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________________ *88. 534.3: 'तहि चवि' का अर्थ 'वहां से चयकर' किया गया है, जो निरर्थक लगता है, होना चाहिये 'जन्हें न्याग कर' ! *86. 536. 2: 'रय' का अर्थ 'काम' किया गया है, किन्तु कदाचित होना चाहिये 'रजस'। 60. 5400 1: निरूह' का अर्थ 'उदासीन' किया गया है, किन्तु मिरूह ८.निरूह 2 णिरोव = प्रादेश, आज्ञा है / 61. 541. 3: 'मामथ सहिउ दीउ मइ दीठ, मुक्ति लछि ते नियर वाइट का अर्थ किया गया है, 'मुक्ति लक्ष्मी के निकट बैठने पर भी मुझे कामदेव पर विजय प्राप्त करने की दृष्टि दी है किन्तु होना चाहिए, 'उहके द्वीप को मैंने मन्मथ के सहित देखा है, मैंने देखा है कि वह मुक्तिलक्ष्मी के निकट बैठा है'। 62. 544, 4: 'मुरिणवरु मणु अछइ जित्थू' का अर्थ किया गया है, 'जिसको मुनिश्रेष्ठ उत्तम कहते हैं किन्तु होना चाहिये 'जहां मुनि श्रेष्ठ गण [रहते हैं। .63. 547. 2: 'साहु सगि' का अर्थ 'सारे' किया गया है, किन्तु 'सगि' संभवतः 'संगि' है और इस संशोधन से अर्श्व होगा, 'साधु [जिणदत्त ] के संग में [रहकर] / 64. 550. 3: 'देखि त्रिसूरु रयउ फुड एहु में से 'देखि बिसूरु' का अर्थ नहीं किया गया है / उसका अर्थ होगा 'उसे देखकर तथा [उसका ] चिन्तन कर'। माताप्रसाद गुप्त
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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