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________________ जिरणवत्त चरित पारौं तिरिय बनाई पास, पुप विवाण चडियो घण मान । मालिवि प्ररथ रमणु सव लयो, उघय उवहरत्त तिणु ग्यत्र ।। अर्थ :- राजा ने साचन, वाहन तथा कुछार देस दिये तथा मर्क (द्रव्य) का तो भण्डार ही दिया छत्र, लंब (दण्ड }, चमर आदि बहुत सी वस्तुमें दी तथा चतुरंगिणी सेना भी उसको (सौंप) दी॥४४६।। तक जिनदत ने चारों स्त्रियों को बनाया और घनी प्राशा के साथ उन्हें विमान पर बढ़ाया । उसमें अर्थ तथा रत्न आदि सब डाल लिये और तुप्त होकर कह सागरदन के पास गया । ।।४४५॥ पालंद पालम्ब - माश्रय, प्राधार, रुघय / प्राधय- तृप्त होना [ ४४८-४४६ ] स्वहिबत जब दीठउ जाइ, गलिय नाक सरि गम पुण पाई । बूसिड अंगु पोव को गंधि, भागी पापो कहु कुरु म्याधि ।। अवहिवत्त मरि नरयह गयज, द्रव्य प्रापुणी जिरणदत्तु सयउ । मे पणु चंपापुरि सो गयर, पुणु घरि चलिये को मनु भयच' ॥ अर्थ :- जब उसने जाकर सागरदप्त को देखा तो उसका नाक गल गया था एवं पोव सई गया था। उसके सभी प्रम दुषित हो गये थे तथा पीप की दर्गन्धि पारही थी क्योंकि उस पापी को कुष्ठ रोग लग गया था ।।४४८।। सागरदत्त मर कर नर्क गया। जिनदत्त ने अपना द्रव्य उमसे ले लिया । यह चन लेकर चंपापुरी गपा तथा अपने घर जाने की उसके मन में इच्छा हुई ।।४४६) १ मूलपाठ (मयों)
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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