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________________ नौने के रूप में । ३४१-३५० । जो भाजद गयवर भडवाह, परिणइ कुमरि वेस प्रधराउ । एतिउ बोलु वावरणइ मुरिणउ, हायटेकि फरिण बोलइ तणाई ।। परि विरुद्ध गयवरु अामाइ, झूठे होह त कोजइ कार । साखो करण ते दिये हारि, सई राजा परिगहु बहसारि ।। अर्थ :--''तथा जो भट उस गजराज को प्रष्ट कर देगा, उसे वह अपनी लड़की परणा देगा तथा प्राधा राज्य देगा।" यह घोषणा बौने ने सुनी, तन्त्र हाथ टेकते हुए उसने यह बात स्वीकार कर ली ।।३४६।। (राजा ने कहा) "यदि तुम हो । बिरस का मू प्रमाणित हो तो हम क्या कर सकेंगे ?" यह सुनकर साक्षी के लिये (बौने ने) हार दिये तब राजा ने उस पर अपना परिग्रह (विश्वास) बिशपा ॥३५०।। परिगह / परिग्रह-ममत्व । नए – विश्वास करना । ३५५-३५ । ३५१-३५२ ] वीतराग को प्राण जु मोहि, पाथइ जाणीव वाहरि । राजासह कौतूहल चला, वाधरण पासि लोगु बहु मिला ।। ठाट विरुद्ध रु गयवरु (ग) हा, सुइरी विजातारणी तहा । देखि हाथ बोलइ जु पचारि, काहि पुर पालिय उजाडि ॥ अर्थ :--मुझे वीतराग भगवान की प्रान (सौगन्ध है यदि मैं) इस कार्य को न कर । राजा स्वयं कौतूहल वश वहाँ गया तथा उस बीने के पाम बहुत से लोग इकट्ठे हो गए ।।३५१।। यह बौना गजराज के सामने जाकर खड़ा हो गया। तारणी विद्या को उसने स्मरण किया। उस हाथी को देखकर वह उसे ललकार कर बोला, "तुमने नगर को क्यों उजाड़ डाला है" ॥३५२।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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