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________________ सिंहल द्वीप-वर्णन ने (राजा से) विनती की, "हे देव मुझे विदा दो । मुझे चित्त में रखना । मेरा साधं (व्यापारी-दल) घर (वापस) जा रहा है ।।२३७।। घणवान ने उससे सत्य भाव से कहा, "तुम प्राधे देश पर निश्चितरूप से शासन करो। जिनदत ने कहा, "हे राजन! तुम्हारो अोर से कोई श्रुटि नहीं है किन्तु मुझे ही मेरे पिता को चिन्ता हो रही है" ।।२३८।। जातु -कदाचित । अवसेरि - चिन्ता । । २३६-२४० । सिरियामती समंदी जवही, बउवह दिन्न पाभरण तहि । जिनबत्तहि दोने वहु रयण, समदिउ राज विसखाणिउ बयण ॥ तोरिव खुलाइ परोहरण चडइ, उहिस्त, पाप छ मनि घरइ । पापी पाप बुधि जय जडी, काकर बोषि पोटसी घरी॥ मर्थ :--अब श्रीमती को राजा ने विदा किया तब उसे उसने चौदह (प्रकार के प्राभूषण दिये | जिनदत्त को भी बहुत से रत्न दिये और गजा ने रोते हुये वचनों से उन्हें विदा दी ।।२३६11 जहाज पर चढ़ते ही उसके लंगर खोल दिये गये, (किन्तु इसी समय) सागरदत्त के मन में पाप पंदा हुअा। जब उसके (पापी के) पाप बुद्धि बड़ी सब उसने कांकरों की पोटली बांध कर रख दी ।। २४०।। समद् - विदा देना। तीरिद - तीर से बंधे हुए लंगर । । २४१-२४२ । सो घाली र समद महि रालि, कही वीर रयण्णह की माल । एहा हो परी रयम पोटली, सो देखि पुत्त समद महि परि ।। रोबहि बाप म धीरउ होहि, काढि पोटली मप्पर तोहि । स्वहि वीरु मनु साहसु घरड, लागि परत सापर महि परह ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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