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________________ तस्कोपदेश फिर पदस्थ पिंडस्थ, जिनेन्द्र के रूप के समान ( रुपस्थ ) तथा अनत P ( गुणों के धारण करने वाले ) रुपातील ( सिद्धों के ) ध्यान को जानो । श्रार्त, रौद्र, धर्म एवं शुक्ल ध्यानों के भेदों को जानकर ग्रहण एवं त्यायों ।।५२२|| मलेउ - नहीं लेने चोख रूवगय-रूपातीत I ५२३-५२४ ] सुसारि ।। दंसणु णा चर राइ, श्राखिय किरिया अरु पविमाह । चारि नियोवि कहिय वियारि, जिरगवत कहि मुरिंग बहु पयार श्रापुमु यज्जरिज, सुिरिंगवि राहणु मनु भव कृषि सूद्धतिहि मलहारि, सामिय पथ दिरा को गह् गहिउ | संसारि ॥ अर्थ: दर्शन, ज्ञान एवं चरित्र, रस्नादि को संपूर्णक्रिया तथा प्रतिमाओं को कहा। चारों प्रयोगों को विचार करने को कहा और कहा, हे जिनदस ! "यही सब सार है” ||५२३|| E अनेक प्रकार के ग्रामों को कहा जिसे सुनकर राजा का मन प्रसन्न हो गया । (जिनदत्त ने कहा ) भव कूप में डूबने वाले के पाप (मल) को हरने बाले स्वामी के चरण के बिना संसार में (और) कौन ( सहारा ) हैं ||५२४|| [ ५२५-५२६ ] " पाछे जिनवत्त श्रवसरु लहिबि पूछइ सुपिवरु कह सहु सरिधि । पाणवंत सामिय वय करहु मह मा संसउ फुड प्रबरहु ॥ नेष्ठ, कि कारणि सामियखे । दीपु किमु विज्जाहरि सहिय सह ॥ r चहूँ तिरिया सह गरुप बुइ चंपहि इकु सिंहल
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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