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________________ ૪૬ कसु कीदृश 1 मम - वि करना । - जिरगदत्त चरित दास (दाम) - लभ्य-सोने का सिक्का सेवक | [ १२८ - १२६ सुवासरण जात बिहार भई भेट पटह जुवार । सहि खेलु ॥ श्राइ कुमारी बोलियो बोलु, ग्रहो जिन्दवस इकु सरह, सुनौ बाउ जुवारिज धरछ । णं णं कार करत पवरण मनावी पूर } हुवा थापा कु भासहि तिया ॥ ' धर्य :- एक दिन पालकी में बैठ कर चैत्यालय को जाते हुए जुवारियों एवं दुराचारियों से जिनदस की) भेंट हो गयी। उन्होंने ( जिनदत्त को देखकर ) कुमारी श्रा रही है, इस प्रकार बचन कहे और फिर कहा "ग्रहो जिनदत्त ( आओ ) हम एक खेल खेलें ।। १२५ ।। मना करते रहने पर भी वह वहां बैठ गया । और तब जुम्बारियों ने एक सूना दाव लगाया। (पासा) बेलने पर उनकी इच्छा पूरी हुई तथा व अपने-अपने को लीन अंकों वाला कहने लगे ।। १२६ ।। तिया - पांसे की वह दलान जिसमें प्राप्त अंक ३ के हों। द्यूतक्रीडा १३० - १३६ | | स्त भई जिदतहि हारि, जूबारि जीति परचारि । भाइ रेल्हमु नाहीं खोटि हारि व हारि घरि वा जारिए, बारीहरु हम विणु दीने ज घर जाहू तो तुम्ह जोबधेच एगारह कोडि || अर्थ:-खेलते-खेलते जिनदत्त की हार होती गयी और ( अन्त में ) दीनी आरण | वध कर ||
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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