SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० } एते लएि जइ भ्रायो पूर्व, संघ (इ) प्रत सुपत्तह् बीज, करण पूरा तुम्ह पडिउ जूबा हारि होरिए न हु तिन्ह कहु पूत सइ जणु जुबा हारिषि खोयहि दबू, वs खबंदि लछि पाइप, सा किमु पूतु अहि लायइइ जइ यदा E L होणि - चिन्ता जिरगवत चरित अर्थ : उसी क्षण जब उसका पिता प्राथा, तो उसने कहा "हे पुत्र, तुम कौन से दुख में पड़े हो ? संपत्ति को सुपात्र को देना चाहिए किन्तु प्रब जुए में हार कर चिन्ता न करनी चाहिए ॥१४२॥ - जुए में हार कर जो द्रव्य खोता है। हे पुत्र ! उस पर सभी जन हँसते हैं। बड़ी कठिनाई से लक्ष्मी पाई जाती है उसे हे पुत्र ! किरा प्रकार कुमार्ग में लगाया जाय ? ।। १४३ ।। जब 1 *४९- पूञ वितृ -पिता । अपह - - बंदि कठिनता । संतानु । कोन ॥ सब्बु । m सुपत - सुपात्र । अपथ - कुमागे | [ १४४ - १४५ ] दोजइ होरा दोष कहु पूत, धम्मु काजि बेचियह बहूत । बाल कह बोज, अउर बछ संपय क फीज ॥ केंद्र हम समझा जिवायों जाम, देखि रहह तिस कवि उपाउ, निगवत्त भयो परहस ताम । घर छाया को करें उपार ॥ अर्थ :- हे पुत्र ! हीनों (अपंगों ) एवं दीनों को देना चाहिए और धर्म कार्य के लिए बहुत कुछ (यदि आवश्यक हो तो) बेच भी डालना चाहिए । तथा ( चाहे उसे ) किसी बालक को दे दिया जाये किन्तु हे वत्स ! संपत्ति का और क्या किया जात्रे " || १४४ ।। इस प्रकार अपने पुत्र को समझा कर जब उसने उसे जिमाया उस
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy