SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिणदत्त चरित | १६६-१६६ ] बावानल बोहिमु गट पेसि, अंतरु छाडि पवालो देसि । संखचोड परित्रिपउ आरिण, गयो वहां जहि हीरा लानि ।। परणसइ पणु जल जिपवर नाहु, भय अंतर चोठिउ अलमाहु । ताहि पन परिसिव वरिणवह चलइ, कलिमलु सयनुलोउ परिहरहि ।। अर्थ :- बह जहाज बइवानल को नकेल कर आगे बढ़ा तथा वीच में पवाली-वेला को भी उसने छोड़ दिया। संख द्वीप को भी उसने जानबूझ कर छोड़ दिया और वह वहाँ गया जहां हीरों की खान थी ॥१६॥ वहाँ जल के मध्य जिन चैत्यालय था तथा वहां उन्होंगे मन से पार करने वाले जिनेन्द्र भगवान के दर्शन किये । उनके चरणों का स्पर्श करके वे व्यापारी आगे चले और समस्त सोगों ने यहाँ अपने कलिमल (पाप) त्याग दिए ।।१६।। । २००-२०१ । तहां इंतज परोहण चला, जोयण सउ बोसा नीसरह । मुन्हि राइसिहि कान्हु कि भाइ, संधल वीप पहूते जाइ। बरिणवारा सहि ठाहरि रहा, कय बिफेरण दीवि पसरहि । मोल महंघी वाखर देहि, आप सउँ धो साटिवि लेहि ॥ अर्थ :-वहां से होकर वह प्ररोहण (जहाज) चला और फिर एक सौ बीस पोजन निकल गया । कवियों का सत्संग करने वाले राजसिंह ने सुना है कि वे सभी सिहल द्वीप जा कर पहुँचे ।।२०।। व्यापारी लोग वहाँ ठहर गये तथा क्रय विक्रय करने के लिये उस द्वीप में प्रवेश किया। प्रपनी वाखरों (बम्ओं ) का वे महंगा किए हुए भावों में देते थे और उनकी वस्तुओं को वे सस्ते भाव में साट [बदल] लेते थे ।।२०१॥ भाइ - भागिन - साझीदार, सत्संगी। महंय - महार्घ - महंगा।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy