SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिरगवत चरित जब उसने मालिन की यह बात सुनी तो जिनदत्त अपने मन में कहने लगा, यह बात मैंने व्यर्थ ही पूछी, किन्तु पूछ बैठने पर तो आज इसका दुःख दूर ही करूंगा || २१२ ॥ 190 1 २१४ - २१५ 1 विरलौ न परतिय परिहर, विरल विरलज सामि काजु सयं भीच 1 हा हा फार करह जिमवत रहू रहू माह में रोहि खरी, अर्थ :- विरला ही मनुष्य दूसरे की स्त्री का परित्याग करता है, तथा विरला ही कोई गुण करने पर भी गुण करता है । विरला ही भृत्य स्वामी का कार्य करता है तथा विरला ही द्रुमरे की मौत मरता है ।।२१४ ॥ अवगुण कन्तु गुरंग करई । मरइ पराई मीच ॥ विरल मालिणिस्यों बोलई विहसंत | कां कुष्ठाय महू टोकरी || जिनदत्त हः हः करने लगा तथा मालिन से हँसता हुआ बोला, "हे माता चुप रह चुप रह । इतना अधिक मत रो । हे वृद्धा तू मुझे क्यों कुठा रही है ।। २१५।। 1 मीच भृत्य । मीच मृत्यु | - डोकरी - बुद्धा | [ २१६-२१७ 1 जय महु लवण नोवल चरणु, तहू मह श्रादिनाह जिण प्राणू । कहा पचारहि सूनि काज, कहत घात भयौ तीजी पहरा, तो जिणदत्त भणह विहसाह तुब सुख उन् हम माहिव्व प्राजु || भायो होम हकारज अवरु | सांझी वारु व सेबउ भाइ ।' अर्थ : यदि मैं वृद्धा के चरणों की निंदा करता हूँ, तो मुझे आदिनाथ सौगन्ध है । ( इस प्रकार ) मूर्ख मुझे क्यों व्यर्थ हो ललकार रहे है ?
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy