SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिणवत्त चरित बाद तु कला निमु चंच, नाइ विहार कियर पार्णव । जिरणवह पून मुगिह पयो पम्ह, रिधि जिनदस नाउ सिस धरइ ॥ अर्थ:-सेठ लाम्बूस, सुपारी तथा पान (बीड़े) देने लगा। उसने सूती एवं रेशमी बस्त्र दान में दिये । पुत्र (जन्म) के बघावे. में कोई खोरि (कसरकमी) नहीं रखी । सेठ ने दो करोड़ का मुद्रा) द्वार में दि । चन्द्रमा की कला के समान पुत्र बढ़ने लगा तथा जिन मन्दिर जाकर उसने आनन्दोत्सव मनाया। जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके तह मुनि के चरणों में पड़ा तथा ऋषि (मुनि) ने उसका नाम जिनदत्त रखा । फोफस - पुगफल-सुपारी । पढोल - पट्टफूल-रेशमी वस्त्र । परष दिवस वाढइ जे तडज, दिन दिन विरष करइ ते तडउ । बरष पंच रस को सो उछाह, विज्जा पहरण उन्माउरि नाई मोंकार मपज मनु माणि, मखन यंदु सपक परिवारिग । मुणि व्याकरण विरति कज नाणु, भरह रमायण महापुराणु ॥ अर्थः वर्ष और दिन ज्यों-ज्यो व्यतीत होने लग ब उसमें उतनी ही वृद्धि लाने लगे। जम उसकी १५ वर्ष की अवस्था हुई तो विद्या पड़ने के लिये वह, उपाध्याय कुल (विद्यालय) जाने लगा। सर्व प्रथम उसमें 'ओंकार' शब्द को मन में जाना । फिर लक्षण शास्त्र, छंद शास्त्र तथा तक शास्त्र को प्रमाणित किया (पहा)। व्याकरण जानकर वैराग्य का विषय उसने आना और इस प्रकार भरत (नाट्न शास्त्र) रामायण तथा महापुरगरण का (ज्ञान प्राप्त किया) । उछाइ - उच्छाय-ऊंचाई, अवस्था । विज्जा - विद्या ।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy