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________________ बौने के रूप में तखिरणी विमलुमती पहुतउ तहां, वरणमहि नारि मेरउ खेलु जोतु छद पाल, नाटकु नटर्ड बइठो जहाँ । देखि भूपाल ।। अर्थ :-"प्रभु ! गज़न ! ) नानि गति सदमी पहें किसे सिमा आदि का सम्बन्ध (करना) हो । जिनदत्त कहने लगा मैं आपसे एक मोठी (मधुर) बात कहता हूं : ..-''नारी ( विवाह योग्य स्त्री ) को मुझे बताइये" ।।३२६।। उसी समय जहाँ विमलमती थी तथा उद्यान के मध्य वह (विद्याधरी) स्वी बैठी हुई थी, वह यहाँ पट्टेचा (उसने अपने प्राप कहा) मेरा परिविस खेल कोमल और मृदु है, (अतः) मैं आज एक नाटक का जिसे राजा देखें ।।३२७।। जीत ! जित-जीला हुमा, परिचित । पाल - मृदु, कोमल । [ ३२८-३२६ । नाव विनोद छंद बहु करज, रूप विरूप कला भणुसरउ । खोह भाइ सुटिव वीसह घराउ, इउ मट भर खेल वावरणउ ॥ घरइ सासु जिह हासउ वयण, बंधद किरणि भमद पुणु गगन । विपरितु छोह एक परसियज, राजा हसइ पावलउ भएउ ।। अर्थ :--मैं वादित्र (बजाऊंगा) एवं विविध प्रकार के हाम्प छैद कहूंगा तथा भली एवं दुरी दोनों ही प्रकार को कलात्रों का अनुसरण करूगा। जिससे क्षोभ तथा माव (स्नेह) दोनों का ही खूब अनुभव हो। इस प्रकार यह (बौना) नट-मद (का खेल) खेलने लगा ।।३२८।। वह ऐसे ताल धरने लगा जिससे हंसी के बचन निकाने (हंसो प्रावे । किरणों को बांध कर वह अाकाश में घूमने लगा । विपरीत (विरोध का) माव
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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