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________________ जिगरत्त चरित को इसने लगा । (तब) कीर ने ललकार कर उसे गाली दो "अब तु जाने नहीं पाएगा" ॥२२॥ । १२६ } भरे चोरी खाहि भाजिव माहि पेटहि पहसि रहही । प्रानु प्रतडल प्रसियर मारउ का सुत पर कहाहि ॥ एवा कहि नाही वेग माही फिरि तिहि सिरि चंपिउ । फुरकारहउ परिज तुरंबउ पूछ धरे पिणु फेरियउ ।। अर्थ :-अरे तू चोरी से लाता है और भाग जाता है और (श्रीमती के पेट में घुस कर रहता है । प्रात्र में इसे तलवार से मारूंगा जिसमे कौन मा पुत्र नर कहा जायेगा। यह कह कर तथा वेग से जाकर उसने उस सर्प के पिर को धर दबाया और उस फुकार करते हुये (मर्म) को तुरंत पकड कर और फिर उसकी पूछ को पकड़ कर घुमाया (फिराया) ॥२२॥ चौपई । २९६-२३. । परिण भुसाइ सहि सलि सिरु करद, गर छाडि विसहर घर पडइ । विकम भुयंग देखी मनु पर, जीउ मारि को नरयहं पाइ ।। योलि जगाइ सज रह रह करइ, हाथ होइ तउ हाह घरई । होहि पाई त भाइ पलाइ, सो वपु आज मारउ काइ ।। __ अचं :-उसे मुलाकर उसका सिर तल (भूमि पर कर दिया, (जिमके परिणाम स्वरुप) गवं छोड़ कर वह सर्प धरा पर पड़ गया । (ब) उस भुजंग को विकल देख कर वह मन में सोचने लगा कि जीव-वध करके कौन मनुष्य नर्क में पड़े ? यदि उसे बोली ज्ञात होती तो वह ठहरा ठहरो'
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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