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हना था । जिनदत्त एत विमलामती बंपापुरी के लिये चल दिये । यह उनको पहली विदेश-यात्रा थी । विमल सेठ ने उनका अच्छा सत्कार किया। लेकिन ४-५ दिन पश्चात् ही वह उस विमलामती को चैत्याना में अकेली छोड़कर वगपुर के लिये रवाना हो गया । पति के वियोग में विमलामती अत्यधिक सदन करने लगी और उसके लौटने तक यह वहीं चैत्यालय में रहने लगी।
(१५६ से १७६) जिनदत्त दशपुर नगर के प्रवेश द्वार पर पहुँचा तो वहाँ के उद्यान को देखने लगा । इतने में ही वहां नगर सेठ सागरदत्त आया । इधर वह बागीचा जिनदत्त के आगमन से हरा होने लगा । हरी वाष्टी को देखकर मागायत्त प्रसन्न हो गया और उसने जिनदत से उस बाडी को सुवासित एवं फलयुक्त करने को कहा । जिनदत्त ने शीघ्र ही प्रक्षाल का जल उन पेड़ों में सिंचन किया और दे शीन हो हरे एवं फल बान हो गये । अब वहाँ प्राम, नारंगी, सहारा, दाख, इलायची जामन श्रादि के वृक्ष लहलहाने लगे । सागरदत्त उसके इन कार्यों से बड़ा प्रभावित हुया और उसे अपने घर ले जाकर अपना धर्म-पुत्र घोषित कर दिया।
(१७७१६) कुछ सारय पश्चात् जिनदत्त सागरदत्त के साथ व्यापार के लिये विदेशयात्रा पर रवाना हुआ। उनके साथ नगर के अनेक व्यापारी एवं १२ हज़ार बलों का टाँडा था । वे जहाजो में सामान लादकर चले ।
(१६०२ ०२) उन्हें समुद्र-यात्रा का ज्ञान था। वे हना के प्रवाह को देखकर चलते थे । वेरणानगर को छोड़ कर वे कवण द्वीप में पहुँचे । यहाँ से मंभापादन चलकर कुण्डलपुर पहुँचे और मदमद्वोप में होकर वे पाटल तिलक द्वीप में पहुँने । गोत्र ही वे सहजावतो नगरी को छोड़कर फोकलनगरी में प्रवेश किया । फिर वहां के कितने ही द्वीपों को पार करते हुये सिंघल द्वीप पहुँने । यहाँ बे अनेक वस्तुओं का क्रय विक्रय करने लगे । वे अपनी वस्तुत्रों को तो महँगा बेचते एवं मस्ते भावों से वहाँ की वस्तुनों को खरीदने ।
पाठ