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________________ अर्थ-संशोधन प्रस्तुत रचना हिन्दी की एक प्राचीन काव्य-कृति है । इसमें अपभ्रंश शब्दों की बहुलता है । प्रकाशन के पश्चात् पुस्तक को देखने पर कतिपय अर्थ संशोधन अपेक्षित लगे, उन्हें नीचे दिया जा रहा है। इन में लगभग आधे स्थलों पर मेरे द्वारा दिये हुए अर्थ हैं, उनके हमने तारक चिन्ह लगा दिये हैं, शेष आधे स्थलों पर नये अर्थ प्रस्तावित हैं । आशा है पाठक इन प्रों पर विचार करेंगे। *१. ८. ३. 'धर सिरु लाइ' का अर्थ किया गया है 'साष्टांग नमस्कार करके', होना चाहिये 'धरा पर सिर रखते हुए'। साष्टांग नमस्कार भिन्न होता है। २, ३६. ३: 'सहित तहि मछि म उरउ र दीसई' का अर्थ किया गया है 'मछिन्दु (मछन्द) मउरज रण (मुकुट बिना)', 'सहिउ' को कदावित् होना चाहिये 'महिउ', क्योंकि 'मकार' युक्त नाम वाले पदार्थों का ही इस छक में उल्लेख हुपा है, और इस पाठ को लेकर अर्थ होगा- मही (प्राय) तथा मत्स्येन्द्र (घड़ी मनिया) तया मयुर भी नहीं दीखते थे । *३. ७४. २: अर्थ में दिये हुये 'इससे अधिक क्या कहूँ' के लिये मुलपाठ में कोई शब्दावली नहीं है और न उससे अर्थ में ही कोई स्पष्टता माती है। *४. ६१. ३: 'जाणू, थाणु, विहितहि घणे' का अर्थ किया गया है'भुटनों के नीचे स्थान टिकोरणे बहुत घने थे किन्तु 'जानु-स्थान' से 'घुटनों के नीचे का स्थान' अयं नहीं लिया जा सकता है, न वह स्थान सघन ही होता है । संमवतःजाणू-मानों, थाणु/ स्थारगु = स्तंभ, विहि = दोनों, तहि = वहाँ हैं अत। अर्ध होगा 'उसके [दोनों पैर ऐसे थे ]मानों वहाँ दो सधन (स्तेम) स्थाणु हो :
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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