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________________ सागर पार करना प्रर्य :-समुद्र विषम, गहरा एवं गंभीर था। वह' लकड़ी के टुकड़े उछल पाए जिन्हें उसने पुण्य-प्रताप से प्राप्त कर लिया । उसे शीघ्र ही एक विद्याधर ने बुलाया तथा कहा | देखोJ भाग्य से कार्य सिद्ध हो गया । रल्ह कवि कहता है, उस महोदधि को तैर कर भव्य जनो ! सुनो, जो कुछ उसने प्राप्त किया। उसके पुण्य--फल (प्रभाव) को देखो कि किस तरह विद्याधरी ने उससे विवाह किया 1।२५६।। हक्क - प्राक्कारम् - मुलाना। खयर - खचर-पाकाश में विचरने वाला विकार : महोति - हो: धि थाउ बोर तहां उछला, भुजाड सो सापत तिरइ । सूके सीवल के पुर खंड, रगीसो पायो पम्म करा ।। बेनत विग्जाहरु प्रावही, मारवेग महावेगु पाबहो । अरे रि किसु मरण बुधि तुहि गई, राखि समुद्द तीरहि मानाई ।। अर्थ:---वह डूबा हुया वीर यहां उछल पड़ा और अपन भुजादंड से सागर को तिरने लगा । मूखे सेमल का एक टुकड़ा धर्म-करंड (पेटिका) के समान उसके न्यास पाया (धरोहर के रूप में मिला) 11 २६० ॥ विद्याघरों ने उसे माता देखा सो वे पायुवेग तपा महावंग उसकी मोर दौड़े । उन्होंने कहा, "अरे कसो मरने की चुधि तुम्हें हुई है जो तुमने इस समुद्र को छोड़ कर तीर पर माने का संकल्प किया है ?" णास - न्यास – स्थापना, धरोहर । २६२-२६३ । कवड़ भाइ बौलह ति पचार, जाहिरण नपुडा घालहि मारि । रमण निहाणु जहाँ हा रहिउ, जो जलु कवणु तरण तुहि कहिउ ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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