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________________ जिस चरित अयं :-उसने वह पोटली समुद्र में डाल दी और कहा "हे वीर वह रत्नों की माला हैं । मह रत्नों की पोटली यहाँ रखी हुई थी हे पुत्र देख यह समुद्र में गिर गयी है ॥२४१।। [जिणदत्त ने कहा, "हे पिता, आप मन रोइये और धैर्य धारण करिये । मैं पोटली को निकाल करके तुम्हे अर्पित करूमा। तब वीर [जिनदत्त] मन में का पारणा का था : ६.१. ११ । में कूद पड़ा ।।२४२।। प्रष्ण - अय् – देना। 1 २४३-२४४ । गपत्र पोटली खोजु पताल, काटी थरत हेड अंतराल । काटी चरत पापोया जाम, सिरियामती पहायज ताम । इकु रोबइ अर वौलइ ताहि, छाडे पूत सुसर कस जाहि । सुसरु मुसा तुम बोलाहि काह, वह तर हतउ हमरत दास ।। अर्थ :-जब वह जिनदत्त पोटली को खोजने के लिये पाताल में गया, तो सेठ ने बह रस्मी ठेठ बीच में काट दी। जब उम पापी ने डोरी को काट दिया तब श्रीमनी धाड मार कर चिल्लाई ॥२४३।। बह रोने लगी तो एक बोना "पुत्र ने छोड़ दिया तो श्वसुर कहाँ गया है" ? नेकिन सागरदस ने कहा, एकमर २ तुम किसे कहते हो ? बह तो हमारा दास था ।।२४४।। [ २४५-६४६ । उष्णु को सोग सखी मति कहि, मोश्यों रात्रु भोगु मु१ धरहि । उवहदत्त के वरणं सुणेइ, सिरियामती हाय मुंह देई ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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