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________________ १४६ जिणदत्त परित [ ४७५-४७६ । बाहुडि व्रतु बोलइ ए वयण, निसुगहि चंब सिखर भड रयण । अकहा कहा किम कहिमइ बेति, माँगह देव जीवदे सेठि ।। योल चंसिखिर भड साहु, अरे दूत किन गई तुह जीह । यर किनु बोगद बाल गोपाल, सेठि प्राफि जीवउ के काल ।। अर्थ :- वह दूत वापिस लौट कर यह वचन बोला, "हे भटरल चन्द्रशेखर ! सुनो । यहाँ बैट कर न कहने योग्य बान क्यों कहते हो ? वह है देव ! जीवदेव सेठ को मांग रहा है । ।। ४७५1: मटसाधु चन्द्रशेखर बोला । अरे दूत ! तेरी जीभ क्यों नहीं गई ! बड़ भले ही ( मेरे ) बाल गोपाल को क्यों नहीं बांधले, सेठ को देकर कितने समय तक मैं जीऊँगा ? ॥४६॥ बाहुड / श्याश्रुट - लौटना, वापस होना [ ४७७-४८६ मापड दूतु कहार सालु, अरु बाहु तु तरु फाउउ गाल । वज्र पम् तो वृतु काल, प्राफि सेठि जीवन के काल ।। घर लेउ माहणु बाहष्णु झाडि, वरु किनु संघड बइ मुहि धाठि । गरु किनु नपरि करद वह कालु, प्राफि सेठि मोवर का काल । ____ अर्थ :- " हे लंपट दूत मैं तेरी खाल निकलवा लूगा और मुजाओं से सेरे गाल फाड दूंगा। रे दूत | तुझ पर काल वन पड़े, सेट को देकर मैं कितने समय तक जीऊँगा ? 11४७७।। भले ही मेरे समस्त साहन-वाहन लेलो, भले ही क्यों न मुह में दादा देकर मुझे बंदी कर लो, भले ही क्यों न नगरी को समाप्त कर दो, पर सेठ को अर्पित कर मैं कितने समय तक जीऊंगा? ।।४।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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