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________________ विदेश गमन परमात्मा, तूने यह क्या किया ? चढ़ती लता को गिराकर स्वामी अंतराल (बीच) में ही चले गये । अत्यधिक दुखित हुई तथा सास श्वसुर एवं माता (के सामने) यह मलिन मुख वाली हो गई। जिनदत्त गुसांई को जो अपने स्वामी थे, उन्हें मैं इस प्रकार गवां बनी । अब उसका स्वामी जो जिनदत थे उसके बारे में सुनिये । वह जो अकेला गया था वह दशपुर के द्वार पर जा पहुंचा ।।१५७।। चौपई [ १५८-१६० ] विमलमति जिणहरु मिर महल, पिय त्याच लोकांश सहा । इंदिय एमइ सोलु पालेइ, गमोथार णिय चित्त गुपो।। जीवदेन नंदनु नियकंतु, निगवरु दह परिहार संबु । जुवा खेले परिहमु भयो, मिमि संघात... इसपुर गयो ।। बसपुर पाटण कर परसार, वाडी देखतु भई बसवार । वृष प्रसोक कंज दि गऊ जहा, खणु इकु नोव विर्तव्यो तहा ।। अर्थ :-विमलमती निश्चित रूप से जिन मन्दिर में रहने लगी। पति के वियोग में बह कष्ट सहन करने लगी। इन्द्रियों का दमन और शीलयत का पालन करने लगी तथा सदैव सामोकार मंत्र का चित्त में स्मरण करने लगी ।।१५८॥ जोवदेव का पुत्र मेरा पति है । मन्दिर की वंदना करते समय मुझे छोड़ कर चला गया है । जुवा खेलने से (उसका) जो परिहास हा उसी चोट के कारण बह दशपुर चला गया है ।।१५६॥ [उधर जिनदत' को] दशपुर नगर के प्रवेश द्वार पर उसके बगीचे देखते २ बड़ा समय हो गया । वह अशोक वृक्ष की मोट में गया, वहाँ उसने एक क्षण (थोड़ी देर) नींद में विश्राम किया ॥१६०।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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