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रचना का नाम
लिपिकार ने प्रारम्भ में कृति का नाम 'जिणदत्त कथा' तथा अन्त में 'जिणदत्त चउपई' लिखा है । स्वयं कवि भी अपने काध्य के सम्बन्ध में स्थिर मंतव्य नहीं रख सका है। वह भी कभी 'चरित,' कभी 'पुराण' एवं कामी 'चउपई' के नाम से रचना का उल्लेख करता है । लेकिन जैन चरित काव्यों में जीवन चरित. कथा श्राख्यायिका तथा धर्म कथा प्रादि के लक्षणों का समन्वय प्रायः हुआ है । इसलिये चारत-काव्य को कभी कभी 'कथा' एन 'पुराण' भी कहते हैं । इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर रन्द कवि ने भी अपने काव्य को 'चरित, 'कथा' एवं 'पुराण शब्दों से अभिहित किया है। 'उपई' शब्द का प्रयोग मुख्यतः इसी छन्द में कवि ने अपनी रचना निक्छ करने के कारण किया है जैसा कि अन्यत्र उल्लिवित च उपई-बन्ध शब्द से प्रकट है' । प्रस्तुत काव्य को चरित' नाम स कहना ही अधिक उचित रहेगा, क्योंकि कवि ने इसे प्राय: 'चरित' ही कहा है और यह चरित ) धार्मिक है इसलिए इसे 'पुराण' भी कहा है। कवि परिचय
मंगलाचरण, सरस्वतीचन्दना एवं अपनो लघुता प्रदर्णित करने के पश्चात् कवि ने अपना परिचय देते लिखा है कि वे जैसवाल जाति के धावक
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१. जत्य होइ कुतइणि अंधु, जिणदत्त रयउ चउपई बंधु ॥२५॥
जिरणदत्त पूरी मई चउपही, छप्पन होणधि छमह कहीं ॥१५३।। २ महु पसाउ स्वामिनि करि लेम, जिणदत्त चरितु रचउ हउ म ।।१६।। तउ पसाइ शारण घवरु लहर, ता जिगदत्त अरिउ हर काहउ ।।१।।
यह जिणदत्त धरिउ निय कहिउ, अशुह कम्मु चुइ सुह संगहइ ।। ५४८।। ३. हउ अखउ जिरणदत्त पुराणु, पविउ न लखरण छंद बखाण ॥२०।। __ मइ जोमउ जिणदत्त पुराणु, लाखु विस्यउ प्रइसु पमाणु ।। ५५०॥