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________________ रबनूपुर नगर-वर्णन । २६६-२६७ । भरणहि खयह पहु घाटि नु होग, हाथ समुद्द पइरनु हइ जोड़ । रह रहु बीर कोपु जणि करहि, चडि तू विमाण हमारे चलहि ॥ प्रालि बिमारण लयो जो तहां, भरणइ योरु लइ अवह कुकिहा । वसहि पिज्जाहर गिर उम्परह, तुहु लेदर जाह रचनुपूहि ।। अर्थ :-खेचरों (विद्याधरों) ने कहा, "यह वीर कम नहीं है जो अपने हाथों से समुद्र को तैर रहा है (पार कर रहा है)1" वे कहने लगे, "हे वीर, शान्त हो काप न कर! तू विमान पर चढ और हमारे साथ चल ३२६६॥ विमान पर चढ़ा कर जब वे जाने लगे तो उस वीर ने पूछा, “तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो? उन्होंने कहा," इस पर्वत के ऊपर विद्याधर लोग रहते है, उस रथन पर नामक स्थान पर नु. ले जावेंगे ।।२६।। रयनूपुर नगर-वर्णन । २६८-२६६ } तहि असोक विज्जाहर राउ, प्रसोक सिरी राणि कह भाउ । पं सुरेंद्र जो पापिउ सुरहं, गरुव गरेव सेवज तु करहं । साहप बाहण न मुगज अंतु, कररि राजु मेहरिण बिलसा । अंतेउरू घउससी राणि, तिह के नाम रल्तु कवि मान । अर्थ :-"वहां पर प्रशोक नामबा विद्याधर राजा है और उसकी रानी का नाम अशोकश्री है । मानो इन्द्र ने ही वहाँ स्वर्ग को स्थापना की हो और जिसकी सेवा बड़े बड़े नरेन्द्र करते है।" ।।२६८।। ' उसके साधन-वाहनादि का अंत न जानो। इस प्रकार वह राज्य करता तया पृथ्वी का मोग करता है । उसके अन्तःपुर में ८४ गानिया है जिनके नाम रल्ह् कत्रि कहता है. मैं जानता हूँ।" ||२६६।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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