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________________ बौने के रूप में (बौने ने कहा, "हे देव ! मनुष्य के हंसने की क्या ? मेरे बोल से पाषाण मी हँस सकता है । हे देव ! मैंने तो बह कला सीखी है कि मैं पापाण की पिला को मी न हँसाद (तो मेरा क्या नाम) ॥३३॥ सवास - ब्राह्मण [ ३३४-३३५ ] बस्त उठाइ सिला परिठा, एक चित्तु विज्जा सुमरा । सर्व सभा सिलाइ, लण. तिला हाणि ॥ अहि धोरु तिमु पाइस कहा, सिलारूप जइ विजा रहा । यहु तारूणी वि(ज्जा) तिह ठाड, हसि हहडाइ रंजाहि राउ ।। अर्थ :-वस्तु को उठाकर शिला पर रख दिया तथा एक चित होकर विद्या का स्मरण करने लगा । (विद्या से उसने कहा) "समी समर का चित्त सुखी हो इसलिये तू ही तारुणी (विद्या) शिला होकर हंस" ।।३३४।। उस वीर ने जब उसको यह बादेश दिया तो वह विद्या शिल-रूपिणी होकर यहां जा कर बैठ गई । यह तारुणी विद्या ही थी जो उस स्थान पर ठहाका मार कर (स्लब जोर से) हसने और राजा को रिझाने लगी ॥३३॥ [ ३३६-३३७ । तबु सो सिला हसइ हहडाइ, सभा लोगु मोहउ तिह ठा। सूहि राजा करि तहि भाउ, मागि मागि धावणे पप्ताउ ।। इहि पसाउ पञ्य केम, जाम रग मारि हसाउ देव । सामी वयण एकु अवधारि, दिन दिन एक बुलालाउ नारि ।। अर्थ :---तब वह शिला ठहाका मार कर हँसने लगी जिससे ममा के लोग उस स्थान पर मोहित हो गये । राजा स्नेहपूर्वक प्रसन्न हुअा और कहने लगा "हे बौने । न पुरस्कार मांग पुरस्कार मांग" ।।३३६॥
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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