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________________ 1 किरणदत्त चरित मन्दिर में गयी तथा उसके (विमलमती ) चरणों में लगकर उसने जिनदत्त को पुकारा ।।२५५।। ८४ जब विमलमति ने पति का नाम सुना तो तुझने लगी, "हे सखी। यह जिनदत्त कौन है जिसका नाम तुम ले रहो हो ? "श्रीमती ने उसके मुख क देख कर कहा, "उसका घर वसंतपुर में है ॥ २५६ ॥ [ २५७ - २५८ } ओमदेव नंदन सुपिवार, सो मेरठ जिरगवत्तु मत्तारु सो तहि व्यरण ण भोधणु कर, मरण वय कररण परतिय परिहर | रहिम तिरिप ते दुख सरीर, सायद उलि साहस धीर '— अर्थ :- "जी जीवदेव का प्रियतर पुत्र है वही जिनस मेरा स्वामी है। वह रात्री में भोजन नहीं करता है और मन, वचन, काय से परस्त्री का स्थागी है ।। २५७ ।। || (विमलमती ने कहा, ) "हे स्त्री (नि) तुम रुको, तुम्हारे शरीर में दृश्ख है । वह साहसी एवं धैर्यवान सागर में से ( उछल कर ) निकल आयेगा ।। ।।२५८ ।। ( वस्तु बंध ) [२५६ । विष सrue *हिर गंभीर । हि विदु उद्यलि कठखंड पुणेण लउ । कहि तुरंतु हविकउ खमरु, विहिवसेण तहि काइ सिद्ध 10 हरिवि महोहि भवियराहि, खिसुर देखि छह तहि पुण्ण फसु, बिज्जाहरि मंजि खहेद्र | परि ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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