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________________ जीवदेव जिनस मिलम छाडे वापन भोग विलास, पान फूल भोजन को पास । रातहि गोद न दिवसह भूख, तुम्ह विण पूत सहे वह बुख ॥ ___ अर्थ :- वह कहने लगी, हे जिनदत्त ! तुम मिल गये और सुमने मेरी अाशात्रों को पूरा कर दिया । हे पुत्र | तुम्हारे बिना में निराश हो गई थी एक क्षरण भी तुम्हारा बाप (तुम्हारा-स्मरण) नहीं भूलना था। वे प्रति दिन जिनदत्त २ करते रहते थे ।। ५०१ ॥ तुम्हारे बाप ने सब भोग विलास छोड़ दिये थे तथा उन्होंने पान, पुष्प एवं भोजन की प्राशा छोड़ रवखी थी । न रात को नींद भाती थी न दिन में भूख ! हे पुत्र! तुम्हारे मिना हमने बहुत कुःख सहे ।।५०२।। [ ५०५-५०४ } भए वधाए हाच निप्ताण, चंसिखर पाए भगवाणं । उछली गुजी सलहहि भाट, नेत पटोले छाई हाट ॥ इम आरंदे गए प्रवास, इंचित मानहि भोग विलास । बहुल दाण चर संघ कराइ, बुही दोण सब रहे प्रधाइ ।। बधावे हुए और पोसौ (बोसा) पर चोट पड़ी तथा राजा चन्द्रशेखर उसकी मागवानी करने माए । गुठी जछली तथा भाटों ने स्तुलि की चाजार नेत्र एवं पटोर से सजाये गये ॥५०३।। । इस प्रकार भानन्दित हो कर जिनषत्त अपने निवास स्थान पर गए सथा मनवांछित भोग विलास करने लगे। चारों संघों को बहुत सा दान करने लगे। सथा दोन मोर दुखी लोग (उनके दानों से) तृप्त होकर रहने लगे ।। ५०४।। नेत नेत्र - एक प्रकार का रेशमी कपड़ा पटोर / पटकल- एक प्रकार का रेशमी करडा
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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