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________________ १२४ जिणदत्त परिक्ष अर्थ :-यह बात जब कानों से उन्होंने सुनी तो वे प्रापस में कहने खगी, "राजा लुब्ध हो गया है ।" फिर वे कायोत्सर्ग में (स्थित होकर) वहीं पर ध्यान मग्न हो गयीं ॥३६६।। यहां से लौटकर वह दूत बोला, हे देव ! वे न बोलती हैं और न नेत्र डुलाती हैं । ज्यों ही मैंने उन सभी को बुलाया तो तीनों ध्यान तथा मौन धारण कर बैठ गयी ||३६७।। वाहुड़ 1व्याघुट - लौटना। [ ३९८ ] वृत वयण मुरण वियसिस राइ, रे वावरणे यह तेरो बाउ । बायण भगह पलहु तिह ठाइ, तिनसि नरवह बोलहि काइ । अर्थ :-दून के वचन सुनकर राजा विकसित हुआ (मुसकराया) और कहा, "हे बौने ! यह तेरा स्थान है ।" (यह सुन कर) बौने ने कहा, उस स्थान पर चलिये, उनसे नरपति क्या बोलेंगे' ||३६८॥ नाराम छंद तीनों स्त्रियों से पुनः साक्षात्कार .. ! ३६६ ] राजा परजा लोगु बागु गयउ विहारि । बइठे प्रागे प्रकरण लागे सिहुई हकारि ।। अहो तोया पूछन सीया बाप्त एक तुव भणी । हम ए पत्तीजह ररह कहाइ मेरो एती तौनिउ धनी ।। अर्थ :--राजा प्रजा और लोग-बाग (जनसमुदाय ) उस विहार में गणे और (उनके आगे) बैठकर तथा उन्हें बुलाकर पूछने लगे। हे सीता के समान
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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