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रचनाकाल
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हिन्दी के आदिकाल की कृतियों में 'जिरावत चरित' ऐसी इनी-गिनी कृतियों में से हैं जिसमें स्वयं कवि ने रचनाकाल का उल्लेख किया हो। इस दृष्टि से भी इस रचना का विशेष महत्व है । रल्छु कवि ने इस काव्य को संगत १३५४ (सं. १२६७ ) मादवा सुदि ५ गुरुवार के दिन समाप्त किया था । उस दिन चन्द्रमा स्वाति नक्षत्र पर था तथा तुला राशि थी। भारत पर उन दिनों अलाउद्दीन खिलजी ( सन् १९६६ - १३१६ ) का शासन था। कवि ने उस समय की राजनैतिक अवस्था का कोई उल्लेख नहीं किया है। संभवल उराने शासन के पक्ष-विपक्ष में लिखना ही उचित नहीं समझा।
प्रथ प्रमाण
है ।
असंभव नहीं कि
इसलिए भी छद
कवि ने काव्य के तीन स्थलों पर पद्यों की संख्या का भी उल्लेख किया पद्यों में पद्यों की संख्या क्रमशः ५४३ व ५४४ श्रीं कहीं है, जबकि प्रतिलिपि कार ने इन पद्यों की संख्या ५५३ दी है। मूल के छंदों को प्रतिलिपिकारों ने तोड़ तोड़ कर पढा हो, संख्या में कुछ वृद्धि हो गई हो । अन्य कारण भी संभव है । हमें कवि द्वारा दिया हुआ ही स्वीकार करना चाहिए। लेकिन वे पद्य कौन से हूँ जो बाद में बढा दिये गये हैं, इसका निर्णय तब तक नहीं हो सकता जबतक इस रचना की दूसरी प्रति उपलब्ध न हो ।
अतः अंध-प्रमाण
कथा का श्राधार
चार
सेठ जिनदत्त की कथा जैन समाज में बहुत प्रिय रही है। इस कथा
१. संत
तेरह वजवणे, भादव मुदि पंचभ स्वाति नखत्त चंदु सुनहती, कह रहत परव
२. गम सत्तावन
छप्पन होरात्रि
सय माहि ( ५५२ )
सय कही ( ५५३ )
गुरु दिप्ां ।
सरसूती ।। २६॥