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________________ जिरणवत्त चरित हाथो के गले में रत्नों का हार शोमा दे सकता है" 11३७३।। रया - रत्न । ३७४-३७५ ] कहा कुमरि मुहि होणे बोन, परिहनु मरउ लेह कोई छीनि । घाली जाइ देव जिट पाल, गावह गलं रयण को माल । पापुहाव कहिया काइ, छेलो मुह किं मालियर माइ । अनई देव न पावज कला, वांविर करि रयण मेखला । अर्थ :- मुझ हीन वो राजकुमारी देने से क्या नाम ? परिहास के कारण मैं मरूंगा और कोई उमको (राजकुमारी को) छीन लेगा । हे देवा यह वैसा ही होगा जैसे गधे के गले में रत्नों की सुन्दर माला डालदी जाए ॥३७४।। अपने लिये मैं और क्या कह सकता हूँ । बकरी के मुह में क्या कस्तूरी समाती है ? हे देव! बंदर को कटि में रदन मेखला कला (शोभा) नहीं प्राप्त करती है ॥३७॥ [ ३७६-३७७ । धात्र सु कहा करह रविषाम, भुजिज जोडि जाइ परिणाम । प्ररण छाणत इह सा सब कोइ, बोले कहा सवारय होई॥ वेह कुछील हाय इकु काय, प्रांगुल चारि चारि मो पाप । सोचे-थु जग रु साकडी, खालउ पेट पीठि कूबडी ।। अर्य :- 'मयं के धाम में जाकर घृग्यु (उनुका) क्या करेगा ? उसे वहां जाकर उसका परिणाम भोगना पड़ेगा । यहाँ म। अनचाहा हो रहा है । मरे बोलने से क्या स्त्रार्थ निकलेगा। ।।३७६।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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