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________________ १६२ मिणदत्त चरित तहि मरेवि बहि सिसिह राय, पढमु समिग सुरवच संजाप । विविह मोय मरिणवि तहि मावि, प्राइवि जीवदेउ पुष भवउ । अर्थ :-मुनि को एक कदन्न मात्र प्रहार देने से निदान करने पर के तेरी स्त्रियां हुई । हे जिशदत्त! यह सब मुनि को परिमिस (अल्प) आहार देने के पुण्य का प्रभाव था। ॥५३॥ हे राजन्! तुनो, तुम मर कर प्रथम स्वर्ग में श्री देव हुये । फिर यहाँ विविध प्रकार भोगों को मागाकर (मोग कर) तथा वहाँ से आय कर तुम जीव - देव के पुत्र हुए ॥५३४॥ [ ५३५ - ५३६ ] दुइ मरि चंपवपुरी उत्पण्णा, सिंहल दोबह इकु प्रायष्णा । एक भई विज्जाहर धोय, धारिज तुम संबंधी सोय ।। जिणवत्त णिसुण उपण्णो बोह, जियमरिण छडित माया मोतु । मइ कुइ धोरु वीर तउ करद, सो मह मोस्नु पुरी पइसरह ॥ अर्थ :-दो मर कर चंपागुरी में पैदा हुई । एक सिंहल द्वीप में पैदा हुई तथा एक विद्याधर की कन्या हुई । (इस प्रकार) चारों तेरे (पूर्व मन) के सम्बन्ध से स्त्रियां हुई । ॥५३५॥ पूर्व भव का वुतांत सुनकर जिमदत्त को बोध (कान) उत्पन्न हुया और उसने अपने मन से माथा और मोह को छोड दिया। जो कोई वीर घोर तप करता है, वह मर वर मोक्ष नगरी में प्रवेश करता है ।।५,३६। [.५३७-५३८ . पतु मुवतह वीनिउ राजु, मई साहिन्धन अपुर्णी काजु । चढ़ नारि सिल जिरणवत्त साहि, बीषा लेर मुरणीसह पाहि ॥
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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