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________________ जिरगवत्त चरित अर्थ :- जो जिनदत्त (चरित) की निदा करेगा, वह इस चउपई (बंध-काव्य) को सुनते ही जल जल कर मरेगा । किन्तु जो इस कथा को अपने पास (रख) चारण करेगा (हृदयगम करेगा) वह मिथ्यात्व गला देगा ।।५४६।। मैंने उस जिनदत्त पुराण को देखा है जो पं. लालु द्वारा विरचित जो ऐसा (अथवा अतिशय) प्रमाण है। मैंने इसे स्फुट रूप से रचा है । हे बंधुजन हस्तालंबन (हाघ का सहारा) दीजिये ।।५५०।। अइस ईदृश – ऐसा । अइस / अतिसयित - विशिष्ट । [ ५५१-५५२ ] जो जिणवत्त कउ मुरगई पुराणु, तिसको होइ गाणु निम्बाण । अजर अमर पउ लहइ निरुत, चबद्द रह प्रभई कउ पुत्त ॥ गय सत्तावन छह सय माहि, पुन्नवंत को छापा घाह । सक्कु पुराण सुरिणउ नउ सत्थ, भरण रल्ह हउ रण मुराउ अस्प ॥ अर्थ :-"जो जिनदत्त के उपाख्यान को सुनता है, उसके ज्ञान. और निर्वाण होता है। यह अजर अमर गद को निश्चित प्राप्त करता है। यह अभई का पुत्र रल्ह कहता है ।। ५५.१।। (यहाँ तक कुल) छः सौ (छंद) में से सत्तावन गए (कम हुये) । कौन पुण्यवान अपनी छाया (टिया) छिपाएगा ? तर्क, पुराण एवं शास्त्र मैंने नहीं सुने हैं लधा रह कहता है, "मैंने अर्थ पर भी विचार नहीं किया है।" ।।५५२१॥ गाए । ज्ञान ।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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