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________________ तप वर्मन १६३ सुसर पंचमत्स्यय पालि, गाण जलेरण कम्म क पखालि । परम समाहि जोइसी रूड, तव लथी हुम पठयो हुनु । अर्थः -- (फिर जिनदत्त ने) अपने पुत्र मुदत्त को राज्य दिया और कहा, मैं अपना काज (आत्म हित) करुंगा। चारों स्त्रियों के साथ जिनदत्त ने मुनीश्वर के पास दीक्षा ले ली ॥५३॥ सब जिनदत्त ने दुई र पंच महाव्रतों का पालन किया तथा ज्ञान जल से कर्मों के कीचड़ को धोया । जब मुनि जिनदत्त परम समाधि के योग में ये तब तप लक्ष्मी ने शीघ्न ही मपना दूत भेजा ।।५३०॥ [ ५३६-५४० ] विणवा इतु णिसुरिण दययंत, ...... तोडे रपवर के वंत । मोहमाल रसि धालिउ मारि, हउ पाठय सामी तव नारि ।। तब लछो निहहङ.......यो, खेब खिन्नु एहि प्रावत भयो । मझ वियोउ मार तिहि रिउ, ........... ..... । मर्य :- दूत ने कहा, "हे दयावान मुनो, तुमने काम के दांत तोड लिये हैं । तुमने मोह रूपी योद्धा को रण में मार दिया है इसलिये हे स्वामी, मुझे तुम्हारी तप स्त्री ने भेजा है ।।५३६।। तुम्हारी तग रूपी लक्ष्मी उदासीन होकर स्थित है । मैं खेद खिन्न होकर यहां आया है । मेरा नाम उसने विवेक रखा है.............. || ५४० ।। [ ५४१-५४२ ! सुणि विवेम तुहि पूछा वात, (ज) य चोसु पड्न मोठे प्राप्त । मरणपथ सहिउ बीच मइ बोल, मुक्ति सछि ते निगड बइठ ।। मुक्ति लछि अ (इ) हो सर दासि, तापहि छूटहि हम निरभाति । पक्षमोहि विन्निधि जसुषंति, मुरिरावर तिमु तोडइ ते (4) त ।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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