SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिरगवत्त चरित अर्थ वह व्यक्ति फिर विमलमती के पास उठ कर चला गया और कहा कि "जिनदत्त को उपास करना पड़ गया है ।" यह बात सुन कर वह अपने मन में व्याकुल हुई तथा उसने अपनी रत्न जड़ित कंचुकी उसे दे दी ।। १३४ || ४८ वह कंचुकी माणिक्य एवं रत्नों ग्रादि बीच-बीच में हीरे एवं सोने से घड़ी हुई थी। हुए श्री । तथा वह नौ कोटि द्रव्य में [ १३६ - १३७ तहां, छह जिरगवत्त जणु लइ गयउ काबुली हारिवि दम्ब काचुली आापि, तुणु घर जाइवि पडिउ संतापु भयइ विलखाद, बापु विनंती कुपुरिषु जाह । मो समु अउर कुपूत न भयो, तात अर्थ मह ह ण लयो || वह व्यक्ति कंचुकी लेकर उसी स्थान पर गया जहाँ पर जिनदत्त रुका हुआ था। जिनदत्त हारे हुये द्रव्य ( के रूप ) में कंचुकी अर्पित कर घर चला गया और फिर वहाँ संताप करने लगा ॥ १३६॥ वह दुखित होकर विलाप करने लगा और कहने लगा कि fear की कमाई ( इस प्रकार ) कु पुरुष ही खाता है। मेरे समान दूसरा कौन कुपुत्र होगा जिसने पिता के भ्रम को इस तरह हारने के लिये लिया हो ॥ १३७॥ आपू -- प्रपित करना | वा पिता । अघोटिज अगोटना रोकना, विना । -- • कमाई हुई पूँजी | पदार्थों से जड़ी हुई थी तथा इसमें पास-पास में मोती जड़े लगी १९३६ ॥ - बीर और जे विढह अर्थ जिला विनंती I घोटिङ जहां | पडिउ संता || " १३८ - १३६ 1 पुरिस गहीर, विवहि अर्थ जाहि पर तौर । भुवेवा करहि ते पुरिस किन जाम ति महि ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy