लडि पठई, सिरियामसी पाय पाकई । विज्मार लागी उठि वाह, प्रबहु खाडी जाही जिणनाह ।। जेठी बोला मोहि छाडि देवस पह, पूजी बोलि मोहि मेलि सायर पजिइ । तीजी बोलई छोडि गयउ तुरंतु, किन पिय समलहु फल्हि को बात ॥ अर्थ :-- विमलामती दौडकर उसके कच्छ (कटि) से लिपट गई तया श्रीमती ने उसके पांव पकड़ लिये । विद्याधरी उठ कर उसकी बाहों गे जा लगी और कहने लगी अब पाप हे नाथ ! छोडकर न जाए. ।।४३४।। सबसे बड़ी बोली, "ये मुझे मंदिर में छोड़ कर चले गये थे"। दूसरी Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौने के रूप में १३५ बोली "मुझे छोड़ कर ये समुद्र में कूद पड़े थे । तीसरी ने कहा 'मुझे सोती हुई छोड़ कर ये तुरंत चने गये थे । हे प्रिय | क्या कल की बातों का स्मरण । ४३६-४३३ ] इहा सयल भोग महि रहिउ, बारह वारिस कष्ट तुम सहिउ । एह बोलु मति बोलह भूग, तुम्हहि कष्ट हमुहि कि मुख बसेठ । सब जिनयत्त कहइ सतिभाउ, तुम्हहि दुख मुघरि वहि जाउ । पाषा कष्ट्र गयो फुड कालु, प्रग मुख राणु करहु प्रसरालु ।। अर्थ :-- (स्त्रियों ने कहा) यहां तो हम सकस भोग मोगती रहे और तुमने बारह वर्षों तक कष्ट सहे 1 इस प्रकार झूठ मत बोलो, तुम्हारे कष्ट क्या हमें तुम्हारे मुख पर दिखाई दे रहे हैं ? ॥४३६।। सब जिनदत्त ने सत्यभाव से कहा, "हे सुन्दरियों, तुम्हारा दुख वह जाए (नष्ट हो)। कष्टों का स्फुट काल पब पीछे चला गया (लद गया) । अब तुम निरन्तर सुख का राज्य करो ।।४३७।। [ ४३८-४३६ ] जिनस तिरियनु मेलउ भयो, चिर भवियर पाल हि गयो । हरस्यो विमल सेठि तिह आइ, सा राजा ठि लागिज पाह ।। गरबा सभा प्रचंभी भयो, जिणात कोरसि बह दिह गपऊ । घउसय तीसा चौरहो, पंडिय राइसीह णिह कही ।। अर्थ :--जिनदस और स्त्रियों का मिलन होगया तथा उन मयिकों के चिरकाल के पाप दूर हो गये । विमल सेठ उस स्थान पर बड़ा प्रसन्न हुया तथा सब राजा के चरणों से लगे ।।४३८।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवस परित राजा की सभा को आश्चर्य हुआ तथा जिनदत्त को कोति देशों दिशाओं में फैल गई । पंडित राजसिह ने ये वारस तीस चौपाइयां कही ||४३६ ।। १३६ मदिन / भविक -- मुक्ती-आकाँक्षी मुम | ४४० - ४४१ J भरगह राइ यहू किंभु सर्लाहयह, ग्रहसे चरित नु खवरहु किए । इसहि नु वणं सके सरसुती, भगह रहू यह केसी मती ॥ कराय जो जोइसी सुजाणु, जो जोइसु की मुणइ ममाणु 1 पूइ राज भले चित्त सगुगु, सीघर' वित्र धरहि तुह लगुण || 1 अर्थ :- राजा कहने लगा, "इसकी किस प्रकार प्रशंसा की जाए ! ऐसे चरित तो विद्याधरों ने ही किये हैं। इसका वर्णन केवल सरस्वती ही खान कर सकती है। रह कवि कहता है "मेरे में कितनी बुद्धि है ? ४४ राजा ने चतुर ज्योतिषी को बुलाया जो ज्योतिष का प्रमाण त्रिचारता था । राजा ने प्रसन्न चित्त होकर उससे शकुन पूछा और कहा, हे विप्र शीघ्र ही लग्न राखी ।। ४४१ ।। रवयर / खवर - विश्वावर मीरघ / शीघ्र १ मूलपाठ सोरघ [ ४४२-४४३ 1 कहह जीवसि लाणी रीती, परंपर इन्हु बहुल परीति । हउ जणच जोइस को मेउ, तुम्ह को स देव प्रलेउ | गोधूलक साह शेपियउ भली वाह बिनु चरी रई सोई कहि । (पुण्य) फलास || घरे हरे वास, तोरण भाषे पूर्ण Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ विवाह अर्थ :- ज्योतिषी ने कहा, "लागी की रोति के अनुसार इन दोनों में आपस में बहुत प्रीति होगी । मैं ज्योतिष का भेद जानता हूँ, तुम्हारे ऊपर अ ( वीतराग ) देव प्रसन्न हो गये हैं । ॥४४२॥ गोधूलि में विवाह निश्चित किया और जो अच्छा वार एवं दिन था नहीं कहा गया | गहरे हरे यांसों की चौरी रची गई तथा पूर्ण कलश की स्थापना करके तोरण ( लगाये गये ) १।४४३९ लाग • ग्रहरण स्वीकार - जिरगवत्त का चतुर्थ विवाह [ ४४४ - ४४५ ] वाजे पंच सबब गह गहे, ठाठा लोउ मिलि सदु कण्ण विष्णु फेकिउ बसारि परिरगाई विमलाम नीलामणि मरगजमणि ऊज, पउमरन्छ मरिण अनुवद चंद्रकंति मुत्ताल भरणे, ते सह दिम दाइजो अर्थ : -: जोर जोर से पाँच प्रकार के बाजे बजने लगे तथा लोग उठ कर एक स्थान पर मिले। उसे फेकिइ (घोडे ? ) पर बिठाकर कं दिया (?) तथा विमलामती नारी जिनदत्त को व्याह दी ||४४४ । ४४६–४४७ ] साह वाहणु देस कुछार, अर्थ द्रव्य छत्ता लंब चमर वह कापि चाउरंग यल १३७ अफ रहे । नारि ॥1 ड्रज । घर || नीलमणि, मरकतभरण चमकली हुईं पद्मरागमरिण तथा वैडूर्य, चंद्रकांत एवं जो मुक्ताफल कहे जाते हैं उन सत्रको उसने डायजे (दहेज) मे दिया || ४४५|| १ मूलपाठ मउमराइ " बोनिज भंडार । यपि ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त चरित पारौं तिरिय बनाई पास, पुप विवाण चडियो घण मान । मालिवि प्ररथ रमणु सव लयो, उघय उवहरत्त तिणु ग्यत्र ।। अर्थ :- राजा ने साचन, वाहन तथा कुछार देस दिये तथा मर्क (द्रव्य) का तो भण्डार ही दिया छत्र, लंब (दण्ड }, चमर आदि बहुत सी वस्तुमें दी तथा चतुरंगिणी सेना भी उसको (सौंप) दी॥४४६।। तक जिनदत ने चारों स्त्रियों को बनाया और घनी प्राशा के साथ उन्हें विमान पर बढ़ाया । उसमें अर्थ तथा रत्न आदि सब डाल लिये और तुप्त होकर कह सागरदन के पास गया । ।।४४५॥ पालंद पालम्ब - माश्रय, प्राधार, रुघय / प्राधय- तृप्त होना [ ४४८-४४६ ] स्वहिबत जब दीठउ जाइ, गलिय नाक सरि गम पुण पाई । बूसिड अंगु पोव को गंधि, भागी पापो कहु कुरु म्याधि ।। अवहिवत्त मरि नरयह गयज, द्रव्य प्रापुणी जिरणदत्तु सयउ । मे पणु चंपापुरि सो गयर, पुणु घरि चलिये को मनु भयच' ॥ अर्थ :- जब उसने जाकर सागरदप्त को देखा तो उसका नाक गल गया था एवं पोव सई गया था। उसके सभी प्रम दुषित हो गये थे तथा पीप की दर्गन्धि पारही थी क्योंकि उस पापी को कुष्ठ रोग लग गया था ।।४४८।। सागरदत्त मर कर नर्क गया। जिनदत्त ने अपना द्रव्य उमसे ले लिया । यह चन लेकर चंपापुरी गपा तथा अपने घर जाने की उसके मन में इच्छा हुई ।।४४६) १ मूलपाठ (मयों) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसन्तपुर के लिये प्रस्थान [ ४५० - ४५१ ] (सम) द्यौ राज अंसेजर घणी, समाज विमल जिमला सेडिगो 1 समाज नायर नयय करे लोग, जिरायत च (लह) करइ अब सोगु ॥ लए तुरंग मोल वह लाख, महमल - सहस्त्र करह प्रसंख । सहस छत्तीस जोणि चाउरंतु चतु बलु दोन पवाणु ॥ अर्थ :( जिनदत्त को ) राजा के अन्तःपुर ने सघन रूप से विदा दो । विमल सेठ एवं विमला सेठाणी ने भी उसे विदा दी। नगर निवासियों ने विदा दी तथा ( ज्योंही) जिनदत्त चला लोग शोक करने लगे । ।४५०॥ घोड़ यह हार उसने दर्श साख असंख्य ऊँट मोल लिये। बत्तीस हजार शक्ति प्रमारण चतुरंगिनी सेना जोड़ ली ( इकट्ठी करली ||४५१० नायर नागर १३६ अर्थ :पैदल एवं धनुर्धारी है, वह सेना जोड़ कर पैदल चला ऐसे रावत चल में असंख्य राजा मे ॥१४५२ ।। दलित हाथो तथा इस प्रकार उसने अपनी [ ४५२ - ४५३ 1 पाइक षाणुक हर ग्रह कोडि, पयदल चलिउ रायसिंह जोडि । तारि खुसि गिरि जिन्दु पाहि, से प्रसंख रावत बल माह 11 जरबड़ मूर्ति न सूझ सरणी 1 प्रयुज बेस पलारणे धरणे ॥॥ जिरणदत्त हि कंपड़ धरणि हाकि निवारण जोडि जणू हस, दश करोड़ थे । रायसिंह कवि कहता जिसके छत्रधारी राजा पांवों में गिरते थे, जिनदत के चलते ही पृथ्वी कांपने लगी। इतनी धूल उठने लगी कि सूर्य नहीं दिखने लगा 1 जब समस्त निवानों को जोड़ कर उन पर चोट की गई तो बहुत से स्वत: ही अपने देश भाग गये ।।४५३ ।। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवत्त चरित [ ४५४-४५.५ } करपइ गरहिउ उठवहि घाट, क ( उरगड ) राम विखालहि वाट | डूसह राज रंग को अंगवड, नासु कहइ मी चक्कबद्द ॥ भाजहि नयर वेस बिमल , पर एक भउ वि असिम सहि । भाले कटक किए बहु रोल, प्ररिमंडल मन्यि हृल कसोम ॥ १४० (पर्क कर सकता था ? तथा कौन राजा उसे मार्ग दर्शन करा सकता था ? उसके दुस्सह तेज को कोई भी सहन नहीं कर सकता था, और उसे जैन चक्रवति का नाम लेकर कहने लगे थे |४१.४ ।। नगर एवं देश के लोग भगाने लगे तथा शत्रु भी उसकी तलवारों का वार नहीं सहन कर सकते थे । उसकी मेना भारी पोर करती हुई आगे बढ़ी जिससे मंडल के मन में वह शोर हिल गया ( व्याप्त हो गया ) | ||४५५।। [ ४५६-४५७ ] कोठा करत जोडि मोसर, जाइति मगध देशा पइसरहि परिजा भाजि गई नहि राउ, वेदिज सरे वसंतपुर ठाउ ॥ परिजा (भाजी) गढह महंत लागी पउलि तिज भेजंत । भयउ ढोकुलि पर गोफणी, रचे मारा कहु साँसे धरी ॥ अर्थ : डाटा करती हुई सेना चली और वह मगध देश में पहुंच गई सारा बसंतपुर नगर सेना से वेष्टित होगया । प्रजा ( भागकर ) बड़े किले में चली गई। पॉलि लग गई ( बंद हो गई) और मंत्र खडे हो गये । ढीकुली (ठेकुली) और गोफरणी हुए लगाए गए ) अनेकानेक शिरस्त्राण रचे गये १x६-४५७।। और मार करने के लिए बैद / वेंष्टिय प्राच्छादित करना । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसन्तपुर के लिये प्रस्थान १४१ पोलि। प्रतोली --- मुख्य मार ढोकुली-गोफणी - पत्थर फेंकने के यंत्र । सीस - शीर्षक - शिरस्त्राण । [ ४५८-४५६ ) कोट पा.... (उ) तंग अपार, परिखा पुरिम जलह अपार । गढह सेष परिजा भाकुली, वाडा लेहि छत्तीसह कुसी ।। चंदसिखर (बो) लइ जु पधारि, राखहु गढ़ खडि को धार । अब लगु मोहि पासु बोइ बाँह, को चापिहा कोट को छांह ॥ अर्थ :-कोट के (पास?) ॐ भी प्राकार थी । परिवार (वाई) को अपार जल से भर दिया गया । शेष प्रजा गढ़ में च्याकुल पी मौर छत्तीसों कुली (जाति) के लोग बाड़ा ले रहे थे (यंदर से घरों को बंद कर रहे थे या सुरक्षित ) ।।४५८|| (वहाँ का राजा) चंद्रशेखर ललकार कर कहने लगा। मनु को रक्षा मी तलवार को घार पर करो। जब तक मेरे पास दो हाथ है तब तक कोई ( परकोटा-कला ) को छामा पर भी पैर नहीं रख सकला है । ॥४५॥ । ४६०-४६.१ 1 पूर्थ प(उलि) राइ सइ राख, परिगहु भई लोहि मसंख । दक्षिण पलि बाद सुहरणासु, जो परिमंडल दस वय कालु ।। (उत) र पसि निकुभ चंदेल, जे अगिलेह ण माहि गेल । पछिम विस जाय बना पाहि, पउतव अकुहब ........... रहि ।। चारों दिशाओं में मोर्चा बन्दी की गई) पूर्व की पोल की रक्षा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जिरणवत्त परित राजा ने स्वयं अपने ऊपर ली, जिस पर असंख्य क्षत्रियों का भृत्य वर्ग नियुक्त हुआ। दक्षिण पौल के ऊपर मुहनाले (तो) चढ़ने सगी, जो शत्रु-सेना-मंडल के लिए क्षय-काल स्वरुप थी। ॥४६०।। __उत्तर पौल पर निकुंम चंदेल खड़े हुये जो अन्य को मार्ग देने को तैयार न थे । पच्छिम दिशा की ओर यादव भट पड़ रहे (?) थे जो कि वन्न पड़ने पर भी [ वहीं जमे ] रहते थे ।।४६१।। [ ४६२-४६४ । प्रवर असंखद बहुसइ मिलिय, रखहि गढ़ छत्तीसउ कुलीय । कंदसिखिर किन मंतु तुरंतु, घालि (दूत) किन पूघा वातु ॥ मंत्री महामंत्र हकराइ, असरि राजा वात कराइ । ग्रहो मंत तू भेटहि जाइ, किह कारणि ग.''उ प्राइ । पाहा लयउ रयणु भरिथालु, भेटरिए वालिउ दूतु शुहिणालु । प्रवर पंचवश लक्ष्य हकारि, जिरणवत्तत् कटक मझारि ॥ अर्थ:- और भी बहुतेरे असंध्य (योद्धा) मिल गये और छत्तीसों बाली (माति) गढ की रक्षा करने लगी। शोध ही चन्द्रशेखर ने मंत्रणा की। (जन्होंने कहा) दूत भेजकर क्यों न पूछो कि क्या बात है ? ।।४६२॥ राजा ने मंत्रियों तथा महामंत्रीयों को बुलाया, तथा अवसर (राजसभा में बात कराई । (राजा ने मंत्री से कहा, "अहो मंत्री, उससे जाकर भेंट करो और पूछो कि किस कारण यह पाया है ?" ||४६३।। पाहुइ (उगहार) के रूप में रत्नों को थाल में भर कर और वह मुहिणाल दूत भेंट करने के लिये मला । पन्द्रह जनों को और बुला लिया और बह जिनदत्त की सेना में चला गया ।। ४६४।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूस से भेंट १४३ उसर प्रोसर । अवसर - राजसमा पाहुउ ८.प्राभूत -उपहार चन्द्रशेखर राजा के व्रत को जिरपदत्त से भेंट जाई पहतउ सिंह उवारि, हाकिज करण्इ र परिहारि । को तुम पूछ कह तुरंतु, जइसा राउ जगायउ पत्ति ।। इहा जु चंसिखरु भाराज, तुहि वह मागइ भेंट पसार । सीलवंत गुण गणह संजुस, हज तहु केरउ प्रापड तु ॥ मर्थ :-वह सिंह - द्वार पर आकर पहुंचा तो प्रतिहारी ने स्वर्ण-दंड हाका (हिलाया) । उसने दूत से पूछा, "तुम कौन हो शीघ्र बताया जिससे मैं राजा के पास जाकर बाल बताऊ । ।।४६५।। (दूत ने कहा), " यहाँ जो चंद्रमोखर नामका मट (योद्धा) राजा है, वह आपसे भेंट की कृपा चाहता है । वह शोलवान एवं गुणों से संयुक्त है, मैं उसका दूत आया हूँ ।। ४६६।। [ ४६७-४६८ ] भीतर वास कहहि पडिहार, सिरप राइ गरणावर सार । पाहुड ल वह रयण प्रहह, पूचित्र चंदसिझर मह कहह ।। आणि भिटाहि बोलिउ राउ, गउ परिहार इतु के अउ । राजा तुम्ह कउ किया पसाउ, भीतर इतु प्रवभारतु पास । अर्थ :- प्रतिहारी ने भीतर (जाकर) बात कही सथा शोध राजा को बात बता दी । वह बहुतेरे रत्न उपहार स्वरुप लिए हुए है, और मैंने पूछा तो वह अपने को चंद्रशेखर राजा का (दूत) बतलाता है ।।४६७।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जिएस चरित राजा (जिनदत्त) ने कहा, "उसे लाकर मिलायो । प्रतिहार दूत के स्थान पर गया और कहा, "राजा ने तुम पर कृपा की है । हे दूत, तुम भीतर पधारो ||४६८।। पाहुड / . - उपहार । सीरप 1. शीघ्र [YER 1 भीतरि व्रतु गयउ सुहिणातु, प्रापिउ परिउ रयण भरि यातु । वोठउ वृतु राउ तिहि ठाउ, देवि सीसु धरि लगिउ पाउ ।। अर्थ :-सहिणाल (नाम का वह) दूत भीतर गया और (जिनदत्त के) आगे रत्नों का भरा हुआ थाल उसने रख दिया । दूत ने राजा को वहां देखा तो उसे विश्वास दिलाएर उसने (राजा भै) गरंगों को मार्ग कि [ ४७० ] वस्तु बंध दूतु पभरणइ रिणमुरण नरनाह । को परिजा गंजिया, काप देव घर पलइ कीजइ । काइ नयर चउदिहि विस रहिउ, कासु उबरि देव कोह कोजइ ।। तुम समेरणि अभिडत, सा सीमा अम्हि जिण होण । भगाइ दूस सए नरनाह, फुड लेज दंड हडू लोण ।। दुत कहने लगा, "हे नरनाथ. मुनी । हे देव, आप क्यों प्रजा को नष्ट कर रहे हैं और किस कारण घर में प्रलय कर रहे हैं ? किस कारण नगर के चारों ओर अापने घेरा डाला है ? और किस के ऊपर हे देव! आप क्रोध कर रहे हैं ? यदि हम आपसे लड़ें तो हे स्वामी । हम जैन धर्म से विमुख होंगे। दूस ने कहा हे नर नाथ ! इसलिये में स्फुट रूप से स्पष्ट दंड लेकर घर चलिये । ।।४३०।। पलइ। प्रलय । उरि-ऊपर Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत से भेंट १४५ [ ४६१-४७२ ] भरण्इ दूत सरगाह सुरोहि, परजा बंध म अपजस सेहि । महिं सिव जूझ समरि हुइ काहि, लेहि दंड सामिय घरि जाहि २ रण लिउ दंड णु देस कुठार, ना लिउ सहण प्ररयु भंडार । तुम्हरइ एयर जि वरिषयक ग्राह, सो मोहि देउ जोउदेव साह ।। मई :- दूत ने कहा, "हे मरनाथ ! सुनिये प्रजा को बांध कर अपयन न लीजिए । मुझ से युद्ध में लड़ने से अया होगा । हे स्वामी ! (ग्राप) दंड लेकर घर जाइए ।।४७१।। (जिनदास ने कहा, "मैं दंड नहीं लूगा न देश कोठार (खजाना) लूना और न मैं सहन तथा अर्थ मण्डार लूगा । तुम्हारे ही नगर में जो वणिकवर है उम जीवदेव साहु को मुझे देदो" ॥४५२६॥ [ ४७३-४७४ ] धम्मनिहाणु जीवरेउ सेठि, अरु नित नंबई पंच परमेठि । नयरहि मंडणु सुख सहाउ, परतसु जियत न अप्पा राज ॥ भणइ सउ किम पहिले चऊ, भाजि जु मयहि कुइ सावऊ । अाज प सेठि प्राउ मो ठाउ, कल्हि नपरि का दांपत राज ।। अर्थ :- (दूत ने कहा) "वह जीवदेव सेठ धर्म निधान है तथा नित्य प्रति वह पंच परमेष्ठि को नमस्कार करता है । वह नगर का मंडन और शुद्ध स्वभाव का है पर उसे राजा जीते जी नहीं अपित करेगा ।।।४७३॥ राजा (जिनदत्त) ने कहा, फिर पहिले केमे कहा ? । प्राज उसे नगर में कोई नायो। यद आज सेठ पेरे स्थान पर नहीं पाया तो कल नगरी पौर राजा को नागा ॥४॥४॥ नवरी नगरी १ मृनपाउ 'कानि' Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जिणदत्त परित [ ४७५-४७६ । बाहुडि व्रतु बोलइ ए वयण, निसुगहि चंब सिखर भड रयण । अकहा कहा किम कहिमइ बेति, माँगह देव जीवदे सेठि ।। योल चंसिखिर भड साहु, अरे दूत किन गई तुह जीह । यर किनु बोगद बाल गोपाल, सेठि प्राफि जीवउ के काल ।। अर्थ :- वह दूत वापिस लौट कर यह वचन बोला, "हे भटरल चन्द्रशेखर ! सुनो । यहाँ बैट कर न कहने योग्य बान क्यों कहते हो ? वह है देव ! जीवदेव सेठ को मांग रहा है । ।। ४७५1: मटसाधु चन्द्रशेखर बोला । अरे दूत ! तेरी जीभ क्यों नहीं गई ! बड़ भले ही ( मेरे ) बाल गोपाल को क्यों नहीं बांधले, सेठ को देकर कितने समय तक मैं जीऊँगा ? ॥४६॥ बाहुड / श्याश्रुट - लौटना, वापस होना [ ४७७-४८६ मापड दूतु कहार सालु, अरु बाहु तु तरु फाउउ गाल । वज्र पम् तो वृतु काल, प्राफि सेठि जीवन के काल ।। घर लेउ माहणु बाहष्णु झाडि, वरु किनु संघड बइ मुहि धाठि । गरु किनु नपरि करद वह कालु, प्राफि सेठि मोवर का काल । ____ अर्थ :- " हे लंपट दूत मैं तेरी खाल निकलवा लूगा और मुजाओं से सेरे गाल फाड दूंगा। रे दूत | तुझ पर काल वन पड़े, सेट को देकर मैं कितने समय तक जीऊँगा ? 11४७७।। भले ही मेरे समस्त साहन-वाहन लेलो, भले ही क्यों न मुह में दादा देकर मुझे बंदी कर लो, भले ही क्यों न नगरी को समाप्त कर दो, पर सेठ को अर्पित कर मैं कितने समय तक जीऊंगा? ।।४।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोबदेव जिनबत्त मिलन लापड! .लंपट । के / कियत- कितना [ ४५६-४८० ] साचउ चंद सिखर बङ लगाई, वरु किनु मयरहं कुहला बबइ । वरु किनु बेसु निराला जाल, सेठि अफि जीवा कइ काल । "ल रहे सेठ जह जाण, तेज सेठिणि सिद्ध कहद नियारण । रायण्ड भरण ठाणु छइ भयउ, कारण तिन्ह रण मादिपज । अर्थ:- चन्द्रशेखर बहुत सत्य कह रहा था, भले ही क्यों न नगर में कुचला बोदे और भले ही क्यों न देश मात्र को जला दे, सेठ की देकर मैं कितने समय तक जीऊँगा ! ।।४७६।। जब वह सेठ को ज्ञात हुना......तब वह सेठानी से निदान कहने लगा। "राजा का भी मरने का समय प्रागया है, कारण यह है कि उन्होंने (शत्रुने) युद्ध की तैयारी की है" ॥४८०1। मव । लय - कहना, बोलना, जोवदेव जिनदत्त मिलन [ ४८१-४८२ । पुशु जीवदेज फहत हियइ ए बयण, पूत सोमु हम फूटे गयण । (सुत) विदेसु हमु प्रायो मरण, सेठिरण देहऐ कर करण । भणय सेठि रे ददय निकिंठ, एक बार जिणवत्त न दिछ । सवु सेठिरिंग समुझावरण लियज, करि प्रसारण पाह विक हियउ ।। अर्थ :-- फिर जीवश्व अपने हृदय में यह वचन कहने लगा, “पुत्र के शोफ में हमारे नयन फूट गरे हैं । पुत्र जब विदेश में है तब हमारी मृत्यु घाई है, सेठानी देखो अब क्या करना चाहिये" । ।।४८१।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जिणवत्त चरित सेठ ने (फिर) कहा, "दैव ही बड़ा निकृष्ट है, उसने एक बार भी जिनदत्त को नहीं दिखाया । तब सेठानी उसको समझाने लगी "हे नाथ अवसान है समय हृदय को दृट करो !!४६।। [ ४६३-४८४ ] तूटउ ....... सामिय वह तणउ, अमसु निवेदिउ जिउ प्रापुरणउ । अब जिण सरणु अउर नहीं कोइ, जो...बह सो सामिप होइ ।। फुरइ एपणु प्रर चित्तु गहगहइ, जाणउ पूतु प्रागमणु कहइ । पर (इह) संकट दोसाइ सोइ, ओ भावइ सो सामी होइ ।। पर्य :- "हे स्वामी (अपने दोनों) या दुरव वा हुना है (दूर हुश्राचाहता है) में अपना जी (विचार) अवश्य निवेदन करेंगी । अव तो जिनेन्द्र भगवान के अतिरिक्त कोई शरण नहीं है । हे स्वामी! जो (भगवान ) ने देखा है वही होगा" ||४८३।। "आँखें फटकती है तथा चित गदगद (लकित) हो रहा, मानों यह सब पुत्र-प्रागमन कह रहे हो। किन्तु सामने वह संकट विझता है, इसलिये जैसा परमात्मा को स्वीकार होगा, हे स्वामी! वैसा ही होगा ।।४६४॥ [ ४८५-४८६ ] हमु कारगि रण मारघई लोग, मरज पूठ ज धरि सोगु । इय चितेरि दुविह संज्ञासु, ले विण पालिय पर दल पासु ।। सेठिहि चलित नु ...... इ राज, नयर लोगु चित भयउ विसमाउ । मेठि संघात बहुत जण चलहि, पुणु जिणवत्त कटक पइसरह । अर्थ :-- "हमार कारण लोगों को बे मत (न] मारें। (क्योंकिजिसका) पुत्र मरा (उसी के घर में पोका हुना। इस प्रकार चिन्ता Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदेव जिनदत्त मिलन १४६ करते हुये दोनों दुविधा में पड़े। शत्रु की सेना के पास (लिए जाने के लिए चले ॥४५॥ सेठ के चलते समय राजा......नगर के लोगों के भी वित में विस्मय (दूरस) हया । सेठ के साथ बहुत से व्यक्ति चले और फिर वे जिनदत्त की सेना में प्रविष्ट हुए !!४८६।। मूलपाठ ' मारगरवई" । ४८३-४८८ ] सावधाण किउ बिटु चितु सेठि, लागिउ सुमणि मग परमेति । इहि (उव?) सहि जइ उवरहि, तउ पाहाल तबह कि करई ।। पइठिन कटकह बहू जण राहिज, ...पाइ जाह राइ सिउ कहिउ । सउ जिणदत्त भणइ मुहु जोइ, वहुले मिलियज प्रावइ...... | अर्थ :-सेट ने अपने चित्त को सावधान एवं दृढ किया तथा पंच परमेष्ठि का मन में स्मरण करने लगा। (उसने संकल्प किया.) "यदि इस उपसर्ग से मैं वर जाऊंगा तो मैं किसी तपस्वी को अवश्य पहार दूंगा" ॥४८॥ बहुत से व्यक्तियों के साथ बह सेना में गया और वहाँ जाकर राजा से निवेदन किया । फिर जिनदत्त उसका मुग्न दलकर कहने लगा, 'बहुत से पक्ति मिलकर मिलने आए हैं" ॥४८८।। जो हा सेठि पम्मु को निसल, सो यह गोषदेउ कुलतिलाउ । भणइ राउ मह जी वत काइ, बापु माइ निहि प्रावतु पाद ।। नेत पटोली पंय पसारि, प्राबद सेठि प्रवरू तहि नारि । सिंहासण टुइ रयणह अडिय, बहसइ प्राणि सेठि कहु परिय ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिबन्त चरित श्रथं :- "जो सेट धर्म का निलय है वह जीवदेव, जो कुल का तिलक है यही है । राजा ने कहा, "मेरे जीते होने से क्या हुआ यदि मेरे मां बाप पैरों ( पैदल ) प्रारहे हैं ? " ४८६॥ १५० मार्ग में उसने नेत्र तथा पटोली ( दो प्रकार के रेशमी वस्त्र ) फैलाये, क्योंकि वहां से तथा उसकी स्त्री आ रही थी । रत्नों से जड़े हुए दो सिंहासन भी उससे होट (तथा ऐन) लिए ला एक्स्प्रे ।। ४६० ।। [ ४६१-४६२ 1 जाइ पहूते राइ प्रथाण, बोलत बोल न ता जिनवत्तह पुछण लए, काहे सेठि मउण इह परदेश निरंजन जाणु, घरसन सतु हुई लय अवसाणु ॥ वध सुख व तुम्ह मांगिधउ व जाणि मउणवउ लियउ । अर्थ : वे राजा के श्रास्थान ( सभा मंडप ) पर पहुंचे किन्तु मर्यादा ही मर्यादा में रहने के कारण ) ने कुछ नहीं बोले । इससे जिनदत्त पूछने लगा "हे सेठ! तुमने मौन क्यों ले रखा है" ? ।।४६१ ।। सेठने कहा इसे निर्जन प्रदेश जानो और सनसन ( सन्नाटा) होने का कारण मैंने अवसान ले लिया है। एक सुप्त का दुःख है और ( दूसरे ) तुमने हमें मांग भेजा है, अतः उपसर्ग समझ कर हमने मौन अस ले लिया है ॥४६॥ श्रथारण / प्रस्थान कांणहि काण 1 लग रहे ॥ - आस्थान मंडप, अधाई | — [ ४६३-४९४ ] भाइ राजमति सेठि बराह, तुम्ह पीछे हमु क ण श्राहि । जहि कइ हियह पंच परमेठि से तुम्ह आहि जीवदी सेठि ।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीबवेव जिनदत मिलन तहि विसूरिउ वोलद सेठि, हर पाराहत मिरु परमेष्ठि, । निछ देउँ वेह महि मुनिउ, अजर अमर जिप प्रापमु सुरिगाउ ।। अर्थ :-राजा कहने लगा, हे सेट तुम हरो मत । तुमको पोड़ा (दुःख) देने का हमारा कोई कार्य (प्रयोजन) नहीं है । जिसके हृदय में पंच परमेष्ठि हैं, जीवदेव सेठ तुम ऐसे हो 11४६३।। तब सेठ बिसूर कर (चिंता रहित होकर) बोला, "मैं तो निश्चित रूप संपंच परमेष्ठि को पाराधना करता हूँ। निश्चय ही मैं पृथ्वी के मुनियों को देय (प्रहार) देता रहा हूँ और अजर-अमर जिनागम हैं, उन्हें मैं सुनता रहा हूँ ।।४६४॥ [ ४६५-४६६ | राजनु पूनु गयउ पर तोह, तहि दुख सूकः सपत सरोर, । तुम्ह वा हमु नाही वोषु, दुल पड़े हमु पाउ मोष ।। सहि राउ बोलत हइ जारिण, एते कटक लहु पर आणि । मोहि मखतु जइ राजनु होड, इई होई तरु प्रावइ सोइ । अर्थ – 'हे राजन, मेरा पुत्र विदेश चला गया; उमी के दुःख से सारा शारीर सूख गया । तुम यदि मुझे बंदी करो तो इसमें हमें कोइ दुःख नहीं होगा (हमारा कुछ बिगउता नहीं है) क्योंकि दुःख को वृद्धि से तो हमें मोक्ष (छुटकारा) मिल जावेगा ।।४६५।। तब राजा ने (यह सब) जानकर कहा, इस सारी सेना से शत्रु को जान लो । 'यदि मेरे समान कोई राजा है, तो वह नर श्रेष्ठ यहाँ क्यों नहीं वाता है। 11४६६॥ [ ४६७-४६८ ] तउ सेविरिण वोलिड सतभाउ, जा पहु प्रवहोइ पसाउ । किछ परि जागज वेड निरुत, तुम्ह अासो छौ महारउ पूतु ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरायत्त चरित जिणदत्त गहिवरु प्रायो हियउ, बीउ मा वा विलखिय | उठित पीष लोटरी कराई, चार सिरिया लागहि पाई ॥ १५२ अर्थ :- तब सेठानी ने सत्य भाव से कहा, "यदि है प्रभु 1 अम ( आपकी ) कृपा हो जाए। तो है देव! हम कुछ निम्त जाने ( कहें) क्योंकि तुम्हारे ही ऐसा हमारा पुत्र था ।।४६७।। जिनदत्त का हृदय पुलकित हो उठा और माँ बाप को देखकर वह रो पड़ा । वह उठकर उनके पांवों में लोटने लगा तथा उसकी चारों स्त्रियां मी उनके चरणों में लग गई ||४६८११ [ ४६६-५०० ! जरपणी खण रामि प्रकंतु पाय पखालित परिसिउ अंगु । विर बोल साहस धीर, क्षत्र महू सुद्धउ भयउ सरीर ।, सेठिणि गवरि प्राय हियउ, पुणु श्राप एउ उगह लियउ । जायो पूतु प्राज सुपियार, खोर पवाह बहे थरण हार ।। अर्थ :- उसने माता के चरणों में साष्टांग नमस्कार किया तथा पाँवों को पवार (धो कर ( उसके अंगों का स्पर्श किया। साहसी जीवदंब बोला, 1. 'अब मेरा शरीर शुद्ध हो गया २४६६।। मेठानी का हृदय भी मर आया, फिर उसने उसे अपनी गोद में लिया और कहा हे प्रिय ! मानों तुम साज ही पैदा हुये हो और यह कहते हुये उसके भारी स्तनों से दूध की धारा बह निकली ||१०| पियार ८. प्रिय + तर । । ५०१ - ५०२ ĭ मेरे जिदत्त पूरिय प्रास, तुझ विश पूत भई ब्रु गिरास । खरं कुयापहि ना वीसरद्र, अनु दिनु जिहादत्त निरगवत्तु करड ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदेव जिनस मिलम छाडे वापन भोग विलास, पान फूल भोजन को पास । रातहि गोद न दिवसह भूख, तुम्ह विण पूत सहे वह बुख ॥ ___ अर्थ :- वह कहने लगी, हे जिनदत्त ! तुम मिल गये और सुमने मेरी अाशात्रों को पूरा कर दिया । हे पुत्र | तुम्हारे बिना में निराश हो गई थी एक क्षरण भी तुम्हारा बाप (तुम्हारा-स्मरण) नहीं भूलना था। वे प्रति दिन जिनदत्त २ करते रहते थे ।। ५०१ ॥ तुम्हारे बाप ने सब भोग विलास छोड़ दिये थे तथा उन्होंने पान, पुष्प एवं भोजन की प्राशा छोड़ रवखी थी । न रात को नींद भाती थी न दिन में भूख ! हे पुत्र! तुम्हारे मिना हमने बहुत कुःख सहे ।।५०२।। [ ५०५-५०४ } भए वधाए हाच निप्ताण, चंसिखर पाए भगवाणं । उछली गुजी सलहहि भाट, नेत पटोले छाई हाट ॥ इम आरंदे गए प्रवास, इंचित मानहि भोग विलास । बहुल दाण चर संघ कराइ, बुही दोण सब रहे प्रधाइ ।। बधावे हुए और पोसौ (बोसा) पर चोट पड़ी तथा राजा चन्द्रशेखर उसकी मागवानी करने माए । गुठी जछली तथा भाटों ने स्तुलि की चाजार नेत्र एवं पटोर से सजाये गये ॥५०३।। । इस प्रकार भानन्दित हो कर जिनषत्त अपने निवास स्थान पर गए सथा मनवांछित भोग विलास करने लगे। चारों संघों को बहुत सा दान करने लगे। सथा दोन मोर दुखी लोग (उनके दानों से) तृप्त होकर रहने लगे ।। ५०४।। नेत नेत्र - एक प्रकार का रेशमी कपड़ा पटोर / पटकल- एक प्रकार का रेशमी करडा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जित्त चरित गृहस्थ जीवन [ ५०५ - ५०६ I संबसियर र जिरायत्त राय, एक चित (तुख) ' रहिय सरीर, विमलमती सुर विमलु उपण्णु सुप्पहु महा घुसतो, ए लाए हरू सिरियामतो || राजु करह वसंतपुरु ठा परिक्षा पास वोट वीर ॥ एकु सुवसु जयबस पसणु । श्रर्थः राजा चंद्रशेखर एवं जिनदत्त दोनों बसंतपुर में राज्य करने लगे। दोनों एक चित्त दो शरीर होकर रहने लगे और दोनों वीर प्रजा का पालन करने लगे । ५०५ ॥ — विमलमती से सुन्दर पुत्र उत्पन हुए: एक सुदत्त एवं दूसरा श्रीमती पती उत्पन हुए ॥ ५०६ ॥ १ मूल पाठ - "देख" [ ५०७ - ५०८ 1 भोगहि परठइ, नीत परणीत सतीस भए । साहू, तर करि लहिड सग्गवर ठाउ ॥ करहि राजु जोवंजसा जीवदेख विज्जाहरि नायज सुक्के, प्ररु जयकेतु सु गरुडकेउ I सुमितु जयमित्त ममभावसी, वबिरामि भयो विमलासती ।। अर्थ :-- ( जिनदत्त ) राज्य करते हुए भोगों में प्रस्थापित हो गये । और नित्य प्रति उनमें सतृष्य होते गये। जीवंजसा और जीवदेव साहू ने सप करके किया ||५०७ ।। ( उसके माता एवं पिता ) श्रेष्ट स्वर्ग में स्थान प्राप्त विद्याधरी स्त्री से सुकेतु, जयकेतु एवं गरुञ्जकेतु उत्पन्न हुवे तथा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ जीवन विमलासती (शृगांरमती) से गुरमित्र, अयमित्र. मन मावती तथा दविणमित्र, उत्पन्न हुये ।१५०८।। [ ५०६-५१० ] वरिणधरु कुलि जिरणवत्त उपप्पण, पाछै राजु भयो परिपुष्ण । भविया कऊण प्रभो लोर, पुन्न फलह कि कि नउ होउ ।। जं जं पुहमिहि दीसह चंगु, तं तं धम्मह केरऽ अंगु । अं जं कि पि अशुबरु हवइ, तं ते पावह फच जिण कहा ॥ अर्थ :- जिनदत्त ने वणिक के घर जन्म लिया लेकिन पीछे वह राज्य में परिपूर्ण हुप्रा । लेकिन हे भविको! इसमें कोनसा प्राश्वयं हैं? पुण्य से क्या क्या नहीं होता (कौन कौन से फल नहीं प्राप्त होते) ? १५०६ ___ जो जो पृथ्वी पर सुन्दर दिखता है, वह वह धर्म का अंग है, और जो जो कुछ भी असुन्दर होता है, वह वह पाप का फल है- ऐमा जिनेन्द्र भगवान् का कथन है ।।५१०।। 1 ५११-५१२ । जिपबरु धासु निम्मु अभोर, सग्ग मोख बह कारण हो । राजभोग किर केती माति, नियम पालड्डू बहवि भाति ॥ उक्क बहरण बहराइ निमित्त, पहिलि भोय संसारह विसु । रानु देवि जिणवत्तह सल्यु, चंदसिखरु तपु लाम्यो भव ॥ मर्थ :- जिनेन्द्र मगवान का धर्म निश्छद्र और प्रभोग (भोग रहित) है इसलिये स्वर्ग मोन का भी कारण है। राज्य भोग की कितनी ही सीमा हो (कितना ही परिमाया हो) निश्चय ही भ्रांति का त्याग कर (उस धर्म का) पालन करो ॥५११॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरादत्त अरित उल्कापात के निमित से भीग ग्रहण को संसार को स्थिति को बढ़ाने वाला जामकर उसे बैराम्म हुआ तथा गिनदत्त को समस्त राज्य देकर (राजा) चंद्रशेखर भव्य तप करने लगा ।।५१२।। निछम्म / णिच्छम 2 निश्छद्रमन - निष्टकपट, किर L किल 1 चइ ८त्पन - त्याग करना माया रहित बहराइ - विराग । उक्क L (उल्क) -लोभ, सुसेच्छा वासना वडण 2 पतन । भोपभोग मुनि वंदना के लिये प्रस्थान । ५१३-५१४ । पाछह राजु कर जियतु, परिबारह सो हियउ महंतु । सहि बइठे जहि वाल गोपाल, श्राइन बात कहा वणवाल । देव समाहिगुप्त मुमि आई, सीलवंतु जसु शुद्ध सहाउ । फूलो फलो वएसई बेव, पर सुर भयर करहि जसु सेव ॥ अर्थः -- पीछे अकेला जिनदस राज करने लगा तथा अपने परिवार के सहृदय से महान हो गया । एक दिन जब वह बाल गोपाल के साथ बंटा हना था तो वनपाल ने आकर यह बात कही ।।५१३।। "हे देव ! एक समाधि गुप्त नामके मुनि आए हुए हैं जो शीलवंत है और जिमका शुद्ध स्वभाय हैं। उनके कारण वनस्पति पल फूल गई है तथा जिसकी सेवा मनुष्य, देव और विद्याधर करते हैं ।।५१४।। खबर / खचर - आकाशगामी, विद्याधर । [ ५१५-५१६ । जिणदत्त सुरिंगउ गुरहं जव णाज, सात पाय धरि परिणामु । पुणि पाणंद निसाण दिवाइ, सिख परिवारह वेवण जार ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनि वंदना के लिए प्रस्थान आइवि दीठे सुविरु पाइ, करि तिसुधि गिरु लागज पाद | तुम्हहिन वंदन सक्कइ करे, जर मोबू तुम्हि घालो खोइ | अर्थ :- जिनदत्त ने जब यह सुना और जान लिया कि ( उसके ) गुरू ( आए) हैं। उसने अंततः सात पेंड चलकर उन्हें नमस्कार किया। फिर आनन्द के घोंसे जमा कर परिवार सहित वह ( उनके पास ) वंदना के लिये गया ।।५१५।। ૫૭ उसने वहाँ जाकर मुनि के चरणों के दर्शन किये तथा ( मन, वचन, काय ) तीन प्रकार की शुद्धि कर उनके चरणों में वह निश्चित रूप से पड़ गया और उसने कहा, "आपको वंदना कोई नहीं कर सकता क्योंकि वृद्धावस्था एवं मृत्यु तुमने खो डाली हैं" ।।५१६|| सत्योपदेश । ५१७-४१८ ] पूछइ जिरगवत्तु जिरणवर धम्मु, कह (हुमु ) सीसर गालिज कम्भु | सुगंहु, दया धम्मु वह भेय सुरोहि । P क्षेत्र एकु श्ररहंतु गुर निगंधु संगुम चतु, मज्ज मंधु मह चह सिरभंतु । पंचुंबर निसि भोज बद्दज्जु, लवणिज अलगालिज जलसज्जु ॥ ( फिर उनसे ) जिनत ने जिनेन्द्र भगवान के धर्म के विषय में पूछा । मुनीश्वर ने कहा "कर्मो को नष्ट करो | एक परिहत देव के मानों तथा दया एवं धर्म के भेद को सुनो" । मुनि ने कहा निग्रंथ गुरु की सेवा करो। मंदिरा मांस मधु को निभ्रांति त्यागो | पांच उदम्बर तथा रात्रि को भोजन त्यागो | नवनीत तथा बिना छने हुए जलका प्रयोग त्यागो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरणवत्त चरित गानि गालित-छना हुआ निगंथ - निन्थ --परिग्रहहीन, मुनि [ ५१६-५२० ] अणुव्वय पंच गुणन्वय तिन्नि, घर सिखाव्यउ धरि छउवण्ण । अंतशाल सल्लेहणु होइ, ए सावय वय पाखहि जोइ ॥ पुण प्रणयार धम्म बहु भेय, कहिट मुरिंणद भवमल छेउ । सत्त तच्च सय रसव पद बन्द, पंचकाय तुह जागहि भव्य ।। अर्थ :- पांच अरगुत्रत, तीन गुणत्रत तथा चार शिक्षान्नत (इन बारहवतो को) चारों वर्ण (ब्राह्मरण क्षत्री, वैश्य और शुद्ध) धाररंग करे तथा अन्त समय सल्लेधना धारण करे, वे थावक के व्रत कहलाते हैं ।।५१६।। फिर मुनि ने मन-मल को छेदने वाले अनागार (पति) धर्म के अनेक भेदों को कहा । हे भव्य । सात तत्व, (सात) नय, नव पदार्थ, (छह) द्रव्य और पंचास्तिकाय को तुम जानो ॥५२०।। [ ५२१-५२२ ] बारह भावरण कहिय बिमारि, संजमु नेमु धम्म तज वारि । अभंतरि परमप्पा बुझि, उतम ज्झाणु कहिच मह सझि ॥ पुण पयस्थु पिस्थु जिणुत्त, रूब शुरु गय रूव अर्यतु । प्रद्द रउद धम्म कउ भेउ, शुक्ल झारण वज्जरिउ अलेउ ।। अर्थ- और कहा "बारह मात्रनाओं का विचार. (चिन्तन) करो तथा मंयम, नियम, (दश लक्षागा) धर्म अोर नप इन चारों को परमपद के लिये अभ्यंतर (अन्तरंग) रूप से जानो । अब मैं तुझे उत्तम ध्यान को बाहता हूँ ।।५२१।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्कोपदेश फिर पदस्थ पिंडस्थ, जिनेन्द्र के रूप के समान ( रुपस्थ ) तथा अनत P ( गुणों के धारण करने वाले ) रुपातील ( सिद्धों के ) ध्यान को जानो । श्रार्त, रौद्र, धर्म एवं शुक्ल ध्यानों के भेदों को जानकर ग्रहण एवं त्यायों ।।५२२|| मलेउ - नहीं लेने चोख रूवगय-रूपातीत I ५२३-५२४ ] सुसारि ।। दंसणु णा चर राइ, श्राखिय किरिया अरु पविमाह । चारि नियोवि कहिय वियारि, जिरगवत कहि मुरिंग बहु पयार श्रापुमु यज्जरिज, सुिरिंगवि राहणु मनु भव कृषि सूद्धतिहि मलहारि, सामिय पथ दिरा को गह् गहिउ | संसारि ॥ अर्थ: दर्शन, ज्ञान एवं चरित्र, रस्नादि को संपूर्णक्रिया तथा प्रतिमाओं को कहा। चारों प्रयोगों को विचार करने को कहा और कहा, हे जिनदस ! "यही सब सार है” ||५२३|| E अनेक प्रकार के ग्रामों को कहा जिसे सुनकर राजा का मन प्रसन्न हो गया । (जिनदत्त ने कहा ) भव कूप में डूबने वाले के पाप (मल) को हरने बाले स्वामी के चरण के बिना संसार में (और) कौन ( सहारा ) हैं ||५२४|| [ ५२५-५२६ ] " पाछे जिनवत्त श्रवसरु लहिबि पूछइ सुपिवरु कह सहु सरिधि । पाणवंत सामिय वय करहु मह मा संसउ फुड प्रबरहु ॥ नेष्ठ, कि कारणि सामियखे । दीपु किमु विज्जाहरि सहिय सह ॥ r चहूँ तिरिया सह गरुप बुइ चंपहि इकु सिंहल Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरायत चरित अर्थ :पीछे जिनदत्त ने अवसर पाकर मुनि कहने को निवेदन किया । हे ज्ञानवंत स्वामी, मुझ पर दया ( स्फुट ) शंका को दूर कीजिये ।। ५२५ । । १६० श्रेष्ठ से सर्व वृतांत करके मेरे मन की हे स्वामी, किस कारण से चारों स्त्रियों से मेरा अत्यधिक स्नेह है । तथा उनमें से दो चंपापुरी, एक सिंहल द्वीप से और एक सुन्दर विद्याधरी कैसे प्राप्त हुई सो सब कहो ।। ५२६ ।। F पूर्व भव वर्णन ! ५२७ - ५२८ 1 विमलाएणु बोसइ ए रिसड, देसि अवंती नामें विसउ । पुरि उज्जेरिए प्रशिय गिलास, तह धरणदेव सेठि गुणरासि ॥ सहि सिवदेउ बहु वाल पूतु धम्म कम्म करि भयउ संजुत्त । कार जिससद पहाण करतु ह्यट फुलि गक सग्ग तुरंतु ॥ अर्थः बिमलानन (निर्मल मुहं वाले ) ऋषि इस प्रकार वोले, "विश्व में अवंती नाम का देश है उसके उज्जयिणी नगरी में प्रजित (राजा) का निवास था। वहीं गुग्णों को राशी वाला ( गुणवान ) एक धनदेव सेठ था ।।५२३| — उसके धर्म कर्म से संयुक्त शिवदेव नामका बुविमान बालक पुत्र हुआ 1 ( उस बालक का ) पिता ( धनदेव ) जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करते हुए प्रोग से मरकर तुरन्त ही स्वर्गवासी हुआ ॥१५२८ ।। कुनि / कुलिय - कुयोग [ ५२६-५३० J तु चरिरह पौडिज धड पर छाडिया नम श्रापुराह । हि कि हिवह वसह जिए सोइ, वजी करहि तु भोजा होइ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व भव वर्णन मुणि एकु बग माहि ज्झाए समाहि, ताहि पय पूजित वरणगी जाहि । छठन मास त पूजिउ तह, भारि गपउ जति पुरु माहि ॥ अर्थः - हे जिरणदत्त! (शिवदेव को पर्याय में) तू अत्यधिक दारिद्रय से पीडित था लेकिन (तूने) अपने धर्म को कभी नहीं छोडा । तेरे हृदय में नित्य जिनेन्द्र देव वसते थे और लेन देन करके तू अपना पेट भरता था ॥५२॥ वन में समाधि के ध्यान में लगे हुए एक मुनि थे जिनके पद- पूज कर (तू) वरिंगजी को जाया करता था। इस तरह ) छह माह तक उनकी सेवा करता रहा । तब वह मुनि नगर में भ्रामरी (प्रहार) के लिये गये ।।५३०॥ [ ५३१-५३२ } तू पडिगाहि घरहि लइ गयउ, पाय पूजि पुरिण पाढउ कियउ । लाइ बाइणो घरहि ते जाइ, महा मुलीसस चरी कराहि ।। जसबइ जिनबइ गुणवह जारिण, चउथी सुबह मरिण परियारिग । देखित तोहि धम्मु का भाग, चारिउ तिरिय भइय अनुराग ।। अर्थ :-तू (उन मुनि को) पडिमाहन कर (प्राहार के निये) खडा कर दिया । स्त्रियां अपने घर से बायणा (लाहना) लेकर जहां महा मुनीश्वर अहार में रहे थे, भाई तथा जसवती, गुणवती, जिनयती तथा चौथी गुभवतो चारों नारियों ने मन में निदान (उस प्रहार का अनुमोदन) किया और तुझे धर्म भाव में देखकर वे चारों स्त्रियां तुझ पर अनुरक्त हो गई ।।५३१-५३२।। चरी - आहार करने की क्रिया। । ५३३-५३४ । मुनहि प्रहार एक कदाण, भई घणी से घरिरिणी सियाग । पुण्ण पहाउ एक जिरणवस, मुरिणहि दाणु बोनउ पमिति ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ मिणदत्त चरित तहि मरेवि बहि सिसिह राय, पढमु समिग सुरवच संजाप । विविह मोय मरिणवि तहि मावि, प्राइवि जीवदेउ पुष भवउ । अर्थ :-मुनि को एक कदन्न मात्र प्रहार देने से निदान करने पर के तेरी स्त्रियां हुई । हे जिशदत्त! यह सब मुनि को परिमिस (अल्प) आहार देने के पुण्य का प्रभाव था। ॥५३॥ हे राजन्! तुनो, तुम मर कर प्रथम स्वर्ग में श्री देव हुये । फिर यहाँ विविध प्रकार भोगों को मागाकर (मोग कर) तथा वहाँ से आय कर तुम जीव - देव के पुत्र हुए ॥५३४॥ [ ५३५ - ५३६ ] दुइ मरि चंपवपुरी उत्पण्णा, सिंहल दोबह इकु प्रायष्णा । एक भई विज्जाहर धोय, धारिज तुम संबंधी सोय ।। जिणवत्त णिसुण उपण्णो बोह, जियमरिण छडित माया मोतु । मइ कुइ धोरु वीर तउ करद, सो मह मोस्नु पुरी पइसरह ॥ अर्थ :-दो मर कर चंपागुरी में पैदा हुई । एक सिंहल द्वीप में पैदा हुई तथा एक विद्याधर की कन्या हुई । (इस प्रकार) चारों तेरे (पूर्व मन) के सम्बन्ध से स्त्रियां हुई । ॥५३५॥ पूर्व भव का वुतांत सुनकर जिमदत्त को बोध (कान) उत्पन्न हुया और उसने अपने मन से माथा और मोह को छोड दिया। जो कोई वीर घोर तप करता है, वह मर वर मोक्ष नगरी में प्रवेश करता है ।।५,३६। [.५३७-५३८ . पतु मुवतह वीनिउ राजु, मई साहिन्धन अपुर्णी काजु । चढ़ नारि सिल जिरणवत्त साहि, बीषा लेर मुरणीसह पाहि ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप वर्मन १६३ सुसर पंचमत्स्यय पालि, गाण जलेरण कम्म क पखालि । परम समाहि जोइसी रूड, तव लथी हुम पठयो हुनु । अर्थः -- (फिर जिनदत्त ने) अपने पुत्र मुदत्त को राज्य दिया और कहा, मैं अपना काज (आत्म हित) करुंगा। चारों स्त्रियों के साथ जिनदत्त ने मुनीश्वर के पास दीक्षा ले ली ॥५३॥ सब जिनदत्त ने दुई र पंच महाव्रतों का पालन किया तथा ज्ञान जल से कर्मों के कीचड़ को धोया । जब मुनि जिनदत्त परम समाधि के योग में ये तब तप लक्ष्मी ने शीघ्न ही मपना दूत भेजा ।।५३०॥ [ ५३६-५४० ] विणवा इतु णिसुरिण दययंत, ...... तोडे रपवर के वंत । मोहमाल रसि धालिउ मारि, हउ पाठय सामी तव नारि ।। तब लछो निहहङ.......यो, खेब खिन्नु एहि प्रावत भयो । मझ वियोउ मार तिहि रिउ, ........... ..... । मर्य :- दूत ने कहा, "हे दयावान मुनो, तुमने काम के दांत तोड लिये हैं । तुमने मोह रूपी योद्धा को रण में मार दिया है इसलिये हे स्वामी, मुझे तुम्हारी तप स्त्री ने भेजा है ।।५३६।। तुम्हारी तग रूपी लक्ष्मी उदासीन होकर स्थित है । मैं खेद खिन्न होकर यहां आया है । मेरा नाम उसने विवेक रखा है.............. || ५४० ।। [ ५४१-५४२ ! सुणि विवेम तुहि पूछा वात, (ज) य चोसु पड्न मोठे प्राप्त । मरणपथ सहिउ बीच मइ बोल, मुक्ति सछि ते निगड बइठ ।। मुक्ति लछि अ (इ) हो सर दासि, तापहि छूटहि हम निरभाति । पक्षमोहि विन्निधि जसुषंति, मुरिरावर तिमु तोडइ ते (4) त । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जिणदत्त चरित ( जिनदत ने कहा ) हे विवेक सुनो मैं तुमसे एक रात कहता हूँ । पहिले वाले योप देखे जाते हैं । मुक्ति लक्ष्मी के निकट बैठने पर भी मुझे काम देव पर विजय पाप्त करने की दृष्टि दी है । मुक्ति लनी जब (हमारी) दासी होगी तथा हम निश्चय रूप से आभास देकर छूटेंगे । जिसकी कांति प्रकाशित होकर निकलती है ऐसे मुनि श्रेष्ठ ( काम देव ) के दांतों को तोड़ डालते हैं। ||५४१-४२।। विवेय । विवेक पज्जोवहि प्रयोतित .- प्रकाशित करना [ ५४३-५४४ ] रतिपति जो इह सी तमु लछि, अहो विधेय झत्ति निरु गछि । विएवहि जाइ मुरिगद गरिछु, मुक्ति निवारण जो निरु एछ ।। पहिलइ हूंतउ रिणय परिरस्तु, सा छडिवि मह भयउ प्रासत्तु । इय विदेय जएसहि तित्यु, मुणिका गणु प्रष्टइ जित्थु ।। (जिनदत्त ने कहा) यहाँ जो (पहिले) रति पति था वही तय लक्ष्मी का पति है । हे विवेक, शीघ्र ही निश्चित रूप से जायो और गरिष्ठ (बड़े) मुनिन्द्र से जाकर कहो कि मुक्ति निलंबिनि (उसे ) निश्चित रुप से इष्ट है । पहिले मैं अपनी ही (लक्ष्मीपर) अनुरक्त था । उसे छोडकर मैं फिर (तप लक्ष्मी) से आसक्त हो गया । अब हे विवेक, हम उसी तीर्थ जावेंगे जिसको मुनिश्रेष्ठ उत्तम कहते हैं । [ ५४५-५४६ ] सिक्काररिण हउ रिणरु पाठल, मई तुहु सामी प्राइ बीनयउ । ता जिणवत्त मुरिगसच कहइ, भव समुद्र को सुहयर रह्ह ।। निधियप्पु परमप्पज भाह, केवलणाणु अगंतु उपाइ । पुणु छुडु प्रठ कम्म लउ लेह, तीजइ भव मरि भोरुह गए ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप वर्णन (विवेक ने ब-हा) हमें निश्चित रूप से निष्कारण भेजा गया है और मैंने हे स्वामो ! तुमसे प्रावर निवेदन किया है । इस पर मुनीश्वर जिनदत्त कहने लगे कि इस भव समुद्र में कौन (जीव) सुखसे रह सकता है । ।।५४५।। निविकार परमात्मा का ध्यान करके तथा अन्त में तीसरे भव में केवल झान प्राप्त करके और पाठ कर्मों का क्षय करके जिनदत्त ने निर्वाण लाभ लिया। ॥५४६।। मुद्धर घोर दार तर लि, साह सगि ह' सम्म पखालि । हनि ते नारि लिगु गय सम्गि, सुह रायसिह काशिनिय लाग । यह जिनवस चरिउ निय कहिउ, अशुह कम्मु सुई सुह संगहा । वित्थुरु भधियह मुबहु पुरारिण, गहु जिप दोस देहु मह जाणि ।। अर्थ :-- उस वीर के दर तथा घोर तप का पालन कर सारे दुष्कर्मों का प्रक्षाल कर (यो) दिया तथा ६ (चारों स्त्रियो) स्त्री लिग छैद कर स्वयं गई । तु भी रायसिंह, अपने काज (अात्म हिन) में लग ।। ५४७11 - जो इस जिनदत्त चरित को नित्य कहेगा, वह अशुभ कर्मों को चूर कर शुभ कर्म का संग्रह करेगा । हे भविको, इस पुराण को विस्तार में सुनना और इस विषय में मुझे (ख) जान कर दोष मत देना ।।५४८11 निय- नित्य नय समाप्ति । ५४६-५५० 1 जो जिगदत्त की निंदा करह, मुनत चउपही जल जति मर मओ यह कमा पालिहइ रालि, सह मिछत्ती वइ यह गालि ॥ मह जोबउ जिरणवत्त पुराणु, लाख विस्यउ अहस पमाणु । देखि विसूरु रयउ फुड एहु, हस्थालवणु बुहयण देहु । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरगवत्त चरित अर्थ :- जो जिनदत्त (चरित) की निदा करेगा, वह इस चउपई (बंध-काव्य) को सुनते ही जल जल कर मरेगा । किन्तु जो इस कथा को अपने पास (रख) चारण करेगा (हृदयगम करेगा) वह मिथ्यात्व गला देगा ।।५४६।। मैंने उस जिनदत्त पुराण को देखा है जो पं. लालु द्वारा विरचित जो ऐसा (अथवा अतिशय) प्रमाण है। मैंने इसे स्फुट रूप से रचा है । हे बंधुजन हस्तालंबन (हाघ का सहारा) दीजिये ।।५५०।। अइस ईदृश – ऐसा । अइस / अतिसयित - विशिष्ट । [ ५५१-५५२ ] जो जिणवत्त कउ मुरगई पुराणु, तिसको होइ गाणु निम्बाण । अजर अमर पउ लहइ निरुत, चबद्द रह प्रभई कउ पुत्त ॥ गय सत्तावन छह सय माहि, पुन्नवंत को छापा घाह । सक्कु पुराण सुरिणउ नउ सत्थ, भरण रल्ह हउ रण मुराउ अस्प ॥ अर्थ :-"जो जिनदत्त के उपाख्यान को सुनता है, उसके ज्ञान. और निर्वाण होता है। यह अजर अमर गद को निश्चित प्राप्त करता है। यह अभई का पुत्र रल्ह कहता है ।। ५५.१।। (यहाँ तक कुल) छः सौ (छंद) में से सत्तावन गए (कम हुये) । कौन पुण्यवान अपनी छाया (टिया) छिपाएगा ? तर्क, पुराण एवं शास्त्र मैंने नहीं सुने हैं लधा रह कहता है, "मैंने अर्थ पर भी विचार नहीं किया है।" ।।५५२१॥ गाए । ज्ञान । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिरपदत्त पूरी भई सहस्र सलोक बिझ समत — I ५५३ ] चउपही, छप्पन हीराव छहलय कही । सय रहिय, गंथ पमाणु रासिह कहि || अर्थः जिनदत्त चौपई छः सौ में से छप्पन कम (५४४) चौपई में पूरी की गईं। रार्यासह कवि कहता है कि ग्रन्थ का प्रमाण एक हजार श्लोक प्रमार है ॥५५३ १६७ इति जिरगवत चउप संपूर्ण संवत् १७५२ वर्षे कतिक शुद्धि ५ शुक्रवासरे लिखतं महानंद पालवं निवासी पुष्करमलात्मज । यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा तावृशं लिखितं मया । यद् शुद्ध मधुख वा मम दोषो न दीयते ।। १ ।। शुभं भवेत् लेखकाध्यापकयोः । श्रीरस्तु । पंचमीव्रतोपमनिमित्त शुभं । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोष अखेह = - २६ प्रखंड = पूर्ण - १७६ अइ- ४००, अखय = अक्षत - ५३, यदराबइ = ऐरावत --- २३ अख्यइ = कहना - ४१७ अहम = ऐमा – ३६२, ५'.0 अग्विउ = कहना - ३८२ अइनी= इस प्रकार की—१०१,४६३ अगनिउ = अगनित - १२६, २८५ अइसे = ऐसे - ४४० अगम = प्रयाह - १६४ अइसो = – ३८२, ४१३ अगर = सुगंधित द्रव्य - ५३,१७२ अहमी -२८१ अगवारण = अगवानी - ५.३ असइ = ऐमा – ४५,२०५,२२०, । अणिलेह = आगे लेने को - ४६१ २२२ अंगोटिङ = रुकना - १३२ अजमप्पिगो ::: अवधिणी - ३० । प्रघाहि = थकना - ७० अउर - और - ४, १३७, १४४ अचाइ = गहरी - पेटमर, प्रसन्नता ३०१, ४१५, ५०४ अउरु = और - ४७, ४२५ अबाई = - १४६ शाकाहा = न कहना – ४७५ प्रघाटिउ = रोकना - १३६ अक्खउ - फहना -- ११६ ।। अचरिजु = - ४३१ प्रवरवर = अक्षर - २० । अचागले - दुष्ट - ४०१ अकाजु --. व्यर्थ - २१३ । अचाभर = - २७१ प्रधावसि -- याकाण - ३५४ प्रत्यगण = अचेतन - 1 हाकिमि = अविम - २६१ | अचंभउ = अाश्चर्य - ३६१ अकुलाइ = न्याकुलहोना -.. १०० | अचं मो = - ३६. हाकेल उ = अकेला – ३६५ अचंभौ = - ४३६,५०६ अखद - कहना .... ३४५ अल = बैठे हुए - ३७८ ग्राउ = वाहना --२०. २६७ | अछुड :- - ७३,३३६ यबहु = कहना – २२१ | - ६४३. ५४४ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरि - अप्सरा - ३३२ | अतुल = तुलना रहित - ५ अहि = - ३७०,३१६ - बत्थ = अर्थ - १४ अट्रीस = - ३९६ अस्थि = - ३८, ६६ अछे - अक्षत - ३६० प्राथु = - ५५२ अजउ = - १८१ । | अत्यहि = विनमान - २२ अज्ज = आज -२२५,२६५ | प्रथारा . - ४६१ अज्जु = - ३००, ग्रह - ५२२ अजर = - ५५१ | अधराङ = आधा राज्य - ३४६ ग्रजरु - ४६४ | अनइ = - ३७५ अजाण = अजान - १८८,४०६ | अन ग = कामदेव - ४२% अजिय = अजित - ३, ५२७ | अनंतु = अनन्त - ६, अटकम्म = पाठकम - ५४६ | अनपर = उमपर - १६६ अयिह = पाठप्रकार - ५४,१६८ | अनिवार = अनगिनत - २३६ अरंगु = ४६. | अनिवारु = अनिवार्य रुप से ३, अण = अणगलिङ = विना छना -- ५.१५ अन्नु अनु - पोछे पीछे - १७६ अराछाजत = अनचाहा - ३७६ अन्तु = अनाज - ३२४ प्रणयार = अनगार,मुनि - ५२० । अनुदिनु = प्रतिदिन - ५०१ अरणसणु - अनशन - २५२ अनुराग = प्रेम - ५३२ अणीवंध = अनिबंध -- २८९ अनुवद = अणुदिणु = प्रतिदिन | अनेयइ = अनेक - ३६४ अपरारउ = अनुसरण करना ३२८ अपजस = अपयश - ४३१ प्रणेय = अनेक - २८८ | अपणी = अपनी - ४०२ अरणंगह = अनंग - ३ | अप गु - स्वय - २२५ प्रणंतु = अनंत - १६३,५२२,५४६ | अपणे - अपने -२०५ अण्णु = अन्त - १६० | अप्पइ = अर्पण करना - ४५३ अरणुच्चय - मन्नत - ५१६ | अपु = स्वयं - ५० ४१७ अतडङ = बिना किसी बाब्दके,चुपचाप | | अप्पउ अर्पित करना - २४२ - २२८ | अपनाइ - अपनाना - ४१५ अति = बहुत - ११७,३११,३८४, | अपमारण = अप्रमाण - २६३,९६५ प्रतीते - भूतकाल में - २२, अपरंपर = - ४२६ ४३१, ४४२ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहि अपुग अनु ] अप्पाणउ - मल = अमिल = अपार = फौ = अबूझ = अज्ञ प्रत्यंतरि = अंतरंग ५५१ = अपने कुमार्ग - - - - ४४६ — अपने ४०६, ४५८ अमर = ५५१ अमरउ = आम्रवाटिका श्रम इ = ४७० अभिडत = भिटना अमोर = प्रयोग ५११ १८५ - - — - - — निर्मल अमृत २४ हमारा ४००, ४०३ ब्रम्ह ब्रम्हारी = मेरी ३६१ अम् = यंत्रे = १५४०२ TTM - - — - हमारा महि = हमारा प्रमुल्ल = अमूल्य श्रयसउ = ऐसे ही अयागु = अज्ञ श्रयासि = अकाल घर - और अरथ = लिए भरर्हेतु = श्रर्हत् श्ररि = श्ररिकम्म कर्मशत्रु – ७ अरिमंडल = मात्रुसमूह = श्ररनाथ तीर्थकर ४०३ प्रस् ३५, ४५३ १५७ - - - - ५२१ १४ -- _३२२ १४३ g ५३, २३१ २६५ २२५ ३२४ १६५ ५४,५१७ ४५५ - ७, अरू = और- १०, ३५, ७०, आदि अरुणेव = अरु. लाल ५ अरे = - = ४०१, ४७६, प्ररथ = द्रव्य, धन ४४६ ४७२, अर्थ - १३७, १३८, ४४६, -३७२, प्रलखणु = लक्षण रहित अलहादी प्रसन्न ५८ अनि ुলि अलिय = अलेज ५२२. ग्रम अब ४८३, ४६६, प्रवहु अब ४३४ अवधारहु धारण करना अवधारि ३३७ बषि 1 = - = H = २२८, २६१, ३५.४, = भ्रमर समूह ४२८ लेप रहित ५२, ४४२ -y = - - छोटे और — - - अयस अवसर अवसर J ३८०, ४३७, अवर और ५२५ अवरहु अवरु = ओर - २.६३,६८,११५, आदि श्रवरुषि = और अवरति = विरक्त अबलोवाला = - a अवश्य - - — TT - - २७८ - - २०३ ६६, २८६ १११, ** अवसरु = अवसर अवसारण मृत्यु अवसि = अवश्य अवश्य ४८३ अबसु प्रमुख दुख ३०५ - १७१ 1 ५२५ ४८२ - ३४२ ३४६ ४६८ ८२,११६, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ अवसेरि = चिन्ता - २३८,२६३. | अणुदर प्रमुन्दर - ५१०, अबका = दूर करना - २०८ नहर = आज - २२३, प्रवास = महल - १२०,२३३, ग्रहः = थी – १६५.३३०,४६७ स्थान - ५०४ | अनिसि = रातदिन - ५१ प्रवासहि = प्रायास - ३१ ग्रहल = निष्फल - ३०३ अवासु = अावास - ४१ प्रहारु अवहोइ = - ४६७ अहार) = अाहार - ४०६ अयंती = - ५२७ अहिउ = -- ३६ अविचार - विचार रहित - २५, ग्रहितांदण = अभिनन्दन - २ हितावित - होगः -- ११६ अम = ऐसे - १११ आहो - - ७२,१११,१२८,१५७, असर = शरण रहित - ४ अज्ञा - मर्यादा - ६६ अमराल = - ४५,२०२ अंकवाल = अंकपाली - १७० अगरानु) = निरन्तर - ६५,१७५ ग्रंकुस = अंकुश - ३४५,३५८, ४३७, अग = शरीर - ५७,८२,१०६.२८२ असिफल = तनवार - ४५५ | अंगवः = अंगीकार करना - ४५४ असिवरु = तलवार - २२८ | अंगु :: - २२४,४२८,४५६ असीस = अशीष - १५३ ।। ४४८,४४२,४६६,५१०, असोइराय = अशोक राजा २७६ अंचलु = अचन - ७६ असोक = अशोक - १६०,१६६ : अछुइ विना किसी के छुए हुए – ५३ असोकमिरी = ग्वणोक थी - २६८। घजणि ] = अजनी गृटिका १५३, असोग = अशोक - २८२, २६३ | अंजनी] = - २८८.३६३, असोगसिरी = अशोश्री - २८१ । अंजरगोवा = अंजनवटी - १५४, असोगह = अशोक - ३०२ | अजगु = - १५२ असंख = ग्यसंख्य - १७१,४५१ | अडदड = एक गढ़ी का नाम - ८६ ४५२,४६० । नत = सीमा,वार - १७ असंख्य = - ४५१, । असयाल = अतसमय - ५१६, असंखइ = असंख्य - ४६२, अतर = - १६६ प्रसी = अस्सी (८०) - ४०६, | प्रतराल = दूरी, बीचमें - १८६ अशुत् = अशुम - ५४८, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलई ष्म तरु = अतु - अन्त २६६ आगि = अग्नि अतेरू = अन्तःपुर - ४१८८ आदि | आगि = आगे अथइ = प्रस्त होकर २६६ भागियं अधु = अॅा २५ अब = मान आइसु ब्राउ = मंगल १६८, 11 अंबराह = अमराइया बिमाई = प्रत्रिका माता अवराउ = श्राम्रराजि अवसाद्दार = श्राए = आकुली - = — = E j BILL - = - - - ४७४, ५०३, = म्याकुल श्राखण कहना = कहना प्राखहि श्राखिय = संपूर्ण आ आइ = ५६, ८४, ११२, मावि श्राह श्ररणा = आदिनाथ तीर्थंकर- १ श्राइत = श्रीकार - ५१३ आइताई = अकिर २०५ प्रायो प्राइवि प्राइस = श्राज्ञी ३३५ आशा = प्रक्षय आगे सहकार मामके वृक्ष ५३४, - - - १६६ १२०,१२३, श्रनु आगई = श्रागम शास्त्र भागमणु आगमन — - 1 -- - - - Z - — - ७०. - १०५, ४२१ ३४ - १७५ ३२ १४ ३५७. १३४, ४५६, ३४१, ५१६, ४२३, १० १२३, १५५,३०४, ४५४ श्रायती = द्यायले यही हुई = ६६, १०१, २७७, अग्र भाग ४०१, श्रगुली आगे याचल ग्राज 5 - श्राजि = भाग को रोकने वाली- २८७ भंगुली सामने मंचल ५०० श्रीप = आप आप - - — = = आधा - - ४३४ आजु = २१२, २१३,२१६,४०७ आरण = सौगन्ध २५२,३५१,४१८, आणि = सौगन्ध लाकर - १०७,१५० आरतु आदि — = २१६,३८३, आशियउ खामा ३६५. ५८, श्रारद = मानन्द - ६२,५१५, प्रागादिउ = प्रसन्नहोना श्रादे = ५०४ आते = कवि के पिता प्रादि = १८४, भाविमाह आदिनाथ - २१६ - - आपण उ आपणी = अपनी आपण = स्वयं प्राध - प्राधा भाषौ भान = अन्य - ४२४ मानि = लाकर आनदव = भ्रानन्दित - - - - - - १३३. ४६६. - ६५ ३६६ १२ - - ३५६, ४११ २८५ अपनो २४, २०१ - २३८ २६ २६४ १७३ - अपने को - १२६ ५०० ३८० ३०८ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kar आपि = स्वयं अपने आयसु आयुमु आये : = :: आयु - श्रापुण = प्राप आपुणइ = आपुरणउ ११ ग्रासर = २२, २३ आसा : श्रीशा आपुरिंग = अपने प्राप अपुरणी = अपनी - ७१,३८३ २८५ श्रासत्त = श्रासक्त आपुणे = श्रपने श्रापुरणी : आफ = अर्पण करना १६६, ४७७ आफि बाकी - Y = देकर - ४७६, ४७७, ४७८ आभड़ी = कही - १५.३ श्रमण = गहने - ६६, २३४ श्राव = भाया - २५१ श्रावत = भाया प्राथष्णा - = H = C - = - १३६, ४४६ १४८, ३७५ — - ४११, ३२० - Hakan - AJ - ग्रामो = आयो = श्ररवहि = चिल्लाना रोना ૪૪ - ५२४ - ११५, १६०, १६२ - २१७, १४२, - ४६८, ४८८ ५२६ ४८३ ४४६, ५३७ - - आराउ = प्राराधना ५२, ४६४ आराहि = अराधना १७ आलियरु = कस्तूरी ३७५ आवद्द = श्राना - ५१, १६७, २२५. मावत = आवतु श्रावहि = ५४० = - ६८, २०७ श्रावही - २६१ KITE = २६५ आवास = मद्दल - २५१, २२० १७२ विलो = इमली आस = इच्छा आत- ५६, १३९ - २२० - २२०, ४५६ - १७८ आसादितु = यासि = होन आसीस = = # १४१ दासु प्राणा श्रासे = होना १८१, १८२ आह २५६, ४७२ ४८७ H - श्राहारु = १४६, १५६, १६० आहि है, कहा जाता है आय ५.३५ पैदा हुई इ -- = " - - - १ आशीर्वाद - -- - — 1 उ = इस प्रकार आहूट = स्वयमेव २१३ श्रांखि = प्रांख - ३५, ३१४, ३७८ प्रांगुल = अंगुल - ३७७ आसू २०८ - डब = इस प्रकार इसको ཏང इ - ४६६ ५४४ — - १८० MI १०५ - - २५६ ३२६ २०७, २४८ २४ आदि इकठा = एकत्रित इवल्ली = केली इकु = एक -११६,६६,६६,१२८ अदि इतिवार = एतवार, विश्वास - ३०४ इनि S - २०१, २३४ १८७ १५४ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम ८ इस प्रकार - ६०, ५०४ इम = -४०५ इयर = इतर - ३ इलायची = - १७१ इलोणी - लावण्यपूर्ण - ६६ इव = इस प्रकार - २३७ आदि इबहि = पत्री - १५७, ३३७ इबहु - - ४३० इका = इस समय - ३३६ इस = -११ इस = ऐसा - १४७, १४१ इसहि = -४४० इसु = इस - ४२४ इह = ग्रह, वह - ५५,७६,१९६ आदि इजि = यह - इहर = यहां - २१३ इहां - यहां - १०६,३६०,४३६ ग्रादि इहि = इस -- २१०, २११, ४८७ इह = - २३५, ४५० इंहि - इच्छा करना - ४३ इंछित = इशित – ५०४ ईद = इन्च - २७, ११ इदिय = इन्द्रिय - १५८ उघाडि = खरेल ना - ४३० उघधि = - ४४५ उघाडह = - ४०८ उचितु - इचित - २४८ उझउ = उत्सव - १२० उछल = -२६० उद्यहि = - २४७ उछलिउ = उदलकर - २५८, २५६, उछली = २४७, ५०३ ३६८ उछाह = उत्साह - ६३ उछाह - उत्सव – ५८ उछग = गोद - ८०.१०६ उत्साह उछंगह = - ५०० उज्जल = -६३ उजाधि = उजाउ - ३५२ उज्जेणि = उअविनी नगसे - ५२७ उज्झाउरि = उपाध्याय – ६२ उठवहि - बदते हुए उन्हु = उठो - १२४ उठाइ = उठाकर -१६९, ३३४ उठि = -१३४, ३०९ कादि उठित = -४९८ उठियउ = --२२१ उइगु = उपवास -- ३४७ उपचास - गुमचास - १५० सध्या उरिण = उसने - ३०७ उत्यइ = उड़ना - ४५३ उत्पण्या = इत्पन्न - ५३५ उतपाति - उत्पत्ति - २६ उत्तम = २६, ७, उत्तर = इधणुरु वन - १६० ईसापु = ईशान - १२ उकट :- सूखना - १६८ उक्क - उल्का - ५१२ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ उतरि उत्तर - उतर = जवाब ি = उतना ३२ ४५६ उत्तंग = कंत्रा उदहिददतु = सागरदत्त सेठ का नाम - १७६ उन उन्नति उद्धरख = उद्धार उद्दिषु उससे = → = - - पगार = उपकार सम्पण = उत्पन्न उपष्णु = उत्पन्न उपप्लो उपासु उर उद्यम १३६ कहना - २१३ उपगई : पाना उपमावे - उरण मादे अरबसी उन उरि उवघार ૨૨૯ - ५०६ ५०६ = उत्पन्न हुआ - ५३६ २६२ - २७१ २५.१ उपरणु = ऊपर उपरहि = कर उरवारि = उखाड़ना पाइ 1 उपाउ उपाि - उखाड़ उत्पादि = उत्पात = उपवास उऋणा - ७२ Ma - - - - २५० २६३ - उपाय - १४५ ३४५ - + १४० २६७ Jud . ४११ ५४६ - 355 ३४६ १३४ २५ २७३ उर्वशी १ -85'9 ६४ उबरना = उपकार 1 1 ३४५ २५ उवर = उदर उबरहि = उवरि = उदर २७ ऊपर ४७० = वह = उहकी खहारण उहि उव्वरिंज = बचना उयहिवस = सागरदत्त सेठ का नाम उदाच = उपाय' उघारि = द्वार उसरि JAJ = 1 - वहिद उहदस उवहदत्त - -- १७६, २४० उवहि उदधि - २४६, २८३ १५.१ ४६५ = ३६६ उड्डु = उस = ऊगयो = - = अवसर • ४६३ - - २१६ 4 ४८७ ऋ = shy = उसकी '७'७ २१० - दूसरा ऊचालि : बुरी बात ऊचे = ऊज = ऊपर = कपराष्ट्र ऊपर कारि उभे २४५ - १७५ १७८ । वि २३४ 4 अदित हुआ - ३०७ २४५, ४४७ - Jud - २२० - ३१० - ४४५ - ३४७ LLB हर • ६६, ११ खड़े हुए - २८४ ऊसर - श्रीसरा २०५, २१, २२० पारी २४७ सरक= पारी - २१२ - ऊसारि - = उच्चारण करना ऋषि, साधु ४५ 7 ४६ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एउ एक = एक इ = एक- ३६४ एक्कर एक यह - ३११ - + - ८५, ८६, ३०६ श्रादि एककउ = एक - १०५ एकचित्त एकगु एकतु = कोई एकति = कोई एकनु = कोई केला = 2 ५०५ == कोई - १२९ १२१ ए m - - - - एकल्लउ = अकेला - १५७ एकत्रति = इकलौता २१२ १७८ एकह = एक - १४६ एकहि = एक साथ एकु = एक २१२, ३०२ आदि एग्यारह एगारह = ग्यारह - ३६१ - १३० एठ्ठ इष्ट ५४३ एत्यंतरि = इसके बाद EL MA ४७,७५,२२२ - = इस प्रकार — १२१, १२२ १२१ एत उ इतनी I E E एतहि एतिउ = ऐसा एती मे - ३६६ एते = उसी १४९, ३४४, ४६६ - - 1 ३४६ एभु इस प्रकार - २२३, २६४ एवहि = इस प्रकार - 고 6.61 एवा = इस प्रकार एस ऐसी ३१५ एसड = इस तरह - ७३ 3 १२७, १७६ ४०२ २२८ एहा एही = यहां - २४१ ३६१ = इस - एड्डु = यह एहो = महो - ४०२ ऐसी - २७८ ऐसो = १२४ 1 साउ = इस प्रकार मौ ओंकार = - ६४ श्रीगरण = अवगुण - ३१२ 3 = इस प्रकार ८०, ३३१, ३८२, ५५० क कवित्व - २२ २०० कइतरयु कइन्हु = कवि कइलास = कैलाश कइसइ = किसी प्रकार कइस उ = = कैसा ३६३ कइसे = ऐसे - ४०७ कईस = कवीश कचरण = करेन करपइ = किसी कजरणे = कौन कचनार वृक्ष विशेष - १६६ २१६ -- = कष्ट - -- AAJA कटपाल क ृत्रि कइड = कड़ा कद्राष = कटास 126 — - - - - — कछु = कटक सेना कटकट सेना ४८८ कटखंड ― २६५ - २८ ३ २७८ - काय के टुकड़े - २५६ पौधा विशेष १७४ २२ १४२, २०७, ५२६ ३३०, ४५४ ३१२ ४५५, ४६४ श्रादि १५८ ३८३ १६५ १७७ T — Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडि - कटि -- ३७५ | करणा. एक प्रकार का मीठा नीबू केडियल - कटिस्पल - ६४ १७१, २७१ कढ़ाउ = निकलाना - ४७७ करतउ = कर्ता - ४२३ करण = अनाज - ३६, ४७ करतार = स्वामी - १५.७, ४१४ कम्प - स्वर्ण - ४४४ करंट * करण्ड - २६० करणः = स्वर्ण - ४६५ कहिउ = ऊँट पर सवारी करने करणय = कनक - ३०१ वाला - ४०१ कण्वजि = कन्नौजिनी - २७० कागा = दया - ६८, ४५ कत - कहो, क्यों - १५५, २४४, ३४३. कलस = कलत्र (स्त्री) - ३६१ कत्थ = कहाँ - ३४१ कलमली - कन्ट - ४४ कतहुरा = कहाँ ३२४ कला = २४, १०७. आदि कति = कैसे - १५६ कलास = कलश - १२५. ४४३ कथा = कहानी - २१, ६६ प्रादि । कलि : कल - ३४१ कथंतर = कथान्तर - १२७ कलिमलु = पापमल - ५४, १६ कदली = केला - १ कलिमलाइ = घबड़ाकर - ३१० कदाण - कदन्न - ५३३ कली - कली - ६५ कन्य' - कन्या - ३०० कलेऊ - कलेवा - ४१२ कन्या = पुत्री - २८३ फलोल - - ४५५ कन्होदे = रानी विशेष का नाम - २७४ कल्लोलु - प्रसन्नता - १२३ कपटु = कपट - ३०७ कल्हि - कल - ४६४ कपाल = - ३७८ कत्र = कवि - ८, २२, २९ कपूर = + ४१२ कबड़ - कपट - १८ कपोल - गाल - ३७८ कपड़े = कपट - २६३ कमल = - १४, १७४ कनगा :: कौन सा - १५४, १६२, कमलादे - - २७३ किस १६६, ३१६, ४२५ कम्मू = कर्म - ३२१, ५१७, ५२८ | कवणाई - किसी ने - ७५ काम = कर्म - ५३८, ५४७, ५४८ कवणु = - १०४,१४०,२६२ कय = के, क्रय - ३६, २०१ फपित्य = कैथफल - १७२ कवि = किमी को - ४०३ कर - हाथ -- १४८, २२७ । कवरणे - किसीका - २२२ करई = -- ४५, ५०, ५१ प्रादि । कयस3 = कंस] - ३६६ करकंकण = हाथ का गहना -८४ | कवि = -६०, २६६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवित्त = कविता - २१ कामिणी = कामिनी - २४४ कविन्ह - कवियोंने - १५ काय - शारीर - ३७७ काट = -४३॥ कारः .. सरपोक - २६३ कसिर : वृशि = १६९ कारजु - कामं -३६० कसु = -६१, १२६ कारण = --५३, १६२, ३२४,४२१ कह = क्या - १४४, २२४, ४६५ । कास = फल - २१०, ३३६, ४३०, कहा = कथा - १६, ७७, १११, - । । ४७६, ४७७, ४७७, ४७१, ४.७६ १२७, १५६, प्रादि | काला = काला मृत्युसामान -२२६, काउसरिंग = कायोत्सर्ग - ३६ काकर = कंकर - २४० कालकुट - काल कुष्ठ - ३८४ काख = ६३ कालि = काल - समय - काचुली - कंचुली - १३४, १३६ | काली - कल - २३३ ३१८ काछ : - ४३४ कालु =मृत्यु, - २२६, ३६६, - काज :- कार्य - २०७, २१६ ४३७, ४६०, ७८ काजिनिय निजकार्य - ५४६ वाल = काल - ३४५, ३४६ काजि - कार्य - १४४ काल्हि = कल - ३४३, ४०७, ४३५ काजु = कार्य - १७, ११३, २१४ - कासु = किसके - २२२, ३४७, ४५० ४६५, ५६७ पाहा = क्या - ३४१ कादि काटकर - ७०, ६५ काहि -- क्यों, क्या - २०१, ३५२, काठ - काष्ठ - ३२ ३६७, ३६३, ४१७, ४७१ काडि :: निकाल कर - २३५ काहु - किसीकी - ११५, १८१. . कारज - कष्ट - १५६ काहे : पयों -३१२, ३१५, ४०४, . काढ़ण हार = निकलने वाला - २३२ कारण - लल्जा, मर्यादा - ३९. ४६१ किज्जह = करना - ४६ कारिंग -. कान -६६ कित्तरेख - कोतिरेखा - २७३ काथु = कत्था - १७५ किरण : -५ कान = किण = १२६ कानडि = कपड़ी - २७. किण्णु = क्यों नहीं -२५२ कापडु = कपड़ा - ३२५ कित्ति - कोत्ति - ४५ कापर 4 कपड़े -११२ किन = कैमे - ६१५, ४.७६, ३७ कामकला - -६७६ किन = कसे - २१, २३६, ३४६,कामवाण = - १००, ११८ [ ३७२ ४७४, ४७५ ४६१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ किग = किम प्रकार - ४८,३७९ , कुयुध विकृत वृद्धि - ११ तुमइ - कुमति - ११ कुमरिणवर - खोटा मूनि -१०१ किरण = दोस्ति -- कुमार :: कुमारी -- २३५, २.८५, ३४६ किरिया :- क्रिया - ५२३ कुमरू -- - २३४ किराइ = किस - १७ कमारिह .. कुमारी – २०३ किसाही :- किमीभी - २ कुमारि = कुमारी - २७८ किसि - - २०७ तुमारि = -१% किसी -- कैसी - ८९ कृमा :: कुमार - १२४ शिगु = से फिसे -- १७७.२६१,३१५ । कुल = वंश - ४६.६६ किसुबई = किसकी - ८४ ६७, ७२, १८४, किह - ४६३ कुनि = कुल - २३. ५०६५.२८ बिहा :: कहाँ २६७ कुन्नि = जाति - ४४, १५८ फोरनि - ऋति, परां - ६, ४३६ लु : . कुल, वंग - ६२६ किलमागम :- क्रीड़ा करती हुई - ह. लागि - १ विली - - १६५ कुबतिलल = कुलतिलक - 68 कोली - कोल - १५१ तुलमंड: कुलमण्डन ५५ कुना कुचला - ४४६ जबहु ... कृलवधु - २०६ कुरुम्म :: कुकर्म - ३.५ कुलीय जाति - १४६२ बुवइत्तर :- कुकवित्व - २५ कुबड़ी = कुबडी, बीना- 6 कचाली -: खांटी चाल - 3८१ कुवरह -: कुमार के - ८१ कुम्हार ... -४४६ कृरि = राजकुमारी - २१? बुट्टाल = कुत्सित - २७.३ सनाला = ११३ कुरव = परिजनलोग परिवार • ६. कुहनी = कुहनी - ३:३८ काजल - - १७३ | कटइ कनना ६१३ कुारू -- कोर' -- ४.५३ कूटग्गु - -२४३ कुदाल " बेचंगी -- ३७८. कट -- कुटिल -- ३५ कुतारहि = कुहाना – २१५. कउ : युग - ३८१ जय कुधनाथ - कडू - बापट – ५१ कुद्धि - ऋद्ध - २२४ गी - ४२७ कुपुत : गुत्र - १३६ . करु = वाटर -३३ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबड उ :: बडी - कूजा = कुधा - ५७ केउ - केतु - १३ केतकु कितने ही - १२७ केत्त कितन केवल = केवढे का कैसे : = = = केन लगाणु केला = केह = क्या ३२३ कैलास = = कुबडी - ४००, ४०७ ३७७ = = कोइल १७५ - ४५८, ४५६ कोट कांडि = करोड - १३०, १३५ - १८४, १८५, ३६१, ४०६, ४५२ कॉडी = - ६१ कौतूहल = कोतूहल - ३२०, ३५ कोदइ = चावल = ४०६ १५.५ कोपड़ = कुपित कोमिंज को प्रित १३३ = = १६६ = केवलज्ञान ५४६ ३३, ४१२ कैलाश - २६२ ३० १४, १५६ कीषु = क्रोत्र - १७० २४६, २६६ कोलाहलु शोर - १२३ कोली = जातिविशेष - ४३ = कोवि कोई ३६ = कोस कोड = क्रोध ४७० कौन -५६७ कौवि = कोई - १४५ कंचरण = स्वर्ण - ३६, ४२६, २७ कंचरणदे = - २७१ कंजुरी = ܕܕ - - - - १८.७ - ८ कबुली हाथी - ३७३ कुंजर कुंडल == कानों के प्रानूपरण - १६६ - कंदलह ऋषि = क्रू चू कुडलपुरु कंठारोहण = कंठ का रुकना 5 मठिमला ३७० कंस = नाथ १५६, ३०३ ६४ = = H .. = कन्धा ३५८ कांति = सुन्दर - २७३ किंकर सेवक ४११ Axe - - कुद = एक पुष्प कुमी पाक = ग्वालउ = - - ६२ 4 २४५ स १८३ खखदि = कठिनाई - १४३ खचिय = खींचना है खसि = क्षण १४२ वडग :: तलवार खत्री = क्षत्रिय - ६६ ख - - - ६५ खयर = खरी = खड़ी, श्रप्य - १८१ . ४१० निश्चय उदल = खाज = खाद्य पदार्थ चारपाई - २२५ खाट = खाई वडग '४२५ ख. न = भण्डार - 1 २१८ ४४ - - ५१४ ७ १०७ खाली पिचका - -T ४१३ १८१ १७६, २१५ -- ६ १५६ ३७७ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाउड़ी = गौडी - २०१ गगन - आकाश - ३२३ गगन गामिनी याकाम में चलने वाली.. स्खालु = चमड़ा - ४७७ खि - खिन्न - ३५६ खित्ति = क्षिति, पृथ्वी - १ खिन्नु = ५४० खियात = ख्याति - ३५० खिरी = - १७२ सीचि = -१६६ स्त्रीगोवरि = क्षीणोदरी - १०६ खीर = क्षीर - ४१२, ५०० खजाइ- खुजाना - ४१८ । खू2 = क्षय होना - २२६ खूटन = खुला - ३४५ खेतपालु = क्षेत्रपाल - १० स्वदंत = खोदना - ३४७ खेज - खेद - ३०६ खेमु कुसल = क्षेम कुशल - ११४ खेन = - २६२ खांघरु = -१६३ स्त्रोची = टेदी -- ४.५ खोचे - - ३७७ खोजु = - २४२ खोड = खोट - २३८ खोडि = खोट - १३०, १४८८ बंड = टुकडा - ४० खंडागरु = तलवार - ६५ खम = - ३५६, ३४३ खाँड - - ४१२ गज = हाथी - ३४५ गजगमणि = गजागामिनी - ९७६ गजहि = मर्जना - २६६ गल = - ४५६ गह -- किले में - ४५७, ४५८ गडबड = गडगडाहट - २६३ गही - - गढ़ = गरगह = समुह - ४६६ मरणहरनिय = गावर बन्द -- ३ गणु == - ५४४ गतहि = -३०६ गयवर = हाथी - ६.५३ गयंद = हाथी -- ३४६ गरम = अभिमान - १४१ गर = अभिमान - २२६ | गरह = विश्वास - ४०० | गरिठ = गरिष्ठ - १३ गम - अधिक - २२३ . गरुद - बडे -- २६८ गस्वउ - अत्यघियः -- ५२६ गरुङकेज - गाडकंतु - ५०८ गल = -१४ गलिय - -४४, गलींदी -- ७२ गल - गर्दन - ३७४ मरि = गारो - ३७६ गन्म = गर्व - ५२ गइयर = हाथी - २३ गइदु = गजेन्द्र - २३ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात - गवाई - - १२५, २८०, ३२१ गनु = गवं - ५०, ३८७ गीतु - गीत - ६० गवेकिंउ = तलाश करना - २२२ गीद्ध = - १६२ गस हि - असना - २२१ गीय = प्रीया -१६ गुटिका = - २८८ गहगहइ = गदगद - १७७, ४४८ । गुड़ी = - ५०३ गहगही = -१६४ गुगण = ७, ४५, ३०६०, प्रादि महगहे = गुणगा = - २७२ गहवरह = व्याकुल होना - २७१ मुरारिणहि = गुणनिधि – १५ गहिउ - - ५६४ गुरगदत्त - - १५० गहियाइ = टटोलना - ३८४ गुणपाल = -- १८६ गहिर = गहरे - ३४१, २५६ गुणमित्त = गुणमित्र - ५०८ गहिरउ - १६५ गुरणारा -५२७ गहिरी = गम्भीर - ३५६ गुरगकई = गुणवती – ५३२ गही - -३१२ गुणवइ - गुणवत - ५१ गहोर - गम्भीर - १३८ गुरगवाल = गुणपाल - ८८ गह - दुख, आग्रह - ४०८,३११ गुणि - - १३६ गहो - लिया - २६८ गुमोद = - १५८ गाज - गर्जना - २३, ३५६ गुणंग = गृण सम्पन्न - ११८ गाजइ - -१६५ गृणाहि :: -१२ गारि - मांठ - ५७ गृपत = गुप्त - ३०८ गाम - ग्राम - ३३ मृपत्ति = छिपी २५५ गामिणी - गामिनी - २८८ गृपति निहा.- गुप्तनिधान - १८८ मरत - शरीर – ३७२,४१४ गुम = - ३४६ गादह - गधा - ३७४ | गुर = -५१८ गाल - - ४७७ गुरु = वृहस्पतिवार – २६, ५५, ३६० गालि - गला देना -५४६ गुसइ - स्वामी - १५६ मालिउ - -५१७ | गुसाई = स्वामी - ३२३ गालिवि – गाली - २२७ मुसाईऊ = स्वामी - १५७ गावहिं - - ६०, १२५ । मुसाइरिगदेवि = गांस्वामिनीदेवी - १६ गिर - पर्वत - २२७ गूगरि = मूजरी - १३० गिरि - - ४५२ | गुड : मूडी - २८॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ गूढ - १८३ गेल = मैल, मार्ग – ४६१ गोपाल गोफणी गोलक गोवहि = गोपहि मोहिली साथी - १५० गंगादे २७६ = = गांठ: = ४७६, ५१३ गोपया, पत्थर फेंकनेका श्रस्त्र = गठि गांठ - ६८, २१८ 수 गंजर : = अपमान - - ७१ जिय = नष्ट 150 गंभीर = गंभीर ३४१ = गथ = ५५३ गंधब्बु = गंधर्व - ३२१, ३५५ गंधि = -- ४४६ गोवइ = गंधोदक - १६८ गंषि = जाकर - २३४ गंभीर = गंभीर - २५६ - 96 घरण : -- - = = ४४३ पाना - ३२२ घड़हडाइ = १२५ घडियार = घडियाल - १६४ घड़ी = गड़ी - ६, १६५, ३३२ - - बहुत ४४.७, ६०७ घर १२८,४०५, ४०५, ५२६ अण्णां = पेलना ४०५ श्रमहून धरणा घ २०६, ३४६, ४२३, | घशाह धरणी = धरणे ४५३ घर = १३६, घर घर = बर = स्त्री - ३१,४५, ४६ घरवह = घर में - २१२ घरणी = गृहिंसा - ५.३३ धरी = गढ़ी ८४ १२१ घलहि - चलना - २७६ घरणा घाउ = वास घना, बहुत ४०, ३२०, - १७४ अणीक - ३४६ ... = ६ना, बहूत - ४०५ घनी २७६ श्रादि बहुत २२, ३१, ३८८, ४४५ घोर घोरू च आदि - = h २६६ घात्र घाघरो = झालर घाटि = घटिया ४१४, ४०६ घाटि = कम - २६६ F - घोर ५७, ११२, १३१, घालइ = मारना घ=घी - ४२२ = त्यक्त १८ ४३, २३१ ३७६ - - 1 L 1 ܪ - १००, १६५ - ५३६ ३१.५१८ छोड़ो - ५१८ - ५४३ चइज्जु चइवि = चयकर | घड = चार १४१, ५०४, ५१६ सुजुक = चौक ६० नवकु = चवकी ५११, ५३४ १२५ ५३२ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदह चौदह - २०२, २३४ चचदिसहि = ४७० चउपई बंधु = चौपाई छंदमें २५ 10 = उपड़ी २३२ चउपट्टी चौरई - ५४६५५३, चचपासही = चारों भोर - ३०, २२६ चउरासी = चौरासी - २६६ चरी चौरी, वेदिका, चंबरी F ६०, १२५, ४४३ चउदर = चार वर्ण - ५१६ उवण 'चउवरण = चतुवंदन, चार मुंह वाले - ५४, २६ १०६ चड़ी = चड़े - = = aa = चतुविध - ११ चौवीस उबीस = चउसय = * चक = कहा चकचत्र ४५.५ मकचति: चकनाचूर ३४५ चक्क = चक्र - ३५४ - - - - - - चक्कनछ चब केसरि = चक्रेश्वरी - १० ६७ चख - चक्षु चडद्द = छड़ी, चढ़ना ३०४, ३६३, ४६० चडाई = लदकर चड़ि वडिय = चड़ा १६२ वडियो = डिवि - ६,११,३७,३८ ४३६ = चढ़कर -- २०२, ४५४ ८०, १६० चढ़कर - २६६ + - - ४४७ - ३१ २४०, २६८, १२७,३७०,४२२ १६१ - चतुर चमक चमर = चमरु = घमर घरडाइ = वरवरा ३१३ चरडु = चरट, लुटेरा - ३५ चरण = २३४ चरणु चराचर = चरिउ चरित चरी = दूत - १०७ =-५ - F चहु = = चाउ = धाव चाउरंगु चायरु = चरित 13 चारउ = र चषइ = कहना - ५०, ५२ चर्म = चमड़ा ४४ = चार PL = " L .. - - १८६ - ४१६ - ४४६ १८५ = 4 - - - २१६,५२३ ५.२ १८, ५४६ - ४४० - - ५२६ ६८२३६ चतुरंगिणी - ४५१ Baba - १६२ 1 ४६८ ५१, ३६७, ५२३ चारु = सुन्दर - ३६ चारुदत्त = १८० चिक्कार = चीस्कार, पुकार - ३४६ ३४६ चित्त मन २४६, २७६, ११३, ३३२,३५७, ४४१, ४०६ चित्तकार चित्रकार वित्तह चिताउ चिति - {=५ चित्र - २१, ८४, २३७ - जिस - ४०१ १०४ चित्त - ३३० चित - ६५ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ चित्त र = -३३४ १५०,१६७,२५.५.१९६,४४६ चित्तरिण - चित्रणी - २७७ चंपावमणी -- चंपा के वर्ष के समान नित्तरेह - चित्तरेखा - २३२ -१४ चिर - -४३८ चंपिउ = दबाना - २२८ चिहर - रोमावलि - ६६ चांचुरी - चन्धु, चोंच - १६२१ धीर = कपड़े - ६१ वित - चिता - २६४ चैत्याला = चैत्यालय - ७७ चितामणि = २८८ चूड़ - चूड़ा - २१५ चिरोजी - - ४१६ चूड़ मरिण = चुडामरिण - ३०६, मड़ी = चोटी - ३२३ चेड़ = सेवक - ३५४ चोजु = चमत्कार - २२० चोटी = - ३७२ 3 = - १६६ चौष्डि - चोली, (चोलवंगी - छब्जद = शोभित होना - ४५. इटङ = छठा - ५३० खोर = - ३५ ।। छाउ = छिपना - २२५ चोरी = -७० २२८ छत्तधारि - ४५.२ चौपही - छत्ता - छत्र - ६२ चौपुड़ी = कमेड़ी = २३६ छत्तीसउ - छत्तीसों - ४४. १६२. संगी = सुन्दर - २८१, ३४३ छप्पन - -५५३ बंद = चन्द्रमा - ६२, १८३ छ सहस्रा = छहजार . ४५१ चंद्रकति = - ४४५ चंदण = चंदन - ५३ छहमय = -५५३ चंदप्प? = चन्द्रप्रभ - ४ छाड़ो = - ३१५ बदशिखर - - ४५६, ४२ लामाउ = छिपकर =. ३४० मन्द्रामती = -२७५ छाप :- छापा - २२३, ४३३ चंद्रावणी - चन्द्रवदनी - १५५ छारु = राख - ४९४ चंदु = चन्द्रमा - १२, २६ शाह - - ५५२ चंदेल = -४६६ छांह = छाया - ४५६ चंपा = -१७३ । छोनि = छीन - ३४ चंपवपुरी = - ५३५ छीपी ::. निपटो - ३५घंपापुरि : चंपापुर - १०५, १२३, । बुट = - ६४६ - ४३१ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डु शीघ्र ४२५, ५३८, ५४६ -- छुरी छुहारी = छुहारे = - = = छूटउ छूटना - ३४६ ऐली = बफरो ३७५ छोला जो = - - १८३ + छोड् = स्नेह - ३२६ छोड ओम - ३४४ छडि छोटकर छंदु छंद - १४,१५, २०, ३२८ ज६ = जो, जैसा, यदि, जब, १५४ = - २० २३. ११८, १३१ १४२, १६६. १६७, २१६, २४७, २५२, ३१६३०५, ३३५. ४८०, ४३७, जाकर, ३८३, ३२, ३३३, ४१२, आदि जगवि - ३५१ जती = जनी जैनी " जइयह = जयहु जहर - - १७५ जइवी जइसे = जैसे ३४, ४१३ - ४६५ जइसइ = जइसवाल = जाति का नाम जह जउ = जभी - ३५५ = जाकर २६७ = - H - - -T - 1 - - ६५, ३६५ - मই - ३३, १७१,४७२ ४५४ जक्स = पश्त ११ जक्खिणी यक्षिणी - ३३१ - - W - ७३ YE - जगरणस्थ - जगन्नाथ ६ जगगाह ११ जगत् के नाथ - जरि ३३६, १४८, - ३ | जगत्तय = जगत्त्रय जगमगंतु = जगमगाना = = ६ क जगु जगत्त ज्भति = शीघ्र २६ जरा जम जरथ = जरारिंग परी - माता 1 उभारण = ध्यान ५.३० जड़ित = जड़ी हुई - १३४ जडिय = = H ज 时 Sw जयदत्तु जयभित्त जयसारु = F - - - - A पिता जानने पर 1 - जगण २३० जस्पाइ जगाबइ = बताना = ४६७ मत २६६ ज स्पिड = पैदा करना ३८८ जणु = जदुहव यादव - जन = ૪૦ २२ आदि २५ १५४ → - ३५ - जनमु - जन्म - ४२४ जपत्र = जपना - ५२ जम = यम १२ जम्मु = जन्म जय = जयकारी —- २२३ ५ - - ५६, ३०५ - १ जय जय कार ३३० • ५०५ जयजयकारु = जयजयकार - ३५.६ - ५०६ ४६६ ४६१ २२३, ३१५ २६१ — 9, 8, 59, जर = जरा, बुवापा जरा = बुढापा - ५१६ - ५०८ -१० & ܝܕ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अस - पानी -.३६, ५३, ६०, ६६७ । जाग = - १६५ जलजद्द = जलधि – १६५ जागइ = जागना - २१०, २११ जलजंतइ = जलजंतु -- १६१ जारण, जाग जाणउ = - जलदेवी = -२४७ १०३, ६६, १७६, ४४२ अलवा हुँ = - १६६ जाणि = - ६४, १०२, १३१ जनसज्जु = -५१८ २७४, ४२०, ४४८, ४६२, ४६६, जलह = - ४५८ ५३२ जलहर - - ३५१ आरिणय३ = जानो - ४० जलि जलि. + ४५६ जाणू = घुटने -- ०१ ली स .. - ११४,१२८, जलु -- जाल - १६६, २३२ ५४१ जले = जलना - ४१४ जाति ..... - २६, ३२०,३२२ जव = जत्र - १६२ जत्रु :- - २४०, २५१,४४८ जातिपाति = - ३७३ ४५६ जातिफल = आयफल - १७१ जहि = जबसे - ३२३, २२६ जातु = कदाचित - ५१ जवही = जभी, - ३५, जान = जानना - २६६, ३५६ ४२५, ४२६,५१५, जाबु = गाल - ४०६ अधु = जब – १६६, १३१, ३०६ जाम नाम = बार बार - ३४४ ३६६, २२३, २१६ जाम = जब तक - १०६,१४५, १५३, जीजसी - जीयंजसा - ३१८ जसवइ -. यावती - ५३२ जामति - जन्म ग्रहण करते हो मसु = यश - २, १४, ६४ जहां = -८१, १३६,१६०, | जामहि = - जब २६२, ३२७, प्रादि जायउ = जहि जो, जहाँ - १४, ३१, ३६७, | जायन = यादव - ४६१ आदि जाल - - ४७६ जाइ = गये, जाना - ४८, ५७, ६२, | जनु - -२३३ जाइवि = जाकर - १३२, १३६ जापति = - २०४ १४६, ५१६ जालामालरिण : ज्वालामालिनी जाइ राई -४२६ देवी - १० जाइ -- जाति - १७३ भामा उच ". जपापुष्य - १३३ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जगदता । ४०१ जासु- - ३०७, ३७६ जिम = जिस प्रकार - २२१, २६२ जाहि = आना - ३३, ७०, ७४ आदि | जिम = जैसे - ६२, २२४ जाही .. .. ! जिउ = जीना - ३१४, ३१५ नाड = -- १३१, १२२ | जिमणार = जीमणवार - १२४ जिउ = - ३७४, ४-३ जिवायो = जिमाया - १४५ जिगण = जिन - ७, ६, १३२, १४८ जिसु = जिसको - १०० जिणपाहु = जिनेन्द्र भगवान - ४५ जिह = जिन्होने - ७,८६,३२६,६६६ जिणदत्त । जिहि - जो - ३७२, ४८६ जिरणवत्तह २,१६, ११६, १३० जीउ = जीव - २२१ जिरणदत्त हि । ११६, ४०१, २१० = नायक का नाम जीउदेव - जीवदेव - ४६, ४७२ जीत = जीतना - ३५८ जिराद जीति = जीतकर - १३० जिएम देव = -२६२ जीतु = जीत – ३२७ जिरानाह = - ४३४ जीव = .. ६, ४५, २३१ मादि जिरण मुवरिंग :. जिन मन्दिर - १५४ जीवइ = जोवित रहना- ३८८,४७९ जिसरावर = जिनेन्द्र देव - १. १४.२५ जीवउ - - १५६, ४७६. ४७७ जिण्सुत्त = जिन मूत्र - ५५ जीवकहु - सपेरा - ४८६ ब्णिहरू - __ - १५५ जीवदया = प्राणियों की दया, जिमिद = जिनेन्द्र - २४५ जीवदे = - ४७५, जिरण = जिनेन्द्र देव - ३,७१, ५१. जीवदेउ - जिनदत्त के पिता का नाम जिन = - ५२२ - ४५, ६०, १०८, ११३,१३१,१५६ शिणसर :- जिनेश्वर - ३१४,३६०, | ४७३, ४८१, ५०७,५३४ जौवदेव = जिनदत्त के पिता का नाम जिणेद = जिनेन्द्र -३, ३१७ -- २५७,२६१,३१८,३६,४८८ जिल्य = जहाँ - ३४५ जीवर वह = - ३७ जितनु = - २२० जीनं जस = जीवं प्रसा (सेठानी का नाम) जिन्ह - -६५ - ४५, ४६, ३८६, ५०७ जिन = जिनेंद्र जीह = जीव ४०१, ४७६ जिनदत्त - १२८, ५४८ 'यादि | जूगल - युगल, दोनों - ६२ जिनबह: -५३२ जुझ - युद्ध - ४.७१ जिनु = जिनको - १ | जुन = - ५२२ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जुवा = जुमा ७६, १५६ । जोयस = देखना ४.३, ५५० जुवाणु = सुधा - ६६ जोयाण = योजन - २३, १६३, १६५, जुवार = जुमारी - १२८ जुधारित = जुभारी - ६८, ७३,१२९ । जोवाइ = देखना - १७, १५७, ३०६, जुवारिन्ह - - १३० ३१० जुहार = - ११७ जोवरण = यौवन - ६४ जूड जुट - २५ जोहि = - ३७१ जुडउ - बालों का बांधना - २१८ । जंध = जांघ - १२ जबह - जपा – ३३० जजोगु = यथायोग्य ६७ जूया :- -- ७०, १४२, १३४ जंतु = जानवर, पशु - ६५ ३६६, ३८७ | जपइ = कहना - ३००, आदि जहि = - १७३ जंबु -- जामून -- १७१ जठी = बड़ी - ४३, ३३.६, ४२३ जंबुदीपु = - ३० जेतङ्गउ = जितना - ३३ ओम = उस प्रकार - १६ जेवण = जीमना - १२४ जमहु - जीमना - १२४ म.कोलइ = -१६४ जेहि = जिसने - २७ झइति = खींचकर - ३२२ जैसे = - ४२८ झति = शीघ्र, - ३००, ५४३ जो = वह - ५,७६,२०२,२१०, भादि । भरणा = - १७१ जोइ = देखना - ५४, १५२, ५१६ झाइ = ध्यान - ५४६ जोइरणी = जोगिणी ५३८ | ] भाडि = झाड़कर - ४७८ जोइस = -४४२ झाड़े :- - २३६ जोइसिउ = - ४४२ भाण - ध्यान - ३९७ जासी = झारणु = ध्यान - ३६६ जोइसु - - ४४१ झाला = ज्वाल। -- २२६ जोग = - ३७६ | झावह = ध्यान आरमा ५४ जोगणा - जुगन - २४ भुलाइ = झुलाकर -- जोउरिण:- -४५१ झट = - ४२६ बोड़ि = जोड़कर -५, ११५,१३५, महंउ = झूठा - १४६. ४००,४:३, १४८, २२०, ३७६ आदि जोतिष = ज्योतिष ६५ | अठिउ = भट - ५८ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झही - ४०३, ४०८ भंसहि = जक बक करना ३०६ । भंग - कूदना - ३७८ - ३६४, २८०, डायरी - स्थान - ६५, ठार - +२१०, २२८, ठालउ%3D बेकार - ३३६, ३४३, ठाली = बेकार - ३३६, ३४३, महरि = ठहर कर -२०१, ठाहो - -३४२, लिए - -१७०, टिय - -२६८, ठेद -- र लीय = छोड़ना - ३०७, रापुशु - -४०५, ट्रेकि - टेकना - ३४६, रेव = भारत - २११, ठड्यो = ठहरना - २६६, डगड़गारा = डगमगाना - २४३, डराहि = कए - -१३५, डर = डर - ३४६, गया = नमस्कार करने योग्य-१६, | डसण = दांत - ३४६, ३७८, रायउ = स्थापित किया - १७६,२१८, | सगी = -१७, ३२७, डहउ जलना - १३ ठवरण = - १६२, ४ही = घोषणा - ३४८, ठवस्तु = स्थान - १०४, साड़ी = डांडी - १२२, ठविरणु = लगा रहना -६८, डाहउ = कष्ट देना - २३०, ठा = स्थान - १५१, डाहु - दाह (चिसा) - २२, ठाइ = स्थान – २२, ३४, १४६, १७२, डोनारी = वृद्धा - २१५, ........ प्रादि होम = - २१७, घाउ = स्थान -६, ६१, १०३, ... डोमु = बांडाल - २१२, २३२, २३३. .....ग्रादि, डोर = डोरे - १०६, ठाट = गौरव के साथ - ३५२. डोलह = डोलना - ४०१, ठाठा = - ४४४, ४५६, होला = - १२२, ठाउ-खड़ा - २६७, डोंगर = पथरीले टीले पर्वत - ३४८, ठाढ़ = खड़ा कर दिया - ७६, डारण = स्थान - २५२, छारण = ठान कर ( निश्चय करके ) Jलइ = पिघल जाना - १०१, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढालि = गिराना – ३८६, ४२०, गाइ - नाम - ३१, ४४, हीकुलि = - ४५७, गाउ . नाम - ५१५, गागा = ज्ञान - १८, ५२३, ५३८, ५७.१, - -४८८, गावंत = ज्ञानवंत - ५२५, गामि = नपिनाथ – ७, णामे:- नाम - ५२७, एमिउ :: मशार क ... ४:८. शासत - नाट करना -- १४१, णमोयार = णमोकार मंत्र - १५८ णासि = नाश करना - ७, गाय 3 - ५२०, रगाह - नाथ – ३१०,४८२, गगायण - नयन -६०,४८६, गाहिशा रेशम = नामि नरेश्वर - १, शायणु = नयन - ३९७, ४८४, रगाहो = नहीं - १५४, सायिर ! = नगर - २२२, २६३, गाह = नाथ -- ४२०, ४२१, गायरी = नगरी- २६६, ३४५ ।। । रणांकर = अपगधी - ३५, णयह = नगर -- ४०, ४७२, रिशमासि = निवास – ५२७, गपर - ४२६, ५१४, णित्रकाररिस = बिना कारण - ५४५, स्य रइ - - ४२७, गिाम्मवियः = निर्माण करना -३१३ मारागाह = - ४७१, णिय :- निज, नित्य -- ५३,६८, गारयहि = - ४२७, ११०, १५८, २२१, ३१८, ५४४, गगरवइ = नरपति - ४१६,४३६ | शिवमणि = निज मन - १६२, ४१६, पर = नर - ३४, गपरेंद ..: नरेन्द्र – २६८, गियरे = पारा - ७, गाव – नौ - १३५, णियागण = निश्चय – ३१४, ५३३, गाबह = नमस्कार वरना .. ८, गिसम = निराम – ५०१, स्वगह = नवग्रह -१३, गिरु = निश्चय में-५८,११६,२१५, हि :: नमस्कार - ३, ४४, __४१६, ५.१६, ५२६, ५४५, गादि - ४२१॥ रिशरंजन = -४६२, गानिधि - नमस्कार -१, गिण सिंह = -५६४, गाहवरा - अभिषेक - ५२८, शिसुण - सुनो - ४७०, ५३६, गृह = नख - ६५, मिसुराई = -२, गाहर = -- २१: सिसुणहु = गुनों - ३२,२५६, गादि निश्चय से - १२, णिसुणहं - सुनो - ४०४, गाह - नहीं - ४०२, णिमुरिण = - ८३.१३४, ४०६, Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fing[गद == सुरगोहि = - ४६, पिदियइ = निन्दा करना = गींद निद्रा ५०२, गोसरु = - ५१७, = नन्दन द रणं रण कारु = लग्जि तणिया तणी = = ४२३, ५३६ ७७, मना करना त तइ = तूने तो - १०७, २२२, - ३१५, तेहरु तउ = तो तन्त्र- ७३,७४, १०६ ११६, ----- श्रादि तए = - ४७०, तक्क, तक्कु = तुर्क - १४,६४,५२२, तबकते = ताकते हैं - ६८, साई = विश्वास करना - ३४६, ३६१, तरगड, तऊ= - ६७, १८३, - ५९४ C = सो निफल - २६० = रगु - नहीं - ३०५, मि नेमिनाथ मेरि ऋत ( दिशादेव ) - १२ तलिनी = ८, 7 - - - 关心 -- ५०, - YOR = तरण | = तने ३८६, = का - ३२, तथ्यों तत्श्रु तां - ३४५, - ३८१४०१, ४८२, तरह ] - ९३,६६,२१३,२३८, ३६५ ३८५, ४०४, तनो - १००, १२६. तपड़ = लपना है, चमकना ना लप 1 १ नरा - तरणी = सूर्य- ४५ ३, तरिवि = वैरकर - २५६, -- = तरु = Ladk तरुवरु = बड़े- २ वृक्षों को तल = तट, तले, नीचे - २६३, २६६, ३४७, ४८. से है, ५१२, - २५४, २६२, तस = उसका २, तसु = उसकी तह् = १८२२६, तव = तप - ४३७,५३८, ५३६,५४०, तव, तवहि = - ६६, ८२, ४५७, तबु = उसी समय - १०४, यादि, ११०, तवोलु = ताम्बूल-पान - १२४, - = = - - १३३, ४३६, A २४, ૨૩ तह - ५२७, तहाँ उसी स्थान पर - १३२, १३६, = १६०,........आदि तहि = जहां ] - ३०, ३१. उसका ४६, ------ आदि, - १८, ३७, ४०, १२५, "आदि, ३४६, - "मादि आदि तह = तो १६२, २१६, ग्रादि, तहो - ६०. - ५२८, नाउ = ताडइ = ताडना - ३६६, तारिश = उन्हें - ४२०० नात = पिता १४८. ताना = तात Yoo, तापहि उससे - ५४२, - ...आदि Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ताम = उसको - १०६, १४५, आदि । तिय स्त्रियाँ - ७६, तामहि = उस समय २२५ तारादे - तारुणी ताल = साला = तालु तालु - ३२६, तास - उसके - ३४६, -- + तासु = उसका २३," ताह उस, उन्हें ३६६, ताहि = उसे, तब - ७४, तार्ह उनको, तख १, २२३, C ४५.७, तिउ लिए ते ३२२, ३६८, - तिरिए उन- ७१, १८५, ३४२, तिथि = तोन- ५१, - - २७५, तरुणी - ३३५, आदि - २८२, - २२६, = - 62 - - - तिरणु सितु उतना - २२०, = तित्थु = वहां २६१, ४१६ आदि तिन - उन्हें - ८२, - - — - ४४७, तिनसि तिनसे ३६५, तिनि = तैसी - ३३३, ४१६, निनि - ५१६, सिन्मिउ तीनों - ३४४, ४४२, दिन्बों तीनों - ३१६, तिन्ह = उनके - ३३८३८७, तिन्हई उन्हें १७०, तिन्हि = उन्हें - २०४, तिन्हु = उन्होने ४२, आदि = तिन्ह कहु : उनके - ११५, तिन्तु हुँ = तीनों - ३६६ तिमिर = प्र'धेरा - २८६, - आदि, — अरवि "श्रादि, तियातन की माला १२७४ तिरइ = तैरना - २६०, तिरिय= स्त्री - २५८, " तिरियनु - ४३८, तिरिया = स्त्री - ४२७, तिरिवि = = तिरी = स्त्री - २७८ ३०६ तिल तिलक तिलक = तिलोत्तम = तिलांसभा - ३७६, तिलंग = तेलग - २७०, = = पार करना - २२२, = तिस - उसका तिसु = उसे - ३३५, तिसुधि = त्रिशुद्धि ५१६, १४६, तिह उस = तिहां = वहीं - १५१. तिहि = उसके ४७, आदि, तिहु श -- - ३६५, आदि, तिहुकाल = त्रिकाल - १८६, तिसका - १००० = लिह को तिवरण त्रिभुवन ६, २४, तिहू = तीन - ४२१, ४३०, "" - १८२, ती उ तीजइ = तीसरे सीजी = तीसरा ३४२, ५४६, ३४८, तीन तीनि तीन- ४१० तीनिउ = तीनों - ३४४, ३६१. - यदि, ...... १६७ £5, सीन्मौ = तीथ आदि, -- श्रादि, ६२,.....क्रादि, - - तीनों - ३३१. स्त्रियों - ५३५, आदि, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ तीया = स्त्रियों - ३६९, तुहार उ = तुम्हारा - ११३, तीर = - ४६५, तुहि = तुझे - ६३,..... आदि, त्तीरहि = तट पर - २६१, | तुह = तुम - ५, १६,"'"आदि, तीस = -३६३, तुझ = ........" -- २२१, तू + - ३०२,...."प्रादि, तुझि = ........ - ५२१, सूटउ = टूटा हुया - ४८३, तुझ = ........ - २०६, ५०१, तूठउ - तुष्ठ, सन्तुष्ठ - २, ३३०, तुठ = सन्तुष्ठ - ५४, तूठहि = सन्तुष्ट - ३३६, तुडि = अटि - ३६४, तूठी = सन्तुष्ट - १६, ५७, तुणु = - १३६१ ते = वे, तेरे - ११, ४४,....."मादि, तुम = -७३, ११०, १४३, तेउ - यह - ३४०, ४५०, ....... सादि, तेज़ = नाम - १८१, तुम्ह = -१३१,.....'सादि, तेग - उसने - १३२, १४६, तुमह = तुम्हारा - ११३, तेतउ - उतना - ६३, तुमि = तुम - ४०३, ४०६, तेन = उसका - ४११, तुम्हरइ = - ४७२, तम = उस प्रकार - १६, तुम्हहि = तुम्हारे – ४०६, ४६७, सरङ = तेरा - १६७, तुम्हहिन : -५१६, तेरहम = - २६, तुम्हारउ = तुम्हारा – ४२०, ४३० । तेरी = - ३७६, तुम्हारी = १०६, ३६२, तेरौ = तेरा - ३९, तुम्हारे - ४०४, तेव = - ३५९, तुम्हारी = तुम्हारा - ४२२, तसे = वैसे ही - ३४, तुम्हि = -७३,..... अदि, । सेसो = - ४२८, तुरे = घोड़ - १२१, तेहि = तुझ से - ३३६,..... मादि. तुरंग = घोड़ा - 6५१ तो = तब - ३०६, ४७७, तुरंतु = शीव - १६२, २६४, सोड६ = - ५४२, तुरंतउ - - २२८, तोडि तोड़कर - ३४५, तुरता = शीघ्र - २२४, तोडित = तोडता - ३४५, सुलहती = तुला राशि - २६, | तोड़े = - ५३६, तुव = तुझको -- १०,५६.८४, ११२, तोरण - - २८४, ४४३, २१६, २२३, 'तोलि = लेकर - २६५, तुह = तुमको - ५५,..... प्रादि, । तोवि = सोमी - ७६, Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सोलु - मूल्य - ...... भाषा = पोकली - २८७, सोहि - सुझ से - १७, ४८, प्रादि, तोही = तुझे - ३४३' सौ = तो, तब – ७३..३६.२, टट -- देकर - २, १८६.३६३.४७८, तौहि = तुझे - ३५४, दइजू = देना - ३०३, सं - उसको - १५२, दइय ८ देव -- ४८२, तसरा = उसी क्षण -८१, दइया = देव – १५५, तंखिणी = तत्क्षण - ३२७, दइवि = देव - ३१३, तंत-मंतु = तंत्र-मंत्र - ६५, | दरम् = द्रव्य - ४१५, तंद = - १३६, दाणु = दपं - ७, तबोल = पान - ६१, ८२, २१८, दप्पू -- दर्प - २२७, तंवोल = पान - ४१३, दमइ = दमन - १५८, तुग + ऊचे – ३६, दय = दया - ६, ५२५, दया = - ४२,४३, ५१७, दयवंत = - ५३६, घका = उसका - ७५, दयवंत = - ५४, थक्किा - थकना - १६९, द्रव्य = - ४४६, थाट = ठाठ - ४५४, दरसारणदे = दर्शन दे - २७५, थाइस = स्नड़ा - ५३१, दरमन = दर्शन - १०१, धरण = - ५००, दरसिणी = दशिनी - २८८, थाकइ = अकना - २०७, दरसहि, = दिखायो – ३२०, थाटु = साट - २८१, दल - सेना - ४५२, ४६०, ४६५, याए = स्थान - ६, दबड़ी = द्रविडी - २.७१, थारण = स्थान - ११, दवरगो = - १७२, थापि - -४४६, दस्त्र = द्रव्य (धन)- ७१,१३५.५२०, थापित = स्थापना - २६८, दनु = द्रव्य - १३०, १३१, १४ श्रापियो = .......-- ४२६, ३३८, ३८७, ४०६, ४११ थापे = स्थापित किये - ४४३, । दविणमित्त = - ५०८, भालु = ४६७, १ = स्तुति - १६, दमापुर = - १३६, बेई = मिली - २८८, दस = १० - २७, १३६, बोगवहि = - १८३, दह = दश - ४१५, ४३६,४५१,४५२, दश = Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिपे दहा - अग्नि, जलाना - १२, रिठिय - देखी - ३०, दहदिह = दशों दिशाएं - २६५, दिठियउ, दिठियऊ = देखा - ११४, दहिउ = दही - ४२४, १५४, दक्षिरण = दक्षिणी २७०, ४६०, | दिट - देखी - ८५, ४८७. दाइजी : दहेज – १२६, हिटु = दिखामो - ३२६, क्षारजे ! = -२३६, दिल-मंतु = दृढ़ मंत्रणा - १०३, दाइजो = - ४४५, दिषण दिया - १२६,२२२,४१८, दाइजो = - २८५, विष्णु ! =दे दिया - १६,४४४,४५, दाउ = दाव – १२६, दिन, दिन - ५६, १२७, १५१, दाख = - ६३, १७१, ४१२, २११, ३३७, दाडिव - दाडिम (अनार) - ४१३, । दिन्न = दिये - २३६, दाण. दासा = दान - ४५, ४, ५०, | दिन्नू = दिया - २६५, | दिप ] = चमकना - २४,४४,६८, दातलय = हसिया - ३७८, दिहि ! = चमकना - ४१,८६,६५, २६६, दान, दानु - - १४०, २८५, दर्शन - दानी - २७६, दाम : कीमत - ३४, ६१. १०३, दिया = दिये - २६५, मृद्रा, १२६, | दियउ = देना - २, दामु = एक सिक्का - ७२, ८२, दिवपालु = - १८१, दारिदह = - ५२६, दिवस = दिन - ६३, ३४०, दारिद्द = दारिद्र - २७६, दिवसह = दिन में - ५०२, दारुण = भयंकर - २२५, दिवसी = दिवस - ३४०, दास - - १६७, २४४, दिवाई = दिलाना - ३६३, ५१५, दासि = दासी - ६३, ११६, ५४२, दिवाए = - १७०, दाहिण = दक्षिण - ३०, दिवाटण = रातदिन - ३३५, दिए = -१८४, दिस = - ४६१, ४.७०, दिसाल = दिखलाया - १०५, दिमाइ = दिशाएँ - ३०६, दिखालाड, दिखालाहि- - ७०.२३५, | दिसंतर = देशान्तर - १३६, ३६३, दिख = दिखलाई देना - ३५३, ३८७, दिल = दृढ़ - ४८२, दिसंतरु = देशान्सर - १४०, ३८८, दिक = देखी - २२४, ३८६,४०४, निटि = दृष्टि -- ७१.७५, १००.२८६, | दिह = दिशा - ४३६, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = दिहि = देता है- १४०, दोड = द्वीप - १६६, १६७, ५४१, दीज देना - ४८, ११०, १४२, १४४, १४७, ३८२, दीय - दिखाई दिया- ६१६, ५०६, दृष्टि देखने पर - ३१४, बोड़ वीर - देख कर - - दीदी दृष्टि दीठु = देखा दीठे = दीखे - ३८६५१६, ४४१, - = दीसा = दीन - १४४, ५०४, वीणा - दीन - ४०० दी = दिये - १६. दीन = देने ३७४, १०६, ३१२, यदि, ४४८, ११७७८२२०. ४२४, ४३६, दीनउ = - १६६, ५३३, दोनह = दीन - ४१६, दोनिउ दीनो = लगाम्री - १३१. १६२१२ २३६, 4 दीप = द्वीप २००, २०१. आदि, दीषिद्वीप - ३१०, - - ४४६, १३७, श्रीवड़ बीपक ५.३, = दीवज = बेला ७ H -- दीव = द्वीप - १३५ दीविशेष मे २०१० दशेषा = दीक्षा - ५३:१, दीसइ = दिखाई देना - ३२,३६, आदि, दोसहि = दिखाई देना - १३, २६३, दोह = दीर्घ ६७ २२६, T EL दुइ दो - ६१, १८०, दुइजइ = दूसरे - ३४० दुइस = दो सो ५५ २, २०७, २०६, २५८, दुख कष्ट दुखह = दुख - ४०%, दुखी : ५ ४०५, ४१२,.......-दि C - H - -- दुखु = दुज्जा - दुर्जन- २१, दुध = - ४२५, दुद्दर संयकर - १६४, ४३८,५४, दुमह = दोनों में से- ४२०, दुलहु = ४२६, - ५०५, म दुव = दां मुन्द्रि दुह दुःख है, आदि, दुहहररण = दुःख हरण दुहिया = दुखिता २२२. दुही दुखी - ५०६, दूज - दूल - 4 - ३२, - - , ܚ - - 1 - ल १६३, दूत रु बूम दोनों में- ४२२, दूवइ = दोनों - ३१०. 4 - आदि ४४५. - - ३६८, ४६२ ४.७९) -आर्थिक श्रादि, दूस दुमह - ४५४, = -.685, दूसिउ देश = देना २०४५५२. प्रादि, देउ = नंब प्रावि देख - देखाइ देखते - १६३, देखत = देखते ही - -.....३, १४, दिखाई देता - ११, १५५. १३०, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ २६१, २६६, दंतसूलि - पुष्ट दांत बाला - ३४७, दखह- -११५,१३३ दंता सेठि - -१८६ देखालिया = दिखाया - २७, वंसा = दर्शन - ३८, देखि - देखकर - २२, १००, 'पाकि दंसणु = दसन - ५२३, देण = दैन्य - ११२, बसंत = -४०७, देव = - २११, २१६,२३५ । ....... भाद, देवति = देव - २६३, धरण = धन - ३५, ४७,'', · पावि, देवलु - देवल - ३८१, घणकरा = धनधान्य - ८६, ददि = देवी, देकर, ११ ५१२, धरगदत्त * -१६०, दश = - १८६, ४५३,४५६, | धरण - कुबेर - १२, देस - देश - ८५,........'मादि, धनदेउ - -५२७, देसासु = मांस रोककर - १६२, धरमबाहरण - धनबाहन-नाम - २०२, दाम - - ५२७ २१६, देमु = देव .. ३१, ३२, मादि, | धरण - धन्य - ११३ संतर- देशान्तर - ३२, धणी = धनी - १३,.... 'प्रादि, देह = भरीर - EL. EE.....मादि, ! धना = धनुष - ९८,... प्रदि, दहि देते थे - २३, २४,..... मादि ! प्राणु देह : घनदेष - १८४, वह वेवें, देवा – ८०.......... ग्रादि, दाइ = दो -- ४५६ घन = द्रव्य - १ दाइ पारि = दो चार – १५१, धनु - धन - १६४, १८५, दाज = - ५०४, घन्मी - स्त्री - ३९९ दोषु -- - ४६५, सम्म - धर्म - १,२१, २७, मादि, दोस .. - ५४८, धम्मु = धर्म - २, ३४......"पादि, दोसह - दोध - धम्मुद्धरण = धर्मोद्धारक -१, दोसु = दोष - २०, २१,.... भादि, | घर = भरकर - ८, २२६, दर = - ३५, ३५३, ४६५, घरइ = परना - ५१,६२,..."प्रादि, घरग = पृथ्वी - ४३, दर - - ४७०, ४७१, धरसिंगदु = परणेन्द्र - १२, दंत - दांत - ४०६, ५३६, घरम् = पमं - ४८, १४., दतूसानि = द्वांतोंवाला - ६४५, धर्मपुत्र : धर्मपुत्र - १७६, रंतसरि = पुष्ट दांत - ३५८, ] धहि = लेकर - १८७,२४५ ४१, Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६५ घरहु = - २३७, | धूपइ - -१५५, घरा = धरकरके - २७, धूलि = - ४५३, धरि = धारणकर - ६,... आदि-२, ! धूव = घूप - ५३, घरि धरि = ...... - E७, | धोयति = धोती - ३२५, धरिउ = धरी, पकड़ी - ३८५, ३६०, न ५४०,......"अादि, ! नउ = घायः = धाड़ मार कर – ....." - ५०६, ५५२, चाहहि = दहाड़ मार कर - १५०, गारी :: गुती - ४७, धाडि - ........ -- ४७८, नट -. - ३२८, धारणुक - धनुर्धर - ४५२, नट = खेलना - ३२७, धाधू = - १८५, नट गट = -६६. बार - दोहकर - ७६, ४५१, ननादी = खेलने - १२६, धारावधग्गी = धारा बांधने वाली - नगउ - नमस्कार करता हूँ-६,२७, नमिउ - नमस्कार करना - ७, वाव दौड़ना - १५५, नयम = नयन - ११७, चावही = दौड़े - २६१, नयगु प्रांखे – १५४, २०८, २४६, बाह - घाडमारकर -३१०, नयर - नगर - ७३, ८६, १८६, घिउ = धी - ४२४, ३०८, ..... आदि, घिय :- लड़को -- २२०, नयहि :- नगर - ४७३, ४५४, बीड - कन्या - २१०, नयरह = नगर में - ३४८, ४७८, धीजहि - धैर्य देना -- २४६। नयरि = नगर में - ४७४, ४७८, धीय : लड़की, पुत्री - १०६, १११, मय = नगर - १०८, ....... आदि, ११२,..... अादि नर = मनुथ्य - २११, धीयउ - लड़को - १५०, नरक = - २४६, घीयह = पुषी – २८२. नर नारि = - ७३, धीर - धर्म रखने वाले - १३८, नरनाह - - ४७०, मोह = - ४६६, नव निहि = नवनिधि - २०२, धीरे :- धीरता पूर्वक -- १३६, नरयह = नरक – ४४६, धुससती = ध वसती - ५०६, नरयहं = नरक में - २२४, धुजा = ध्वजा – १६१, १६३, नरव = नरपति - ६६८, धत = धूर्त - ४१०, ४१३, नरवत् = -४६६, धप -१७२, . : नरमा - न रलोक एवं मुरलोक Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवासी नीचंद = नरेन्द्र, राजा - ४१७, नरु - मनुष्य - २०३, २१४, नवड = नमस्कार करें - ४७३, नवऊ = नमस्कार करता हूँ, नवजोवरी = नवयुवती -७५, नवरस = २७२, नवरंग नवीन रंग - १७१, - ४५५, नत्रि = नसिरउ = निकला - २३५. *** नहीं : नाइका गायिकायें = ना नाइस नाव = नाम = ← = = नाक = नालिको नागु = नागे ६०, नायिकाएं - १२५, नायक १६३. रात्रि - २२३, = - नामकी - ४३२, ४८२, 7 नारिस्थु नारिंग = नारंगो नारी ६२, ३१७, ३२१. ३२२,५४०, - B - १८५, नाटकु = नाटक ३२७, नातरु = नहीं तों - १४७, १६२, नाद = स्वर, वाज नाम = नासु = नामें - - • २३२. - - नायरु = नामवंतु = नीतिवाला १८, नारि = नारी स्त्री - ७५, ८३, ८४, , - ४३०, ६६, ३२, - १८५, २६६, ३८७, २५६, ४५४, ४६, - ६६३७४४८निच्छद ४५०, - १७१. ४०१, नालियर = नारियल - १७०, नावद्द = नमाये हुये - ६७, नाह = नाथ स्त्री- १०८, ३३६, ३४४, नाहि = नहीं - ३०४, नाही = AA - नाडु = नाथ १६६, निकरहि = निकले - ११५, निकल * चला ३३८, निकलै = - ४०६, निकाली = निकालना - २२०, निकिठी निकृष्ट - ४०३, ४०२, निकुतरहि = बिना किसीकी के-१०४, निकुंभ = - ४६१, निबंधु नि ५१८, - ४६४, = = नहीं - ४७, ६१, १३० १६४, = १५५, ३०४, ३१२. - ܀܀ - - ३१५, निछउ = निश्चय ५११, निछम्सु = निश्चि - ५११, निछय = निश्चय -- ७२, निज = अपने - १६०, ३३०, निठाले = निठल्ली - १६२, नित = नित्य - ४७३, निधान = नोचा - ३७८, निपुसकु नपुंसक १६५, निम्मल = निर्मल - ५१, - ५१२, निमित्त = निय निज ८१, १३४, १५४, आदि नियकंतु = प्रिय पति - १५६, नियउ = निकट - ५४१. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमाणु = निश्चित मन में - ५४, ! निसि = रात्रि - २०३, नियाण = मिदान - २६३, ४८० | मोज - १५, नियरु - निश्चय -- ३४६, निसुरण = सुनो - ११६, २६१, नियंबहिण = नितंचिनी - ५४३.. निसुरहि = सुनो - ८५, ४४४., निरकरइ = निश्चय रूप से करना - निसुरगाह - सुनकर - ३६५, निसुनहि = सुनो - १०८, निरखहि = देखना - ४३१, निसंगु = निःशंक - २३२, निरखे = धेखे – ३५३, निमुभहु = मार डालना - ४५४, निरमंतु = -५१८, निहर्ष : निश्चय से - १६७, निरखाली = उलझने वास्त्री - ३३६, | निहाणु - निधान - २६२, २८, ३४१, ३४३, | नीकउ = अच्छा - १११, १५०, निरनासु - न रहने योग्य – ३४७, २६४, २६५, ...... प्रापि, निविस = विप रहित - ........... | नीकी = अच्छी - २२४, निगालउ - - ४७६ .४७३ नीकी - प्रच्छा - ११२. नि: = निश्चित ही - १८, ५२, ५३, | मीत - - ५०७, ६,१८६.......''आदि, नीद - निद्रा - १६०, निरुत - - ४६७, नींदउ - निन्दा करना -२१६, निरुत्त = -५५१, नीर = पानी – १६४, निरुमासि = मामास - ५४२, नीर = नीर-पानी - ३६८, निरहज - उदासीन - ५४०, नीरह = जल में - ३४१, निलउ = - ४८६, : नीलामणि = -४४५, निवड = व्यतीत होना - २२३, नीले = नीले वर्ण वाले - ६३, निवसइ = रहना - ४६, नीव = नींबू - १६६, निवा] = निदान - ३५४, नीसरह - निवली - २००, २२६, निव्वाणु - - ५५१, निवात = नवनीत - ४१२, नीसरयो = निकला – १६६, निबारह = दूर करना -२०६, नीसरिउ = गये - १६७, निवारिउ = मना करना - ........... नेउर = नेवरी - ६१ निवियप्पु = निर्विकार - १४६, नेत = नेत्र, एक रेशमी कपड़ा - ४६०, निस = रात - ३१५ ५०३, निसाए = निशाना - ४५३, ५०३, । नेमु = नियम - २,५२१, ५.१५, | नेवालउ = निवारिका - १७४, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ नेहु = -५२६, पइसारि = प्रवेश - २६६, नंदण = पुत्र,-नंदन – ६०, पइसारिउ = पीछे छोड़ा - १९७, नंदरावणु = नंदनवन - १५१, पनि = प्रवेश कर - २२८, नंदगु = पुत्र - २६१, ३१८, | प3 = -५५१, नंदन = पुत्र - २५७, पड़मप्पड = पग्रप्रम - ४, नंदनि = पुनो - ८९ पउमराह = -४४५, नंदनु = पुष - १५६, पउलि = पोल – ४५७, ४६०, ४६१, निंद = निद्रा - २२४, पचालित :- बोये हुए - ४१६, निदइ = नींद में - २२७, पगार : प्राकार - ", निदा - - ५४६, पत्रम् = प्रत्यक्ष – ४०, ४३३, निभूती :- निद्राके वशीभूत – ३४६, पचार = पुकार कर - २६२, नींद = सोना - ३०७, ३०६. पचारहि - ललकारना - २१६, नींदमरिण = नींद में - ३११, पचारि = पुकार कर ३५२, ४५६, ग्योते = निमन्त्रणा -१, तामा-१३०, न्वाणु = अभिषेक - १५२, पच्चारिवि ललकारना - २२७, न्हाति = नहाते हुये - १०२, । पलपा = प्रच्छन्न - १५४, पछतावत = पश्चाताप करना-२२०, पछिम = पश्चिम - ४६८, १६ = पहिल के - ५४५, पज्जोवहि = प्रकाशित करना - ५४२, पइट = प्रस्थान किया .- १९५० पदतरइ = तुलना - १०२, पठउ = जाना - ४१०, पट्टय - - १०६, गइछारण - प्रतिष्ठान - ४०६, पटवा - रेशमी वस्त्र बुनने वाला - पइठिउ = पहुंचना - १५४, ४८८, पइठी -- बैठी - पटोली = ............ - ४११, ४६०, पइटू = बैठना - ८५, पटोले - रेशमी वस्त्र - १०३, ६१, पहमिति = परिमिति - ५३३, पइरतु - तैर रहा - २६६, २८३, पटोला = ............ - ४२६, ४३, ५०३, पइसरइ = प्रवेश करना - २०३, | पट्टरिंग = नगर - ३४४, ४८६, ५३६, | पट्टिया = पटिया - ६६, पड़रारहि = पास – ४५६, पाठय = भेजना - १४७, पइसार = प्रवेश द्वारा - १६०, । पठवउ = प्रेषित किया - १३२, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.४ पठवड = प्रेषित किया - १३२, पणीत = प्रनि- ५०७, पठाइ = भेजना - २ पन = -- ३६२, पड़ = पट-चित्रपट - १०५ पन - पास- २०४: पड़इ = गिरकर - ६२, २२६, २४२, पताका - - १६२, पताल = पासाल- २४३, पड़तत्र = पड़ने पर - ४६५, पतालहि - पाताल- ३६७, पडयं = देना - ३३७, पतिवारु = विश्वास- ३०३, परहि -२४६, पत्ति - पत्नी-५५, पडही = पटही (वाजा) - ३०, पतीजह = विश्वांस- ३६९, पडाइ = गिर पडा - ३४०, पद = -५२०, पढाइरइ ५ ....... - २६१, पदमरिण - पपिनी- १०२, २७४, पडि = चित्रपट - १०४, १०६, पदमावती = 'पद्मावती देवी - १७, पडिउ = परना - ७६, १३४, १३६, ! ३........ आदि, पदारथ = वस्तु (रत्न)- ८६, पद्धिगाहि = ......... - ५३१, पडित्पड़ती = गिराकर - १५७, | पदार्थ = -१३, २८६, पष्टिमाइ = प्रतिमा - ५२३, पदोले = मजबूत-- १७०, पडियउ = पड़ा - २०५, पन्न = - २८९, पडिहार = प्रतिहारी- ४६७, पभणइ = कहने लगा- ४७०, पडिहार :- ........... - ४६८, पभणेइ ८ , - १३३, पड़ी = गिरी - ३१, ५५, ४२७, पभावि - , - १६॥ पड़ : चित्रपट - ............ गभग हि = ॥ - २६३, पड़े में पड़ना -- ४०८, पमाए - प्रमारण- २४, पड़ए = पढ़ने के लिये - ६३, १२६, ! पमाणु = प्रमारण- २६०, ५५०, ५५३, मत = पढ़ते हुये - ६५, पमुह = पय - पद, चरंगग- ८, १४, १५, पढिजन = नहीं पढ़ा है - २०, १६३, ५२४, ५३०, पणवइ = प्रणाम करते हैं- १५, १६, | पयड़ - प्रकट- ६०, पणवाउ = प्रणाम करता-३, २५, | पयडतह = प्रतिपादित करना- २१, पणम उ = प्रणाम करता हूं-११, १२, | | पयईप्ति = प्रकट करती है-२८०, परगसइ = । पयत्थु -- पदस्थ- ५२९ पगाठी = नष्ट करमा- ३२३, पयदल = पैदल- ४५२, २ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयपंच = पंच पद (पञ्च परमेष्ठि)- | परमप्पा = परमात्मा- ५४६, २५३: मरमर = परमपद-५२१, पयार = - ५२४, परमेठि । परमेरिट- ५२, ४७३, पयासहि = प्रकाशित- ३७१, ४८७ ४६३, ४६४, पयसित = प्रवेश होकर- ३५४, परवारिस - प्रमाण- १०३, पथी = पैरों में- ६२, पखालि = बोना-५३५, ५४७, पयंड - प्रचण्ड- १६४, परलोप = परदेश- २२२, पर = अन्य, लेकिन- ४२, ४७,१११, | परसई = स्पर्श करना-८, परसन्नी = प्रसन्न होमो- १६, परोभिय = परदेशी- २२३, | परह - दूसरों की- ५०, परकम्म = परात्राम- ३६२, परहस = प्रसन- १४५, परखि = परीक्षा-८१, परहसु = परिहास- २२२, घरछण = छिपा हुपा-३७१, पराई - दूसरों की-- १४१. २१४, ३६१, परछन् = प्रछन्न, छिपकर- ३०८, पराण = प्राण-२५२, ३०४, परजा = प्रजा- ३५, ३६६, ४७१, ३१४, ३५७, परठ - प्रस्थापित किया- ५७७, | परि = गिरना- २४१, ४०२, ४६७, परराय = भेजना- ४२२, परिला = खायो- ४५८, परणाई = विवाह करना- २३६, | परिगहु = विश्वास- ३५०,४६०, परणारि = परस्त्री- ३५, परिजा = प्रजा- ४५६, ४५७, ४५८ परणी = व्याही, विषाह किया- ३६०,! ४५०, ५०५. परणे इ = विवाहना- ३८०, परिठद = रखना-३३४, परतह - प्रत्यक्ष- ३२, परिठविउ = परिस्थापित- ६६, परतिय = दुसरी स्त्री- २१४, २५७, । परिणाइ = परणाना- ३४६, ३७२, परतिषु = प्रत्यक्ष- ४२४, । परिणाई = ............- ४४४, गरतीर = समुद्रपार-- १७६, १७६, । परिणाम = नतीजा- ३७६, परतु - - ४२७ । परिणामु = नमस्कार- ५१५, परतुम = प्रतोष, मन्तोष-३०१, परिणावहि = विवाह करो- २५४, परदयह = परद्रव्य-६८, परिणाविय = विवाह किया- २८५, पर देश -४६२, परिणिय = विवाही- ३६०, परधान - प्रधान-- १८८, | परिरणेई = परणी, व्याही- २५६, परनारि = परस्त्री- ६८, परितहि - पड़ते ही- १६६ परम - . परिपुण्ण = परिपूर्ण- ५०६, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमंडल = शत्रुदल- ४६७, पवरण = पवन- १६२, परिमाणु = परिमाण- ३६४, पाणु = प्रमाण- ४५१, परियर : परिबन- ४७, ११०, १६४, | पनाली = ......... - १६५. परिया - पला- ४६, ३४२, पनाह = ........' - ५००, परियागिण = .............. - ५.३२. परिरस - अनुरक्त- ५४४, प्रसष् = प्रसन्न-५०६, परियाणि = प्रमाणा - ६४, पसाइ -- प्रसाद, कृपा-४६६, परिवार = - १०४, १साउ = पुरस्कार में- १६.....प्रालि परिवारह - ......" - ५१३, ५१५, पमारत - प्रसार करता हूँ-१२, परिवारहं = कुटुम्ब- ४५, पसारि - फैलाफर- १.०, १६, परिवारु = परिवार- ४०३, परिसिउ - ......... - ४९१, । मगि = प्रसंग- २८, परिसिव = स्पर्श कर- ११६, पसंम् - प्रशसा ५०, परिहर = छोड़ा- ११७, । पहर - - २६६, परिहरहि = दुर करते हैं- १६६ । पहरण = कपड़े- २१८, परिहरि = परित्याग कर- ५०, १५८, [ पहरिया: = पहममा- २१, परिहसु = परिहास - १५६, ३६३, पहरु . पहर- २१५, ३०१, ३५६, ३७४. ४.६, पहाण :- पत्थर, प्रशंसा-- ६६२. परिहारि = प्रसोहारी- ४६५, पहार हि = प्रहार- ३५५, परीछा - परीक्षा- १८७, पहाँ = पास- १३२, परीति प्रीति- ४४३।। पहि - 4- ३१६ परु = ............ - ४२६॥ | पहियह - पथिक- ३३. पस्तमु = किंतु उसे- ४७३, पहिया = पविका- ३३. परोहा - जहाज- १८६, ..... आदि पहिरः . . पहिने हूये- ६E, २०३, पसंगरु = परम्परा- ३६६ २११, २१२, २२३, ९२४, २२५ पल इ = प्रलय- ४४०, पहिरउ = पहरा- २०५, २२६, ३.., पलाइ - भागमा- २३०, पलाणी - पलागा- १२१५ पहिार - पहिन कर- ११२, पलारण = भागनः-४५३, पहिला - पलारि = पलाना (भागना)- ३८६, | पहिलउ = पहला- ३००, पलाय = प्रलाप- १५५, पहिले = - ४४४, पता = , - २७७, । पहु = प्रम, पर-६, १५४, ३२५, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुंत पहुंचना - ३४०, चाय = पैरों को- १०, १६, पाइरु = पैदल- ४५,२, पाइयई = प्राप्त करना - १४३, पाइप = पालन किया- २५४, पाइलागि = पैरों पड़कर - १७५, पाइसइ = पाई = २६६, पायी जाती हैं- ३१, ६१, २३१, पाप- ४३८, प्रादि, E पाणु पालकी = - ४३४, आदि पाकउई = पाछइ = पीछे - २६४, ३०५, पाट = सूती वस्त्र- १०३, २६१, पाटण = नगर- ३४, १६०, १२. पाट = पाटन, नगरं- ३३०८. पाटलई = रेशमी वस्त्र लेकर- १८४, पायल = पाठ्यउ = भेजा है-- ५३६, पाउल = पाटल- २६, १७४, पाण = पान, हाथ - ६१, पाण = बाचाल- ३२२, ( श्वपच ) - ३२४, !!!.like..... - = ............ = **-**-... पानी- १६४, ३६७, पारिण्उ पाणिउ सोखणी = पानी सोखने वाली - २८६, पान = पानी, - ३२४, "श्रादि - लाम्बुल - ५०२, ܐ ܕܣ ५४५. प्रारूप - २३३, ३२३, ३२५, पापी- १४०, पाप = ******** = पारिणी २२०, ३११. पापी (पाप करने वाला) मगरदत्त २४०, ४३४, ४१६ पापीया = मरिनोच ३१, पाय = पैर- २२, २५५. पायालगा मिरणी पालालगामिनी पार = सीमा- १६४, राशिपरी ४६, पारा प्राण- ३५४, पालना- ४२, पालइ पालक = पालने वाले - ४४, पलंग- २९६, पालहि = पालना- ४२, ५०५, पाहु - ५११, पत्रि परलिज पालन किया- २८, पालेइ - पालन करना- १५८, पालक = पलंग- २२१, 2 = पासु = पावउ = पान- ४१८, पावह पाते हैं - ५१०, पात्रै = = २०७ २४०, २५५, ४४, - १४३, २४६, = = = - ७२, पाषाण = पत्थर- ३३२, = पास = निकट- ४५, १३४, ३७०, पासवाह पार्श्वनाथ-८, पासि १३५, ३५१, ३२३, - ५३८, ५४७, आदि २८७ पहि - उपहार- ४६४, पाहण = पत्थर ३१३, पाहरणमय = पाषाणमय - ७८. पाहण = पत्थर- ३३३, पहि पैरों पर, = पान- ३०६, ३१०, ३७६, ४५६, ४८४, ४५२, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पास-५३१ । पुठि = पृष्ठ- १५, पाहुड़ = उपहार- ४६७, पृरा = फिर- ४५, ४४८, .. पाहणइ = पाहुना- २२३, पुरिव = फिर- २२६, २५५,.... आदि पिउ = पति- ४.०, ......... अादिः । पुणिक = फिर - १५३ ।। पिउ-२ = प्रिया-२ - १५५, | पुरण = पुनि - १, २४,......यादि पिछोरड़ो = पीछे- २३५. पणं - पिरणु = फिर- २२८, २६७, पुरण पुणू = बार बार - २८, ४०१, पिता = -१४८,''.- आदि । पुरा वि = - १५४ पिय = प्रिये-- ३८, १५४, १५६, पुष्भोग = पुण्य से - २५६ १५६,''' .." प्रादि । पुण्ण = पुष्प, पुण्य - १२५, ५३३ पिय सुन्दरी - प्रिय सुन्दरी- २७८, 'पुरा फल = पुण्यफल - २५६ पिरधी = पृथ्वी- ३५.६, ४०३, पुण्यवंत * - ३६२ पिरथी रा६ = पृथ्वी पत्ति- ४०२, पुतली = - ८२ पिनिवि = धकेल कर,- ४०३, पुस :- पुत्र - २ पिवहि = पीना- १४१, पुतह = पुत्र - ४८ पिहिय - पिहित (ढका हुआ)- ३६, | पुत्तार = पुतली - १० पिंडखजूरु = - १७१. पुत्ति = पुत्र - २२२ पिंडथु - पिंडस्थ- ५२२, पृसिह - पुत्री – ३५६ पिडरी = पिण्डली- ६२, पुत्त = पुत्र - ५५, १८०,...... आदि पीठ = कमर- ६८, पुनि तौ = फिर तो -- १२४ पीठि = पीठ- ३४७, पुन = पुण्य - ५०६ पीठ = - ४६, पुत्रवंत = -५५२ पीछे - -४६३, गुर = - १५२, १६३ पीड़ि = पीड़ा-४, पुरज - पुत्री - १९ पीता = ............ - १८५, पुर.ए - पूरे करना - ४१४ पीपस्थगि = उन्नतपीन-६४, पुरखंड = -२६० गोपी - पापी- ३६४, पुरर्वाह = पूरते हैं – १३६ पीपली = ............ -- १७२, पुरारिश = - ५४८ पोत्र :- ............ - ४४६, पुराणु = -२, २०, ५५० पुष्टण = ........ ' - ४९१, आदि पुज्ज = पूजा कर- ५५, • पुरि = - ५२७ पुज्ज- पूजा करना- ४५, पुरित = पुरुप - १३८ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरी - नगरी - २७, ....."अादि | पूरया = - १२६, पुरु = पुर, नगर - ३६०, ५३० पूरिउ :- पूरे - ६०, पुत्र = - ५३४ पुर्ण = पृri - ४४३, पुष्प = फूल - १६८, पूर्व = ..... - ४३०, पुष्पयंतु = पुष्पदन्त - ४, पूय = पिता - १४२, पुहम = - ४३२, पेखत = -१५५, पुलमि पृथ्वी - ४५, मेखि = देखना - २२, १७८, ९२२, पृहमिहि = पृथ्वी पर – ५१०, पुहिम = पृथ्वी - ४२१, पेखियह = देखी जाती थी - ३५, गुछ = पूछ - २२८, ३५५, ३६६, पेट = ........''"" - २३५, ३२४, पुछड = पूछना - ११०, ११४, पेटहि = पेट में - ............. ११६, १४७, ४२२,...'"आदि, । पेटु = पेट – ३७७, पूछः = पूछना - ३३६, ३७६,३६६, | पेठियऊ = भजना - ५२१, ....''आदि, पेरियउ = पार करना - ३६८, पूचरण = - ३६९, पेलि = पेल कर पूहि = - ३२६, ३६०।। पेसियउ = प्रवेश करना - २२२, पूछियइ = -२१३, पोटली - ............ - २४०, २४१ पुटित = पूछने पर - २१३. २४२, २४३. पूट्रिपल = पूछा - ३२०, पोटी = उदरपेशी - १४, पूज - पूजा - ६२, १६८, १८६, पोढ़ा = प्रौढ़ा - २७८, पूजण = पूजन - २६७, पोमिरिणवा = पद्मावती - १२, पूजि = -५३१, पोरषु = पौरुष – ३६७, पूजिउ = .........-५३०, पौरुष = 'पुरुषार्थ - ३६२, ३६८, पुजिजाउ = पूजा की -- ५५, पंच = पांच प्रकार - १२०,..."ग्रादि, गुजित - - ५३७, पंचऊलीया = पंचोलिया - २६, पूत = पुत्र -- ६१, ६७,....''प्रादि, पंचकाप = पंचास्तिकाय - ५२०, पूतलिय = पूतला - ३६२, पंचदस = पन्द्रह - ६३, १५०, पूतली = स्त्री-८०, पंचपय : पंचपरमेष्ठि - २५१, पुतह = पुत्र – ४६, पंचपरमेटि = पंचपरमेष्ठि -- १८६, पूतु - पुत्र - २६, ४७,..... प्रादि, पंचम = ५, - २६, पुय = पूजा - ५४, पंचमगइ = पञ्चमगति (मोक्ष)-२५२. पुरविणी = पूर्व की - २७०, पंचमनम्वर = पंचमहायत - ५३८, Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० = पंचमि = पंचामृताभिषेक- १५२, पंचानुवाइ पंचागुव्रत - ५१, पंचुबर = पांच उदम्बर पंथ = भार्ग - ३३, ४६०, ५१८, पंथि = पथिक = १६४, पंडिस = पडित - ४३६ धरोहण = जहाज फ फरहराइ फहराना करी फल = फलहू = फले - ५०६, फली = 11 = फलु फाटई = फटना फाट हि = फट्मा फाइल 甲賀 1 लकड़ी = = 11 10.744 F L مل - ३१३, • ४७७, फिरने लगी- ६६, १३६, फिरत = फिरि = फिर फिरिङ फोटज = मष्ट होगा, 'कुत्रातच फुंकारना फुड़ = स्पष्ट ८५, 'कुडव = स्फुट - ३६२ फुड़ी = स्पष्ट २८५, Mb. - ३७२, ...... - ५३, ६.७५, - ५१४, = ५१०, इसमें, १४०, .....प्रदि -- - ६५, २२८, २६२, ३० आदि . ४०३, फूड = स्पष्ट फुशि फिर पुनि =P २३८, फुरइ = स्फुरित होना - २९.४८४, २२८, 'आदि, S-III ४३७, ४७०, १४६," #íz, फुल्ल = फूल, पुष्प - ५३, = नष्ट होना - ४५१, फुटे फूल = पुष्प - २०६, आदि. फूलह - १५.२, १६६० - ५१४, | फूल हि = फूली करिख = किराया - ३५६० फेरिय फोड़ि फाड़कर चीर कर घुमाना २२८, फोफल = सुपारी - ६१ १६५ फोफिली = सुपारी - १७१, फौकरद काग्मा - २६६, ब = = नहु X SILA-NI = च वई = बइठे = - ४०६, बख = वर्शन - २०, बरिज = व्यापार - १७ बत्तीस = ३२ - ५६, ४५१, बत्तीसह = - ४२८, बथाऊ = बायात्रा ६०५ बरात = ... बरातु = बरात बरी बलबीर क्तिवान् - ५ बलधीरु == बलवान् - २२७/ अलह् = बल - ३७०, बसहिं = रहना - बसंतपुरि = वसंतपुर - २५.६ - २०८, 47 = ४७८, यह = बहत्तरू = ७२ - ६५, १२०. लगाया - १२१, " - ܐ3 १२४, ܟܕ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत-बहुत प्रकार से - ११३,१६०, 'बहुतका = बहुतेरा - १७४, चहुनु = बहुत - १६४, बहुले = बहूँ = बहुत बहुत - १९२, ब्रह्मा = चाइ = बढ़ा- ६२, वात - ११७, १३२, बाधर् - ४७६. बाप पिता २४२, ३८५ बार = बेर, समय बार-बार 'बारत = ....- चाल --- मंजरी १७०, २३५, = H - = -- " बाहु = बालक - १४४५ वावरणउ = बीना - ६२५, बांधि = बांधकर - २८०५ ' - ४६ष - ४५.५, GUE 'बांह = भुजा बिज्जाहरु = विद्याधर ३४२, विलखाहि = बिलखना - ४६ त्रिg प्रतिमा = २४, श्रीसा = वीस- २००, = बुलाना - १०३, - बुधि बुद्धि - २१, २७, + खुरी : ११४, १२४, - ७०, ३२५ ....... L ४१६, ५२१. - २०६, ६११, बुलाइ = बुलायें बुलालउ बुलाना - ३३७. चुलाबहु = बुलाना = ४२० चूड = डूबना - 65, - - १०४ १०६ आदि ६. नृच्छ हुबा हुया - २६०, बुरहा = डूबने वाले ए बैठे बाल = बालइ = बोललोल = भावि कोलि = बोलना बंगाल = बंगाली - ६.२, प्रदि बुरा वृद्धा की - २१६ = बुढ़ी = बुद्धा - २०६. वैचिङ = वेधना - ७६. बोर १७२, - - - 1 - १११, - - १४१, विषद = बंदना करमा बंधबोधकर ४० -- आदि, .५६, ...आदि, - ३६४, २३०, २७०. - - भ = १०१.३०६, ३८०, the "आदि, भई = होगई - २३४, १६०, भादि, कि भउ = हुम - ६६, भउगाउ = भेदमाव भाउह मोहें, भगति = भक्ति - ११७. भड = मद, यरेखा ५० - २११ ܕ ܘ ܙܐ ܀ ८४६० Hill... मादि भराउ = योद्धा - ४६६, भड़वाह = भनुगज ३८६ भडारी = भंडारी - १३२, अणु कहना ५५, २५१, भस्मी = कहलाना -६६२७१ आदि भरणे == कही - २७२. ताहि कहते हुये - २२३, भनार = भर (स्वामी) - ४१४. भत्तारु भतीर (स्वामी) - २५७, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भत्त = भरत = ६८, भवियतइ = मध्य जानो - २५६, ममइ = चूमना - ३२६, | भरियहु -- भव्य – २५८, आदि, भमत । भ्रमण करना - ", मन्त्र = मध्य - ५०, ५२०, भमिय -- फैलना - ४५, मञ्च =भव्य – ५१३, भरंतु = - २२६, भाइ = भाव - २८, आद. भव := डर - ३४६, ३५६, भाउ = भाव - सादि, भयक - हुमा - ६०, ... ..पादि, भाग : भागका - ५३२, भयो । : हुआ १२३, ....... 'आदि, भान = भामती - ३५६, भरइ = भरा - २६६, भाट = गाट - ३८०, ५०३, मरण = ..........'' - ४८१, भात = मात - ४२४. चन्तार . स्वामी -०४, | गाव - भाद्रपद - २६, मरलई = भर लिये - १८४, | भामर = भगनी - ५२०, भरत = मरत - ६४, भामाद = - २३१, मन्हत · : भरता क्षेत्र - ३., भारती = सरस्वती - ११, गरह ......... - १९, भालु - भाल -- ३४... भगति = प्रानि - .११. भाव = विचार - ६६, ७५, भरि = मर - ६८, ....... आदि मावः = -४४, मरिउ - भरा - ४०५, भावगा = ग्धिालु = घाल भरकर - ४६८, भावती = अच्छी लगती है - १५., गरी - भरना - ८७, आदि, साल उ .: भला = ३५३, भाष = वचन - २२२, भनि = अ - २०४, भासहि = कहने लगे – १२६, भलो = सरर - ८५, आग, भासियह = कहा हुग्रा – ५८, मल = ............ ४४१, भिक्बाहारी :: भिक्षाहारी - ४०१. भनी = सुन्दर - ३५५, मिाया :: भिक्षा - ३३२, lrd ., जन्म - १६६, ३५.५, अादि ! मिटाइव -- भेंट कराना - १५.०, भवउ = -५३४, भिडाइ = भिड़ जा- ३६८, 'मनकद . भवकप – ५२४, मिभनी - - ५८, मावरण = 'मवन - ४१, प्राधि मिमलु - बिनुन - ३४५, गावराणु = जिन-मन- १२२, अधि, । भीड - १२१. भवमल :. २०, भीतरि -- अन्दर - ३६, ४६८, आदि भदिय - मध्य – ६६१, ४३८, मनि – मुक्ति - १६६, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजदंड - बाहु - ३५३, 'मोलउ = मोला - ४०८, भुजंगु = पर्प - २२४, भंग = विघ्न - ३४६, भुपमास = प्रकाश -- २३२, भंजणु = मंजन, नष्ट - ३४६, मुत्तउ - - २२७ 'पण! : महमा ..., भुयगु = सर्प - २२७, मंडारह = भण्डार को - १३३, भुवरण = भुवन, जगत - २२, प्रादि, . भंडारिउ = मंडारी - १३३, नुव बल = मुजाओं का बल - ६५, ममापाटण = मू = मूमि - ३४६, मुख = मुखा - ६२३, ५०२, मजिउ = भौगना - ३७६, म :- नहीं - ३०३, ३०६, आदि, मूनाल = गजा - ३२७, मइ :- मेरा - १६, ४१, ...... प्रादि, भूलिवि= -७३, मगल = मद गलित - ४५१, मूवरणाहि = मुवन - ३.६०. मइमेहा = मतिमेध - ५०६, मूचित = भूषित - ४११, मद्दल = मलिन - १६८ भेउ = भेद - ५२, ...... आदि, मउ = मद - ३६, भेजत - - ४५७, मउरण = मौन - ३६७, ४६१, भेट = भेंट - ३२४, मउगवउ : -४६२, भेटरण = भेट - २६३, मउरउस = मुकुट बिना - ३६. भेटरिण - भेंट के लिये - ४६४, 1 मकार = 'म' से प्रारम्भ होने वाली भेडक = भीरू - ३५३, चीजों के नाम, मक्कार भैय = भेद - २८८, श्रादि, (बदमाश) - ३९, भोग - - १२०, अदि, । मखरु = मोगमति = भोगमती - २:३२, मगधदेश - - ४५६, भोगव - भोगता था - २०२, मगर - ३६७, भोग विलास नि = भोगविलासिनी - | मगरम छ ८ - १६४, २७४, | मगह = मगध - ३१, भोगहि = । मचकुद = -१७३ भोगु - भोग - १६६, मच्छ = -१९५, भोजन = -५०२, म = मच्छ - ३६७, भोय - -५१२, मछरु = मत्पर - ३६, भोयरग = भोजन - ३७२, महिदु = मछंद - ३६, मोलइ = मोला - २११, | मज्ज - मद्य - ५१८, - ५०७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ मज्झि = मध्य - आदि, मभूः = सु- २८, मारि = में, मध्य, ६८, २२०, आदि, मड़ड = मुंडी - २२५, ३६५, मडु = मुंडा हुआ - ३७२, मण = मन २१२, आदि मरणमथ = मनमथ (कामदेव ) - १४१, मरणवयकरण = मन, वचन और काय २५.७, = मनु महं = मन में - २२१, महि - २४७, मरि = मन २५, ५०, ......आदि, मस्णु = मन - ५४, ५८, ६४, आदि, मरगु = मन - १५५, भरणू सु = मनुष्य २६४, भत्त = मात्रा, मस्त - २०, २३, मत्तइ = माता से - १४६, - २४५, मतलोगु = मृत्यु लोक - २७, मति = मतिहीण = मतिहीन - १८८, मती मलै = मतानुसार - १४६, ४४०, य ३८४, = मथना मन्दिर = जिनालय = मन = मनपुरी मनोहरु ३०, १५०, २५३, = श्रादि मय = मद - मन भावती = मनि = मन - - 411041 - ALINNI - - - ४२१, ६७, ६८, ७२, ७५, मनोहर - १०८, ३४५. मयण = मदन (कामदेव ) - ६८, भयपदीज = मदनद्वीप - ११७, ममरासुन्दरी = मदन सुन्दरी - २७३, ३४७. मयमतु = मदमस मयरा = मदिरा - ३६, मयसार = मद सहित - ६४, ..... श्रदि, मया भयंक = यन्द्र मरड़ =मरना मरगजमि मरजिया - मरण = मृत्यु मरत = मरता E मराल = - 5 मरु = मरकर ५३६, मरुयउ = मरुग्रा - १७३, - ५३४, मरुहूदी = मराठी - २७०, मरैवि - २०६, श्रादि | मलर = मर्दन - ३६, मलहारि = मन को पूरा ( संतोष ) करने वाली - २७८, - 405, मल्लिनाथ मल्लिरगाह मलिषु = मालिन्य - ३६, मसारिण = श्मसान - मन में - २४०, ३८४, मह = में - ४२०, महयर = महत्वपूर्ण - ३६०, = = -- २२१, • २०३, - ४३, ३१५, मरण मरहि * मरना १३८, मराउ = मरजाऊं -१५६, = 1 १६२, १, २६१, ३६५. ३२२, wha 1 हंस - १५. मरि = मरी - ३६ ४४६, ५३५, ५४६, २६ - ४४५ - ५२४, ७. २२५, ३६५, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ महमहणु = मनुसूदन - १०७, ] मागि = मांगी - ३३०, मादि, महरू : -११, माझ = मध्य - २३३, महंघी - अधिक मूल्य काली - १७६, | माझिझ = मध्य में - १५३, महा = -५३१॥ माटी = मिट्टी - ३४७, महापुराणु = महापुराण - ६४, माठी = सुभेल - ६६, महाबल - महाबलपान - ११८, माडियउ = तैयारी करना - ४८०, महामति = मा गाग - २१, ३.७, महामंत्र = -४६२, मारपमु - मनुण्य - २११, २२७, महावतु = महावत - ३४५, माणिक = रत्न - ४१. १३५, महावत्थु - महावत - २४३, माणिवि = मारणकर - ५३४, महि = मध्य में - ७६, २४२, मारः = मान - ३६ ......... मादि, मास्यसि = मानवी - ३३३, महि मंडल = पृथ्वी मंडल - EC, माणुसु = मनुष्य - २२१, महियलि = पृथ्वी पर -२, माता - माँ - २७, २८, ३८६, महिलइ = मध्य में - २६४, माति = सीमा - ५११, महिष = भैसे - १८६, माथे - मस्तक पर - १९२, मह = मेरी - ११, १६, २० ''प्रादि मानह = मानकर - २६१, महोछउ = महोत्सव - ५७,, मानहि = मानते थे-४६१, ५०४, महोवहि = महोदधि - २५६, माय = माता - २६३, ३८६, महावेगु = महावेग - २६१, माया = -५३६, महंत = - ४५७, मायारु = माया - ३६, महंतु = बड़ा - ४०६, ५१३ . मारई = मारना - मृग = हिरन - ३७६, मारउ = मारूंगा - २२८, २३०,२६५ म्हारउ = मेरा - ४६७, मारण = मारना -४४, म्हारिय = मेरी - १५०, मारण = घात -३६,२६४, म्हारी = मेरी - २४६, मारि = घाल - ७१, १५०, मादि, माइ = माता - १६, २७, २८, आदि मारिउ = मारना - २२३, माईयइ = समा जाना - ६२, मारु = मारो - २६३, ४५७, माखद = -४८५, मारुवेग = वायुवेग - २६१, मांग = मारोगा = - २७४, मागइ = मांगता है - ४६६, माल = माना - २१.२४१, ३७४. मांगह - भालती = - १७३, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालिण - मालिन - २१३, ३६५, । मिले = -१५०, मालिरिंग - -२०५, २०६, | मीच = मौत - २१४, .....आदि, मालिशिस्यों = मालन से - २१५, | मीच = मृत्यु - ४२, ५१.६, मालिन%3D - २०६, मीठु = मीठ - ४२४, माली = एक जाति – ४६, मी!गु = मौन (मछली) - ३९. मारहती - लीला पूर्वक - १०१, मुकउ = मरा हुआ – २११. मास = महीने -- २७, ५६, यादि, मुबके = मुक्त - १ माह = में - ३१२, मुख = - ४३६, माहि = मे - ३४०, ३८०, 'प्रादि. मुखी : मुखवाली - १५७, माहिला = मारमा होमा ......', मुठि = मुट्ठी – ६८, ३१, माही - - २२८, मुखाई = -४११, मांगउ = मांगता - ३६३, मुणज = जानो - २६६, ५५२, मांगियर = ............. - ४६२, मुणस् = मनुष्य - २६५, मांभि = मध्यभाग -- १५३, मुशासाइ = मनुष्यता - २६४, मांटे = - ४१२, मुण्हु = - ५१७, ५४८, म्हारौ = हमारा - ४०१, मुखाइ = मरने पर - २५३. मिद्धती = मित्त्यात्व – ५४६, मुगि = जानना -- ६४, ५३०, मिटावहि = - ४६८, मुरिगउन = नहीं जानता - १६४, मिठिया = मधुर – २२१, मृरिणवर :- मुनिघर - ५५, ५७, प्रादि, मिमि = - १५६, मुगिसरु = -४४५, मिय = मित - ४०२।। मुणिमुबह = मृनिमुव्रत - ७, मियरणय लि = मृग नयनी - ६७. मुरिण हं = मुनिवर – ६२, मिल - मिलना - ३२५, ३५१, मुग्गिद = -५२०, ५२३, मिलावहि = मिलाना - ४०७. मुणीसह = मुनीश्वर - ५३१, ५३७, मिलब - मिलकर - ३६२, मुक्तादेवी = -२७७, मिलहि । .......... - १८१, मुक्ताल = मुक्ताफल - १३५, ४४२, मिलि = मिलकर - १२२, आदि, मुक्ति = मोक्ष – ५१, ...... आदि, मिलिउ = - १२३, मुदिगर = मुद्गर – १६१, मिलिए = - १८७, मुद्द = मोह - २२१, मिलिय = मिल गये - ४६२, मुनि = - ५६, ५१४, मिलियउ - -४८८, मुनिः = - ४६४, मिली = - २८६, २८६, । मुनिनाह -- मुनिनाथ -- २८२, Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिवर : भुवउ = : मेहु = मुसण - ३६, भुसि = चुराना - ३११, मुह = मुख - १४, १७८, आदि मुहइ = मुंह - २५६. मुहगुइन्तु मुखमंडल - ६७ मुह मुहते सुख में - २२६. मुहि = मुझे - ३०५, BAJ = मरना १४१, मुद्द मुडद्द = मुंडी - २२७, मुडिय = - = " भूकी = छोडी - ३१२, = मूठि हि मुठ्ठी में मृड = शिर मूडिउ पिर - ३७२, मूडी = मुंडना - ३२३, मुदनि = मूर्ख २१६, मूढ = मूर्ख - ३६, मूदड़ी = मुद्रिका मूलू = मूल (जड़) - १५२, २८६० मेरिट = मेदिनी (पृथ्वी) - २६६, मेखला = वनक्ली - ३७५ मेर = मेरे - २०४, मेरइ मेह मेरे = मेलच = मेलि - आदि, - २३८, आदि गूठी - ६१, - = मेरा - ३३३, - ५५, ४१८, ६२,३५८, न - मेल - ३६६, २६६. - ४०८, ५०६, यदि, - ३४९, ४३८, मोकड़ी = मोगरी - ३७८, मोह = मोक्ष = मेघ (बादल) - २६३, £, माखती मोलिय - योन ५४६, मोटर = मोटा ३५७, मोडति = मोड़ना - २२४, मोड़ी मोड़कर - ३४५, मोतिम्ह मोती = - L = = मंड | मंडिय 1 मील मुल्य - २०१, দাलি = मोतिलवि = मो = बहुमूल्य मां समु = मेरे समान मोसव = मोस्यों E. = = - मोतियों के - ६०, मोतियों के = = C £5, - ४१, ...... आदि, - आदि, - मोप - ४६५, मोह - ३६, माहउ = मोहित - ३३६ मोहलिय = मोहिनी - ३७६, माहणं = मोहनी -२८७, = मोहमल्ल = मोहम्पी यांद्धा - ५३६, महि मुझे - यदि मोहिउ = मोहना- २२३, ३६२, मोहियइ आदि | गाड़ी = मेरे - १५५, - ४२८, आदि, | मोहु = - २३७, ५३६, - १३, भगल = मधलु = मगाली मारि में - २८४, = १८७, - - १३५, - ४०३, मुझ से - ५७, २७८, - - . २४५, १३७, - ३६, २१७ २७०, - ४७३, मंडित- २६५ ३०६, Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ मंत = मंत्रणा - २४४, अादि । रसिप ति = कामदेव - ५४३, मंति = मंत्री - २०५, रधनुहि - स्थनपुर - २६७, मंतिहि = मंत्रियों - ३६९, आदि, रमइ = रमने लगे - ७३, ७६, मंदर = महल - ३६, रमायरा = रामायणा - ६४, मदार = - १७४, 1 रजय = रचना करना -२५,५५०, मंदिर - प्रावास, महल - ८६, रयण : रत्न - ४१, १३४, प्रावि, मंदोदरि = मंदोदरी - २७५, रयणन - रत्न को - २६८, मंस = मांस - ३६, रमणह - -४६०, मंसु = मांस + ५१०, रपरणाई = रत्नादि - ५२३, मंत्र = मंत्रणा - ३६४, रयण्णाह = रश्नों को - २४१, मंत्री = मंत्री (सचिव) - २०३, रयरिण = रात्रि - ३०७, रयणी = रल - २३६, रमणु = रत्न - २६२ ३७३, श्रादि, रयवर = काम - ५३६, यह = यहाँ - ४३२, ......... आदि, रल्ह = 'कवि का नाम' - १५, प्रादि, यह रही - हरी होना - १६४, रविधाम - मूर्य के प्रकाश में - ३७६, यहि = -१३६. रस = -७६, यौं = इस प्रकार - १७, [ रसरण = रसना - २८८, रस = रस - २८९, रघ्या - रक्षा -११, रई - रत्री - १६८, ....... श्रादि, रहइ = -- १५१, १५, प्रदि, रजद = रौद्र - ५२२ रहणु = रहना - २५४, रखहि - -४६२, रहस - सुख - १६५, रबउ = रमना करना - १६, रहहि = रहना - २८, रचीय = - १२५, रहाव - सात्वना - ३१६, रथे - ४५७, रहि = -४६१, रजउ = - १८१, रहि = उरखा - २७, ....... 'आदि, उइ = रुदन - १५५, रहिय = रहना -- २५८, .....'आदि, रडिया = रोने लगी - १५४, रही = रहना -- ३३१, ..... प्रादि, ररिंग = युद्ध में - ५३६, रहे म्हु = नप रहो -२१५, २३०, २६६ - ४८०, रहे = रहना - १७०, ३४८, मादि, रतन = - १३५, रा:- राजा - १६२, ...... ..मादि, रणु = Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ राइपउ = रायचंपा - १७३, गवत = राजा-४५२, राहण = राजा -- २१०, रावलि = राजा -- ४२२, राइसिहि = राजसिंह कवि - २००, | [ रासि = समूह - ७, ८३, ११६, राइसिहु = राजसिंह (रल्ह कमि)-८. | -५२४, राइसीह = राजसिह -- ४३६, राहाइ = रहा - ३४०, राइसुन्दरि - राजमुन्दरी - २२२, राहु = -१३, राउ : नाना - ४, ........ भादि | रिसउ - - ५२७, राउमति = बुद्धिमान राजा - ४६३. | रिसहाह - वृपभादि - १, राख = रखी - '४६०, रिसह = वृष मनाथ - १, राखहि = रखता है - १४०, | किमि = ऋषि, मुनिवर - ५८, ६२, राखहु = रक्षा करो - ४५६, पिसोस = ऋषियों के ईग - ३, राखि = छोड़कर - २६२, री = परी - २०७, राज = राज्य - १२७, ४१३, रीती = -४४२, राजथारणु = गजा का स्थान - ४०, रुङ = रूप - ५३८, राजनु- - ४६५, ४६६, रुदन = -२०८ राजमोग = -५११, रुधित = धारण किया - १५४, राजा = नुपति - ४०, ४१,...मादि । रूप = सौन्दर्य - ४, .......""मादि, राजासई - राजा स्वयं - ३५१, रूपआ = रूप में – ८३, राजु = राज – ३२.......मादि। | प निवासु = रूप का निवास - ४१. राणि = रानी .. २६८......आदि सापरासि = रूपराप्ति - ६, राणी = रानी - २०२......पादि रूपसुन्दरी = - २७३, रातहि = रात्रि को - '५०२, पष्टि = रूपकी - ८३, राति - राम्रि -- २१०.२६६.३००, पादे- --२४१, रामा + - २७५, हरिण = - ४२६ राय = राजा - २२३......यादि क] = रूप - १००, १.४, रामगु = राजन् - २३८, रूलइ = हिलना -5, रायाह = राजा - ४८०, कव = रूप - ४६, ६०......मादि रायसिम - राजसिंह - २६८, हवाल = सुन्दर - १६६......मादि रायसिंह = , - ५४७, रूबड़ी = रूपवती - १११, ११७, समसोम राजा अशोक - २६५, रूव मुरारि = रूप मुरारि - २७१, रायस्यौ - राजा से - २१६, वह रूपवान - ४०१, रालि - डालना - २४१......मादि । स्वहि - रूस की - ११६, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० रूसि :- श्रोधित - ६.६, लखु = लक्ष - २६, रेख = रेखा – २७२, ४.७३, लगा = लग्न - ३५६, रेवती = रानी का नाम - २७५, लग = लगना -- ६७, ४५६, रेह = रेखा - ६४......पादि लगुण - लग्न - ११७, १२४, रोपि = रोपकर - ११५, लगनु - मुहूर्त - ११२, रोपिउ - गुड़ा किया - १९२, सगि = लगो - ५४७, रोपियउ = -४४३, लगिउ = - ४६६, रोय = -३००, सछि = लक्ष्मी - १३६, ....."अादि, रोल = रोला (शोर) - ४५५, लछी = लक्ष्मी - ५३८, ........"प्रादि, रोवर - रोती है - १५४......प्रादि लजालु - लज्जाशील - ६६, सरोव हि - , -२१५......नादि लज्जविन = विना लज्जा के - ६८, रोवनी = - १ खडि : - ५ रोसु = रोष - २१, लइउ = प्राप्त किया – २५६, रोहरिंग = रोहिणी - १०, | लयउ = लेकर - ५३, ६४, प्रादि, रोहिणी कंस - रोहिणी देवी के इति, | लये = लिये - ४५१, चन्द्रमा - १२ । लयो - लिये - १३७, यादि, रंग = - ६३, ललाट = भाल - ६८, रंजणु = रंजायमान – ४५, ललित = पली हुई - ३०६, रंजावहि = रिझाने - ३३५, ४०१, लबइ = बाहना -- ४७६. रंजि = रंजायमान (प्रसन्न) – २१, . लवरिणउ = नवनीत - ५१८, रंभ = रंभा - ३७६, लवस्गोत्रहि : लवणोदधि - ३०, रंभादे = -२०३ लवंग : लोंग - १७१, | लहइ = प्राप्त करना -२६४, आदि, | लहम = लेकर - ५३, लइ = सिया - ७६, ८०..... प्रादि लहर - - २४७, लइकर = लेकर - २१२, लहरि = नजाइ = संजाना - १७५,. लहिउ = प्राप्त किया - ५०७, लहरु = लेकर - ४१६, लहिय - प्राप्त करना - ५२६, लए = लेना - ४०७, ४५१, ४६.१ । लाइ = लाकर - म, ३६६, ४०३, लक्खरण = लक्षण - २०, लाबइ - - ३००, लक्षण = चिह्न - ५६, ८१, ४२०, । लाकडी - लकड़ी - ३७७, . लग्यण = लक्षण - ४५३, | लाग्न = लक्ष - ७२, ८२, ग्रादि, Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२॥ लाखु = पं० लाग्नु – ५५०, लीय = लेकर – ३३१, नागइ = - १४८, | लीलारम :- मंग-विलास - ....... लागउ :- लगता हूँ - १०, ५१६, । लौति = निगलना - १६५, लागि = स्पर्श कर - २४२, २५.५. | नीव = बालक - ६६, सागी = - ११४, २४६, ३१७, | लइ = लेकर - ७६, १४७, ३७४,पादि लागु = लगा - २३२, लेउ - - ४७०, ४७८, लागे = लगे - ३६९, लेस्त्र * -११६, लाग्यो = - २२७, मार्गद, लेख इ = समझना - ३४७, लाड़ि = लाड़ी - २७० लेखि = पत्र - १४६, लारणी = -४४२, लेग = मने को - १४६, ४२१, लापड़ = लंपट - ४६७, लेत = लना - ४११, लापसी = ........' - ४१२, लेपसो - लेप से - ३३२, लय = लगाना - १४३, लेहि = लेते हैं - :४, १६२, मादि, साव - -७५, लेहु - -८१, ४६६, आदि, लावळ = लामो - ४५४, लोई = लोग - ३२, शदि, लावण - सुन्दर - ७५, लोउ = लोग – १६६, लाबत = - ३५५, लोए = लोक - ४०३, लावहि = लाना - ३०६, लोक = संसार, लोक - ७, लावै = लगाव - ७२, नोकु = लोग – ३५६, लिउ = लिया - २५२. लोग = - २३५, ३११, यादि, लिख = --१४६, लोगु = लोग - ११६, लिखत = लिखते हुये - ६५, लोमुपागु = जन समुदाय - ३६६ लिखतह = लिखते ही - १०४, लोचन = लोचन - २८२, लिखी = लिखी हुई - ११७, लोटणी - - ४६८, लिय - लिया - ४७२, लोरण = नमक -- १४०, लिलाडेहि = ललाट पर - ७७, लोपहि = छिपाना - ३२२, लिलार - ललाट - २६०, लोभित = लोमी - ३६६. लिहाइ = लिखाकर - ११२, लोय = लोग - ४२, ३६६, लिगु = -५४७, | लोयण = लोवन - ४०१, लीए - ०१-५, लोह टोपर - लोहे की टोपो - १६२, लीज :- लेना - ४८, ३२४, नोहे मार - लोहे की मारी - ...... लीगु = लीन - ४७०, | लंक = कटि - ६२, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ लंपट = लंपटी - ४०३, यहि = बढ़ते थे - ४६१, लंपटह - लंपटी - १२०, वही = ब्रहत - २६६, लंतिय = लिये - ६ वड़े = - ४६५, लंब = - ४४६. वण - वन -- ७७, ३१२,३४७, ५३०, वग़जी - - ५३०॥ पण = -४४०, बद = -४६३, ५४६, अण्णा = वर्णन करना --१००, वइठ = बैठकर - १२२, ५४१, वराउ - वन करना - ४००, वहठउ = बैठी - ४२३, वजारे = व्यापारी - १८५, वइद = बंद्य - ३५, वामहि = वन में - ३२७, वहरा = वैजाग्य – ५१२, वणवाल :: जनपाल - ५१३, वरिउ = वैर - २२६, वसई = घनस्पति - ५१४, यइल्ल = दैल - १८, वगिण - -६५॥ वइस = ८६०, वणियः = वर्णन - ४८, १०, वइसर = वैट गया - १२६, वणिकु = महाजन - १७, बइमारत = बैठाना - ४२०, | बरिराज = व्यापार - १७, बरसारि = बैठाकर - ११०, ११६, वणिजह = वनज, व्यापर -४०, ४१५ वइमि = बैठकर - ७७, २२३, यरिगजारिन्ह = - २४८, वउ = वपु (शरीर) - ६६ वरिणजाए = व्यापारी - १८६, १६१, यसलसिरी = - १७३, | वणियार - - ३७, वकार = 'व' से प्रारम्भ होने वाली-३७ वरिणयर = व्यापारी - १७७, १६१, वछ - वत्स – १४४, ३६२, कगित्ररु = व्यापारी - १९६, ४७२, अज्ज : बज - २ बगिवार करिव दल - २३६, वज्जणी = वज़गी - २८८, वशिद = वािकों में इन्द्र - २५४, वज्जरित - -५२२, ५.२४, ! जिनदत) वज - इन्द्र का प्रायुध - ६१३, ३२८, वणी = - ४३३, बन = - ४७७, वण्णु = वर्ण - ६३, कड़ = - ४७६, | वत्त - यात – ६८, २२१, ३६१ वडइ = बड़ी - १४३, यत्ति = बात - ४६५, बड़ण = गिरना – ५१२, वनीमह - -४३३, वडवानल = मसुद्र की प्राग - ...... यत्त = बात - २१३, बड़वार = दड़ी देर .................. वस्य = वस्तु = ३१, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ बध - १३१, | बराइ = बसा हृमा - ४०, ४७, ६८, चचा = धाबा -८०, वराजी = व्यापार - ५२६, बधाक = बधाई - ८१, वसरण = सोने के लिये - २१२, २१९, वधाए - बधाधे में - ६१, ५०३, वसगु = - ४६२, वप = वपु, (शरीर) - १७, वसहि = वसना - ४२, २६७, मादि, खपू = शरीर - २३०, बसह = - २२३, वपुष्टा = बेचारा (गरोष - २६१, वलिउ - सामजिये .-२२३, चय = उम्र -५१६, वसंतपुर - नगर का नाम - ३८, ३६, यमरण = वचन - १७, २५९, आदि, | वसंतु = - ४०, नयणी = मुख वाली - २२०, वह = - २२७, २४४, वयसारि = बैठाकर - ४६, ६८, वहइ = चल रहा है - ३०, वर - सुन्दर - १४, ५३, प्रादि, वहरि = ७२ - १५, वरण = विवाह -- १०६. वहां = - १९८, वरत = डोरी - २४२, वहाद = विदा करना - ३८३, वर वर्ष - ६३, वहि = -५३४, बरस - वर्ष - ८५, ३८६. वहिल = घलाना - ४२५, वरिमिणी = वषिणी - २८८. वहिणी = बहिन - ४२४, चरसियउ :- मिखाई देना - ३२६, यहिंगयो = - ४३८. वह = पति -- ३७, २६२, २८३, अादि वहिजाउ - नष्ट हो जाय - ४३.७, बराड़ = - ३७, बहिजाउ = व्यथित - ८४, यरुणु = वरुण - १२, वहु = बहुत - १५, ३७, ..."मादि, वस्तइ = वरतने – ४१६, बहुक = बहुत - ३२०, बल = । बहुत्तइ - बहुत – ४६२, अलभिणी =वैल को रोकने वाद-२८६| वहन = बहुत - ३६१, वलद - ईल - १८६, | बहुफनु = अधिक फल - 5, चलि - शोभित - २६७, ३५३, बहरूपिणो = अनेक रूपों को बनाने अलिचंड = बलवान - ३६८, वाली - २८६, वलियाउ = श्रीहित, लज्जित - ७४, वहल = बहुत - ३०२, ४४३, ५०४, वलुवलु = सेना - ४११, बहुलकु = - १४६, वघड = बोदे -- ४४६. बहुल वहुलु = बहुत २ -- ४४०, वस्त = वस्तु, चीप - ३३४, -४८, वस्तु 3 - १३६ वहृत = - १४६, १७८, Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ वह = वापह - पिता - ५००, बहेड़ = वापहि = पिता – ५०१, वः = ... .-:५७, आकि, वहाड = हरी - ३६३, वामरण = ब्राह्मण - ३२१, धूप - वृक्ष - १६०, चामगु = ब्राह्मण - ११५, वाई = बावडी - ३, १५६, बाय = वायु - १२, वाइगो - लाहना – ५१, वार - बार, मार्ग, देरी - १४१, २६६. बाईस - २२ - २६, वारवार = वार २ - ३७३, बार -१६६, वारस = बारह (१२) - १६०, वाखर = पशु विशेष काठी - १२१, बारह - बारह (१२) - ८५, प्रादि. | वारि = द्वार - १५७, प्रादि, वास्त्ररु = - १७६, १८६, । वारिठिया = - ३७, बाचि = -११६, वरिस - - ४३६, याज = बाजा - ३४८, पारु = समय - २१७. ४४३, वाजणे = बाजे (बार-यन्त्र) - ६१, | वार] = - २२६, वाजहि = बजना – ३८०, वाल = - १०५, ४७६,५१३. वावि = बजने लगे - १२०, वालउ - बाला, बालक - १७४, ४१५ वाट - मार्ग दर्शन - ४५४, पालम : स्वामी - ३०५, वाड़ा = - ४५८, | बालही = वल्लभा - २७९, वाड़ी = बाटिका - ३४, १६, यादि, | वालहे = बल्लम - ३०, वाढ़ = बड़ई -३७, ६३, वाला = - २७८, वाराहि - - २२१, | वालि = मानकर - १५८, वारिण = वाणी - १४, ४५, आदि, | बानिय = वाना - ३८२, वाणी = वापी - १४, बाली - नव युवती – ३४१, ३४३, वाणु = - ३५, वावगा = बौना - ३०, ३४३, आदि वामरण : ब्राह्मण - ४४, बावण्इ = बौना - ३४६, वात = बात - ११६. ३३०, प्रादि, बावलउ - पागल - ३२६, ४३२. वाता = वार्ता - २९४, ४०२, दावली - बावली - ३०६, बातु : बार्ता – २०६. आदि, वास: -४४३, यादि वासणु = पुरस्कार का वस्त्र -३२१, बाधउ = - ४७४, वासरि = दिन - ६४२, बाधे - वासव = इन्द्र - ३५, Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासीठ = बसी - ३७, वासु = बांस - १६२, वासुपुज्ज = वासुपूज्य - ५, १५२, वासे = - १८१, वाह = विमान वाह = डालती है - १००, = वाह्न २६६, वाहण " वाहरणु चारि = बाहर चहहि - बहाना वाहु = भुजाओं बाहूडि = अ वांदिर = बंदर ३:३५, = = = = - - = = - नांवरच बौना - ४००, १५८, विजय = विमुक्त विकत विकेरण विक्रय २०१, विक्रम विकास - ४१६, विगमच विगसाहि = प्रसन्न हुए विचार = विचार - ८३, वित्रि = मध्य में - २६६, विचित = विचित्र - २६८, विचि-त्रिचि = बीच- २ मे १३५, विच्ारज = विस्तार करें - १३, विछूरनि - ४३१, विजज: - १८१, विजय मंदिरु = महल का नाम विजयादे = विजयादेवी - २०२, विजाहरि विद्याधरी ८३, ११६, बिज्जउ = विद्यामों से २६०, - - ३०, ३१०, ४०५, - ४४६.४७८, ८०, ३५१, ३६७, ४८, - ३१६, ३६७, आदि, - = विकसित - १११, - २२६, — १५२. १५७, २६०, TH - २२१ विज्जनु = विद्याओं से - २६०, ६३, २८६, मात्रि, विज्जा = विद्या विज्जागममार = विद्या तथा आगम का सार १५, बिज्जातारणी = विद्यातारणी - २०७ आदि १८२, २६७, .....श्रादि विज्जाहर = विद्याधर विज्जाहरिय विजोग = विदह = - ३७, बिडे = विटप (वृक्ष) - १६८, विइ = बढ़ाकर - १३८, १३६, त्रिवहि = वृद्धि - १३८, १४०. विदनी = कमाई हुई पूजी - १३७, निए = बिना ५०१, ५०२, आदि विखउ = विनय - २६७, - वियोग - - = विद्याधरी - २६८, - — - २२५ ४०५ विरणबइ - विनय से - ३५६, ५३६, विश्वहि = निवेदन करो - ५४३, विष्णु विमान - २६८, = त्रिति = दो - ४१५, विगी = बेणी - ६, विशु = बिना वित्रा बीत गये - १, वित्त - घन - ५११, वित्यु = विस्तृत - ५४८, वित्थरज = फेंकना - २६५, वित्थार विस्तार विदेश - विदेश ४१. = नष्ट करना - विद्ध सइ विनान विज्ञान - २८०, ४८, १३१.... आदि 4-**** ४३२, ३४६, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनवा - विनती - ४१६, बियारि - विचार - ५२१, ५२३, विनु = बिना – ४६, ३१४, ३१५, वियूर = पूरित -- ३६, विनोद = रंजन - ६९, २८०, ३२८, ! वियोड़ - विवेक - ५४०, विश्न - - ५५३, वियोग = निरहूँ - १७७, विनिवि = निकलती है - ५.२, चिरत = सम्प - ६४, ६५, विपरितु = विपरीत - ३२६, विरध = वृद्धि - ६३, विष्पह - विप्र -- ११२, विरयउ = विरचित – ५५०, विप्पु - । - १०५, ११२, विरल = बिरला - २१४, विप्पुरिउ = विस्फुरित - ३०, विरली - - २१४, विप्र = -४४१३ बिरसोरर :- विजोग - ४१३, विभृम = भ्रम - २८०, विरह = वियोग – ४००, ...... प्रानि, विभूषित = भूख रहित - ३२५, विरिणि = विरहिणी - ३१६, विमल - विमलनाथ - ५, ११०, आदि विरुद्ध = विरोध में - ३५२, बिमलमइ :- विमलमति (ती) - | विरुद्ध = विरुद्ध - ३५०, १०१, १५४, | विरूप = सुन्दर - ३२८, ४०३, विमलमति = , - ११७, विलखत्रि = विलसना - ३०७, विमलसेठ -- विमलसे - १६, विलम्बाइ = बिलखते हुये - १२६, विमला = - ४५०, १३७, ....... 'आदि, विमलागणु = - ५२७, विलखाणि उ = रोते हुये - २३६, विमलामइ = विमलामती - ४४४, विनिया = - ४६८, विमलाति = , - १०६ | विलनीइ = गे-कर - ११०, विमलामती = - ३३८, । विलम्तो = बिलखना - ३५७, ४१८, विमलासेठिणी = विमला नाम को बिलबह = व्यतीत करना - ३००, सेठाणी - ६, विलसाइ = भोगने लगे ........... विमलु = बिमल - १२४, ३१६, आदि ! विलसहि - विनराना - ४१३, विमलुमनि = विमलमती - ३२५, जिलमंत = भागता है - २६६, विमाण - विमान - २६६, २६७. | बिलानी - १३३, वियखल = विचक्षण - ३४१, विलालि ; वेलाकुल ......... .' विग्रसाइ = हंसकर - १६३, २०६ . बिलाए = विलादा – ४०३. वियसिंउ = त्रिकसित - ३६८, | बिलावल = वेग का ना। --१८६. चियमंतु = -१५१, आदि, | विलारा = .. ... ... - ५०२, ५०४, वियाधि = व्याधि, बीमारी -२०३, | बिलासगइ = विजाग गति - १०१, Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निलिखाइ = बिलखना - ३१३, घिसाहि = खरीद कर - ३४, विलंका = विश्राम किया -१६०, विसोसु = विश्वाम - ४६६, विवक = सविधररण - १०८, विसूरिउ = - ४१४, विवह = विनिष्ट - ३२३, बिसेपद = विणेपता लिये - ८९, विवहार-व्यवहार - ६७, विड़ि - विघट - २६३, विवाग = विमान - ४४.७, विहप्पई = वृहस्पति - १३, विदारणु = , - ३६९, विश्यउ = विलगना - ४११, विवारी = - ३७, विहलपन = विह्वलांग - १०६, ११८, विवाह = - ११६, १२६, बिहसरणदे - - २७३, विबाहर - विवाहमा - ३६२, विहमाङ = मकर - १६२, २१७, ३०१ विवाहणु - विवाह के लिये - १२२, | विहसत = , - २१५, विविह = -५३४, | बिहारण = प्रात.काल............. विवुह - विबुध - २२, बिहार - जिन मदिर - ७, पादि, दिचुहजण - विबुधजन - २१, विहारइ - - ३७, (विद्वज्जन) विहारह = विवेय - विक- ५४१, ५४३, ५४४, | विहारतु = मंदिर में - ३६५, विवोय = वियोग - १५८, बिहारि = मंदिर - ३७, ....'मादि, विशाल - पुत्र का नाम - २२२, बिहारी = ॥ - ३३८, विषम = गहा - २५४, विहितहि = बहुत - ६१, विषमु = , - २५६, विहिवसेरण - विधिवशात (भाग्यवश) विषय = विषयों में - ६७, ३२, विषयन - सुख (मौक्तिक) - ३०६, | विहीर = विहीन - ३६, ३७३, विषयह = विषय पर -६६, | बिहु - कुछ – २५१, विष - में - ३४, ' विदु = जानना - २३, विसउ = विश्व में - ५२७, । विभई : - ४३१, विसमाउ - विस्मय - ४८६, विमउ = विस्मय - १०२, २२१, विसमु = विषम ('मयंकर) - ३८६. विभिउ - विरिमत - ८०, विसय = विषय - ६८, वीकठ = -१८२, विसहर = विषधर (सर्प) - ३६६, | वीचि = - १६६, विसहरु = सपं - २२६, २२६, वीतराग = -३५१ विसासु - विश्वान - ४२३, वीनी = व्यतीत - ३०७, विसाहण - खरीदने को - २०६ । वीनती - प्रार्थना - २३७, Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ -१८३. वील्हे = यी नयउ :- विनती करा . ४५, म = - २४८, . वीपुमा = - ३०५, | बूढ़ि = बुद्धा - २२२, वीयराउ = वीतराग - ५२, वेग = - २२८, बीयराग = , - २५, वेगह = शीन - २६६ वीर = बहादुर - ७५., ...... प्रावि, वेगि = " - १९६, १९७, २०७, वीरणाहु = वीरनाथ (म० महायोर) बेचियइ = बेचना -- १४४, ८ | बेटी-बेटी -- ३८१, वीरमदे : - २७६, वेठि = बैठना - ४६, ४७५, वीर राइ - - १६१, वेठिल = घेर निया - ४५६, वोरु - वीर - ७२, ....... आदि, बेडु = बाल - ३५८, वीरुह = वीरों ने – ७७, देणानयर = वेशा नगर - १६६, बील्ह = वेशालए = 1 - १८४, वेणि = दोनों - ११५, थोस = बीस (२०)- ३९, ..... प्रादि | वेत्रियन = विह्वल - ७६, वीसमइ = विस्मृत -- २६२, वेर = - १७२, धोसर३ = भुलाना - ५०१, वेल = - १७३, बीह - वीथी - ३५३, वेलि = लता, - १५७, बुजिक = " ......... - ५२१, वेला – १६८, बुद्ध = बुध – १३, वेसा - वश्या - ३७, ७०, शुरु = ..........." - ३७, बलिउE - २२४, बुवा = ............ -- ४०८, वोधु = - ३२६। बुला वोल - - ३६४,४७६, बुलाइय - बुलाना - ६६१, बोल - बोले – ५८, १७८, ३०१, बुसि + राजा - ४५२, बोलण - बोलने - ३४३, बुह = बुधमान - ३७, ४६, वोलग - - ४६६, Jहयण = बुधजन - ५५०, ऑनहि बोलन1 - ३६८, बूचे = बूचे - ३७८, | वास्तु = बात - ७३, ........ प्रादि, बूड़ = डूबना - १६५, | बोले- कहना - ३७६, बृद्धि = " - २४७, बोले इ - बोला :- ३०६, यूड़िउ = डूबा हुना - ७२, 1 वहिप - जहाज - १८४ बुडिवि = , - ३४१, बाहु = बोध - ६. युड तिहि = | बदर - चाहना – ४२, १४, ..... । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ चंदण = वन्दना - १७, घंघरगु = चन्दनार्थ – ५१५, षण-पए = भरण २ - ३४४, वंदन = चंदना - ५१६, षोडसु = सोलह - २४, वंदरा = - ३७, वंदह - वंदना करके - १५६, बंदि - २६१, २९२, । स- यह - १५७, ३५८, मंदिरणीजण - बन्दी जन - ८०, सइ = उनके, राजा - १,२८०, ३५. बंधद = अधिकर - ३२६,४७८, सइहार = सहकार - १६६, थंघरण = बंधा हुमा - ३४४, सउ = सौ - १६५, २००, वंधणी - - २८९, स उकु = उत्साह पूर्वक - ६०, १२५, चंधि = बांधना - ३५६, सउघी = सस्ती - २०१, चंभण = बागरण - ३७, सखस = सब - ४०७, वंभा = , - ३३५, सकद = कर सकना = ३६२, संवानु = जोर शोर से - १७५, सक्कई = -५१६, चराविद्धि - चंश वृद्धि - ६७, सकः .. क - 1 व्यवहारइ = व्यवहार - ३५, सकरू' = शंकर -- १०७, च्याकारण सकहि = सकना - ३६३, व्याधि = व्याधि - ४४८, सकन्तु = , - ७३, च्याह = विवाह - ३२६, सकार = 'स' से प्रारम्भ होने वाले - व्योहार - व्यवहार - ३२, सअटवउ = सकुटुम्ब - ३२, सके = ............ - ४४०, सखी = सहेली - १०२, २४५, २५६, शाध्य - प्रावाज - १७५, सम्ग - स्वर्ग - ३१, ५२८, शरीर - देह - ११८, सम्गमोक्ष = स्वर्गमोक्ष - ५११, शुक्लपमाण = शुक्लघ्यान – ५२२, सग्गवर - अवक - ५०७, गुखु = सुख - ४१४, सगहि = उपसर्ग - ४८७ शुद्ध = पवित्र - ५१४, सगि - .............." -- ५४७, शुभ = ...........'' -- २८८, सगुण - शकुन - ५७, ४४१, शुहिणाल = दूत का नाम - ४६४, सगे = -४०८, श्रवण - श्रमण - ५०, सजण = सज्जन - १११, श्री रघुरा = नाम - ३६५ सजि - सजना - २५१, श्रीवसंतमाला = -२७१, सहि : - ४४८, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सत = सतीस्व - २४७, ३०७, आदि, समाद = मान सहित - १०, ११२, सप्त तच्च = सप्त तत्व - ५२०, समामइ = मा में - ३३०, सतभाउ = अच्छी तरह (सत्यभाव)- | सभालि = स्मरण कर - २२५, २७५ ६२........... नादि | समचित्त = प्रान्तचित्त - ४, सस्तषर = सप्त अक्षर(एमो-पारिहंतारणं)| समझाइ = ............ - १४५, - २५३, | समस्थि = ............ - ३४४, सत्तावन = ५७ -५५२, समत्थु - समर्थ – ६ १६, सतिभाउ = . - ४३७, | समद = समुद्र - २४१, २६३, सती - -२४७, २५०, प्रादि, समदत = अशोक - २६६, सतीस - सतपण - ५.५, तमविजय - समुद्रविजय (म नेमिनाथ सतूकार = सस के भोजनालय - ३३, । के पिता ) - ८, सत्य = ............ - ३८, ५५२, समदह = समधी -- २१३, सत्थवइ - .............. - ३८, समदहि = - २३७, सत्यहि = साथ -१, समदी = व्याही (यर पक्ष) - १२६, सत्थ = शास्त्रि- ५५, समद्यत - - .s, सत्थे = व्यापारी दल - २२२, समद्यौ = - ४५०, सद = शम्द - १४, समरि -- लड़ाई में - ४७१, सधर = धरा पर - १०६, समलहु = - ४३५. सधारु - + १८३, सम्बर = श्रमण, साधु - ३६१, सनमधु = सम्बन्ध - ३२६, सम्हारि = संभालना - ३१७, सनि = पानिश्चर - १३, समाइ = समाना - ३६८, ३६६, सनु = -- ४६२, ममाण = + - २३, सपडु = - ३४६: समारणहं - , - ३८, सप्पू = सर्प - २२७. समारिणय = समान उम्र की - १०, सप्तमंग - स्यावाद के सात सिद्धांत ' समाहि = समाधि - ५३०, ५३८, - १४, | समाहिगुप्त - समाधिगुप्त - ५१४, सफल = फल सहित - ३२, | समीट - सुमधुर – ३२६, सब = सर्व, सभी - ४२,४४, आदि, | समोष = पास, साथ -- ३६४, सबद = ..., समु = समान - ४०, ७४, ४२७, सबही - -४३, ! समुझावरण = - ४८२, सद् = सब - ४८, १२४ ..... प्रादि, : समुद = समा = बैठक - ३३४ ......आदि, | समुद्द = समुद्र - १९५, २५४, २६१, Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समृद्दन = समुद्र - ३८६, सवरण = स्वर्ण - ३८, ३६६, समृद्र = 1 - ५४५, सवण्ड = सब के लिये – ४१, समूह = -५३, सबद = शब्द - १२०, समेररिण = युश करना - ४७०, सवमहि = सब में - १५, सय . -५५२, ५५३, सवारयु - स्वार्थ - ३७६, सयण = सज्जन -२ सवारि = ठोक - ७३, रायल = सच - ४२,४५, ५२, प्राविसबासी = बाह्मणी - ३३२, सयं - - २१४, | सघु = सब - ११५, १२२, “भादि, सररगु =: शरण - ५, २८:.'मादि | सर्थ :- सबही – ३३४, गरा = , - १५६, सम्व - सब - ३६, सरवर - तालाब - ३८, १०२, १७४ | सश्व - समी- २७६, सरुवरु = -९., सम्बल - -३५, सरसती = - ४४०, सव्वसिद्ध = सर्वसिद्धि - २७, सरसुती = सरस्वती - १५, २६, सब्बह - सब ही - ४०२, सरावगधम्म = श्रवक-धर्म - ४४, सन् = सब - १४३, ....... धादि, सरि - ३८, सन्चासही = सवौषधि - २८६. सरिवि = - १२५, सच्वंग = सर्वांग – ११८, सरिस = समान -६५, ससि = चन्द्रमा - २४, ६७, सरीर = शरीर - १००, .....'प्रादि, | ससिवयरिंग = शशिवदनी – ३०६, सरीरह - ,, - २३, १०४, ..._धारण करती है - १५, ६३, सरीरु = " -५, २०७, २०, सह - सहन करना -- १५८, सक.प = समान - १७२, सहकार = माम्र - १७०, सरूपु- सरूपवान - ८८, ५२६, सहजावती : - - १६५ सरंभ = समान -- ३५६, सह] - शयन - ४७३, सलहहि = सराहना - ३०५, ५०३, सहले = सकल, सभी - १६६, सलयिइ = सहस = हजार - १८६, ४५१, सल्लेहा : -५१६, | सहसर = चन्द्र - २२१, सलोक = -५५३, सहल - हजार - ४५१, सव = सब - ३६०, .......... आदि, सहसु- , -५५३, मवइ - सभी, सम्पूर्ण - २४, सहहि = - ४५५, सवइग - , - ३१, सहाउ = स्वभाव-४, ६६, ४७३,५१४ मबई = म - १२, महारत = सहारा - ३१५, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सहाहि = | सामहनि = सम्मुख - १७७, सहि = सहित - ३६, ".....यादि, सामि = स्वामी -- २१४, २८२, सहिउ =, - ४८८, ५४१, सामिउ = स्वामी - ४२५, सहिय = सखिर्या - ६.. सामिरिण = स्वामिनी - ११, सष्टियरण = - ३८, सामिय = स्वामी -- ४, २५,..... प्रादि सहियगई - सानि = , .. सही = सहन किया -७१, २५३, सामी = , - १५७, ३.४, प्रादि सहु = सब - ६६, ...........आदि, सामीय = , -5, साय ,, -- १५७, स्वयंवर - - ५१, सहायर - सागर - २२२, ..... आदि, स्वातिनखतु = स्वाति नक्षत्र - २६, सापरबत - भागरदत्त - ३६४,...", स्वामिनी = - १६, सायरु = सागर - २५१, आदि, स्वामी = - ४००, मार = चौगड़ - २३३ आदि, सा = बह (स्त्री)- ८६, ८७, ......, सार३ = दूर करना - २१३, साह - स्वामी - १५६, सारद = शारदा -१४, अादि, साई = ,, -३२४, मारु -- सम्पन्न - ३६, ६५, १८५, साकल = सांकल (अर्गला)- ३४५, सारंग = -३८ साखि = साक्षी - ३१४, सारंगदे = -२७६, सासी = ,, - ३५०, सावधारा ८ - ४८७, सागर - समुद्र - २५३, ३६४, सामय - श्रावक - ५१६ साचा: = - ४.७६, सावयह = ,, - ३८, साचा = सच - ३११, साल = - ४३३, साजि = सजाकर - १२१, सावल-उसाजित = 1, - १२१, सावलदे = सादिदि = बदलना - २०१, साबु = सभी - .. सादि- ६. (पष्ठिः) - १९३, सासइ = संशय - ३६४, साषंदे = प्रानन्दपूर्वक - १६, सासु = श्वशू (राास) - १४६, सात = ७ - ५१५, सामू = " - १५७, साथि = संग, पास - २५४, साहउ = - ४४३, साधरउ = धरा पाय - २३१, साहण = साधन - २६६, सामलो = अच्छी - १०१. साहणा = सैर - ३८, सामले = - ४२६. साहाणु = , - ४४६,४७८, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ सिक = साहर = साहूकार - ११८, | सिवदेव = - ५२८, साहस = साहसी - २५८, ३६६, अादि सिबपुरि = मोक्ष -- ४, साहसु साहस - १३६, २४२, | सिहु = साथ - १०२, २६, आदि, साहि = सहारे - ३६७, ५३७, | मिगारमइ = शृङ्गारमती-२८१, ३४२, साहिब्बउ = साधूगा - ५३७, सिंघलदीपि = सिंघलद्वीप - ३६०, साहु = सेट -- ३८, ५८, ११३, प्रादि , सिंचरण = सींचना - १६६. सांकरे = सांकले - १६१, रिचि = सींचकर - १०६, साँझो = मंगा गमप - 3 सिंह - सींचना - १६६, सिउ = से, सब - २६३, ४२६, प्रादि. सिदुबार = - १३४, सिंह = प्रमुख - ४६५, सिखवय - शिक्षा व्रत -५१, | सिहल = सिहल - ३४०, ...मादि, सिखि = - ३८, सिग्धु = शीत्र - १५४, सिंहासरा = -४६०, सिगरी - समी - १२१, सिहासरन - सिंहासन - ४१६, सिठ = प्रसिद्ध - १३, सिंहुज = - २८६, सिद्धः = सिद्ध हुपा - २५हे. सीखिउ = सीखा - १५, सिद्धि = - २८७, सीखी = - ३३३, मीघर - सिर = मस्तक - १५४, सीमा = - ३८, ४७०, सिरघ = शीघ्र - ४६७, सीयल = शीतल - ५, सिरह = सिर पर - E८, सीयलव , -१४, सिरह = " - १५३, सीयतु = - - ५, सिरि = सिर - २२८, सोया = सीता - ३९६, सिरी + - २६८, सौग्धु - श्रीरघु - ३८५, सिरीखंड = श्रीखंड - १७२, मंद - -1, सिरिगण - - १८५. | सोनवत = शीलवान - ६६, ४६६, सिरिमइ : श्रीमती - २२१, मीलु - शीलवत - १५७, २५१,मादि सिरिमति = । - २५६, सील्हे = सिरीया - , - २७, २५४ । | सीक्ल = सेमल - २६०, सिरीयामति- , - २३६, आदि, ' सिरु = सिर, मस्तक - ८, २२६, प्रादि सीसई = -३६, सिला = शिला - ३३३, सीसे = शिरस्त्रारण - ४१७, सिलारूप = शिला के रूप में - ३३५, मीहहि = सिंह - ३५७, सिलाइ = शिला - ३३४, | सींग = - ४४१, सीम = Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुइरी = स्मरण करना – ३५२, । मुतउ = सूता हा – २२७, सुइ छिइ = स्वइच्छित - २८७, सुसधार = सूत्रधार - १०३, १०६, मुत = मुत - १, २१६, सुनधारि = " - ७८, ८४, सुका = सुकषि - १५, १६, "प्रादि, | सुतधारी - , - १०, मुकीठ = कठिनाई से मिलने योग्य-१७६/ सुतमज = - २७१, सुकुमाल = सुकोमल - ३०६, सुत्तारि = सुन्दर तारिका - ११७, सुरुक = शुक्र - १३. सुसु = पुत्र -- सुक्केज = सुकेतु - ५०८, सुदत्तह - - ५३७, मुख = - ४३७, सृदत्त - सुदत्त - १८०, ५०.६, मुखरू - - ५३४, मदि :- शुक्लपक्ष – २६, सुखसरइ = सुख प्राप्त होना - २०८, सुद्ध - - ४७३, सुखसेरणवलि = सुखसमनानली - २७५ सुद्धा = - ४६८, सुखासण = पालकी - १२१, १२८, मुद्धि = शुद्ध - ६६, सरिन = - ३५, | सुघउ = -१८, सुन्हियार - सुखी होना - ३०३, सुधांत = धारण करना - २८०, सुख = - २२४, सुनत = - ५४६, सृगुणगुण = सद्गुणों वाला - ४००, सुन्दरि = - २२१, सुवंगु = चंगो, अच्छे स्वास्थ्य वाली सुनहि = सुछिउ = छोड़कर - २२१, सुनहु = सुनो - १५७, सुजारा - सुजान - ३०४, सुनि = -३००, मुजाणु - - ४४१, सुनि उ = सुना - २५६, मुः = सुन्दर - १८१, मुन्हि ८ ,, - २००, मुठि = ॥ - ४०० सुगत्तर = सुपात्र - १४२, सुठु = || - १८१, ४१०, आदि, सुप्पहु = सुप्रभ - ५०६. सुरण -२०६, ३०२, सुपास - सुपार्श्वनाथ - ४, सुगइ = मुना - ३१७, ५५१, सुपियार = प्रेम सहित – ४२, २०२, सुबह = - २५०, सुघात = बार्ता – ३४१, मुरणहि = सुनो -- ३०३, ३६३, मुमइ - मुमति -- २७४, मुणी = - २१३, सुमइनाहु = सुमतिनाथ – ३, सुरणेइ = २४५, सुमइल = मुमति - २७८, सुरणेहि = सुनो - ४७१, ५१७, सुमसि = - २२८, ४६१, | सुमयादेवि = 'सुमया' देवो - २७३, - १५३, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ सुमरइ = स्मरण किया - २५४, ३३४ | सुहबर - सुख से - ५४५, सुमरणि = -४५७, सुहवइ - समरत = स्मरण करते - २५२, । हसार -पुस्तसार - ३८, सुग = -२७४, | महाइ = शोमा देना - ४५ ६३, प्रादि सुर = देवत्ता - १०२,५१४, | अहि - मुखी - ३६, सुरमा - - २७२, । सह = मुख - २४५, सुरतारि - सुरसारी - २७०, | मुडि = सूड - ३५५, सुरम - सूरत - २८०, मुड - । - ३४६, सुरह = स्वर्ग - ३६, २६८, सदरि = -४३०, सुरही = मुरमित - १७४, मुंदरीय = रादरी - २२३, सरा = -१९३, सूरुर = सूखी - ३६३, ४६५, सुरु = सुर, देवता - ७, २५३, सूकी = सूखे - १६५, सुम्पाल = श्रीपाल - १८१, सूखे = , - २६०, सरेख = गुम रेखा वानी - ४६, ६५, | सूझइ = दिखाई देना - १९४, १५३, सुरेन्द्र = इन्द्र - २६८, सूडिउ = सूडी से – ३४५, सुलखरघु = मुलक्षण – ११३, सूदु = -१६३, सब = -४६२, सूती = सोगई - २२५, ३४३, सुवाग सवर्ण - ४५, सून = सूना - ३१३, सुविचार = विचारपूर्वक -- ६, सूनी = - १२६, सम्वस = -३८, सूर = सूर्य - ३६, ........' 'मादि, सुवा = लड़की - २२०, सूरू - ।। - १३, २६, ५५०, सुवास = सुगंधित - १६७, सूवा = तोता -६६, सुविगाल = बड़े - ४५, । सेज = शय्या - २६६, सुब्चि = - ५२८, । सेट = - ४८, ....ग्रादि सुसर = प्रबसुर - १४६, २४४ प्रादि, | सेठि = सेठ - ४५, ४६, .....मादि सुसरु = , -- १४६, २४४, सेठिरिण = सेठानी - ५६, ....."प्रादि सुसरे - , - १५७, सेठिपुत्र = (जिणदत्त) - २३१, मुसारि = सार - ५२३, सेतु = -१६३, सुह = सुख - १३, .......''आदि, सेयंस = श्रेयांसनाथ - ५, मुहगादे = - २७४. - ५१४. सुड़ = सुभट - १२४, सेबज = सेवा - २६८, सुहणाल = जातिविशेष के योद्धा-४६०/ सेवती = - १७३, सेव Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सेव्यउ = सेवा करना - ............, सोहि = , - ६५, १०६, वा = - ३२४, सोहा : - ३८, सेष = शेष - ४५८, सोहियउ = शोमा देना - ४५, सौह = वही - ४८४, ....... आदि, सौ = - १०१, सोउ = ,, - २६६, सौवई = सोना - २२५, सोग = अशोक - २५, मोहो = सम्मुख - ३५३, सोगु = शोक - १६५, ........'आदि, संक = शंका - ३८४, सोधरली = धरना - १५३, संकट = -४८४, सोजि - उस - ९०, ......."प्रादि, संखदीउ = शंखद्वीप - ११८, सोतह = सौंन का - १८३, संगर = संग्रह - ५४८, सोतिमहि = श्रोत्रिय - ३८, संगुम = - ५१८, मोनवती - - २७७, संघ = -५०४, सोने = स्वर्ग - १३५, संघल = सिंहल - २००, सोपुरण - पुन: - १८६, संघह = संघ – ११, गोमाय = सुन्दर वचन - २७६, संघात = समूह - १५६, २५५, ४८६. सोभित - शोमित - १४१, संचिउ - संजय किया हुया - ५४, सोम ८ चन्द्रमा - १३, प्रादि, संजमु - संयम - २, ५२१, सोमदत्त = सोमदत्त - १७०, संजाय = - ५३४, सोय - वही - ५८, संजुत = सहित - ४७, १०८, आदि, सोरठी = सौराष्ट्री = २७०, संजुतु = संयुक्त -- ४३७, ५२८, सोलह = १६ - २८६, प्रादि, संजूत्त = 1, - ५६, सोप = सोना - ३०१, संजोइ - संजोकर - ४१२, सोषण = स्वणं - २८२, मंत = शान्त - ३८, ........ आदि, सोवरणु = सोने में - २३२, संतापु = संताप - १३६, १३७, १४२, सोबती सोती हुई - ३१८, संति ८ - २४६, सोपन = स्वर्ण - १६, २७२, प्रादि, । संसिपाह - शांतिनाथ - ६, सोबह - सोना - ३०२, संतु = शांत होकर -- १७, सोवहि = सुशोभित होना - ६८, यादि संतुही - सतुष्ट – १५, सोवि - वह, सोना - १५४, ''प्राधि : मंदहु = सन्देह - ३८२, ... आदि, सोवंतिय = सोती हुई - ३०६, संपद = सम्पत्ति - ४८, ..... यादि, सोहइ = शोभित - ५६, ..... प्रादि । संपत्ति = थैभध – २, सोहङ = , - ३४६, : संपय = संपति - १४४, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम = संबंधी = -५३५, | हथिए - संमा = संभव हुई - २५३, . | पिया = हाथी -- ३५६, संमलि - - ४३२, हनि = नष्ट कर - ५४७, संभव = संभवनाथ - ३, १४, हुनु = हरना - ४६, संभव इ = संभव हुमा - २५१, हपा = हप्पा - ४१०, ......सादि, संमालि = स्मरण किया - २५५, | हप्पा - , - १८०, ....." मादि, संमदी = विदा किया - २३९, हम कह - हमको - ८१, संवत् = सम्वत - २६, - १३१. संबल - मार्ग का भोजन - १४६, १६०| हमरउ = हमारा - २४४ संसहु - - ५२५, हमह - हम्हें - ३६३, संसारह - - ५१२, हमहू = हमें - १७७, संसारि हमारी = -२३४, ४००, सहरिङ = संहार किया - ३६६, | हमारे = - २६६, संज्ञासु = विचारों में - ४८५, हमारी = हमि = - १७८, हमु = हमें - ७४, १११, मादि, हा = है - १३, १३५, ..."'''प्रादि, | हमुहि = - ४३६, हउ = मैं - १०८, १६, ".."अादि, । हयउ - - ३५८, ५२८, हरण - -५५२, हर = हरना - ३५४, हैकरा = बुलाया - ८४,४६३, हरइ = ह्रण - २७६, हकरायज = , - ४४५, हरड़ - -१७२, हकारउ = बुलाना - २१७, हरण = हरने वाला - ६,६, हष्कारज = बुलाने - ६६, हरतु - हकारि = बुलाकर - ११६, ....प्रादि हरस्यो = किउ = बुलाया - २५६, हरहि = हरती है -- २८०, हम = सरना - ४०२, हरहुँ = हरो - ११, हहि - गाली देना - ६८, हरिउ = हरना - ७, हण = हनन करना -- ३५७, हरिएवास = हरा बांस - १२५, हरराहि = मारना - २२१, हरिगुरण = -१८०, हत्थालवण = हस्तावलंबन - ५५०, हरिचंद - हत्थु = हाथ – १६, हरी = हरना - ४१२, हत्थी - हाथी - ३४४, | हरु = हल्की - ६६, -४३८. Page #281 --------------------------------------------------------------------------  Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ होइसाइ - होवेगा - २८३, । हंसगइगमरिण = हंस की चाल चलने होउ = है - २६६, ५०६, वाली-४६,......... होणिम्नचिन्ता - १४२, १०, १०२, होति = - १५३, हसतून = हंस के समान - २६६, होनि = अगवानी - १२३, हंसागमरिण = इस गामिनी - १५४, होय = - ५८, २७४, ........."भादि, होस = होगा -४७, ५६, ५८, | | हमागवणी - हंस गामिनी - १५५, होसहि = होंगे - १, हंसि = हंसकर - ७३, १६५, होह - होय - ३५०, हंसिनी - - २७७, होहि = - २३०, २४२,. | हंसु = हंस - ६१, इंटे = घूमे – ३८६, | हांकि = हांकि -- ३६८, ......... प्रादि, ] हिंडद = घूमना - २२६, हंस इ = हंसते हैं - ११६, १४३, हुंत = होकर - २००, .... प्रादि, | हुंति = होने पर भी - ३२५, ४३०, हंसकूट = | हूतउ = (था) - २४४, ५४४, ॥ इति ।। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-संशोधन प्रस्तुत रचना हिन्दी की एक प्राचीन काव्य-कृति है । इसमें अपभ्रंश शब्दों की बहुलता है । प्रकाशन के पश्चात् पुस्तक को देखने पर कतिपय अर्थ संशोधन अपेक्षित लगे, उन्हें नीचे दिया जा रहा है। इन में लगभग आधे स्थलों पर मेरे द्वारा दिये हुए अर्थ हैं, उनके हमने तारक चिन्ह लगा दिये हैं, शेष आधे स्थलों पर नये अर्थ प्रस्तावित हैं । आशा है पाठक इन प्रों पर विचार करेंगे। *१. ८. ३. 'धर सिरु लाइ' का अर्थ किया गया है 'साष्टांग नमस्कार करके', होना चाहिये 'धरा पर सिर रखते हुए'। साष्टांग नमस्कार भिन्न होता है। २, ३६. ३: 'सहित तहि मछि म उरउ र दीसई' का अर्थ किया गया है 'मछिन्दु (मछन्द) मउरज रण (मुकुट बिना)', 'सहिउ' को कदावित् होना चाहिये 'महिउ', क्योंकि 'मकार' युक्त नाम वाले पदार्थों का ही इस छक में उल्लेख हुपा है, और इस पाठ को लेकर अर्थ होगा- मही (प्राय) तथा मत्स्येन्द्र (घड़ी मनिया) तया मयुर भी नहीं दीखते थे । *३. ७४. २: अर्थ में दिये हुये 'इससे अधिक क्या कहूँ' के लिये मुलपाठ में कोई शब्दावली नहीं है और न उससे अर्थ में ही कोई स्पष्टता माती है। *४. ६१. ३: 'जाणू, थाणु, विहितहि घणे' का अर्थ किया गया है'भुटनों के नीचे स्थान टिकोरणे बहुत घने थे किन्तु 'जानु-स्थान' से 'घुटनों के नीचे का स्थान' अयं नहीं लिया जा सकता है, न वह स्थान सघन ही होता है । संमवतःजाणू-मानों, थाणु/ स्थारगु = स्तंभ, विहि = दोनों, तहि = वहाँ हैं अत। अर्ध होगा 'उसके [दोनों पैर ऐसे थे ]मानों वहाँ दो सधन (स्तेम) स्थाणु हो : Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. ६३. ३: 'नीले चितुर स उज्जल कास्त्र' का अर्य किया गया है, 'उज्वल एवं नील वर्ण को रोमावलि थो' । 'रोमालि' उज्ज्वल बर्ण का किसी भी तरुणी की नहीं हो सकती है । प्रर्य संभवत: होगा, 'उसके चिकुर (केश-पाश) नीले (गम; ६, और साक्षा (कोटि पर की फै।) सज्वल [वर्ण की] थी' । किन्तु तीसरे और चौथे दोनों चरणों के तुक में 'काख' है, इसलिये असम्भव नही कि 'काख' दोनों में से एक चरण में स्मृति-भ्रम से पा गया हो, पाठ कुछ और रहा हो। *६. १०६. ४: 'अन्दन सिंचि लइ उदंग' का अर्थ किया गया है, उसे चंदन से सींच कर सरेत कराया गया । होना चाहिये, उसे (उस चित्रपट को) चादम से सिक्तकर [विमसमती मे] क्रोड (गोद) में ले लिया। १७. १२२. ४: 'चंपापुरिहि पइठ' का अर्थ किया गया है, 'चम्पापुरी की ओर चले', किन्तु होना चाहिए 'चंपापुरी में प्रविष्ट हुए । *. १२३, ३: 'भउ हाल कल्लोलु' मा मर्य किया गया है 'शोरगुल एवं प्रसन्नता छा गयी', जबकि होना चाहिये 'हल्ल (तुमुल शब्दों) का कल्लोल (तरंगोल्लास) सा हुआ। *. १२६, ३: 'समदी विमलमप्ती दिललाई' का 'कुमारी विमल मती को विसखते हुये विदा किया'-पर्ष देते हुये अन्य अर्थ के रूप में दिया गया है। 'समधी (माही) बिलखती हुई विमलमती को', ओ कि संभव नहीं है, क्योंकि 'समदी' समधी' से भिन्न शब्द है, और दोनों में से किसी शब्द का मी प्रथ 'च्याही नहीं होता है। १०. १२८, ३: 'माइ कुमारी' का अर्थ वि.मा गया है ‘कुमारी मा रही है, किन्तु 'रिमलमती' उस समय कुमारी नहीं, विवाहिता और जिनदत्त की परती थी और उसका 'जुए के समय वहाँ उपस्थित रहना' पाठसिद्ध भी नहीं है । अतः 'बाद कुमारी' का अर्थ सम्भवतः होगा, 'क्यार की [जुमा खेलने की] फसल प्रागई है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. १५६. ४: 'हाइ बाइ गुसइ सहि छाडि कति गयउ कंत मोहि' के 'हाइ वाइ गुसइ सहि' का प्रर्य नहीं किया गया है, जो कि सम्भवतः होना चाहिए 'हाय बाई (मा), गुस्से के साथ-'। केवल दो स्थानों पर कवि ने फारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग किया है और उनमें से एक यह है। *१२, १६६. २: 'प्रन पर परितहि दीनउ मोगु' का अर्थ किया गया है, 'उस पर (गंधोधक) पड़ते ही मोग में रखने योग्य हो गया', जब कि होना चाहिए उस (अशोक) ने अन्य स्वमान में परकर भोग (फले मूसा) दिये। ७१३. १७०. २: "तिन्हई हार पदोले (पटोले) किए' का मर्य किया गया है। 'उन्हें अब हरे एवं मजबूत कर दिये', किन्तु होना चाहिये, 'उन मालिपरों ने भी' जैसे रमरिंगयां हागे तथा पटालों-रेशमी वस्त्रों से करती है, [प्रसन्न होकर] हार-पटोल किये (पुष्पपत्रादि से अपना अलंकरण किया। १४. १८२.२: 'ते वाखर मरि चले यहूत' का अर्थ किया गया है, 'वे मी अपना सामान वाखरों में भरकर चलें' किन्तु होना चाहिये 'ये भी बहुतेरा वाखर (ऋय-विक्रय का पदार्थ) [वेष्ठनों में भरकर चले। १५. १८४, १-२: "पूतु न जाएउ बासर प्रादि, कोटि सोंग मर लइ जेवादि' अर्थ किया गया है उन्होंने वाखरों में क्या है, यह न जानते हुये भी कोडियों एवं सींगों को बैलों पर लाद लिया, किन्तु होना चाहिये, 'पूत (पुत्रजीवक-एक फल-जिसके बीजों की मालाएं बनती थीं, जो प्रायः बच्चों को स्त्रम्ध रखने के लिये पि-हाई जाती थीं) के बाखर (सौदे) का तो आदि (परिमारम) ही ज्ञात न होता था और जवादि (एक सुगंधित द्रव्य) का एक कोटि सींग (बैलों) का मार ले लिया गया। १६. १८४. ४; "दुइ वोह्य मरि वेरणा लए' का अर्थ किया गया है, 'जिममे दो जहाज भर लिए और वेणा नगर (को जाने का संकल्प लिया', किन्तु होना चाहिये, 'दो जहाजों का भार [उसने] वेणा (खस) का ले लिया' । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६२: गए बिलावल कइ पद्म पसारि - जिसमें पद्द पकार' न हो कर पाठ 'पइसारि' होना चाहिये का अर्थ किया गया है 'वे बिलास तक चलते गये, किन्तु अर्थ होगा 'वे वेलाकुल (बन्दरगाह) के प्रवेश [ द्वार ] पर पहुँच गए। १८. १८६. ३: 'वलद महिष सबुदइ निरु करहिं है, उन्होंने बैलों श्रोर मैसों को दूसरों को दिया बैल और भैसे निश्चय ही शब्द करते थे । *१६. १६३. ४) 'सुरु सेतु दीसद गु धरणं' का अर्थ किया गया है, अनन्त जल ही जल चारों ओर दिखाई पड़ता था, किन्तु होना चाहिये, [ वहां ] अन्तहीन [सा ] तुरा-सेतु ( उन्हें] दिखाई पड़ रहा था [जिस छोड़ते हुवे ] | का श्रर्थ किया गया होग २०. १६६. १-२ : 'परणसइ णु जलु जिरणवरु नाहु, भव अंतर दीजि जलवाहु' का अर्थ किया गया है, 'वहाँ जल के मध्य जिन चैत्यालय था तथा वहाँ उन्होंने भव से पार करने वाले जिनेन्द्र भगवान के दर्शन किये, जबकि होना कदाचित् चाहिये, [उन्होंने जिनेन्द्र भगवान से निवेदन किया ], 'हे जिनेन्द्र नाथ, हमारा धन जल में प्रष्ठ होना चाहता है, क्योंकि हमें मय ( समृद्धि ? ) में जलवाह ( जल-जंतु विशेष ) दिखाई पड़ा है।' २१. २१२.२० 'आहू sि उद्धसे जिहादत्त' का अर्थ पाठ त्रुटित होने के कारण नहीं दिया गया है, किन्तु तत्सूचक कोई सकेत होना चाहिये था । 'उनसे' 'उद्ध्वस्त हो गए' अथवा 'उद्ध्वस्थ थे' है । २२. २२१. ४: मिठिया कि ग्रण वाराहि हलहि' में 'भण वाराहि ' का अर्थ नहीं किया गया है, 'श्रण वाराहि' है 'बिना बाणों के' । * २३. २२५.२, ३६५. ३: 'म' का अर्थ मुंडी (मुंड) किया गया है, जब कि होना पहिये 'मृतक' मुर्दा, [मनुष्य का ] राव। ४ = 1 · Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *२४. २२८. २: 'कामुतार कहाहि' का अर्थ किया गया है, जिससे कौनसा पुत्र नर कहा जायगा' । पाठ त्रुटित है, अवशिष्ट शब्दों का मर्य होना चाहिये कदाचित् 'तू किसीका... कहलाए।' २५. २४६. ४: 'बहु रोवहि अरु धीमहि नयागु' का अधं किया गया है, 'तुम बहुत्त रो रही हो, अव नेत्रों को पर्य दो' किन्तु होना कदाचित् चाहिये, 'तुम बहुत रो, पौर नेवों को बरबाद कर रही हो ।' २६. २५०. १: 'रहिल उन ठाउ (नठाउ) का अर्थ नहीं किया गया है । मर्थ होगा सभी कुछ नष्ट हो (?) गया था।' *२७. २५५ ४: 'पाय लागि जिगदत संभालि' कार्य किया गया है 'उसके (विमल यती) चरणों में लगकर जिनदत्त को पुकारा', जबकि प्रसंग-सम्मत अर्थ होना चाहिये, 'उसने [भिनेन्द्र के] चरणों से लगकर जिनदत्त को सस्वर] स्मरण किया। *२८, २५६.४, ३६२.१, ३६५.४: 'मविय' का अर्थ 'भव्य' किया गया है, जब कि होना चाहिये । मविक = मुमुक्षु । (दे० छंद २५७.३, ४३६.२) *२६. २६५.२: 'पाबहु प्रन न मारउ बोलु' का अर्थ किया गया है 'ग्रामो, मारने के बोल मत बोलो' किन्तु होना चाहिये, 'ग्रामो, पान मैं बोल न मारूगा (झुरी मारूंगा), ३०. २६५.३: 'तौ न मुणसु जो ग्रेसी कर' का मर्म किया गया है, 'जो ऐसा नहीं करेगा', होना चाहिये, 'तो मैं मनुष्य नहीं, यदि मैं ऐसा करू (केवल बोल मारू) ३१. २६८,३: 'णं सुरेन्द्र जो प्रापिउ सुरहं' का अर्ध किया गया है, मानों इन्द्र ने ही वहाँ स्वर्ग की स्थापना को हो', किन्तु होना चाहिये, 'मानों वह सुरेन्द्र है जो [उस पद पर] देवतानों द्वारा स्थापित किया गया हो ।' *३२ २.७१.४: 'प्रचामउ सुप्तमउरुव मुरारि' का अर्थ नहीं किया गया Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दावली क्यों की ज्यों अर्थ में भी दुहरा दी गई हैं, किन्तु अर्थ होगा, 'जिसका प्रत्यद्भुत पुत्र रूप मुरारी हुआ है । ३३. २७४.३: रेह सुमई सुय पदमणि' का अर्थ तत्सम शब्दों में दुहरा मर दिया गया है- 'रेखा सुमति सुता पद्मिनी हैं, जबकि अर्थ होना चाहिये [ और ] सुमति रेखा है जो पद्मिनी कन्या है- प्रर्यात् जन्म से पश्चिमी है।' *३४. २६०.२: अर्थ में दी हुई शब्दावली 'जिससे उसका मुख चमकने लगा' का आधार मूल पाठ में नहीं है, और न इससे अर्थ में ही कोई स्पष्टता श्राई है। *३५. २१२.२ : 'मरण विति श्रयामि उपमई' का अर्थ किया गया है, वह पास धागई', किन्तु होना चाहिये, 'मन द्वारा चिन्नित होते ही वह श्राकाश में [ जहाँ जिनदस था ] उत्पतित हो गई ( उड या उठ घाई'। * ३६. २६८.३: त्रिष्ण वित्रितहु वेग हो' का कोई अर्थ नहीं किया गया है. होना चाहिए उस विश (जिएस) ने [ विमान पर चढ़ने पर ] विवि वेग ग्रहण किया *३७. ३०१.१, ४१५.१: 'अघाई' का अर्थ 'थक कर' और 'अपार' किया गया है, जबकि होना चाहिये, 'तृप्त होकर' और 'भर-पेट' (दे० ५०४.४) I ३८. ३०४.१: 'सती तिरी ते नाह सुजारण' का अर्थ किया गया है, 'ससी वह है जो ( श्रपने ) सुजान (नाथ) के सामने (अपना) अस्तित्व मिटा दें, जब कि होना चाहिये, 'सती स्त्री अपने स्वामी को [ ही ] जानती है ।" किया गया है, किन्तु न २६. ३२२१: 'इति' का अर्थ 'खीझकर चाहिये भटिति शीघ्र हो' । ४४०. ३२६.४: 'जिरणदत्त भगति नारि मइ दि' का अर्थ किया गया है, 'नारी ( विवाह योग्य स्त्री) को मुझे बताइए किन्तु होना चाहिये जिसे जिरादस कहा जाता है, उसकी नारियों पत्तियों) की मैंने देखा है ।' Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ३३३. ३-४: 'तज मे देष तिनि सीखी कला, जी न हसाउ पाहणु सिला' का अर्थ किया गया है, 'हे देव! मैंने तो वह कला सीखी है कि मैं पाषरण की शिला को भी न हंसा हूँ (तरे मेरा क्या नाम)', अब कि होना चाहिये, 'हे देव, तब तो मैंने वह कला सीखी ही नहीं, यदि मैं पाषाण-शिला को (मी) न हंसा हूँ।' ४२. ३४१.४: 'सो बुलाई' का अर्थ किया गया है, 'बह लौटकर, जबकि होना चहिये, 'उस [मौन धारण किए हुई] स्त्री को बुलवाकर [ मौन तोड़कर] बोलने के लिए प्रेरित कर'। ४३. २४२.२. 'सुणि सुणि तिरिया मेल उ परिमा अहा गयउ सोह' का अर्थ किया गया है, 'हे स्त्री सुनो, सुनों, जैसे ही वह (सागर में ) गग, बह छोड़ दिया गया', जब कि होना चाहिये, 'हे स्त्री! सुनो, सुनो, [समुद्र में j छोड़ दिये जाने पर वह जहाँ गया। ४४. ३४४.३; 'देई देई जाम जाम तहि वहु रयण समरिय' का अर्थ किया गया है, 'यह उसे बार-चार रत्न देने लगा', अब कि होना प्राहिये 'जमी बह उसे समस्त {प्रकार के] बहुतेरे रत्न देने लगा। ४५. ३५५.४: 'भन्न लावत लपज जिरणदत्त' का अर्थ किया गया है। 'उसके मन (जन्म) का ज्ञान कराते हुये पकड़ा', किन्तु होना चाहिये, जिनदत्त उस [हाथी को] मैंवाने (चक्कर देने लगा। ४६. ३६०.४, 'सब पुरु सामि प्रधभो भयउ' का भर्थ किया गया है, 'सभी पुरुषों को प्राश्चर्य हुना', जब फि होना चाहिये, उसने कहा, "हे स्वामी, समस्त पर की मारपर्य हुमा-" । ४७. ३६२.३-४: 'जो मोहित पूलिय पहाण, पुण्यवंत को सफइ पहाण (वस्थाण?)' का अर्थ किया गया है जो पत्थर का पूतली को देखकर मोहित हो गया, उस पुण्यवंत की कितनी प्रशंसा की जाबे ?' किन्तु होना चाहिये, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जिसने पाषाण की पुतली को मोहित कर लिया उस पुण्यवंत को प्रगंमा (?) कौन कर सकता है ? पापारा शिला को तारुणी विद्या द्वारा मोहित कर हँमाने और उसके द्वारा लोगों का मनोरंजन करने का प्रसंग कुछ ही पूर्व प्राया है (छंद-३३५३३६), दोनों चरणों के तुक में 'पषारण' है, जिनमें से पहला प्रसंग के लिये अनिवार्य है और दूसरा अर्थ-होन, इसलिए दूसरे के स्थान पर पाठ संभवतः 'वखारण' होना चाहिये था। *४८. ३६३.१. 'परिहसु लियउ दिसंतर करई' में 'परिहसु' का अर्थ 'खुशी के साथ किया गया है, कि "परिस' 2 परिहाम = [लोक द्वारा किया जाने वाला] उपहास है, जुए में ग्यारह करोड़ रुपये हार जाने के लोकपरिहास के कारण हो जिदत्त देशान्तर गया था दि० छंद १५६)। ४६. ३६३.२; 'जहि को हाथ अंजणी चडइ' का अर्थ किया गया है 'जिमने अपने हाथ से अंजनी (गुटिका) चढ़ाई, किन्तु होना चाहिये जिसके हाथ अंजनी गुटिका बढ़ी' (दे० छंद १५२) । ५७. ३७६.३: 'अण छाजत इस मधु कोद' का प्रथं किया गया है, 'यहाँ मन्त्र अनचाहा हो रहा है', जम कि होना चाहिये, 'प्रशोमन को सभी लोग हसते हैं।' ५१. ३८४.४: 'प्रति करि भथियज कालकुट होइ' के 'कालकुठू' का पर्थ किया गया है ‘कालकुष्ट', होना चाहिये 'कालकूट', ममुद्र से उसके प्रत्यधिक मंथन के कारण 'कालकूट' निकला था। ५२. ३६२.२: 'किन पत तो मिलवह वइसारि' का मर्य किया गया है, 'तब उन्हें बैठाकर मिल क्यों नहीं लेते? 'जबकि होना चाहिये. 'तब उन्हें बिठाकर उनमें [अपना] प्रत्यय (विश्वास) क्यों नहीं मिलाते (उत्पत करते ) हो?' ५३. ४०६,४ 'कोदइ' का अर्थ 'चांवल किया गया है, किन्तु 'कोदई' Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोदव कुद्दय /_ कुद्रव (चांबल से भिन्न) एक प्रकार का निकृष्ट धान्य है । ५४. ४११ : 'भूबित (मूषित)' का प्रय ‘प्रसन्न हुई' किया गया है, जब कि होना चाहिये 'साभूपित हुई। ५५. ४१८ ३-४: 'निय म [] बिरह न पात्र जााए ! धूसह दिण्ण राई की प्रागा।' का अर्थ किया गया है, 'इस बियोग के वह कोई कायदे-कानून नहीं जानता था, किन्तु उसने तो धूर्त को राजा की दुहाई दिलादी', जबकि होना चाहिये, '[अपनी स्त्रियों को देखने पर अपने मन में जब उसे उनमें वियोग के लक्षण नहीं ज्ञात हुए, तो उसने उक्त पूर्त को राजा की प्रान (सौगन्ध) दो।' ५६. ४२५.२: 'हाहा कारु [अ] पर कित तवहि' का अर्य किया गया है, 'सब दूसरो ने हाहाकार किया', किन्तु होना चाहिये, 'तब [उसको] अपर स्त्रियों ने भी उसमें हुंकारी मरो - उन्होंने भी उसको मोन्नि उक्त धूर्त को पति स्वीकार किया। ५७. ४२५.४, "निय मामिउ तिन्हु वाडर बहिउ' का अर्थ किया गया है। 'अपने स्वामी पर तीनों ही खड़ग पलानो, जब कि होना चाहिये, 'अपने [विदेश से लौटे हुये वास्तविक] पती पर तीनों ने खड्ग चलाया है।' ५८. ४२६.१-२; राय पमुह सब जाणहु झूठ' का अर्थ किया गया है 'सब कुछ (हप्पा सेंठ के वचन को)', जब कि कदाचित् होना चाहिये '[उन दुष्टात्रों के समस्त कथन को' । .. ५६. ४३२.२: 'संमलि पुहम ताह मुह बात' का अर्थ किया गया है, 'हे पृथ्वीपति! उसकी बात को स्मरण कर', जब कि होना चाहिले, 'हे पृथ्वीपति, मेरी बात सुनो। ! ... *६.. ४३२.४: 'हेम (हम? पिउ देव नहीं सावलउ' का मर्थ किया गया है, 'हमारा पति तो, हे देव! सोने का सा है, सांवला नहीं हैं, किन्तु 'हेम' पाठ, • जिससे 'सोने का सा' प्रथं लिया गया है, असंगत है, उसके स्थान पर शुद्ध पाठ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हम' होगा, जिसका अर्थ होगा 'हमारा' । *६१. ४३८.४: 'सद राजा उठि लागिउ पाइ' का अर्थ किया गया है. 'सब राजा के घरणों से लगे', जब कि होना चाहिये 'राजा सइ (स्वयं) उठकर उस (जिरणदत्त) के पैरों लगा' । ६२. ४४१.४: प्रति में पाठ 'सीरघ' है, जिसके स्थान पर सीघर' का सुझाव दिया गगा है, किन्तु 'सार' ठीक इसी प्रकार (छंद ४६८ में) प्राया हुअा है, इसलिए लगता है कि प्रति का पार पशुद्ध नहीं है...---- ६३. ४४४.२, ४५६.१: प्रथम स्थान पर 'ठा' का प्रथं 'उठकर' किया गया है, दूसरे स्थान पर 'ठाठा करना' अर्थ में यह यथावत् है। किन्तु 'ठाठा करना' का अर्थ 'सज्जा करना' तथा 'ठाठा' का अर्थ 'सजे-बज हुए' ज्ञात होता है। ६४. ४४६.१: 'देस कुछार' का अर्थ 'कुछारु देस किया गया है जो कि निरर्थक है, किन्तु शुद्ध पाठ कुछार' के स्थान पर 'कुठार' 2. 'कोठार' ज्ञात होता है (दे. छद्र ४७१) जो सं. कोठागार मण्डागार, मण्डार है । ६५. ४५३.३-४: 'हाकि निसग जोष्टि अरणु हणे, अपुनइ देश पलाग घणे' का अर्थ किया गया है, 'जब समस्त निशानों को जोड़कर उन पर चोट की गई तो बहुत से स्वतः ही अपने देश 'माग गमे', जब कि होना चाहिय'हक्का (पुकार) लगाकर जब सेना के लोगों ने निशानों पर प्राघात किए। तो अनेक देश | और उनके राजा अपने-माप हो भाग निकले। *६६. ४५६. ३: । परिजा भागि गई जहि गर' का अर्थ नहीं किया गया है, होना चाहिये 'प्रजा मागकर वहाँ गई जहां पर [गढ में] राजा था। ६७. ४५७. ४; 'रचे मारु कह सीसे घणी' का अर्थ किया गया है, 'मार करने के लिये अनेकानेक शिरस्त्राण रचे गये' किन्तु होना चाहिये 'मारों (योद्धानों) ने अनेक कौसीसे (2_कपि शीर्प:-बुर्जे) बनाई"। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. ४५८. १: 'कोटा पा [गार ] ( उ ) तरंग अपार' का प्रथं किया गया है, 'कोट के पास ऊंची प्राकार थी, जब कि होना चाहिये, 'कोट का प्राकार अत्यधिक उत्तरंग ( ऊंचा ) था । ६६. ४६०. ३: 'सुहनाल' का अर्थ 'तोप' किया गया है, किन्तु 'सुहास' एक योद्धा का नाम है, जो श्रागे राजा चन्द्रशेखर के दूर के रूप में जिदत्त के पास जाता है । (दे० ४६४.२, ४६६. १) । ७०. ४६५. २: 'हाकि करण्इ दंड प्रतिहारी ने स्वर्णदण्ड हांका ( हिलाया ) धारण करने वाले प्रतिहारी ने उसे हांका ( ' + परिहारि' का अर्थ किया गया है, जबकि होना चाहिये 'कनक दण्ड पुकारा ) ' । औ७ १. ४६६ ४: देवि सीसुधिर लगि पाउ' का अर्थ किया गया है 'विश्वास दिलाकर उसने राजा के चरणों का स्पर्श किया' | 'देवि सोस' के स्थान पर शुद्ध पाठ कदाचित् 'ये विसासु' मान कर किया गया है, किन्तु राजा (जिदत्त) के दर्शन करते ही उसे विश्वास दिलाने का कोई प्रश्न नहीं उठता है, इसलिये यह श्रर्थं प्रसंगसम्मत नहीं है। शुद्ध पाठ 'देवि' के स्थान पर कदाचित् 'देखि ' होगा, इसलिये अर्थ होगा, 'राजा (जिदत्त) को देखकर दूत अपना सिर रखते हुए उसके पैरों लगा' । ७२. ४७५ ३: 'अकहा कहा किम कहियर वेठि' का अर्थ किया गया है । 'यहां बैठकर न कहने योग्य बात क्यों कहते हो ? ' किन्तु होना चाहिये, 'यहाँ बैठकर यह कथनीय (जिदत्त के द्वारा नगरश्रेष्ठी जीवदेव को मांगने का ) कथन कैसे कहा जाए ? "+" ७३. ४७९.२ः 'वरु किनु नमरहं कुइला बवइ' के 'कुइला' का अर्थ 'कुचला' किया गया है। किन्तु 'कुइला' 'कोयला' है. और 'कोयला बोना' एक मुहावरा है, जिसका अर्थ होता है 'धाग लगाना' । *७४. ४८३.१: 'तूट सोमिय दुह तराज' का श्रर्थं किय गया है, ११ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे स्वामी, (अपने दोनों) का दुःस्ल टूटा हुभा है (दूर हुमा चाहता है) किन्तु प्रसंग के अनुसार अर्थ इसके ठीक विपरीत होना चहिये, 'हे स्वामी [हमपर] दुःख का ....."टूट पड़ा है। ०७५. ४६४.१: 'विसुरिज' का प्रथं 'विसूर कर (चिन्तारहित होकर)' किया गया है, जबकि इसके विपरीत उस का अर्थ चिताकर (सोचकर) होना चाहिये । ४७६. ४६७.३: "किछु परि जारणउ देउ निरुत' का अर्थ किया गया है, 'तो हे देव ! हम कुछ निरुत जाने (कहें)', किन्तु होना चाहिये 'हे देव, हमें निरक्त का (ठीक बात) कुछ परिज्ञान हो। #७७. ५०३.१: 'मए वधाए हारु निसाण' के 'हारु निसारण' का अर्थ किया गया है, 'पीसो (धौसा) पर चोट पड़ी' । 'पासा' निरर्थक है मौर 'हार' भी अशुद्ध है, उसके स्थान पर पाठ प्रति में 'हए' होना चाहिये और 'हए निसाण' का अर्थ होना चाहिये निसानों (छौंसों) पर घोट परी' । ७६. ५०५.३ः 'एक वित्त दुख (दुव) रहिय सरीर' का मर्थ किया गया है, दोनों एक-चित्त दो शरीर होकर रहने लगे', किन्तु 'दुव' न होकर प्रति में पाठ 'दुख' है, अत: अर्थ होना चाहिये, 'ने एकचित्त और दुःखरहित शरीर के थे। ७९. ५०७.१-२: 'करहि राजु मोहि परठा, नीत पणीत सतीण मए' का अर्थ किया गया है, '(जिरणदत) राज्य करते हुए मोग में प्रस्थापित हो गए और नित्य प्रति उनमें सतृारण होते गये, किन्तु 'नीत पणीत' 'निरप-प्रति नहीं हैं, बह नीति-पति' ज्ञात होता है, जिसका अर्थ 'नीति और व्यवहार होना चाहिये । 4६०, ५१२.१-२: 'उक्क वहरण वराह निमित्त, लहिवि भोय संसार वित्त' का अर्थ किया गया है, 'उल्कापात के निमित से भोग प्रहण को संसार की स्थिति को बढ़ाने वाला जानकर उसे वैराग्य हुमा', किन्तु मेरी राय में Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a. - - .- - चाहिये होना उत्क-पतन (वासना से निवृत्ति) और वैगम्यलाभ के निमित्त ही संसार के वित्त का मोगलाम कर' । ८१. ५१३.३: 'परिवारह सो हियउ महंतु' का अर्थ किया गया है, 'अपने परिवार के सहृदय से महान् हो गया', जब कि होमा कदाचित् चाहिये, 'परिवार पूर्ण होने के कारण वह हृदय का महान हो गया था। ८२. ५१५.१: 'गुरु' का अर्थ (उसका) गुरु' लिया गया है, किन्तु शब्द संभवतः केवल 'पूजनीय व्यक्ति' के अर्थ में प्रयुक्त हुना है । ८३. ५१७.२. 'कह (हुम) गीसरु गालिउ कम्म' का अर्थ 'कह' के अनन्तर 'हु' लगा करके किया गया है, 'मुनीश्वर ने कहा, कर्मों को नष्ट करो' । किन्तु कदाचित होना चाहिये [तब] मुनीश्वर ने, जिन्होंने कर्मों को गालित कर रखा था- छान रखा था, 'कहा। ४८४. ५२१.१. 'बारह भावरण काय वियारि, संप्रमु नेम धम्मु तज चारि का अर्थ किया गया है 'बारह भावनाओं का विचार (चिन्तन) करो, तथा' संयम, नियम, (दश-लक्षण) धर्म और तप इन चारों को.........., किन्तु होना चाहिये, 'मैंने बारह भावनाओं को विचार कर कहा और संयम, नियम, धर्म तथा तप इन चार के विषय में बताया। १५. ५२१.३: 'असंतरि परमप्पा बुज्मि' का अर्थ किया गया है, 'परम पद के लिये अभ्यंतर (अन्तरंग) रूप से जानो', जब कि होना चाहिए, 'अभ्यंतर (अन्तःकरण) के परमपद को जान कर । ८६. ५२२. ४: 'शुक्ल ज्झारण वरिउ अलेउ' का अर्थ किया गया है'शुक्ल ध्यान के भेदों को जान कर ग्रहण एवं त्यागो', जब कि होना चाहिये, 'मैंने अलेप (अलिप्त) शुक्ल ध्यान का कथन किया। *८७. ५२६. ४:, ५३०.२: 'चरिणजी' का अर्थ लेन देन' किया गया है होना चाहिये 'वाणिज्य' = 'ऋय विक्रयादि' । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *88. 534.3: 'तहि चवि' का अर्थ 'वहां से चयकर' किया गया है, जो निरर्थक लगता है, होना चाहिये 'जन्हें न्याग कर' ! *86. 536. 2: 'रय' का अर्थ 'काम' किया गया है, किन्तु कदाचित होना चाहिये 'रजस'। 60. 5400 1: निरूह' का अर्थ 'उदासीन' किया गया है, किन्तु मिरूह ८.निरूह 2 णिरोव = प्रादेश, आज्ञा है / 61. 541. 3: 'मामथ सहिउ दीउ मइ दीठ, मुक्ति लछि ते नियर वाइट का अर्थ किया गया है, 'मुक्ति लक्ष्मी के निकट बैठने पर भी मुझे कामदेव पर विजय प्राप्त करने की दृष्टि दी है किन्तु होना चाहिए, 'उहके द्वीप को मैंने मन्मथ के सहित देखा है, मैंने देखा है कि वह मुक्तिलक्ष्मी के निकट बैठा है'। 62. 544, 4: 'मुरिणवरु मणु अछइ जित्थू' का अर्थ किया गया है, 'जिसको मुनिश्रेष्ठ उत्तम कहते हैं किन्तु होना चाहिये 'जहां मुनि श्रेष्ठ गण [रहते हैं। .63. 547. 2: 'साहु सगि' का अर्थ 'सारे' किया गया है, किन्तु 'सगि' संभवतः 'संगि' है और इस संशोधन से अर्श्व होगा, 'साधु [जिणदत्त ] के संग में [रहकर] / 64. 550. 3: 'देखि त्रिसूरु रयउ फुड एहु में से 'देखि बिसूरु' का अर्थ नहीं किया गया है / उसका अर्थ होगा 'उसे देखकर तथा [उसका ] चिन्तन कर'। माताप्रसाद गुप्त