SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धुत क्रोडा-वर्णन समय जिनदत्त प्रसन्न हो गया। (किन्तु) रलह कवि कहता है वह अवसर देख कर घर छोड़ने का कोई उपाय करने लगा ।।१४५।। [ १४६-१४७ । झूठउ लेखि सुसर कहु लिलई, फुणि जुलाइ जण एकह कहा । कहिउ सेठिस्यों जाईयि तेरण, हो गिरणवतह प्रायउ लेण ।। तउ जिणवत्तह ले हकारि, पूछइ मंतु सेठि वइसारि 1 जइयह पूत तत इस कोज, नातरु घर पठइ जण बीज ॥ प्रय :-(तदनन्तर उसने) अपने श्वसुर का एक झूठी लेख (पत्र) लिखा और एक व्यक्ति को बुला कर कहा, "सेट के पास जा कर यह कहो कि मैं जिग्णदत्त को लेने पाया है ।।१४६।। फिर मेठ ने जिनदत्त को बुलाया और अपने पास बैठा कर मंत्रणा की और पूछा "यदि पुत्र, जाना है तो ऐसा करो, नहीं तो इस व्यक्ति को घर भिजवा दो" ॥१४॥ | १४-१४६ । तौ जिरणवत्त भएइ कर जोडि, हम कहु तात देहु जिण खोडि । मापु मत हरें कैसे चलो, जो तुम पिता कहहु सो करौ ॥ पिता मतह जिरणवत्त दलाइ, संबत बहुलकु देइ प्रधाइ । बिमलामती चलो तिह ठाइ, सासु सुसरु का लागा पाई॥ अर्थ :-तत्र जिनदत्त हाथ जोड़ कर बोला "पिलाजी हमें कुछ दोष न को । मैं अपने मतानुमार कैसे चल गा ? जो पाप हे पिता कहेंगे मैं वही काँगा" ||१४८।। पिता से प्राज्ञा लेकर जिनदत्त चला गया उसके साथ मार्ग के लिये बहुत
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy