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________________ १०२ जिणवत धरित भूख मरत देव हउ केहा करउ, सइ हड़ पाणु भयन विबहउ । नवहि गुसाई मूबी चुद्धी, तबहि पणाठी सु प्रा कुली ।। अर्थ :-तब राजा खोझ कर बोला, "तुम अपना नाम व जाति न छिपाओ । हे बौने ! तुम अज व्यक्ति की सी बातें कर रहे हो इससे तो लोग तुम्हें पाण (श्वपच तथा शराबी की तरह प्रयास करने वाला) काहेंगे ॥३२२॥ ___ "उसने कहा, "हे देव । भरखों मरता मैं क्या करता : तब मैं विनष्ट हुआ पाए (एक्पच हो गया । जब से स्वामी (परमात्मा) ने मेरी चोटी मूड दी तभी मैंने कुल और कुल की कानि प्रगष्ट कर दी" ।।३९३।। विवह - विनाश । । ३६४-३२५ । पेट प्ररथ देव सेवा कोज, पेट परम संतर लोज । कतहरण अग्नु पान सिह भेट, पारण भयन हो कारण पेट ।। बार बार पाषण भणाइ, वेव विभूषित किग्म कराइ । मिलइ ण श्रोति कापड खाण, भगु हुति भयो यहु पाणु ।। अर्थ :-"है देव ! पेट के लिए ही सेवा की जाती है तथा पेट के लिए ही देशान्तर लिया जाता (जाना पड़ता है। अन्न एवं पानी से मुझे भेंट कहाँ थी । पेट के लिये ही मैं पारण (श्वपच) हुआ (अना) ।।३२४।। वह बीमा बार-बार कहने लगा "हे व 1 मुझे भुख रहित क्यों नहीं कराते ? मुझे धोती, कपड़ा तथा खाना महीं मिलता इसीलिये ब्राह्मण से मैं यह पाया (पनपथ) बन गया ॥३२५॥ 1 ३६६-३२४ } जाति पाति पह पूहि ताहि, ध्याह योधु जिण सनमधु पाहि । वपण एक हर कहउ समीद, जिरणवत्त भरगति नारि म दिए ।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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