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________________ पौने में सिंहासन था। हाथ जोड़ कर उसने राजा से विनती की, “प्रभु, दीन पर कृपा करो" ।।४१६॥ ४२०-४२१ ] सोनिड नारि बुलाबहु आणि, सभा माहि वइसारहु ताणि । कहहु घास फुरिण तुम्ह घरि जाइ, सभा मह हुमा कवरण तुम्हारउ पाहु ॥ किंकर लेण ताह पेठिया, लइ प्राइसु सुह कारण गयऊ । तिहू मारि सिज प्रापइ तित्यु, पुहिमु गाढ़ निय मन्दिर जित्य ।। अर्थ :-(राजा ने आदेश दिया) "तीनों स्त्रियों को बुलानो तथा उन्हें समा में बैठामो और तुम उनके घर जाकर कहो कि सभा में बतानो कि दानों में से तुम्हारा कौनसा पति है" ॥४२॥ उन्हें ले पाने के लिए उसने किंकर भेजे। (किंकर) प्रादेश लेकर शुभ कार्य के लिए नया । तीनों नारियों के साथ वह वहां प्राया जहां पर राजा (पृथ्वीपति) का निज मन्दिर था ॥४२१॥ [ ४२२-४.३ ] धूलहें हारडोर पराय, पतिथि सुखासारण राबसि गइय । पूछइ राउ हियइ वियसंतु, महि कवष्णु तुम्हारी कंतु 11 णिसुरिण वपणु मुह जोयउ तासु, जिसको करतज सेठि विसासु । जेठी घण बोला तहा, गावद सभा बइठा महा ।। अर्थ :-धूतं को लिवाने के लिये हाल डोल भेजा और बह सुग्वामन (पालकी) में चढ़कर राज-मवन गया । राजा मन में हँस कर (स्त्रियों से पूछने लगा, "दोनों में कौनसा तुम्हारा स्वामी है ?" ||४२२॥ इन वचनों को सुनकर उसने उस राजा के मुह की भोर देखा।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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