SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ जिएस चरित राजा (जिनदत्त) ने कहा, "उसे लाकर मिलायो । प्रतिहार दूत के स्थान पर गया और कहा, "राजा ने तुम पर कृपा की है । हे दूत, तुम भीतर पधारो ||४६८।। पाहुड / . - उपहार । सीरप 1. शीघ्र [YER 1 भीतरि व्रतु गयउ सुहिणातु, प्रापिउ परिउ रयण भरि यातु । वोठउ वृतु राउ तिहि ठाउ, देवि सीसु धरि लगिउ पाउ ।। अर्थ :-सहिणाल (नाम का वह) दूत भीतर गया और (जिनदत्त के) आगे रत्नों का भरा हुआ थाल उसने रख दिया । दूत ने राजा को वहां देखा तो उसे विश्वास दिलाएर उसने (राजा भै) गरंगों को मार्ग कि [ ४७० ] वस्तु बंध दूतु पभरणइ रिणमुरण नरनाह । को परिजा गंजिया, काप देव घर पलइ कीजइ । काइ नयर चउदिहि विस रहिउ, कासु उबरि देव कोह कोजइ ।। तुम समेरणि अभिडत, सा सीमा अम्हि जिण होण । भगाइ दूस सए नरनाह, फुड लेज दंड हडू लोण ।। दुत कहने लगा, "हे नरनाथ. मुनी । हे देव, आप क्यों प्रजा को नष्ट कर रहे हैं और किस कारण घर में प्रलय कर रहे हैं ? किस कारण नगर के चारों ओर अापने घेरा डाला है ? और किस के ऊपर हे देव! आप क्रोध कर रहे हैं ? यदि हम आपसे लड़ें तो हे स्वामी । हम जैन धर्म से विमुख होंगे। दूस ने कहा हे नर नाथ ! इसलिये में स्फुट रूप से स्पष्ट दंड लेकर घर चलिये । ।।४३०।। पलइ। प्रलय । उरि-ऊपर
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy